कृपया मेरा विनम्र प्रणाम स्वीकार करें।
(Please accept my humble obeisances)
श्रील प्रभुपाद की जय हो !
(All Glories to Sril Prabhupada)
ॐ श्री गुरु गौरांग जयतः
श्रीमद भगवद्गीता यथारूप — आमुख
1 भगवद्गीता यथारूप को प्रस्तुत करने का एकमात्र उद्देश्य बद्ध जिज्ञासुओं को उस उद्देश्य का मार्गदर्शन कराना है, जिसके लिए कृष्ण इस धरा पर ब्रह्मा के एक दिन में एक बार अर्थात प्रत्येक 8,60,00,00,000 (आठ अरब साठ करोड़) वर्ष बाद अवतार लेते हैं। भगवद्गीता में इस उद्देश्य का उल्लेख हुआ है और हमें उसे उसी रूप में ग्रहण कर लेना चाहिए अन्यथा भगवद्गीता तथा उसके वक्ता भगवान कृष्ण को समझने का कोई अर्थ नहीं है।
2 सामान्यतया तथाकथित विद्वान, राजनीतिज्ञ, दार्शनिक तथा स्वामी कृष्ण के सम्यक ज्ञान के बिना भगवद्गीता पर भाष्य लिखते समय या तो कृष्ण को उसमें से निकाल फेंकना चाहते हैं या उनको मार डालना चाहते हैं। भगवद्गीता का ऐसा अप्रामाणिक भाष्य मायावादी भाष्य कहलाता है और श्री चैतन्य महाप्रभु हमें ऐसे अप्रामाणिक लोगों से सावधान कर गए हैं।
3 मानव समाज में कृष्णभावनामृत आन्दोलन अनिवार्य है क्योंकि यह जीवन की चरम सिद्धि प्रदान करने वाला है। ऐसा क्यों है, इसकी पूरी व्याख्या भगवद्गीता में हुई है। प्रत्येक व्यक्ति को यह जान लेना चाहिए कि "जीव" नित्य दास है और जब तक वह कृष्ण की सेवा नहीं करेगा, तब तक वह जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़ता रहेगा ।
4 इस कलियुग में सामान्य जनता कृष्ण की बहिरंगा शक्ति द्वारा मोहित है और उसे यह भ्रान्ति है कि भौतिक सुविधाओं की प्रगति से हर व्यक्ति सुखी बन सकेगा। उसे इसका ज्ञान नहीं है कि भौतिक या बहिरंगा प्रकृति अत्यन्त प्रबल है, क्योंकि हर प्राणी प्रकृति के कठोर नियमों द्वारा बुरी तरह से जकड़ा हुआ है।
5 सौभाग्यवश जीव भगवान का अंश-रूप है अतएव उसका सहज कार्य है — भगवान की सेवा करना। मोहवश मनुष्य विभिन्न प्रकारों से अपनी इन्द्रियतृप्ति करके सुखी बनना चाहता है, किन्तु इससे वह कभी सुखी नहीं हो सकता। अपनी भौतिक इन्द्रियों को तुष्ट करने के बजाय उसे भगवान की इन्द्रियों को तुष्ट करने का प्रयास करना चाहिए। यही जीवन की सर्वोच्च सिद्धि है। अतः हमें आशा है कि हम भगवद्गीता यथारूप को जिस रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं, उससे मानव लाभ उठायेंगे और यदि एक भी व्यक्ति भगवदभक्त बन सके, तो हम अपने प्रयास को सफल मानेंगे।
कृष्णकृपामूर्ति श्री श्रीमद अभय चरणारविन्द भक्ति वेदान्त स्वामी श्रील प्रभुपाद
संस्थापकाचार्य : अन्तर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ
श्रीमद भगवद्गीता यथारूप में अपनी समस्याओं का समाधान प्राप्त कीजिये ।
भगवद्गीता यथारूप लाइफ मैनुअल - विस्मृति (भूल जाना)
सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ।15।
सर्वस्य- समस्त प्राणियों;च- तथा;अहम्- मैं;हृदि- हृदय में;सन्निविष्टः- स्थित;मत्तः- मुझ से;स्मृतिः- स्मरणशक्ति;ज्ञानम्- ज्ञान;अपोहनम्- विस्मृति;च- तथा;वेदैः- वेदों के द्वारा;च- भी;सर्वैः- समस्त;अहम्- मैं हूँ;एव- निश्चय ही;वेद्यः- जानने योग्य, ज्ञेय;वेदान्त-कृत- वेदान्त के संकलकर्ता;वेदवित्- वेदों का ज्ञाता;एव- निश्चय ही;च- तथा;अहम्- मैं।
भावार्थ मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है। मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ। निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ।
तात्पर्य परमेश्वर परमात्मा रूप में प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित हैं और उन्हीं के कारण सारे कर्म प्रेरित होते हैं। जीव अपने विगत जीवन की सारी बातें भूल जाता है, लेकिन उसे परमेश्वर के निर्देशानुसार कार्य करना होता है, जो उसके सारे कर्मों के साक्षी है। अतएव वह अपने विगत कर्मों के अनुसार कार्य करना प्रारम्भ करता है। इसके लिए आवश्यक ज्ञान तथा स्मृति उसे प्रदान की जाती है। लेकिन वह विगत जीवन के विषय में भूलता रहता है। इस प्रकार भगवान् न केवल सर्वव्यापी हैं, अपितु वे प्रत्येक हृदय में अन्तर्यामी भी हैं। वे विभिन्न कर्मफल प्रदान करने वाले हैं। वे न केवल निराकार ब्रह्म तथा अन्तर्यामी परमात्मा के रूप में पूजनीय हैं, अपितु वे वेदों के अवतार के रूप में भी पूजनीय हैं। वेद लोगों को सही दिशा बताते हैं, जिससे वे समुचित ढंग से अपना जीवन ढाल सकें और भगवान् के धाम को वापस जा सकें।
वेद भगवान् कृष्ण विषयक ज्ञान प्रदान करते हैं और अपने अवतार व्यासदेव के रूप में कृष्ण ही वेदान्तसूत्र के संकलनकर्ता हैं। व्यासदेव द्वारा श्रीमद्भागवत के रूप में किया गया वेदान्तसूत्र का भाष्य वेदान्तसूत्र की वास्तविक सूचना प्रदान करता है। भगवान् इतने पूर्ण हैं कि बद्धजीवों के उद्धार हेतु वे उसके अन्न के प्रदाता एवं पाचक हैं, उसके कार्यकलापों के साक्षी हैं तथा वेदों के रूप में ज्ञान के प्रदाता हैं वे भगवान् श्रीकृष्ण के रूप में भगवद्गीता के शिक्षक हैं। वे बद्धजीव द्वारा पूज्य हैं। इस प्रकार ईश्वर सर्वकल्याणप्रद तथा सर्वदयामय हैं। अन्तः प्रविष्टः शास्ता जनानाम्। जीव ज्योंही अपने इस शरीर को छोड़ता है, इसे भूल जाता है, लेकिन परमेश्वर द्वारा प्रेरित होने पर वह फिर से काम करने लगता है। यद्यपि जीव भूल जाता है, लेकिन भगवान् उसे बुद्धि प्रदान करते हैं, जिससे वह अपने पूर्वजन्म के अपूर्ण कार्य को फिर से करने लगता है। अतएव जीव अपने हृदय में स्थित परमेश्वर के आदेशानुसार इस जगत् में सुख या दुख का केवल भोग ही नहीं करता है, अपितु उनसे वेद समझने का अवसर भी प्राप्त करता है।
यदि कोई ठीक से वैदिक ज्ञान पाना चाहे तो कृष्ण उसे आवश्यक बुद्धि प्रदान करते हैं। वे किस लिए वैदिक ज्ञान प्रस्तुत करते हैं? इसलिए कि जीव को कृष्ण को समझने की आवश्यकता है। इसकी पुष्टि वैदिक साहित्य से होती है - योSसौ सर्वैर्वेदैगीयते। चारों वेदों , वेदान्त सूत्र तथा उपनिषदों एवं पुराणों समेत सारे वैदिक साहित्य में परमेश्वर की कीर्ति का गान है। उन्हें वैदिक अनुष्ठानों द्वारा, वैदिक दर्शन की व्याख्या द्वारा तथा भगवान् की भक्तिमय पूजा द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। अतएव वेदों का उद्देश्य कृष्ण को समझना है। वेद हमें निर्देश देते हैं, जिससे कृष्ण को जाना जा सकता है और उनकी अनुभूति की जा सकती है। भगवान् ही चरम लक्ष्य है। वेदान्तसूत्र (१.१.४) में इसकी पुष्टि इन शब्दों में हुई है - तत्तु समन्वयात्। मनुष्य तीन अवस्थाओं में सिद्धि प्राप्त करता है। वैदिक साहित्य के ज्ञान से भगवान् के साथ अपने सम्बन्ध को समझा जा सकता है, विभिन्न विधियों को सम्पन्न करके उन तक पहुँचा जा सकता है और अन्त में उस परम लक्ष्य श्रीभगवान् की प्राप्ति की जा सकती है। इस श्लोक में वेदों के प्रयोजन, वेदों के ज्ञान तथा वेदों के लक्ष्य को स्पष्टतः परिभाषित किया गया है। (15.15)
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढ़ानि मायया । 61 ।
ईश्वरः– भगवान्;सर्व-भूतानाम्– समस्त जीवों के;हृत्-देशे– हृदय में;अर्जुन– हे अर्जुन;तिष्ठति– वास करता है;भ्रामयन्– भ्रमण करने के लिए बाध्य करता हुआ;सर्व-भूतानि– समस्त जीवों को;यन्त्र– यन्त्र में;आरुढानि– सवार, चढ़े हुए;मायया– भौतिक शक्ति के वशीभूत होकर।
भावार्थ हे अर्जुन! परमेश्वर प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित हैं और भौतिक शक्ति से निर्मित यन्त्र में सवार की भाँति बैठे समस्त जीवों को अपनी माया से घुमा (भरमा) रहे हैं।
तात्पर्य अर्जुन परम ज्ञाता न था और लड़ने या न लड़ने का उसका निर्णय उसके क्षुद्र विवेक तक सीमित था। भगवान् कृष्ण ने उपदेश दिया कि जीवात्मा (व्यक्ति) ही सर्वेसर्वा नहीं है। भगवान् या स्वयं कृष्ण अन्तर्यामी परमात्मा रूप में हृदय में स्थित होकर जीव को निर्देश देते हैं। शरीर-परिवर्तन होते ही जीव अपने विगत कर्मों को भूल जाता है, लेकिन परमात्मा जो भूत, वर्तमान तथा भविष्य का ज्ञाता है, उसके समस्त कार्यों का साक्षी रहता है। अतएव जीवों के सभी कार्यों का संचालन इसी परमात्मा द्वारा होता है। जीव जितना योग्य होता है उतना ही पाता है और उस भौतिक शरीर द्वारा वहन किया जाता है, जो परमात्मा के निर्देश में भौतिक शक्ति द्वारा उत्पन्न किया जाता है। ज्योंही जीव को किसी विशेष प्रकार के शरीर में स्थापित कर दिया जाता है, वह शारीरिक अवस्था के अन्तर्गत कार्य करना प्रारम्भ कर देता है।
अत्यधिक तेज मोटरकार में बैठा व्यक्ति कम तेज कार में बैठे व्यक्ति से अधिक तेज जाता है, भले ही जीव अर्थात् चालक एक ही क्यों न हो। इसी प्रकार परमात्मा के आदेश से भौतिक प्रकृति एक विशेष प्रकार के जीव के लिए एक विशेष शरीर का निर्माण करती है, जिससे वह अपनी पूर्व इच्छाओं के अनुसार कर्म कर सके। जीव स्वतन्त्र नहीं होता। मनुष्य हो यह नहीं सोचना चाहिए कि वह भगवान् से स्वतन्त्र है। व्यक्ति तो सदैव भगवान् के नियन्त्रण में रहता है। अतएव उसका कर्तव्य है कि वह शरणागत हो और अगले श्लोक का यही आदेश है। (18.61)
(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)
Comments