लालच क्यों होता है
सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च। १७।
सत्त्वात्- सतोगुण से;सञ्जायते- उत्पन्न होता है;ज्ञानम्- ज्ञान;रजसः- रजोगुण से;लोभः- लालच;एव- निश्चय ही;च- भी;प्रमाद- पागलपन;मोहौ- तथा मोह;तमसः- तमोगुण से;भवतः- होता है;अज्ञानम्- अज्ञान;एव- निश्चय ही;च- भी।
भावार्थ सतोगुण से वास्तविक ज्ञान उत्पन्न होता है, रजोगुण से लोभ उत्पन्न होता है और तमोगुण से अज्ञान, प्रमाद और मोह उत्पन्न होता हैं।
तात्पर्य चूँकि वर्तमान सभ्यता जीवों के लिए अधिक अनुकूल नहीं है, अतएव उनके लिए कृष्णभावनामृत की संस्तुति की जाती है। कृष्णभावनामृत के माध्यम से समाज में सतोगुण विकसित होगा। सतोगुण विकसित हो जाने पर लोग वस्तुओं को असली रूप में देख सकेंगे। तमोगुण में रहने वाले पशु-तुल्य होते हैं और वे वस्तुओं को स्पष्ट रूप में नहीं देख पाते। उदाहरणार्थ, तमोगुण में रहने के कारण लोग यह नहीं देख पाते कि जिस पशु का वे वध कर रहे हैं, उसी के द्वारा वे अगले जन्म में मारे जाएँगे। वास्तविक ज्ञान की शिक्षा न मिलने के कारण वे अनुत्तरदायी बन जाते हैं। इस उच्छृंखलता को रोकने के लिए जनता में सतोगुण उत्पन्न करने वाली शिक्षा देना आवश्यक है। सतोगुण में शिक्षित हो जाने पर वे गंभीर बनेंगे और वस्तुओं को उनके सही रूप में जान सकेंगे। तब लोग सुखी तथा सम्पन्न हो सकेंगे। भले ही अधिकांश लोग सुखी तथा समृद्ध न बन पायें, लेकिन यदि जनता का कुछ भी अंश कृष्णभावनामृत विकसित कर लेता है और सतोगुणी बन जाता है, तो सारे विश्व में शान्ति तथा सम्पन्नता की सम्भावना है। नहीं तो, यदि विश्व के लोग रजोगुण तथा तमोगुण में लगे रहे तो शान्ति और सम्पन्नता नहीं रह पायेगी। रजोगुण में लोग लोभी बन जाते हैं और इन्द्रिय-भोग की उनकी लालसा की कोई सीमा नहीं होती। कोई भी यह देख सकता है कि भले ही किसी के पास प्रचुर धन तथा इन्द्रियतृप्ति के लिए पर्याप्त साधन हों, लेकिन उसे न तो सुख मिलता है, न मनःशान्ति। ऐसा संभव भी नहीं है, क्योंकि वह रजोगुण में स्थित है। यदि कोई रंचमात्र भी सुख चाहता है, तो धन उसकी सहायता नहीं कर सकेगा, उसे कृष्णभावनामृत के अभ्यास द्वारा अपने आपको सतोगुण में स्थित करना होगा। जब कोई रजोगुण में रत रहता है, तो वह मानसिक रूप से ही अप्रसन्न नहीं रहता अपितु उसकी वृत्ति तथा उसका व्यवसाय भी अत्यन्त कष्टकारक होते हैं। उसे अपनी मर्यादा बनाये रखने के लिए अनेकानेक योजनाएँ बनानी होती हैं। यह सब कष्टकारक है। तमोगुण में लोग पागल (प्रमत्त) हो जाते हैं। अपनी परिस्थितियों से ऊब कर के मद्य-सेवन की शरण ग्रहण करते हैं और इस प्रकार वे अज्ञान के गर्त में अधिकाधिक गिरते हैं। जीवन में उनका भविष्य-जीवन अन्धकारमय होता है। (14.17)
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभास्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्। २१।
त्रिविधम्- तीन प्रकार का;नरकस्य- नरक का;इदम्- यह;द्वारम्- द्वार;नाशनम्- विनाश कारी;आत्मनः- आत्मा का;कामः- काम;क्रोधः- क्रोध;तथा- और;लोभः- लोभ;तस्मात्- अतएव;एतत्- इन;त्रयम्- तीनों को;त्यजेत्- त्याग देना चाहिए।
भावार्थ इस नरक के तीन द्वार हैं - काम, क्रोध और लोभ। प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि इन्हें त्याग दे, क्योंकि इनसे आत्मा का पतन होता है।
तात्पर्य यहाँ पर आसुरी जीवन आरम्भ होने का वर्णन हुआ है। मनुष्य अपने काम को तुष्ट करना चाहता है, किन्तु जब उसे पूरा नहीं कर पाता तो क्रोध तथा लोभ उत्पन्न होता है। जो बुद्धिमान मनुष्य आसुरी योनि में नहीं गिरना चाहता, उसे चाहिए कि वह इन तीनों शत्रुओं का परित्याग कर दे, क्योंकि ये आत्मा का हनन इस हद तक कर देते हैं कि इस भवबन्धन से मुक्ति की सम्भावना नहीं रह जाती। (16.21)
तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्र्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः। २५।
तत्- वह;इति- इस प्रकार;अनभिसन्धाय- बिना इच्छा किये;फलम्- फल;यज्ञ- यज्ञ;तपः- तथा तप की;क्रियाः- क्रियाएँ;च- भी;विविधाः- विभिन्न;क्रियन्ते- की जाती है;मोक्ष- काङ्क्षिभिः-- मोक्ष चाहने वालों के द्वारा।
भावार्थ मनुष्य को चाहिए कि कर्म फल की इच्छा किये बिना विविध प्रकार के यज्ञ, तप तथा दान को 'तत्' शब्द कह कर सम्पन्न करे। ऐसी दिव्य क्रियाओंका उद्देश्य भव-बन्धन से मुक्त होना है।
तात्पर्य आध्यात्मिक पद तक उठने के लिए मनुष्य को चाहिए कि किसी लाभ के निमित्त कर्म न करे। सारे कार्य भगवान् के परम धाम वापस जाने के उद्देश्य से किये जायँ, जो चरम उपलब्धि है। (17.25)
(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)
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