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अनियंत्रित मन

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः। ५।

उद्धरेत्– उद्धार करे;आत्मना– मन से;आत्मानम्– बद्धजीव को;– कभी नहीं;आत्मानम्– बद्धजीव को;अवसदायेत्– पतन होने दे;आत्मा– मन;एव– निश्चय ही;हि– निस्सन्देह;आत्मनः– बद्धजीव का;बन्धुः– मित्र;आत्मा– मन;एव– निश्चय ही;रिपुः– शत्रु;आत्मनः– बद्धजीव का।

भावार्थ   मनुष्य को चाहिए कि अपने मन की सहायता से अपना उद्धार करे और अपने को नीचे गिरने दे। यह मन बद्धजीव का मित्र भी है और शत्रु भी।

तात्पर्य प्रसंग के अनुसार आत्मा शब्द का अर्थ शरीर, मन तथा आत्मा होता है। योगपद्धति में मन तथा आत्मा का विशेष महत्त्व है। चूँकि मन ही योगपद्धति का केन्द्रबिन्दु है, अतः इस प्रसंग में आत्मा का तात्पर्य मन होता है। योगपद्धति का उद्देश्य मन को रोकना तथा इन्द्रियविषयों के प्रति आसक्ति से उसे हटाना है। यहाँ पर इस बात पर बल दिया गया है कि मन को इस प्रकार प्रशिक्षित किया जाय कि वह बद्धजीव को अज्ञान के दलदल से निकाल सके। इस जगत् में मनुष्य मन तथा इन्द्रियों के द्वारा प्रभावित होता है। वास्तव में शुद्ध आत्मा इस संसार में इसीलिए फँसा हुआ है क्योंकि मन मिथ्या अहंकार में लगकर प्रकृति के ऊपर प्रभुत्व जताना चाहता है। अतः मन को इस प्रकार प्रशिक्षित करना चाहिए कि वह प्रकृति की तड़क-भड़क से आकृष्ट हो और इस तरह बद्धजीव की रक्षा की जा सके। मनुष्य को इन्द्रियविषयों से आकृष्ट होकर अपने को पतित नहीं करना चाहिए। जो जितना ही इन्द्रियविषयों के प्रति आकृष्ट होता है वह उतना ही इस संसार में फँसता है। अपने को विरत करने का सर्वोत्कृष्ट साधन यही है कि मन को सदैव कृष्णभावनामृत में निरत रखा जाय। हि शब्द इस बात पर बल देने के लिए प्रयुक्त है अर्थात् इसे अवश्य करना चाहिए। अमृतबिन्दु उपनिषद् में () कहा भी गया है –

मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्ष्योः।
बन्धाय विषयासंगो मुक्त्यै निर्विषयं मनः।

मन ही मनुष्य के बन्धन और मोक्ष का भी कारण है। इन्द्रियविषयों में लीन मन बन्धन का कारण है और विषयों से विरक्त मन मोक्ष का कारण है।” अतः जो मन निरन्तर कृष्णभावनामृत में लगा रहता है, वही पर मुक्ति का कारण है। (6.5)

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्। ६।

  बन्धुः– मित्र;आत्मा– मन;आत्मनः– जीव का;तस्य– उसका;येन– जिससे;आत्मा- मन;एव– निश्चय ही;आत्मना– जीवात्मा के द्वारा;जितः– विजित;अनात्मनः– जो मन को वश में नहीं कर पाया उसका;तू– लेकिन;शत्रुत्वे– शत्रुता के करण;वर्तेत– बना रहता है;आत्मा एव– वाही मन;शत्रु-वत्– शत्रु की भाँति।

भावार्थ जिसने मन को जीत लिया है उसके लिए मन सर्वश्रेष्ठ मित्र है, किन्तु जो ऐसा नहीं कर पाया इसके लिए मन सबसे बड़ा शत्रु बना रहेगा।
तात्पर्य  अष्टांगयोग के अभ्यास का प्रयोजन मन को वश में करना है, जिससे मानवीय लक्ष्य प्राप्त करने में वह मित्र बना रहे। मन को वश में किये बिना योगाभ्यास करना मात्र समय को नष्ट करना है। जो अपने मन को वश में नहीं कर सकता, वह सतत अपने पर शत्रु के साथ निवास करता है और इस तरह उसका जीवन तथा लक्ष्य दोनों ही नष्ट हो जाते हैं। जीव की स्वाभाविक स्थिति यह है कि वह अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करे। अतः जब तक मन अविजित शत्रु बना रहता है, तब तक मनुष्य को काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि की आज्ञाओं का पालन करना होता है। किन्तु जब मन पर विजय प्राप्त हो जाती है, तो मनुष्य इच्छानुसार उस भगवान् की आज्ञा का पालन करता है जो सबों के हृदय में परमात्मास्वरूप स्थित है। वास्तविक योगाभ्यास हृदय के भीतर परमात्मा से भेंट करना तथा उनकी आज्ञा का पालन करना है। जो व्यक्ति साक्षात् कृष्णभावनामृत स्वीकार करता है वह भगवान् की आज्ञा के प्रति स्वतः समर्पित हो जाता है। (6.6)

यतो यतो निश्र्चलति मनश्र्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्। २६।

यतः यतः– जहाँ जहाँ भी;निश्र्चलति– विचलित होता है;मनः– मनचञ्चलम्– चलायमान;अस्थिरम्– अस्थिर;ततः ततः– वहाँ वहाँ सेनियम्य– वश में करके;एतत्– इस;आत्मनि– अपने;एव– निश्चय
ही;वशम्– वश में;नयेत्– ले आए।

भावार्थ मन अपनी चंचलता तथा अस्थिरता के कारण जहाँ कहीं भी विचरण करता हो, मनुष्य को चाहिए कि उसे वहाँ से खींचे और अपने वश में लाए।

तात्पर्य मन स्वभाव से चंचल और अस्थिर है। किन्तु स्वरुपसिद्ध योगी को मन को वश में लाना होता है, उस पर मन का धिकार नहीं होना चाहिए। जो मन को (तथा इन्द्रियों को भी) वश में रखता है, वह गोस्वामी या स्वामी कहलाता है और जो मन के वशीभूत होता है वह गोदास अर्थात् इन्द्रियों का सेवक कहलाता है। गोस्वामी इन्द्रियसुख के मानक से भिज्ञ होता है। दिव्य इन्द्रियसुख वह है जिसमें इन्द्रियाँ हृषिकेश अर्थात् इन्द्रियों के स्वामी भगवान् कृष्ण की सेवा में लगी रहती हैं। शुद्ध इन्द्रियों के द्वारा कृष्ण की सेवा ही कृष्णचेतना या कृष्णभावनामृत कहलाती है। इन्द्रियों को पूर्णवश में लाने की यही विधि है। इससे भी बढ़कर बात यह है कि यह योगाभ्यास की परम सिद्धि भी है। (6.26)

श्रीभगवानुवाच

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते। ३५।

श्रीभगवान् उवाच– भगवान् ने कहा;असंशयम्– निस्सन्देह;महाबाहो– हे बलिष्ठ भुजाओं वाले;मनः– मन को;दुर्निग्रहम्– दमन करना कठिन है;चलम्– चलायमान, चंचल;अभ्यासेन– अभ्यास द्वारा;तु– लेकिन;कौन्तेय– हे कुन्तीपुत्र;वैराग्येण– वैराग्य द्वारा;– भी;गृह्यते– इस तरह वश में किया जा सकता है।

भावार्थ भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा – हे महाबाहो कुन्तीपुत्र! निस्सन्देह चंचल मन को वश में करना अत्यन्त कठिन है; किन्तु उपयुक्त अभ्यास द्वारा तथा विरक्ति द्वारा ऐसा सम्भव है।

तात्पर्य अर्जुन द्वारा व्यक्त इस हठीले मन को वश में करने की कठिनाई को भगवान् स्वीकार करते हैं। किन्तु साथ ही वे सुझाते हैं कि अभ्यास तथा वैराग्य द्वारा यह सम्भव है। यह अभ्यास क्या है? वर्तमान युग में तीर्थवास, परमात्मा का ध्यान, मन तथा इन्द्रियों का निग्रह, ब्रह्म्चर्यपालन, एकान्त-वास आदि कठोर विधि-विधानों का पालन कर पाना सम्भव नहीं है। किन्तु कृष्णभावनामृत के अभ्यास से मनुष्य भगवान् की नवधाभक्ति का आचरण करता है। ऐसी भक्ति का प्रथम अंग है-कृष्ण के विषय में श्रवण करना। मन को समस्त प्रकार की दुश्चिन्ताओं से शुद्ध करने के लिए यह परम शक्तिशाली एवं दिव्य विधि है। कृष्ण के विषय में जितना ही अधिक श्रवण किया जाता है , उतना ही मनुष्य उन वस्तुओं के प्रति अनासक्त होता है जो मन को कृष्ण से दूर ले जाने वाली हैं। मन को उन सारे कार्यों से विरक्त कर लेने पर, जिनसे कृष्ण का कोई सम्बन्ध नहीं है, मनुष्य सुगमतापूर्वक वैराग्य सीख सकता है। वैराग्य का अर्थ है – पदार्थ से विरक्ति और मन का आत्मा में प्रवृत्त होना। निर्विशेष आध्यात्मिक विरक्ति कृष्ण के कार्यकलापों में मनको लगाने की अपेक्षा अधिक कठिन है। यह व्यावहारिक है, क्योंकि कृष्ण के विषय में श्रवण करने से मनुष्य स्वतः परमात्मा के प्रति आसक्त हो जाता है। यह आसक्ति परेशानुभूति या आध्यात्मिक तुष्टि कहलाती है। यह वैसे ही है जिस तरह भोजन के प्रत्येक कौर से भूखे को तुष्टि प्राप्त होती है। भूख लगने पर मनुष्य जितना अधिक खाता जाता है, उतनी ही अधिक तुष्टि और शक्ति मिलती जाती है। इसी प्रकार भक्ति सम्पन्न करने से दिव्य तुष्टि की अनुभूति होती है, क्योंकि मन भौतिक वस्तुओं से विरक्त हो जाता है। यह कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे कुशल उपचार तथा सुपथ्य द्वारा रोग का इलाज। अतः भगवान् कृष्ण के कार्यकलापों का श्रवण उन्मत्त मन का कुशल उपचार है और कृष्ण को अर्पित भोजन ग्रहण करना रोगी के लिए उपयुक्त पथ्य है। यह उपचार ही कृष्णभावनामृत की विधि है। (6.35)

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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