डर लगना
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ।10।
वीत– मुक्त;राग– आसक्ति;भय– भय;क्रोधाः– तथा क्रोध से;मत्-मया– पूर्णतया मुझमें;माम्– मुझमें;उपाश्रिताः– पूर्णतया स्थित;बहवः– अनेक;ज्ञान– ज्ञान की;तपसा– तपस्या से;पूताः– पवित्र हुआ;मत्-भावम्– मेरे प्रति दिव्य प्रेम को;आगताः– प्राप्त।
भावार्थ आसक्ति, भय तथा क्रोध से मुक्त होकर, मुझमें पूर्णतया तन्मय होकर और मेरी शरण में आकर बहुत से व्यक्ति भूत काल में मेरे ज्ञान से पवित्र हो चुके हैं। इस प्रकार से उन सबों ने मेरे प्रति दिव्यप्रेम को प्राप्त किया है।
तात्पर्य: जैसा कि पहले कहा जा चुका है विषयों में आसक्त व्यक्ति के लिए परमसत्य के स्वरूप को समझ पाना अत्यन्त कठिन है। सामान्यतया जो लोग देहात्मबुद्धि में आसक्त होते हैं, वे भौतिकतावाद में इतने लीन रहते हैं कि उनके लिए यह समझ पाना असम्भव सा है कि परमात्मा व्यक्ति भी हो सकता है। ऐसे भौतिकतावादी व्यक्ति इसकी कल्पना तक नहीं कर पाते कि ऐसा भी दिव्य शरीर है जो नित्य तथा सच्चिदानन्दमय है। भौतिकतावादी धारणा के अनुसार शरीर नाशवान्, अज्ञानमय तथा अत्यन्त दुखमय होता है। अतः जब लोगों को भगवान् के साकार रूप के विषय में बताया जाता है तो उनके मन में शरीर की यही धारणा बनी रहती है। ऐसे भौतिकतावादी पुरुषों के लिए विराट भौतिक जगत् का स्वरूप ही परमतत्त्व है। फलस्वरूप वे परमेश्वर को निराकार मानते हैं और भौतिकता में इतने तल्लीन रहते हैं कि भौतिक पदार्थ से मुक्ति के बाद भी अपना स्वरूप बनाये रखने के विचार से डरते हैं। जब उन्हें यह बताया जाता है कि आध्यात्मिक जीवन भी व्यक्तिगत तथा साकार होता है तो वे पुनः व्यक्ति बनने से भयभीत हो उठते हैं, फलतः वे निराकार शून्य में तदाकार होना पसंद करते हैं। सामान्यतया वे जीवों की तुलना समुद्र के बुलबुलों से करते हैं, जो टूटने पर समुद्र में ही लीन हो जाते हैं। पृथक् व्यक्तित्व से रहित आध्यात्मिक जीवन की यह चरम सिद्धि है। यह जीवन की भयावह अवस्था है, जो आध्यात्मिक जीवन के पूर्णज्ञान से रहित है। इसके अतिरिक्त ऐसे बहुत से मनुष्य हैं जो आध्यात्मिक जीवन को तनिक भी नहीं समझ पाते। अनेक वादों तथा दार्शनिक चिन्तन की विविध विसंगतियों से परेशान होकर वे उब उठते हैं या क्रुद्ध हो जाते हैं और मूर्खतावश यह निष्कर्ष निकालते हैं कि परम कारण जैसा कुछ नहीं है, अतः प्रत्येक वस्तु अन्ततोगत्वा शून्य है। ऐसे लोग जीवन की रुग्णावस्था में होते हैं। कुछ लोग भौतिकता में इतने आसक्त रहते हैं कि वे आध्यात्मिक जीवन की ओर कोई ध्यान नहीं देते और कुछ लोग तो निराशावश सभी प्रकार के आध्यात्मिक चिन्तनों से क्रुद्ध होकर प्रत्येक वस्तु पर अविश्वास करने लगते हैं। इस अन्तिम कोटि के लोग किसी न किसी मादक वस्तु का सहारा लेते हैं और उनके मति-विभ्रम को कभी-कभी आध्यात्मिक दृष्टि मान लिया जाता है। मनुष्य को भौतिक जगत् के प्रति आसक्ति की तीनों अवस्थाओं से छुटकारा पाना होता है – ये हैं आध्यात्मिक जीवन की अपेक्षा, आध्यात्मिक साकार रूप का भय तथा जीवन की हताशा से उत्पन्न शून्यवाद की कल्पना। जीवन की इन तीनों अवस्थाओं से छुटकारा पाने के लिए प्रामाणिक गुरु के निर्देशन में भगवान् की शरण ग्रहण करना और भक्तिमय जीवन के नियम तथा विधि-विधानों का पालन करना आवश्यक है। भक्तिमय जीवन की अन्तिम अवस्था भाव या दिव्य ईश्वरीय प्रेम कहलाती है।
भक्तिरसामृतसिन्धु (१.४.१५-१६) के अनुसार भक्ति का विज्ञान इस प्रकार है –
आदौ श्रद्धा ततः साधुसंगोSथ भजनक्रिया
ततोSनर्थनिवृत्तिः स्यात्ततो निष्ठा रूचिस्ततः ।
अथासक्तिस्ततो भावस्ततः प्रेमाभ्यदञ्चति
साधकानामयं प्रेम्णः प्रादुर्भावे भवेत्क्रमः ।।
“प्रारम्भ में आत्म-साक्षात्कार की समान्य इच्छा होनी चाहिए। इससे मनुष्य ऐसे व्यक्तियों की संगति करने का प्रयास करता है जो आध्यात्मिक दृष्टि से उठे हुए हैं। अगली अवस्था में गुरु से दीक्षित होकर नवदीक्षित भक्त उसके आदेशानुसार भक्तियोग प्रारम्भ करता है। इस प्रकार सद्गुरु के निर्देश में भक्ति करते हुए वह समस्त भौतिक आसक्ति से मुक्त हो जाता है, उसके आत्म-साक्षात्कार में स्थिरता आती है और वह श्रीभगवान् कृष्ण के विषय में श्रवण करने के लिए रूचि विकसित करता है। इस रूचि से आगे चलकर कृष्णभावनामृत में आसक्ति उत्पन्न होती है जो भाव में अथवा भगवत्प्रेम के प्रथम सोपान में परिपक्व होती है। ईश्वर के प्रति प्रेम ही जीवन की सार्थकता है।” प्रेम-अवस्था में भक्त भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में निरन्तर लीन रहता है। अतः भक्ति की मन्द विधि से प्रामाणिक गुरु के निर्देश में सर्वोच्च अवस्था प्राप्त की जा सकती है और समस्त भौतिक आसक्ति, व्यक्तिगत आध्यात्मिक स्वरूप के भय तथा शून्यवाद से उत्पन्न हताशा से मुक्त हुआ जा सकता है। तभी मनुष्य को अन्त में भगवान् के धाम की प्राप्ति हो सकती है। (4.10)
सञ्जय उवाच।
इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः।
आश्र्वासयामास च भीतमेनं भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ।50।
सञ्जयःउवाच- संजय ने कहा;इति- इस प्रकार;अर्जुनम्- अर्जुन को;वासुदेवः- कृष्ण ने;तथा- उस प्रकार से;उक्त्वा- कहकर;स्वकम्- अपना, स्वीय;रूपम्- रूप को;दर्शयाम् आस- दिखलाया;भूयः- फिर;आश्र्वासयाम् आस- धीरज धराया;च- भी;भीतम्- भयभीत;एनम्- उसको;भूत्वा- होकर;पुनः- फिर;सौम्य वपुः- सुन्दर रूप;महा-आत्मा- महापुरुष।
भावार्थ संजय ने धृतराष्ट्र से कहा - अर्जुन से इस प्रकार कहने के बाद भगवान् कृष्ण ने अपना असली चतुर्भुज रूप प्रकट किया और अन्त में दो भुजाओं वाला रूप प्रदर्शित करके भयभीत अर्जुन को धैर्य बँधाया।
तात्पर्य जब कृष्ण वासुदेव तथा देवकी के पुत्र के रूप में प्रकट हुए तो पहले वे चतुर्भुज नारायण रूप में ही प्रकट हुए, किन्तु जब उनके माता-पिता ने प्रार्थना की तो उन्होंने सामान्य बालक का रूप धारण कर लिया। उसी प्रकार कृष्ण को ज्ञात था कि अर्जुन उनके चतुर्भुज रूप को देखने का इच्छुक नहीं है, किन्तु चूँकि अर्जुन ने उनको इस रूप में देखने की प्रार्थना की थी, अतः कृष्ण ने पहले अपना चतुर्भुज रूप दिखलाया और फिर वे अपने दो भुजाओं वाले रूप में प्रकट हुए। सौम्यवपुः शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसका अर्थ है अत्यन्त सुन्दर रूप। जब कृष्ण विद्यमान थे तो सारे लोग उनके रूप पर ही मोहित हो जाते थे और चूँकि कृष्ण इस विश्व के निर्देशक हैं, अतः उन्होंने अपने भक्त अर्जुन का भय दूर किया और पुनः उसे अपना सुन्दर (सौम्य) रूप दिखलाया। ब्रह्मसंहिता में (५.३८) कहा गया है - प्रेमाञ्जनच्छुरित भक्तिविलोचनेन - जिस व्यक्ति कि आँखों में प्रेमरूपी अंजन लगा है, वही कृष्ण के सौम्यरूप का दर्शन कर सकता है। (11.50)
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ।30।
प्रवृत्तिम्– कर्म को;च– भी;निवृत्तिम्– अकर्म को;च– तथा;कार्य– करणीय;अकार्य– तथा अकरणीय में;भय– भय;अभये– तथा निडरता में;बन्धम्– बन्धन;मोक्षम्– मोक्ष;च– तथा;या– जो;वेत्ति– जानता है;बुद्धिः– बुद्धि;सा– वह;पार्थ– हे पृथापुत्र;सात्त्विकी– सतोगुणी।
भावार्थ हे पृथापुत्र! वह बुद्धि सतोगुणी है, जिसके द्वारा मनुष्य यह जानता है कि क्या करणीय है और क्या नहीं है, किस्से डरना चाहिए और किस्से नहीं, क्या बाँधने वाला है और क्या मुक्ति देने वाला है।
तात्पर्य शास्त्रों के निर्देशानुसार कर्म करने को या उन कर्मों को करना जिन्हें किया जाना चाहिए, प्रवृत्ति कहते हैं। जिन कार्यों का इस तरह निर्देश नहीं होता वे नहीं किये जाने चाहिए। जो व्यक्ति शास्त्रों के निर्देशों को नहीं जानता, वह कर्मों तथा उनकी प्रतिक्रिया से बँध जाता है। जो बुद्धि अच्छे बुरे का भेद बताती है, वह सात्त्विकी है। (18.30)
(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)
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