शान्ति की तलाश
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्। ६६।
न अस्ति– नहीं हो सकती;बुद्धिः– दिव्य बुद्धि;अयुक्तस्य– कृष्णभावना से सम्बन्धित न रहने वाले में;न– नहीं;अयुक्तस्य– कृष्णभावना से शून्य पुरुष का;भावना– स्थिर चित्त (सुख में);न– नहीं;च– तथा;अभावयतः– जो स्थिर नहीं है उसके;शान्तिः– शान्ति;अशान्तस्य– अशान्त का;कुतः– कहाँ है;सुखम्– सुख।
भावार्थ जो कृष्णभावनामृत में परमेश्वर से सम्बन्धित नहीं है उसकी न तो बुद्धि दिव्य होती है और न ही मन स्थिर होता है जिसके बिना शान्ति की कोई सम्भावना नहीं है। शान्ति के बिना सुख हो भी कैसे सकता है?
तात्पर्य कृष्णभावनाभावित हुए बिना शान्ति की कोई सम्भावना नहीं हो सकती। अतः पाँचवे अध्याय में (५.२९) इसकी पुष्टि ही गई है कि जब मनुष्य यह समझ लेता है कि कृष्ण ही यज्ञ तथा तपस्या के उत्तम फलों के एकमात्र भोक्ता हैं और समस्त ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं तथा वे समस्त जीवों के असली मित्र हैं तभी उसे वास्तविक शान्ति मिल सकती है। अतः यदि कोई कृष्णभावनाभावित नहीं है तो उसके मन का कोई अन्तिम लक्ष्य नहीं हो सकता। मन की चंचलता का एकमात्र कारण अन्तिम लक्ष्य का अभाव है। जब मनुष्य को यह पता चल जाता है कि कृष्ण ही भोक्ता, स्वामी तथा सबके मित्र है, तो स्थिर चित्त होकर शान्ति का अनुभव किया जा सकता है। अतएव जो कृष्ण से सम्बन्ध न रखकर कार्य में लगा रहता है, वह निश्चय ही सदा दुखी और अशान्त रहेगा, भले ही वह जीवन में शान्ति तथा अध्यात्मिक उन्नति का कितना ही दिखावा क्यों न करे। कृष्णभावनामृत स्वयं प्रकट होने वाली शान्तिमयी अवस्था है, जिसकी प्राप्ति कृष्ण के सम्बन्ध से ही हो सकती है। (2.66)
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्र्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति। ७१।
विहाय– छोड़कर;कामान्– इन्द्रियतृप्ति की भौतिक इच्छाएँ;यः– जो;सर्वान्– समस्त;पुमान्– पुरुष;चरति– रहता है;निःस्पृहः– इच्छारहित;निर्ममः– ममतारहित;निरहङ्कार– अहंकारशून्य;सः– वह;शान्तिम्– पूर्ण शान्ति को;अधिगच्छति– प्राप्त होता है।
भावार्थ जिस व्यक्ति ने इन्द्रियतृप्ति की समस्त इच्छाओं का परित्याग कर दिया है, जो इच्छाओं से रहित रहता है और जिसने सारी ममता त्याग दी है तथा अहंकार से रहित है, वही वास्तविक शान्ति प्राप्त कर सकता है।
तात्पर्य निस्पृह होने का अर्थ है – इन्द्रियतृप्ति के लिए कुछ भी इच्छा न करना। दूसरे शब्दों में, कृष्णभावनाभावित होने की इच्छा वास्तव में इच्छाशून्यता या निस्पृहता है। इस शरीर को मिथ्या ही आत्मा माने बिना तथा संसार की किसी वस्तु में कल्पित स्वामित्व रखे बिना श्रीकृष्ण के नित्य दास के रूप में अपनी यथार्थ स्थिति को जान लेना कृष्णभावनामृत की सिद्ध अवस्था है। जो इस सिद्ध अवस्था में स्थित में स्थित है वह जानता है कि श्रीकृष्ण ही प्रत्येक वस्तु के स्वामी हैं, अतः प्रत्येक वस्तु का उपयोग उनकी तुष्टि के लिए किया जाना चाहिए। अर्जुन आत्म-तुष्टि के लिए युद्ध नहीं करना चाहता था, किन्तु जब वह पूर्ण रूप से कृष्णभावनाभावित हो गया तो उसने युद्ध किया, क्योंकि कृष्ण चाहते थे कि वह युद्ध करे। उसे अपने लिए युद्ध करने की कोई इच्छा न थी, किन्तु वही अर्जुन कृष्ण के लिए अपनी शक्ति भर लड़ा। वास्तविक इच्छाशून्यता कृष्ण-तुष्टि के लिए इच्छा है, यह इच्छाओं को नष्ट करने का कोई कृत्रिम प्रयास नहीं है। जीव कभी भी इच्छाशून्य या इन्द्रियशून्य नहीं हो सकता, किन्तु उसे अपनी इच्छाओं की गुणवत्ता बदलनी होती है। भौतिक दृष्टि से इच्छाशून्य व्यक्ति जानता है कि प्रत्येक वस्तु कृष्ण की है (ईशावास्यमिदं सर्वम्), अतः वह किसी वस्तु पर अपना स्वामित्व घोषित नहीं करता। यह दिव्य ज्ञान आत्म-साक्षात्कार पर आधारित है – अर्थात् इस ज्ञान पर कि प्रत्येक जीव कृष्ण का अंश-स्वरूप है और जीव की शाश्वत स्थिति कभी न तो कृष्ण के तुल्य होती है न उनसे बढ़कर। इस प्रकार कृष्णभावनामृत का यह ज्ञान ही वास्तविक शान्ति का मूल सिद्धान्त है। (2.71)
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति। ३९।
श्रद्धा-वान्– श्रद्धालु व्यक्ति;लभते– प्राप्त करता है;ज्ञानम्– ज्ञान;तत्-परः– उसमें अत्यधिक अनुरक्त;संयत– संयमित;इन्द्रियः– इन्द्रियाँ;ज्ञानम्– ज्ञान;लब्ध्वा– प्राप्त करके;पराम्– दिव्य;शान्तिम्– शान्ति;अचिरेण– शीघ्र ही;अधिगच्छति– प्राप्त करता है।
भावार्थ जो श्रद्धालु दिव्यज्ञान में समर्पित है और जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, वह इस ज्ञान को प्राप्त करने का अधिकारी है और इसे प्राप्त करते ही वह तुरन्त आध्यात्मिक शान्ति को प्राप्त होता है।
तात्पर्य श्रीकृष्ण में दृढ़विश्र्वास रखने वाला व्यक्ति ही इस तरह का कृष्णभावनाभावित ज्ञान प्राप्त कर सकता है। वही पुरुष श्रद्धावान कहलाता है जो यह सोचता है कि कृष्णभावनाभावित होकर कर्म करने से वह परमसिद्धि प्राप्त कर सकता है। यह श्रद्धा भक्ति के द्वारा तथा हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे – मन्त्र के जाप द्वारा प्राप्त की जाती है क्योंकि इससे हृदय की सारी भौतिक मलिनता दूर हो जाती है। इसके अतिरिक्त मनुष्य को चाहिए कि अपनी इन्द्रियों पर संयम रखे। जो व्यक्ति कृष्ण के प्रति श्रद्धावान् है और जो इन्द्रियों को संयमित रखता है, वह शीघ्र ही कृष्णभावनामृत के ज्ञान में पूर्णता प्राप्त करता है। (4.39)
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति। २९।
भोक्तारम्– भोगने वाला, भोक्ता;यज्ञ– यज्ञ;तपसाम्– तपस्या का;सर्वलोक– सम्पूर्ण लोकों तथा उनके देवताओं का;महा-ईश्वरम्– परमेश्वर;सुहृदम्– उपकारी;सर्व– समस्त;भूतानाम्– जीवों का;ज्ञात्वा– इस प्रकार जानकर;माम्– मुझ (कृष्ण) को;शान्तिम्– भौतिक यातना से मुक्ति;ऋच्छति– प्राप्त करता है।
भावार्थ मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परं भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शान्ति लाभ-करता है।
तात्पर्य : माया से वशीभूत सारे बद्धजीव इस संसार में शान्ति प्राप्त करने के लिए उत्सुक रहते हैं। किन्तु भगवद्गीता के इस अंश में वर्णित शान्ति के सूत्र को वे नहीं जानते। शान्ति का सबसे बड़ा सूत्र यही है कि भगवान् कृष्ण समस्त मानवीय कर्मों के भोक्ता हैं। मनुष्यों को चाहिए कि प्रत्येक वस्तु भगवान् की दिव्यसेवा में अर्पित कर दें क्योंकि वे ही समस्त लोकों तथा उनमें रहने वाले देवताओं के स्वामी हैं। उनसे बड़ा कोई नहीं है। वे बड़े बड़े देवता, शिव तथा ब्रह्मा से भी महान हैं। वेदों में (श्वेताश्वतर उपनिषद् ६.७) भगवान् को तमीश्वराणां परमं महेश्वरम् कहा गया है। माया के वशीभूत होकर सारे जीव सर्वत्र अपना प्रभुत्व जताना चाहते हैं, लेकिन वास्तविकता तो यह है कि सर्वत्र भगवान् की माया का प्रभुत्व है। भगवान् प्रकृति (माया) के स्वामी हैं और बद्धजीव प्रकृति के कठोर अनुशासन के अन्तर्गत हैं। जब तक कोई इन तथ्यों को समझ नहीं लेता तब तक संसार में व्यष्टि या समष्टि रूप से शान्ति प्राप्त कर पाना सम्भव नहीं है। कृष्णभावनामृत का यही अर्थ है। भगवान् कृष्ण परमेश्वर हैं तथा देवताओं सहित सारे जीव उनके आश्रित हैं। पूर्ण कृष्णभावनामृत में रहकर ही पूर्ण शान्ति प्राप्त की जा सकती है।
यह पाँचवा अध्याय कृष्णभावनामृत की, जिसे सामान्यतया कर्मयोग कहते हैं, व्यावहारिक व्याख्या है। यहाँ पर इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है कि कर्मयोग से मुक्ति किस तरह प्राप्त होती है। कृष्णभावनामृत में कार्य करने का अर्थ है परमेश्वर के रूप में भगवान् के पूर्णज्ञान के साथ कर्म करना। ऐसा कर्म दिव्यज्ञान से भिन्न नहीं होता। प्रत्यक्ष कृष्णभावनामृत भक्तियोग है और ज्ञानयोग वह पथ है जिससे भक्तियोग प्राप्त किया जाता है। कृष्णभावनामृत का अर्थ है– परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्ध का पूर्णज्ञान प्राप्त करके कर्म करना और इस चेतना की पूर्णता का अर्थ है – कृष्ण या श्रीभगवान् का पूर्णज्ञान। शुद्ध जीव भगवान् के अंश रूप में ईश्वर का शाश्वत दास है। वह माया पर प्रभुत्व जताने की इच्छा से ही माया के सम्पर्क में आता है और यही उसके कष्टों का मूल कारण है। जब तक वह पदार्थ के सम्पर्क में रहता है उसे भौतिक आवश्यकताओं के लिए कर्म कर्म करना पड़ता है। किन्तु कृष्णभावनामृत उसे पदार्थ की परिधि में स्थित होते हुए भी आध्यात्मिक जीवन में ले आता है क्योंकि भौतिक जगत् में भक्ति का अभ्यास करने पर जीव का दिव्य स्वरूप पुनः प्रकट होता है। जो मनुष्य जितना ही प्रगत है वह उतना ही पदार्थ के बन्धन से मुक्त रहता है। भगवान् किसी का पक्षपात नहीं करते। यह तो कृष्णभावनामृत के लिए व्यक्तिगत व्यावहारिक कर्तव्यपालन पर निर्भर करता है जिससे मनुष्य इन्द्रियों पर नियन्त्रण प्राप्त करके इच्छा तथा क्रोध के प्रभाव को जीत लेता है। और जो कोई उपर्युक्त कामेच्छाओं को वश में करके कृष्णभावनामृत में दृढ़ रहता है वह ब्रह्मनिर्वाण या दिव्य अवस्था को प्राप्त होता है। कृष्णभावनामृत में अष्टांगयोग पद्धति का स्वयमेव अभ्यास होता है क्योंकि इससे अन्तिम लक्ष्य की पूर्ति होती है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि के अभ्यास द्वारा धीरे-धीरे प्रगति हो सकती है। किन्तु भक्तियोग में तो ये प्रस्तावना के स्वरूप हैं क्योंकि केवल इसी से मनुष्य को पूर्णशान्ति प्राप्त हो सकती है। यही जीवन की परम सिद्धि है। (5.29)
वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्। २८।
वेदेषु– वेदाध्ययन में;यज्ञेषु– यज्ञ सम्पन्न करने में;तपःसु– विभिन्न प्रकार की तपस्याएँ करने में;च– भी;एव– निश्चय ही;दानेषु– दान देने में;यत्– जो;पुण्य-फलम्– पुण्यकर्म का फल;प्रदिष्टम्– सूचित;अत्येति– लाँघ जाता है;तत् सर्वम्– वे सब;इदम्– यह;विदित्वा– जानकर;योगी– योगी;परम्– परम;स्थानम्– धाम को;उपैति– प्राप्त करता है;च– भी;आद्यम्– मूल, आदि।
भावार्थ जो व्यक्ति भक्तिमार्ग स्वीकार करता है, वह वेदाध्ययन, तपस्या, दान, दार्शनिक तथा सकाम कर्म करने से प्राप्त होने वाले फलों से वंचित नहीं होता। वह मात्र भक्ति सम्पन्न करके इन समस्त फलों की प्राप्ति करता है और अन्त में परम नित्यधाम को प्राप्त होता है।
तात्पर्य : यह श्लोक सातवें तथा आठवें अध्यायों का उपसंहार है, जिनमें कृष्णभावनामृत तथा भक्ति का विशेष वर्णन है। मनुष्य को अपने गुरु के निर्देशन में वेदाध्ययन करना होता है, उन्हीं के आश्रम में रहते हुए तपस्या करनी होती है। ब्रह्मचारी को गुरु के घर में एक दास की भाँति रहना पड़ता है और द्वार-द्वार भिक्षा माँगकर गुरु के पास लाना होता है। उसे गुरु के उपदेश पर ही भोजन करना होता है और यदि किसी दिन गुरु शिष्य को भोजन करने के लिए बुलाना भूल जाय तो शिष्य को उपवास करना होता है। ब्रह्मचर्य पालन के ये कुछ वैदिक नियम हैं। अपने गुरु के आश्रम में जब छात्र पाँच से बीस वर्ष तक वेदों का अध्ययन कर लेता है तो वह परम चरित्रवान बन जाता है। वेदों का अध्ययन मनोधर्मियों के मनोरंजन के लिए नहीं, अपितु चरित्र-निर्माण के लिए है। इस प्रशिक्षण के बाद ब्रह्मचारी को गृहस्थ जीवन में प्रवेश करके विवाह करने की अनुमति दी जाती है। गृहस्थ के रूप में उसे अनेक यज्ञ करने होते हैं, जिससे वह आगे उन्नति कर सके। उसे देश, काल तथा पात्र के अनुसार तथा सात्त्विक, राजसिक तथा तामसिक दान में अन्तर करते हुए दान देना होता है, जैसा कि भगवद्गीता में वर्णित है। गृहस्थ जीवन के बाद वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण करना पड़ता है, जिसमें उसे जंगल में रहते हुए वृक्ष की छाल पहन कर और क्षौर कर्म आदि किये बिना कठिन तपस्या करनी होती है इस प्रकार मनुष्य ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा अन्त में संन्यास आश्रम का पालन करते हुए जीवन की सिद्धावस्था को प्राप्त होता है। तब इनमें से कुछ स्वर्गलोक को जाते हैं और यदि वे और अधिक उन्नति करते हैं तो अधिक उच्च्लोकों को या तो निर्विशेष ब्रह्मज्योति, या वैकुण्ठलोक या कृष्णलोक को जाते हैं। वैदिक ग्रंथों में इसी मार्ग की रूपरेखा प्राप्त होती है। किन्तु कृष्णभावनामृत की विशेषता यह है कि मनुष्य एक ही झटके में भक्ति करने के कारण मनुष्य जीवन के विभिन्न आश्रमों के अनुष्ठानों को पार कर जाता है।
इदं विदित्वा शब्द सूचित करते हैं कि मनुष्य को भगवद्गीता के इस अध्याय में तथा सातवें अध्याय में दिये हुए कृष्ण के उपदेशों को समझना चाहिए। उसे विद्वता या मनोधर्म से इस दोनों अध्यायों को समझने का प्रयास नहीं करना चाहिए, अपितु भक्तों की संगति से श्रवण करके समझना चाहिए। सातवें से लेकर बारहवें तक के अध्याय भगवद्गीता के सार रूप हैं। प्रथम छह अध्याय तथा अन्तिम छह अध्याय इन मध्यवर्ती छहों अध्यायों के लिए आवरण पात्र हैं जिनकी सुरक्षा भगवान् करते हैं। यदि कोई गीता के इन छह अध्यायों को भक्त की संगति में भलीभाँति समझ लेता है तो उसका जीवन समस्त तपस्याओं, यज्ञों, दानों, चिन्तनों को पार करके महिमा-मण्डित हो उठेगा, क्योंकि केवल कृष्णभावनामृत के द्वारा उसे इतने कर्मों का फल प्राप्त हो जाता है।
जिसे भगवद्गीता में तनिक भी श्रद्धा नहीं है, उसे किसी भक्त से भगवद्गीता समझनी चाहिए, क्योंकि चौथे अध्याय के प्रारम्भ में ही कहा गया है कि केवल भक्तगण ही गीता को समझ सकते हैं, अन्य कोई भी भगवद्गीता के अभिप्राय को नहीं समझ सकता। अतः मनुष्य को चाहिए कि वह किसी भक्त से भगवद्गीता पढ़े; मनोधर्मियों से नहीं। यह श्रद्धा का सूचक है। जब भक्त की खोज की जाती है और अन्ततः भक्त की संगति प्राप्त हो जाती है, उसी क्षण से भगवद्गीता का वास्तविक अध्ययन तथा उसका ज्ञान प्रारम्भ हो जाता है। भक्त की संगति से भक्ति आती है और भक्ति के कारण कृष्ण या ईश्वर तथा कृष्ण के कार्यकलापों, उनके रूप, नाम, लीलाओं आदि से संबंधित सारे भ्रम दूर हो जाते हैं। इस प्रकार भ्रमों के दूर हो जाने पर वह अपने अध्ययन में स्थिर हो जाता है। तब उसे भगवद्गीता के अध्ययन में रस आने लगता है और कृष्णभावनाभावित होने की अनुभूति होने लगती है। आगे बढ़ने पर वह कृष्ण के प्रेम में पूर्णतया अनुरक्त हो जाता है। यह जीवन की सर्वोच्च सिद्ध अवस्था है, जिससे भक्त कृष्ण के धाम गोलोक वृन्दावन को प्राप्त होता है, जहाँ वह नित्य सुखी रहता है। (8.28)
(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)
Comments