jagdish chandra chouhan's Posts (549)

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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

ऋत्विज़ गण द्वारा स्तुति

श्रीमद भागवतम पंचम स्कन्ध अध्याय तीन

4-5 ऋत्विज-गण इस प्रकार ईश्र्वर की स्तुति करने लगे---हे परम पूज्य, हम आपके दास मात्र हैं। यद्यपि आप पूर्ण हैं, किन्तु अहैतुकी कृपावश ही सही, हम दासों की यत्किंचित सेवा स्वीकार करें। हम आपके दिव्य रूप से परिचित नहीं हैं, किन्तु जैसा वेदों तथा प्रामाणिक आचार्यों ने हमें शिक्षा दी है, उसके अनुसार हम आपको बारंबार नमस्कार करते हैं। जीवात्माएँ प्रकृति के गुणों के प्रति अत्यधिक आकर्षित होती हैं, अतः वे कभी भी पूर्ण नहीं हैं, किन्तु आप समस्त भौतिक अवधारणाओं से परे हैं। आपके नाम, रूप तथा गुण सभी दिव्य हैं और व्यावहारिक बुद्धि की कल्पना के परे हैं। भला आपकी कल्पना कौन कर सकता है? इस भौतिक जगत में हम केवल नाम तथा गुण देख पाते हैं। हम आपको अपना नमस्कार तथा स्तुति अर्पित करने के अतिरिक्त और कुछ भी करने में समर्थ नहीं हैं। आपके शुभ दिव्य गुणों के कीर्तन से समस्त मानव जाति के पाप धुल जाते हैं। यही हमारा परम कर्तव्य है और इस प्रकार हम आपकी अलौकिक स्थिति को अंशमात्र ही जान सकते हैं।

6 हे परमेश्र्वर, आप सभी प्रकार से पूर्ण हैं। जब आपके भक्त गदगद वाणी से आपकी स्तुति करते हैं तथा आह्लादवश तुलसीदल, जल, पल्लव तथा दूब के अंकुर चढ़ाते हैं, तो आप निश्र्चय ही परम संतुष्ट होते हैं।

7 हमने आपकी पूजा में आपको अनेक वस्तुएँ अर्पित की हैं और आपके लिए अनेक यज्ञ किये है, किन्तु हम सोचते हैं कि आपको प्रसन्न करने के लिए इतने सारे आयोजनों की कोई आवश्यकता नहीं है।

8 आप में प्रतिक्षण प्रत्यक्षतया, स्वयमेव, निरंतर एवं असीमत जीवन के समस्त लक्ष्यों एवं ऐश्वर्यों की वृद्धि हो रही है। दरअसल, आप स्वयं ही असीम सुख तथा आनंद से युक्त हैं। हे ईश्र्वर, हम तो सदा ही भौतिक सुखों के फेर में रहते हैं। आपको इन समस्त याज्ञिक आयोजनों की आवश्यकता नहीं है। ये तो हमारे लिए हैं जिससे हम आपका आशीर्वाद पा सकें। ये सारे यज्ञ हमारे अपने कर्मफल के लिए किये जाते हैं और वास्तव में आपको इनकी कोई आवश्यकता ही नहीं है।

9 हे ईशाधश, हम धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष से पूर्णतया अनजान हैं क्योंकि हमें जीवन-लक्ष्य का ठीक से पता नहीं है। आप यहाँ हमारे समक्ष साक्षात इस प्रकार प्रकट हुए हैं जिस प्रकार कोई व्यक्ति जानबूझकर अपनी पूजा कराने के लिए आया हो। किन्तु ऐसा नहीं है, आप तो इसलिए प्रकट हुए हैं जिससे हम आपके दर्शन कर सकें। आप अपनी अगाध तथा अहैतुकी करुणावश हमारा उद्देश्य पूरा करने, हमारा हित करने तथा अपवर्ग का लाभ प्रदान करने हेतु प्रकट हुए हैं। हम अपनी अज्ञानता के कारण आपकी ठीक से उपासना भी नहीं कर पा रहे हैं, तो भी आप पधारे हैं।

10 हे पूज्यतम, आप समस्त वरदायकों में श्रेष्ठ हैं और राजर्षि नाभि की यज्ञशाला में आपका प्राकट्य हमें आशीर्वाद देने के लिए हुआ है। चूँकि हम आपको देख पाये हैं इसलिए आपने हमें सर्वाधिक मूल्यवान वर प्रदान किया है।

11 हे ईश्र्वर, समस्त विचारवान मुनि तथा साधु पुरुष निरंतर आपके दिव्य गुणों का गान करते रहते हैं। इन मुनियों ने अपनी ज्ञान अग्नि से अपार मलराशि को पहले ही दग्ध कर दिया है और इस संसार से अपने वैराग्य को सुदृढ़ किया है। इस प्रकार वे आपके गुणों को ग्रहण कर आत्मतुष्ट हैं। तो भी जिन्हें आपके गुणों के गान में परम आनंद आता है उनके लिए भी आपका दर्शन दुर्लभ है।

12 हे ईश्र्वर, संभव है कि हम कपकपाने, भूखे रहने, गिरने, जम्हाई लेने या ज्वर के कारण मृत्यु के समय शोचनीय रुग्ण अवस्था में रहने के कारण आपके नाम का स्मरण न कर पाएँ। अतः हे ईश्र्वर, हम आपकी स्तुति करते हैं क्योंकि आप भक्तों पर वत्सल रहते हैं। आप हमें अपने पवित्र नाम, गुण तथा कर्म को स्मरण कराने में सहायक हों जिससे हमारे पापी जीवन के सभी पाप दूर हो जाँय।

13 हे ईश्र्वर, आपके समक्ष ये महाराज नाभि हैं जिनके जीवन का परम लक्ष्य आपके ही समान पुत्र प्राप्त करना है। हे भगवन, उसकी स्थिति उस व्यक्ति जैसी है, जो एक अत्यंत धनवान पुरुष के पास थोड़ा सा अन्न मांगने के लिए जाता है। पुत्रेच्छा से ही वे आपकी उपासना कर रहे हैं यद्यपि आप उन्हें कोई भी उच्चस्थ पद प्रदान कर सकने में समर्थ हैं--चाहे वह स्वर्ग हो या भगवदधाम का मुक्ति-लाभ।

14 हे ईश्र्वर, जब तक मनुष्य परम भक्तों के चरणकमलों की उपासना नहीं करता, तब तक उसे माया परास्त करती रहेगी और उसकी बुद्धि मोहग्रस्त बनी रहेगी। दरअसल, ऐसा कौन है जो विष तुल्य भौतिक सुख की तरंगों में न बहा हो! आपकी माया दुर्जेय है। न तो इस माया के पथ को कोई देख सकता है, न इसकी कार्य-प्रणाली को ही कोई बता सकता है।

15 हे ईश्र्वर, आप अनेक अद्भुत कार्य कर सकने में समर्थ हैं। इस यज्ञ के करने का हमारा एकमात्र लक्ष्य पुत्र प्राप्त करना था, अतः हमारी बुद्धि अधिक प्रखर नहीं है। हमें जीवन-लक्ष्य निर्धारित करने का कोई अनुभव नहीं है। निस्संदेह भौतिक लक्ष्य की प्राप्ति हेतु किये गये इस तुच्छ यज्ञ में आपको आमंत्रित करके हमने आपके चरणकमलों में महान पाप किया है। अतः हे सर्वेश, आप अपनी अहैतुकी कृपा तथा समदृष्टि के कारण हमें क्षमा करें।

(समर्पित एवं सेवारत जे.सी.चौहान)

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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः 

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

प्रचेताओं द्वारा स्तुति

श्रीमद भागवतम चतुर्थ स्कन्ध अध्याय तीस

21 मैत्रेय ऋषि ने कहा: भगवान के इस प्रकार कहने पर प्रचेताओं ने उनकी प्रार्थना की। भगवान जीवन की समस्त सिद्धियों को देने वाले और परम कल्याणकर्ता हैं। वे परम मित्र भी हैं, क्योंकि वे भक्तो के समस्त कष्टों को हरते हैं। प्रचेताओं ने आनंदातिरेक से गदगद वाणी में प्रार्थना करनी प्रारम्भ की। वे भगवान का साक्षात दर्शन करने से शुद्ध हो गये।

22 प्रचेताओं ने कहा: हे भगवन, आप समस्त प्रकार के क्लेशों को हरने वाले हैं। आपके उदार दिव्य गुण तथा पवित्र नाम कल्याणप्रद हैं। इसका निर्णय पहले ही हो चुका है। आप मन तथा वाणी से भी अधिक वेग से जा सकते हैं। आप भौतिक इंद्रियों द्वारा नहीं देखे जा सकते। अतः हम आपको बारंबार नमस्कार करते हैं।

23 हे भगवन, हम आपको प्रणाम करने की याचना करते हैं। जब मन आप में स्थिर होते हैं, तो यह द्वैतपूर्ण संसार भौतिक सुख का स्थान होते हुए भी व्यर्थ प्रतीत होता है। आपका दिव्य रूप दिव्य आनंद से पूर्ण है। अतः हम आपका अभिवादन करते हैं। ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के रूप में आपका प्राकट्य इस दृश्य जगत की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के उद्देश्य से होता है।

24 हे भगवन, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं, क्योंकि आपका अस्तित्व समस्त भौतिक प्रभावों से पूर्णतया स्वतंत्र है। आप सदैव अपने भक्तों के क्लेशों को हर लेते हैं, क्योंकि आपका मस्तिष्क जानता है कि ऐसा किस प्रकार करना चाहिए। आप परमात्मा रूप में सर्वत्र रहते हैं। अतः आप वासुदेव कहलाते हैं। आप वसुदेव को अपना पिता मानते हैं और आप कृष्ण नाम से विख्यात हैं। आप इतने दयालु हैं कि अपने समस्त प्रकार के भक्तों के प्रभाव को बढ़ाते हैं।

25 हे भगवन, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं, क्योंकि आपकी ही नाभि से कमल पुष्प निकलता है, जो समस्त जीवों का उद्गम है। आप सदैव कमल की माला से सुशोभित रहते हैं और आपके चरण सुगंधित कमल पुष्प के समान हैं। आपके नेत्र भी कमल पुष्प की पंखड़ियों के सदृश हैं, अतः हम आपको सदा ही सादर नमस्कार करते हैं।

26 हे भगवन, आपके द्वारा धारण किया गया वस्त्र कमल पुष्प के केसर के समान पीले रंग का है, किन्तु यह किसी भौतिक पदार्थ का बना हुआ नहीं है। प्रत्येक हृदय में निवास करने के कारण आप समस्त जीवों के समस्त कार्यों के प्रत्यक्ष साक्षी हैं। हम आपको पुनः पुनः सादर नमस्कार करते हैं।

27 हे भगवन, हम बद्धजीव देहात्मबुद्धि के कारण सदैव अज्ञान से घिरे रहते हैं, अतः हमें भौतिक जगत के क्लेश ही सदैव प्रिय लगते हैं। इन क्लेशों से हमारा उद्धार करने के लिए ही आपने इस दिव्य रूप में अवतार लिया है। यह हम-जैसे कष्ट भोगने वालों पर आपकी अनंत अहैतुकी कृपा का प्रमाण है। तो फिर उन भक्तों के विषय में क्या कहें जिनके प्रति आप सदैव कृपालु रहते हैं?

28 हे भगवन, आप समस्त अमंगल के विनाशकर्ता हैं। आप अपने अर्चा-विग्रह विस्तार के द्वारा अपने दीन भक्तों पर दया करने वाले हैं। आप हम सबों को अपना शाश्र्वत दास समझें।

29 जब भगवान अपनी सहज दयाभाव से अपने भक्त के विषय में सोचते हैं तो उस विधि से ही नवदीक्षित भक्तों की सारी इच्छाएँ पूर्ण होती हैं। जीव के अत्यंत तुच्छ होने पर भी भगवान प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित हैं। भगवान जीव के संबंध में प्रत्येक बात, यहाँ तक कि उसकी समस्त इच्छाओं, को भी जानते रहते हैं। यद्यपि हम अत्यंत तुच्छ जीव हैं फिर भी भगवान हमारी इच्छाओं को क्यों नहीं जानेंगे?

30 हे जगत के स्वामी, आप भक्तियोग के वास्तविक शिक्षक हैं। हमें संतोष है कि हमारे जीवन के परमलक्ष्य आप हैं और हम प्रार्थना करते हैं कि आप हम पर प्रसन्न हों। यही हमारा अभीष्ट वर है। हम आपकी पूर्ण प्रसन्नता के अतिरिक्त और कुछ भी कामना नहीं करते।

31 अतः हे स्वामी, हम आपसे वर देने के लिए प्रार्थना करेंगे, क्योंकि आप समस्त दिव्य प्रकृति से परे हैं और आपके ऐश्वर्यों का कोई अंत नहीं है। अतः आप अनंत नाम से विख्यात हैं।

32 हे स्वामी, जब भौंरा दिव्य पारिजात वृक्ष के निकट पहुँच जाता है, तो वह उसे कभी नहीं छोड़ता क्योंकि उसे ऐसा करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। इसी प्रकार जब हमने आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण की है, तो हमें और क्या वर मांगने की आवश्यकता है?

33 हे स्वामी, हमारी प्रार्थना है कि जब तक हम अपने सांसारिक कल्मष के कारण इस संसार में रहें और एक शरीर से दूसरे में तथा एक लोक से दूसरे लोक में घूमते रहे, तब तक हम उनकी संगति में रहें जो आपकी लीलाओं की चर्चा करने में लगे रहते हैं। हम जन्म-जन्मांतर विभिन्न शारीरिक रूपों में और विभिन्न लोकों में इसी वर के लिए प्रार्थना करते हैं।

34 एक क्षण की भी शुद्ध भक्त की संगति के सामने स्वर्गलोक जाने अथवा पूर्ण मोक्ष पाकर ब्रह्मतेज (कैवल्य) की कोई तुलना नहीं की जा सकती है। शरीर को त्याग कर मरने वाले जीवों के लिए सर्वश्रेष्ठ वर तो शुद्ध भक्तों की संगति है।

35 जब भी दिव्य लोक की कथाओं की चर्चा चलती है, श्रोतागण, भले ही क्षण-भर के लिए क्यों न हो, समस्त भौतिक तृष्णाएँ भूल जाते हैं। यही नहीं, आगे से वे एक दूसरे से न तो वैर करते हैं, न किसी कुंठा या भय से ग्रस्त होते हैं।

36 जहाँ भक्तों के बीच भगवान के पवित्र नाम का श्रवण तथा कीर्तन चलता रहता है, वहाँ भगवान नारायण उपस्थित रहते हैं। संन्यासियों के चरम लक्ष्य भगवान नारायण ही हैं और नारायण की पूजा उन व्यक्तियों द्वारा इस संकीर्तन आंदोलन के माध्यम से की जाती है, जो भौतिक कल्मष से मुक्त हो चुके हैं। वे बारंबार भगवान के पवित्र नाम का उच्चारण करते हैं।

37 हे भगवन, आपके पार्षद तथा भक्त संसार-भर में तीर्थस्थानों तक को पवित्र करने के लिए भ्रमण करते रहते हैं। जो इस संसार से भयभीत हैं, क्या ऐसा कार्य इन सबके लिए रुचिकर नहीं होता?

38 हे भगवन, हम भाग्यशाली हैं कि आपके अत्यंत प्रिय तथा अभिन्न मित्र शिवजी की क्षणमात्र की संगति से हम आपको प्राप्त कर सके हैं। आप इस संसार के असाध्य रोग का उपचार करने में समर्थ सर्वश्रेष्ठ वैद्य हैं। हमारा सौभाग्य था कि हमें आपके चरणकमलों का आश्रय प्राप्त हो सका।

39-40 हे भगवन, हमने वेदों का अध्ययन किया है, गुरु बनाया है और ब्राह्मणों, भक्तों तथा आध्यात्मिक दृष्टि से अत्यधिक उन्नत वरिष्ठ पुरुषों को सम्मान प्रदान किया है। हमने अपने किसी भी भाई, मित्र या अन्य किसी से ईर्ष्या नहीं की। हमने जल के भीतर रहकर कठिन तपस्या भी की है और दीर्घकाल तक भोजन ग्रहण नहीं किया। हमारी ये सारी आध्यात्मिक संपदाएँ आपको प्रसन्न करने के लिए सादर समर्पित हैं। हम आपसे केवल यही वर मांगते हैं, अन्य कुछ भी नहीं।

41 हे भगवन, तप तथा ज्ञान के कारण सिद्धिप्राप्त बड़े-बड़े योगी तथा शुद्ध सत्व में स्थित लोगों के साथ-साथ मनु, ब्रह्मा तथा शिव जैसे महापुरुष भी आपकी महिमा तथा शक्तियों को पूरी तरह नहीं समझ पाते। फिर भी वे यथाशक्ति आपकी प्रार्थना करते हैं। उसी प्रकार हम इन महापुरुषों से काफी क्षुद्र होते हुए भी अपने सामर्थ्य के अनुसार प्रार्थना कर रहे हैं।

42 हे भगवन, आपके न तो शत्रु हैं न मित्र। अतः आप सबों के लिए समान हैं। आप पापकर्मों के द्वारा कलुषित नहीं होते और आपका दिव्य रूप सदैव भौतिक सृष्टि से परे है। आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं, क्योंकि आप सर्वव्यापी हैं, अतः आप वासुदेव कहलाते है। हम आपको सादर नमस्कार करते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत जे.सी.चौहान)

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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः 

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

शिवजी द्वारा स्तुति

श्रीमद भागवतम चतुर्थ स्कन्ध अध्याय चौबीस

32 महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा: भगवान नारायण के परम भक्त महापुरुष शिवजी अहैतुकी कृपावश हाथ जोड़कर खड़े हुए राजा के पुत्रों से कहते रहे।

33 शिवजी ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की इस प्रकार स्तुति की: हे भगवान, आप धन्य हैं। आप सभी स्वरूपसिद्धों में महान हैं चूँकि आप उनका सदैव कल्याण करने वाले हैं, अतः आप मेरा भी कल्याण करें। आप अपने सर्वात्मक उपदेशों के कारण पूज्य हैं। आप परमात्मा हैं, अतः पुरुषोत्तम स्वरूप आपको मैं नमस्कार करता हूँ।

34 हे भगवान, आपकी नाभि से कमल पुष्प निकलता है, इस प्रकार से आप सृष्टि के उद्गम हैं। आप इंद्रियों तथा तन्मात्राओं के नियामक हैं। आप सर्वव्यापी वासुदेव भी हैं। आप परम शांत हैं और स्वयंप्रकाशित होने के कारण आप छह प्रकार के विकारों से विचलित नहीं होते।

35 हे भगवान, आप सूक्ष्म भौतिक तत्त्वों के उद्गम, समस्त संघटन और संहार के स्वामी, संकर्षण नामक अधिष्ठाता तथा समस्त बुद्धि के अधिष्ठाता प्रद्युम्न हैं। अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

36 हे परम अधिष्ठाता अनिरुद्ध रूप भगवान, आप इंद्रियों तथा मन के स्वामी हैं। अतः मैं आपको बारंबार नमस्कार करता हूँ। आप अनंत तथा साथ ही साथ संकर्षण कहलाते हैं, क्योंकि अपने मुख से निकलने वाली धधकती हुई अग्नि से आप सारी सृष्टि का संहार करने में समर्थ हैं।

37 हे भगवान अनिरुद्ध, आपके आदेश से स्वर्ग तथा मोक्ष के द्वार खुलते हैं। आप निरंतर जीवों के शुद्ध हृदय में निवास करते हैं, अतः मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप स्वर्ण सदृश वीर्य के स्वामी हैं और इस प्रकार आप अग्नि रूप में चातुर्होत्र इत्यादि वैदिक यज्ञों में सहायता करते हैं। अतः मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

38 हे भगवन, आप पितृलोक तथा सभी देवताओं के भी पोषक हैं। आप चंद्रमा के प्रमुख श्रीविग्रह और तीनों वेदों के स्वामी हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ, क्योंकि आप समस्त जीवात्माओं की तृप्ति के मूल स्त्रोत हैं।

39 हे भगवान, आप विराट स्वरूप हैं जिसमें समस्त जीवात्माओं के शरीर समाहित हैं। आप तीनों लोकों के पालक हैं, फलतः आप मन, इंद्रियों, शरीर तथा प्राण का पालन करनेवाले हैं। अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

40 हे भगवान, आप अपनी दिव्य वाणी (शब्दों) को प्रसारित करके प्रत्येक वस्तु का वास्तविक अर्थ प्रकट करने वाले हैं। आप भीतर-बाहर सर्वव्याप्त आकाश हैं और इस लोक में तथा इससे परे किये जाने वाले समस्त पुण्यकर्मों के परम लक्ष्य हैं। अतः मैं आपको पुनः पुनः नमस्कार करता हूँ।

41 हे भगवान, आप पुण्यकर्मों के फलों के दृष्टा हैं। आप प्रवृत्ति, निवृत्ति तथा उनके कर्म-रूपी परिणाम (फल) हैं। आप अधर्म से जनित जीवन के दुखों के कारणस्वरूप हैं, अतः आप मृत्यु हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

42 हे भगवान, आप आशीर्वादों के समस्त प्रदायकों में सर्वश्रेष्ठ, सबसे प्राचीन तथा समस्त भोक्ताओं में परम भोक्ता हैं। आप समस्त सांख्य योग-दर्शन के अधिष्ठाता हैं। आप समस्त कारणों के कारण भगवान कृष्ण हैं। आप सभी धर्मों में श्रेष्ठ हैं, आप परम मन हैं और आपका मस्तिष्क (बुद्धि) ऐसा है, जो कभी कुंठित नहीं होता। अतः मैं आपको बारंबार नमस्कार करता हूँ।

43 हे भगवान, आप कर्ता, करण और कर्म--इन तीनों शक्तियों के नियामक हैं। अतः आप शरीर, मन तथा इंद्रियों के परम नियंता हैं। आप अहंकार के परम नियंता रुद्र भी हैं। आप वैदिक आदेशों के ज्ञान तथा उनके अनुसार किए जाने वाले कर्मों के स्रोत हैं।

44 हे भगवान, मैं आपको उस रूप में देखने का इच्छुक हूँ, जिस रूप में आपके अत्यंत प्रिय भक्त आपकी पूजा करते हैं। आपके अन्य अनेक रूप हैं, किन्तु मैं तो उस रूप का दर्शन करना चाहता हूँ जो भक्तों को विशेष रूप से प्रिय है। आप मुझ पर अनुग्रह करें और मुझे वह स्वरूप दिखलाएँ, क्योंकि जिस रूप की भक्त पूजा करते हैं वही इंद्रियों की इच्छाओं को पूरा कर सकता है।

45-46 भगवान की सुंदरता वर्षाकालीन श्याम मेघों के समान है। उनके शारीरिक अंग वर्षा जल के समान चमकीले हैं। दरअसल, वे समस्त सौन्दर्य के समष्टि (सारसर्वस्व) हैं। भगवान की चार भुजाएँ हैं, सुंदर मुख है और उनके नेत्र कमलदलों के तुल्य हैं। उनकी नाक उन्नत, उनकी हँसी मोहने वाली, उनका मस्तक सुंदर तथा उनके कान सुंदर और आभूषणों से सज्जित हैं।

47-48 भगवान अपने मुक्त तथा दयापूर्ण हास्य तथा भक्तों पर तिरछी चितवन के कारण अनुपम सुंदर लगते हैं। उनके बाल काले तथा घुँघराले हैं। हवा में उड़ता उनका वस्त्र कमल के फूलों में से उड़ते हुए केशर-रज के समान प्रतीत होता है। उनके झलमलाते कुंडल, चमचमाता मुकुट, कंकण, बनमाला, नूपुर, करधनी तथा शरीर के अन्य आभूषण शंख, चक्र, गदा तथा कमल पुष्प से मिलकर उनके वक्षस्थल पर पड़ी कौस्तुभमणि की प्राकृतिक शोभा को बढ़ाते हैं।

49 भगवान के कंधे सिंह के समान हैं। इन पर मालाएँ, हार एवं घुँघराले बाल पड़े हैं, जो सदैव झिलमिलाते रहते हैं। इनके साथ ही साथ कौस्तुभमणि की सुंदरता है और भगवान के श्याम वक्षस्थल पर श्रीवत्स की रेखाएँ हैं, जो लक्ष्मी के प्रतीक हैं। इन सुवर्ण रेखाओं की चमाहट सुवर्ण कसौटी पर बनी सुवर्ण लकीरों से कहीं अधिक सुंदर है। दरअसल ऐसा सौन्दर्य सुवर्ण कसौटी को मात करने वाला है।

50 भगवान का उदर (पेट) त्रिवली के कारण सुंदर लगता है। गोल होने के कारण उनका उदर वटवृक्ष के पत्ते के समान जान पड़ता है और जब वे श्र्वास-प्रश्र्वास लेते हैं, तो इन सलवटों का हिलना-जुलना अत्यंत सुंदर प्रतीत होता है। भगवान की नाभि के भीतर की कुण्डली इतनी गहरी है मानो सारा ब्रह्मांड उसी में से उत्पन्न हुआ हो और पुनः उसी में समा जाना चाहता हो।

51 भगवान की कटि का अधोभाग श्यामल रंग का है और पीताम्बर से ढका है। उसमें सुनहली, जरीदार करधनी है। उनके एक समान चरणकमल, पिंडलियाँ, जाँघें तथा घुटने अनुपम सुंदर हैं। निस्संदेह, भगवान का सम्पूर्ण शरीर अत्यंत सुडौल प्रतीत होता है।

52 हे भगवन, आपके दोनों चरणकमल इतने सुंदर हैं मानो शरत ऋतु में उगने वाले कमल पुष्प के खिलते हुए दो दल हों। दरअसल आपके चरणकमलों के नाखूनों से इतना तेज निकलता है कि वह बद्ध जीव के सारे अंधकार को तुरंत छिन्न कर देता है। हे स्वामी, मुझे आप अपना वह स्वरूप दिखलायेँ जो किसी भक्त के हृदय के अंधकार को नष्ट कर देता है। मेरे भगवन, आप सबों के परम गुरु हैं, अतः आप जैसे गुरु के द्वारा अज्ञान के अंधकार से आवृत सारे बद्धजीव प्रकाश प्राप्त कर सकते हैं।

53 हे भगवन, जो लोग अपने जीवन को परिशुद्ध बनाना चाहते हैं, उन्हें उपर्युक्त विधि से आपके चरणकमलों का ध्यान करना चाहिए। जो अपने वर्ण के अनुरूप कार्य को पूरा करने की धुन में हैं और जो भय से मुक्त होना चाहते हैं, उन्हें भक्तियोग की इस विधि का अनुसरण करना चाहिए।

54 हे भगवन, स्वर्ग का राजा इन्द्र भी जीवन के परम लक्ष्य--भक्ति--को प्राप्त करने का इच्छुक रहता है। इसी प्रकार जो अपने को आपसे अभिन्न मानते हैं (अहं ब्रह्मास्मि), उनके भी एकमात्र लक्ष्य आप ही हैं। किन्तु आपको प्राप्त कर पाना उनके लिए अत्यंत कठिन है जबकि भक्त सरलता से आपको पा सकता है।

55 हे भगवन, शुद्ध भक्ति कर पाना तो मुक्त पुरुषों के लिए भी कठिन है, किन्तु आप हैं कि एकमात्र भक्ति से ही प्रसन्न हो जाते हैं। अतः जीवन-सिद्धि का इच्छुक ऐसा कौन होगा जो आत्म-साक्षात्कार की अन्य विधियों को अपनाएगा?

56 उनके भृकुटि--विस्तार--मात्र से जो दुर्जेय काल तत्क्षण सारे ब्रह्मांड का संहार कर सकता है, वही दुर्जेय काल आपके चरणकमलों की शरण में गये भक्त के निकट तक नहीं पहुँच पाता।

57 संयोग से भी यदि कोई क्षण भर के लिए भक्त की संगति पा जाता है, तो उसे कर्म और ज्ञान के फलों का तनिक भी आकर्षण नहीं रह जाता। तब उन देवताओं के वरदानो में उसके लिए रखा ही क्या है, जो जीवन और मृत्यु के नियमों के अधीन हैं?

58 हे भगवन, आपके चरणकमल समस्त कल्याण के कारण हैं और समस्त पापों के कल्मष को विनष्ट करने वाले हैं। अतः मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप मुझे अपने भक्तों की संगति का आशीर्वाद दें, क्योंकि आपके चरणकमलों की पूजा करने से वे पूर्णतया शुद्ध हो चुके हैं और बद्धजीवों पर अत्यंत कृपालु हैं। मेरी समझ में तो आपका असली आशीर्वाद यही होगा कि आप मुझे ऐसे भक्तों की संगति करने की अनुमति दें।

59 जिसका हृदय भक्तियोग से पूर्णरूप से पवित्र हो चुका हो तथा जिस पर भक्ति देवी की कृपा हो, ऐसा भक्त कभी भी अंधकूप सदृश माया द्वारा मोहग्रस्त नहीं होता। इस प्रकार समस्त भौतिक कल्मष से रहित होकर ऐसा भक्त आपके नाम, यश, स्वरूप, कार्य इत्यादि को अत्यंत प्रसन्नतापूर्वक समझ सकता है।

60 हे भगवन, निर्गुण ब्रह्म सूर्य के प्रकाश अथवा आकाश की भाँति सर्वत्र फैला हुआ है और जो सारे ब्रह्मांड भर में फैला है तथा जिसमें सारा ब्रह्मांड दिखाई देता है, वह निर्गुण ब्रह्म आप ही हैं।

61 हे भगवन, आपकी शक्तियाँ अनेक हैं और वे नाना रूपों में प्रकट होती हैं। आपने ऐसी ही शक्तियों से इस दृश्य जगत की उत्पत्ति की है और यद्यपि आप इसका पालन इस प्रकार करते हैं मानो यह चिरस्थायी हो, किन्तु अंत में आप इसका संहार कर देते हैं। यद्यपि आप कभी भी ऐसे परिवर्तनों द्वारा विचलित नहीं होते, किन्तु जीवात्माएँ इनसे विचलित होती रहती हैं, इसलिए वे इस दृश्य जगत को आपसे भिन्न अथवा पृथक मानती हैं। हे भगवन, आप सर्वदा स्वतंत्र हैं और मैं तो इसे प्रत्यक्ष देख रहा हूँ।

62 हे भगवन, आपका विराट रूप, इंद्रियों, मन, बुद्धि, अहंकार (जो भौतिक हैं) तथा आपके अंश रूप सर्व नियामक परमात्मा इन सभी पाँच तत्त्वों से बना है। भक्तों के अतिरिक्त अन्य योगी-यथा कर्मयोगी तथा ज्ञानयोगी--अपने-अपने पदों में अपने-अपने कार्यों द्वारा आपकी पूजा करते हैं। वेदों में तथा शास्त्रों में जो वेदों के निष्कर्ष हैं, कहा गया है कि केवल आप ही पूज्य हैं। सभी वेदों का यही अभिमत है।

63 हे भगवन, आप कारणों के कारण एकमात्र परम पुरुष हैं। इस भौतिक जगत की सृष्टि के पूर्व आपकी भौतिक शक्ति सुप्त रहती है, किन्तु जब आपकी शक्ति गतिमान होती है, तो आपके तीनों गुण—सत्त्व, रज तथा तमो गुण---क्रिया करते हैं। फलस्वरूप समष्टि भौतिक शक्ति अर्थात अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी तथा विभिन्न देवता एवं ऋषिगण प्रकट होते हैं। इस प्रकार भौतिक जगत की उत्पत्ति होती है।

64 हे भगवन, आप अपनी शक्तियों के द्वारा सृष्टि कर लेने के बाद सृष्टि में चार रूपों में प्रवेश करते हैं। आप जीवों के अन्तःकरण में स्थित होने के कारण उन्हें जानते हैं और यह भी जानते हैं कि वे किस प्रकार इंद्रिय-भोग कर रहे हैं। इस भौतिक जगत का तथाकथित सुख ठीक वैसा ही है जैसा कि शहद के छत्ते में मधु एकत्र होने के बाद मधुमक्खी द्वारा उसका आस्वाद।

65 हे भगवन, आपकी परम सत्ता का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं किया जा सकता, किन्तु संसार की गतिविधियों को देखकर कि समय आने पर सब कुछ विनष्ट हो जाता है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। काल का वेग अत्यंत प्रचंड है और प्रत्येक वस्तु किसी अन्य वस्तु के द्वारा विनष्ट होती जा रही है---जैसे एक पशु दूसरे पशु द्वारा निगल लिया जाता है। काल प्रत्येक वस्तु को उसी प्रकार तितर-बितर कर देता है, जिस प्रकार आकाश में बादलों को वायु छिन्न-भिन्न कर देती है।

66 हे भगवन, इस संसार के सारे प्राणी कुछ--कुछ योजना बनाने में पागल हैं तथा यह या वह करते रहने की इच्छा से काम में जुटे रहते हैं। अनियंत्रित लालच के कारण यह सब होता है। जीवात्मा में भौतिक सुख की लालसा सदैव बनी रहती है, किन्तु आप नित्य सतर्क रहते हैं और समय आने पर आप उस पर उसी प्रकार टूट पड़ते हैं जिस प्रकार सर्प चूहे पर झपटता है और आसानी से निगल जाता है।

67 हे भगवन, कोई भी विद्वान पुरुष जानता है कि आपकी पूजा के बिना सारा जीवन व्यर्थ है। भला यह जानते हुए वह आपके चरणकमलों की उपासना क्यों त्यागेगा? यहाँ तक कि हमारे गुरु तथा पिता ब्रह्मा ने बिना किसी भेदभाव के आपकी आराधना की और चौदहों मनुओं ने उनका अनुसरण किया।

68 हे भगवन, जो वास्तव में विद्वान मनुष्य हैं, वे सभी आपको परब्रह्म एवं परमात्मा के रूप में जानते हैं। यद्यपि सारा ब्रह्मांड भगवान रुद्र से भयभीत रहता है, क्योंकि वे अंततः प्रत्येक वस्तु को नष्ट करने वाले हैं, किन्तु विद्वान भक्तों के लिए आप निर्भय आश्रय हैं।

69 हे राजपुत्रों, तुम लोग विशुद्ध हृदय से राजाओं की भांति अपने-अपने नियत कर्म करते रहो। भगवान के चरणकमलों पर अपने मन को स्थिर करते हुए इस स्तुति (स्तोत्र) का जप करो। इससे तुम्हारा कल्याण होगा, क्योंकि इससे भगवान तुम पर अत्यधिक प्रसन्न होंगे।

70-75 अतः हे राजकुमारों, भगवान सबके हृदयों में स्थित हैं। वे तुम लोगों के भी हृदयों में हैं, अतः भगवान की महिमा का जप करो और निरंतर उसी का ध्यान करो। हे राजपुत्रों, मैंने स्तुति के रूप में तुम्हें पवित्र नाम-जप की योगपद्धति बतला दी है। तुम सब इस स्तोत्र को अपने मनों में धारण करते हुए इस पर दृढ़ रहने का व्रत लो जिससे तुम महान मुनि बन सको। तुम्हें चाहिए कि मुनि की भाँति मौन धारण करके तथा ध्यानपूर्वक एवं आदर सहित इसका पालन करो। सर्वप्रथम समस्त प्रजापतियों के स्वामी ब्रह्मा ने हमें यह स्तुति सुनायी थी। भृगु आदि प्रजापतियों को भी इसी स्तोत्र की शिक्षा दी गई थी, क्योंकि वे संतानोत्पत्ति करना चाह रहे थे। जब ब्रह्मा द्वारा हम सब प्रजापतियों को प्रजा उत्पन्न करने का आदेश हुआ तो हमने भगवान की प्रशंसा में इस स्तोत्र का जप किया जिससे हम समस्त अविद्या से पूरी तरह से मुक्त हो गये। इस तरह हम विविध प्रकार के जीवों की उत्पत्ति कर पाये। भगवान कृष्ण के भक्त जिसका मन सदैव उन्हीं में लीन रहता है और जो अत्यंत ध्यान तथा आदरपूर्वक इस स्तोत्र का जप करता है, शीघ्र ही जीवन की परम सिद्धि प्राप्त होगी। इस संसार में उपलब्धि के अनेक प्रकार हैं, किन्तु इन सबों में ज्ञान की उपलब्धि सर्वोपरि मानी जाती है, क्योंकि ज्ञान की नौका में आरूढ़ होकर ही अज्ञान के सागर को पार किया जा सकता है। अन्यथा यह सागर दुस्तर है।

76-79  यद्यपि भगवान की भक्ति करना एवं उनकी पूजा करना अत्यंत कठिन है, किन्तु यदि कोई मेरे द्वारा रचित एवं गाये गये इस स्तोत्र को केवल पाठ करता है, तो वह सरलतापूर्वक भगवान की कृपा प्राप्त कर सकता है। समस्त शुभ आशीर्वादों में से सर्वप्रिय वस्तु भगवान हैं। जो मनुष्य मेरे द्वारा गाये गये इस गीत को गाता है, वह भगवान को प्रसन्न कर सकता है। ऐसा भक्त भगवान की भक्ति में स्थिर होकर परमेश्र्वर से मनवांछित फल प्राप्त कर सकता है। जो भक्त प्रातःकाल उठकर हाथ जोड़कर शिवजी के द्वारा गाई गई इस स्तुति का जप करता है और अन्यों को सुनाता है, वह निश्र्चय ही समस्त कर्मबंधनों से मुक्त हो जाता है।

(समर्पित एवं सेवारत जे.सी.चौहान)

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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

पृथु महाराज द्वारा स्तुति

श्रीमद भागवतम चतुर्थ स्कन्ध अध्याय बीस

23 इस प्रकार राजा ने निम्नलिखित स्तुतियाँ अर्पित कीं। हे प्रभो, आप वर देने वाले देवों में सर्वश्रेष्ठ हैं। अतः कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति आपसे ऐसे वर क्यों माँगेगा जो प्रकृति के गुणों से मोहग्रस्त जीवात्माओं के निमित्त हैं? ऐसे वरदान तो नरक में वास करने वाली जीवात्माओं को भी अपने जीवन-काल में स्वतः प्राप्त होते रहते हैं। हे भगवन, आप निश्र्चित ही अपने साथ तादात्म्य प्रदान कर सकते हैं। किन्तु मैं ऐसा वर नहीं चाहता।

24 हे भगवान, मैं आपसे तादात्म्य के वर की इच्छा नहीं करता, क्योंकि इसमें आपके चरणकमलों का अमृत रस नहीं है। मैं तो दस लाख कान प्राप्त करने का वर माँगता हूँ जिससे मैं आपके शुद्ध भक्तों के मुखारविंदों से आपके चरणकमलों की महिमा का गान सुन सकूँ।

25 हे भगवान, महान पुरुष आपका महिमा-गान उत्तम श्र्लोकों द्वारा करते हैं। आपके चरणकमलों की प्रशंसा केसर कणों के समान है। जब महापुरुषों के मुखों से निकली दिव्य वाणी आपके चरणकमलों की केसर-धूलि की सुगंध का वहन करती है, तो विस्मृत जीवात्मा आपसे अपने संबंध को स्मरण करता है। इस प्रकार भक्तगण क्रमशः जीवन के वास्तविक मूल्य को समझ पाते हैं। अतः हे भगवान, मैं आपके शुद्ध भक्त के मुख से आपके विषय में सुनने का अवसर प्राप्त करने के अतिरिक्त किसी अन्य वर की कामना नहीं करता।

26 हे अत्यंत कीर्तिमय भगवान, यदि कोई शुद्ध भक्तों की संगति में रहकर आपके कार्यकलापों की कीर्ति का एक बार भी श्रवण करता है, तो जब तक कि वह पशु तुल्य न हो, वह भक्तों की संगति नहीं छोड़ता, क्योंकि कोई भी बुद्धिमान पुरुष ऐसा करने की लापरवाही नहीं करेगा। आपकी महिमा के कीर्तन और श्रवण की पूर्णता तो धन की देवी लक्ष्मीजी द्वारा तक स्वीकार की गई थीं जो आपके अनंत कार्यकलापों तथा दिव्य महिमा को सुनने की इच्छुक रहती थीं।

27 अब मैं भगवान के चरणकमलों की सेवा में संलग्न रहना और कमलधारिणी लक्ष्मीजी के समान सेवा करना चाहता हूँ, क्योंकि भगवान समस्त दिव्य गुणों के आगार हैं। मुझे भय है कि लक्ष्मीजी तथा मेरे बीच झगड़ा छिड़ जाएगा, क्योंकि हम दोनों एक ही सेवा में एकाग्र भाव से लगे होंगे।

28 हे जगदीश्र्वर, लक्ष्मीजी विश्र्व की माता हैं, तो भी मैं सोचता हूँ कि उनकी सेवा में हस्तक्षेप करने तथा उसी पद पर जिसके प्रति वे इतनी आसक्त हैं कार्य करने से, वे मुझसे क्रुद्ध हो सकती हैं। फिर भी मुझे आशा है कि इस भ्रम के होते हुए भी आप मेरा पक्ष लेंगे क्योंकि आप दीनवत्सल हैं और भक्त की तुच्छ सेवाओं को भी बहुत करके मानते हैं। अतः यदि वे रुष्ट भी हो जाँय तो आपको कोई हानि नहीं होगी, क्योंकि आप आत्मनिर्भर हैं, अतः उनके बिना भी आपका काम चल सकता है।

29 बड़े-बड़े साधु पुरुष जो सदा ही मुक्त रहते हैं, आपकी भक्ति करते हैं, क्योंकि भक्ति के द्वारा ही इस संसार के मोहों से छुटकारा पाया जा सकता है। हे भगवन, मुक्त जीवों द्वारा आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करने का एकमात्र कारण यही हो सकता है कि ऐसे जीव आपके चरणकमलों का निरंतर ध्यान धरते हैं।

30 हे भगवन, आपने अपने विशुद्ध भक्त से जो कुछ कहा है, वह निश्र्चय ही अत्यंत मोह में डालने वाला है। आपने वेदों में जो लालच दिये हैं, वे शुद्ध भक्तों के लिए उपयुक्त नहीं हैं। सामान्य लोग वेदों की अमृतवाणी से बंधकर कर्मफल से मोहित होकर पुनः पुनः सकाम कर्मों में लगे रहते हैं।

31 हे भगवन, आपकी माया के कारण इस भौतिक जगत के सभी प्राणी अपनी वास्तविक स्वाभाविक स्थिति भूल गये हैं और वे अज्ञानवश समाज, मित्रता तथा प्रेम के रूप में निरंतर भौतिक सुख की कामना करते हैं। अतः आप मुझे किसी प्रकार का भौतिक लाभ माँगने के लिए न कहें, बल्कि जिस प्रकार पिता अपने पुत्र द्वारा माँगने की प्रतीक्षा किये बिना उसके कल्याण के लिए सब कुछ करता है, उसी प्रकार से आप भी जो मेरे हित में हो मुझे प्रदान करें।

(समर्पित एवं सेवारत जे.सी.चौहान)

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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

ध्रुव महाराज द्वारा स्तुति

श्रीमद भागवतम चतुर्थ स्कन्ध अध्याय नौ

6 ध्रुव महाराज ने कहा: हे भगवन, आप सर्वशक्तिमान हैं। मेरे अन्तःकरण में प्रविष्ट होकर आपने मेरी सभी सोई हुए इंद्रियों को---हाथों, पाँवों, स्पर्शेंद्रिय, प्राण तथा मेरी वाणी को---जागृत कर दिया है। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

7 हे भगवन आप सर्वश्रेष्ठ हैं, किन्तु आप आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों में अपनी विभिन्न शक्तियों के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रकट होते रहते हैं। आप अपनी बहिरंगा शक्ति से भौतिक जगत की समस्त शक्ति को उत्पन्न करके बाद में भौतिक जगत में परमात्मा के रूप में प्रविष्ट हो जाते हैं। आप परम पुरुष हैं, और क्षणिक गुणों से अनेक प्रकार की सृष्टि करते हैं, जिस प्रकार की अग्नि विभिन्न आकार के काष्ठखंडों में प्रविष्ट होकर विविध रूपों में चमकती हुई जलती है।

8 हे स्वामी, ब्रह्मा पूर्ण रूप से आपके शरणागत हैं। आरंभ में आपने उन्हें ज्ञान दिया तो वे समस्त ब्रह्मांड को उसी तरह देख और समझ पाये जिस प्रकार कोई मनुष्य नींद से जगकर तुरंत अपने कार्य समझने लगता है। आप मुक्तिकामी समस्त पुरुषों के एकमात्र आश्रय हैं और आप समस्त दीन-दुखियों के मित्र हैं। अतः पूर्ण ज्ञान से युक्त विद्वान पुरुष आपको किस प्रकार भुला सकता है?

9 जो व्यक्ति इस चमड़े के थैले (शवतुल्य देह) की इंद्रियतृप्ति के लिए ही आपकी पूजा करते हैं, वे निश्र्चय ही आपकी माया द्वारा प्रभावित हैं। आप जैसे कल्पवृक्ष तथा जन्म-मृत्यु से मुक्ति के कारण को पार करके भी मेरे समान मूर्ख व्यक्ति आपसे इंद्रियतृप्ति हेतु वरदान चाहते हैं, जो नरक में रहनेवाले व्यक्तियों के लिए भी उपलब्ध हैं।

10 हे भगवन, आपके चरणकमलों के ध्यान से या शुद्ध भक्तों से आपकी महिमा का श्रवण करने से जो दिव्य आनंद प्राप्त होता है, वह उस ब्रह्मानन्द अवस्था से कहीं बढ़कर है, जिसमें मनुष्य अपने को निर्गुण ब्रह्म से तदाकार हुआ सोचता है। चूँकि ब्रह्मानन्द भी भक्ति से मिलनेवाले दिव्य आनंद से परास्त हो जाता है, अतः उस क्षणिक आनंदमयता का क्या कहना, जिसमें कोई स्वर्ग तक पहुँच जाये और जो कालरूपी तलवार के द्वारा विनष्ट हो जाता है? भले ही कोई स्वर्ग तक क्यों न उठ जाये, कालक्रम में वह नीचे गिर जाता है।

11 ध्रुव महाराज ने आगे कहा: हे अनंत भगवान, कृपया मुझे आशीर्वाद दें जिससे मैं उन महान भक्तों की संगति कर सकूँ जो आपकी दिव्य प्रेमा भक्ति में उसी प्रकार निरंतर लगे रहते हैं जिस प्रकार नदी की तरंगें लगातार बहती रहती हैं। ऐसे दिव्य भक्त नितांत कल्मषरहित जीवन बिताते हैं। मुझे विश्वास है कि भक्तियोग से मैं संसार रूपी अज्ञान के सागर को पार कर सकूँगा जिसमे अग्नि की लपटों के समान भयंकर संकटों की लहरें उठ रही हैं। यह मेरे लिए सरल रहेगा, क्योंकि मैं आपके दिव्य गुणों तथा लीलाओं के सुनने के लिए पागल हो रहा हूँ, जिनका अस्तित्व शाश्र्वत है।

12 हे कमलनाभ भगवान, यदि कोई व्यक्ति किसी ऐसे भक्त की संगति करता है, जिसका हृदय सदैव आपके चरणकमलों की सुगंध में लुब्ध रहता है, तो वह न तो कभी अपने भौतिक शरीर के प्रति आसक्त रहता है और न संतति, मित्र, घर, संपत्ति तथा पत्नी के प्रति देहात्मबुद्धि रखता है, जो भौतिकतावादी पुरुषों को अत्यंत ही प्रिय है। वस्तुतः वह उसकी तनिक भी परवाह नहीं करता।

13 हे भगवन, हे परम अजन्मा, मैं जानता हूँ कि जीवात्माओं की विभिन्न योनियाँ, यथा पशु, पक्षी, रेंगनेवाले जीव, देवता तथा मनुष्य सारे ब्रह्मांड में फैली हुई हैं, जो समग्र भौतिक शक्ति से उत्पन्न हैं। मैं यह भी जानता हूँ कि ये कभी प्रकट रूप में रहती है, तो कभी अप्रकट रूप में, किन्तु मैंने ऐसा परम रूप कभी नहीं देखा जैसा कि अब आप का देख रहा हूँ। अब किसी भी सिद्धान्त के बनाने की आवश्यकता नहीं रह गई है।

14 हे भगवन, प्रत्येक कल्प के अंत में भगवान गर्भोदकशायी विष्णु ब्रह्मांड में दिखाई पड़नेवाली प्रत्येक वस्तु को अपने उदर में समाहित कर लेते हैं। वे शेषनाग की गोद में लेट जाते हैं, उनकी नाभि से एक डंठल में से सुनहला कमल-पुष्प फूट निकलता है और इस कमल-पुष्प पर ब्रह्माजी उत्पन्न होते हैं। मैं समझ सकता हूँ कि आप वही परमेश्र्वर हैं। अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

15 हे भगवन, अपनी अखंड दिव्य चितवन से आप बौद्धिक कार्यों की समस्त अवस्थाओं के परम साक्षी हैं। आप शाश्र्वत-मुक्त हैं, आप शुद्ध सत्व में विद्यमान रहते हैं और अपरिवर्तित रूप में परमात्मा में विद्यमान हैं। आप छह ऐश्वर्यों से युक्त आदि भगवान है और भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों के शाश्र्वत स्वामी हैं। इस प्रकार आप सामान्य जीवात्माओं से सदैव भिन्न रहते हैं। विष्णु रूप में आप सारे ब्रह्मांड के कार्यों का लेखा-जोखा रखते हैं, तो भी आप पृथक रहते हैं और समस्त यज्ञों के भोक्ता हैं।

16 हे भगवन, ब्रह्म के आपके निर्गुण प्राकट्य में सदैव दो विरोधी तत्त्व रहते हैं--ज्ञान तथा अविद्या। आपकी विविध शक्तियाँ निरंतर प्रकट होती हैं, किन्तु निर्गुण ब्रह्म, जो अविभाज्य, आदि, अपरिवर्तित, असीम तथा आनंदमय है, भौतिक जगत का कारण है। चूँकि आप वही निर्गुण ब्रह्म हैं, अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

17 हे भगवन, हे परमेश्र्वर, आप सभी वरों के परम साक्षात रूप हैं, अतः जो बिना किसी कामना के आपकी भक्ति पर दृढ़ रहता है, उसके लिए राजा बनने तथा राज करने की अपेक्षा आपके चरणकमलों की रज श्रेयस्कर है। आपके चरणकमल की पूजा का यही वरदान है। आप अपनी अहैतुकी कृपा से मुझ जैसे अज्ञानी भक्त के लिए पूर्ण परिपालक हैं, जिस प्रकार गाय अपने नवजात बछड़े को दूध पिलाती है और हमले से उसकी रक्षा करके उसकी देखभाल करती है।

18 मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा: हे विदुर, जब सदविचारों से पूर्ण अन्तःकरण वाले ध्रुव महाराज ने अपनी प्रार्थना समाप्त की तो अपने भक्तों तथा दासों पर अत्यंत दयालु भगवान ने उन्हें बधाई दी और इस प्रकार कहा।

19 भगवान ने कहा: हे राजपुत्र ध्रुव, तुमने पवित्र व्रतों का पालन किया है और मैं तुम्हारी आंतरिक इच्छा भी जानता हूँ। यद्यपि तुम अत्यंत महत्वाकांक्षी हो और तुम्हारी इच्छा को पूरा कर पाना कठिन है, तो भी मैं उसे पूरा करूँगा। तुम्हारा कल्याण हो।

(समर्पित एवं सेवारत जे.सी.चौहान)

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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

स्तुतियाँ श्रीमद भागवतम

चतुर्थ स्कन्ध अध्याय सात

26 दक्ष ने भगवान को संबोधित करते हुए कहा--हे प्रभु, आप समस्त कल्पना-अवस्थाओं से परे हैं। आप परम चिन्मय, भय-रहित और भौतिक माया को वश में रखने वाले हैं। यद्यपि आप माया में स्थित प्रतीत होते हैं, किन्तु आप दिव्य है। आप भौतिक कल्मष से मुक्त हैं, क्योंकि आप परम स्वतंत्र हैं।

27 पुरोहितों ने भगवान को संबोधित करते कहा--हे भगवन, आप भौतिक कल्मष से परे हैं। शिव के अनुचरों द्वारा दिये गये शाप के कारण हम सकाम कर्म में लिप्त हैं, अतः हम पतित हो चुके हैं और आपके विषय में कुछ भी नहीं जानते। उल्टे, हम यज्ञ के नाम पर अनुष्ठानों को सम्पन्न करने के लिए वेदत्रयी के आदेशों में आ फँसे हैं। हमें ज्ञात है कि आपने देवताओं को अपने-अपने उनके भाग दिये जाने की व्यवस्था कर रखी है।

28 सभा के सदस्यों ने भगवान को संबोधित किया--हे संतप्त जीवों के एकमात्र आश्रय, इस बद्ध संसार के दुर्ग में काल-रूपी सर्प प्रहार करने की ताक में रहता है। यह संसार तथाकथित सुख तथा दुख की खंदकों से भरा पड़ा है और अनेक हिंस्र पशु आक्रमण करने को सन्नद्ध रहते हैं। शोक रूपी अग्नि सदैव प्रज्ज्वलित रहती है और मृषा सुख की मृगतृष्णा सदैव मोहती रहती है, किन्तु मनुष्य को इनसे छुटकारा नहीं मिलता। इस प्रकार अज्ञानी पुरुष जन्म-मरण के चक्र में पड़े रहते हैं और अपने तथाकथित कर्तव्यों के भार से सदा दबे रहते हैं। हमें ज्ञात नहीं कि वे आपके चरणकमलों की शरण में कब जाएँगे।

29 शिवजी ने कहा: हे भगवान, मेरा मन तथा मेरी चेतना निरंतर आपके पूजनीय चरणकमलों पर स्थिर रहती है, जो समस्त वरों तथा इच्छाओं की पूर्ति के स्रोत होने के कारण समस्त मुक्त महामुनियों द्वारा पूजित हैं क्योंकि आपके चरणकमल ही पूजा के योग्य हैं। आपके चरणकमलों में मन को स्थिर रखकर मैं उन व्यक्तियों से विचलित नहीं होता जो यह कहकर मेरी निन्दा करते हैं कि मेरे कर्म पवित्र नहीं हैं। मैं उनके आरोपों की परवाह नहीं करता और मैं उसी प्रकार दयावश उन्हें क्षमा कर देता हूँ, जिस प्रकार आप समस्त जीवों के प्रति दया प्रदर्शित करते हैं।

30 भृगु मुनि ने कहा: हे भगवन, सर्वोच्च ब्रह्मा से लेकर सामान्य चींटी तक सारे जीव आपकी माया शक्ति के दुर्लंघ्य जादू के वशीभूत हैं और इस प्रकार वे अपनी स्वाभाविक स्थिति से अपरिचित हैं। देहात्मबुद्धि में विश्र्वास करने के कारण सभी मोह के अंधकार में पड़े हुए हैं। वे वास्तव में यह नहीं समझ पाते कि आप प्रत्येक जीवात्मा में परमात्मा के रूप में कैसे रहते हैं, न तो वे आपके परम पद को ही समझ सकते हैं। किन्तु आप समस्त शरणागत जीवों के नित्य सखा एवं रक्षक हैं। अतः आप हम पर कृपालु हों और हमारे समस्त पापों को क्षमा कर दें।

31 ब्रह्माजी ने कहा: हे भगवन, यदि कोई पुरुष आपको ज्ञान अर्जित करने की विभिन्न विधियों द्वारा जानने का प्रयास करे तो वह आपके व्यक्तित्व एवं शाश्र्वत रूप को नहीं समझ सकता। आपकी स्थिति भौतिक सृष्टि की तुलना में सदैव दिव्य है, जबकि आपको समझने के प्रयास, लक्ष्य तथा साधन सभी भौतिक और काल्पनिक हैं।

32 राजा इन्द्र ने कहा: हे भगवन, प्रत्येक हाथ में आयुध धारण किये आपका यह अष्टभुज दिव्य रूप सम्पूर्ण विश्र्व के कल्याण हेतु प्रकट होता है और मन तथा नेत्रों को अत्यंत आनंदित करने वाला है। आप इस रूप में अपने भक्तों से ईर्ष्या करने वाले असुरों को दण्ड देने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं।

33 याज्ञिकों की पत्नियों ने कहा: हे भगवान, वह यज्ञ ब्रह्मा के आदेशानुसार व्यवस्थित किया गया था, किन्तु दुर्भाग्यवश दक्ष से क्रुद्ध होकर शिव ने समस्त दृश्य को ध्वस्त कर दिया और उनके रोष के कारण यज्ञ के निमित्त लाये गये पशु निर्जीव पड़े हैं। अतः यज्ञ की सारी तैयारियाँ बेकार हो चुकी हैं। अब आपके कमल जैसे नेत्रों की चितवन से इस यज्ञस्थल की पवित्रता पुनः प्राप्त हो।

34 ऋषियों ने प्रार्थना की: हे भगवान, आपके कार्य अत्यंत आश्र्चर्यमय हैं और यद्यपि आप सब कुछ अपनी विभिन्न शक्तियों से करते हैं, किन्तु आप उनसे लिप्त नहीं होते। यहाँ तक कि आप संपत्ति की देवी लक्ष्मीजी से भी लिप्त नहीं है, जिनकी पूजा ब्रह्माजी जैसे बड़े-बड़े देवताओं द्वारा उनकी कृपा प्राप्त करने के उद्देश्य से की जाती है।

35 सिद्धों ने स्तुति की: हे भगवन, हमारे मन उस हाथी के समान हैं, जो जंगल की आग से त्रस्त होने पर नदी में प्रविष्ट होते ही सभी कष्ट भूल सकता है। उसी तरह ये हमारे मन भी आपकी दिव्य लीलाओं की अमृत-नदी में निमज्जित हैं और ऐसे दिव्य आनंद में निरंतर बने रहना चाहते हैं, जो परब्रह्म में तदाकार होने के सुख के समान ही है।

36 दक्ष की पत्नी ने इस प्रकार प्रार्थना की--हे भगवान, यह हमारा सौभाग्य है कि आप यज्ञस्थल में पधारे हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करती हूँ और आपसे प्रार्थना करती हूँ कि इस अवसर पर आप प्रसन्न हों। यह यज्ञस्थल आपके बिना शोभा नहीं पा रहा था, जिस प्रकार कि सिर के बिना धड़ शोभा नहीं पाता।

37 विभिन्न लोकों के लोकपालों ने इस प्रकार कहा: हे भगवन, हम अपनी प्रत्यक्ष प्रतीति पर ही विश्र्वास करते हैं, किन्तु इस परिस्थिति में हम नहीं जानते कि हमने आपका दर्शन वास्तव में अपनी भौतिक इंद्रियों से किया है अथवा नहीं। इन इंद्रियों से तो हम दृश्य जगत को ही देख पाते हैं, किन्तु आप तो पाँच तत्त्वों के परे हैं। आप तो छठवें तत्त्व हैं। अतः हम आपको भौतिक जगत की सृष्टि के रूप में देख रहे हैं।

38-39 महान योगियों ने कहा: हे भगवान, जो लोग यह जानते हुए कि आप समस्त जीवात्माओं के परमात्मा हैं, आपको अपने से अभिन्न देखते हैं, वे निश्र्चय ही आपको परम प्रिय हैं। जो आपको स्वामी तथा अपने आपको दास मानकर आपकी भक्ति में अनुरक्त रहते हैं, आप उन पर परम कृपालु रहते हैं। आप कृपावश उन पर सदैव हितकारी रहते हैं। हम उन परम पुरुष को सादर नमस्कार करते हैं जिन्होंने नाना प्रकार की वस्तुएँ उत्पन्न कीं और उन्हें भौतिक जगत के त्रिगुणों के वशीभूत कर दिया जिससे उनकी उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार हो सके। वे स्वयं बहिरंगा शक्ति के अधीन नहीं हैं, वे साक्षात रूप में भौतिक गुणों के विविध प्राकट्य से रहित हैं और मिथ्या मायामोह से दूर हैं।

40 साक्षात वेदों ने कहा: हे भगवान, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं, क्योंकि आप सतोगुण के आश्रय होने के कारण समस्त धर्म तथा तपस्या के स्रोत हैं; आप समस्त भौतिक गुणों से परे हैं और कोई भी न तो आपको और न आपकी वास्तविक स्थिति को जानने वाला है।

41 अग्निदेव ने कहा: हे भगवान, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ, क्योंकि आपकी ही कृपा से मैं प्रज्ज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी हूँ और मैं यज्ञ में प्रदत्त घृतमिश्रित आहुतियाँ स्वीकार करता हूँ। यजुर्वेद में वर्णित पाँच प्रकार की हवियाँ आपकी ही विभिन्न शक्तियाँ हैं और आपकी पूजा पाँच प्रकार के वैदिक मंत्रों से की जाती है। यज्ञ का अर्थ ही आप अर्थात परम भगवान है।

42 देवताओं ने कहा: हे भगवान, पहले जब प्रलय हुआ था, तो आपने भौतिक जगत की विभिन्न शक्तियों को संरक्षित कर लिया था। उस समय ऊर्ध्वलोकों के सभी वासी, जिनमें सनक जैसे मुक्त जीव भी थे, दार्शनिक चिन्तन द्वारा आपका ध्यान कर रहे थे। अतः आप आदिपुरुष हैं। आप प्रलयकालीन जल में शेषशय्या पर शयन करते हैं। अब आज आप हमारे समक्ष दिख रहे हैं। हम सभी आपके दास हैं। कृपया हमें शरण दीजिये।

43 गंधर्वों ने कहा: हे भगवन, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र तथा मरीचि समेत समस्त देवता तथा ऋषिगण आपके ही शरीर के विभिन्न अंश हैं। आप परम शक्तिमान हैं, यह सारी सृष्टि आपके लिए खिलवाड़ मात्र है। हम सदैव आपको पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान रूप में स्वीकार करते हैं और आपको सादर नमस्कार करते हैं।

44 विद्याधरों ने कहा: हे प्रभु, यह मानव देह सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करने के निमित्त है, किन्तु आपकी बहिरंगा शक्ति के वशीभूत होकर जीवात्मा अपने आपको भ्रमवश देह तथा भौतिक शक्ति मान बैठता है, अतः माया के वश में आकर वह सांसारिक भोग द्वारा सुखी बनना चाहता है। वह दिग्भ्रमित हो जाता है और क्षणिक माया-सुख के प्रति सदैव आकर्षित होता रहता है। किन्तु आपके दिव्य कार्यकलाप इतने प्रबल हैं कि यदि कोई उनके श्रवण तथा कीर्तन में अपने को लगाए तो मोह से उसका उद्धार हो सकता है।

45 ब्राह्मणों ने कहा: हे भगवान, आप साक्षात यज्ञ हैं। आप ही घृत की आहुति हैं; आप अग्नि हैं; आप वैदिक मंत्रों के उच्चारण हैं, जिनसे यज्ञ कराया जाता है; आप ईंधन हैं; आप ज्वाला हैं;आप कुश हैं और आप ही यज्ञ के पात्र हैं। आप यज्ञकर्ता पुरोहित हैं,इन्द्र आदि देवतागण आप ही हैं और आप यज्ञ-पशु हैं। जो कुछ भी यज्ञ में अर्पित किया जाता है, वह आप या आपकी शक्ति है।

46 हे भगवान, हे साक्षात वैदिक ज्ञान, अत्यंत पुरातन काल पहले, पिछले युग में जब आप महान सूकर अवतार के रूप में प्रकट हुए थे तो आपने पृथ्वी को जल के भीतर से इस प्रकार ऊपर उठा लिया था जिस प्रकार कोई हाथी सरोवर में से कमलिनी को उठा लाता है। जब आपने उस विराट सूकर रूप में दिव्य गर्जन किया, तो उस ध्वनि को यज्ञ मंत्र के रूप में स्वीकार कर लिया गया और सनक जैसे महान ऋषियों ने उसका ध्यान करते हुए आपकी स्तुति की।

47 हे भगवान, हम आपके दर्शन के लिए प्रतीक्षारत थे क्योंकि हम वैदिक अनुष्ठानों के अनुसार यज्ञ करने में असमर्थ रहे हैं। अतः हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि आप हम पर प्रसन्न हों। आपके पवित्र नाम-कीर्तन मात्र से समस्त बाधाएँ दूर हो जाती हैं। हम आपके समक्ष आपको सादर नमस्कार करते हैं।

48-49 श्री मैत्रेय ने कहा: वहाँ पर उपस्थित सबों के द्वारा विष्णु की स्तुति किये जाने पर दक्ष ने अन्तःकरण शुद्ध हो जाने से पुनः यज्ञ प्रारम्भ किये जाने की व्यवस्था की, जिसे शिव के अनुचरों ने ध्वंस कर दिया था। मैत्रेय ने आगे कहा: हे पापमुक्त विदुर, भगवान विष्णु ही वास्तव में समस्त यज्ञों के फल के भोक्ता हैं। फिर भी समस्त जीवात्माओं के परमात्मा होने से वे अपना यज्ञ-भाग प्राप्त हो जाने से प्रसन्न हो गये, अतः उन्होंने प्रमुदित भाव से दक्ष को संबोधित किया।

(समर्पित एवं सेवारत जे.सी.चौहान)

 

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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

ब्रह्मा द्वारा स्तुति

श्रीमद भागवतम तृतीय स्कन्ध अध्याय नौ

  1. ब्रह्माजी ने कहा: हे प्रभु, आज अनेकानेक वर्षों की तपस्या के बाद मैं आपके विषय में जान पाया हूँ। ओह ! देहधारी जीव कितने अभागे हैं कि वे आपके स्वरूप को जान पाने में असमर्थ हैं। हे स्वामी, आप एकमात्र ज्ञेय तत्त्व हैं, क्योंकि आपसे परे कुछ भी सर्वोच्च नहीं है। यदि कोई वस्तु आपसे श्रेष्ठ प्रतीत होती भी है, तो वह परम पूर्ण नहीं है। आप पदार्थ की सृजन शक्ति को प्रकट करके ब्रह्म रूप में विद्यमान हैं।

  2. मैं जिस रूप को देख रहा हूँ वह भौतिक कल्मष से सर्वथा मुक्त है और अंतरंगा शक्ति की अभिव्यक्ति के रूप में भक्तों पर कृपा दिखाने के लिए अवतरित हुआ है। यह अवतार अन्य अनेक अवतारों का उद्गम है और मैं स्वयं आपके नाभि रूपी घर से उगे कमल के फूल से उत्पन्न हुआ हूँ।

  3. हे प्रभु, मैं आपके इस सच्चिदानंद रूप से श्रेष्ठ अन्य कोई रूप नहीं देखता। वैकुंठ में आपकी निर्विशेष ब्रह्मज्योति में न तो यदाकदा परिवर्तन होता है और न अंतरंगा शक्ति में कोई ह्रास आता है। मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ, क्योंकि जहाँ मैं अपने भौतिक शरीर तथा इंद्रियों पर गर्वित हूँ वहीं आप विराट जगत का कारण होते हुए भी पदार्थ द्वारा अस्पृश्य हैं।

  4. पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण का यह वर्तमान रूप या उनके द्वारा विस्तार किया हुआ कोई भी दिव्य रूप सारे ब्रह्मांडों के लिए समान रूप से मंगलमय है। चूँकि आपने यह नित्य साकार रूप प्रकट किया है, जिसका ध्यान आपके भक्त करते हैं, इसलिए मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। जिन्हें नरकगामी होना बदा है वे आपके साकार रूप की उपेक्षा करते हैं, क्योंकि वे लोग भौतिक विषयों की ही कल्पना करते रहते हैं।

  5. हे प्रभु, जो लोग वैदिक ध्वनि की वायु द्वारा ले जाई गई आपके चरणकमलों की सुगंध को अपने कानों के द्वारा सूँघते हैं, वे आपकी भक्तिमय सेवा को स्वीकार करते हैं। उनके लिए आप उनके हृदय रूपी कमल से कभी भी विलग नहीं होते।

  6. हे प्रभु, संसार के लोग समस्त भौतिक चिंताओं से उद्विग्न रहते हैं--वे सदैव भयभीत रहते हैं। वे सदैव धन, शरीर तथा मित्रों की रक्षा करने का प्रयास करते हैं, वे शोक तथा अवैध इच्छाओं एवं साज-सामग्री से पूरित रहते हैं तथा लोभवश "मैं" तथा "मेरे" की नश्र्वरधारणाओं पर अपने दुराग्रह को आधारित करते हैं। जब तक वे आपके सुरक्षित चरणकमलों की शरण ग्रहण नहीं करते तब तक वे ऐसी चिंताओं से भरे रहते हैं।

  7. हे प्रभु, वे व्यक्ति जो आपके दिव्य कार्यकलापों के विषय में सर्वमंगलकारी कीर्तन तथा श्रवण करने से वंचित हैं निश्र्चित रूप से वे अभागे हैं और सद्बुद्धि से विहीन हैं। वे तनिक देर के लिए इंद्रियतृप्ति का भोग करने हेतु अशुभ कार्यों में लग जाते हैं।

  8. हे महान कर्त्ता, मेरे प्रभु, ये सभी दीन प्राणी निरंतर भूख, प्यास, शीत, कफ तथा पित्त से व्यग्र रहते हैं, इन पर कफ युक्त शीतऋतु, भीषण गर्मी, वर्षा तथा अन्य अनेक क्षुब्ध करने वाले तत्त्व आक्रमण करते रहते हैं और ये प्रबल कामेच्छाओं तथा दुःसह क्रोध से अभिभूत होते रहते हैं। मुझे इन पर दया आती है और मैं इनके लिए अत्यंत संतप्त रहता हूँ।

  9. हे प्रभु, आत्मा के लिए भौतिक दुखों का कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं होता। फिर भी जब तक बद्धात्मा शरीर को इंद्रियभोग के निमित्त देखता है तब तक वह आपकी बहिरंगा शक्ति द्वारा प्रभावित होने से भौतिक कष्टों के पाश से बाहर नहीं निकल पाता।

  10. ऐसे अभक्तगण अपनी इंद्रियों को अत्यंत कष्टप्रद तथा विस्तृत कार्य में लगाते हैं और रात में उनिद्र रोग से पीड़ित रहते हैं, क्योंकि उनकी बुद्धि विविध मानसिक चिंताओं के कारण उनकी नींद को लगातार भंग करती रहती है। वे अतिमानवीय शक्ति द्वारा अपनी विविध योजनाओं में हताश कर दिए जाते हैं। यहाँ तक कि बड़े-बड़े ऋषि-मुनि यदि आपकी दिव्य कथाओं से विमुख रहते हैं, तो वे भी इस भौतिक जगत में ही चक्कर लगाते रहते हैं।

  11. हे प्रभु आपके भक्तगण प्रामाणिक श्रवण विधि द्वारा कानों के माध्यम से आपको देख सकते हैं और इस तरह उनके हृदय विमल हो जाते हैं तथा आप वहाँ पर अपना स्थान ग्रहण कर लेते हैं। आप अपने भक्तों पर इतने दयालु हैं कि आप अपने को उस अध्यात्म के विशेष नित्य रूप में प्रकट करते हैं जिसमें वे सदैव आपका चिंतन करते हैं।

  12. हे प्रभु, आप उन देवताओं की पूजा से बहुत अधिक तुष्ट नहीं होते जो आपकी पूजा अत्यंत ठाठ-बाट से तथा विविध साज-सामग्री के साथ करते तो हैं, किन्तु भौतिक लालसाओं से पूर्ण होते हैं। आप हर एक के हृदय में परमात्मा के रूप में अपनी अहैतुकी कृपा दर्शाने के लिए स्थित रहते हैं। आप नित्य शुभचिंतक हैं, किन्तु आप अभक्तों के लिए अनुपलब्ध हैं।

  13. किन्तु वैदिक अनुष्ठान, दान, कठोर तपस्या तथा दिव्य सेवा जैसे पुण्य कार्य भी, जो लोगों द्वारा सकाम फलों को आपको अर्पित करके आपकी पूजा करने तथा आपको तुष्ट करने के उद्देश्य से किये जाते हैं, लाभप्रद होते हैं। धर्म के ऐसे कार्य व्यर्थ नहीं जाते।

  14. मैं उन परब्रह्म को नमस्कार करता हूँ जो अपनी अंतरंगा शक्ति के द्वारा शाश्र्वत विशिष्ट अवस्था में रहते हैं। उनका विभेदित न किया जा सकने वाला निर्विशेष स्वरूप आत्म-साक्षात्कार हेतु बुद्धि द्वारा पहचाना जाता है। मैं उनको नमस्कार करता हूँ जो अपनी लीलाओं के द्वारा विराट जगत के सृजन, पालन तथा संहार का आनंद लेते हैं।

  15. मैं उनके चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ जिनके अवतार, गुण तथा कर्म सांसारिक मामलों के रहस्यमय अनुकरण हैं। जो व्यक्ति इस जीवन को छोड़ते समय अनजाने में भी उनके दिव्य नाम का आवाहन करता है उसके जन्म-जन्म के पाप तुरंत धुल जाते हैं और वह उन भगवान को निश्र्चित रूप से प्राप्त करता है।

  16. आप लोक रूपी वृक्ष की जड़ हैं। यह वृक्ष सर्वप्रथम भौतिक प्रकृति को तीन तनों के रूप में---मुझ, शिव तथा सर्वशक्तिमान आपके रूप में--सृजन, पालन तथा संहार के लिए भेदकर निकला है और हम तीनों से अनेक शाखाएँ निकल आई हैं। इसलिए हे विराट जगत रूपी वृक्ष, मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

  17. सामान्य लोग मूर्खतापूर्ण कार्यों में लगे रहते हैं। वे अपने मार्गदर्शन हेतु आपके द्वारा प्रत्यक्ष घोषित लाभप्रद कार्यों में अपने को नहीं लगाते। जब तक उनकी मूर्खतापूर्ण कार्यों की प्रवृत्ति बलवती बनी रहती है तब तक जीवन-संघर्ष में उनकी सारी योजनाएँ छिन्न-भिन्न होती रहेंगी। अतएव मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ जो नित्यकाल स्वरूप हैं।

  18. हे प्रभु, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ जो अथक काल तथा समस्त यज्ञों के भोक्ता हैं। यद्यपि मैं ऐसे स्थान में स्थित हूँ जो दो परार्धों की अवधि तक विद्यमान रहेगा, और यद्यपि मैं ब्रह्मांड के अन्य सभी लोकों का अगुआ हूँ, और यद्यपि मैंने आत्म-साक्षात्कार हेतु अनेकानेक वर्षों तक तपस्या की है, फिर भी मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

  19. हे प्रभु, आप अपनी दिव्य लीलाएँ सम्पन्न करने हेतु स्वेच्छा से विविध जीवयोनियों में, मनुष्येतर पशुओं में तथा देवताओं में प्रकट होते हैं। आप भौतिक कल्मष से तनिक भी प्रभावित नहीं होते। आप धर्म के अपने सिद्धांतों के दायित्व को पूरा करने के लिए ही आते हैं, अतः हे परमेश्र्वर ऐसे विभिन्न रूपों को प्रकट करने के लिए मैं आपको नमस्कार करता हूँ

  20. हे प्रभु, आप उस प्रलयकालीन जल में शयन करने का आनंद लेते हैं जहाँ प्रचण्ड लहरें उठती रहती हैं और बुद्धिमान लोगों को अपनी नींद का सुख दिखाने के लिए आप सर्पों की शय्या का आनंद भोगते हैं। उस काल में ब्रह्मांड के सारे लोक आपके उदर में स्थित रहते हैं।

  21. हे मेरी पूजा के लक्ष्य, मैं आपकी कृपा से ब्रह्मांड की रचना करने हेतु आपके कमल- नाभि रूपी घर से उत्पन्न हुआ हूँ। जब आप नींद का आनंद ले रहे थे, तब ब्रह्मांड के ये सारे लोक आपके दिव्य उदर के भीतर स्थित थे। अब आपकी नींद टूटी है, तो आपके नेत्र प्रातःकाल में खिलते हुए कमलों की तरह खुले हुए हैं।

  22. परमेश्र्वर मुझ पर कृपालु हों। वे इस जगत में सारे जीवों के एकमात्र मित्र तथा आत्मा हैं और वे अपने छः ऐश्र्वर्यों द्वारा जीवों के चरम सुख हेतु इन सबों का पालन-पोषण करते हैं। वे मुझ पर कृपालु हों, जिससे मैं पहले की तरह सृजन करने की आत्मपरीक्षण शक्ति से युक्त हो सकूँ, क्योंकि मैं भी उन शरणागत जीवों में से हूँ जो भगवान को प्रिय हैं।

  23. भगवान सदा ही शरणागतों को वर देने वाले हैं। उनके सारे कार्य उनकी अंतरंगा शक्ति रमा या लक्ष्मी के माध्यम से सम्पन्न होते हैं। मेरी उनसे यही विनती है कि भौतिक जगत के सृजन में वे मुझे अपनी सेवा में लगा लें और मेरी यही प्रार्थना है कि मैं अपने कर्मों द्वारा भौतिक रूप से प्रभावित न होऊँ, क्योंकि इस तरह मैं सृष्टा होने की मिथ्या-प्रतिष्ठा त्यागने में सक्षम हो सकूँगा।

  24. भगवान की शक्तियाँ असंख्य हैं। जब वे प्रलय-जल में लेटे रहते हैं, तो उस नाभिरूपी झील से, जिसमें कमल खिलता है, मैं समग्र विश्र्वशक्ति के रूप में उत्पन्न होता हूँ। इस समय मैं विराट जगत के रूप में उनकी विविध शक्तियों को उद्धाटित करने में लगा हुआ हूँ। इसलिए मैं प्रार्थना करता हूँ कि अपने भौतिक कार्यों को करते समय मैं वैदिक स्तुतियों की ध्वनि से कहीं विचलित न हो जाऊँ।

  25. भगवान जो कि परम हैं और सबसे प्राचीन हैं, अपार कृपालु हैं। मैं चाहता हूँ कि वे अपने कमलनेत्रों को खोल कर मुसकाते हुए मुझे वर दें। वे सम्पूर्ण विराट सृष्टि का उत्थान कर सकते हैं और अपने कृपापूर्ण आदेशों के द्वारा हमारा विषाद दूर कर सकते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत – जे.सी.चौहान)

 

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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

माता देवहूति द्वारा स्तुति

श्रीमद भागवतम तृतीय स्कन्ध अध्याय तैतीस

1 श्री मैत्रेय ने कहा: इस प्रकार भगवान कपिल की माता एवं कर्दम मुनि की पत्नी देवहूति भक्तियोग तथा दिव्य ज्ञान संबंधी समस्त अविद्या से मुक्त हो गई। उन्होंने उन भगवान को नमस्कार किया जो मुक्ति की पृष्ठभूमि सांख्य दर्शन के प्रतिपादक हैं और तब निम्नलिखित स्तुति द्वारा उन्हें प्रसन्न किया।

2 देवहूति ने कहा: ब्रह्माजी अजन्मा कहलाते हैं, क्योंकि वे आपके उदर से निकलते हुए कमल-पुष्प से जन्म लेते हैं और आप ब्रह्मांड के तल पर समुद्र में शयन करते रहते हैं। लेकिन ब्रह्माजी ने भी केवल अनंत ब्रह्मांडों के उद्गम स्रोत, आपका ध्यान ही किया।

3 हे भगवान, यद्यपि आपको निजी रूप से कुछ करना नहीं रहता किन्तु आपने अपनी शक्तियाँ प्रकृति के गुणों की अंतःक्रियाओं में वितरित कर दी हैं जिसके बल पर दृश्यजगत की उत्पत्ति, पालन तथा संहार होता है। हे भगवान, आप दृढ़संकल्प हैं और समस्त जीवों के भगवान हैं। आपने उन्हीं के लिए यह संसार रचा और यद्यपि आप एक हैं, किन्तु आपकी शक्तियाँ अनेक प्रकार से कार्य करती हैं। यह हमारे लिए अकल्पनीय है।

4 आपने मेरे उदर से श्रीभगवान के रूप में जन्म लिया है। हे भगवन, यह उस परमेश्र्वर के लिए किस प्रकार संभव हो सका जिसके उदर में यह सारा दृश्य-जगत स्थित है? इसका उत्तर होगा कि ऐसा संभव है, क्योंकि कल्प के अंत में आप वटवृक्ष की एक पत्ती पर लेट जाते हैं और एक छोटे से बालक की भाँति अपने चरणकमल के अंगूठे को चूसते हैं।

5 हे भगवान आपने पतितों के पापपूर्ण कर्मों को घटाने तथा उनके भक्ति एवं मुक्ति के ज्ञान को बढ़ाने के लिए यह शरीर धारण किया है। चूँकि ये पापात्माएँ आपके निर्देश पर आश्रित हैं, अतः आप स्वेच्छा से सूकर तथा अन्य रूपों में अवतरित होते हैं। इसी प्रकार आप अपने आश्रितों को दिव्य ज्ञान वितरित करने के लिए प्रकट हुए हैं।

6 उन व्यक्तियों की आध्यात्मिक उन्नति के विषय में क्या कहा जाय जो परम पुरुष का प्रत्यक्ष दर्शन करते हैं, यदि कुत्ता खाने वाले परिवार में उत्पन्न व्यक्ति भी भगवान के पवित्र नाम का एक बार भी उच्चारण करता है अथवा उनका कीर्तन करता है, उनकी लीलाओं का श्रवण करता है, उन्हें नमस्कार करता है, या कि उनका स्मरण करता है, तो वह तुरंत वैदिक यज्ञ करने के लिए योग्य बन जाता है।

7 ओह! वे कितने धन्य हैं जिनकी जिह्वाएँ आपके पवित्र नाम का जप करती हैं! कुत्ता खाने वाले वंशों में उत्पन्न होते हुए भी ऐसे पुरुष पूजनीय हैं। जो पुरुष आपके पवित्र नाम का जप करते हैं उन्होंने सभी प्रकार की तपस्याएँ तथा हवन किए होंगे और आर्यों के सदाचार प्राप्त किये होंगे। आपके पवित्र नाम का जप करते रहने के लिए उन्होंने तीर्थस्थानों में स्नान किया होगा, वेदों का अध्ययन किया होगा और अपेक्षित हर वस्तु की पूर्ति की होगी।

8 हे भगवान, मुझे विश्र्वास है कि आप कपिल नाम से स्वयं पुरुषोत्तम भगवान विष्णु अर्थात परब्रह्म हैं। सारे ऋषि-मुनि इंद्रियों तथा मन के उद्वेगों से मुक्त होकर आपका ही चिंतन करते हैं, क्योंकि आपकी कृपा से ही मनुष्य भव-बंधन से छूट सकता है। प्रलय के समय सारे वेद आपमें ही स्थान पाते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत जे. सी. चौहान)

 

 

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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

भीष्म द्वारा स्तुति

प्रथम स्कन्ध अध्याय नौ

31 शुद्ध ध्यान द्वारा भगवान श्रीकृष्ण को देखते हुए, वे तुरंत समस्त भौतिक अशुभ अवस्थाओं से और तीरों के घाव से होनेवाली शारीरिक पीड़ा से मुक्त हो गये। इस प्रकार उनकी सारी इंद्रियों के कार्यकलाप रुक गये और उन्होंने शरीर को त्यागते हुए समस्त जीवों के नियंता की दिव्य भाव से स्तुति की।

32 भीष्मदेव ने कहा: अभी तक मैं जो सोचता, जो अनुभव करता तथा जो चाहता था, वह विभिन्न विषयों तथा वृत्तियों के अधीन था, किन्तु अब मुझे उसे परम शक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण में लगाने दो। वे सदैव आत्मतुष्ट रहनेवाले हैं, किन्तु कभी-कभी भक्तों के नायक होने के कारण, इस भौतिक जगत में अवतरित होकर दिव्य आनंद-लाभ करते हैं, यद्यपि यह सारा भौतिक जगत उन्हीं के द्वारा सृजित है।

33 श्रीकृष्ण अर्जुन के घनिष्ठ मित्र हैं। वे इस धरा पर अपने दिव्य शरीर सहित प्रकट हुए हैं, जो तमाल वृक्ष सदृश नीले रंग का है। उनका शरीर तीनों लोकों (उच्च, मध्य तथा अधोलोक) में हर एक को आकृष्ट करनेवाला है। उनका चमचमाता पीताम्बर तथा चन्दनचर्चित मुखकमल मेरे आकर्षण का विषय बने और मैं किसी प्रकार के फल की इच्छा न करूँ।

34 युद्धक्षेत्र में (जहाँ मित्रतावश श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ रहे थे) भगवान कृष्ण के लहराते केश घोड़ों की टापों से उठी धूल से धूसरित हो गये थे तथा श्रम के कारण उनका मुख-मण्डल पसीने की बूँदों से भीग गया था। मेरे तीक्ष्ण बाणों से बने घावों से इन अलंकरणों की शोभा उन्हें अच्छी लग रही थी। मेरा मन उन्हीं श्रीकृष्ण के पास चले।

35 अपने मित्र के आदेश का पालन करते हुए, भगवान श्रीकृष्ण कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अर्जुन तथा दुर्योधन के सैनिकों के बीच में प्रविष्ट हो गये और वहाँ स्थित होकर उन्होंने अपनी कृपापूर्ण चितवन से विरोधी पक्ष की आयु क्षीण कर दी। यह सब शत्रु पर उनके दृष्टिपात करने मात्र से ही हो गया। मेरा मन उन कृष्ण में स्थिर हो।

36 जब युद्धक्षेत्र में अर्जुन अपने समक्ष सैनिकों तथा सेनापतियों को देखकर अज्ञान से कलुषित हो रहा लग रहा था, तो भगवान ने उसके अज्ञान को दिव्य ज्ञान प्रदान करके समूल नष्ट कर दिया। उनके चरणकमल सदैव मेरे आकर्षण के लक्ष्य बने रहे।

37 मेरी इच्छा को पूरी करते हुए तथा अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर, वे रथ से नीचे उतर आये, उसका पहिया उठा लिया और तेजी से मेरी ओर दौड़े, जिस तरह कोई सिंह किसी हाथी को मारने के लिए दौड़ पड़ता है। इसमें उनका उत्तरीय वस्त्र भी रास्ते में गिर गया।

38 भगवान श्रीकृष्ण जो मोक्ष के दाता हैं, वे मेरे अनन्तिम गंतव्य हों। युद्ध-क्षेत्र में उन्होंने मेरे ऊपर आक्रमण किया, मानो वे मेरे पैने बाणों से बने घावों के कारण क्रुद्ध हो गये हों। उनका कवच छितरा गया था और उनका शरीर खून से सन गया था।

39 मृत्यु के समय मेरा चरम आकर्षण भगवान श्रीकृष्ण के प्रति हो। मैं अपना ध्यान अर्जुन के उस सारथी पर एकाग्र करता हूँ, जो अपने दाहिने हाथ में चाबुक लिए थे और बाएँ हाथ से लगाम की रस्सी थामे और सभी प्रकार से अर्जुन के रथ की रक्षा करने के प्रति अत्यंत सावधान थे। जिन लोगों ने कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में उनका दर्शन किया, उन सबों ने मृत्यु के बाद अपना मूल स्वरूप प्राप्त कर लिया।

40 मेरा मन उन भगवान श्रीकृष्ण में एकाग्र हो, जिनकी चाल तथा प्रेम भरी मुसकान ने व्रजधाम की रमणियों (गोपियों) को आकृष्ट कर लिया। [रास लीला से] भगवान के अन्तर्धान हो जाने पर गोपिकाओं ने भगवान की लाक्षणिक गतियों का अनुकरण किया।

41 महाराज युधिष्ठिर द्वारा सम्पन्न राजसूय यज्ञ में विश्व के सारे महापुरुषों, राजाओं तथा विद्वानों की एक महान सभा हुई थी और उस सभा में सबों ने श्रीकृष्ण की पूजा परम पूज्य भगवान के रूप में की थी। यह सब मेरी आँखों के सामने हुआ और मैंने इस घटना को याद रखा, जिससे मेरा मन भगवान में लगा रहे।

42 अब मैं पूर्ण एकाग्रता से एक ईश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान कर सकता हूँ, जो इस समय मेरे सामने उपस्थित हैं, क्योंकि अब मैं प्रत्येक के हृदय में यहाँ तक कि मनोधर्मियों के हृदय में भी रहनेवाले उनके प्रति द्वैत भाव की स्थिति को पार कर चुका हूँ। वे सबों के हृदय में रहते हैं। भले ही सूर्य को भिन्न-भिन्न प्रकार से अनुभव किया जाय, किन्तु सूर्य तो एक ही है।

(समर्पित एवं सेवारत जे. सी. चौहान)

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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

कुन्ती द्वारा स्तुति

(श्रीमद भागवतम प्रथम स्कन्ध अध्याय आठ)

18 श्रीमती कुन्ती ने कहा: हे कृष्ण, मैं आपको नमस्कार करती हूँ, क्योंकि आप ही आदि पुरुष हैं और इस भौतिक जगत के गुणों से निर्लिप्त रहते हैं। आप समस्त वस्तुओं के भीतर तथा बाहर स्थित रहते हुए भी सबों के लिए अदृश्य हैं।

19 सीमित इंद्रिय-ज्ञान से परे होने के कारण, आप ठगिनी शक्ति (माया) के पर्दे से ढके रहनेवाले शाश्वत अव्यय तत्त्व हैं। आप मूर्ख दर्शक के लिए ठीक उसी प्रकार अदृश्य रहते हैं, जिस प्रकार अभिनेता के वस्त्र पहना हुआ कलाकार पहचान में नहीं आता।

20 आप उन्नत अध्यात्मवादियों तथा आत्मा एवं पदार्थ में अंतर करने में सक्षम होने से शुद्ध बने विचारकों के हृदयों में भक्ति के दिव्य विज्ञान का प्रसार करने के लिए स्वयं अवतरित होते हैं। तो फिर हम स्त्रियाँ आपको किस तरह पूर्ण रूप से जान सकती हैं?

21 अतः मैं उन भगवान को सादर नमस्कार करती हूँ, जो वसुदेव के पुत्र, देवकी के लाड़ले, नन्द के लाल तथा वृंदावन के अन्य ग्वालों एवं गौवों तथा इंद्रियों के प्राण बनकर आये हैं।

22 जिनके उदर के मध्य में कमलपुष्प के सदृश गर्त है, जो सदैव कमल-पुष्प की माला धारण करते हैं, जिनकी चितवन कमल-पुष्प के समान शीतल है और जिनके चरणों के तलवों में कमल अंकित हैं, उन भगवान को मैं सादर नमस्कार करती हूँ।

23 हे ऋषिकेश, हे इंद्रियों के स्वामी तथा देवों के देव, आपने दीर्घ काल तक बंदीगृह में बंदिनी बनाई गई और दुष्ट राजा कंस द्वारा सताई जा रही अपनी माता देवकी को तथा अनवरत विपत्तियों से घिरे हुए मेरे पुत्रों समेत मुझको मुक्त किया है।

24 हे कृष्ण, आपने हमें विषाक्त भोजन से, भीषण अग्नि-काण्ड से, मानव-भक्षियों से, दुष्ट सभा से, वनवास-काल के कष्टों से तथा महारथियों द्वारा लड़े गये युद्ध से बचाया है और अब आपने हमें अश्वत्थामा के अस्त्र से बचा लिया है।

25 मैं चाहती हूँ कि ये सारी विपत्तियाँ बारंबार आयें, जिससे हम आपका दर्शन पुनः पुनः कर सकें, क्योंकि आपके दर्शन का अर्थ यह है कि हमें बारंबार होने वाले जन्म तथा मृत्यु को नहीं देखना पड़ेगा। 26 हे प्रभु, आप सरलता से प्राप्त होने वाले हैं, लेकिन केवल उन्हीं के द्वारा, जो भौतिक दृष्टि से अकिंचन हैं। जो सम्मानित कुल, ऐश्वर्य, उच्च शिक्षा तथा शारीरिक सौंदर्य के द्वारा भौतिक प्रगति के पथ पर आगे बढ़ने के प्रयास में लगा रहता है, वह आप तक एकनिष्ठ भाव से नहीं पहुँच पाता।

27 मैं निर्धनों के धन आपको नमस्कार करती हूँ। आपको प्रकृति के भौतिक गुणों की क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं से कोई सरोकार नहीं है। आप आत्म-तुष्ट हैं, अतएव आप परम शांत तथा अद्वैतवादियों के स्वामी कैवल्य-पति हैं।

28 हे भगवान, मैं आपको शाश्वत समय, परम नियंता, आदि-अंत से रहित तथा सर्वव्यापी मानती हूँ। आप सबों पर समान रूप से दया दिखलाते हैं। जीवों में जो परस्परिक कलह है, वह सामाजिक मतभेद के कारण है।

29 हे भगवान, आपकी दिव्य लीलाओं को कोई समझ नहीं सकता, क्योंकि वे मानवीय प्रतीत होती हैं और इस कारण भ्रामक हैं। न तो आपका कोई विशेष कृपा-पात्र है, न ही कोई आपका अप्रिय है। यह केवल लोगों की कल्पना ही है कि आप पक्षपात करते हैं।

30 हे विश्वात्मा, यह सचमुच ही चकरा देनेवाली बात (विडम्बना) है कि आप निष्क्रिय रहते हुए भी कर्म करते हैं और प्राणशक्ति रूप तथा अजन्मा होकर भी जन्म लेते हैं। आप स्वयं पशुओं, मनुष्यों, ऋषियों तथा जलचरों के मध्य अवतरित होते हैं। सचमुच ही यह चकरानेवाली बात है।

31 हे कृष्ण, जब आपने कोई अपराध किया था, तब यशोदा ने जैसे ही आपको बाँधने के लिए रस्सी उठाई, तो आपकी व्याकुल आँखें अश्रुओं से डबडबा आई, जिससे आपकी आँखों का काजल धुल गया। यद्यपि आपसे साक्षात काल भी भयभीत रहता है, फिर भी आप भयभीत हुए। यह दृश्य मुझे मोहग्रस्त करनेवाला है।

32 कुछ कहते हैं कि अजन्मा का जन्म पुण्यात्मा राजाओं की कीर्ति का विस्तार करने के लिए हुआ है और कुछ कहते हैं कि आप अपने परम भक्त राजा यदु को प्रसन्न करने के लिए जन्में है। आप उसके कुल में उसी प्रकार प्रकट हुए हैं, जिस प्रकार मलय पर्वत में चन्दन होता है।

33 अन्य लोग कहते हैं कि चूँकि वसुदेव तथा देवकी दोनों ने आपके लिए प्रार्थना की थी, अतएव आप उनके पुत्र-रूप में जन्में हैं। निस्संदेह, आप अजन्मा हैं, फिर भी आप देवताओं का कल्याण करने तथा उनसे ईर्ष्या करने वाले असुरों को मारने के लिए जन्म स्वीकार करते हैं।

34 कुछ कहते हैं कि जब यह संसार, भार से बोझिल समुद्री नाव की भांति, अत्यधिक पीड़ित हो उठा तथा आपके पुत्र ब्रह्मा ने प्रार्थना की, तो आप कष्ट का शमन करने के लिए अवतरित हुए हैं 35 तथा कुछ कहते हैं कि आप श्रवण, स्मरण, पूजन आदि की भक्ति को जागृत करने के लिए प्रकट हुए हैं, जिससे भौतिक कष्टों को भोगने वाले बद्धजीव इसका लाभ उठाकर मुक्ति प्राप्त कर सकें।

36 हे कृष्ण, जो आपके दिव्य कार्यकलापों का निरंतर श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण करते हैं या दूसरों को ऐसा करते देखकर हर्षित होते हैं, वे निश्चय ही आपके उन चरणकमलों का दर्शन करते हैं, जो जन्म-मृत्यु के पुनरागमन को रोकने वाले हैं।

37 हे मेरे प्रभु, आपने अपने सारे कर्तव्य स्वयं पूरे कर दिये हैं। आज जब हम आपकी कृपा पर पूरी तरह आश्रित हैं और जब हमारा और कोई रक्षक नहीं है और जब सारे राजा हमसे शत्रुता किए हुए हैं, तो क्या आप हमें छोड़कर चले जायेंगे।

38 जिस तरह आत्मा के अदृश्य होते ही शरीर का नाम तथा यश समाप्त हो जाता है उसी तरह यदि आप हमारे ऊपर कृपा-दृष्टि नहीं करेंगे, तो पांडवों तथा यदुओं समेत हमारा यश तथा गतिविधियाँ तुरंत ही नष्ट हो जाएंगी।

39 हे गदाधर (कृष्ण) इस समय हमारे राज्य में आपके चरण-चिन्हों की छाप पड़ी हुई है और इसके कारण यह सुंदर लगता है, लेकिन आपके चले जाने पर यह ऐसा नहीं रह जायेगा।

40 ये सारे नगर तथा ग्राम सब प्रकार से समृद्ध हो रहे हैं, क्योंकि जड़ी-बूटियों तथा अन्नों की प्रचुरता है, वृक्ष फलों से लदे हैं, नदियाँ बह रही हैं, पर्वत खनिजों से तथा समुद्र संपदा से भरे पड़े हैं और यह सब उन पर आपकी कृपा-दृष्टि पड़ने से ही हुआ है।

41 अतः हे ब्रह्मांड के स्वामी, हे ब्रह्मांड के आत्मा, हे विश्वरूप, कृपा करके मेरे स्वजनों, पांडवों तथा वृष्णियों के प्रति मेरे स्नेह-बंधन को काट डालें।

42 हे मधुपति, जिस प्रकार गंगा नदी बिना किसी व्यवधान के सदैव समुद्र की ओर बहती है, उसी प्रकार मेरा आकर्षण अन्य किसी ओर न बँट कर आपकी ओर निरंतर बना रहे।

43 हे कृष्ण, हे अर्जुन के मित्र, हे वृष्णिकुल के प्रमुख, आप उन समस्त राजनीतिक पक्षों के विध्वंसक हैं, जो इस धरा पर उपद्रव फैलानेवाले हैं। आपका शौर्य कभी क्षीण नहीं होता। आप दिव्य धाम के स्वामी हैं और आप गायों, ब्राह्मणों तथा भक्तों के कष्टों को दूर करने के लिए अवतरित होते हैं। आपमें सारी योग-शक्तियाँ हैं और आप समस्त विश्व के उपदेशक (गुरु) हैं। आप सर्वशक्तिमान ईश्वर हैं। मैं आपको सादर प्रणाम करती हूँ।

(समर्पित एवं सेवारत जेसीचौहान)

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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

भगवान की विभूतियाँ (11.16)

श्री उद्धव ने कहा: हे प्रभु, आप अनादि तथा अनंत, साक्षात परब्रह्म तथा अन्य किसी वस्तु से सीमित नहीं हैं। आप सभी वस्तुओं के रक्षक तथा जीवनदाता, उनके संहार तथा सृष्टि हैं। हे प्रभु, यद्यपि अपवित्र लोगों के लिए यह समझ पाना कठिन है कि आप समस्त उच्च तथा निम्न सृष्टियों में स्थित हैं, किन्तु वे ब्राह्मण जो वैदिक मत को भलीभाँति जानते हैं आपकी वास्तविक रूप में पूजा करते हैं। कृपया मुझसे उन सिद्धियों को बतलायेँ जिन्हें महर्षिगण आपकी भक्तिपूर्वक पूजा द्वारा प्राप्त करते हैं। कृपया यह भी बतलायेँ कि वे आपके किन विविध रूपों की पूजा करते हैं। हे सर्वपालक प्रभु, यद्यपि आप सभी जीवों के परमात्मा हैं किन्तु आप गुप्त रहते हैं। इस तरह आपके द्वारा मोहग्रस्त बनाए जाकर सारे जीव आपको देख नहीं पाते यद्यपि आप उन्हें देखते रहते हैं। हे परम शक्तिमान प्रभु, कृपा करके मुझे अपनी वे असंख्य शक्तियाँ बतलायेँ जिन्हें आप पृथ्वी में, स्वर्ग में, नरक में तथा समस्त दिशाओं में प्रकट करते हैं। मैं आपके उन चरणकमलों को सादर नमस्कार करता हूँ जो समस्त तीर्थस्थलों के आश्रय हैं। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने कहा: हे प्रश्नकर्ताओं में श्रेष्ठ, अर्जुन ने अपने प्रतिद्वंद्वियों से युद्ध करने की इच्छा से कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में मुझसे यही प्रश्न पूछा था जिसे तुम पूछने जा रहे हो।

कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अर्जुन ने सोचा कि अपने संबंधियों का वध करना अत्यंत गर्हित एवं अधार्मिक कार्य है जो राज्य प्राप्त करने की उसकी इच्छा से प्रेरित है। अतएव यह सोचकर कि मैं अपने संबंधियों का मारने वाला होऊँगा और वे विनष्ट हो जाएँगे, वह युद्ध से विरत होना चाहता था। इस तरह वह संसारी चेतना से आहत था। उस समय मैंने पुरुषों में व्याघ्र अर्जुन को तर्क द्वारा समझाया और युद्ध के मोर्चे में ही अर्जुन ने मुझसे उसी तरह के प्रश्न किये थे जिस तरह तुम अब कर रहे हो। हे उद्धव, मैं समस्त जीवों का परमात्मा हूँ, अतएव मैं स्वाभाविक रूप से उनका हितेच्छु तथा परम नियंता हूँ। सारे जीवों का स्रष्टा, पालक तथा संहर्ता होने से मैं उनसे भिन्न नहीं हूँ। मैं उन्नति चाहने वालों का चरम गंतव्य हूँ और जो नियंत्रण किये रखना चाहते हैं उनमें मैं काल हूँ। मैं भौतिक गुणों की साम्यावस्था हूँ और पवित्रों के बीच मैं स्वाभाविक गुण हूँ। गुणयुक्त वस्तुओं में मैं प्रकृति की प्राथमिक अभिव्यक्ति हूँ और महान वस्तुओं में मैं समग्र सृष्टि हूँ। सूक्ष्म वस्तुओं में मैं आत्मा हूँ और दुर्जेय वस्तुओं में मैं मन हूँ।

वेदों में मैं आदि शिक्षक ब्रह्मा और समस्त मंत्रों में मैं तीन अक्षरों (मात्राओं) वाला ॐकार हूँ। अक्षरों में मैं प्रथम अक्षर अ (आकार) और पवित्र छंदों में गायत्री मंत्र हूँ। मैं देवताओं में इन्द्र तथा वसुओं में अग्नि देव हूँ। मैं अदिति-पुत्रों में विष्णु तथा रुद्रों में शिव हूँ। मैं ब्रह्मर्षियों में भृगु मुनि तथा राजर्षियों में मनु हूँ। देवर्षियों में मैं नारद मुनि तथा गौवों में कामधेनु हूँ। मैं सिद्धों में भगवान कपिल तथा पक्षियों में गरुड़ हूँ। प्रजापतियों में मैं दक्ष तथा पितरों में अर्यमा हूँ। हे उद्धव, तुम मुझे दिति के असुर पुत्रों में असुरों का साधु सदृश स्वामी प्रह्लाद महाराज जानो। मैं नक्षत्रों तथा औषधियों में उनका स्वामी चंद्र हूँ और यक्षों तथा राक्षसों में धन का स्वामी कुबेर हूँ। मैं राजसी हाथियों में ऐरावत और जलचरों में समुद्रों का अधिपति वरुण हूँ। समस्त ऊष्मा तथा प्रकाश प्रदान करनेवाली वस्तुओं में मैं सूर्य और मनुष्यों में राजा हूँ। घोड़ों में मैं उच्चैश्रवा तथा धातुओं में स्वर्ण हूँ। दंड देने वालों तथा दमन करने वालों में मैं यमराज हूँ और सर्पों में वासुकि हूँ। हे निष्पाप उद्धव, श्रेष्ठ सर्पों में मैं अनंतदेव हूँ और पैने सींग तथा दाँत वाले पशुओं में मैं सिंह हूँ। आश्रमों में मैं चौथा आश्रम अर्थात संन्यास आश्रम हूँ और चारों वर्णों में प्रथम वर्ण अर्थात ब्राह्मण हूँ। 

पवित्र तथा प्रवहमान वस्तुओं में मैं पवित्र गंगा हूँ और स्थिर जलाशयों में समुद्र हूँ। हथियारों में मैं धनुष और हथियार चलाने वालों में मैं त्रिपुरारी शिव हूँ। निवासस्थानों में मैं सुमेरु पर्वत हूँ और दुर्गम स्थानों में हिमालय हूँ। वृक्षों में मैं पवित्र वटवृक्ष तथा धान्यों में मैं जौ (यव) हूँ। पुरोहितों में, मैं वसिष्ठ मुनि और वैदिक संस्कृति के अग्रगण्यों में बृहस्पति हूँ। मैं महान सेना नायकों में स्कन्द (कार्तिकेय) और उच्च जीवन बिताने वालों में महापुरुष ब्रह्मा हूँ। यज्ञों में मैं वेदाध्ययन और व्रतों में अहिंसा हूँ। पवित्र करने वाली सभी वस्तुओं में मैं वायु, अग्नि, सूर्य, जल तथा वाणी हूँ। मैं योग की आठ उत्तरोत्तर अवस्थाओं में से अंतिम अवस्था---समाधि हूँ जिसमें आत्मा मोह से पूर्णतया पृथक हो जाता है। विजय की आकांक्षा रखनेवालों में मैं कुशल राजनीतिक सलाहकार हूँ और दक्ष विवेकी विधियों में मैं आत्मज्ञान हूँ जिसके द्वारा पदार्थ से आत्मा को विभेदित किया जाता है। मैं समस्त निर्विशेषवादियों (ज्ञानियों) में अनुभूति-वैविध्य हूँ। मैं स्त्रियों में शतरूपा और पुरुषों में उसका पति स्वायंभुव मनु हूँ। ऋषियों में मैं नारायण हूँ और ब्रह्मचारियों में सनत्कुमार हूँ। धार्मिक सिद्धांतों में, मैं संन्यास हूँ और समस्त प्रकार की सुरक्षा में अंतस्थ नित्य आत्मा की चेतना हूँ।

रहस्यों में, मैं मधुर वाणी तथा मौन हूँ तथा मैथुनरत युगलों में ब्रह्मा हूँ। सतर्क कालचक्रों में, मैं वर्ष हूँ और ऋतुओं में वसंत हूँ। महीनों में, मैं मार्गशीर्ष तथा नक्षत्रों में शुभ अभिजीत हूँ। युगों में, मैं सत्ययुग और अविचल मुनियों में देवल तथा असित हूँ। वेदों का विभाजन करने वालों में मैं कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास हूँ और विद्वानों में मैं आध्यात्मिक विज्ञान का ज्ञाता शुक्राचार्य हूँ। भगवान नाम के अधिकारियों में मैं वासुदेव हूँ तथा हे उद्धव, तुम निस्संदेह भक्तों में मेरा प्रतिनिधित्व करते हो। मैं किम्पुरुषों में हनुमान हूँ और विद्याधरों में सुदर्शन हूँ। रत्नों में, मैं लाल हूँ और सुंदर वस्तुओं में कमल की कली हूँ। सभी प्रकार के तृणों में मैं पवित्र कुश हूँ और आहुतियों में घी तथा गाय से प्राप्त होने वाले अन्य पदार्थ हूँ। उद्यमियों में, मैं लक्ष्मी हूँ और कपट करनेवालों में मैं जुआ (द्यूत क्रीड़ा) हूँ। सहिष्णुओं में, मैं क्षमाशीलता और सतोगुणियों में सद्गुण हूँ। बलवानों में, मैं शारीरिक तथा मानसिक बल हूँ और अपने भक्तों का भक्तिमय कर्म हूँ। मेरे भक्तगण मेरी पूजा नौ विभिन्न रूपों में करते हैं जिनमें से मैं आदि तथा प्रमुख वासुदेव हूँ। मैं गन्धर्वों में विश्र्वावसु तथा स्वर्गिक अप्सराओं में पूर्वचित्ति हूँ। मैं पर्वतों की स्थिरता तथा पृथ्वी की सुगंध हूँ।

मैं जल का मधुर स्वाद हूँ और चमकीली वस्तुओं में सूर्य हूँ। मैं सूर्य, चंद्रमा तथा तारों का प्रकाश हूँ और आकाश में ध्वनित होनेवाली दिव्य ध्वनि हूँ। ब्राह्मण संस्कृति के उपासकों में, मैं विरोचन-पुत्र बलि महाराज हूँ और वीरों में अर्जुन हूँ। दरअसल, मैं ही समस्त जीवों की उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार हूँ। मैं पाँच कर्मेन्द्रियों--पाँव, वाणी, गुदा, हाथ तथा जननांग--के साथ ही पाँच ज्ञानेन्द्रियों--स्पर्श, दृष्टि, स्वाद, श्रवण तथा गंध--के कार्यकलाप हूँ। मैं सामर्थ्य भी हूँ जिससे प्रत्येक इंद्रिय अपने अपने इंद्रिय-विषय का अनुभव करती है। मैं स्वरूप, स्वाद, गंध, स्पर्श तथा ध्वनि; मिथ्या अहंकार, महत तत्त्व; पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश; जीव, भौतिक प्रकृति; सतो, रजो तथा तमोगुण; एवं दिव्य भगवान हूँ। ये सारी वस्तुएँ, इन सबों के लक्षण तथा इस ज्ञान से उत्पन्न दृढ़ निश्चय भी मैं ही हूँ। परमेश्र्वर के रूप में मैं जीव, प्रकृति के गुणों तथा महत तत्त्व का आधार हूँ। इस प्रकार मैं सर्वस्व हूँ और कोई भी वस्तु मेरे बिना विद्यमान नहीं रह सकती। भले ही मैं कुछ समय में ब्रह्मांड के समस्त अणुओं की गणना कर सकूँ, किन्तु असंख्य ब्रह्मांडों में प्रदर्शित अपने समस्त ऐश्वर्यों की गणना मैं भी नहीं कर पाऊँगा। जो भी शक्ति, सौंदर्य, यश, ऐश्वर्य, विनम्रता, त्याग, मानसिक आनंद, सौभाग्य, शक्ति, सहिष्णुता या आध्यात्मिक ज्ञान हो सकता है, वह सब मेरे ऐश्वर्य का अंश है।

मैंने तुमसे संक्षेप में अपने सारे आध्यात्मिक ऐश्वर्यों तथा अपनी सृष्टि के उन अद्वितीय भौतिक गुणों का भी वर्णन किया, जो मन से अनुभव किये जाते हैं और परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न तरीकों से परिभाषित होते हैं। अतएव अपनी वाणी पर संयम रखो, मन को दमित करो, प्राणवायु पर विजय पाओ, इंद्रियों को नियमित करो तथा विमल बुद्धि के द्वारा अपनी विवेकपूर्ण प्रतिभा को अपने वश में करो। इस तरह तुम पुनः भौतिक जगत के पथ पर कभी डिगोगे नहीं। जो योगी अपनी श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा अपनी वाणी तथा मन पर पूरा नियंत्रण नहीं रखता, उसके आध्यात्मिक व्रत, तपस्या तथा दान उसी तरह बह जाते हैं जिस तरह कच्चे मिट्टी के घड़े से पानी बह जाता है। मेरे शरणागत होकर मनुष्य को वाणी, मन तथा प्राण पर नियंत्रण रखना चाहिए और तब भक्तिमयी बुद्धि के द्वारा वह अपने जीवन-लक्ष्य को पूरा कर सकेगा।

(समर्पित एवं सेवारत जे. सी. चौहान)

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ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

श्रीमद भागवत की महिमा

द्वादश स्कन्ध अध्याय तेरह

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सूत गोस्वामी ने कहा: ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र तथा मरुतगण दिव्य स्तुतियों का उच्चारण करके तथा वेदों को उनके अंगों, पद-क्रमों तथा उपनिषदों समेत बाँच कर जिनकी स्तुति करते हैं, सामवेद के गायक जिनका सदैव गायन करते हैं, सिद्ध योगी अपने को समाधि में स्थिर करके और अपने को उनके भीतर लीन करके जिनका दर्शन अपने मन में करते हैं तथा जिनका पार किसी देवता या असुर द्वारा कभी भी नहीं पाया जा सकता---ऐसे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को मैं सादर नमस्कार करता हूँ। जब भगवान कूर्म (कछुवे) के रूप में प्रकट हुए तो उनकी पीठ पर स्थित भारी, घूमने वाले मंदराचल पर्वत के नुकीले पत्थरों के द्वारा खरोंची गई जिसके कारण भगवान उनींदे हो गये। इस सुप्तावस्था में भगवान की श्र्वास से उत्पन्न वायुओं द्वारा आप सबों की रक्षा हो। उसी काल से, आज तक, समुद्री ज्वारभाटा पवित्र रूप में आ-आकर भगवान के श्र्वास-निश्र्वास का अनुकरण करता आ रहा है। अब मुझसे सभी पुराणों की श्लोक-संख्या सुनिये। तब इस भागवत पुराण के मूल विषय तथा उद्देश्य, इसे भेंट में देने की सही विधि, ऐसी भेंट देने का माहात्म्य और अंत में इस ग्रंथ के सुनने तथा कीर्तन करने का माहात्म्य सुनिये। ब्रह्म पुराण में दस हजार, पद्म पुराण में पचपन हजार, श्री विष्णु पुराण में तेईस हजार, शिव पुराण में चौबीस हजार तथा श्रीमदभागवत में अठारह हजार श्लोक हैं। नारद पुराण में पच्चीस हजार हैं, मार्कण्डेय पुराण में नौ हजार, अग्नि पुराण में पंद्रह हजार चार सौ, भविष्य पुराण में चौदह हजार पाँच सौ, ब्रह्मवैवर्त पुराण में अठारह हजार तथा लिंग पुराण में ग्यारह हजार श्लोक हैं। वराह पुराण में चौबीस हजार, स्कन्द पुराण में इक्यासी हजार एक सौ, वामन पुराण में दस हजार, कूर्म पुराण में सत्रह हजार, मत्स्य पुराण में चौदह हजार, गरुड़ पुराण में उन्नीस हजार तथा ब्रह्मांड पुराण में बारह हजार श्लोक हैं। इस तरह समस्त पुराणों की कुल श्लोक संख्या चार लाख है। पुनः इनमें से अठारह हजार श्लोक अकेले श्रीमदभागवत के हैं। भगवान ने सर्वप्रथम ब्रह्मा को सम्पूर्ण श्रीमदभागवत प्रकाशित की। उस समय ब्रह्मा, संसार से भयभीत होकर, भगवान की नाभि से निकले कमल पर आसीन थे। 

श्रीमदभागवत आदि से अंत तक ऐसी कथाओं से भरा पड़ा है, जो भौतिक जीवन से वैराग्य की ओर ले जाने वाली हैं। साथ ही इसमें भगवान हरि की दिव्य लीलाओं का अमृतमय विवरण भी है, जो संत भक्तों तथा देवताओं को भाव विभोर कर देने वाला है। यह भागवत समस्त वेदान्त दर्शन का सार है क्योंकि इसकी विषयवस्तु परम सत्य है, जो आत्मा से अभिन्न होते हुए भी अद्वितीय सर्वोपरि सत्य है। इस ग्रंथ का लक्ष्य परम सत्य की एकांतिक भक्ति है। यदि कोई व्यक्ति भाद्र मास की पूर्णमासी को सोने के सिंहासन पर रखकर श्रीमदभागवत का दान उपहार के रूप में देता है, तो उसे परम दिव्य गंतव्य प्राप्त होगा। अन्य सारे पुराण तब तक संत भक्तों की सभा में चमकते हैं जब तक अमृत के महासागर श्रीमदभागवत को सुना नहीं गया हो। श्रीमदभागवत को समस्त वेदान्त-दर्शन का सार कहा जाता है। जिसे इसके अमृतमय रस से तुष्टि हुई है, वह कभी अन्य किसी ग्रंथ के प्रति आकृष्ट नहीं होगा। जिस तरह गंगा समुद्र की ओर बहने वाली समस्त नदियों में सबसे बड़ी है, भगवान अच्युत देवों में सर्वोच्च हैं और भगवान शंभु (शिव) वैष्णवों में सबसे बड़े हैं, उसी तरह श्रीमदभागवत समस्त पुराणों में सर्वोपरि है। हे ब्राह्मणों, जिस तरह पवित्र स्थानों में काशी नगरी अद्वितीय है, उसी तरह समस्त पुराणों में श्रीमदभागवत सर्वश्रेष्ठ है।श्रीमदभागवत निर्मल पुराण है। यह वैष्णवों को अत्यंत प्रिय है क्योंकि यह परमहंसों के शुद्ध तथा सर्वोच्च ज्ञान का वर्णन करनेवाला है। यह भागवत समस्त भौतिक कर्म से छूटने के साधन के साथ ही दिव्य ज्ञान, वैराग्य तथा भक्ति की विधियों को प्रकाशित करता है। जो कोई भी श्रीमदभागवत को गंभीरतापूर्वक समझने का प्रयास करता है, जो समुचित ढंग से श्रवण करता है और भक्तिपूर्वक कीर्तन करता है, वह पूर्ण मुक्त हो जाता है।

मैं उन शुद्ध तथा निष्कलुष परम पूर्ण सत्य का ध्यान करता हूँ जो दुख तथा मृत्यु से मुक्त हैं और जिन्होंने प्रारम्भ में इस ज्ञान के अतुलनीय दीपक को ब्रह्मा से प्रकट किया। तत्पश्र्चात ब्रह्मा ने इसे नारद मुनि से कहा, जिन्होंने इसे कृष्ण द्वैपायन व्यास से कह सुनाया। श्रील व्यास ने इस भागवत को मुनियों में सर्वोपरि, शुकदेव गोस्वामी, को बतलाया जिन्होंने कृपा करके इसे महाराज परीक्षित से कहा। हम सर्वव्यापक साक्षी, भगवान वासुदेव को नमस्कार करते हैं जिन्होंने कृपा करके ब्रह्मा को यह विज्ञान तब बतलाया जब वे उत्सुकतापूर्वक मोक्ष चाह रहे थे। मैं श्री शुकदेव गोस्वामी को सादर नमस्कार करता हूँ जो श्रेष्ठ योगी-मुनि हैं और परम सत्य के साकार रूप हैं। उन्होंने संसार रूपी सर्प द्वारा काटे गये परीक्षित महाराज को बचाया। हे ईशों के ईश, हे स्वामी, आप हमें जन्म-जन्मांतर तक अपने चरणकमलों की शुद्ध भक्ति का वर दें। मैं उन भगवान हरि को सादर नमस्कार करता हूँ जिनके पवित्र नामों का सामूहिक कीर्तन सारे पापों को नष्ट करता है और जिनको नमस्कार करने से सारे भौतिक कष्टों से छुटकारा मिल जाता है।

(समर्पित एवं सेवारत जे. सी. चौहान)

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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

द्वादश स्कन्ध (12 Canto)

 

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श्रीमद भागवतम द्वादश स्कन्ध के श्लोकों का कथारूप में अनुदित संकलन

हिन्दी भाषी भक्तों के लाभार्थ सादर, साभार श्रील प्रभुपाद के श्रीचरणों में समर्पित

अध्याय बारह ------ श्रीमद भागवत की संक्षिप्त विषय-सूची

सूत गोस्वामी ने कहा: परम धर्म भक्ति को, परम स्रष्टा भगवान कृष्ण को तथा समस्त ब्राह्मणों को नमस्कार करके, अब मैं धर्म के शाश्र्वत सिद्धांतों का वर्णन करूँगा। हे ऋषियों, मैं आप लोगों से भगवान विष्णु की अद्भुत लीलाएँ कह चुका हूँ, क्योंकि आप लोगों ने इनके विषय में मुझसे पूछा था। ऐसी कथाओं का सुनना उस व्यक्ति के लिए उचित है, जो वास्तव में मानव है। यह ग्रंथ उन भगवान श्री हरि का पूर्ण गुणगान करनेवाला है, जो अपने भक्तों के सारे पापों को दूर करने वाले हैं। भगवान का यह गुणगान नारायण, हृषिकेश तथा सात्वतों के प्रभु के रूप में किया गया है। यह ग्रंथ इस ब्रह्मांड के सृजन तथा संहार के स्रोत परम सत्य के रहस्य का वर्णन करता है। यही नहीं, इसमें उनके दैवी ज्ञान के साथ-साथ उसके अनुशीलन की विधि तथा मनुष्य द्वारा प्राप्त होनेवाली दिव्य अनुभूति का भी वर्णन हुआ है।

इसमें भक्ति की विधि के साथ-साथ वैराग्य का गौण स्वरूप तथा महाराज परीक्षित एवं नारद मुनि के इतिहास का भी वर्णन हुआ है। इसके साथ ही ब्राह्मण-पुत्र के शाप के शमनार्थ परीक्षित का आमरण उपवास करना तथा परीक्षित और ब्राह्मण-श्रेष्ठ शुकदेव के मध्य हुई वार्ता का भी वर्णन हुआ है। भागवत बतलाती है कि किस तरह योग में ध्यान स्थिर करके मृत्यु के समय मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। इसमें नारद तथा ब्रह्मा के बीच हुई वार्ता, भगवान के अवतारों की गणना तथा भौतिक प्रकृति की अव्यक्त अवस्था से लेकर क्रमशः यह ब्रह्मांड जिस तरह बना, उसका भी वर्णन हुआ है। इस शास्त्र में उद्धव तथा मैत्रेय के साथ विदुर के संवादों, इस पुराण के विषय में प्रश्न तथा प्रलय के समय भगवान के शरीर में सृष्टि के विलीन होने का भी वर्णन हुआ है। प्रकृति के गुणों के उद्वेलन से उत्पन्न सृष्टि, तात्विक विकारों से विकास की सात अवस्थाएँ तथा उस विश्र्व अंडे का निर्माण जिससे भगवान के विश्र्वरूप का उदय होता है--इन सबों का इसमें पूरी तरह वर्णन हुआ है। 

अन्य विषयों में काल की स्थूल तथा सूक्ष्म गतियाँ, गर्भोदकशायी विष्णु की नाभि से कमल की उत्पत्ति तथा हिरण्याक्ष असुर का वध, जब गर्भोदक सागर से पृथ्वी का उद्धार हुआ, सम्मिलित हैं। भागवत में देवताओं, पशुओं तथा आसुरी योनियों की उत्पत्ति, भगवान रुद्र के जन्म तथा अर्ध नारीश्र्वर से स्वायंभुव मनु के प्राकट्य का भी वर्णन हुआ है। इसमें प्रथम स्त्री शतरुपा, जोकि मनु की अति गुणी प्रिया थीं तथा प्रजापति कर्दम की पवित्र पत्नियों की संतान का भी वर्णन हुआ है। भागवत में महान कपिल मुनि के रूप में भगवान के अवतार का और इन विद्वान महात्मा तथा उनकी माता देवहूति के बीच हुई वार्ता का अंकन है। इसमें नौ महान ब्राह्मणों की संतानों, दक्ष के यज्ञ के विध्वंस तथा ध्रुव महाराज के इतिहास, तत्पश्र्चात राजा पृथु एवं राजा प्राचीनबर्ही की कथाओं, प्राचीनबर्ही तथा नारद के बीच संवाद तथा महाराज प्रियव्रत के जीवन का वर्णन हुआ है। तत्पश्र्चात हे ब्राह्मणों, भागवत में राजा नाभि, भगवान ऋषभ तथा राजा भरत के चरित्र एवं कार्यों का वर्णन मिलता है। 

भागवत में पृथ्वी के महाद्वीपों, वर्षों, समुद्रों, पर्वतों तथा नदियों का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसमें स्वर्गिक मण्डल की व्यवस्था तथा पाताल और नरक में विद्यमान स्थितियों का भी वर्णन हुआ है। इसमें प्रचेताओं के पुत्र रूप में प्रजापति दक्ष का पुनर्जन्म तथा दक्ष की पुत्रियों की संतति जिससे देवताओं, असुरों, मनुष्यों, पशुओं, सर्पों, पक्षियों इत्यादि प्रजातियाँ प्रारम्भ हुई-इन सबों का वर्णन हुआ है। हे ब्राह्मणों, भागवत में वृत्रासुर के तथा दितिपुत्र हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकशिपु के जन्मों तथा मृत्युओं का और उसी के साथ दिति के महानतम वंशज, महाराज प्रह्लाद, के इतिहास का वर्णन हुआ है। इसमें प्रत्येक मनु का शासनकाल, गजेन्द्र के मोक्ष तथा प्रत्येक मन्वंतर में भगवान विष्णु के विशिष्ट अवतारों, यथा भगवान हयशीर्ष, का भी वर्णन है।

भागवत में कूर्म, मत्स्य, नृसिंह तथा वामन के रूप में ब्रह्मांड के स्वामी के प्राकट्यो एवं अमृत प्राप्ति के लिए देवताओं द्वारा क्षीरसागर के मंथन का भी वर्णन है। देवताओं तथा असुरों के बीच लड़ा गया महसंग्राम, विभिन्न राजाओं के वंशों का क्रमबद्ध वर्णन तथा इक्ष्वाकु के जन्म, उसके वंश एवं महात्मा सुद्युम्न के वंश से संबंधित कथाएँ--इन सबों को इस ग्रंथ में प्रस्तुत किया गया है। इसमें इला तथा तारा के इतिहास तथा सूर्यदेव के वंशजों का जिनमें शशाद तथा नृग जैसे राजा सम्मिलित हैं, वर्णन हुआ है। इसमें सुकन्या, शर्याति, बुद्धिमान ककुत्स्थ, खटवांग, मांधाता, सौभरि तथा सगर की कथाएँ कही गई हैं। भागवत में कौशल के राजा भगवान रामचन्द्र की पवित्रकारिणी लीलाओं का वर्णन है और उसी के साथ यह भी बताया गया है कि राजा निमि ने किस तरह अपना भौतिक शरीर छोड़ा। इसमें राजा जनक के वंशजों की उत्पत्ति का भी उल्लेख हुआ है।

श्रीमदभागवत में वर्णन हुआ है कि किस तरह भृगुवंशियों में सबसे महान भगवान परशुराम ने पृथ्वी से सारे क्षत्रियों का संहार किया। इसमें उन यशस्वी राजाओं के जीवनों का वर्णन हुआ है, जो चंद्रवंश में प्रकट हुए--यथा ऐल, ययाति, नहुष, दुष्मन्त पुत्र भरत, शांतनु तथा शांतनु पुत्र भीष्म जैसे राजा। इसके साथ ही ययाति के ज्येष्ठ पुत्र राजा यदु द्वारा स्थापित महान वंश का भी वर्णन हुआ है। जिस तरह ब्रह्मांड के स्वामी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण यदुवंश में अवतरित हुए, जिस तरह उन्होंने वसुदेव के घर में जन्म लिया और जिस तरह वे गोकुल में बड़े हुए---इन सबका इसमें विस्तार से वर्णन हुआ है। इसमें असुरों के शत्रु श्रीकृष्ण की असंख्य लीलाओं का, जिनमें पूतना के स्तनों से दुग्ध के साथ प्राण को चूस लेने, शकट-भंजन, तृणावर्त-दलन, बकासुर वध, वत्सासुर तथा अघासुर के वध की बाल-लीलाएँ और ब्रह्मा द्वारा उनके बछड़ों तथा ग्वालबाल मित्रों का गुफा में छिपाये जाने के समय की गई लीलाओं का महिमा-गान है।

श्रीमदभागवत में बताया गया है कि किस तरह भगवान कृष्ण तथा बलराम ने धेनुकासुर तथा उसके साथियों को मारा, किस तरह बलराम ने प्रलंबासुर का विनाश किया और किस तरह कृष्ण ने दावाग्नि से घिरे ग्वालबालों को बचाया। कालीय नाग का दमन, विशाल सर्प से नन्द महाराज का बचाया जाना, तरुण गोपियों द्वारा कठिन व्रत किया जाना और इस तरह कृष्ण का तुष्ट होना, उन वैदिक ब्राह्मणों की पश्चाताप कर रही पत्नियों के प्रति कृपा-प्रदर्शन, गोवर्धन पर्वत के उठाये जाने के बाद इन्द्र तथा सुरभि गाय द्वारा पूजा तथा अभिषेक किया जाना, गोपियों के साथ कृष्ण की रत्रिकालीन लीलाएँ तथा शंखचूड़, अरिष्ट एवं केशी जैसे मूर्ख असुरों का वध--ये सारी लीलाएँ इसमें विस्तार से वर्णित हैं।

भागवत में अक्रूर के आने, तत्पश्र्चात कृष्ण तथा बलराम के जाने, गोपियों का विलाप और मथुरा भ्रमण का वर्णन मिलता है। इसमें यह भी वर्णन हुआ है कि किस तरह कृष्ण तथा बलराम ने कुवलयापीड़ हाथी, मुष्टिक तथा चाणूर मल्लों एवं कंस इत्यादि असुरों का वध किया और किस तरह कृष्ण अपने गुरु सांदीपनी मुनि के मृत पुत्र को वापस ले आये। तत्पश्र्चात, हे ब्राह्मणों, इस ग्रंथ में बतलाया गया है कि किस तरह उद्धव और बलराम के साथ मथुरा में निवास करते हुए भगवान हरि ने यदुवंश की तुष्टि के लिए लीलाएँ कीं। इसके साथ ही जरासंध द्वारा लाई गई अनेक सेनाओं का संहार, बर्बर राजा कालयवन का वध तथा द्वारकापुरी की स्थापना का भी वर्णन हुआ है। इस कृति में इसका भी वर्णन है कि भगवान कृष्ण किस तरह स्वर्ग से पारिजात वृक्ष तथा सुधर्मा सभाभवन लाये और उन्होंने किस तरह युद्ध में अपने प्रतिद्वंद्वियों को हराकर रुक्मिणी का हरण किया। इसमें इसका भी वर्णन हुआ है कि कृष्ण ने किस तरह बाणासुर के साथ युद्ध में, शिव को जंभाई दिलाकर परास्त किया, किस तरह उन्होंने बाणासुर की भुजाएँ काटीं और किस तरह प्रागज्योतिषपुर के स्वामी को मारा तथा उसके बाद उस नगरी में बंदी की गई कुमारियों को छुड़ाया। 

भागवत में चेदीराज, पौण्ड़ृक, शाल्व, मूर्ख दंतव्रक, शंबर, द्विविद, पीठ, मूर, पंचजन तथा अन्य असुरों के पराक्रमों तथा मृत्युओं के वर्णन के साथ-साथ बनारस के जलाये जाने का वर्णन है। इसमें यह भी बताया गया है कि किस तरह कृष्ण ने पांडवों को कुरुक्षेत्र के युद्ध में लगाकर पृथ्वी के भार को कम किया। भगवान द्वारा ब्राह्मण शाप के बहाने अपने वंश की समाप्ति, नारद के साथ वसुदेव का संवाद, उद्धव तथा कृष्ण के बीच असाधारण बातचीत जो आत्म-विज्ञान को विस्तार से प्रकट करनेवाली है और मानव समाज के धर्म की व्याख्या करती है और फिर भगवान कृष्ण द्वारा अपने योगबल से इस मर्त्यलोक का परित्याग करना---इन सारी घटनाओं का भागवत में वर्णन हुआ है। इस कृति में विभिन्न युगों में लोगों के लक्षण तथा आचरण, कलियुग में मनुष्यों के सम्मुख आनेवाली अव्यवस्था, चार प्रकार के प्रलय तथा तीन प्रकार की सृष्टि का भी वर्णन हुआ है। इसमें बुद्धिमान तथा साधु स्वभाव वाले राजा विष्णुरात (परीक्षित) के निधन का, श्रील व्यासदेव द्वारा वेदों की शाखाओं के प्रसार की व्याख्या का, मार्कण्डेय ऋषि विषयक शुभ कथा का तथा भगवान के विश्र्वरूप एवं ब्रह्मांड की आत्मा सूर्य के रूप में उनके रूप की विस्तृत व्याख्या का भी विवरण है। 

इस प्रकार हे श्रेष्ठ-ब्राह्मण जनों, यहाँ पर तुम लोगों ने जो कुछ मुझसे पूछा था, वह सब मैंने बतला दिया। इस ग्रंथ में भगवान के लीला अवतारों के कार्यकलापों का विस्तार से गुणगान हुआ है। यदि गिरते, लड़खड़ाते, पीड़ा अनुभव करते या छींकते समय कोई विवशता से भी उच्च स्वर से "भगवान हरि की जय हो" चिल्लाता है, तो वह स्वतः सारे पापों से मुक्त हो जाता है। जब लोग ठीक से भगवान की महिमा का गायन करते हैं या उनकी शक्तियों के विषय में श्रवण करते हैं, तो भगवान स्वयं उनके हृदयों में प्रवेश करते हैं और सारे दुर्भाग्य को उसी तरह दूर कर देते हैं जिस तरह सूर्य अंधेरे को दूर करता है या कि प्रबल वायु बादलों को उड़ा ले जाती है। जो शब्द दिव्य भगवान का वर्णन नहीं करते अपितु क्षणिक व्यापारों की चर्चा चलाते हैं, वे निरे झूठे तथा व्यर्थ के होते हैं। केवल वे शब्द जो भगवान के दिव्य गुणों को प्रकट करते हैं, वास्तव में, सत्य, शुभ तथा पवित्र हैं। सर्वप्रसिद्ध भगवान के यश का वर्णन करनेवाले वे शब्द आकर्षक, आस्वाद्य तथा नित नवीन रहते हैं। निस्संदेह, ऐसे शब्द मन के लिए शाश्र्वत उत्सव हैं और वे कष्ट के सागर को सुखाने वाले हैं। जो शब्द उन भगवान के यश का वर्णन नहीं करते जो सम्पूर्ण ब्रह्मांड के वातावरण को पावन करनेवाले हैं, वे कौवों के तीर्थस्थान के समान हैं तथा ज्ञानी मनुष्य कभी भी उनका प्रयोग नहीं करते। शुद्ध तथा साधु स्वभाव वाले भक्तगण केवल अच्युत भगवान के यश को वर्णन करनेवाली कथाओं में रुचि लेते हैं। दूसरी ओर जो साहित्य अनंत भगवान के नाम, यश, रूपों, लीलाओं इत्यादि की दिव्य महिमा के वर्णनों से पूर्ण होता है, वह एक सर्वथा भिन्न सृष्टि है, जो इस संसार की गुमराह सभ्यता के अपवित्र जीवन में क्रान्ति लाने वाले दिव्य शब्दों से पूर्ण होती है। ऐसे ग्रंथ भले ही ठीक से रचे हुए न हों, किन्तु उन शुद्ध पुरुषों द्वारा जो पूरी तरह से ईमानदार हैं, सुने, गाये और स्वीकार किये जाते हैं। आत्म-साक्षात्कार का ज्ञान समस्त भौतिक आसक्ति से मुक्त होते हुए भी ठीक से काम नहीं करता यदि वह अच्युत (ईश्र्वर) के भाव से विहीन हो। तब अच्छे से अच्छे सम्पन्न कर्म जो प्रारम्भ से पीड़ादायक तथा क्षणिक स्वभाव के होते हैं, किस काम के हो सकते हैं यदि उनका उपयोग भगवान की भक्ति के लिए नहीं किया जाता? वर्णाश्रम प्रणाली में सामान्य सामाजिक तथा धार्मिक कर्तव्यों को निबाहने में, तपस्या करने में तथा वेदों को श्रवण करने में जो महान उद्यम करना पड़ता है, उससे मात्र संसारी यश तथा ऐश्वर्य की ही उपलब्धि हो पाती है। किन्तु भगवान लक्ष्मीपति के दिव्य गुणों का आदर करने तथा ध्यानपूर्वक उनका पाठ सुनने से मनुष्य उनके चरणकमलों का स्मरण कर सकता है।

भगवान कृष्ण के चरणकमलों की स्मृति प्रत्येक अशुभ वस्तु को नष्ट करती है और परम सौभाग्य प्रदान करती है। यह हृदय को परिशुद्ध बनाती है और परमात्मा की भक्ति के साथ-साथ अनुभूति तथा त्याग से युक्त ज्ञान प्रदान करती है। हे सुप्रसिद्ध ब्राह्मणों, तुम लोग सचमुच अत्यंत भाग्यशाली हो क्योंकि तुम लोगों ने पहले ही अपने हृदयों में भगवान श्री नारायण को---परम नियंता तथा सारे जगत के परम आत्मा भगवान को---धारण कर रखा है जिनसे बढ़कर कोई अन्य देव नहीं है। तुम लोगों में उनके लिए अविचल प्रेम है, अतएव तुम लोग उनकी पूजा करो, ऐसा मैं अनुरोध करता हूँ। अब मुझे उस ईश-विज्ञान का पूरी तरह स्मरण हो आया है, जिसे मैंने पहले महर्षि शुकदेव गोस्वामी के मुख से सुना था। मैं महर्षियों की उस सभा में उपस्थित था जिन्होंने मृत्युपर्यन्त उपवास पर बैठे महाराज परीक्षित से कहते उन्हें सुना था। हे ब्राह्मणों, इस तरह मैंने तुम लोगों से भगवान वासुदेव की महिमा का वर्णन किया जिनके असामान्य कार्य स्तुति के योग्य हैं। यह वर्णन अशुभ का विनाश करने वाला है। जो व्यक्ति अविचल भाव से इस ग्रंथ को प्रत्येक घंटे के प्रत्येक क्षण निरंतर सुनाता है तथा जो व्यक्ति एक अथवा आधा श्लोक, अथवा एक या आधी पंक्ति श्रद्धा भाव से सुनता है, वह अपने को पवित्र बना लेता है। जो कोई इस भागवत को एकादशी या द्वादशी के दिन सुनता है उसे निश्चित रूप से दीर्घायु प्राप्त होती है और जो व्यक्ति उपवास रखते हुए इसे ध्यानपूर्वक सुनाता है, वह सारे पापों के फल से शुद्ध हो जाता है। 

जो व्यक्ति मन को वश में रखता है, जो पुष्कर, मथुरा या द्वारका जैसे पवित्र स्थानों में उपवास रखता है और इस शास्त्र का अध्ययन करता है, वह सारे भय से मुक्त हो जाता है। जो व्यक्ति इस पुराण का कीर्तन करके अथवा इसको सुनकर इसकी स्तुति करते हैं उन्हें देवता, ऋषि, सिद्ध, पितर, मनु तथा पृथ्वी के राजा समस्त वांछित वस्तुएँ प्रदान करते हैं। इस भागवत को पढ़कर एक ब्राह्मण वैसी ही शहद, घी तथा दूध की नदियों को भोग सकता है जैसी वह ऋग, यजुर तथा सामवेदों के मंत्रों का अध्ययन करके भोग सकता है। जो ब्राह्मण समस्त पुराणों के इस अनिवार्य संकलन को कर्तव्यपरायणता से पढ़ता है, वह परम गंतव्य को प्राप्त होता है, जिसका वर्णन स्वयं भगवान ने इसमें किया है। जो ब्राह्मण श्रीमदभागवत को पढ़ता है, वह भक्ति में अविचल बुद्धि प्राप्त करता है। जो राजा इसका अध्ययन करता है, वह पृथ्वी पर सारभौम सत्ता प्राप्त करता है, वैश्य विपुल कोश पा लेता है और शूद्र पापों से छूट जाता है। सारे जीवों के परम नियंता भगवान हरि कलियुग के संचित पापों का संहार करनेवाले हैं, फिर भी अन्य ग्रन्थों में उनकी स्तुति नहीं मिलती। किन्तु असंख्य साकार अंशों के रूप में प्रकट होनेवाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान इस श्रीमदभागवत की विविध कथाओं में निरंतर तथा प्रचुरता से वर्णित हुए हैं। मैं अजन्मे तथा अनंत परमात्मा को नमन करता हूँ जिनकी निजी शक्तियाँ ब्रह्मांड की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के लिए उत्तरदायी हैं। यहाँ तक के ब्रह्मा, इन्द्र, शंकर तथा स्वर्गलोकों के अन्य स्वामी भी उन अच्युत भगवान की महिमा की थाह नहीं पा सकते। मैं उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को नमस्कार करता हूँ जो शाश्र्वत, स्वामी हैं और अन्य सारे देवों के प्रधान हैं, जिन्होंने अपनी नौ शक्तियों को विकसित करके अपने भीतर सारे चर तथा अचर प्राणियों का धाम व्यवस्थित कर रखा है और जो सदैव शुद्ध दिव्य चेतना में स्थित रहते हैं। मैं अपने गुरु व्यासदेव-पुत्र, शुकदेव गोस्वामी, को सादर नमस्कार करता हूँ। वे ही इस ब्रह्मांड की सारी अशुभ वस्तुओं को नष्ट करते हैं। यद्यपि प्रारम्भ में वे ब्रह्म-साक्षात्कार के सुख में लीन थे और अन्य समस्त चेतनाओ को त्यागकर एकांत स्थान में रह रहे थे, किन्तु वे भगवान श्रीकृष्ण की मनोहर तथा अत्यंत मधुमयी लीलाओं के द्वारा आकृष्ट हुए। अतएव उन्होंने अत्यंत कृपा करके इस सर्वश्रेष्ठ पुराण, श्रीमदभागवत, का प्रवचन किया जो परम सत्य का तेज प्रकाश है और भगवान के कार्यकलापों का वर्णन करनेवाला है।

(समर्पित एवं सेवारत जे. सी. चौहान)

 

 

 

 

 

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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

एकादश स्कन्ध (Eleventh Canto)

श्रीमद भागवतम एकादश स्कन्ध के श्लोकों का कथारूप में अनुदित संकलन

हिन्दी भाषी भक्तों के लाभार्थ सादर, साभार श्रील प्रभुपाद के श्रीचरणों में समर्पित

(समर्पित एवं सेवारत जे. सी. चौहान)

 

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1  मैं घोर अज्ञान के अंधकार में उत्पन्न हुआ था, और मेरे गुरु ने अपने ज्ञानरूपी प्रकाश से मेरी आँखेँ खोल दीं। मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ।

2  श्रील रूप गोस्वामी प्रभुपाद कब मुझे अपने चरणकमलों में शरण प्रदान करेंगे, जिन्होंने इस जगत में भगवान चैतन्य की इच्छा की पूर्ति के लिए प्रचार योजना (मिशन) की स्थापना की     है।

3  मैं अपने गुरु के चरणकमलों को तथा समस्त वैष्णवों के चरणों को नमस्कार करता हूँ। मैं श्रील रूप गोस्वामी तथा उनके अग्रज सनातन गोस्वामी एवं साथ ही रघुनाथदास,    रघुनाथभट्ट, गोपालभट्ट एवं श्रील जीव गोस्वामी के चरणकमलों को सादर नमस्कार करता हूँ। मैं भगवान कृष्णचैतन्य तथा भगवान नित्यानन्द के साथ-साथ अद्वैत आचार्य,गदाधर,श्रीवास तथा अन्य पार्षदों को सादर प्रणाम करता हूँ। मैं श्रीमति राधरानी तथा श्रीकृष्ण को, श्री ललिता तथा श्री विशाखा सखियों सहित को सादर नमस्कार करता हूँ।

4  श्रीकृष्ण के चरण-आश्रित और अत्यंत प्रिय भक्त कृष्णकृपाश्रीमूर्ति श्रील अभयचरणार्विंद भक्ति वेदान्त स्वामी श्रील प्रभुपाद को मैं अपना श्रद्धापूर्वक प्रणाम करता हूँ। हे प्रभुपाद, हे सरस्वती गोस्वामी ठाकुर के प्रिय शिष्य, कृपापूर्वक श्रीचैतन्य महाप्रभु की वाणी के प्रचार के द्वारा निर्विशेषवाद, शून्यवाद पूर्ण पाश्चात्य देशों का उद्धार करने वाले, आपको मैं श्रद्धापूर्वक प्रणाम करता हूँ।

5  हे कृष्ण ! आप दुखियों के सखा तथा सृष्टि के उद्गम हैं। आप गोपियों के स्वामी तथा राधारानी के प्रेमी हैं। मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ।

6  मैं उन राधरानी को प्रणाम करता हूँ जिनकी शारीरिक कान्ति पिघले सोने के सदृश है, जो वृंदावन की महारानी हैं। आप राजा वृषभानु की पुत्री हैं और भगवान कृष्ण को अत्यंत प्रिय हैं।

7  मैं भगवान के समस्त वैष्णव भक्तों को सादर नमस्कार करता हूँ। वे कल्पवृक्ष के समान सब की इच्छाएँ पूर्ण करने में समर्थ हैं, तथा पतित जीवात्माओं के प्रति अत्यंत दयालु हैं।

8  मैं श्रीकृष्ण चैतन्य, प्रभु नित्यानंद, श्री अद्वैत, गदाधर, श्रीवास आदि समस्त भक्तों को सादर प्रणाम करता हूँ।

!!हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे!!

!!!! हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे !!!!!

प्रार्थना (1.1.1)

हे प्रभु, हे वसुदेव पुत्र श्रीकृष्ण, हे सर्वव्यापी भगवान, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। मैं भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ, क्योंकि वे परम सत्य हैं और व्यक्त ब्रह्मांडों की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के समस्त कारणों के आदि कारण हैं। वे प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से सारे जगत से अवगत रहते हैं और वे परम स्वतंत्र हैं, क्योंकि उनसे परे अन्य कोई कारण है ही नहीं। उन्होंने ही सर्वप्रथम आदि जीव ब्रह्माजी के हृदय में वैदिक ज्ञान प्रदान किया। उन्हीं के कारण बड़े-बड़े मुनि तथा देवता उसी तरह मोह में पड़ जाते हैं, जिस प्रकार अग्नि में जल या जल में स्थल देखकर कोई माया के द्वारा मोहग्रस्त हो जाता है। उन्हीं के कारण ये सारे भौतिक ब्रहमाण्ड, जो प्रकृति के तीन गुणों की प्रतिक्रिया के कारण अस्थायी रूप से प्रकट होते हैं, वास्तविक लगते हैं जबकि ये अवास्तविक होते हैं। अतः मैं उन भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ, जो भौतिक जगत के भ्रामक रूपों से सर्वथा मुक्त अपने दिव्य धाम में निरंतर वास करते हैं। मैं उनका ध्यान करता हूँ क्योंकि :-

वे ही परम सत्य हैं।

वे ही परम सत्य हैं।

वे ही परम सत्य हैं।

ॐ कृष्णाय नमः

!! हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे !!

!! हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे !!

समर्पित एवं सेवारत (जगदीश चन्द्र चौहान)

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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

श्रीमद भागवतम दशम स्कन्ध के श्लोकों का कथारूप में अनुदित संकलन

हिन्दी भाषी भक्तों के लाभार्थ सादर, साभार श्रील प्रभुपाद के श्रीचरणों में समर्पित

दशम स्कन्ध (Tenth Canto)

(समर्पित एवं सेवारत जे. सी. चौहान)

 

 

 

 

 

 

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श्रीमद भागवतम नवम स्कन्ध के श्लोकों का कथारूप में अनुदित संकलन

हिन्दी भाषी भक्तों के लाभार्थ सादर, साभार श्रील प्रभुपाद के श्रीचरणों में समर्पित

नवम स्कन्ध (Ninth Canto)

(समर्पित एवं सेवारत जे. सी. चौहान)

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श्रीमद भागवतम अष्टम स्कन्ध के श्लोकों का कथारूप में अनुदित संकलन

हिन्दी भाषी भक्तों के लाभार्थ सादर, साभार श्रील प्रभुपाद के श्रीचरणों में समर्पित

अष्टम स्कन्ध (Eight Canto)

(समर्पित एवं सेवारत जे. सी. चौहान)

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श्रीमद भागवतम सप्तम स्कन्ध के श्लोकों का कथारूप में अनुदित संकलन

हिन्दी भाषी भक्तों के लाभार्थ सादर, साभार श्रील प्रभुपाद के श्रीचरणों में समर्पित

 

सप्तम स्कन्ध (Seventh Canto)

(समर्पित एवं सेवारत जे. सी. चौहान)

 

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श्रीमद भागवतम षष्ठ स्कन्ध के श्लोकों का कथारूप में अनुदित संकलन

समस्त हिन्दी भाषी भक्तों के लाभार्थ सादर, साभार श्रील प्रभुपाद के श्रीचरणों में समर्पित

षष्ठ स्कन्ध (SIXTH CANTO) .pdf

समर्पित एवं सेवारत जे. सी. चौहान

 

 

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