अकेलापन
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति३०
यः–जो;माम्–मुझको;पश्यति–देकहता है;सर्वत्र–सभी जगह;सर्वम्–प्रत्येक वस्तु को;च–तथा;मयि–मुझमें;पश्यति–देखता है;तस्य–उसके लिए;अहम्–मैं;न–नहीं;प्रणश्यामि–अदृश्य होता हूँ;सः–वह;च–भी;मे–मेरे लिए;न–नहीं;प्रणश्यति–अदृश्य होता है
भावार्थ जो मुझे सर्वत्र देखता है और सब कुछ मुझमें देखता है उसके लिए न तो मैं कभी अदृश्य होता हूँ और न वह मेरे लिए अदृश्य होता है।
तात्पर्य कृष्णभावनाभावित व्यक्ति भगवान् कृष्ण को सर्वत्र देखता है और सारी वस्तुओं को कृष्ण में देखता है ऐसा व्यक्ति भले ही प्रकृति की पृथक्-पृथक् अभिव्यक्तियों को देखता प्रतीत हो, किन्तु वह प्रत्येक दशा में इस कृष्णभावनामृत से अवगत रहता है कि प्रत्येक वस्तु कृष्ण की ही शक्ति की अभिव्यक्ति है कृष्णभावनामृत का मूल सिद्धान्त ही यह है कि कृष्ण के बिना कोई अस्तित्व नहीं है और कृष्ण ही सर्वेश्वर हैं कृष्णभावनामृत कृष्ण-प्रेम का विकास है–ऐसी स्थिति जो भौतिक मोक्ष से भी परे है आत्मसाक्षात्कार के ऊपर कृष्णभावनामृत की इस अवस्था में भक्त कृष्ण से इस अर्थ में एकरूप हो जाता है कि उसके लिए कृष्ण ही सब कुछ हो जाते हैं और भक्त प्रेममय कृष्ण से पूरित हो उठता है तब भगवान् तथा भक्त के बीच अन्तरंग सम्बन्ध स्थापित हो जाता है उस अवस्था में जीव को विनष्ट नहीं किया जा सकता और न भगवान् भक्त की दृष्टि से ओझल होते हैं कृष्ण में तादात्म्य होना आध्यात्मिक लय (आत्मविनाश) है भक्त कभी भी ऐसी विपदा नहीं उठाता ब्रह्मसंहिता (५.३८) में कहा गया है-
प्रेमाञ्जनच्छुरित भक्तिविलोचनेन सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति
यं श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि
“मैं आदि भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ, जिनका दर्शन भक्तगण प्रेमरूपी अंजन लगे नेत्रों से करते हैं वे भक्त के हृदय में स्थित श्यामसुन्दर रूप में देखे जाते हैं”
इस अवस्था में न तो भगवान् कृष्ण अपने भक्त की दृष्टि से ओझल होते हैं और न भक्त उनकी दृष्टि से ओझल हो पाते हैं यही बात योगी के लिए सत्य है क्योंकि वह अपने हृदय के भीतर परमात्मा रूप में भगवान् का दर्शन करता रहता है ऐसा योगी शुद्ध भक्त बन जाता है और अपने अन्दर भगवान् को देखे बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता। (6.30)
समोSहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योSस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्। २९।
समः– समभाव;अहम्– मैं;सर्व-भूतेषु– समस्त जीवों में;न– कोई नहीं;मे– मुझको;द्वेष्यः– द्वेषपूर्ण;अस्ति– है;न– न तो;प्रियः– प्रिय;ये– जो;भजन्ति– दिव्यसेवा करते हैं;तु– लेकिन;माम्– मुझको;भक्त्या– भक्ति से;मयि– मुझमें हैं;ते– वे व्यक्ति;तेषु– उनमें;च– भी;अपि– निश्चय ही;अहम्– मैं।
भावार्थ मैं न तो किसी से द्वेष करता हूँ, न ही किसी के साथ पक्षपात करता हूँ। मैं सबों के लिए समभाव हूँ। किन्तु जो भी भक्तिपूर्वक मेरी सेवा करता है, वह मेरा मित्र है, मुझमें स्थित रहता है और मैं भी उसका मित्र हूँ।
तात्पर्य : यहाँ पर प्रश्न किया जा सकता है कि जब कृष्ण का सबों के लिए समभाव है और उनका कोई विशिष्ट मित्र नहीं है तो फिर वे उन भक्तों में विशेष रूचि क्यों लेते हैं, जो उनकी दिव्यसेवा में सदैव लगे रहते हैं? किन्तु यह भेदभाव नहीं है, यह तो सहज है। इस जगत् में हो सकता है कि कोई व्यक्ति अत्यन्त उपकारी हो, किन्तु तो भी वह अपनी सन्तानों में विशेष रूचि लेता है। भगवान् का कहना है कि प्रत्येक जीव, चाहे वह जिस योनी का हो, उनका पुत्र है, अतः वे हर एक को जीवन की आवश्यक वस्तुएँ प्रदान करते हैं। वे उस बादल के सदृश हैं जो सबों के ऊपर जलवृष्टि करता है, चाहे यह वृष्टि चट्टान पर हो या स्थल पर, या जल में हो। किन्तु भगवान् अपने भक्तों का विशेष ध्यान रखते हैं। ऐसे ही भक्तों का यहाँ उल्लेख हुआ है–वे सदैव कृष्णभावनामृत में रहते हैं, फलतः वे निरन्तर कृष्ण में लीन रहते हैं। कृष्णभावनामृत शब्द ही बताता है कि जो लोग ऐसे भावनामृत में रहते हैं वे सजीव अध्यात्मवादी हैं और उन्हीं में स्थित हैं। भगवान् यहाँ स्पष्ट रूप से कहते हैं – मयि ते अर्थात् वे मुझमें हैं। फलतः भगवान् भी उनमें हैं। इससे ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् की भी व्याख्या हो जाती है – जो मेरी शरण में आ जाता है, उसकी मैं उसी रूप में रखवाली करता हूँ। यह दिव्य आदान-प्रदान भाव विद्यमान रहता है, क्योंकि भक्त तथा भगवान् दोनों सचेतन हैं। जब हीरे को सोने की अँगूठी में जड़ दिया जाता है तो वह अत्यन्त सुन्दर लगता है। इससे सोने की महिमा बढती है, किन्तु साथ ही हीरे की भी महिमा बढती है। भगवान् तथा जीव निरन्तर चमकते रहते हैं और जब कोई जीव भगवान् की सेवा में प्रवृत्त होता है तो वह सोने की भाँति दिखता है। भगवान् हीरे के समान हैं, अतः यह संयोग अत्युत्तम होता है। शुद्ध अवस्था में जीव भक्त कहलाते हैं। परमेश्वर अपने भक्तों के भी भक्त बन जाते हैं। यदि भगवान् तथा भक्त में आदान-प्रदान का भाव न रहे तो सगुणवादी दर्शन ही न रहे। मायावादी दर्शन में परमेश्वर तथा जीव के मध्य ऐसा आदान-प्रदान का भाव नहीं मिलता, किन्तु सगुणवादी दर्शन में ऐसा होता है।
प्रायः यह दृष्टान्त दिया जाता है कि भगवान् कल्पवृक्ष के समान हैं और मनुष्य इस वृक्ष से जो भी माँगता है, भगवान् उसकी पूर्ति करते हैं। किन्तु यहाँ पर जो व्याख्या दी गई है वह अधिक पूर्ण है। यहाँ पर भगवान् को भक्त का पक्ष लेने वाला कहा गया है। यह भक्त के प्रति भगवान् की विशेष कृपा की अभिव्यक्ति है। भगवान् के आदान-प्रदान भाव को कर्म के नियम के अन्तर्गत नहीं मानना चाहिए। यह तो उस दिव्य अवस्था से सम्बन्धित रहता है जिसमें भगवान् तथा उनके भक्त कर्म करते हैं। भगवद्भक्ति इस जगत का कार्य नहीं है, यह तो उस अध्यात्म का अंश है, जहाँ शाश्वत आनन्द तथा ज्ञान का प्राधान्य रहता है। (9.29)
बहिरन्तश्र्च भूतानामचरं चरमेव च।
सुक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत। १६।
बहिः- बाहर;अन्तः- भीतर;च- भी;भूतानाम्- जीवों का;अचरम्- जड़;चरम्- जंगम;एव- भी;च- तथा;सूक्ष्मत्वात्- सूक्ष्म होने के कारण;तत्- वह;अविज्ञेयम्- अज्ञेय;दूर-स्थम्- दूर स्थित;च- भी;अन्तिके- पास;च- तथा;तत्- वह।
भावार्थ परमसत्य जड़ तथा जंगम समस्त जीवों के बाहर तथा भीतर स्थित हैं। सूक्ष्म होने के कारण वे भौतिक इन्द्रियों के द्वारा जानने या देखने से परे हैं। यद्यपि वे अत्यन्त दूर रहते हैं, किन्तु हम सबों के निकट भी हैं।
तात्पर्य वैदिक साहित्य से हम जानते हैं कि परम-पुरुष नारायण प्रत्येक जीव के बाहर तथा भीतर निवास करने वाले हैं। वे भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों ही जगतों में विद्यमान रहते हैं। यद्यपि वे बहुत दूर हैं, फिर भी वे हमारे निकट रहते हैं। ये वैदिक साहित्य के वचन हैं। आसीनो दूरं व्रजति शयानो याति सर्वतः (कठोपनिषद् १.२.२१)। चूँकि वे निरन्तर दिव्य आनन्द भोगते रहते हैं, अतएव हम यह नहीं समझ पाते कि वे सारे ऐश्वर्य का भोग किस तरह कर सकते हैं। हम इन भौतिक इन्द्रियों से न तो उन्हें देख पाते हैं, न समझ पाते हैं। अतएव वैदिक भाषा में कहा गया है कि उन्हें समझने में हमारा भौतिक मन तथा इन्द्रियाँ असमर्थ हैं। किन्तु जिसने, भक्ति में कृष्णभावनामृत का अभ्यास करते हुए, अपने मन तथा इन्द्रियों को शुद्ध कर लिया है, वह उन्हें निरन्तर देख सकता है। ब्रह्मसंहिता में इसकी पुष्टि हुई है कि परमेश्वर के लिए जिस भक्त में प्रेम उपज चुका है, वह निरन्तर उनका दर्शन कर सकता है। और भगवद्गीता में (११.५४) इसकी पुष्टि हुई है कि उन्हें केवल भक्ति द्वारा देखा तथा समझा जा सकता है। भक्त्या त्वनन्यया शक्यः (13.16)
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्। १८।
ज्योतिषाम्- समस्त प्रकाशमान वस्तुओं में;अपि- भी;तत्- वह;ज्योतिः- प्रकाश का स्त्रोत;तमसः- अन्धकार;परम्- परे;उच्यते- कहलाता है;ज्ञानम्- ज्ञान;ज्ञेयम्- जानने योग्य;ज्ञान-गम्यम्- ज्ञान द्वारा पहुँचने योग्य;हृदि- हृदय में;सर्वस्य- सब;विष्ठितम्- स्थित।
भावार्थ वे समस्त प्रकाशमान वस्तुओं के प्रकाशस्त्रोत हैं। वे भौतिक अंधकार से परे हैं और अगोचर हैं। वे ज्ञान हैं, ज्ञेय हैं और ज्ञान के लक्ष्य हैं। वे सबके हृदय में स्थित हैं।
तात्पर्य परमात्मा या भगवान् ही सूर्य, चन्द्र तथा नक्षत्रों जैसी प्रकाशमान वस्तुओं के प्रकाश स्रोत हैं। वैदिक साहित्य से हमें पता चलता है कि वैकुण्ठ राज्य में सूर्य या चन्द्रमा की आवश्यकता नहीं पड़ती, क्योंकि वहाँ पर परमेश्वर का तेज जो है। भौतिक जगत् में वह ब्रह्मज्योति या भगवान् का आध्यात्मिक तेज महत्तत्व अर्थात् भौतिक तत्त्वों से ढका रहता है। अतएव इस जगत् में हमें सूर्य, चन्द्र, बिजली आदि के प्रकाश की आवश्यकता पड़ती है, लेकिन आध्यात्मिक जगत् में ऐसी वस्तुओं की आवश्यकता नहीं होती। वैदिक साहित्य में स्पष्ट है कि वे इस भौतिक जगत् में स्थित नहीं हैं, वे तो आध्यात्मिक जगत् (वैकुण्ठ लोक) में स्थित हैं, जो चिन्मय आकाश में बहुत ही दुरी पर है। इसकी भी पुष्टि वैदिक साहित्य से होती है। आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् (श्र्वेताश्वतर उपनिषद् ३.८)। वे सूर्य की भाँति अत्यन्त तेजोमय हैं, लेकिन इस भौतिक जगत के अन्धकार से बहुत दूर हैं।उनका ज्ञान दिव्य है। वैदिक साहित्य पुष्टि करता है कि ब्रह्म घनीभूत दिव्य ज्ञान है। जो वैकुण्ठलोक जाने का इच्छुक है, उसे परमेश्वर द्वारा ज्ञान प्रदान किया जाता है, जो प्रत्येक हृदय में स्थित हैं। एक वैदिक मन्त्र है (श्र्वेताश्वतर-उपनिषद् ६.१८) - तं ह देवम् आत्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये। मुक्ति के इच्छुक मनुष्य को चाहिए कि वह भगवान् की शरण में जाय। जहाँ तक चरम ज्ञान के लक्ष्य का सम्बन्ध है, वैदिक साहित्य से भी पुष्टि होती है - तमेव विदित्वाति मृत्युमेति - उन्हें जान लेने के बाद ही जन्म तथा मृत्यु की परिधि को लाँघा जा सकता है (श्र्वेताश्वतर उपनिषद् ३.८)।
वे प्रत्येक हृदय में परम नियन्ता के रूप में स्थित हैं। परमेश्वर के हाथ-पैर सर्वत्र फैले हैं, लेकिन जीवात्मा के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता। अतएव यह मानना ही पड़ेगा कि कार्य क्षेत्र को जानने वाले दो ज्ञाता हैं-एक जीवात्मा तथा दूसरा परमात्मा। पहले के हाथ-पैर केवल किसी एक स्थान तक सीमित (एकदेशीय) हैं, जबकि कृष्ण के हाथ-पैर सर्वत्र फैले हैं। इसकी पुष्टि श्र्वेताश्वतर उपनिषद् में (३.१७) इस प्रकार हुई है - सर्वस्य प्रभुमीशानं सर्वस्य शरणं बृहत्। वह परमेश्वर या परमात्मा समस्त जीवों का स्वामी या प्रभु है, अतएव वह उन सबका चरम लक्ष्य है। अतएव इस बात से मना नहीं किया जा सकता कि परमात्मा तथा जीवात्मा सदैव भिन्न होते हैं। (13.18)
(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)
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