आलस्य
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः । 8 ।
नियतम्– नियत;कुरु– करो;कर्म– कर्तव्य;तवम्– तुम;कर्म– कर्म करना;ज्यायः– श्रेष्ठ;हि– निश्चय ही;अकर्मणः– काम न करने की अपेक्षा;शरीर– शरीर का;यात्रा– पालन, निर्वाह;अपि– भी;च– भी;ते– तुम्हारा;न– कभी नहीं;प्रसिद्धयेत्– सिद्ध होता;अकर्मणः– बिना काम के।
भावार्थ अपना नियत कर्म करो, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म के बिना तो शरीर-निर्वाह भी नहीं हो सकता।
तात्पर्य ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जो अपने आप को उच्चकुलीन बताते हैं तथा ऐसे बड़े-बड़े व्यवसायी व्यक्ति हैं जो झूठा दिखावा करते हैं कि आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करने के लिए उन्होंने सर्वस्व त्याग दिया है। श्रीकृष्ण यह नहीं चाहते थे कि अर्जुन मिथ्याचारी बने, अपितु वे चाहते थे कि अर्जुन क्षत्रियों के लिए निर्दिष्ट धर्म का पालन करे। अर्जुन गृहस्थ था और एक सेनानायक था, अतः उसके लिए श्रेयस्कर था कि वह उसी रूप में गृहस्थ क्षत्रिय के लिए निर्दिष्ट धार्मिक कर्तव्यों का पालन करे। ऐसे कार्यों से संसारी मनुष्य का हृदय क्रमशः विमल हो जाता है और वह भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है। देह-निर्वाह के लिए किये गए तथाकथित त्याग (संन्यास) का अनुमोदन न तो भगवान् करते हैं और न कोई धर्मशास्त्र ही। आखिर देह-निर्वाह के लिए कुछ न कुछ करना होता है। भौतिकतावादी वासनाओं की शुद्धि के बिना कर्म का मनमाने ढंग से त्याग करना ठीक नहीं। इस जगत् का प्रत्येक व्यक्ति निश्चय ही प्रकृति पर प्रभुत्व जताने के लिए अर्थात् इन्द्रियतृप्ति के लिए मलिन प्रवृत्ति से ग्रस्त रहता है। ऐसी दूषित प्रवृत्तियों को शुद्ध करने की आवश्यकता है। नियत कर्मों द्वारा ऐसा किये बिना मनुष्य को चाहिए कि तथाकथित अध्यात्मवादी (योगी) बनने तथा सारा काम छोड़ कर अन्यों पर जीवित रहने का प्रयास न करे। (3.8)
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ।20।
कर्मणा– कर्म से;एव– ही;हि– निश्चय ही;संसिद्धिम्– पूर्णता में;आस्थिताः– स्थित;जनक-आदयः– जनक तथा अन्य राजा;लोक-सङ्ग्रहम्– सामान्य लोग;एव अपि– भी;सम्पश्यन्– विचार करते हुए;कर्तुम्– करने के लिए;अर्हसि– योग्य हो।
भावार्थ जनक जैसे राजाओं ने केवल नियत कर्मों को करने से ही सिद्धि प्राप्त की। अतः सामान्य जनों को शिक्षित करने की दृष्टि से तुम्हें कर्म करना चाहिए।
तात्पर्य जनक जैसे राजा स्वरुपसिद्ध व्यक्ति थे, अतः वे वेदानुमोदित कर्म करने के लिए बाध्य न थे। तो भी वे लोग सामान्यजनों के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करने के उद्देश्य से सारे नियत कर्म करते रहे। जनक सीताजी के पिता तथा भगवान् श्रीराम के ससुर थे। भगवान् के महान भक्त होने के कारण उनकी स्थिति दिव्य थी, किन्तु चूँकि वे मिथिला (जो भारत के बिहार प्रान्त में एक परगना है) के राजा थे, अतः उन्हें अपनी प्रजा को यह शिक्षा देनी थी कि कर्तव्य-पालन किस प्रकार किया जाता है। भगवान् कृष्ण तथा उनके शाश्वत सखा अर्जुन को कुरुक्षेत्र के युद्ध में लड़ने की कोई आवश्यकता नहीं थी, किन्तु उन्होंने जनता को यह सिखाने के लिए युद्ध किया कि जब सत्परामर्श असफल हो जाते हैं तो ऐसी स्थिति में हिंसा आवश्यक हो जाती है। कुरुक्षेत्र युद्ध से पूर्व युद्ध-निवारण के लिए भगवान् तक ने सारे प्रयास किये, किन्तु दूसरा पक्ष लड़ने पर तुला था। अतः ऐसे सद्धर्म के लिए युद्ध करना आवश्यक था। यद्यपि कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को संसार में कोई रूचि हो सकती तो भी वह जनता को यह सिखाने के लिए कि किस तरह रहना और कार्य करना चाहिए, कर्म करता रहता है। कृष्णभावनामृत में अनुभवी व्यक्ति इस तरह कार्य करते हैं कि अन्य लोग उनका अनुसरण कर सकें और इसकी व्याख्या अगले श्लोक में की गई है। (3.20)
नात्यश्र्नतस्तु योगोSस्ति न चैकान्तमनश्र्नतः।
न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन । 16 ।
न– कभी नहीं;अति– अधिक;अश्नतः– खाने वाले का;तु– लेकिन;योगः– भगवान् से जुड़ना;अस्ति– है;न– न तो;च– भी;एकान्तम्– बिलकुल, नितान्त;अनश्नतः– भोजन न करने वाले का;न– न तो;च– भी;अति– अत्यधिक;स्वप्न-शीलस्य– सोने वाले का;जाग्रतः– अथवा रात भर जागते रहने वाले का;न– नहीं;एव– ही;च– तथा;अर्जुन– हे अर्जुन।
भावार्थ हे अर्जुन! जो अधिक खाता है या बहुत कम खाता है, जो अधिक सोता है अथवा जो पर्याप्त नहीं सोता उसके योगी बनने की कोई सम्भावना नहीं है।
तात्पर्य यहाँ पर योगियों के लिए भोजन तथा नींद के नियमन की संस्तुति की गई है। अधिक भोजन का अर्थ है शरीर तथा आत्मा को बनाये रखने के लिए आवश्यकता से अधिक भोजन करना। मनुष्यों में मांसाहार करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि प्रचुर मात्रा में अन्न, शाक, फल तथा दुग्ध उपलब्ध हैं। ऐसे सादे भोज्यपदार्थ भगवद्गीता के अनुसार सतोगुणी माने जाते हैं। मांसाहार तो तमोगुणियों के लिए है। अतः जो लोग मांसाहार करते हैं, मद्यपान करते हैं, धूम्रपान करते हैं और कृष्ण को भोग लगाये बिना भोजन करते हैं वे पापकर्मों का भोग करेंगे क्योंकि वे दूषित वस्तुएँ खाते हैं। भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्। जो व्यक्ति इन्द्रियसुख के लिए खाता है या अपने लिए भोजन बनाता है, किन्तु कृष्ण को भोजन अर्पित नहीं करता वह केवल पाप खाता है। जो पाप खाता है और नियत मात्र से अधिक भोजन करता है वह पूर्णयोग का पालन नहीं कर सकता। सबसे उत्तम यही है कि कृष्ण को अर्पित भोजन के अच्छिष्ट भाग को ही खाया जाय। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कभी भी ऐसा भोजन नहीं करता, जो इससे पूर्ण कृष्ण को अर्पित न किया गया हो। अतः केवल कृष्णभावनाभावित व्यक्ति ही योगाभ्यास में पूर्णता प्राप्त कर सकता है। न ही ऐसा व्यक्ति कभी योग का अभ्यास कर सकता है जो कृत्रिम उपवास की अपनी विधियाँ निकाल कर भोजन नहीं करता है। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति शास्त्रों द्वारा अनुमोदित उपवास करता है। न तो वह आवश्यकता से अधिक उपवास रखता है, न ही अधिक खाता है। इस प्रकार वह योगाभ्यास करने के लिए पूर्णतया योग्य है। जो आवश्यकता से अधिक खाता है वह सोते समय अनेक सपने देखेगा, अतः आवश्यकता से अधिक सोएगा। मनुष्य को प्रतिदिन छः घंटे से अधिक नहीं सोना चाहिए। जो व्यक्ति चौबीस घंटो में से छः घंटो से अधिक सोता है, वह अवश्य ही तमोगुणी है। तमोगुणी व्यक्ति आलसी होता है और अधिक सोता है। ऐसा व्यक्ति योग नहीं साध सकता। (6.16)
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् । 39 ।
यत्- जो;अग्रे- प्रारम्भ में;अनुबन्धे- अन्त में;च- भी;सुखम्- सुख;मोहनम्- मोहमय;आत्मनः- अपना;निद्रा- नींद;आलस्य- आलस्य;प्रमाद- तथा मोह से;उत्थम्- उत्पन्न;तत्- वह;तामसम्- तामसी;उदाहृतम्- कहलाता है।
भावार्थ तथा जो सुख आत्म-साक्षात्कार के प्रति अन्धा है, जो प्रारम्भ से लेकर अन्त तक मोहकारक है और जो निद्रा, आलस्य तथा मोह से उत्पन्न होता है, वह तामसी कहलाता है।
तात्पर्य जो व्यक्ति आलस्य तथा निद्रा में ही सुखी रहता है, वह निश्चय ही तमोगुणी है। जिस व्यक्ति को इसका कोई अनुमान नहीं है कि किस प्रकार कर्म किया जाय और किस प्रकार नहीं, वह भी तमोगुणी है। तमोगुणी व्यक्ति के लिए सारी वस्तुएँ भ्रम (मोह) हैं। उसे न तो प्रारम्भ में सुख मिलता है, न अन्त में। रजोगुणी व्यक्ति के लिए प्रारम्भ में कुछ क्षणिक सुख और अन्त में दुख हो सकता है, लेकिन जो तमोगुणी है, उसे प्रारम्भ में तथा अन्त में दुख ही दुख मिलता है। (18.39)
(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)
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