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पापी महसूस करना

(4-36)  भावार्थ यदि तुम्हें समस्त पापियों में भी सर्वाधिक पापी समझा जाये तो भी तुम दिव्यज्ञान रूपी नाव में स्थित होकर दुख-सागर को पार करने में समर्थ होगे।

तात्पर्य श्री कृष्ण के सम्बन्ध में अपनी स्वाभाविक स्थिति का सही-सही ज्ञान इतना उत्तम होता है कि अज्ञान-सागर में चलने वाले जीवन-संघर्ष से मनुष्य तुरन्त ही ऊपर उठ सकता है। यह भौतिक जगत् कभी-कभी अज्ञान सागर मान लिया जाता है तो कभी जलता हुआ जंगल। सागर में कोई कितना ही कुशल तैराक क्यों न हो, जीवन-संघर्ष अत्यन्त कठिन है। यदि कोई संघर्षरत तैरने वाले को आगे बढ़कर समुद्र से निकाल लेता है तो वह सबसे बड़ा रक्षक है। भगवान् से प्राप्त पूर्णज्ञान मुक्ति का पथ है। कृष्णभावनामृत की नाव अत्यन्त सुगम है, किन्तु उसी के साथ-साथ अत्यन्त उदात्त भी। 

(4.37)  भावार्थ जैसे प्रज्ज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है, उसी तरह हे अर्जुन! ज्ञान रूपी अग्नि भौतिक कर्मों के समस्त फलों को जला डालती है।

तात्पर्य आत्मा तथा परमात्मा सम्बन्धी पूर्णज्ञान तथा उनके सम्बन्ध की तुलना यहाँ अग्नि से की गई है। यह अग्नि न केवल समस्त पापकर्मों के फलों को जला देती है, अपितु पुण्यकर्मों के फलों को भी भस्मसात् करने वाली है। कर्मफल की कई अवस्थाएँ हैं - शुभारम्भ, बीज, संचित आदि। किन्तु जीव को स्वरूप का ज्ञान होने पर सब कुछ भस्म हो जाता है चाहे वह पूर्ववर्ती हो या परवर्ती। वेदों में (बृहदारण्यक उपनिषद् ४४ २ २) कहा गया है - उभे उहैवैष एते तरत्य मृतः साध्वा साधूनी - "मनुष्य पाप तथा पुण्य दोनों ही प्रकार के कर्म फलों को जीत लेता है।

(5-10)  भावार्थ जो व्यक्ति कर्मफलों को परमेश्वर को समर्पित करके आसक्तिरहित होकर अपना कर्म करता है, वह पापकर्मों से उसी प्रकार अप्रभावित रहता है, जिस प्रकार कमलपत्र जल से अस्पृश्य रहता है।
तात्पर्य यहाँ पर ब्रह्मणि का अर्थ “कृष्णभावनामृत में” है। यह भौतिक जगत् प्रकृति के तीन गुणों की समग्र अभिव्यक्ति है जिसे प्रधान की संज्ञा दी जाती है। वेदमन्त्र सर्वं ह्येतद्ब्रह्म (माण् डूक्य उपनिषद् २), तस्माद् एतद्ब्रह्म नामरूपमन्नं च जायते (मुण्डक उपनिषद् १..१०) तथा भगवद्गीता में (१४.) मम योनिर्महद्ब्रह्म से प्रकट है कि जगत् की प्रत्येक वस्तु ब्रह्म की अभिव्यक्ति है और यद्यपि कार्य भिन्न-भिन्न रूप में प्रकट होते हैं, किन्तु तो भी वे कार से अभिन्न हैं। इशोपनिषद् में कहा गया है कि सारी वस्तुएँ परब्रह्म या कृष्ण से सम्बन्धित हैं, अतएव वे केवल उन्हीं की हैं। जो यह भलीभाँति जानता है कि प्रत्येक वस्तु कृष्ण की है और वे ही प्रत्येक वस्तु के स्वामी हैं अतः प्रत्येक वस्तु भगवान् की सेवा में ही नियोजित है, उसे स्वभावतः शुभ-अशुभ कर्मफलों से कोई प्रयोजन नहीं रहता। यहाँ तक कि विशेष प्रकार का कर्म सम्पन्न करने के लिए भगवान् द्वारा प्रदत्त मनुष्य का शरीर भी कृष्णभावनामृत में संलग्न किया जा सकता है। तब यह पापकर्मों के कल्मष से वैसे ही परे रहता है जैसे कि कमलपत्र जल से रहकर भी भीगता नहीं। भगवान् गीता (.३०) में भी कहते है – मयित सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य – सम्पूर्ण कर्मों को मुझे (कृष्ण को) समर्पित करो। तात्पर्य यह है कि कृष्णभावनामृत-विहीन पुरुष शरीर एवं इन्द्रियों को अपना स्वरूप समझ कर कर्म करता है, किन्तु कृष्णभावनाभावित व्यक्ति य समझ कर कर्म करता है कि वह देह कृष्ण की सम्पत्ति है, अतः इसे कृष्ण की सेवा में प्रवृत्त होना चाहिए। 

(9-30)  भावार्थ यदि कोई जघन्य से जघन्य कर्म करता है, किन्तु यदि वह भक्ति में रत रहता है तो उसे साधु मानना चाहिए, क्योंकि वह अपने संकल्प में अडिग रहता है।

तात्पर्य : इस श्लोक का सुदुराचारः शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, अतः हमें इसे ठीक से समझना होगा। जब मनुष्य बद्ध रहता है तो उसके दो प्रकार के कर्म होते हैं – प्रथम बद्ध और द्वितीय स्वाभाविक। जिस प्रकार शरीर की रक्षा करने या समाज तथा राज्य के नियमों का पालन करने के लिए तरह-तरह के कर्म करने होते हैं, उसी प्रकार से बद्ध जीवन के प्रसंग में भक्तों के लिए कर्म होते हैं, जो बद्ध कहलाते हैं। इनके अतिरिक्त, जो जीव अपने अध्यात्मिक स्वभाव से पूर्णतया भिज्ञ रहता है और कृष्णभावनामृत में या भगवद्भक्ति में लगा रहता है, उसके लिए भी कर्म होते हैं, जो दिव्य कहलाते हैं। ऐसे कार्य उसकी स्वाभाविक स्थिति में सम्पन्न होते हैं और शास्त्रीय दृष्टि से भक्ति कहलाते हैं। बद्ध अवस्था में कभी-कभी भक्ति और शरीर की बद्ध सेवा एक दूसरे के समान्तर चलती हैं। किन्तु पुनः कभी-कभी वे एक दूसरे के विपरीत हो जाती हैं। जहाँ तक सम्भव होता है, भक्त सतर्क रहता है कि वह ऐसा कोई कार्य न करे, जिससे यह अनुकूल स्थिति भंग हो। वह जानता है कि उसकी कर्म-सिद्धि उसके कृष्णभावनामृत की अनुभूति की प्रगति पर निर्भर करती है। किन्तु कभी-कभी यह देखा जाता है कि कृष्णभावनामृत में रत व्यक्ति सामाजिक या राजनीतिक दृष्टि से निन्दनीय कार्य करता बैठता है। किन्तु इस प्रकार के क्षणिक पतन से वह अयोग्य नहीं हो जाता। श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि यदि कोई पतित हो जाय, किन्तु यदि भगवान् की दिव्य सेवा में लगा रहे तो हृदय में वास करने वाले भगवान् उसे शुद्ध कर देते हैं और उस निन्दनीय कार्य के लिए क्षमा कर देते हैं। भौतिक कल्मष इतना प्रबल है कि भगवान् की सेवा में लगा योगी भी कभी-कभी उसके जाल में आ फँसता है। लेकिन कृष्णभावनामृत इतना शक्तिशाली होता है कि इस प्रकार का आकस्मिक पतन तुरन्त रुक जाता है। इसीलिए भक्तियोग सदैव सफल होता है, क्योंकि जैसा कि अगले श्लोक में बताया गया है कि ज्योंही भक्त कृष्णभावनामृत में पूर्णतया स्थित हो जाता है, ऐसे आकस्मिक पतन कुछ समय के पश्चात् रुक जाते हैं।

अतः जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में स्थित है और अनन्य भाव से हरे कृष्ण मन्त्र का जप करता है, उसे दिव्य स्थिति में आसीन समझना चाहिए, भले ही देववशात् उसका पतन क्यों न हो चुका हो। साधुरेव शब्द अत्यन्त प्रभावात्मक हैं। ये अभक्तों को सावधान करते हैं कि आकस्मिक पतन के कारण भक्त का उपहास नहीं किया जाना चाहिए, उसे तब भी साधु ही मानना चाहिए। मन्तव्यः शब्द तो इससे भी अधिक बलशाली है। यदि कोई इस नियम को नहीं मानता और भक्त पर उसके पतन के कारण हँसता है तो वह भगवान् के आदेश की अवज्ञा करता है। भक्त की एकमात्र योग्यता यह है कि वह अविचल तथा अनन्य भाव से भक्ति में तत्पर रहे –नृसिंह पुराण में निम्नलिखित कथन प्राप्त है –  भगवति च हरावनन्यचेताभृशमलिनोऽपि विराजते मनुष्यः ।   न हि शशकलुषच्छबिः कदाचित्तिमिरपराभवतामुपैति चन्द्रः ।।  कहने का अर्थ यह है कि यदि भगवद्भक्ति में तत्पर व्यक्ति कभी घृणित कार्य करता पाया जाये तो इन कार्यों को उन धब्बों की तरह मान लेना चाहिए, जिस प्रकार चाँद में खरगोश के धब्बे हैं। इस धब्बों से चाँदनी के विस्तार में बाधा नहीं आती। इसी प्रकार साधु-पथ से भक्त का आकस्मिक पतन उसे निन्दनीय नहीं बनाता।   किन्तु इसी के साथ यह समझने की भूल नहीं करनी चाहिए कि दिव्य भक्ति करने वाला भक्त सभी प्रकार के निन्दनीय कर्म कर सकता है। इस श्लोक में केवल इसका उल्लेख है कि भौतिक सम्बन्धों की प्रबलता के कारण कभी कोई दुर्घटना हो सकती है। भक्ति तो एक प्रकार से माया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा है। जब तक मनुष्य माया से लड़ने के लिए पर्याप्त शक्तिशाली नहीं होता, तब तक आकस्मिक पतन हो सकते हैं। किन्तु बलवान होने पर ऐसे पतन नहीं होते, जैसा कि पहले कहा जा चुका है। मनुष्य को इस श्लोक का दुरूपयोग करते हुए अशोभनीय कर्म नहीं करना चाहिए और यह नहीं सोचना चाहिए कि इतने पर भी वह भक्त बना रह सकता है। यदि वह भक्ति के द्वारा अपना चरित्र नहीं सुधार लेता तो उसे उच्चकोटि का भक्त नहीं मानना चाहिए। (9.30)

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोक महेश्वरम्।  

असम्मूढ़ः स मर्त्येषु सर्वपापै: प्रमुच्यते। ३।

यः– जो;माम्– मुझको;अजम्– अजन्मा;अनादिम्– अदिरहित;– भी;वेत्ति– जानता है;लोक– लोकों का;महा-ईश्वरम्– परम स्वामी;असम्मूढः– मोहरहित;सः– वह;मर्त्येषु– मरणशील लोगों में;सर्व-पापैः– सारे पापकर्मों से;प्रमुच्यते– मुक्त हो जाता है।

भावार्थ जो मुझे अजन्मा, अनादि, समस्त लोकों के स्वामी के रूप में जानता है, मनुष्यों में केवल वही मोहरहित और समस्त पापों से मुक्त होता है।

तात्पर्य जैसा कि सातवें अध्याय में (.) कहा गया है – मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये – जो लोग आत्म-साक्षात्कार के पद तक उठने के लिए प्रयत्नशील होते हैं, वे सामान्य व्यक्ति नहीं हैं, वे उन करोड़ो सामान्य व्यक्तियों से श्रेष्ठ हैं, जिन्हें आत्म-साक्षात्कार का ज्ञान नहीं होता। किन्तु जो वास्तव में अपनी आध्यात्मिक स्थिति को समझने के लिए प्रयत्नशील होते हैं, उनमें से श्रेष्ठ वही है, जो यह जान लेता है कि भगवान कृष्ण ही, प्रत्येक वस्तु के स्वामी तथा अजन्मा हैं, वही सबसे अधिक सफल अध्यात्मज्ञानी है। जब वह कृष्ण की परम स्थिति को पूरी तरह समझ लेता है, उसी दशा में वह समस्त पापकर्मों से मुक्त हो पाता है।   यहाँ पर भगवान् को अज अर्थात् अजन्मा कहा गया है, किन्तु वे द्वितीय अध्याय में वर्णित उन जीवों से भिन्न हैं, जिन्हें अज कहा गया है। भगवान् जीवों से भिन्न हैं, क्योंकि जीव भौतिक आसक्तिवश जन्म लेते तथा मरते रहते हैं। बद्धजीव अपना शरीर बदलते रहते हैं, किन्तु भगवान् का शरीर परिवर्तनशील नहीं है। यहाँ तक कि जब वे इस लोक में आते हैं तो भी उसी अजन्मा रूप में आते हैं। इसीलिए चौथे अध्याय में कहा गया है कि भगवान् अपनी अन्तरंगा शक्ति के कारण अपराशक्ति माया के अधीन नहीं हैं, अपितु पराशक्ति में रहते हैं।   इस श्लोक के वेत्ति लोक महेश्वरम् शब्दों से सूचित होता है कि मनुष्य को यह जानना चाहिए कि भगवान् कृष्ण ब्रह्माण्ड के सभी लोकों के पर स्वामी हैं। वे सृष्टि के पूर्व थे और अपनी सृष्टि से भिन्न हैं। सारे देवता इसी भौतिक जगत् में उत्पन्न हुए, किन्तु कृष्ण अजन्मा हैं, फलतः वे ब्रह्मा तथा शिवजी जैसे बड़े-बड़े देवताओं से भी भिन्न हैं और चूँकि वे ब्रह्मा, शिव तथा अन्य समस्त देवताओं के स्रष्टा हैं, अतः वे समस्त लोकों के परम पुरुष हैं।

अतएव श्रीकृष्ण उस हर वस्तु से भिन्न हैं, जिसकी सृष्टि हुई है और जो उन्हें इस रूप में जान लेता है, वह तुरन्त ही सारे पापकर्मों से मुक्त हो जाता है। परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करने के लिए मनुष्य को समस्त पापकर्मों से मुक्त होना चाहिए। जैसा कि भगवद्गीता में कहा गया है कि उन्हें केवल भक्ति के द्वारा जाना जा सकता है, किसी अन्य साधन से नहीं।   मनुष्य को चाहिए कि कृष्ण को सामान्य मनुष्य न समझे। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, केवल मूर्ख व्यक्ति ही उन्हें मनुष्य मनाता है। इसे यहाँ भिन्न प्रकार से कहा गया है। जो व्यक्ति मूर्ख नहीं है, जो भगवान् के स्वरूप को ठीक से समझ सकता है, वह समस्त पापकर्मों से मुक्त है।   यदि कृष्ण देवकीपुत्र रूप में विख्यात हैं, तो फिर अजन्मा कैसे हो सकते हैं? इसकी व्याख्या श्रीमद्भागवत में भी की गई है – जब वे देवकी तथा वसुदेव के समक्ष प्रकट हुए तो वे सामान्य शिशु की तरह नहीं जन्मे। वे अपने आदि रूप में प्रकट हुए और फिर एक सामान्य शिशु में परिणत हो गए।

कृष्ण की अध्यक्षता में जो भी कर्म किया जाता है, वह दिव्य है। वह शुभ या अशुभ फलों से दूषित नहीं होता। इस जगत् में शुभ या अशुभ वस्तुओं का बोध बहुत कुछ मनोधर्म है, क्योंकि इस भौतिक जगत् में कुछ भी शुभ नहीं है। प्रत्येक वस्तु अशुभ है, क्योंकि प्रकृति स्वयं ही अशुभ है। हम इसे शुभ मानने की कल्पना मात्र करते हैं। वास्तविक मंगल तो पूर्णभक्ति और सेवाभाव से युक्त कृष्णभावनामृत पर ही निर्भर करता हैं। अतः यदि हम तनिक भी चाहते हैं कि हमारे कर्म शुभ हों तो हमें परमेश्वर की आज्ञा से कर्म करना होगा। ऐसी आज्ञा श्रीमद्भागवत तथा भगवद्गीता जैसे शास्त्रों से या प्रामाणिक गुरु से प्राप्त की जा सकती है। चूँकि गुरु भगवान् का प्रतिनिधि होता है, अतः उसकी आज्ञा प्रत्यक्षतः परमेश्वर की आज्ञा होती है। गुरु, साधु तथा शास्त्र एक ही प्रकार से आज्ञा देते हैं। इन तीनों स्रोतों में कोई विरोध नहीं होता। इस प्रकार से किये गये सारे कार्य इस जगत् के शुभाशुभ कर्मफलों से मुक्त होते हैं। कर्म सम्पन्न करते हुए भक्त की दिव्य मनोवृत्ति वैराग्य की होती है, जिसे संन्यास कहते हैं। जैसा कि भगवद्गीता के छठे अध्याय के प्रथम श्लोक में कहा गया है कि, जो भगवान् का आदेश मानकर कोई कर्तव्य करता है और जो अपने कर्मफलों की शरण ग्रहण नहीं करता ( अनाश्रितः कर्मफलम्), ही असली संन्यासी है। जो भगवान् के निर्देशानुसार कर्म करता है, वास्तव में संन्यासी तथा योगी वही है, केवल संन्यासी या छद्म योगी के वेश में रहने वाला व्यक्ति नहीं। (10.3)

तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्।  सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ। ६।

तत्र- वहाँ;सत्त्वम्- सतोगुण;निर्मलत्वात्- भौतिक जगत् में शुद्धतम होने के कारण;प्रकाशकम्- प्रकाशित करता हुआ;अनामयम्- किसी पापकर्म के बिना;सुख- सुख की;सङ्गेन- संगति के द्वारा;बध्नाति- बाँधता है;ज्ञान- ज्ञान की;सङ्गेन- संगति से;- भी;अनघ- हे पापरहित।

भावार्थ हे निष्पाप! सतोगुण अन्य गुणों की अपेक्षा अधिक शुद्ध होने के करान प्रकाश प्रदान करने वाला और मनुष्यों को सारे पाप कर्मों से मुक्त करने वाला है। जो लोग इस गुण में स्थित होते हैं, वे सुख तथा ज्ञान के भाव से बँध जाते हैं।

तात्पर्य प्रकृति द्वारा बद्ध किये गये जीव कई प्रकार के होते हैं। कोई सुखी है और कोई अत्यन्त कर्मठ है, तो दूसरा असहाय है। इस प्रकार मनोभाव ही प्रकृति में जीव की बद्धावस्था के कारणस्वरूप हैं। भगवद्गीता के इस अध्याय में इसका वर्णन हुआ है कि वे किस प्रकार भिन्न-भिन्न प्रकार से बद्ध हैं। सर्वप्रथम सतोगुण पर विचार किया गया है। इस जगत् में सतोगुण विकसित करने का लाभ यह होता है कि मनुष्य अन्य बद्धजीवों की तुलना में अधिक चतुर हो जाता है। सतोगुणी पुरुष को भौतिक कष्ट उतना पीड़ित नहीं करते और उसमें भौतिक ज्ञान की प्रगति करने की सूझ होती है। इसका प्रतिनिधि ब्राह्मण है, जो सतोगुणी माना जाता है। सुख का यह भाव इस विचार के कारण है कि सतोगुण में पापकर्मों से प्रायः मुक्त रहा जाता है। वास्तव में वैदिक साहित्य में यह कहा गया है कि सतोगुण का अर्थ ही है अधिक ज्ञान तथा सुख का अधिकाधिक अनुभव। सारी कठिनाई यह है कि जब मनुष्य सतोगुण में स्थित होता है, तो उसे ऐसा अनुभव होता है कि वह ज्ञान में आगे है और अन्यों की अपेक्षा श्रेष्ठ है। इस प्रकार वह बद्ध हो जाता है। इसके उदाहरण वैज्ञानिक तथा दार्शनिक हैं। इनमें से प्रत्येक को अपने ज्ञान का गर्व रहता है और चूँकि वे अपने रहन-सहन को सुधार लेते हैं, अतएव उन्हें भौतिक सुख की अनुभूति होती है। बद्ध जीवन में अधिक सुख का यह भाव उन्हें भौतिक प्रकृति के गुणों से बाँध देता है। अतएव वे सतोगुण में रहकर कर्म करने के लिए आकृष्ट होते हैं। और जब तक इस प्रकार कर्म करते रहने का आकर्षण बना रहता है, तब तक उन्हें किसी न किसी प्रकार का शरीर धारण करना होता है। इस प्रकार उनकी मुक्ति की या वैकुण्ठलोक जाने की कोई सम्भावना नहीं रह जाती। वे बारम्बार दार्शनिक, वैज्ञानिक या कवि बनते रहते हैं और बारम्बार जन्म-मृत्यु के उन्हीं दोषों में बँधते रहते हैं। लेकिन माया-मोह के कारण वे सोचते हैं कि इस प्रकार का जीवन आनन्दप्रद है। (14.6)

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः। ६६।

सर्व-धर्मान्- समस्त प्रकार के धर्म;परित्यज्य- त्यागकर;माम्- मेरी;एकम्- एकमात्र;शरणम्- शरण में;व्रज- जाओ;अहम्- मैं;त्वाम्- तुमको;सर्व- समस्त;पापेभ्यः- पापों से;मोक्षयिष्यामि- उद्धार करूँगा;मा- मत;शुचः- चिन्ता करो।

भावार्थ समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ। मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा। डरो मत।

तात्पर्य : भगवान् ने अनेक प्रकार के ज्ञान तथा धर्म की विधियाँ बताई हैं - परब्रह्म का ज्ञान, परमात्मा का ज्ञान, अनेक प्रकार के आश्रमों तथा वर्णों का ज्ञान, संन्यास का ज्ञान, अनासक्ति, इन्द्रिय तथा मन का संयम, ध्यान आदि का ज्ञान । उन्होंने अनेक प्रकार से नाना प्रकार के धर्मों का वर्णन किया है। अब, भगवद्गीता का सार प्रस्तुत करते हुए भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन! अभी तक बताई गई सारी विधियों का परित्याग करके, अब केवल मेरी शरण में आओ। इस शरणागति से वह समस्त पापों से बच जाएगा, क्योंकि भगवान् स्वयं उसकी रक्षा का वचन दे रहे हैं।  सातवें अध्याय में यह कहा गया था कि वही कृष्ण की पूजा कर सकता है, जो सारे पापों से मुक्त हो गया हो। इस प्रकार कोई यह सोच सकता है कि समस्त पापों से मुक्त हुए बिना कोई शरणागति नहीं पा सकता है। ऐसे सन्देह के लिए यहाँ यह कहा गया है कि कोई समस्त पापों से मुक्त न भी हो तो केवल श्री कृष्ण के शरणागत होने पर स्वतः मुक्त कर दिया जाता है। पापों से मुक्त होने के लिए कठोर प्रयास करने की कोई आवश्यकता नहीं है। मनुष्य को बिना झिझक के कृष्ण को समस्त जीवों के रक्षक के रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए। उसे चाहिए कि श्रद्धा तथा प्रेम से उनकी शरण ग्रहण करे।  हरि भक्ति विलास में (११.६७६) कृष्ण की शरण ग्रहण करने की विधि का वर्णन हुआ है -  आनुकूल्यस्य सङकल्पः प्रातिकूल्यस्य वर्जनम् । रक्षिष्यतीति विश्र्वासो गोप्तृत्वे वरणं तथा । आत्मनिक्षेप कार्पण्ये षड्विधा शरणागतिः ।।

भक्तियोग के अनुसार मनुष्य को वही धर्म स्वीकार करना चाहिए, जिससे अन्ततः भगवद्भक्ति हो सके। समाज में अपनी स्थिति के अनुसार कोई एक विशेष कर्म कर सकता है, लेकिन यदि अपना कर्म करने से कोई कृष्णभावनामृत तक नहीं पहुँच पाता, तो उसके सारे कार्यकलाप व्यर्थ हो जाते हैं। जिस कर्म से कृष्णभावनामृत की पूर्णावस्था न प्राप्त हो सके उससे बचना चाहिए। मनुष्य को विश्वास होना चाहिए कि कृष्ण समस्त परिस्थितियों में उसकी सभी कठिनाइयों से रक्षा करेंगे। इसके विषय में सोचने की कोई आवश्यकता नहीं कि जीवन-निर्वाह कैसे होगा? कृष्ण इसको सँभालेंगे। मनुष्य को चाहिए कि वह अपने आप को निस्सहाय माने और अपने जीवन की प्रगति के लिए कृष्ण को ही अवलम्ब समझे। पूर्ण कृष्णभावनामृत होकर भगवद्भक्ति में प्रवृत्त होते ही वह प्रकृति के समस्त कल्मष से मुक्त हो जाता है। धर्म की विविध विधियाँ हैं और ज्ञान, ध्यानयोग आदि जैसे शुद्ध करने वाले अनुष्ठान हैं, लेकिन जो कृष्ण के शरणागत हो जाता है, उसे इतने सारे अनुष्ठानों के पालन की आवश्यकता नहीं रह जाती। कृष्ण की शरण में जाने मात्र से वह व्यर्थ समय गँवाने से बच जाएगा। इस प्रकार वह तुरन्त सारी उन्नति कर सकता है और समस्त पापों से मुक्त हो सकता है।

श्रीकृष्ण की सुन्दर छवि के प्रति मनुष्य को आकृष्ट होना चाहिए। उनका नाम कृष्ण इसीलिए पड़ा, क्योंकि वे सर्वाकर्षक हैं। जो व्यक्ति कृष्ण की सुन्दर, सर्वशक्तिमान छवि से आकृष्ट होता है, वह भाग्यशाली है। अध्यात्मवादी कई प्रकार के होते हैं - कुछ निर्गुण ब्रह्म के प्रति आकृष्ट होते हैं, कुछ परमात्मा के प्रति लेकिन जो भगवान् के साकार रूप के प्रति आकृष्ट होता है और इससे भी बढ़कर जो साक्षात् भगवान् कृष्ण के प्रति आकृष्ट होता है, वह सर्वोच्च योगी है। दूसरे शब्दों में, अनन्यभाव से कृष्ण की भक्ति गुह्यतम ज्ञान है और सम्पूर्ण गीता का यही सार है। कर्मयोगी, दार्शनिक, योगी तथा भक्त सभी अध्यात्मवादी कहलाते हैं, लेकिन इनमें से शुद्धभक्त ही सर्वश्रेष्ठ है। यहाँ पर मा शुचः (मत डरो, मत झिझको, मत चिन्ता करो) विशिष्ट शब्दों का प्रयोग अत्यन्त सार्थक है। मनुष्य को यह चिन्ता होती है कि वह किस प्रकार सारे धर्मों को त्यागे और एकमात्र कृष्ण की शरण में जाए, लेकिन ऐसी चिन्ता व्यर्थ है। (18.66)

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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