jagdish chandra chouhan's Posts (549)

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अध्याय छत्तीस - वृषभासुर अरिष्ट का वध (10.36)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: तत्पश्चात अरिष्टासुर गोपों के गाँव में आया। वह बड़े डिल्ले वाले बैल के रूप में प्रकट होकर अपने खुरों से पृथ्वी को क्षत-विक्षत करके उसे कँपाने लगा।

2 अरिष्टासुर ने ज़ोर से रँभाते हुए धरती को खुरों से कुरेदा। वह अपनी पूँछ उठाये और आँखें चमकाता सींगों की नोक से बाँधों को चीरने लगा और बीच-बीच में मलमूत्र भी छोड़ता जाता था।

3-4 हे राजन, तीखे सींगों वाले अरिष्टासुर के डिल्ले को पर्वत समझकर बादल उसके आसपास मँडराने लगे। अतः जब ग्वालों तथा गोपियों ने उस असुर को देखा तो वे भयभीत हो उठे। दरअसल उसकी गर्जना की तीव्र गूँज इतनी भयावह थी कि गर्भिणी गौवों तथा स्त्रियों के गर्भपात हो गये।

5 हे राजन, घरेलू पशु भय के मारे चरागाह से भाग गये और सारे निवासी "कृष्ण कृष्ण" चिल्लाते हुए शरण के लिए भगवान गोविन्द के पास दौड़े।

6 जब भगवान ने देखा कि सारा गोकुल भय के मारे भगा जा रहा है, तो उन्होंने यह कहकर उन्हें आश्वासन दिया, “डरना मत ।" तत्पश्चात उन्होंने वृषासुर को इस प्रकार ललकारा ।

7 'रे मूर्ख! रे दुष्ट! तुम क्या सोचकर ग्वालों को तथा उनके पशुओं को डरा रहे हो जबकि मैं तुम जैसे दुरात्माओं को दण्ड देने के लिए यहाँ हूँ।

8 ये शब्द कहकर अच्युत भगवान हरि ने अपनी हथेलियों से अपनी बाँहें ठोंकीं जिससे जोर की ध्वनि से अरिष्ट और अधिक क्रुद्ध हो उठा। तब भगवान अपनी बलशाली सर्प जैसी बाँह अपने एक सखा के कंधे पर डालकर असुर की ओर मुँह करके खड़े हो गये।

9 इस तरह उकसाने पर अरिष्ट ने अपने एक खुर से धरती कुरेदी और तब वह क्रोध के साथ कृष्ण पर झपटा। ऊपर उठी हुई उसकी पूँछ के चारों ओर बादल मँडरा रहे थे।

10 अपने सींगों के अग्रभाग सामने की ओर सीधे किये हुए तथा अपनी रक्तिम आँखों की बगल से तिरछे घूर कर भय दिखाकर अरिष्ट पूरे वेग से कृष्ण की ओर झपटा मानो इन्द्र द्वारा चलाया गया वज्र हो।

11 भगवान कृष्ण ने अरिष्टासुर को सींगों से पकड़ लिया और उसे अठारह पग पीछे फेंक दिया जिस तरह एक हाथी अपने प्रतिद्वन्द्वी हाथी से लड़ते समय करता है।

12 इस प्रकार भगवान द्वारा पीछे धकेले जाने पर, वृषासुर फिर से उठ खड़ा हुआ और हाँफता हुआ तथा सारे शरीर पर आए पसीने से तर अचेत-क्रोध में आकर उन पर झपटा ।

13 ज्योंही अरिष्ट ने आक्रमण किया, भगवान कृष्ण ने उसके सींग पकड़ लिये और अपने पाँव से उसे धरती पर गिरा दिया। तब भगवान ने उसे ऐसा लताड़ा मानो कोई गीला वस्त्र हो और अन्त में उन्होंने उसका एक सींग उखाड़कर उसीसे उसकी तब तक पिटाई की जब तक वह दण्ड के समान धराशायी नहीं हो गया।

14 रक्त वमन करते तथा बुरी तरह से मलमूत्र त्याग करते, अपने पाँव पटकते तथा अपनी आँखें इधर-उधर पलटते, अरिष्टासुर बड़ी ही पीड़ा के साथ मृत्यु के धाम चला गया। देवताओं ने कृष्ण पर फूल बरसाकर उनका सम्मान किया।

15 इस तरह अरिष्ट नामक वृषासुर का वध करने के बाद, गोपियों के नेत्रों के लिए उत्सव स्वरूप कृष्ण, बलराम सहित ग्वालों के ग्राम में प्रविष्ट हुए।

16 अद्भुत काम करनेवाले श्रीकृष्ण द्वारा अरिष्टासुर का वध हो जाने पर नारदमुनि राजा कंस को बतलाने गये। दैवीदृष्टि वाले इस शक्तिशाली मुनि ने राजा से इस प्रकार कहा।

17 नारद ने कंस से कहा: यशोदा की सन्तान वस्तुत: कन्या थी और कृष्ण देवकी का पुत्र है। यही नहीं, राम रोहिणी का पुत्र है। वसुदेव ने डरकर कृष्ण तथा बलराम को अपने मित्र नन्द महाराज के हाथों में सौंप दिया और इन्हीं दोनों बालकों ने तुम्हारे आदमियों को मारा है।

18 यह सुनकर, भोजपति क्रुद्ध हो उठा और उसकी इन्द्रियाँ उसके वश में नहीं रह पाईं। उसने वसुदेव को मारने के लिए एक तेज तलवार उठा ली।

19 किन्तु नारद ने कंस को यह स्मरण दिलाते हुए रोका कि वसुदेव नहीं अपितु उसके दोनों पुत्र तुम्हारी मृत्यु के कारण बनेंगे। तब कंस ने वसुदेव तथा उसकी पत्नी को लोहे की जंजीरों से बँधवा दिया।

20 नारद के चले जाने पर राजा कंस ने केशी को बुलाया और उसे आदेश दिया, “जाओ राम तथा कृष्ण का वध करो।"

21 इसके बाद भोजराज ने मुष्टिक, चाणूर, शल, तोशल इत्यादि अपने मंत्रियों तथा अपने महावतों को भी बुलाया। राजा ने उन्हें इस प्रकार सम्बोधित किया।

22-23 मेरे वीरों, चाणूर तथा मुष्टिक, यह सुन लो। आनकदुन्दुभि (वसुदेव) के पुत्र राम तथा कृष्ण नन्द के व्रज में रह रहे हैं। यह भविष्यवाणी हुई है कि ये दोनों बालक मेरी मृत्यु के कारण होंगे। जब वे यहाँ लाए जाय तो तुम उन्हें कुश्ती लड़ने के बहाने मार डालना।

24 तुम कुश्ती का अखाड़ा (रंगभूमि) तैयार करो जिसके चारों ओर देखने के अनेक मंच हों और नगर तथा जनपदों के सारे निवासियों को इस खुली प्रतियोगिता देखने के लिए ले आओ। हे महावत, मेरे अच्छे आदमी, तुम अपने हाथी कुवलयापीड को अखाड़े के प्रवेश द्वार पर खड़ा करना और उसके द्वारा मेरे दोनों शत्रुओं को मरवा डालना।

26 वैदिक आदेशों के अनुसार चतुर्दशी के दिन धनुष यज्ञ प्रारम्भ किया जाय। वरदानी भगवान शिव को पशुमेध में उपयुक्त प्रकार के पशु भेंट किये जाँय।

27 अपने मंत्रियों को इस तरह आदेश दे चुकने के बाद कंस ने यदुश्रेष्ठ अक्रूर को बुलवाया। कंस निजी लाभ की कला जानता था अतः अक्रूर के हाथों को अपने हाथ में लेकर वह उससे इस प्रकार बोला।

28 हे सर्वश्रेष्ठ दानी अक्रूर, आप आदर के साथ मुझ पर मित्रोचित अनुग्रह करें। भोजों तथा वृष्णियों में आपसे बढ़कर कोई अन्य हम पर कृपालु नहीं है।

29 हे भद्र अक्रूर, आप सदैव अपना कर्तव्य गम्भीरतापूर्वक करनेवाले हैं अतएव मैं आप पर उसी तरह आश्रित हूँ जिस तरह पराक्रमी इन्द्र ने अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए भगवान विष्णु की शरण ली थी।

30 कृपया नन्दग्राम जाँय जहाँ पर आनकदुन्दुभि के दोनों पुत्र रह रहे हैं और अविलम्ब उन्हें इस रथ पर चढ़ाकर यहाँ ले आयें।

31 विष्णु के संरक्षण में रहनेवाले देवताओं ने इन दोनों बालकों को मेरी मृत्यु के रूप में भेजा है। उन्हें यहाँ ले आइये तथा उनके साथ नन्द तथा अन्य ग्वालों को अपने-अपने उपहारों समेत आने दीजिये।

32 जब आप कृष्ण तथा बलराम को ले आयेंगे तो मैं उन्हें साक्षात मृत्यु के समान बलशाली अपने हाथी से मरवा दूँगा। यदि कदाचित वे उससे बच जाते हैं, तो मैं उन्हें बिजली के समान प्रबल अपने पहलवानों से मरवा दूँगा।

33 जब ये दोनों मार डाले जायेंगे तो मैं वसुदेव तथा उनके सभी शोकसन्तप्त सम्बन्धियों–वृष्णियों, भोजों तथा दशार्हो–का वध कर दूँगा।

34 मैं अपने बूढ़े पिता उग्रसेन को भी मार डालूँगा क्योंकि वह मेरे साम्राज्य के लिए लालायित है। मैं उसके भाई देवक तथा अपने अन्य सारे शत्रुओं को भी मार डालूँगा।

35 तब हे मित्र, यह पृथ्वी काँटों से मुक्त हो जायेगी।

36 मेरा ज्येष्ठ सम्बन्धी जरासंध तथा मेरा प्रिय मित्र द्विविद मेरे अतीव शुभचिन्तक हैं और वैसे ही शम्बर, नरक तथा बाण हैं। मैं इन सबों का उपयोग उन राजाओं का वध करने के लिए करूँगा जो देवताओं के पक्षधर हैं और तब मैं सारी पृथ्वी पर राज करूँगा।

37 चूँकि अब आप मेरे मनोभावों को जान चुके हैं अतः तुरन्त जाइये और कृष्ण तथा बलराम को धनुष यज्ञ निहारने तथा यदुओं की राजधानी का ऐश्वर्य देखने के लिए ले आइये।

38 श्री अक्रूर ने कहा: हे राजन, आपने अपने को दुर्भाग्य से मुक्त करने के लिए अच्छा उपाय ढूँढ निकाला है। फिर भी मनुष्य को सफलता तथा विफलता में समभाव रहना चाहिए क्योंकि निश्चित रूप से यह भाग्य ही है, जो किसी के कर्म के फलों को उत्पन्न करता है।

39 सामान्य व्यक्ति अपनी इच्छाओं के अनुसार कर्म करने के लिए कृतसंकल्प रहता है भले ही उसका भाग्य उन्हें पूरा न होने दे। अतः वह सुख तथा दुख दोनों का सामना करता है। इतने पर भी मैं आपके आदेश को पूरा करूँगा।

40 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अक्रूर को इस तरह आदेश देकर कंस ने अपने मंत्रियों को विदा कर दिया और स्वयं अपने घर में चला गया तथा अक्रूर अपने घर लौट आया।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय पैंतीस - कृष्ण के वनविहार के समय गोपियों द्वारा कृष्ण का गायन (10.35)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब भी कृष्ण वन को जाते थे गोपियों के मन उन्हीं के पीछे भाग जाते थे और इस तरह युवतियाँ उनकी लीलाओं का गान करते हुए खिन्नतापूर्वक अपने दिन बिताती थीं।

2-3 गोपियों ने कहा: जब मुकुन्द अपने होंठों पर रखी बाँसुरी के छेदों को अपनी सुकुमार अँगुलियों से बन्द करके उसे बजाते हैं, तो वे अपने बाएँ गाल को अपनी बाईं बाँह पर रखकर अपनी भौंहों को नचाने लगते हैं। उस समय आकाश में अपने पतियों अर्थात सिद्धों समेत विचरण कर रही सिद्धपत्नियाँ चकित हो उठती हैं। जब ये स्त्रियाँ वंशी की ध्वनि सुनती हैं, तो उन्हें इसकी भी सुधि नहीं रह जाती कि उनके कमरबंध शिथिल हुए जा रहे हैं।

4-5 हे बालाओं, दुखियों को आनन्द देने वाला यह नन्द का बेटा अपने वक्षस्थल पर अविचल दामिनी वहन करता है और इसकी हँसी रत्नजटित हार जैसी है। अब जरा कुछ विचित्र बात सुनो। जब वह अपनी बाँसुरी बजाता है, तो बहुत दूरी पर खड़े व्रज के बैल, हिरण तथा गौवें के झुण्ड के झुण्ड इस ध्वनि से मोहित हो जाते हैं। वे सब जुगाली करना बन्द कर देते हैं और अपने कानों को खड़ा कर लेते हैं (चौकन्ने हो जाते हैं)। वे स्तम्भित होकर ऐसे लगते हैं मानो सो गये हों या चित्रों में बनी आकृतियाँ हों।

6 हे प्रिय गोपी, कभी कभी कृष्ण अपने को पत्तियों, मोरपंखों तथा रंगीन खनिजों से सजाकर पहलवान का वेश बनाते हैं। तत्पश्चात वे बलराम तथा ग्वालबालों के साथ बैठकर गौवों को बुलाने के लिए अपनी बाँसुरी बजाते हैं।

7 उस समय नदियाँ बहना बन्द कर देती हैं, उनका जल उस आनन्द से स्तम्भित हो उठता है, जिसे वे उस वायु की उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा करते हुए अनुभव करती हैं, जो उनके लिए भगवान के चरणकमलों की धूल लाएगा।

8-11 कृष्ण अपने सखाओं के साथ जंगल में घूमते फिरते हैं। ये सखा उनके शानदार कार्यों का जोरशोर से यशगान करते हैं। इस तरह वे पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर की तरह अपने अक्षय ऐश्वर्य का प्रदर्शन करते प्रतीत होते हैं। जब गाएँ पर्वत की तलहटी में घूमती हैं और कृष्ण अपनी वंशी की तान से उन्हें बुलाते हैं, तो वृक्ष तथा जंगल की लताएँ, प्रत्युत्तर में, फूलों तथा फलों से इतनी लद जाती हैं कि वे अपने हृदयों के भीतर भगवान विष्णु को प्रकट करती प्रतीत होती हैं। जब भार से उनकी शाखाएँ नीचे झुक जाती हैं, तो उनके तनों के तन्तु तथा लताएँ भगवतप्रेम से रोम जैसी उठ खड़ी होती हैं और वृक्ष तथा लताएँ दोनों ही मधुर रस की वर्षा करने लगते हैं। कृष्ण द्वारा पहनी गयी माला के तुलसी के फूलों की मधु जैसी दिव्य सुगन्ध से उन्मत्त भौंरों के समूह उनके लिए उच्च स्वर से गुंजार करने लगते हैं और पुरुषों में सर्वाधिक सुन्दर वह कृष्ण अपने अधरों पर अपनी वंशी रखकर और उसे बजाकर उनके गीत की धन्यवाद-सहित प्रशंसा करते हैं। तब मनोहारी वंशी-गीत सारसों, हंसों तथा झील में रहने वाले अन्य पक्षियों के चित्त को चुरा लेता है। निस्सन्देह ये सभी अपनी आँखें बन्द किये और मौन साधे उनके पास जाते हैं और गहन ध्यान में उन पर अपनी चेतना को स्थिर करते हुए उनकी पूजा करते हैं।

12-13 हे व्रज देवियों, जब कृष्ण बलराम के साथ खेलखेल में अपने सिर पर फूलों की माला धारण करके पर्वत की ढालों पर विहार करते हैं, तो वे अपनी वंशी की गूँजती ध्वनि से सबों को आह्लादित कर देते हैं। इस तरह वे सम्पूर्ण विश्व को प्रमुदित करते हैं। उस समय महान पुरुष के अप्रसन्न होने के भय से भयभीत होकर निकटवर्ती बादल उनके साथ होकर मन्द-मन्द गर्जना करता है। यह बादल अपने प्रिय मित्र कृष्ण पर फूलों की वर्षा करता है और धूप से बचाने के लिए छाते की तरह छाया प्रदान करता है।

14-15 हे सती यशोदा माता, गौवों के चराने की कला में निपुण आपके लाड़ले ने वंशी बजाने की कई शैलियाँ खोज निकाली हैं। जब वह अपने विम्ब सदृश लाल होंठों पर अपनी वंशी रखता है और विविध तानों में स्वर निकालता है, तो इस ध्वनि को सुनकर ब्रह्मा, शिव, इन्द्र तथा अन्य प्रधान देवता मोहित हो जाते हैं। यद्यपि वे महान विद्वान अधिकारी हैं तो भी वे उस संगीत का सार निश्चित नहीं कर पाते; इसलिए वे अपने सिर तथा मन से नतमस्तक हो जाते हैं।

16-17 जब कृष्ण अपने कमल-दल जैसे पाँवों से व्रज में घूमते हैं, तो भूमि पर पताका, वज्र, कमल तथा अंकुश जैसे प्रतिकों के स्पष्ट चिन्ह बनते जाते हैं और वे पृथ्वी को गौवों के खुरों से अनुभव होने वाली पीड़ा से प्रशमित करते हैं। जब वे अपनी विख्यात बाँसुरी बजाते हैं, तो उनका शरीर हाथी की अदा में झूमता है। इस तरह हम गोपियाँ, जो कृष्ण की विनोदप्रिय चितवन के कारण चंचल हो उठती हैं, वृक्षों की तरह स्तब्ध खड़ी रह जाती हैं और हमें अपने बालों की लर तथा वस्त्रों के शिथिल हो जाने की भी सुध नहीं रह जाती।

18-19 अब कृष्ण कहीं पर अपनी मणियों की लड़ी में गौवों की गिनती करते हुए खड़े हैं। वे तुलसी के फूलों की माला पहने हैं जिसमें उनकी प्रिया की सुगन्ध बसती है और अपनी एक बाँह अपने प्रिय ग्वालमित्र के कंधे पर रखे हुए हैं। ज्योंही कृष्ण अपनी बाँसुरी बजाकर गाते हैं, तो उस गीत से कृष्ण-हिरणों की पत्नियाँ आकृष्ट होती हैं और वे दिव्य गुणों के सागर कृष्ण तक पहुँचकर उनके पास बैठ जाती हैं। वे भी हम गोपियों की तरह पारिवारिक जीवन के सुख की सारी आशाएँ त्याग चुकी हैं।

20-21 हे निष्पाप यशोदा, तुम्हारे लाड़ले नन्दनन्दन ने चमेली की माला से अपना विचित्र वेश सजा लिया है और इस समय वह यमुना के तट पर गौवों तथा ग्वालबालों के साथ अपने प्रिय संगियों का मनोरंजन कराते हुए खेल रहे हैं। मन्द वायु अपनी सुखद चन्दन – सुगन्ध से उनका आदर कर रही है और विविध उपदेवता चारों ओर बन्दीजनों के समान खड़े होकर अपनी संगीत, गायन तथा श्रद्धा के उपहार भेंट कर रहे हैं।

22-23 व्रज की गौवों के प्रति अत्यधिक स्नेह के कारण कृष्ण गोवर्धनधारी बने। दिन ढलने पर अपनी सारी गौवों को समेट कर वे अपनी बाँसुरी पर गीत की धुन बजाते हैं और उनके मार्ग के किनारे खड़े उच्च देवतागण उनके चरणकमलों की पूजा करते हैं तथा उनके साथ चल रहे ग्वालबाल उनके यश का गान करते हैं। उनकी माला गौवों के खुरों से उठी धूल से धूसरित है और थकान के कारण बढ़ी हुई उनकी सुन्दरता हरेक के नेत्रों के लिए आह्लादयुक्त उत्सव प्रस्तुत करने वाली है। अपने मित्रों की इच्छाएँ पूरी करने के लिए उत्सुक, कृष्ण माता यशोदा की कोख से उदित चन्द्रमा है।

24-25 जब श्रीकृष्ण अपने शुभचिन्तक सखाओं को आदरपूर्वक शुभकामनाएँ देते हैं, तो उनकी आँखें थोड़ी सी इस तरह घूमती हैं जैसे नशे में हों। वे फूलों की माला पहने हैं और उनके कोमल गालों की शोभा उनके सुनहरे कुण्डलों की चमक से तथा बदर बेर के रंग वाले उनके मुख की श्वेतता से बढ़ जाती है। रात्रि के स्वामी चन्द्रमा के सदृश अपने प्रसन्न मुख वाले यदुपति राजसी हाथी की अदा से चल रहे हैं। इस तरह वे व्रज की गौवों को दिन-भर की गर्मी से छुटकारा दिलाते हुए संध्या-समय घर लौटते हैं।

26 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, इस तरह वृन्दावन की स्त्रियाँ दिन के समय कृष्ण की लीलाओं का निरन्तर गान करते हुए आनन्द मनातीं और उन सबों के मन तथा हृदय उन्हीं में लीन रहकर अपार उत्सव-भाव से भरे रहते।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय चौतीस – नन्द महाराज की रक्षा तथा शंखचूड़ का वध (10.34)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: एक दिन भगवान शिव की पूजा हेतु यात्रा करने के उत्सुक ग्वाले बैलगाड़ियों द्वारा अम्बिका वन गये।

2 हे राजन, वहाँ पहुँचने के बाद उन्होंने सरस्वती नदी में स्नान किया और तब विविध पूजासामग्री से शक्तिशाली शिवजी तथा उनकी पत्नी देवी अम्बिका की भक्तिपूर्वक पूजा की।

3 ग्वालों ने ब्राह्मणों को गौवें, स्वर्ण, वस्त्र तथा शहद मिश्रित पकवान की भेंटें दान में दी। तत्पश्चात उन्होंने प्रार्थना की, “ हे प्रभु, हम पर आप प्रसन्न हों।"

4 नन्द, सुनन्द तथा अन्य अत्यन्त भाग्यशाली ग्वालों ने वह रात सरस्वती के तट पर संयम से अपने-अपने व्रत रखते हुए बिताई। उन्होंने केवल जल ग्रहण किया और उपवास रखा।

5 रात में एक विशाल एवं अत्यन्त भूखा सर्प उस जंगल में प्रकट हुआ। वह सोये हुए नन्द महाराज के निकट अपने पेट के बल सरकता गया और उन्हें निगलने लगा।

6 साँप के चंगुल में फँसे नन्द महाराज चिल्लाये, “कृष्ण! बेटे कृष्ण! यह विशाल सर्प मुझे निगले जा रहा है। मैं तो तुम्हारा शरणागत हूँ। मुझे बचाओ।"

7 जब ग्वालों ने नन्द की चीखें सुनी तो वे तुरन्त उठ गये और उन्होंने देखा कि नन्द को तो सर्प निगले जा रहा है। अत्यन्त विचलित होकर उन्होंने जलती मशालों से उस सर्प को पीटा।

8 लुकाठों से जलाये जाने पर भी उस साँप ने नन्द महाराज को नहीं छोड़ा। तब भक्तों के स्वामी भगवान कृष्ण उस स्थान पर आये और उन्होंने उस साँप को अपने पाँव से छुआ।

9 भगवान के दिव्य चरण का स्पर्श पाते ही सर्प के सारे पाप विनष्ट हो गये और उसने अपना सर्प शरीर त्याग दिया। वह पूज्य विद्याधर के रूप में प्रकट हुआ।

10 तब भगवान हृषीकेश ने इस व्यक्ति से जो दैदीप्यमान शरीर से युक्त उनके समक्ष सिर झुकाये, सुनहरी मालाओं से सज्जित खड़ा था, पूछा?

11 भगवान कृष्ण ने कहा: महाशय, आप तो अत्यधिक सौन्दर्य से चमत्कृत होने से इतने अद्भुत लग रहे हैं। आप कौन हैं? और आपको किसने सर्प का यह भयानक शरीर धारण करने के लिये बाध्य किया?

12-13 सर्प ने उत्तर दिया: मैं सुदर्शन नामक विख्यात विद्याधर हूँ। मैं अत्यन्त सम्पत्तिवान तथा सुन्दर था और अपने विमान में चढ़कर सभी दिशाओं में मुक्त विचरण करता था। एक बार मैंने अंगिरा मुनि की परम्परा के कुछ ऋषियों को देखा। अपने सौन्दर्य से गर्वित मैंने उनका मजाक उड़ाया और मेरे पाप के कारण उन्होंने मुझे निम्न योनि धारण करने के लिए बाध्य कर दिया।

14 वास्तव में मेरे लाभ के लिए ही उन दयालु ऋषियों ने मुझे शाप दिया क्योंकि अब मैं समस्त लोकों के परम दिव्य गुरु के पाँव द्वारा स्पर्श किया जा चुका हूँ और इस तरह सारे अशुभों से मुक्त हो चुका हूँ।

15 हे प्रभु, आप उन समस्त लोगों के सारे भय को नाश करनेवाले हैं, जो इस भौतिक संसार से डरकर आपकी शरण ग्रहण करते हैं। अब मैं आपके चरणस्पर्श से ऋषियों के शाप से मुक्त हो गया हूँ। हे दुखभंजन, अब मुझे अपने लोक वापस जाने की अनुमति दें।

16 हे योगेश्वर, हे महापुरुष, हे भक्तों के स्वामी, मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ। हे परमेश्वर, हे ब्रह्माण्ड के ईश्वरों के ईश्वर, आप जैसा चाहें वैसी मुझे आज्ञा दें।

17 हे अच्युत, मैं आपके दर्शन मात्र से ब्राह्मणों के दण्ड से तुरन्त मुक्त हो गया। जो कोई आपके नाम का कीर्तन करता है, वह अपने साथ साथ अपने श्रोताओं को भी पवित्र बना देता है। तो फिर आपके चरणकमल का स्पर्श न जाने कितना लाभप्रद होगा?

18 इस प्रकार भगवान कृष्ण की अनुमति पाकर सुदर्शन ने उनकी परिक्रमा की, उन्हें झुककर नमस्कार किया और तब वह स्वर्ग के अपने लोक लौट गया। इस तरह नन्द महाराज संकट से उबर आये।

19 कृष्ण की असीम शक्ति देखकर व्रजवासी चकित रह गये। हे राजन, तब उन्होंने भगवान शिव की पूजा सम्पन्न की और रास्ते में कृष्ण के शक्तिशाली कार्यों का आदरपूर्वक वर्णन करते हुए वे सभी व्रज लौट आये।

20 एक बार अद्भुत कौशल दिखलाने वाले भगवान गोविन्द तथा राम रात्रि के समय व्रज की युवतियों के साथ जंगल में क्रीड़ा कर रहे थे।

21 कृष्ण तथा बलराम फूलों की माला तथा स्वच्छ वस्त्र धारण किये हुए थे और उनके अंग प्रत्यंग उत्तम विधि से सजाये तथा लेपित किये गये थे। उनके स्नेह से बँधी हुई स्त्रियों ने उनकी महिमा का मनोहर ढंग से गायन किया।

22 उन दोनों ने रात्रि आगमन की प्रशंसा की जिसका संकेत चन्द्रमा तथा तारों के उदित होने, कमल की गंध से युक्त मन्द वायु तथा चमेली के फूलों की सुगन्ध से मत्त भौंरों से हो रहा था ।

23 कृष्ण तथा बलराम ने एकसाथ आरोह अवरोह की सभी ध्वनियों से युक्त राग अलापा । उनके गायन से सारे जीवों के कानों तथा मन को सुख प्राप्त हुआ ।

24 जब गोपियों ने वह गायन सुना तो वे सम्मोहित हो गई। हे राजन, वे अपने आपको भूल गई और उन्होंने यह भी नहीं जाना कि उनके सुन्दर वस्त्र शिथिल हो रहे हैं तथा उनके बाल व मालाएँ बिखर रही हैं।

25 जब भगवान कृष्ण तथा भगवान बलराम स्वेच्छापूर्वक क्रीड़ा कर रहे थे और गाते हुए मतवाले हो रहे थे तभी कुबेर का शंखचूड़ नामक दास वहाँ आया।

26 हे राजन, दोनों को देखते देखते शंखचूड़ उन स्त्रियों को उत्तर दिशा की ओर भागकर ले जाने लगा। कृष्ण तथा बलराम को अपना स्वामी मान चुकी स्त्रियाँ उनकी ओर देखते हुए चीखने चिल्लाने लगीं।

27 अपने भक्तों को "कृष्ण, राम," कहकर चिल्लाते हुए सुनकर तथा यह देखकर कि वे चोर द्वारा गौवों की तरह चुराई जा रही हैं, कृष्ण तथा बलराम उस असुर के पीछे दौड़ने लगे।

28 भगवान ने उत्तर में पुकारा:डरना मत" तत्पश्चात उन्होंने हाथ में शाल वृक्ष के लट्ठे उठा लिये और उस अधमतम गुह्यक का तेजी से पीछा करने लगे जो तेजी से भाग रहा था।

29 जब शंखचूड़ ने उन दोनों को साक्षात काल तथा मृत्यु की तरह अपनी ओर आते देखा तो वह उद्विग्न हो उठा। वह भ्रमित होकर स्त्रियों को छोड़कर अपनी जान बचाकर भाग गया।

30 भगवान गोविन्द उस असुर के सिर की मणि निकालने के लिए उत्सुक होकर जहाँ-जहाँ वह दौड़ रहा था, उसका पीछा कर रहे थे। इसी बीच बलराम स्त्रियों की रक्षा करने के लिए उनके साथ रह गये।

31 हे राजन, शक्तिशाली भगवान ने दूर से ही शंखचूर्ण को पकड़ लिया मानों निकट से हो और तब अपनी मुट्ठी से उस दुष्ट के सिर को चूड़ामणि समेत धड़ से अलग कर दिया।

32 इस प्रकार शंखचूड़ असुर को मारकर तथा उसकी चमकीली मणि लेकर भगवान कृष्ण ने इसे अपने बड़े भाई को बड़ी प्रसन्नतापूर्वक गोपियों के सामने भेंट किया।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय तैंतीस - रास नृत्य (10.33)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब गोपियों ने भगवान को अत्यन्त मनोहारी इन शब्दों में कहते सुना तो वे उनके विछोह से उत्पन्न अपना दुख भूल गई। उनके दिव्य अंगों का स्पर्श पाकर उन्हें लगा कि उनकी सारी इच्छाएँ पूर्ण हो गई।

2 तत्पश्चात भगवान गोविन्द ने वहीं यमुना के तट पर उन स्त्री-रत्न श्रद्धालु गोपियों के संग में रासनृत्य लीला प्रारम्भ की जिन्होंने प्रसन्नता के मारे अपनी बाँहों को एक दूसरे के साथ शृखंलाबद्ध कर दिया।

3 तब उल्लासपूर्ण रासनृत्य प्रारम्भ हुआ जिसमें गोपियाँ एक गोलाकार घेरे में सध गई। भगवान कृष्ण ने अपना विस्तार किया और गोपियों के प्रत्येक जोड़े के बीच-बीच प्रविष्ट हो गये। ज्योंही योगेश्वर ने अपनी भुजाओं को उनके गलों के चारों ओर रखा तो प्रत्येक युवती ने सोचा कि वे केवल उसके ही पास खड़े हैं। इस रासनृत्य को देखने के लिए देवता तथा उनकी पत्नियाँ उत्सुकता से गदगद हुये जा रहे थे। शीघ्र ही आकाश में उनके सैकड़ों विमानों की भीड़ लग गई।

4 तब आकाश में दुन्दुभियाँ बज उठीं और फूलों की वर्षा होने लगी। मुख्य गन्धर्वों ने अपनी पत्नियों के साथ भगवान कृष्ण के निर्मल यश का गायन किया।

5 जब गोपियाँ रासनृत्य के मण्डल में अपने प्रियतम कृष्ण के साथ नृत्य करने लगीं तो उनके कंगनों, पायलों तथा करधनी के घुँघरुओं से तुमुल ध्वनि उठती थी।

6 नृत्य करती गोपियों के बीच भगवान कृष्ण अत्यन्त शोभायमान प्रतीत हो रहे थे जिस तरह सोने के आभूषणों के बीच मरकत मणि शोभा पाती है।

7 जब गोपियों ने कृष्ण की प्रशंसा में गीत गाया, तो उनके पाँवों ने नृत्य किया, उनके हाथों ने इशारे किए और उनकी भौंहें हँसी से युक्त होकर मटकने लगीं। जिनकी वेणियाँ तथा कमर की पेटियाँ मजबूत बँधी हुई थीं, जिनकी कमर लचकती हुई थीं, जिनके मुखों पर पसीने की बूँदें झलकती थीं तथा जिनके कानों की बालियाँ गालों पर हिल-डुल रही थीं, कृष्ण की ऐसी तरुणी प्रियाएँ बादल के समूह में बिजली की कौंध की तरह चमक रही थीं।

8 विविध रंगों से रंगे कण्ठो वाली, माधुर्यप्रेम का आनन्द पाने की इच्छुक गोपियों ने जोर जोर से गायन और नृत्य किया। वे कृष्ण का स्पर्श पाकर अति-आनन्दित थीं और उन्होंने जो गीत गाये उनसे सारा ब्रह्माण्ड भर गया।

9 एक गोपी ने भगवान मुकुन्द के गाने के साथ साथ शुद्ध मधुर राग गाया जो कृष्ण के स्वर से भी उच्च सुर-ऊँचे स्वर में था। इससे कृष्ण प्रसन्न हुए और "बहुत अच्छा, बहुत अच्छा" कहकर उसकी प्रशंसा की। तत्पश्चात एक दूसरी गोपी ने वही राग अलापा, जो ध्रुपद के विशेष छन्द में था। कृष्ण ने उसकी भी प्रशंसा की।

10-12 जब एक गोपी रासनृत्य से थक गई तो वह अपनी बगल में खड़े गदाधर कृष्ण की ओर मुड़ी और उसने अपनी बाँह से उनके कंधे को पकड़ लिया। नाचने से उसके कँगन तथा बालों में लगे फूल ढीले पड़ गये थे। कृष्ण ने अपनी बाँह एक गोपी के कंधे पर रख दी जिसमें से प्राकृतिक नीले कमल की सुगन्ध के साथ उसमें लेपित चन्दन की मिली हुई सुगन्ध आ रही थी। ज्योंही गोपी ने उस सुगन्ध का आस्वादन किया त्योंही हर्ष से उसे रोमांच हो उठा।

13 एक अन्य नाचती तथा गाती हुई गोपी, जिसके पाँवों के नूपुर और कमर की करधनी के घुँघरू बज रहे थे, थक गई, अतः उसने अपने पास ही खड़े भगवान अच्युत के सुखद करकमल का आश्रय लिया।

14 लक्ष्मीजी के विशिष्टप्रिय भगवान अच्युत को अपने घनिष्ठ प्रेमी के रूप में पाकर गोपियों ने अथाह दिव्य आनन्द प्राप्त किया। भगवान उनको अपनी भुजाओं में लिये थे और गोपियाँ उनके यश का गान कर रही थीं।

15 कानों के पीछे लगे कमल के फूल, गालों को अलंकृत कर रही बालों की लटें तथा पसीने की बूँदें गोपियों के मुखों की शोभा बढ़ा रही थीं। उनके बाजूबन्दों तथा घुँघरुओं की रुनझुन से जोर की संगीतात्मक ध्वनि उत्पन्न हो रही थी और उनके जुड़े बिखरे हुए थे। इस तरह गोपियाँ भगवान के साथ रासनृत्य के स्थल पर नाचने लगीं और उनका साथ देते हुए भौंरों के झुण्ड गुनगुनाने लगे।

16 इस प्रकार भगवान कृष्ण ने व्रज की युवतियों का आलिंगन कर, उन्हें दुलार कर तथा अपनी तिरछी चितवन से निहार करके अपनी दिव्य लीलाओं का आनन्द प्राप्त किया। यह वैसा ही था जैसे की कोई बालक अपनी परछाई के साथ खेल रहा हो।

17 उनका संसर्ग पा लेने से गोपियों की इन्द्रियाँ हर्ष से अभिभूत हो गई जिसके कारण वे अपने बाल, अपने वस्त्र आवरणों को अस्त-व्यस्त होने से रोक न सकी। हे कुरुवंश के वीर, उनकी मालाएँ तथा उनके गहने बिखर गये।

18 देवताओं की पत्नियाँ अपने विमानों से कृष्ण की क्रीड़ाएँ देखकर सम्मोहित हो गई। वस्तुतः चन्द्रमा तक भी अपने पार्षद तारों समेत चकित हो उठा।

19 वहाँ पर जितनी भी गोपिकाएँ थी उतने ही रूपों में विस्तार करके, भगवान ने खेल खेल में उनकी संगति का दिव्य आनन्द प्राप्त किया यद्यपि वे आत्माराम हैं।

20 यह देखकर कि गोपियाँ माधुर्य विहार करने से थक गई थीं, हे राजन (परीक्षित), दयालु श्रीकृष्ण ने बड़े ही प्रेम से उनके मुखों को अपने सुखद हाथों से पोंछा।

21 अपने गालों के सौन्दर्य, घुँघराले बालों के तेज एवं सुनहरे कुण्डलों की चमक से मधुरित हँसी युक्त चितवनों से गोपियों ने अपने नायक को सम्मान दिया। उनके नखों के स्पर्श से पुलकित होकर वे उनकी शुभ दिव्य लीलाओं का गान करने लगीं।

22 भगवान श्रीकृष्ण की माला गोपियों के साथ माधुर्य विहार करते समय कुचल गई थीं और उनके कुमकुम से सिन्दूरी रंग की हो गई थीं। गोपियों की थकान मिटाने के लिए कृष्ण यमुना के जल में उतर गये, जिनका पीछा तेजी से भौरें कर रहे थे, जो श्रेष्ठतम गन्धर्वों की तरह गा रहे थे। कृष्ण ऐसे लग रहे थे मानों कोई राजसी हाथी अपनी संगिनियों के साथ जल में सुस्ताने के लिये प्रविष्ट हो रहा हो। निस्सन्देह भगवान ने सारी लोक तथा वेद की मर्यादाओं का उसी तरह अतिक्रमण कर दिया जिस तरह एक शक्तिशाली हाथी धान के खेतों को रौंद डालता है।

23 हे राजन, जल में कृष्ण ने अपने ऊपर चारों ओर से हँसती एवं अपनी ओर प्रेमपूर्ण निहारती गोपियों के द्वारा जल उलीचा जाते देखा। जब देवतागण अपने विमानों से उन पर फूल वर्षा करके उनकी पूजा कर रहे थे तो आत्मतुष्ट भगवान हाथियों के राजा की तरह क्रीड़ा करने का आनन्द लेने लगे।

24 तत्पश्चात भगवान ने यमुना के किनारे स्थित एक छोटे से उपवन में भ्रमण किया जो स्थल तथा जल में उगने वाले फूलों की सुगन्धित वायु से भरपूर था।

25 गोपियाँ सत्यकाम कृष्ण के प्रति दृढ़तापूर्वक अनुरक्त थी। जो दिव्य विषयों के काव्यमय वर्णन के लिये प्रेरणा देती हैं, उन चाँदनी से खिली हुई शरदकालीन रात्रियों में भगवान ने अपनी दिव्य लीलाएँ कीं।

26-27 परीक्षित महाराज ने कहा: हे ब्राह्मण, ब्रह्माण्ड के स्वामी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान अपने स्वांश सहित इस धरा में अधर्म का नाश करने तथा धर्म की पुनर्स्थापना करने हेतु अवतरित हुए हैं। दरअसल वे आदि वक्ता तथा नैतिक नियमों के पालनकर्ता एवं संरक्षक हैं। तो भला वे अन्य पुरुषों की स्त्रियों का स्पर्श करके उन नियमों का अतिक्रमण कैसे कर सकते थे?

28 हे श्रद्धावान व्रतधारी, कृपा करके हमें ये बतलाकर हमारा संशय दूर कीजिये कि पूर्णकाम यदुपति के मन में वह कौनसा अभिप्राय था जिससे उन्होंने ऐसा आचरण किया।

29 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: शक्तिशाली नियन्ताओं के पद पर किसी ऊपरी साहसपूर्ण उल्लंघन से जो हम उनमें देख पायें कोई आँच नहीं आती क्योंकि वे उस अग्नि के समान होते हैं, जो हर वस्तु को निगल जाती है और अदूषित बनी रहती है।

30 जो महान संयमकारी नहीं हैं, उसे शासन करने वाले महान पुरुषों के आचरण की मन से भी कभी नकल नहीं करनी चाहिए। यदि कोई सामान्य व्यक्ति मूर्खतावश ऐसे आचरण की नकल करता है, तो वह उसी तरह विनष्ट हो जायेगा जिस तरह कि विष के सागर को पीने का प्रयास करने वाला व्यक्ति। यदि वह रुद्र नहीं है, नष्ट हो जायेगा।

31 भगवान द्वारा शक्तिप्रदत्त दासों के वचन सदैव सत्य होते हैं और जब वे इन वचनों के अनुरूप कर्म करते हैं, तो वे आदर्श होते हैं। इसलिए जो बुद्धिमान हैं उसको चाहिए कि उनके आदेशों को पूरा करें।

32 हे प्रभु, जब मिथ्या अहंकार से रहित ये महान व्यक्ति इस जगत में पवित्र भाव से कर्म करते हैं, तो उसमें उनका कोई स्वार्थ-भाव नहीं होता और जब वे ऊपरी तौर से पवित्रता के नियमों के विरुद्ध लगने वाले कर्म (अनर्थ) करते हैं, तो भी उन्हें पापों का फल नहीं भोगना पड़ता।

33 तो फिर समस्त सृजित प्राणियों, पशुओं, मनुष्यों तथा देवताओं – के स्वामी भला कोई शुभ तथा अशुभ से किसी प्रकार का सम्बन्ध कैसे रख सकते हैं जिससे उनके अधीनस्थ प्राणी प्रभावित होते हों?

34 जो भगवदभक्त भगवान के चरणकमलों की धूलि का सेवन करते हुए पूर्णतया तुष्ट हैं उन्हें भौतिक कर्म कभी नहीं बाँध पाते। न ही भौतिक कर्म उन बुद्धिमान मुनियों को बाँध पाते हैं जिन्होंने योगशक्ति के द्वारा अपने को समस्त कर्मफलों के बन्धन से मुक्त कर लिया है। तो फिर स्वयं भगवान के बन्धन का प्रश्न कहाँ उठता है, जो स्वेच्छा से दिव्य रूप धारण करने वाले हैं?

35 जो गोपियों तथा उनके पतियों और वस्तुतः समस्त देहधारी जीवों के भीतर साक्षी के रूप में रहता है वही दिव्य लीलाओं का आनन्द लेने के लिए इस जगत में विविध रूप धारण करता है।

36 जब भगवान अपने भक्तों पर कृपा प्रदर्शित करने के लिये मनुष्य जैसा शरीर धारण करते हैं तो वे ऐसी क्रीड़ाएँ करते हैं जिनके विषय में सुनने वाले आकृष्ट होकर भगवत्परायण हो जाय।

37 कृष्ण की मायाशक्ति से मोहित सारे ग्वालों ने सोचा कि उनकी पत्नियाँ घरों में उनके निकट ही रहती रही थीं। इस तरह उनमें कृष्ण के प्रति कोई ईर्ष्या भाव उत्पन्न नहीं हुआ।

38 जब ब्रह्मा की पूरी एक रात बीत गई तो कृष्ण ने गोपियों को अपने घरों को लौट जाने की सलाह दी। यद्यपि वे ऐसा करना नहीं चाह रही थीं तो भी भगवान की इन प्रेयसियों ने उनके आदेश का पालन किया।

39 जो कोई वृन्दावन की युवा-गोपिकाओं के साथ भगवान की क्रीड़ाओं को श्रद्धापूर्वक सुनता है या उसका वर्णन करता है, वह भगवान की शुद्ध भक्ति प्राप्त करेगा। इस तरह वह शीघ्र ही धीर बन जाएगा और हृदयरोग रूप कामविकार को जीत लेगा।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान) 

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अध्याय बत्तीस - पुनः मिलाप (10.32)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, इस तरह गाकर तथा अपने हृदय की बातों को विविध मोहक विधियों से प्रकट करके गोपियाँ जोर जोर से रोने लगीं। वे कृष्ण का दर्शन करने के लिए अत्यन्त लालायित थीं।

2 तब भगवान कृष्ण अपने मुखमण्डल पर हँसी धारण किए गोपियों के समक्ष प्रकट हो गये। माला तथा पीत वस्त्र पहने वे ऐसे लग रहे थे, जो सामान्य जनों के मन को मोहित करने वाले कामदेव के मन को भी मोहित कर सकते थे।

3 जब गोपियों ने देखा कि उनका परमप्रिय कृष्ण उनके पास लौट आया है, तो वे सहसा उठ खड़ी हुई और स्नेह के कारण उनकी आँखें पूरी तरह खिल उठीं। ऐसा लगा मानों उनके (मृत) शरीर में प्राण वापस आ गये हों।

4 एक गोपी ने हर्षित होकर कृष्ण के हाथ को अपनी हथेलियों के बीच में ले लिया और दूसरी ने चन्दनलेप से विभूषित उनकी भुजा अपने कंधे पर रख ली।

5 एक छरहरी गोपी ने आदरपूर्वक अपनी हथेलियों में उनके चबाये पान का जूठन ले लिया। इस तरह उन्होंने उनकी सेवा की।

6 एक गोपी क्रोधवश प्रेम में विह्वल होकर अपने होंठ काटने लगी। भौहों से उन्हें ताकने लगी, मानो वह अपनी कुटिल चितवनों से उन्हें घायल कर देगी।

7 एक अन्य गोपी उनके कमल मुख को अपलक नेत्रों से देखती रही किन्तु माधुरी का गहन आस्वाद कर लेने पर भी तुष्ट नहीं हुई जिस तरह सन्त पुरुष भगवान के चरणों का ध्यान करते हुए तृप्त ही नहीं होते।

8 एक गोपी ने भगवान को नेत्रों के द्वारा अपने हृदय में उतार लिया। उसने अपनी आँखें बन्द कर लीं और रोमांचित होकर वह मन ही मन उनका आलिंगन करने लगी। इस तरह दिव्य आनन्द में निमग्न वह भगवान का ध्यान करने वाले योगी जैसी लग रही थी।

9 सभी गोपियों ने जब अपने प्रिय केशव को फिर से देखा तो उन्हें परम उल्लास का अनुभव हुआ। उन्होंने विरह-दुख को त्याग दिया जिस तरह कि सामान्य लोग आध्यात्मिक रूप से प्रबुद्ध व्यक्ति की संगति पाकर अपने दुख भूल जाते हैं।

10 समस्त शोक से मुक्त हुई गोपियों से घिरे हुए पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान अच्युत भव्यता के साथ चमक रहे थे। हे राजन, कृष्ण ऐसे लग रहे थे जिस तरह अपनी आध्यात्मिक शक्तियों से घिरे हुए परमात्मा हों।

11-12 तत्पश्चात सर्वशक्तिमान भगवान गोपियों को अपने साथ कालिन्दी के तट पर ले गये जिसने तट पर लहरों रूपी हाथों से कोमल बालू के ढेर बिखेर दिये थे। उस शुभ स्थान में कुन्द तथा मन्दार के फूलों के खिलने से बिखरी सुगन्धि को लेकर मन्द-मन्द वायु अनेक भौंरों को आकृष्ट कर रही थी और शरदकालीन चन्द्रमा की पराभूत किरणें रात्रि के अंधकार को दूर कर रही थीं।

13 अपने समक्ष साक्षात वेद रूप कृष्ण के दर्शन के आनन्द से गोपियों की हृदय-वेदना शमित हो गई और उन्हें लगा कि उनकी सारी इच्छाएँ पूरी हो गईं। उन्होंने अपने प्रिय मित्र कृष्ण के लिए अपनी ओढ़नियों से, आसन बना दिया।

14 जिन भगवान कृष्ण के लिए बड़े बड़े योगेश्वर अपने हृदयों में आसन की व्यवस्था करते हैं वही कृष्ण गोपियों की सभा में आसन पर बैठ गये। उनका दिव्य शरीर, जो तीनों लोकों में सौन्दर्य तथा ऐश्वर्य का एकमात्र धाम है, गोपियों द्वारा कृष्ण की पूजा करने पर जगमगा उठा।

15 वे गोपियाँ अपनी क्रीड़ापूर्ण हँसी से उनको निहारतीं, अपनी भौंहों से प्रेममय इशारे करतीं, अपनी गोदों में उनके हाथ तथा पाँव रखकर उन्हें मलती हुई उनका सम्मान करने लगीं। किन्तु उनकी पूजा करते हुए भी वे कुछ-कुछ रुष्ट थीं अतएव वे उनसे इस प्रकार बोलीं।

16 गोपियों ने कहा: कुछ लोग केवल उन्हीं से स्नेह जताते हैं, जो उनके प्रति स्नेहित होते हैं जबकि अन्य लोग उनके प्रति भी स्नेह दिखाते हैं, जो शत्रुवत या उदासीन होते हैं। फिर भी कुछ लोग किसी से भी स्नेह नहीं जताते। हे कृष्ण, हमसे इस विषय की समुचित व्याख्या करें।

17 भगवान ने कहा: तथाकथित मित्र जो अपने लाभ के लिए एक दूसरे से स्नेह जताते हैं, वे वास्तव में स्वार्थी हैं। न तो उनकी मित्रता सच्ची होती है न ही वे धर्म के असली सिद्धान्तों का पालन करते हैं। यदि वे एक दूसरे से लाभ की आशा न करें तो वे प्रेम नहीं कर सकते।

18 हे गोपियों, कुछ लोग सचमुच दयालु होते हैं या माता-पिता की भाँति स्वाभाविक रूप से स्नेहिल होते हैं। ऐसे लोग उन लोगों की भी निष्ठापूर्वक सेवा करते हैं, जो बदले में उनसे प्रेम करने से चूक जाते हैं। वे ही धर्म के असली त्रुटिविहीन मार्ग का अनुसरण करते हैं और वे ही असली शुभचिन्तक हैं।

19 फिर कुछ व्यक्ति ऐसे हैं, जो आध्यात्मिक रूप से आत्म तुष्ट हैं, भौतिक दृष्टि से परिपूर्ण हैं या स्वभाव से कृतघ्न हैं या सहज रूप से श्रेष्ठजनों से ईर्ष्या करने वाले हैं। ऐसे लोग उनसे भी प्रेम नहीं करते जो उनसे प्रेम करते हैं, तो फिर जो शत्रुवत हैं उनका क्या कहना?

20 किन्तु हे गोपियों, मैं उन जीवों के प्रति भी तत्क्षण स्नेह प्रदर्शित नहीं कर पाता जो मेरी पूजा करते हैं। इसका कारण यह है कि मैं उनकी प्रेमाभक्ति को प्रगाढ़ करना चाहता हूँ। इससे वे ऐसे निर्धन व्यक्ति के सदृश बन जाते हैं जिसने पहले कुछ सम्पत्ति प्राप्त की थी किन्तु बाद में उसे खो दिया है। इस तरह उसके बारे में वह इतना चिन्तित हो जाता है कि और कुछ सोच ही नहीं पाता।

21 हे बालाओं, यह जानते हुए कि तुम सबों ने मेरे ही लिए लोकमत, वेदमत तथा अपने सम्बन्धियों के अधिकार को त्याग दिया है मैंने जो किया वह अपने प्रति तुम लोगों की आसक्ति को बढ़ाने के लिए ही किया है। तुम लोगों की दृष्टि से सहसा अपने को ओझल बनाकर भी मैं तुम लोगों से प्रेम करना रोक नहीं पाया। अतः प्रिय गोपियों, तुम अपने प्रेमी अर्थात मेरे प्रति दुर्भावनाओं को स्थान न दो।

22 मैं आप लोगों की निस्पृह सेवा के ऋण को ब्रह्मा के जीवनकाल की अवधि में भी चुका नहीं पाऊँगा। मेरे साथ तुमलोगों का सम्बन्ध कलंक से परे है। तुमने उन समस्त गृह-बन्धनों को तोड़ते हुए मेरी पूजा की है जिन्हें तोड़ पाना कठिन होता है। अतएव तुम्हारे अपने यशस्वी कार्य ही इसकी क्षतिपूर्ति कर सकते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय इकतीस - गोपियों के विरह गीत (10.31)

1 गोपियों ने कहा: हे प्रियतम, व्रजभूमि में तुम्हारा जन्म होने से ही यह भूमि अत्यधिक महिमावान हो उठी है और इसीलिए इन्दिरा (लक्ष्मी) यहाँ सदैव निवास करती हैं। केवल तुम्हारे लिए ही हम तुम्हारी भक्त दासियाँ, अपना जीवन पाल रही हैं। हम तुम्हें सर्वत्र ढूँढती रही हैं अतः कृपा करके हमें अपना दर्शन दीजिये।

2 हे प्रेम के स्वामी, आपकी चितवन शरदकालीन जलाशय के भीतर सुन्दरतम सुनिर्मित कमल के कोश की सुन्दरता को मात देने वाली है। हे वरदाता, आप उन दासियों का वध कर रहे हैं जिन्होंने बिना मोल ही अपने को आपको पूर्ण समर्पित कर दिया है। क्या यह वध नहीं है?

3 हे पुरुषश्रेष्ठ, आपने हम सबों को विविध प्रकार के संकटों से – यथा विषैले जल से, मानवभक्षी भयंकर अघासुर से, मूसलाधार वर्षा से, तृणावर्त से, इन्द्र के अग्नि तुल्य वज्र से, वृषासुर से तथा मय दानव के पुत्र से बारम्बार बचाया है।

4 हे सखा, आप वास्तव में गोपी यशोदा के पुत्र नहीं अपितु समस्त देहधारियों के हृदयों में अन्तस्थ साक्षी हैं। चूँकि ब्रह्माजी ने आपसे अवतरित होने एवं ब्रह्माण्ड की रक्षा करने के लिए प्रार्थना की थी इसलिए अब आप सात्वत कुल में प्रकट हुए हैं।

5 हे वृष्णिश्रेष्ठ, लक्ष्मीजी के हाथ को थामने वाला आपका कमल सदृश हाथ उन लोगों को अभय दान देता है, जो भवसागर के भय से आपके चरणों के निकट पहुँचते हैं। हे प्रियतम, उसी कामना को पूर्ण करने वाले करकमल को हमारे सिरों के ऊपर रखें।

6 हे व्रज के लोगों के कष्टों को विनष्ट करने वाले, समस्त स्त्रियों के वीर, आपकी हँसी आपके भक्तों के मिथ्या अभिमान को चूर चूर करती है। हे मित्र, आप हमें अपनी दासियों के रूप में स्वीकार करें और हमें अपने सुन्दर कमल-मुख का दर्शन दें।

7 आपके चरणकमल आपके शरणागत समस्त देहधारियों के विगत पापों को नष्ट करने वाले हैं। वे ही चरण गौवों के पीछे पीछे चरागाहों में चलते हैं और लक्ष्मीजी के दिव्य धाम हैं। आपने एक बार उन चरणों को महासर्प कालिय के फनों पर रखा था अतः अब आप उन्हें हमारे हृदयों पर रखें और हमारे पापों को विनष्ट कर दें।

8 हे कमलनेत्र, आपकी मधुर वाणी तथा मोहक शब्द, जो कि ज्ञानियों के मन को आकृष्ट करने वाले हैं, हम सबों को अधिकाधिक मोह रहे हैं।

9 आपके शब्दों का अमृत तथा आपकी लीलाओं का वर्णन इस भौतिक जगत में कष्ट भोगने वालों के जीवन और प्राण हैं। विद्वान मुनियों द्वारा प्रसारित ये कथाएँ मनुष्य के पापों को समूल नष्ट करती हैं और सुनने वालों को सौभाग्य प्रदान करती हैं। ये कथाएँ जगत-भर में विस्तीर्ण हैं और आध्यात्मिक शक्ति से ओतप्रोत हैं। निश्चय ही जो लोग भगवान के सन्देश का प्रसार करते हैं, वे सबसे बड़े दाता हैं।

10 आपकी हँसी, आपकी मधुर प्रेम-भरी चितवन, आपके साथ हमारे द्वारा भोगी गई घनिष्ठ लीलाएँ तथा गुप्त वार्ताएँ – इन सबका ध्यान करना मंगलकारी है और ये हमारे हृदयों को स्पर्श करती हैं। किन्तु उसके साथ ही, हे छलिया, वे हमारे मन को अतीव क्षुब्ध भी करती हैं।

11 हे स्वामी, हे प्रियतम, जब आप गाँव छोड़कर गौवें चराने के लिए जाते हैं, तो हमारे मन इस विचार से विचलित हो उठते हैं कि कमल से भी अधिक सुन्दर आपके पाँवों में अनाज के नोकदार छिलके तथा घास-फूस एवं पौधे चुभ जायेंगे।

12 दिन ढलने पर आप हमें बारम्बार गहरे नीले केश की लटों से ढके तथा धूल से पूरी तरह धूसरित अपना कमल-मुख दिखलाते हैं। इस तरह, हे वीर, आप हमारे मनों में माधुर्य-हर्ष जागृत कर देते हैं।

13 ब्रह्माजी द्वारा पूजित आपके चरणकमल उन सबों की इच्छाओं को पूरा करते हैं, जो उनमें नतमस्तक होते हैं। वे पृथ्वी के आभूषण हैं, वे सर्वोच्च सन्तोष को देने वाले हैं और संकट के समय चिन्तन के लिए सर्वथा उपयुक्त हैं। हे प्रियतम, हे चिन्ता के विनाशक, आप उन चरणों को हमारे हृदयों पर रखें।

14 हे वीर, आप शोक को मिटाने वाले अपने होंठों के अमृत को हममें वितरित कीजिये, जिसका आस्वाद आपकी वंशी भी लेती है और अन्य सारी आसक्तियाँ विसरा देती हैं।

15 जब आप दिन के समय जंगल चले जाते हैं, तो क्षण का एक अल्पांश भी हमें युग सरीखा लगता है क्योंकि हम आपको देख नहीं पातीं और जब हम आपके सुन्दर मुख को जो घुँघराले बालों से सुशोभित होने के कारण इतना सुन्दर लगता है, देखती भी हैं, तो ये हमारी पलकें हमारे आनन्द में बाधक बनती हैं, जिन्हें मूर्ख स्रष्टा ने बनाया है।

16 हे अच्युत, आप भलीभाँति जानते हैं कि हम क्यों आई हैं। आप-जैसे छलिये के अतिरिक्त भला और कौन होगा, जो अर्धरात्रि में उसकी बाँसुरी के तेज संगीत से मोहित होकर उसे देखने के लिए आई तरुणी स्त्रियों का परित्याग करेगा? आपके दर्शनों के लिए ही हमने अपने पतियों, बच्चों, बड़े-बूढ़ों, भाइयों तथा अन्य रिश्तेदारों को पूरी तरह ठुकरा दिया है।

17 जब हम आपके साथ एकान्त में हुई घनिष्ठ वार्ताओं का चिन्तन करती हैं, तो अपने हृदयों में माधुर्य-हर्ष अनुभव करती हैं और आपकी हँसमुख आकृति, आपकी प्रेममयी चितवन तथा आपके चौड़े सीने का, जो कि लक्ष्मी का वासस्थान है, स्मरण करती हैं तब हमारे मन बारम्बार मोहित हो जाते हैं। इस तरह हमें आपके लिए अत्यन्त गहन लालसा की अनुभूति होती है।

18 हे प्रियतम, आपका सर्व मंगलमय प्राकट्य व्रज के वनों में रहने वालों के कष्ट को दूर करता है। हमारे मन आपके सान्निध्य के लिए लालायित हैं। आप हमें थोड़ी-सी वह औषधि दे दें, जो आपके भक्तों के हृदयों के रोग का शमन करती है।

19 हे प्रियतम, आपके चरणकमल इतने कोमल हैं कि हम उन्हें अपने हृदयों पर डरते हुए हल्के से ऐसे रखती हैं कि आपके पैरों को चोट पहुँचेगी। हमारा जीवन केवल आप पर टिका हुआ है। अतः हमारे मन इस चिन्ता से भरे हैं कि कहीं जंगल के मार्ग में घूमते समय आपके कोमल चरणों में कंकड़ों से चोट न लग जाए।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय तीस - गोपियों द्वारा कृष्ण की खोज (10.30)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब भगवान कृष्ण इस तरह एकाएक विलुप्त हो गये तो गोपियाँ उन्हें न देख सकने के कारण अत्यन्त व्यथित हो उठीं जिस तरह हथिनियों का समूह अपने नर के बिछुड़ जाने पर खिन्न हो उठता है।

2 भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण करते ही गोपियों के हृदय उनकी चाल-ढाल तथा प्रेममयी मुसकान, उनकी कौतुकपूर्ण चितवन, मोहने वाली बातों तथा अपने साथ की जानेवाली अन्य लीलाओं से अभिभूत हो उठे। इस तरह रमा के स्वामी कृष्ण के विचारों में लीन वे गोपियाँ उनकी विविध दिव्य लीलाओं (चेष्टाओं) का अनुकरण करने लगीं।

3 चूँकि प्रेमप्रिय गोपियाँ अपने कृष्ण के विचारों में लीन थीं अतः वे उनके चलने, हँसने के ढंग, वाणी तथा अन्य विलक्षण गुणों का अनुकरण करने लगीं। कृष्ण के चितवन में गहरी डूबी हुई तथा उनकी लीलाओं का स्मरण करके उन्मत्त हुई गोपियों ने परस्पर घोषित कर दिया कि "मैं कृष्ण ही हूँ।"

4 जोर जोर से कृष्ण के बारे में गाती हुई गोपियों ने पगलायी स्त्रियों के झुण्ड के समान उन्हें वृन्दावन के पूरे जंगल में खोजा। यहाँ तक कि वृक्षों से भी उन कृष्ण के विषय में पूछताछ की जो समस्त उत्पन्न वस्तुओं के भीतर तथा बाहर आकाश की भाँति परमात्मा के रूप में उपस्थित हैं।

5 गोपियों ने कहा: हे अश्वत्थ वृक्ष, हे प्लक्ष, हे न्यग्रोध, क्या तुमने कृष्ण को देखा है? वह नन्दनन्दन अपनी प्रेमभरी मुसकान तथा चितवन से हमारे चित्तों को चुराकर चला गया है।

6 हे कुरबक वृक्ष, हे अशोक, हे नागकेसर, पुन्नाग तथा चम्पक, क्या इस रास्ते से होकर बलराम का छोटा भाई गया है, जिसकी हँसी समस्त अभिमान करनेवाली स्त्रियों के दर्प को हरने वाली है।

7 हे अत्यन्त दयालु तुलसी, तुम्हें तो गोविन्द के चरण इतने प्रिय हैं। क्या तुमने अपने को [तुलसी] पहने और भौंरों के झुण्ड से घिरे हुए उन अच्युत को इधर से जाते हुए देखा है?

8 हे मालती, हे मल्लिका, हे जाति तथा यूथिका, क्या माधव तुम सबों को अपने हाथ का स्पर्श-सुख देते हुए इधर से गये हैं?

9 हे आम की लतर, हे प्रियाल, हे पनस, हे आसान तथा कोविदार, हे जम्बु, हे अर्क, हे बिल्ब, बकुल तथा आम्र, हे कदम्ब तथा नीप एवं यमुना के तट के समीप स्थित अन्य सारे पौधो और वृक्षों, परोपकार के लिए अपना जीवन अर्पित करने वालों, हम गोपियों के मन चुरा लिए गये हैं, अतः कृपा करके हमें बतलायें कि कृष्ण गये कहाँ हैं?

10 हे माता पृथ्वी, आपने भगवान केशव के चरणकमलों का स्पर्श पाने के लिए ऐसी कौन सी तपस्या की है, जिससे उत्पन्न परम आनन्द से आपके शरीर में रोमांच हो आया है? इस अवस्था में आप अतीव सुन्दर लग रही हैं। क्या भगवान के इसी प्राकट्य के समय आपको ये भावलक्षण प्राप्त हुए हैं या फिर और पहले जब उन्होंने आप पर वामनदेव के रूप में अपने पाँव रखे थे या इससे भी पूर्व जब उन्होंने वराहदेव के रूप में अवतार लिया था ।

11 हे सखी हिरणी, क्या तुम्हारी आँखों को परमानन्द प्रदान करने वाले भगवान अच्युत अपनी प्रिया समेत इधर आये थे? हे वृक्षों, हम देख रही हैं कि तुम झुक रहे हो।

12 क्या जब राम के छोटे भाई इधर से गये जिनके पीछे-पीछे गले में सुशोभित तुलसी मंजरी की माला के चारों ओर उन्मत्त भौंरें मँडरा रहे थे तो उन्होंने अपनी स्नेहपूर्ण चितवन से तुम्हारे प्रणाम को स्वीकार किया था? वे अपनी बाँह अवश्य ही अपनी प्रिय के कंधे पर रखे रहे होंगे और अपने खाली हाथ में कमल का फूल लिए रहे होंगे।

13 चलो इन लताओं से कृष्ण के विषय में पूछते हैं, जो अपने पति रूप इस वृक्ष की बाँहों का आलिंगन कर रही हैं।

14 ये शब्द कहने के बाद कृष्ण को खोजते खोजते किंकर्तव्यविमूढ़ हुई गोपियाँ उनके विचारों में पूर्णतया लीन होकर उनकी विविध लीलाओं का अनुकरण करने लगीं।

15 एक गोपी ने पूतना की नकल उतारी जबकि दूसरी बालक कृष्ण बन गई और वह पहले वाली का स्तनपान करने लगी। अन्य गोपी ने शिशु कृष्ण के रोदन का अनुकरण करते हुए उस गोपी पर पाद-प्रहार किया जो शकटासुर की भूमिका निभा रही थी।

16 एक गोपी तृणावर्त बन गई और वह दूसरी गोपी को जो बालक कृष्ण बनी थी दूर ले गई जबकि एक अन्य गोपी रेंगने लगी जिससे उसके पाँव घसीटते समय पायजेब बजने लगी।

17 दो गोपियाँ उन तमाम गोपियों के बीच राम तथा कृष्ण बन गई जो ग्वालबालों का अभिनय कर रही थीं। एक गोपी ने कृष्ण द्वारा राक्षस वत्सासुर के वध का अनुकरण किया जिसमें दूसरी गोपी वत्सासुर बनी थी। गोपियों के एक जोड़े ने बकासुर-वध का अभिनय किया।

18 जब एक गोपी ने पूरी तरह अनुकरण कर दिखाया कि कृष्ण किस तरह दूर विचरण करती गौवों को बुलाते थे, वे किस तरह वंशी बजाते थे और वे किस तरह विविध खेलों में लगे रहते थे तो अन्यों ने बहुत खूब, बहुत खूब, (वाह वाह) चिल्लाकर बधाई दी।

19 एक अन्य गोपी अपने मन को कृष्ण में स्थिर किये अपनी बाँह को दूसरी सखी के कंधे पर टिकाये चलने लगी और बोली " मैं कृष्ण हूँ।" जरा देखो तो मैं कितनी शान से चल रही हूँ।

20 एक गोपी ने कहा: आँधी वर्षा से मत डरो" मैं तुम्हारी रक्षा करूँगी। यह कहकर उसने अपना दुपट्टा अपने सिर के ऊपर उठा लिया।

21 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, एक गोपी दूसरी के कंधे पर चढ़ गई और अपना पाँव एक अन्य गोपी के सिर पर रखती हुई बोली "रे दुष्ट सर्प, यहाँ से चले जाओ, तुम जान लो कि मैंने इस जगत में दुष्टों को दण्ड देने के लिए ही जन्म लिया है।

22 तब एक दूसरी गोपी बोल पड़ी, मेरे प्रिय ग्वालबालों, जंगल में लगी इस आग को तो देखो, तुरन्त अपनी आँखें मूँद लो। मैं आसानी से तुम्हारी रक्षा करूँगी।

23 एक गोपी ने अपनी एक छरहरी सी सखी को फूलों की माला से बाँध दिया और कहा, “अब मैं इस बालक को बाँध दूँगी जिसने मक्खन की हँडिया तोड़ दी है और मक्खन चुरा लिया है।“ तब दूसरी गोपी अपना मुँह तथा सुन्दर आँखें अपने हाथ से ढककर भयभीत होने की नकल करने लगी।

24 जब गोपियाँ इस तरह कृष्ण की लीलाओं की नकल उतार रही थीं और वृन्दावन की लताओं तथा वृक्षों से पूछ रही थीं कि भगवान कृष्ण कहाँ हो सकते हैं, तो उन्हें जंगल के एक कोने में उनके पदचिन्ह दिख गये।

25 गोपियों ने कहा: इन पदचिन्हों में ध्वजा, कमल, वज्र, अंकुश, जौ की बाली इत्यादि के चिन्ह स्पष्ट बतलाते हैं कि ये नन्द महाराज के पुत्र उसी महान आत्मा (कृष्ण) के हैं।

26 गोपियाँ श्रीकृष्ण के अनेक पदचिन्हों से प्रदर्शित उनके मार्ग का अनुमान करने लगीं, किन्तु जब उन्होंने देखा कि ये चिन्ह उनकी प्रियतमा के चरणचिन्हों से मिल-जुल गये हैं, तो वे व्याकुल हो उठीं और इस प्रकार कहने लगीं।

27 गोपियों ने कहा: यहाँ पर हमें किसी गोपी के चरणचिन्ह दिख रहे हैं, जो अवश्य ही नन्द महाराज के पुत्र के साथ-साथ चल रही होगी। उन्होंने उसके कंधे पर अपना हाथ उसी तरह रखा होगा जिस तरह एक हाथी अपनी सूँड अपनी सहभागिनी हथिनी के कंधे पर रख देता है।

28 इस विशिष्ट गोपी ने निश्चित ही सर्वशक्तिमान भगवान गोविन्द की पूरी तरह पूजा की होगी क्योंकि वे उससे इतने प्रसन्न हो गये कि उन्होंने हम सबों को छोड़ दिया और उसे एकान्त स्थान में ले आये।

29 हे बालाओं, गोविन्द के चरणों की धूल इतनी पवित्र है कि ब्रह्मा, शिव तथा रमादेवी भी अपने पापों के दूर करने के लिए उस धूल को अपने सिरों पर धारण करते हैं।

30 उस विशिष्ट गोपी के ये चरणचिन्ह हमें अत्यधिक विचलित कर रहे हैं। समस्त गोपियों में से केवल वही एकान्त स्थान में ले जाई गई। देखो न, हमें यहाँ पर उसके पदचिन्ह नहीं दिख रहे। स्पष्ट है कि घास तथा कुश उसके पाँवों के कोमल तलुवों को कष्ट पहुँचा रहे होंगे अतः प्रेमी ने अपनी प्रेयसी को उठा लिया होगा।

31 प्यारी गोपियों, जरा देखो न, किस तरह इस स्थान पर कृष्ण के पदचिन्ह पृथ्वी में गहरे धँसे हुए हैं। अपनी प्रियतमा के भार को वहन करना अवश्य ही उनके लिए कठिन हो रहा होगा।

32 जरा देखो न, किस तरह प्रिय कृष्ण ने यहाँ पर अपनी प्रिया के लिए फूल चुने हैं। यहाँ उनके पाँव के अगले हिस्से (पंजे) का ही निशान पड़ा हुआ है क्योंकि फूलों तक पहुँचने के लिए वे अपने पंजों के बल खड़े हुये थे।

33 कृष्ण यहाँ पर निश्चित रूप से अपनी प्रेयसी के साथ उसके केश सँवारने के लिए बैठे थे। कृष्ण ने उस गोपी के लिए उन फूलों से जुड़ा बनाया होगा, जिसे उसने एकत्र किया था।

34 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान कृष्ण अपने आप में तुष्ट रहने तथा पूर्ण होने के कारण केवल भीतर ही भीतर आनन्दमग्न होते हैं। इस तरह विरोधाभास के द्वारा उन्होंने सामान्य पुरुषों एवं स्त्रियों जैसे व्यवहार का प्रदर्शन किया।

35-36 जब गोपियाँ पूर्णतया भ्रमित मनों से घूम रही थीं तो उन्होंने कृष्ण लीलाओं के विविध चिन्हों की ओर संकेत किया। वह विशिष्ट गोपी जिसे कृष्ण अन्य युवतियों को त्यागकर एकान्त स्थान में ले गये थे, अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने लगी। उसने सोचा, “मेरे प्रियतम ने उन अन्य समस्त गोपियों को छोड़कर मेरा चयन किया है।"

37 “जब दोनों प्रेमी वृन्दावन जंगल के एक भाग से जा रहे थे तो विशिष्ट गोपी को अपने ऊपर गर्व हो आया। उसने भगवान केशव से कहा, “अब मुझसे और नहीं चला जाता। आप जहाँ भी जाना चाहें मुझे उठाकर ले चलें।“

38 ऐसा कहे जाने पर भगवान ने उत्तर दिया “मेरे कंधे पर चढ़ जाओ।“ किन्तु यह कहते ही वे विलुप्त हो गये। उनकी प्रिया को तब अत्यधिक क्लेश हुआ।

39 वह चिल्ला उठी: हे स्वामी, हे प्रेमी, हे प्रीतम, तुम कहाँ हो? तुम कहाँ हो? हे बलिष्ठ भुजाओं वाले, हे मित्र, अपनी दासी बेचारी को अपना दर्शन दो।

40 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: कृष्ण के रास्ते को खोजती हुई गोपियों ने अपनी दुखी सखी को पास में ही ढूँढ निकाला। वह अपने प्रेमी के विछोह से शोकग्रस्त थी।

41 उसने उन्हें बताया कि माधव ने उसको कितना आदर (मान) प्रदान किया था किन्तु अब उसे अपने दुर्व्यवहार के कारण अनादर झेलना पड़ा। गोपियाँ यह सुनकर अत्यन्त विस्मित थीं।

42 तत्पश्चात गोपियाँ कृष्ण की खोज में जंगल के भीतर उतनी दूर तक गई जहाँ तक चन्द्रमा की चाँदनी थी। किन्तु जब उन्होंने अपने को अंधकार से घिरता देखा तो उन्होंने लौट आने का निश्चय किया।

43 उन सबके मन उनके (कृष्ण के) विचारों में लीन होने से वे उन्हीं के विषय में बातें करने लगीं। उन्हीं की लीलाओं का अनुकरण करने लगीं और अपने को उनकी उपस्थिति से पूरित अनुभव करने लगीं। वे अपने घरों के विषय में पूरी तरह भूल गई और कृष्ण के दिव्य गुणों का जोर जोर से गुणगान करने लगीं।

44 गोपियाँ फिर से कालिन्दी की किनारे आ गई। कृष्ण का ध्यान करते तथा उत्सुकतापूर्वक यह आशा लगाये कि वे आयेंगे ही, वे उनके विषय में गीत गाने के लिए एकसाथ बैठ गई।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय उन्तीस - रासनृत्य के लिए कृष्ण तथा गोपियों का मिलन (10.29)

1 श्रीबादरायणि ने कहा: श्रीकृष्ण समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण भगवान हैं फिर भी खिलते हुए चमेली के फूलों से महकती उन शरदकालीन रातों को देखकर उन्होंने अपने मन को प्रेम-आनन्द की ओर मोड़ा। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने अपनी अन्तरंगा शक्ति का उपयोग किया।

2 तब चन्द्रमा अपनी लाल रंग की सुखदायी किरणों से पश्चिमी क्षितिज को रंजित करते हुए उदय हुआ और इस तरह उसने उदय होते देखने वालों की पीड़ा दूर कर दी। यह चन्द्रमा उस प्रिय पति के समान था, जो दीर्घकालीन अनुपस्थिति के बाद घर लौटता है और अपनी प्रियतमा पत्नी के मुखमण्डल को लाल कुमकुम से सँवारता है।

3 भगवान कृष्ण ने नवलेपित सिन्दूर के लाल तेज से चमकते पूर्ण चन्द्रमा के अविच्छिन्न मण्डल को देखा। ऐसा लग रहा था मानो लक्ष्मीजी का मुखमण्डल हो। उन्होंने चन्द्रमा की उपस्थिति से खिलने वाले कुमुदों को तथा उसकी किरणों से मन्द मन्द प्रकाशित जंगल को भी देखा। इस तरह भगवान ने अपनी वंशी पर सुन्दर नेत्रों वाली गोपियों के मन को आकृष्ट करने वाली मधुर तान छेड़ दी।

4 जब वृन्दावन की युवतियों ने कृष्ण की बाँसुरी का संगीत सुना जो प्रेम-भावनाओं को उद्वेलित करता है, तो उनके मन भगवान द्वारा वशीभूत कर लिये गये। वे एक-दूसरे की अनदेखी करके तेजी से आगे बढ़ रही थीं और वे वहीं पहुँच गई, जहाँ उनका बाल-सखा बाट जोह रहा था।

5 कुछ गोपियाँ दूध दुह रही थीं जब उन्होंने कृष्ण की बाँसुरी सुनी। उन्होंने दुहना बन्द कर दिया और वे कृष्ण से मिलने चली गई। कुछ ने चूल्हे पर दूध को उबलते छोड़ दिया और कई ने चूल्हे में रोटियों को सिकते हुए छोड़ दिया ।

6-7 उनमें से कुछ वस्त्र पहन रही थीं, कुछ अपने बच्चों को दूध पिला रही थीं या अपने पतियों की सेवा में लगी थीं किन्तु सभी ने अपने-अपने कार्य छोड़ दिये और वे कृष्ण से मिलने चली गई। कुछ गोपियाँ शाम का भोजन कर रही थीं, कुछ नहा-धोकर शरीर में अंगराग या अपनी आँखों में काजल लगा रही थीं। सभी ने तुरन्त अपने-अपने कार्य बन्द कर दिये और यद्यपि उनके वस्त्र तथा गहने अस्त-व्यस्त थे, वे कृष्ण के पास दौड़ी गई।

8 यद्यपि कृष्ण उनके हृदयों को पहले ही चुरा चुके थे और उनके पतियों, पिताओं, भाइयों तथा अन्य सम्बन्धियों ने उन्हें रोकने का प्रयत्न किया लेकिन कृष्ण की बाँसुरी की ध्वनि से मोहित होकर उन्होंने लौटने से इनकार कर दिया।

9 कुछ गोपियाँ अपने घरों से बाहर न निकल पाई अतः वे अपनी आँखें बन्द किये शुद्ध प्रेम में कृष्ण का ध्यान करते हुए घर पर ही ठहरी रहीं।

10-11 जो गोपियाँ कृष्ण का दर्शन करने नहीं जा सकीं, उनके लिए अपने प्रियतम से असह्य विछोह तीव्र वेदना उत्पन्न करने लगा, जिसने उनके सारे अशुभ कर्मों को भस्म कर डाला। उनका ध्यान करने से गोपियों को उनके आलिंगन की अनुभूति हुई और तब उन्हें जो आनन्द अनुभव हुआ उसने उनकी भौतिक धर्मनिष्ठा को समाप्त कर दिया। यद्यपि भगवान कृष्ण परमात्मा हैं किन्तु इन युवतियों ने उन्हें अपना प्रेमी ही समझा और उसी घनिष्ठ रस में उनका संसर्ग प्राप्त किया। इस तरह उनके कर्म-बन्धन नष्ट हो गये और उन्होंने अपने स्थूल भौतिक शरीरों को त्याग दिया।

12 श्री परीक्षित महाराज ने कहा:हे मुनिवर, गोपियाँ कृष्ण को केवल अपना प्रेमी मानती थीं, परम पूर्ण सत्य के रूप में नहीं मानती थीं। तो फिर ये युवतियाँ जिनके मन प्रकृति के गुणों की लहरों में बह रहे थे, किस तरह से अपने आपको भौतिक आसक्ति से छुड़ा पाई?“

13 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: यह विषय आपको पहले बताया जा चुका है। चूँकि कृष्ण से घृणा करने वाला शिशुपाल तक सिद्धि प्राप्त कर सका तो फिर भगवान के प्रिय भक्तों के विषय में कहना ही क्या है?

14 हे राजन, भगवान अव्यय तथा अप्रमेय हैं और भौतिक गुणों से अछूते हैं क्योंकि वे इन गुणों के नियन्ता हैं। इस जगत में साकार रूप में उनका आविर्भाव मानवता को सर्वोच्च लाभ दिलाने के निमित्त होता है।

15 जो व्यक्ति अपने काम, क्रोध, भय, रक्षात्मक स्नेह, निर्विशेष एकत्व का भाव या मित्रता को सदैव भगवान हरि में लगाते हैं, वे निश्चित रूप से उनके भावों में तल्लीन हो जाते हैं।

16 आपको योग्श्वरों के अजन्मा, ईश्वर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण के विषय में इस तरह चकित नहीं होना चाहिए। अन्ततः भगवान ही इस जगत का उद्धार करने वाले है।

17 यह देखकर कि व्रज-बालाएँ आ चुकी हैं, वक्ताओं में श्रेष्ठ भगवान कृष्ण ने उनके मन को मोहित करने वाले आकर्षक शब्दों से उनका स्वागत किया।

18 भगवान कृष्ण ने कहा: हे अति भाग्यवंती नारीयों, तुम्हारा स्वागत है। मैं तुम लोगों की प्रसन्नता के लिए क्या कर सकता हूँ? व्रज में सब कुशल-मंगल तो है? तुम लोग अपने यहाँ आने का कारण मुझे बतलाओ।

19 यह रात अत्यन्त भयावह है और भयानक प्राणी इधर-उधर फिर रहे हैं। हे क्षीण कटि वाली स्त्रियों, व्रज लौट जाओ। स्त्रियों के लिए यह स्थान उपयुक्त नहीं है।

20 तुम्हारी माताएँ, पिता, पुत्र, भाई तथा पति तुम्हें घर पर न पाकर निश्चित रूप से तुम्हें ढूँढ रहे होंगे। अपने परिवार वालों के लिए चिन्ता मत उत्पन्न करो।

21-22 अब तुम लोगों ने फूलों से भरे तथा पूर्ण चन्द्रमा की चाँदनी से सुशोभित इस वृन्दावन जंगल को देख लिया। तुम लोगों ने यमुना से आने वाली मन्द-मन्द वायु से हिलते पत्तों वाले वृक्षों का सौन्दर्य देख लिया। अतः अब अपने गाँव वापस चली जाओ। देर मत करो। हे सती स्त्रियों, जाकर अपनी पतियों की सेवा करो और क्रंदन करते बच्चों तथा बछड़ों को दूध दो।

23 अथवा तुम लोग कदाचित मेरे प्रति अगाध प्रेम के कारण यहाँ आई हो क्योंकि इस प्रेम ने तुम्हारे हृदयों को जीत लिया है। यह सचमुच ही सराहनीय है क्योंकि सारे जीव मुझसे सहज भाव से स्नेह करते हैं।

24 स्त्री का परम धर्म है कि वह निष्ठापूर्वक अपने पति की सेवा करे, अपने पति के परिवार के प्रति अच्छा व्यवहार करे तथा अपने बच्चों की ठीक देखरेख करे।

25 जो स्त्रियाँ अगले जीवन में उत्तम लोक प्राप्त करना चाहती हैं उन्हें चाहिए कि उस पति का कभी परित्याग न करें जो अपने धार्मिक स्तर से नीचे न गिरा हो चाहे वह दुष्चरित्र, अभागा, वृद्ध, अज्ञानी, बीमार या निर्धन क्यों न हो।

26 कुलीन स्त्री के लिए क्षुद्र व्यभिचार सदा ही निन्दनीय हैं, इनसे स्वर्ग जाने में बाधा पहुँचती है, उसकी ख्याति नष्ट होती है और ये उसके लिए कठिनाई तथा भय उत्पन्न करनेवाले होते हैं।

27 मेरे विषय में सुनने, अर्चाविग्रह रूप का दर्शन करने, ध्यान करने तथा महिमा का श्रद्धापूर्वक कीर्तन करने की भक्तिमयी विधियों से मेरे प्रति दिव्य प्रेम उत्पन्न होता है। केवल शारीरिक सानिध्य से वैसा ही फल प्राप्त नहीं होता। अतः तुम लोग अपने घरों को लौट जाओ।

28 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: गोविन्द के इन वचनों को सुनकर गोपियाँ खिन्न हो उठीं। उनकी बड़ी बड़ी आशाएँ ध्वस्त हो गईं और उन्हें दुर्लंघ्य चिन्ता होने लगी।

29 गोपियाँ अपना सिर झुकाये तथा शोकपूर्ण गहरे श्वास से लाल लाल होंठों को सुखाते हुए अपने पैर के अँगूठे से धरती कुरेदने लगीं। उनकी आँखों से आँसू बहने लगे, जिन्होंने अपने साथ काजल को बहाते हुए उनके वक्षस्थलों पर लेपित सिन्दूर को धो दिया। इस तरह गोपियाँ अपने दुख के भार को चुपचाप सहन करती हुई खड़ी रहीं।

30 यद्यपि कृष्ण उनके प्रेमी थे और उन्हीं के लिए उन सबों ने अपनी सारी इच्छाएँ त्याग दी थीं किन्तु वे ही उनसे प्रतिकूल होकर बोल रहे थे। तो भी वे उनके प्रति उसी तरह अनुरक्त बनी रहीं। अपना रोना बन्द करके उन्होंने अपनी आँखें पोंछीं और क्षोभ से युक्त अवरुद्ध वाणी से वे कहने लगीं।

31 गोपिकाओं ने कहा: हे सर्वशक्तिमान, आपको इस निर्दयता से नहीं बोलना चाहिए। आप हमें ठुकरायें नहीं। हमने आपके चरणकमलों की भक्ति करने के लिए सारे भौतिक भोगों का परित्याग कर दिया है। अरे हठीले, आप हमसे उसी तरह प्रेम करें जिस तरह श्रीनारायण अपने उन भक्तों से प्रेम करते हैं, जो मुक्ति के लिए प्रयास करते हैं।

32 हे प्रिय कृष्ण, एक धर्मज्ञ की तरह आपने हमें उपदेश दिया है कि स्त्रियों का उचित धर्म है कि वे अपने पतियों, बच्चों तथा अन्य सम्बन्धियों की निष्ठापूर्वक सेवा करें। हम मानती हैं कि यह सिद्धान्त वैध है किन्तु वास्तव में यह सेवा तो आपकी की जानी चाहिए। हे प्रभु, आप ही तो समस्त देहधारियों के सर्वप्रिय मित्र हैं। असल में आप उनके घनिष्ठतम सम्बन्धी तथा उनकी आत्मा हैं।

33 सुविज्ञ अध्यात्मवादीजन सदैव आपसे स्नेह करते हैं क्योंकि वे आपको अपनी असली आत्मा तथा शाश्वत प्रेमी मानते हैं। हमें अपने इन पतियों, बच्चों तथा सम्बन्धियों से क्या लाभ मिलता है, जो हमें केवल कष्ट देने वाले हैं? अतएव हे परम नियन्ता, हम पर कृपा करें। हे कमलनेत्र, आप अपना सानिध्य चाहने की हमारी चिर-पोषित अभिलाषा को छिन्न नहीं करें।

34 आज तक हमारे मन गृहकार्यों में लीन थे किन्तु आपने सरलतापूर्वक हमारे मन तथा हमारे हाथों को हमारे गृहकार्य से चुरा लिया है। हम आपके चरणकमलों से एक पग भी दूर नहीं हटेंगे। हम व्रज वापस कैसे जा सकती हैं? हम वहाँ जाकर क्या करेंगी?

35 हे कृष्ण, हमारे हृदयों के भीतर की अग्नि, जिसे आपने अपनी हँसी से युक्त चितवन के द्वारा तथा अपनी वंशी के मधुर संगीत से प्रज्ज्वलित किया है उस पर कृपा करके अपने होठों का अमृत डालिये। यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो हे सखा, हम आपके वियोग की अग्नि में अपने शरीरों को भस्म कर देंगी और इस प्रकार योगियों की तरह ध्यान द्वारा आपके चरणकमलों के धाम को प्राप्त करेंगी।

36 हे कमलनेत्र, जब भी लक्ष्मीजी आपके चरणकमलों के तलुवों का स्पर्श करती हैं, तो वे इसे उल्लास का अवसर मानती हैं। आप वनवासियों को अत्यन्त प्रिय हैं अतएव हम भी आपके चरणकमलों का स्पर्श करेंगी। उसके बाद हम किसी भी व्यक्ति के समक्ष खड़ी तक नहीं होंगी क्योंकि तब हम आपके द्वारा पूरी तरह तुष्ट हो चुकी होंगी।

37 जिन लक्ष्मीजी की कृपा-कटाक्ष के लिए देवतागण महान प्रयास करते हैं उन्हें भगवान नारायण के वक्षस्थल पर सदैव विराजमान रहने का अनुपम स्थान प्राप्त है। फिर भी वे उनके चरणकमलों की धूल पाने के लिए इच्छुक रहती हैं, यद्यपि उन्हें इस धूल में तुलसीदेवी तथा भगवान के अन्य बहुत से सेवकों को भी हिस्सा देना पड़ता है। इसी तरह हम भी शरण लेने के लिए आपके चरणकमलों की धूलि लेने आई हैं।

38 अतः हे सभी सन्तापों का हरण करने वाले, हम पर कृपा करें। आपके चरणकमलों तक पहुँचने के लिए हमने अपने परिवारों तथा घरों को छोड़ा है और हमें आपकी सेवा करने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहिए। हमारे हृदय आपकी सुन्दर हासमयी चितवन से उत्पन्न तीव्र इच्छाओं के कारण जल रहे हैं। हे सखा हमें अपनी दासियाँ बना लें।

39 हे कृष्ण! आपके बालों के घुँघराले गुच्छों से घिरे हुए मुख, कुण्डलों से विभूषित आपके गालों, अमृत से पूर्ण आपके होठों, आपकी स्मितपूर्ण चितवन, हमारे भय को भगाने वाली आपकी दो बलिष्ठ भुजाओं को एवं श्रीलक्ष्मीजी के आनन्द के एकमात्र स्रोत आपके वक्षस्थल को देखकर हम भी आपकी दासियाँ बनना चाहती हैं।

40 हे कृष्ण, तीनों लोकों में ऐसी कौन स्त्री होगी जो आपकी वंशी से निकली मधुर तान से मोहित होकर अपने धार्मिक आचरण से विचलित न हो जाय? आपका सौन्दर्य तीनों लोकों को मंगलमय बनाता है। दरअसल गौवें, पक्षी, वृक्ष तथा हिरण तक भी आपके सुन्दर रूप को देखकर रोमांचित हो उठते हैं।

41 जिस तरह आदि भगवान देवलोक की रक्षा करते हैं, उसी तरह आपने व्रजवासियों के भय तथा कष्ट को हरने के लिए इस जगत में जन्म लिया है। अतः हे दुखियारों के मित्र, अपना करकमल अपनी इन व्यथित दासियों पर रखिये।

42 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: गोपियों के व्याकुल शब्दों को सुनकर हँसते हुए, समस्त योगेश्वरों के भी ईश्वर भगवान कृष्ण ने उन सबों के साथ कृपा करके आनन्द मनाया यद्यपि वे आत्मतुष्ट हैं।

43 एकत्र गोपियों के बीच में अच्युत भगवान कृष्ण वैसे ही लग रहे थे जैसे कि तारों से घिरा हुआ चन्द्रमा लगता है। इतने उदार कार्यकलापों वाले कृष्ण ने अपनी स्नेहमयी चितवनों से गोपियों के मुखों को प्रफुल्लित कर दिया।

44 जब गोपियाँ उनका महिमागान करने लगीं तो सैकड़ों स्त्रियों के नायक ने प्रत्युत्तर में जोर जोर से गाना शुरु कर दिया। वे अपनी वैजयन्ती माला धारण किये हुए उनके बीच घूम-घूम कर वृन्दावन के जंगल की शोभा बढ़ा रहे थे।

45-46 श्रीकृष्ण गोपियों समेत यमुना के किनारे गये जहाँ बालू ठंडी पड़ रही थी और नदी की तरंगों के स्पर्श से वायु में कमलों की महक थी। वहाँ भगवान कृष्ण ने गोपियों के साथ अपनी दिव्य लीलाओं का आनन्द प्राप्त किया।

47 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण से ऐसा विशेष आदर पाकर गोपियाँ अपने पर गर्वित हो उठीं और उनमें से हरेक ने अपने को पृथ्वी की सर्वश्रेष्ठ नारी समझा।

48 गोपियों को अपने सौभाग्य पर अत्यधिक गर्वित देखकर भगवान केशव ने उनको इस गर्व से उबारना चाहा और उन पर अधिक अनुग्रह करना चाहा। अतः वे तुरन्त अन्तर्धान हो गये।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय अट्ठाईस - कृष्ण द्वारा वरुणलोक से नन्द महाराज की रक्षा (10.28)

1 श्रीबादरायणि ने कहा: भगवान जनार्दन की पूजा करके तथा एकादशी के दिन व्रत रखकर नन्द महाराज ने द्वादशी के दिन स्नान करने के लिए कालिन्दी के जल में प्रवेश किया।

2 चूँकि नन्द महाराज ने इस बात की अवहेलना करके कि यह अशुभ समय था रात्रि के अंधकार में जल में प्रवेश किया था अतः वरुण का आसुरी सेवक उन्हें पकड़कर अपने स्वामी के पास ले आया।

3 हे राजन, नन्द महाराज को न देखकर ग्वाले जोर से चिल्ला उठे, “हे कृष्ण, हे राम,” भगवान कृष्ण ने उनकी चीखें सुनी और समझ लिया कि मेरे पिता वरुण द्वारा बन्दी बना लिये गये हैं। अतः अपने भक्तों को निडर बनाने वाले सर्वशक्तिमान भगवान वरुण देव के दरबार में जा पहुँचे।

4 यह देखकर कि भगवान ऋषिकेश पधारे हैं, वरुणदेव ने धूमधाम से उनकी पूजा की। वह भगवान को देखकर अत्यन्त प्रमुदित था और वह इस प्रकार बोला।

5 श्री वरुण ने कहा: आज मेरे शरीर ने अपना कार्य पूरा कर लिया। हे प्रभु, निस्सन्देह अब मुझे अपना जीवन-लक्ष्य प्राप्त हो चुका। हे भगवन, जो लोग आपके चरणकमलों को स्वीकार करते हैं, वे भौतिक संसार के मार्ग को पार कर सकते हैं।

6 हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, परम सत्य परमात्मा, मैं आपको नमस्कार करता हूँ; आपके भीतर इस सृष्टि को अपने अनुरूप बनाने वाली माया-शक्ति का लेशमात्र भी नहीं है।

7 यहाँ पर बैठे हुए आपके पिता मेरे एक मूर्ख अज्ञानी नौकर द्वारा मेरे पास लाये गये हैं, जो अपने कर्तव्य को नहीं समझता था। कृपा करके हमें क्षमा कर दें।

8 हे कृष्ण, हे सर्वदृष्टा, आप मुझे भी अपनी कृपा प्रदान करें। हे गोविन्द, आप अपने पिता के प्रति अत्यधिक स्नेहवान हैं। आप उन्हें घर ले जाँय।

9 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह वरुणदेव से प्रसन्न होकर ईश्वरों के ईश्वर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण अपने पिता को लेकर घर लौट आये जहाँ उनके सम्बन्धी उन्हें देखकर अत्यधिक हर्षित थे।

10 नन्द महाराज समुद्र लोक के शासक वरुण के महान ऐश्वर्य को पहली बार देखकर तथा यह देखकर कि वरुण तथा उसके सेवकों ने किस तरह कृष्ण का आदर किया था, आश्चर्यचकित थे। नन्द ने इसका वर्णन अपने साथी ग्वालों से किया।

11 वरुण के साथ कृष्ण की लीला को सुनकर ग्वालों ने विचार किया कि कृष्ण अवश्य ही भगवान हैं। हे राजन, उनके मन उत्सुकता से भर गये। उन्होंने सोचा, “क्या भगवान हम सबों को भी अपना दिव्य धाम प्रदान करेंगे?“

12 सर्वदर्शी होने के कारण भगवान कृष्ण स्वतः समझ गये कि ग्वाले क्या अभिलाषा कर रहे हैं। उनकी इच्छाओं को पूरा करके उनपर कृपा प्रदर्शित करने के लिए भगवान ने इस प्रकार सोचा।

13 भगवान कृष्ण ने सोचा निश्चय ही इस जगत में लोग ऊँचे तथा नीचे गन्तव्यों के बीच भटक रहे हैं, जिन्हें वे अपनी इच्छाओं के अनुसार तथा पूरी जानकारी के बिना किये गये कर्मों के माध्यम से प्राप्त करते हैं। इस तरह लोग अपने असली गन्तव्य को नहीं जान पाते।

14 इस प्रकार परिस्थिति पर गम्भीरतापूर्वक विचार करते हुए परम दयालु भगवान हरि ने ग्वालों को अपना धाम दिखलाया जो भौतिक अंधकार से परे है।

15 भगवान कृष्ण ने अनश्वर आध्यात्मिक तेज प्रकट किया जो असीम, चेतन तथा नित्य है। मुनिजन उस आध्यात्मिक जीव को उस समाधि में देखते हैं जब उनकी चेतना भौतिक प्रकृति के गुणों से मुक्त रहती है।

16 भगवान कृष्ण सारे ग्वालों को ब्रह्मह्रद ले आये, उनसे जल के भीतर डुबकी लगवाई और फिर ऊपर निकाल लिया। जिस महत्त्वपूर्ण स्थान से अक्रूर ने वैकुण्ठ को देखा था, वहीं इन ग्वालों ने भी परम सत्य के लोक को देखा।

17 जब नन्द महाराज तथा अन्य ग्वालों ने वह दिव्य धाम देखा तो उन्हें परम सुख की अनुभूति हुई। वे स्वयं कृष्ण को साक्षात वेदों से घिरे एवं उनके द्वारा स्तुति किये जाते देखकर विशेष रूप से चकित थे।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय सत्ताईस - इन्द्रदेव तथा माता सुरभि द्वारा स्तुति (10.27)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: कृष्ण के गोवर्धन पर्वत उठाने तथा भयंकर वर्षा से व्रजवासियों की रक्षा करने के बाद गौवों की माता सुरभि गोलोक से कृष्ण का दर्शन करने आई। इनके साथ इन्द्र था।

2 भगवान का अपमान करने के कारण इन्द्र अत्यन्त लज्जित था। एकान्त स्थान में उनके पास जाकर इन्द्र उनके चरणों पर गिर पड़ा और सूर्य के समान तेज वाले मुकुट को भगवान के चरणकमलों पर रख दिया।

3 अब तक इन्द्र सर्वशक्तिमान कृष्ण की दिव्य शक्ति को सुन तथा देख चुका था और इस तरह तीनों जगतों के स्वामी होने का उसका मिथ्या गर्व चूर हो चुका था। याचना के लिये दोनों हाथ जोड़कर उसने भगवान को इस प्रकार सम्बोधित किया।

4 राजा इन्द्र ने कहा: आपका दिव्य रूप शुद्ध सतोगुण का प्राकट्य है, यह परिवर्तन से विचलित नहीं होता, ज्ञान से चमकता रहता है और रजो तथा तमोगुणों से रहित है। आपके भीतर माया तथा अज्ञान पर आश्रित भौतिक गुणों का प्रबल प्रवाह नहीं पाया जाता।

5 तो भला आपमें अज्ञानी व्यक्ति के लक्षण – यथा लोभ, काम, क्रोध तथा ईर्ष्या किस तरह रह सकते हैं क्योंकि इनकी उत्पत्ति संसार में मनुष्य की पूर्व-लिप्तता के कारण होती है और ये मनुष्य को संसार में अधिकाधिक जकड़ते जाते हैं? फिर भी हे परमेश्वर, आप धर्म की रक्षा करने तथा दुष्टों का दमन करने के लिए उन्हें दण्ड देते है।

6 आप इस सम्पूर्ण जगत के पिता, आध्यात्मिक गुरु और परम नियन्ता भी हैं। आप दुर्लंघ्य काल हैं जो पापियों को उन्हीं के हित के लिए दण्ड देता है। निस्सन्देह स्वेच्छा से लिए जानेवाले विविध अवतारों में आप उन लोगों का मिथ्या दर्प दूर करते हैं, जो अपने को इस जगत का स्वामी मान बैठते हैं।

7 मुझ जैसे मूर्खजन जो अपने को जगत का स्वामी मान बैठते हैं तुरन्त ही अपने मिथ्या गर्व को त्याग देते हैं और जब वे आपको काल के समक्ष भी निडर देखते हैं, तो वे तुरन्त आध्यात्मिक प्रगति करने वाले भक्तों का मार्ग ग्रहण कर लेते हैं। इस तरह आप दुष्टों को शिक्षा देने के लिये ही दण्ड देते हैं।

8 अपनी शासन शक्ति के मद में चूर एवं आपके दिव्य प्रभाव से अनजान मैंने आपका अपमान किया है। हे प्रभु, आप मुझे क्षमा करें। मेरी बुद्धि मोहग्रस्त हो चुकी थी किन्तु अब मेरी चेतना को कभी इतनी अशुद्ध न होने दें।

9 हे दिव्य प्रभु, आप इस जगत में उन सेनापतियों को विनष्ट करने के लिए अवतरित होते हैं, जो पृथ्वी का भार बढ़ाते हैं और अनेक भीषण उत्पात मचाते हैं। हे प्रभु, उसी के साथ साथ आप उन लोगों के कल्याण के लिये कर्म करते हैं, जो श्रद्धापूर्वक आपके चरणकमलों की सेवा करते हैं।

10 सर्वव्यापी तथा सबों के हृदयों में निवास करने वाले हे परमात्मा, आपको मेरा नमस्कार। हे यदुकुलश्रेष्ठ, आपको मेरा नमस्कार।

11 अपने भक्तों की इच्छा के अनुसार दिव्य शरीर धारण करने वाले, शुद्ध चेतना रूप, सर्वस्व, समस्त वस्तुओं के बीज तथा समस्त प्राणियों के आत्मा रूप आपको मैं नमस्कार करता हूँ।

12 हे प्रभु, जब मेरा यज्ञ भंग हो गया, तो मैं मिथ्या अहंकार के कारण बहुत क्रुद्ध हुआ। मैंने घनघोर वर्षा तथा वायु के द्वारा आपके ग्वाल समुदाय को विनष्ट कर देना चाहा।

13 हे प्रभु, मेरे मिथ्या अहंकार को चकनाचूर करके तथा मेरे प्रयास (वृन्दावन को दण्डित करने का) को पराजित करके आपने मुझ पर दया दिखाई है। अब मैं, परमेश्वर, गुरु तथा परमात्मा रूप आपकी शरण में आया हूँ। 

14 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार इन्द्र द्वारा वन्दित होकर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण हँसे और तब बादलों की गर्जना जैसी गम्भीर वाणी में उससे इस प्रकार बोले।

15 भगवान ने कहा: हे इन्द्र, मैंने तो दयावश ही तुम्हारे निमित्त होने वाले यज्ञ को रोक दिया था। तुम स्वर्ग के राजा के अपने ऐश्वर्य से अत्यधिक उन्मत्त हो चुके थे और मैं चाहता था कि तुम सदैव मेरा स्मरण कर सको।

16 अपनी शक्ति तथा ऐश्वर्य के नशे में उन्मत्त मनुष्य मुझे अपने हाथ में दण्ड का डंडा लिये हुए अपने निकट नहीं देख पाता। यदि मैं उसका वास्तविक कल्याण चाहता हूँ तो मैं उसे भौतिक सौभाग्य के पद से नीचे घसीट देता हूँ।

17 हे इन्द्र, अब तुम जा सकते हो। मेरी आज्ञा का पालन करो और स्वर्ग के राज-पद पर बने रहो। किन्तु मिथ्या अभिमान से रहित होकर गम्भीर बने रहना।

18 तब अपनी सन्तान गौवों समेत माता सुरभि ने भगवान कृष्ण को नमस्कार किया। उनसे ध्यान देने के लिये सादर प्रार्थना करते हुए उस भद्र नारी ने भगवान को, जो उसके समक्ष ग्वालबाल के रूप में उपस्थित थे, सम्बोधित किया।

19 माता सुरभि ने कहा: हे कृष्ण, हे कृष्ण, हे योगियों में श्रेष्ठ, हे विश्व की आत्मा तथा उद्गम आप विश्व के स्वामी हैं और हे अच्युत, आपकी ही कृपा से हम सबों को आप जैसा स्वामी मिला है।

20 आप हमारे आराध्य देव हैं। अतएव हे जगतपति, गौवों, ब्राह्मणों, देवताओं एवं सारे सन्त पुरुषों के लाभ हेतु आप हमारे इन्द्र बनें।

21 ब्रह्माजी के आदेशानुसार हम इन्द्र के रूप में आपका राज्याभिषेक करेंगी। हे विश्वात्मा, आप पृथ्वी का भार उतारने के लिए इस संसार में अवतरित होते हैं।

22-23 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान कृष्ण से इस तरह याचना करने के बाद माता सुरभि ने अपने दूध से उनका अभिषेक किया और इन्द्र ने अदिति तथा देवताओं की अन्य माताओं से आदेश पाकर अपने हाथी ऐरावत की सूँड से आकाशगंगा के जल से भगवान का जलाभिषेक किया। इस तरह देवताओं तथा ऋषियों की संगति में इन्द्र ने दशार्ह वंशज भगवान कृष्ण का राज्याभिषेक किया और उनका नाम गोविन्द रखा।

24 वहाँ पर तुम्बुरु, नारद तथा विद्याधरों, सिद्धों और चारणों समेत अन्य गन्धर्वगण समस्त जगत को शुद्ध करने वाले भगवान हरि के यश का गुणगान करने आये और देवताओं की पत्नियाँ हर्ष से भरकर भगवान के सम्मान में एकसाथ नाचीं।

25 सर्वप्रमुख देवताओं ने भगवान की प्रशंसा की और उन पर चारों ओर से फूलों की अद्भुत वर्षा की। इससे तीनों लोकों को परम सन्तोष का अनुभव हुआ और गौवों ने अपने दूध से पृथ्वी के सतह भाग को सिक्त कर दिया।

26 नदियाँ विविध प्रकार के स्वादिष्ट द्रवों से युक्त होकर बहने लगी, वृक्षों ने मधु निकाल लिया, खाद्य पौधे बिना जोते ही परिपक्व हो उठे और पर्वतों ने अपने गर्भ में छिपी मणियों को बाहर निकाल दिया।

27 हे कुरुनन्दन परीक्षित, भगवान श्रीकृष्ण को अभिषेक कराने के बाद सभी जीवित प्राणी यहाँ तक कि जो स्वभाव के क्रूर थे, सर्वथा शत्रुतारहित बन गये।

28 गौवों तथा ग्वाल-जाति के स्वामी भगवान गोविन्द का अभिषेक करने के बाद इन्द्र ने भगवान की अनुमति लीं और देवताओं तथा उच्च प्राणियों से घिरकर वह अपने स्वर्ग-धाम को लौट गया।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय छब्बीस  - अद्भुत कृष्ण (10.26)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब गोपों ने गोवर्धन पर्वत उठाने जैसे कृष्ण के कार्यों को देखा तो वे विस्मित हो गये। उनकी दिव्य शक्ति को न समझ पाने के कारण वे नन्द महाराज के पास गये और इस प्रकार बोले।

2 ग्वालों ने कहा: जब यह बालक ऐसे अद्भुत कार्य करता है, तो फिर किस तरह हम जैसे संसारी व्यक्तियों के बीच उसने जन्म लिया? ऐसा जन्म तो उसके लिए घृणित लगेगा।

3 यह सात वर्ष का बालक किस तरह विशाल गोवर्धन पर्वत को खेल खेल में एक हाथ से उसी तरह उठाये रह सकता है, जिस तरह बलशाली हाथी कमल के फूल को उठा लेता है?

4 अभी इसने अपनी आँखें भी नहीं खोली थीं और निरा बच्चा ही था कि इसने बलशाली राक्षसी पूतना के स्तन का दूध पिया और उसी के साथ उसके प्राण चूस लिये जिस तरह काल की शक्ति मनुष्य के शरीर से यौवन को चूस लेती है।

5 एक बार कृष्ण तीन मास के छोटे शिशु थे, तो रो रहे थे और एक बड़े से छकड़े के नीचे लेटे हुए अपने पाँवों को ऊपर चला रहे थे। तभी यह छकड़ा गिरा और उलट गया क्योंकि उन्होंने अपने पाँव के अँगूठे से उस पर प्रहार किया था।

6 एक वर्ष की आयु में, जब वे शान्तिपूर्वक बैठे थे तो तृणावर्त नामक असुर उन्हें आकाश में उड़ा ले गया। किन्तु बालक कृष्ण ने उस असुर की गर्दन दबोच ली जिससे उसे महान पीड़ा हुई और इस तरह उसे मार डाला।

7 एक बार उनकी माता ने उन्हें रस्सियों से एक ऊखल से बाँध दिया क्योंकि माता ने उन्हें मक्खन चुराते पकड़ लिया था। तब वे अपने हाथों के बल रेंगते हुए उस ऊखल को दो अर्जुन वृक्षों के बीच खींच ले गये और उन वृक्षों को उखाड़ डाला।

8 अन्य समय जब वे बलराम तथा ग्वालबालों के साथ वन में गौवें चरा रहे थे तो राक्षस बकासुर उनको मार डालने की मंशा से वहाँ आया। किन्तु कृष्ण ने इस शत्रु राक्षस का मुँह (चोंच) पकड़ लिया और उसको चीर डाला।

9 कृष्ण को मार डालने की इच्छा से राक्षस वत्सासुर बछड़े का वेश बनाकर उनके बछड़ों के बीच घुस गया। किन्तु कृष्ण ने इस असुर को मार डाला और इसके शरीर से कैथे के वृक्षों से फल नीचे गिराने का खिलवाड़ किया।

10 भगवान बलराम समेत कृष्ण ने राक्षस धेनुकासुर तथा उसके सभी साथियों का वध किया और इस तरह तालवन जंगल को, जो पके हुए ताड़ फलों से भरापुरा था, सुरक्षित बनाया।

11 भीषण दैत्य प्रलम्बासुर को बलशाली भगवान बलराम द्वारा मरवाकर कृष्ण ने व्रज के ग्वालबालों तथा उनके पशुओं को दावानल (जंगल की आग) से बचाया।

12 कृष्ण ने अति विषैले नाग कालिय को दण्ड दिया और उसे विनीत बनाकर यमुना के सरोवर से बलपूर्वक निकाल बाहर किया। इस तरह भगवान ने उस नदी के जल को साँप के प्रचण्ड विष से मुक्त बनाया।

13 हे नन्द महाराज, हम तथा व्रज के सारे वासी क्योंकर आपके पुत्र के प्रति अपना निरन्तर स्नेह त्याग नहीं पा रहे हैं? और वे हम लोगों के प्रति स्वतः इतना आकृष्ट क्योंकर हैं?

14 कहाँ तो सात वर्ष का यह बालक और कहाँ उसके द्वारा विशाल गोवर्धन पर्वत का उठाया जाना, अतएव, हे व्रजराज, हमारे मन में आपके पुत्र के विषय में शंका उत्पन्न हो रही है।

15 नन्द महाराज ने उत्तर दिया: हे ग्वालो, जरा मेरी बातें सुनो और मेरे पुत्र के विषय में जो अपनी शंकाएँ हों उन्हें दूर कर दो। कुछ समय पहले गर्ग मुनि ने इस बालक के विषय में मुझसे इस प्रकार कहा था।

16 गर्ग मुनि ने कहा था: आपका पुत्र कृष्ण हर युग के अवतार के रूप में प्रकट होता है। भूतकाल में उसने तीन रंग – श्वेत, लाल तथा पीला धारण किये थे और अब वह श्यामवर्ण में प्रकट हुआ है।

17 अनेक कारणों से आपका यह सुन्दर पुत्र वसुदेव के पुत्र रूप में प्रकट हो चुका है। अतएव विद्वज्जन कभी कभी इस बालक को वासुदेव कहते हैं।

18 तुम्हारे इस पुत्र के अपने दिव्य गुणों तथा कर्मों के अनुसार अनेक रूप तथा नाम हैं। मैं उन्हें जानता हूँ किन्तु सामान्य जन उन्हें नहीं जानते हैं।

19 गोकुल के ग्वालों के दिव्य आनन्द में वृद्धि करने के लिए यह बालक सदैव तुम सबका कल्याण करेगा और उसकी कृपा से ही तुम लोग सारे कष्टों को पार कर सकोगे।

20 हे नन्द महाराज, इतिहास में यह अंकित है कि जब अनियमित तथा अक्षम सरकार थी; जब धर्मनिष्ठ लोग चोरों/डाकुओं द्वारा सताये जा रहे थे, तो यह बालक चोरों/डाकुओं का दमन करने तथा धर्मनिष्ठ लोगों की रक्षा करने के लिए प्रकट हुआ था।

21 देवतागण सदैव भगवान विष्णु के संरक्षण में रहते हैं अतएव असुरगण देवताओं को हानि नहीं पहुँचा सकते। इसी प्रकार सर्वमंगलमय कृष्ण से अनुरक्त कोई भी व्यक्ति या समूह शत्रुओं द्वारा पराजित नहीं किया जा सकता।

22 अतएव हे नन्द महाराज, आपका यह बालक नारायण जैसा है। यह अपने दिव्य गुण, ऐश्वर्य, नाम, यश तथा प्रभाव में बिल्कुल नारायण जैसा ही है। अतः इसके कार्यों से आपको चकित नहीं होना चाहिए।

23 नन्द महाराज ने कहा: जब गर्ग ऋषि ये शब्द कहकर अपने घर चले गये तो मैं विचार करने लगा कि जो कृष्ण हमें क्लेश से दूर रखता है, वह वास्तव में भगवान नारायण का अंश है।

24 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: नन्द महाराज द्वारा कहे गए गर्ग मुनि के कथन को सुनकर वृन्दावन के वासी परम प्रमुदित हुए। उनका विस्मय जाता रहा और उन्होंने आदरपूर्वक नन्द तथा भगवान कृष्ण की पूजा की।

25 अपना यज्ञ भंग किये जाने पर इन्द्र क्रोधित हुआ और उसने गोकुल पर वर्षा की तथा वज्रपात और तेज हवा के साथ साथ ओले गिराये जिनसे गौवों, पशुओं तथा स्त्रियों को अतीव कष्ट हुआ। जब दयालु प्रकृति वाले भगवान कृष्ण ने उन सबों की यह दशा देखी जिनकी उन्हें छोड़कर कोई दूसरी शरण नहीं थी तो वे मन्द-मन्द हँसने लगे और एक हाथ से उन्होंने गोवर्धन पर्वत को उठा लिया जिस तरह कोई छोटा सा बालक खेलने के लिए कुकुरमुत्ते को उखाड़ लेता है। इस तरह से उन्होंने ग्वाल समुदाय की रक्षा की। गौवों के स्वामी तथा इन्द्र के मिथ्या गर्व को खण्डित करने वाले वे ही गोविन्द हम सबों पर प्रसन्न हों।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय पच्चीस - कृष्ण द्वारा गोवर्धन - धारण (10.25)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा परीक्षित, जब इन्द्र को पता चला कि उसका यज्ञ सम्पन्न नहीं हुआ तो वह नन्द महाराज तथा अन्य गोपजनों पर क्रुद्ध हो गया क्योंकि वे सब कृष्ण को अपना स्वामी मान रहे थे।

2 क्रुद्ध इन्द्र ने ब्रह्माण्ड का विनाश करने वाले बादलों के समूह को भेजा जो सांवर्तक कहलाते हैं। वह अपने को सर्वोच्च नियन्ता मानते हुए इस प्रकार बोला।

3 इन्द्र ने कहा: जरा देखो तो सही कि जंगल में वास करने वाले ये ग्वाले अपने वैभव से किस तरह इतने उन्मत्त हो गये हैं। उन्होंने एक सामान्य मनुष्य कृष्ण की शरण ग्रहण की है और इस तरह उन्होंने देवताओं का अपमान किया है।

4 उनके द्वारा कृष्ण की शरण ग्रहण करना वैसा ही है जैसा कि लोगों द्वारा दिव्य आत्म-ज्ञान को त्यागकर सकाम कर्ममय यज्ञों की मिथ्या नावों में चढ़कर इस महान भवसागर को पार करने का मूर्खतापूर्ण प्रयास होता है।

5 इन ग्वालों ने कृष्ण की शरण ग्रहण करके मेरे प्रति शत्रुतापूर्ण कार्य किया है। कृष्ण अपने को अत्यन्त चतुर मानता है किन्तु है वह स्तब्ध, अज्ञम, तथा बातूनी बालक।

6 इन्द्र ने सांवर्तक मेघों से कहा: इन लोगों की सम्पन्नता ने इन्हें मदोन्मत्त बना दिया है और वे कृष्ण द्वारा सुरक्षित है। अब तुम जाओ, उनके पशुओं का विनाश कर दो और उनके गर्व को चूर कर दो।

7 मैं नन्द महाराज के ग्वालों के ग्राम को विध्वन्स करने के लिए, वेगवान एवं शक्तिशाली वायुदेवों को लेकर, अपने हाथी ऐरावत पर सवार होकर तुम लोगों के पीछे रहूँगा।

8 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इन्द्र के आदेश से प्रलयकारी मेघ समय से पूर्व अपने बन्धनों से मुक्त होकर नन्द महाराज के चारागाहों पर गये, वहाँ वे व्रजवासियों पर मूसलाधार वर्षा करके उन्हें सताने लगे।

9 भयानक वायुदेवों द्वारा उत्प्रेरित बादल बिजली की चमक से प्रज्ज्वलित हो उठे और ओलों की वर्षा करते हुए कड़कड़ाहट के साथ गरजने लगे।

10 जब बादलों ने बड़े-बड़े खम्भों जैसी मोटी वर्षा की धाराएँ गिराई तो पृथ्वी बाढ़ से जलमग्न हो गई और ऊँची या नीची भूमि का पता नहीं चल पा रहा था।

11 अत्यधिक वर्षा तथा हवा के कारण, शीत से पीड़ित ग्वाले तथा गोपियाँ, काँपती हुई गौवें तथा अन्य पशु शरण के लिए गोविन्द के पास पहुँचे।

12 भीषण वर्षा से उत्पन्न पीड़ा से काँपती तथा अपने सिरों और अपने बछड़ों को अपने शरीरों से ढकने का प्रयास करती हुई गौवें भगवान के चरणकमलों में जा पहुँचीं।

13 गोपों तथा गोपियों ने भगवान को सम्बोधित करते हुए कहा: हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे प्रभु! आप अपने भक्तों पर वत्सल हैं। कृपया इन्द्र के क्रोध से हमें बचा लें।

14 ओलों तथा तेज वायु के प्रहार से अचेत हुए जैसे गोकुलवासियों को देखकर भगवान हरि समझ गये कि यह कुपित इन्द्र की करतूत है।

15 श्रीकृष्ण ने अपने आप कहा: चूँकि हमने उसका यज्ञ रोक दिया है, अतः इन्द्र अति प्रचण्ड हवा और ओलों के साथ घनघोर एवं बिना ऋतु की वर्षा कर रहा है।

16 मैं अपनी योगशक्ति से इन्द्र द्वारा उत्पन्न इस उत्पात का पूरी तरह सामना करूँगा। इन्द्र जैसे देवता अपने ऐश्वर्य का घमण्ड करते हैं और मूर्खतावश वे झूठे ही अपने को ब्रह्माण्ड का स्वामी समझने लगते हैं, मैं इस अज्ञान को नष्ट कर दूँगा।

17 चूँकि देवता सतोगुण से युक्त होते हैं अतः अपने को स्वामी मानने का मिथ्या अभिमान उनमें बिल्कुल नहीं आना चाहिए। जब मैं सतोगुण से विहीन उनके मिथ्या अभिमान को भंग करता हूँ तो मेरा उद्देश्य उन्हें इस मिथ्या अभिमान से मुक्ति दिलाना होता है।

18 मैंने अपने भक्तों की रक्षा का व्रत ले रखा है। मैं गोप समुदाय का एकमात्र आश्रय तथा स्वामी हूँ अतएव मुझे अपनी दिव्यशक्ति से गोप समुदाय की रक्षा करनी चाहिए।

19 यह कहकर साक्षात विष्णु अर्थात श्रीकृष्ण ने एक हाथ से गोवर्धन पर्वत को ऊपर उठा लिया जिस प्रकार कोई बालक कुकुरमुत्ते को उखाड़कर हाथ में ले लेता है।

20 तत्पश्चात भगवान ने गोप समुदाय को सम्बोधित किया; हे मैया, हे पिताश्री, हे व्रजवासियों, तुम सब अपनी गौवों समेत इस पर्वत के नीचे आ जाओ।

21 तुम्हें डरना नहीं चाहिए कि यह पर्वत मेरे हाथ से छूटकर गिर जायेगा। न ही तुम लोग हवा तथा वर्षा से भयभीत होओ क्योंकि इन कष्टों से तुम्हारे छुटकारे की व्यवस्था पहले ही की जा चुकी है।

22 इस प्रकार भगवान कृष्ण द्वारा उनके मन आश्वस्त किये गये और वे सभी पर्वत के नीचे आ गये, जहाँ उन्हें अपने लिए तथा अपनी गौवों, छकड़ों, सेवकों तथा पुरोहितों के लिए और साथ ही साथ समुदाय के अन्य सदस्यों के लिए पर्याप्त स्थान मिल गया।

23 भगवान कृष्ण पर्वत को धारण किये हुए सात दिनों तक खड़े रहे। सारे व्रजवासी भूख तथा प्यास भूलकर और अपनी सारी व्यक्तिगत सुविधाओं को त्याग कर उन्हें निहारते रहे।

24 जब इन्द्र ने कृष्ण की योगशक्ति के इस प्रदर्शन को देखा तो वह आश्चर्यचकित हो उठा। अपने मिथ्या गर्व के चूर होने तथा अपने संकल्पों के नष्ट होने से उसने बादलों को थम जाने का आदेश दिया।

25 यह देखकर कि अब भीषण हवा तथा वर्षा बन्द हो गई है, आकाश बादलों से रहित हो चुका है और सूर्य उदित हो आया है, गोवर्धनधारी कृष्ण ग्वाल समुदाय से इस प्रकार बोले।

26 भगवान कृष्ण ने कहा: हे गोपजनों, अब अपनी पत्नियों, बच्चों तथा सम्पदाओं समेत बाहर निकल जाओ। अपना भय त्याग दो। तेज हवा तथा वर्षा रुक गई है और नदियों की बाढ़ का पानी उतर गया है।

27 अपनी अपनी गौवें समेट कर तथा अपनी सारी साज-सामग्री, छकड़ों में लाद कर सारे गोपजन बाहर चले आये। स्त्रियाँ, बच्चे तथा वृद्ध पुरुष धीरे धीरे उनके पीछे चल पड़े।

28 सारे प्राणियों के देखते-देखते भगवान ने पर्वत को उसके मूल स्थान पर रख दिया, जिस प्रकार वह पहले खड़ा था।

29 वृन्दावन के सारे निवासी प्रेम से अभिभूत थे। उन्होंने आगे बढ़कर अपने अपने सम्बन्ध के अनुसार श्रीकृष्ण को बधाई दी – किसी ने उनको गले लगाया, तो कोई उनके समक्ष नतमस्तक हुआ इत्यादि-इत्यादि। गोपियों ने सम्मान के प्रतीकस्वरूप उन्हें दही तथा अक्षत, जौ मिलाया हुआ जल अर्पित किया। उन्होंने कृष्ण पर आशीर्वादों की झड़ी लगा दी।

30 माता यशोदा, रोहिणी, नन्द महाराज तथा बलिष्ठों में सर्वश्रेष्ठ बलराम ने कृष्ण को गले लगाया। स्नेहाभिभूत होकर उन सबने कृष्ण को अपने-अपने आशीर्वाद दिये।

31 हे राजन, स्वर्ग में सिद्धों, साध्यों, गन्धर्वों तथा चारणों समेत सारे देवताओं ने भगवान कृष्ण का यशोगान किया और उन पर फूलों की वर्षा की।

32 हे परीक्षित, देवताओं ने स्वर्ग में जोर-जोर से शंख तथा दुन्दुभियाँ बजाईं और तुम्बुरु इत्यादि श्रेष्ठ गन्धर्व गीत गाने लगे।

33 अपने प्रेमी ग्वालमित्रों तथा भगवान बलराम से घिरे कृष्ण उस स्थान पर गये जहाँ वे अपनी गौवें चरा रहे थे। अपने हृदयों को स्पर्श करने वाले श्रीकृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत के उठाये जाने तथा उनके द्वारा सम्पन्न किये गये यशस्वी कार्यों के विषय में सारी गोपियाँ प्रसन्नतापूर्वक गीत गाती हुई, अपने घरों को लौट गईं।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय चौबीस -- गोवर्धन-पूजा (10.24)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: उस स्थान पर अपने भाई बलदेव के साथ रहते हुए कृष्ण ने ग्वालों को इन्द्र-यज्ञ की जोर-शोर से तैयारी करते देखा।

2 परमात्मा होने से भगवान कृष्ण पहले से ही सारी स्थिति जानते थे फिर भी विनीत भाव से उन्होंने अपने पिता नन्द महाराज इत्यादि गुरुजनों से पूछा।

3 भगवान कृष्ण ने कहा: हे पिताश्री, कृपा करके मुझे बतलायें, कि आप इतना महत प्रयास किसलिए कर रहे हैं, आप क्या करना चाह रहे हैं, यदि यह कर्मकाण्डी यज्ञ है, तो यह किसकी तुष्टि हेतु किया जा रहा है और यह किन साधनों द्वारा सम्पन्न किया जायेगा?

4 मुझे यह जानने की बड़ी इच्छा है और मैं श्रद्धापूर्वक सुनने को तैयार हूँ। जो अन्यों को अपने तुल्य मानते हैं, जिनमें अपने तथा पराये का भेदभाव नहीं है, जो यह विचार नहीं करते कि कौन मित्र है, कौन शत्रु है और कौन उदासीन है, ऐसे सन्त पुरुषों को कुछ भी गोपनीय नहीं रखना चाहिए।

5 जो उदासीन (निरपेक्ष) होता है उससे शत्रु की तरह बचना चाहिए, किन्तु मित्र को अपने ही समान समझना चाहिए।

6 इस जगत में लोग कर्म करते हैं – कभी तो वे जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं और कभी नहीं जानते। जो लोग यह जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं उन्हें अपने कार्य में सफलता प्राप्त होती है, जबकि अज्ञानी लोगों को सफलता नहीं मिलती।

7 अतः आप मुझे इस अनुष्ठान के विषय में बतला दें। क्या यह उत्सव शास्त्रसम्मत है या केवल एक सामाजिक परम्परा?

8 नन्द महाराज ने उत्तर दिया: देवराज इन्द्र वर्षा के नियंत्रक हैं। ये बादल उनके प्रतिनिधि हैं और वर्षा करते हैं जिससे समस्त प्राणियों को सुख और जीवनदान मिलता है।

9 हे पुत्र, केवल हम ही नहीं अपितु अन्य लोग भी वर्षा करने वाले इन बादलों के स्वामी की पूजा करते हैं। हम उन्हें अन्न तथा अन्य पूजा-सामग्री भेंट करते हैं, जो वर्षा से उत्पन्न होती है।

10 इन्द्र के लिए सम्पन्न यज्ञों से बचे जूठन को ग्रहण करके लोग अपना जीवन-पालन करते हैं। इस प्रकार इन्द्र उद्यमी पुरुषों की, कृषि आदि सकाम कमों के फल प्रदाता हैं।

11 यह अनुष्ठान स्वस्थ परम्परा पर आधारित है। जो कोई कर्म, शत्रुता, भय या लोभ वश इसका पालन नहीं करता है उसे निश्चय ही सौभाग्य प्राप्त नहीं हो सकेगा।

12 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब भगवान केशव (कृष्ण) ने अपने पिता नन्द तथा व्रज के अन्य गुरुजनों के कथनों को सुना तो इन्द्र के लिये क्रोध उत्पन्न करने के उद्देश्य से, उन्होंने अपने पिता को इस प्रकार सम्बोधित किया।

13 भगवान कृष्ण ने कहा: कर्म से ही जीव जन्म लेता है और कर्म से ही उसका अन्त होता है। उसके सुख, दुख, भय तथा सुरक्षा की भावना का उदय कर्म के प्रभावों के रूप में होता है।

14 यदि कोई परम नियन्ता हो, जो अन्यों को उनके कर्मों का फल प्रदान करता हो, तो उसे भी कर्म करने वाले पर आश्रित रहना होगा। वस्तुतः जब तक सकाम कर्म सम्पन्न न हो लें, तब तक सकाम कर्मफलों के प्रदाता के अस्तित्व का प्रश्न ही नहीं उठता।

15 जीवों को अपने पूर्व कर्मों के परिणामों का अनुभव करने के लिए बाध्य किया जाता है। चूँकि इन्द्र किसी प्रकार से मनुष्यों के भाग्य को बदल नहीं सकते जो उनके स्वभाव से ही उत्पन्न होता है, तो फिर लोग उनकी पूजा क्यों करें?

16 प्रत्येक व्यक्ति अपने ही बद्ध स्वभाव के अधीन है और उसे उस स्वभाव का ही पालन करना चाहिए। देवताओं, असुरों तथा मनुष्यों से युक्त यह सम्पूर्ण जगत जीवों के बद्ध स्वभाव पर आश्रित है।

17 चूँकि कर्म के ही फलस्वरूप बद्धजीव उच्च तथा निम्न श्रेणी के विविध शरीरों को स्वीकार करता है और फिर त्याग देता है अतएव यह कर्म उसका शत्रु, मित्र तथा निरपेक्ष साक्षी है, उसका गुरु तथा ईश्वर है।

18 अतएव मनुष्य को चाहिए कि वह अपने स्वभाव से उत्पन्न कर्म का ही ठीक से पालन करे। मनुष्य को अपने स्वभाव के अनुरूप स्थिति में बने रहना चाहिए और अपने कर्तव्य का निर्वाह करना चाहिए। निस्सन्देह जिससे हम अच्छी तरह जीवन-यापन कर सकते हैं वही वास्तव में हमारा पूज्य अर्चाविग्रह है।

19 जो वस्तु वास्तव में हमारे जीवन का निर्वाह करती है यदि हम उसे छोड़कर अन्य वस्तु की शरण ग्रहण करते हैं, तो भला हमें असली लाभ कैसे प्राप्त हो सकता है? हम उस कृतघ्न स्त्री की भाँति होंगे जो जारपति के साथ प्रेमालाप करके कभी भी असली लाभ नहीं उठा पाती।

20 ब्राह्मण वेदों का अध्ययन और अध्यापन करके, शासक वर्ग का सदस्य पृथ्वी की रक्षा करके, वैश्य व्यापार करके तथा शूद्र अपने से ऊँची श्रेणी के द्विजों की सेवा करके अपना जीवन-निर्वाह करता है।

21 वैश्य के वृत्तिपरक कार्य हैं – कृषि, व्यापार, गोरक्षा तथा धन का लेन-देन। हम इनमें से केवल गोरक्षा में ही सदैव लगे रहे हैं।

22 सृजन, पालन तथा संहार का कारण प्रकृति के तीन गुण – सतो, रजो तथा तमोगुण – हैं। विशिष्टतः रजोगुण इस ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करता है और स्त्री पुरुष के संयोग द्वारा यह विविधता से पूर्ण बनता है।

23 रजोगुण द्वारा प्रेरित बादल सर्वत्र अपने जल की वर्षा करते हैं और इस वर्षा से ही सारे प्राणियों की जीविका चलती है। इस व्यवस्था से भला इन्द्र को क्या लेना-देना?

24 हे पिताश्री, हमारे घर न तो नगरों में हैं, न कस्बों या गाँवों में हैं। वनवासी होने से हम सदैव जंगल में तथा पर्वतों पर रहते हैं।

25 अतः गौवों, ब्राह्मणों तथा गोवर्धन पर्वत के आनन्द हेतु यज्ञ का शुभारम्भ हो। इन्द्र के पूजन के लिए जितनी सामग्री एकत्र की गई है उससे यह यज्ञ सम्पन्न किया जाय।

26 विविध पकवान-- खीर से लेकर तरकारी के शोरवे तक, पुड़ियाँ, पापड़ तथा दूध के जितने भी पदार्थ बन सकें उन्हें इस यज्ञ के लिए एकत्र कर लिया जाय।

27 वैदिक मंत्रों में पटु-ब्राह्मणों को चाहिए कि यज्ञ की अग्नियों का ठीक से आवाहन करें। तत्पश्चात तुम लोग पुरोहितों को उत्तम भोजन कराओ, उन्हें गौवें तथा अन्य भेंटें दान में दो।

28 कुकरों तथा चाण्डालों जैसे पतितात्माओं समेत हर एक को उपयुक्त भोजन देने के बाद तुम सबको चाहिए कि गौवों को घास दो और तब गोवर्धन पर्वत को अपनी सादर भेंटें चढ़ाओ।

29 भरपेट भोजन करने के बाद तुम सभी को वस्त्र तथा आभूषण से खूब सजना चाहिए, अपने शरीर में चन्दनलेप करना चाहिए और तत्पश्चात गौवों, ब्राह्मणों, यज्ञ की अग्नियों तथा गोवर्धन की प्रदक्षिणा करनी चाहिए।

30 हे पिताश्री! यह मेरा विचार है और यदि आपको अच्छा लगे तो आप इसे कीजिये। ऐसा यज्ञ गौवों, ब्राह्मणों तथा गोवर्धन पर्वत को एवं मुझको भी अत्यन्त प्रिय होगा।

31 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: शक्तिमान काल स्वरूप भगवान कृष्ण इन्द्र के मिथ्या गर्व को नष्ट करना चाहते थे। जब नन्द तथा वृन्दावन के अन्य वृद्धजनों ने श्रीकृष्ण का वचन सुना तो उन्होंने इसे प्रसन्नतापूर्वक मान लिया।

32-33 तत्पश्चात ग्वाल समुदाय ने मधुसूदन द्वारा प्रस्तावित अनुष्ठान पूर्ण किया। उन्होंने शुभ वैदिक मंत्रों का वाचन करने के लिए ब्राह्मणों की व्यवस्था की और इन्द्र-यज्ञ के निमित्त संग्रहित सारी सामग्री को उपयोग में लाते हुए गोवर्धन पर्वत तथा ब्राह्मणों को सादर भेंटें दीं। उन्होंने गौवों को घास दिया, तत्पश्चात गौवों, साँड़ों तथा बछड़ों को आगे करके गोवर्धन पर्वत की प्रदक्षिणा की।

34 ब्राह्मणों के आशीष के साथ बैलों द्वारा खींचे जा रहे छकड़ों में चढ़कर सुन्दर आभूषणों से अलंकृत गोपियाँ भी साथ हो लीं और कृष्ण की महिमा का गान करने लगीं।

35 तत्पश्चात कृष्ण ने गोपों में श्रद्धा उत्पन्न करने के लिए अभूतपूर्व विराट रूप धारण कर लिया और यह घोषणा करते हुए कि “मैं गोवर्धन पर्वत हूँ“ प्रचुर भेंटें खा लीं।

36 कृष्ण ने व्रजवासियों समेत गोवर्धन पर्वत के इस स्वरूप को नमन किया और इस तरह अपने को ही नमस्कार किया। तत्पश्चात उन्होंने कहा, “जरा देखो तो, यह पर्वत किस तरह पुरुष रूप में प्रकट हुआ है और इसने हम पर कृपा की है।“

37 यह गोवर्धन पर्वत इच्छानुसार रूप धारण करके, उपेक्षा करने वाले किसी भी वनवासी को नष्ट कर सकते हैं। अतः अपनी तथा गौवों की सुरक्षा के लिए हम उन्हें नमस्कार करें।

38 इस प्रकार भगवान वासुदेव द्वारा समुचित ढंग से गोवर्धन यज्ञ सम्पन्न करने के लिए प्रेरित किये गये गोपजन गौवें तथा ब्राह्मण कृष्ण के साथ अपने गाँव व्रज लौट आये।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय तेईस - ब्राह्मण-पत्नियों को आशीर्वाद (10.23)

1 ग्वालबालों ने कहा: हे महाबाहु राम, हे दुष्टदलन कृष्ण, हम सब भूख से त्रस्त हैं। इसके लिए आपको कुछ करना चाहिए।

2 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: ग्वालबालों द्वारा इस प्रकार प्रार्थना किये जाने पर देवकीपुत्र भगवान ने अपने कुछ भक्तों को जो कि ब्राह्मणपत्नियाँ थीं, प्रसन्न करने की इच्छा से इस प्रकार उत्तर दिया।

3 [भगवान कृष्ण ने कहा]: तुम लोग यज्ञशाला में जाओ जहाँ वैदिक आदेशों में निपुण ब्राह्मणों का एक समूह स्वर्ग जाने की इच्छा से इस समय आंगिरस यज्ञ कर रहा है।

4 हे ग्वालबालों, तुम वहाँ जाकर कुछ भोजन माँग लाओ। उनसे भगवान बलराम का तथा मेरा नाम बतलाना और कहना कि हमनें ही आप लोगों को भेजा है।

5 भगवान से यह आदेश पाकर ग्वालबालों ने वहाँ जाकर निवेदन किया। वे ब्राह्मणों के समक्ष विनयपूर्वक हाथ जोड़कर खड़े रहे और फिर भूमि पर लेटकर उन्हें नमस्कार किया।

6 [ग्वालबालों ने कहा]: हे पृथ्वी के देवताओं, हमें भगवान कृष्ण और भगवान बलराम ने यहाँ भेजा है। हम आपका कल्याण चाहते हैं। कृपया हमारी बात सुनें।

7 भगवान राम तथा भगवान अच्युत यहाँ से निकट ही अपनी गौवें चरा रहे हैं और वे चाहते हैं कि आप उन्हें अपने पास से कुछ भोजन दें। अतः हे ब्राह्मणों, हे धर्म के ज्ञाताओं में श्रेष्ठ, यदि आपकी श्रद्धा है, तो उनके लिए कुछ भोजन दे दें।

8 हे शुद्धतम ब्राह्मणों, यज्ञकर्ता की दीक्षा तथा वास्तविक पशु यज्ञ के मध्य की अवधि को छोड़कर तथा सौत्रामणि के अतिरिक्त अन्य यज्ञों में दीक्षित व्यक्ति के लिए भी भोजन करना दूषित नहीं है।

9 ब्राह्मणों ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की ओर से किये गये इस निवेदन को सुना, फिर भी उन्होंने इसको अनसुना कर दिया। वे क्षुद्र भावनाओं से पूरित थे और विस्तृत कर्मकाण्ड में लगे थे। यद्यपि वे वैदिक ज्ञान में अपने को बढ़ाचढ़ा मान रहे थे किन्तु वास्तव में वे अनुभवहीन थे।

10-11 यद्यपि यज्ञ करने की सारी सामग्री – स्थान, समय, विशेष सामग्री, मंत्र, अनुष्ठान, पुरोहित, अग्नि, देवता, यजमान, हवि तथा अभी तक के देखे गए लाभकारी परिणाम – ये सभी भगवान के ऐश्वर्य के विविध पक्ष हैं। ब्राह्मणों ने अपनी विकृत बुद्धि के कारण भगवान कृष्ण को सामान्य व्यक्ति के रूप में देखा। वे यह न समझ पाये कि वे परब्रह्म हैं, साक्षात भगवान हैं, जिन्हें भौतिक इन्द्रियाँ सामान्य रूप से अनुभव नहीं कर पातीं। अतः मर्त्य शरीर से अपनी झूठी पहचान करने से मोहित उन सबने भगवान के प्रति उचित सम्मान प्रदर्शित नहीं किया।

12 जब वे ब्राह्मण हाँ या ना में उत्तर नहीं दे पाये तो हे परन्तप (परीक्षित), सारे ग्वालबाल निराश होकर कृष्ण तथा राम के पास लौट आये और उनको यह बात बताई।

13 जो कुछ हुआ था उसे सुनकर ब्रह्माण्ड के स्वामी भगवान हँसने लगे। तत्पश्चात उन्होंने पुनः ग्वालबालों को इस जगत में जिस तरह लोग कर्म करते हैं उस मार्ग को दिखलाते हुए सम्बोधित किया।

14 भगवान कृष्ण ने कहा: ब्राह्मण पत्नियों से कहो कि मैं संकर्षण समेत यहाँ आया हूँ। वे अवश्य ही तुम्हें जितना भोजन चाहोगे उतना देंगी क्योंकि वे मेरे प्रति अत्यन्त स्नेहमयी हैं और वे अपनी बुद्धि से मुझमें ही निवास करती हैं।

15 तब ग्वालबाल उस घर में गये जहाँ ब्राह्मणपत्नियाँ ठहरी हुई थीं। वहाँ उन बालकों ने उन सती स्त्रियों को सुन्दर आभूषणों से अलंकृत होकर बैठे देखा। बालकों ने ब्राह्मण-पत्नियों को नमस्कार करते हुए विनीत भाव से उन्हें सम्बोधित किया।

16 ग्वालबालों ने कहा: हे ब्राह्मण-पत्नियों, आपको हमारा नमस्कार। कृपया हमारी बात सुनें। हमें भगवान कृष्ण ने यहाँ भेजा है, जो यहाँ से कुछ ही दूरी से होकर जा रहे हैं।

17 वे ग्वालबालों तथा बलराम के साथ गौवें चराते हुए बहुत दूर निकल आये हैं। उन्हें तथा उनके ग्वालबाल संगियों को भूख लगी है, अतः आप कुछ भोजन दे दें।

18 ब्राह्मण पत्नियाँ कृष्ण का दर्शन करने के लिए सदैव उत्सुक रहती थीं क्योंकि उनके मन भगवान की कथाओं से मुग्ध हो चले थे। अतः ज्योंही उन्होंने सुना कि कृष्ण आये हैं, वे अत्यन्त उतावली हो उठीं।

19 बड़े बड़े पात्रों में उत्तम स्वाद तथा सुगन्ध से पूर्ण चारों प्रकार का भोजन लेकर सारी स्त्रियाँ उसी तरह आगे बढ़ चलीं जिस तरह नदियाँ समुद्र की ओर बहती हैं।

20-21 यद्यपि उनके पतियों, भाइयों, पुत्रों तथा अन्य सम्बन्धियों ने उन्हें जाने से रोका किन्तु कृष्ण के दिव्य गुणों का दीर्घकाल से श्रवण करते रहने से कृष्ण को देखने की उनकी आशा विजयी हुई। उन्होंने यमुना नदी के किनारे अशोक वृक्षों की कोपलों से सुशोभित एक बगीचे में ग्वालबालों तथा अपने बड़े भाई बलराम के साथ विचरण करते हुए कृष्ण को देखा।

22 उनका रंग श्यामल था और वस्त्र सुनहले थे। वे मोरपंख, रंगीन खनिज, फूल की कलियों का गुच्छा तथा जंगल के फूलों और पत्तियों की वनमाला धारण किये हुए नाटक के नर्तक की भाँति वेश बनाये थे। वे अपना एक हाथ अपने मित्र के कंधे पर रखे थे और दूसरे से कमल का फूल घूमा रहे थे। उनके कानों में कुमुदिनियाँ सुशोभित थीं, उनके बाल गालों पर लटक रहे थे और उनका कमल सदृश मुख हँसी से युक्त था।

23 हे नरेन्द्र, उन ब्राह्मणपत्नियों ने दीर्घकाल से अपने प्रिय कृष्ण के विषय में सुन रखा था और उनका यश उनके कानों का स्थायी आभूषण बन चुका था। उनके मन सदैव उन्हीं में लीन रहते थे। अब उन्होंने अपने नेत्रों के छिद्रों से होकर उन्हें अपने हृदय में प्रविष्ट कर लिया और फिर दीर्घकाल तक अपने हृदय के भीतर उनका आलिंगन करती रहीं। इस तरह अन्ततः उनकी वियोग-पीड़ा उसी प्रकार जाती रही जिस प्रकार कि मुनिगण अपने अन्तःकरण का आलिंगन करने से मिथ्या अहंकार की चिन्ता त्याग देते हैं।

24 समस्त प्राणियों के विचारों के साक्षी भगवान कृष्ण यह समझ गये कि किस तरह अपनी सारी सांसारिक आशाओं का परित्याग करके ये स्त्रियाँ केवल उन्हें ही देखने आई हैं। अतः अपने मुख पर हँसी लाते हुए उनसे उन्होंने इस प्रकार कहा।

25 भगवान कृष्ण ने कहा: हे परम भाग्यशालिनी नारियों, स्वागत है। कृपया आराम से बैठें। मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ? आप मुझे देखने के लिए यहाँ आईं – यह आप जैसे प्रेमपूर्ण हृदय वालों के योग्य ही है ।

26 निश्चय ही कुशल लोग, जो अपने असली लाभ को देख सकते हैं, वे मेरी अहैतुकी तथा अविच्छिन्न भक्ति करते हैं क्योंकि मैं आत्मा को सर्वाधिक प्रिय हूँ।

27 आत्मा के सम्पर्क से ही जीव का प्राण, बुद्धि, मन, मित्रगण, शरीर, पत्नी, सन्तान, सम्पत्ति इत्यादि उसे प्रिय लगते हैं। अतएव अपने आपसे बढ़कर कौन सी वस्तु अधिक प्रिय हो सकती है?

28 अतएव तुम लोग यज्ञस्थल को लौट जाओ क्योंकि तुम्हारे पति, जो कि विद्वान ब्राह्मण हैं, गृहस्थ हैं और उन्हें अपने-अपने यज्ञ सम्पन्न करने के लिए तुम्हारे सहयोग की आवश्यकता है।

29 ब्राह्मण पत्नियों ने उत्तर दिया: हे विभो, आप ऐसे कटु वचन न कहें। आपको चाहिए कि आप अपने उस वचन को पूरा करें कि आप अपने भक्तों को सदैव प्रतिदान करते हैं। चूँकि अब हम आपके चरणों को प्राप्त हैं, अतः हम इतना ही चाहती हैं कि हम वन में ही रहती जाएँ जिससे हम तुलसी-दल की उन मालाओं को अपने सिरों पर धारण कर सकें जिन्हें आप उपेक्षापूर्वक अपने चरणकमलों से ठुकरा देते हैं। हम अपने सारे भौतिक सम्बन्ध त्यागने को तैयार हैं।

30 अब हमारे पति, माता-पिता, पुत्र, भाई, अन्य सम्बन्धी तथा मित्र हमें वापस नहीं लेंगे और अन्य कोई हमें किस तरह शरण देने को तैयार हो सकेगा? क्योंकि अब हमने अपने मन को आपके चरणकमलों पर स्थिर कर दिया है और हमारा कोई अन्य गन्तव्य नहीं हैं अतएव हे अरिन्दम, हमारी इच्छा पूरी कीजिये ।

31 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने उत्तर दिया: तुम यह विश्वास करो कि न तो तुम्हारे पतिगण तुम लोगों के प्रति शत्रुभाव रखेंगे न ही तुम्हारे पिता, भाई, पुत्र, अन्य सम्बन्धी-जन या आम जनता। मैं स्वयं उन्हें सारी स्थिति समझा दूँगा। यहाँ तक कि देवतागण भी अपना अनुमोदन व्यक्त करेंगे।

32 तुम सबों का मेरे शारीरिक सान्निध्य में रहना निश्चय ही इस जगत के लोगों को अच्छा नहीं लगेगा, न ही इस प्रकार से तुम मेरे प्रति अपने प्रेम को ही बढ़ा सकोगी। तुम्हें चाहिए कि तुम अपने मन को मुझपर स्थिर करो और इस तरह शीघ्र ही तुम मुझे पा सकोगी।

33 मेरे विषय में सुनने, मेरे अर्चाविग्रह स्वरूप का दर्शन करने, मेरा ध्यान धरने तथा मेरे नामों एवं महिमाओं का कीर्तन करने से ही मेरे प्रति प्रेम बढ़ता है, भौतिक सान्निध्य से नहीं। अतएव तुम लोग अपने घरों को लौट जाओ।

34 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह आज्ञा पाकर ब्राह्मणपत्नियाँ यज्ञस्थल पर लौट गईं। ब्राह्मणों ने अपनी पत्नियों में कोई दोष नहीं निकाला और उन्होंने उनके साथ-साथ यज्ञ पूरा किया।

35 उनमें से एक महिला को उसके पति ने जबरदस्ती रोक रखा था। जब उसने अन्यों के मुख से भगवान कृष्ण का वर्णन सुना तो उसने अपने हृदय के भीतर उनका आलिंगन किया और वह भौतिक शरीर त्याग दिया जो भवबन्धन का कारण है।

36 भगवान गोविन्द ने ग्वालबालों को वह चार प्रकार का भोजन कराया। तत्पश्चात सर्वशक्तिमान भगवान ने भी उन व्यंजनों को खाया।

37 इस तरह अपनी लीलाएँ सम्पन्न करने के लिए मनुष्य रूप में प्रकट होकर भगवान ने मानव समाज की रीतियों का अनुकरण किया। उन्होंने अपनी गौवों, ग्वालमित्रों तथा गोपियों को अपने सौन्दर्य, वाणी तथा कर्मों से प्रमुदित करते हुए आनन्द भोग किया।

38 तब ब्राह्मणों को चेत हुआ तो वे बहुत अत्यधिक पछताने लगे। उन्होंने सोचा, “हमसे बहुत पाप हुआ है क्योंकि हमने सामान्य मनुष्य के वेश में प्रकट हुए ब्रह्माण्ड के दो स्वामियों को नहीं पहचाना ।"

39 अपनी पत्नियों की पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण के प्रति दिव्य भक्ति और अपने को उस भक्ति से विहीन देखकर उन ब्राह्मणों को अतीव खेद हुआ और वे अपने आपको धिक्कारने लगे।

40 ब्राह्मणों ने कहा:धिक्कार है हमारे तिबारा जन्म को, हमारे ब्रह्मचर्य तथा हमारी विपुल विद्वत्ता को, धिक्कार है हमारे उच्च कुल तथा यज्ञ-अनुष्ठान में हमारी निपुणता को! इन सबको धिक्कार है क्योंकि हम भगवान से विमुख हैं।"

41 भगवान की मायाशक्ति बड़े बड़े योगियों को मोह लेती है, तो हमारी क्या बिसात! ब्राह्मण होने के नाते हम सभी जाति के लोगों के आध्यात्मिक गुरु माने जाते हैं फिर भी हम अपने सच्चे स्वार्थ के बारे में मोहित हो गये हैं।

42 जरा इन स्त्रियों के असीम प्रेम को तो देखो जो इन्होंने अखिल विश्व के आध्यात्मिक गुरु भगवान के प्रति उत्पन्न कर रखा है। इस प्रेम ने गृहस्थ जीवन के प्रति उनकी आसक्ति – मृत्यु के बन्धन – को छिन्न कर दिया है।

43-44 इन स्त्रियों ने न तो द्विजों के शुद्धिकरण संस्कार कराये हैं, न ही किसी आध्यात्मिक गुरु के आश्रम में ब्रह्मचारियों का जीवन बिताया है, न इन्होंने कोई तपस्या की है या आत्मा के विषय में मनन किया है या स्वच्छता की औपचारिकताओं का निर्वाह अथवा पावन अनुष्ठानों में अपने को लगाया है। तो भी इनकी दृढ़ भक्ति उन भगवान कृष्ण के प्रति है जिनका यशोगान वैदिक मंत्रों द्वारा किया जाता है और जो योगेश्वरों के भी ईश्वर हैं और दूसरी ओर हम हैं जिन्होंने भगवान की कोई भक्ति नहीं की यद्यपि हमने इन सारी विधियों को सम्पन्न किया है।

45 निस्सन्देह हम लोग गृहकार्यों में व्यस्त रहने के कारण अपने जीवन के असली लक्ष्य से पूरी तरह विपथ हो गये हैं। किन्तु अब जरा देखो तो कि भगवान ने किस तरह इन सीधे-सादे ग्वालबालों के शब्दों से हमें समस्त सच्चे ब्रह्मवादियों के चरम गन्तव्य का स्मरण दिलाया है।

46 अन्यथा पूर्ण काम, मोक्ष तथा दिव्य आशीर्वादों के स्वामी परम नियन्ता हमारे साथ यह विडम्बना क्यों करते? हम तो सदैव उन्हीं के नियंत्रण में रहने के लिए ही हैं।

47 लक्ष्मीजी उनके चरणकमलों का स्पर्श पाने की आशा में सबकुछ एक ओर रखकर तथा अपना गर्व और चंचलता त्यागकर एकमात्र उन्हीं की पूजा करती हैं। ऐसे भगवान यदि याचना करते हैं, तो यह अवश्य ही सबों को मोहित करने वाली बात है।

48-49 यज्ञ के सारे पक्ष – शुभ स्थान तथा समय, साज-सामग्री की विविध वस्तुएँ, वैदिक मंत्र, अनुष्ठान, पुरोहित तथा यज्ञ की अग्नियाँ, देवता, यज्ञ-अधिष्ठाता, यज्ञ-हवि तथा प्राप्त होने वाले शुभ फल–ये सभी उन्हीं के ऐश्वर्य की अभिव्यक्तियाँ हैं। यद्यपि हमने योगेश्वरों के ईश्वर, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान विष्णु के विषय में यह सुन रखा था कि उन्होंने यदुवंश में जन्म ले लिया है किन्तु हम इतने मूर्ख थे कि श्रीकृष्ण को साक्षात भगवान नहीं समझ पाये।

50 हम उन भगवान श्रीकृष्ण को नमस्कार करते हैं, जिनकी बुद्धि कभी भी मोहग्रस्त नहीं होती और हम हैं कि मायाशक्ति द्वारा मोहित होकर सकाम कर्म के मार्गों पर भटक रहे हैं।

51 हम भगवान की मायाशक्ति से मोहग्रस्त थे अतएव हम आदि भगवान के रूप में उनके प्रभाव को नहीं समझ सके। अब हमें आशा है कि वे कृपापूर्वक हमारे अपराध को क्षमा कर देंगे।

52 इस प्रकार कृष्ण की उपेक्षा करने से उनके द्वारा जो अपराध हुआ था उसका स्मरण करते हुए उनका दर्शन करने के लिए वे अति उत्सुक हो उठे। किन्तु कंस से भयभीत होने के कारण उन्हें व्रज जाने का साहस नहीं हुआ।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय बाईस - कृष्ण द्वारा अविवाहिता गोपियों का चीरहरण (10.22)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हेमन्त ऋतु के पहले मास में गोकुल की अविवाहिता लड़कियों ने कात्यायनी देवी का पूजा-व्रत रखा। पूरे मास उन्होंने बिना मसाले की खिचड़ी खाई।

2-3 हे राजन, सूर्योदय होते ही यमुना के जल में स्नान करके वे गोपियाँ नदी के तट पर देवी दुर्गा का मिट्टी का अर्चाविग्रह बनातीं। तत्पश्चात वे चन्दन लेप जैसी सुगन्धित सामग्री, महँगी और साधारण वस्तुओं यथा दीपक, फल, सुपारी, कोपलों तथा सुगन्धित मालाओं और अगरु के द्वारा उनकी पूजा करती।

4 प्रत्येक अविवाहिता लड़की ने निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुए उनकी पूजा की: “हे देवी कात्यायनी, हे महामाया, हे महायोगिनी, हे अधीश्वरी आप महाराज नन्द के पुत्र को मेरा पति बना दें, मैं आपको नमस्कार करती हूँ।"

5 इस प्रकार उन लड़कियों ने पूरे मास अपना व्रत रखा और अपने मन को कृष्ण में पूर्णतया लीन करते हुए इस विचार पर ध्यान लगाये रखा कि "राजा नन्द का पुत्र मेरा पति बने" इस प्रकार से देवी भद्रकाली की पूजा की।

6 प्रतिदिन वे बड़े तड़के उठतीं। एक-दूसरे का नाम ले लेकर वे सब हाथ पकड़कर स्नान के लिए कालिन्दी जाते हुए कृष्ण की महिमा का जोर जोर से गायन करती।

7 एक दिन वे नदी के तट पर आईं और पहले की भाँति अपने वस्त्र उतारकर जल में क्रीड़ा करने लगीं और कृष्ण के यश का गान करने लगीं।

8 योगेश्वरों के भी ईश्वर भगवान कृष्ण इस बात से अवगत थे कि गोपियाँ क्या कर रही हैं अतएव वे अपने समवयस्क संगियों के साथ गोपियों को उनकी साधना का फल देने गये।

9 लड़कियों के वस्त्र उठाकर वे तेजी से कदम्ब वृक्ष की चोटी पर चढ़ गये। तत्पश्चात जब वे जोर से हँसे तो उनके साथी भी हँस पड़े और उन्होंने उन लड़कियों से ठिठोली करते हुए कहा।

10 [भगवान कृष्ण ने कहा]: हे लड़कियों, तुम चाहो तो एक एक करके यहाँ आओ और अपने वस्त्र वापस ले जाओ। मैं तुम लोगों से सच कह रहा हूँ। मैं मजाक नहीं कर रहा हूँ क्योंकि मैं देख रहा हूँ कि तुम लोग तपस्यापूर्ण व्रत करने से थक गई हो।

11 मैंने पहले कभी झूठ नहीं बोला और ये बालक इसे जानते हैं। अतएव हे क्षीण कटिवाली बालाओं, या तो एक एक करके या फिर सभी मिलकर इधर आओ और अपने वस्त्र उठा ले जाओ।

12 यह देखकर कि कृष्ण उनसे किस तरह ठिठोली कर रहे हैं, गोपियाँ उनके प्रेम में पूरी तरह निमग्न हो गईं और उलझन में होते हुए भी एक दूसरे की ओर देख-देखकर हँसने तथा परस्पर परिहास करने लगीं। लेकिन तो भी वे जल से बाहर नहीं आईं।

13 जब श्री गोविन्द इस तरह बोले तो गोपियों के मन उनकी मज़ाकिया वाणी (परिहास) से पूरी तरह मुग्ध हो गये। वे ठंडे जल में गले तक धँसी रहकर काँपने लगीं। अतः वे उनसे इस प्रकार बोलीं।

14 [गोपियों ने कहा]: हे कृष्ण, अन्यायी मत बनो, हम जानती हैं कि तुम नन्द के माननीय पुत्र हो और व्रज का हर व्यक्ति तुम्हारा सम्मान करता है। हमें भी तुम अत्यन्त प्रिय हो। कृपा करके हमारे वस्त्र लौटा दो। हम ठंडे जल में काँप रही हैं।

15 हे श्यामसुन्दर, हम तुम्हारी दासियाँ हैं और तुम जो भी कहोगे करेंगी। किन्तु हमारे वस्त्र हमें लौटा दो। तुम धार्मिक नियमों के ज्ञाता हो और तुम यदि हमें हमारे वस्त्र नहीं दोगे, तो हम राजा से कह देंगी। मान जाओ।

16 भगवान ने कहा: यदि तुम सचमुच मेरी दासियाँ हो और मैं जो कहता हूँ उसे वास्तव में करोगी तो फिर अपनी अबोध भाव से मुस्कान भरकर यहाँ आओ और अपने-अपने वस्त्र चुन लो। यदि तुम मेरे कहने के अनुसार नहीं करोगी तो मैं तुम्हारे वस्त्र वापस नहीं दूँगा और यदि राजा नाराज भी हो जाये तो वह मेरा क्या बिगाड़ सकता है?

17 तत्पश्चात कड़ाके की शीत से काँपती सारी युवतियाँ अपने-अपने हाथों से अपने अंग ढके हुए जल के बाहर निकलीं।

18 जब भगवान ने देखा कि गोपियाँ किस तरह विह्वल हैं, तो वे उनके शुद्ध प्रेमभाव से संतुष्ट हो गये। उन्होंने अपने कंधे पर उनके वस्त्र उठा लिए और हँसते हुए उनसे बड़े ही स्नेहपूर्वक बोले।

19 [भगवान कृष्ण ने कहा]: तुम सबों ने अपना व्रत रखते हुए विवस्त्र होकर स्नान किया है, जो कि देवताओं के प्रति अपराध है। अतः इसके निराकरण के लिए तुम दोनों हाथ जोड़कर मुझे नमस्कार करो। तभी तुम्हें तपस्या का पूरा फल प्राप्त होगा।

20 इस तरह वृन्दावन की उन युवतियों ने कृष्ण द्वारा कहे गये वचनों पर विचार करके यह मान लिया कि नदी में विवस्त्र स्नान करने से वे अपने व्रत से पतित हुई हैं। किन्तु तो भी वे अपना व्रत पूरा करना चाहती थीं और चूँकि भगवान कृष्ण समस्त पुण्य कर्मों के प्रत्यक्ष चरम फल हैं अतः अपने पापों को धो डालने के उद्देश्य से उन्होंने कृष्ण को नमस्कार किया।

21 उन्हें इस प्रकार नमस्कार करते देखकर देवकी पुत्र भगवान ने उन पर करुणा करके तथा उनके कार्य से संतुष्ट होकर वस्त्र लौटा दिये।

22 यद्यपि गोपियाँ बुरी तरह ठगी जा चुकी थीं, उनके शील-संकोच से उन्हें वंचित किया जा चुका था, उन्हें कठपुतलियों की तरह नचाया गया था और उनका उपहास किया गया था और यद्यपि उनके वस्त्र चुराये गये थे किन्तु उनके मन में श्रीकृष्ण के प्रति रंच-भर भी प्रतिकूल भाव नहीं आया। उल्टे वे अपने प्रियतम के सानिध्य का यह अवसर पाकर सहज रूप से पुलकित थीं।

23 गोपियाँ अपने प्रिय कृष्ण से मिलने के लिए आतुर थीं अतएव वे उनके द्वारा मोह ली गईं। इस तरह अपने- अपने वस्त्र पहन लेने के बाद भी वे हिली ही नहीं। वे लजाती हुई उन्हीं पर टकटकी लगाये जहाँ की तहाँ खड़ी रहीं।

24 भगवान उन गोपियों के द्वारा किए जा रहे कठोर व्रत के संकल्प को समझ गये। वे यह भी जान गये कि ये बालाएँ उनके चरणकमलों का स्पर्श करना चाहती हैं अतः भगवान दामोदर कृष्ण उनसे इस प्रकार बोले।

25 हे साध्वी लड़कियों मैं समझ गया कि इस तपस्या के पीछे तुम्हारा असली संकल्प मेरी पूजा करना था। तुम्हारी इस अभिलाषा का मैं अनुमोदन करता हूँ और यह अवश्य ही खरा उतरेगा।

26 जो लोग अपना मन मुझ पर टिका देते हैं उनकी इच्छा उन्हें इन्द्रियतृप्ति की ओर नहीं ले जाती जिस तरह की धूप से झुलसे और फिर अग्नि में पकाये गये जौ के बीज नये अंकुर बनकर नहीं उग सकते।

27 हे बालाओं, जाओ, अब व्रज लौट जाओ। तुम्हारी इच्छा पूरी हो गई है क्योंकि तुम आनेवाली रातें मेरे साथ बिता सकोगी। हे शुद्ध हृदय वाली गोपियों, देवी कात्यायनी की पूजा करने के पीछे तुम्हारे व्रत का, यही तो उद्देश्य था।

28 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान द्वारा आदेश दिये जाकर अपनी मनोवांछा पूरी करके वे बालाएँ उनके चरणकमलों का ध्यान करती हुई बड़ी ही मुश्किल से व्रज ग्राम वापस आईं।

29 कुछ काल बाद देवकीपुत्र कृष्ण अपने ग्वालबाल मित्रों से घिरकर तथा अपने बड़े भाई बलराम के संग गौवें चराते हुए वृन्दावन से काफी दूर निकल गये।

30 जब सूर्य की तपन प्रखर हो गई तो कृष्ण ने देखा कि सारे वृक्ष मानों उन पर छाया करके छाते का काम कर रहे हैं तब वे अपने ग्वाल मित्रों से इस प्रकार बोले।

31-32 भगवान कृष्ण ने कहा "हे स्तोककृष्ण तथा अंशु, हे श्रीदामा, सुबल तथा अर्जुन, हे वृषभ, ओजस्वी, देवप्रस्थ तथा वरुथप जरा इन भाग्यशाली वृक्षों को तो देखो जिनके जीवन ही अन्यों के लाभ हेतु समर्पित हैं। वे हवा, वर्षा, धूप तथा पाले को सहते हुए भी इन तत्त्वों से हमारी रक्षा करते हैं।

33 जरा देखो, कि ये वृक्ष किस तरह प्रत्येक प्राणी का भरण कर रहे हैं। इनका जन्म सफल है। इनका आचरण महापुरुषों के तुल्य है क्योंकि वृक्ष से कुछ माँगने वाला कोई भी व्यक्ति कभी निराश नहीं लौटता।

34-35 ये वृक्ष अपनी पत्तियों, फूलों तथा फलों से, अपनी छाया, जड़ों, छाल तथा लकड़ी से तथा अपनी सुगन्ध, रस, राख, लुगदी और नये नये कल्लों से मनुष्य की इच्छापूर्ति करते हैं। हर प्राणी का कर्तव्य है कि वह अपने प्राण, धन, बुद्धि तथा वाणी से दूसरों के लाभ हेतु कल्याणकारी कर्म करे।

36 इस तरह वृक्षों के बीच विचरण करते हुए, जिनकी शाखाएँ कोपलों, फलों, फूलों तथा पत्तियों की बहुलता से झुकी हुई थी, भगवान कृष्ण यमुना नदी के तट पर आ गये।

37 ग्वालों ने गौवों को यमुना नदी का स्वच्छ, शीतल तथा स्वास्थ्यप्रद जल पीने दिया। हे राजा परीक्षित, ग्वालों ने भी जी भरकर उस मधुर जल का पान किया।

38 तत्पश्चात हे राजन, सारे ग्वालबाल यमुना के तट पर एक छोटे से जंगल में पशुओं को उन्मुक्त ढंग से चराने लगे। किन्तु शीघ्र ही भूख से त्रस्त होकर वे कृष्ण तथा बलराम के निकट जाकर इस प्रकार बोले।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय इक्कीस - गोपियों द्वारा कृष्ण के वेणुगीत की सराहना (10.21)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह वृन्दावन का जंगल स्वच्छ शारदीय जलाशयों से पूरित था और स्वच्छ जलाशयों में खिले कमल पुष्पों की सुगन्ध वाली वायु से शीतल था। अपनी गौवों तथा ग्वालसखाओं समेत अच्युत भगवान ने उस जंगल में प्रवेश किया।

2 वृन्दावन के सरोवर, नदियाँ तथा पर्वत पुष्पित वृक्षों पर मँडराते उन्मत्त भौरों तथा पक्षियों के समूहों से गुंजरित हो रहे थे। मधुपति (श्रीकृष्ण) ने ग्वालबालों तथा बलराम के संग उस जंगल में प्रवेश किया और गौवें चराते हुए वे अपनी वंशी बजाने लगे।

3 जब व्रजग्राम की तरुण गोपियों ने कृष्ण की वंशी का गीत सुना, तो उनमें से कुछ गोपियाँ अपनी सखियों से एकान्त में कृष्ण के गुणों का बखान करने लगीं।

4 गोपियाँ ने आपस में कृष्ण के विषय में बातें करते हुए जब उनके कार्यकलापों का स्मरण किया तो उन्हें (श्रीकृष्ण की प्रेमपूर्ण चितवन और मधुर मुसकान आदि की याद आ गई) जिसने उनके मन को विचलित कर दिया और वे कुछ भी न कह पाई।

5 अपने सिर पर मोरपंख का आभूषण, अपने कानों में नीले कर्णिकार फूल, स्वर्ण जैसा चमचमाता पीला वस्त्र तथा वैजयन्ती माला धारण किये भगवान कृष्ण ने सर्वश्रेष्ठ नर्तक का दिव्य रूप प्रदर्शित करते हुए वृन्दावन के वन में प्रवेश करके अपने पदचिन्हों से इसे रमणीक बना दिया। उन्होंने अपने होंठों के अमृत से अपनी वंशी के छेदों को भर दिया और ग्वालबालों ने उनके यश का गान किया।

6 हे राजन, जब व्रज की युवतियों ने सभी प्राणियों के मन को मोह लेने वाली कृष्ण की वंशी की ध्वनि सुनी तो वे एक-दूसरे का आलिंगन कर-करके उसका बखान करने लगीं।

7 गोपियों ने कहा: सखियों, जो आँखें नन्द महाराज के दोनों पुत्रों के सुन्दर मुख का दर्शन करती हैं, वे निश्चय ही भाग्यशाली हैं। ज्योंही वे दोनों अपने मित्रों से घिरकर तथा गौवों को अपने आगे आगे करके जंगल में प्रवेश करते हैं, तो वे अपने मुख में वंशियाँ धारण करके वृन्दावन वासियों पर प्यार-भरी चितवन से देखते हैं। जो आँखोंवाले हैं उनके लिए हमारी समझ में देखने की इससे बड़ी अन्य कोई वस्तु नहीं है।

8 तरह तरह के आकर्षक परिधानों के ऊपर अपनी मालाएँ डाले और मोरपंख, कमल, कमलिनी, आम की कोंपलों तथा पुष्पकलियों के गुच्छों से अपने को अलंकृत किये हुए कृष्ण तथा बलराम ग्वालबालों की टोली में शोभायमान हो रहे हैं। वे नाटक-मंच पर प्रकट होनेवाले श्रेष्ठ नर्तकों की तरह दिख रहे हैं और कभी-कभी वे गाते भी हैं।

9 हे गोपियों, कृष्ण के अधरों का मुक्तरूप से अमृतपान करने और हम गोपियों, जिनके लिए ही – वास्तव में यह अमृत है केवल स्वादमात्र छोड़ने के लिए इस वंशी ने कौन-से शुभ-कृत्य किये होंगे। वंशी के बाप-दादे बाँस के वृक्षों ने हर्ष के अश्रु गिराये होंगे। जिस नदी के तट पर यह वृक्ष उत्पन्न हुआ होगा उस मातारूपी नदी ने हर्ष का अनुभव किया होगा; इसीलिए ये खिले हुए कमल के फूल उसके शरीर के रोमों की भाँति खड़े हुए हैं।

10 हे सखी, देवकी पुत्र कृष्ण के चरणकमलों का कोष पाकर वृन्दावन पृथ्वी की कीर्ति को फैला रहा है। जब मोर गोविन्द की वंशी सुनते हैं, तो वे मस्त होकर नाचने लगते हैं और जब अन्य प्राणी उन्हें पर्वत की चोटी से इस तरह नाचते देखते हैं, तो वे सभी स्तब्ध रह जाते हैं।

11 ये मूर्ख हिरनियाँ धन्य हैं क्योंकि ये नन्द महाराज के पुत्र के निकट पहुँच गई हैं, जो खूब सजेधजे हुए हैं और अपनी बाँसुरी बजा रहे हैं। सचमुच ही हिरणी तथा हिरण दोनों ही प्रेम तथा स्नेह-भरी चितवनों से भगवान की पूजा करते हैं।

12 कृष्ण का सौन्दर्य तथा शील समस्त स्त्रियों के लिए उत्सव स्वरूप है। देवताओं की पत्नियाँ अपने पतियों के साथ विमानों में उड़ते हुए जब उन्हें देखती हैं और उनके गूँजते हुए वेणुगीत की ध्वनि सुनती हैं, तो वे अपनी सुध-बुध खो देती हैं और वे इतनी मोहित हो जाती हैं कि उनके केशों से फूल गिर जाते हैं और उनकी करधनियाँ (पेटियाँ) ढीली पड़ जाती हैं।

13 गौवें अपने नलिकारूपी दोनों कानों को उठाये हुए कृष्ण के मुख से निकले वेणुगीत के अमृत का पान कर रही हैं। बछड़े अपनी माताओं के गीले स्तनों से निकले दूध को मुख में भरे-भरे स्थिर खड़े रहते हैं। वे अपने अश्रुपूरित नेत्रों से गोविन्द को अपने भीतर ले आते हैं और अपने हृदयों में उनका आलिंगन करते हैं।

14 अरी माई! कृष्ण का दर्शन करने हेतु इस जंगल में सारे पक्षी उड़कर वृक्षों की सुन्दर शाखाओं पर बैठ गये हैं। वे एकान्त में अपनी आँखें मूँदकर उनकी वंशी की मधुर ध्वनि को ही सुन रहे हैं और वे किसी अन्य ध्वनि की ओर आकृष्ट नहीं होते। सचमुच ये पक्षी महामुनियों की कोटि के हैं।

15 जब नदियाँ कृष्ण का वेणुगीत सुनती हैं, तो उनके मन उन्हें चाहने लगते हैं जिससे नदियों की धाराओं का प्रवाह खण्डित हो जाता है, जल क्षुब्ध हो उठता है और भँवर बनकर घूमने लगता है। तत्पश्चात नदियाँ अपनी लहरों रूपी भुजाओं से मुरारी के चरणकमलों का आलिंगन करती हैं और उन्हें पकड़कर उन पर कमलपुष्पों की भेंटें चढ़ाती हैं।

16 भगवान कृष्ण, बलराम तथा ग्वालबालों के संग में व्रज के समस्त पशुओं को चराते हुए ग्रीष्म की कड़ी धूप में भी निरन्तर अपनी बाँसुरी बजाते रहते हैं। यह देखकर आकाश के बादल ने प्रेमवश अपने को फैला लिया है। ऊँचे उठकर तथा फूल जैसी असंख्य जल की बूँदों से उसने अपने मित्र के लिए अपने ही शरीर को छाता बना लिया है।

17 वृन्दावन क्षेत्र की आदिवासी ललनाएँ भगवान के चरणकमलों को अलंकृत करनेवाले लाल लाल कुमकुम चूर्ण से अंकित घास को देखकर कृष्ण से मिलने को आतुर हो उठती हैं और जब उसे ही आदिवासी स्त्रियाँ अपने वक्षस्थलों तथा मुखों पर मल लेतीं हैं, तो उनकी सब चिन्ताएँ जाती रहती हैं।

18 यह गोवर्धन पर्वत समस्त भक्तों में सर्वश्रेष्ठ है। हे सखियों, यह पर्वत कृष्ण तथा बलराम के साथ ही साथ उनकी गौवों, बछड़ों तथा ग्वालबालों की सभी प्रकार की आवश्यकताओं – पीने का पानी, अति मुलायम घास, गुफाएँ, फल, फूल तथा तरकारियों की पूर्ति करता है। इस तरह यह पर्वत भगवान का आदर करता है। कृष्ण तथा बलराम के चरणकमलों का स्पर्श पाकर गोवर्धन पर्वत अत्यन्त हर्षित प्रतीत होता है।

19 हे सखियों, जब कृष्ण तथा बलराम अपने ग्वालमित्रों के साथ अपनी गौवें लेकर गुजरते हैं, तो वे अपने साथ दूध दोहन के समय गौवों की पिछली टाँगें बाँधने के लिए नोई (रस्सी) लिये रहते हैं। जब भगवान कृष्ण अपनी वंशी बजाते हैं, तो मधुर संगीत से चर प्राणी स्तब्ध रह जाते है और अचर वृक्ष आनन्दातिरेक से हिलने लगते हैं। निश्चय ही ये बातें अत्यन्त आश्चर्यजनक हैं।

20 इस तरह वृन्दावन के जंगल में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान द्वारा विचरण से सम्बन्धित क्रीड़ामयी लीलाओं को एक-दूसरे से कहती हुई गोपियाँ उनके विचारों में पूर्णतया निमग्न हो गई।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय बीस - वृन्दावन में वर्षा ऋतु तथा शरद ऋतु (10.20) 

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: तब ग्वालबालों ने वृन्दावन की गोपियों से दावाग्नि से बचाए जाने और प्रलम्बासुर का वध किये जाने के कृष्ण तथा बलराम के अद्भुत कार्यों का विस्तार से वर्णन किया।

2 यह वर्णन सुनकर बड़े-बूढ़े गोप-गोपियाँ आश्चर्यचकित हो गये और वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि कृष्ण तथा बलराम अवश्य ही महान देवता हैं, जो वृन्दावन में प्रकट हुए हैं।

3 इसके बाद वर्षा ऋतु का शुभारम्भ हुआ जो समस्त जीवों को जीवनदान देती है। आकाश गर्जना से गूँजने लगा और क्षितिज पर बिजली चमकने लगी।

4 तत्पश्चात बिजली तथा गरज से युक्त घने नीले बादलों से आकाश आच्छादित हो गया। इस तरह आकाश तथा उसकी प्राकृतिक ज्योति उसी तरह ढक गये जिस तरह आत्मा प्रकृति के तीन गुणों से आच्छादित हो जाता है।

5 सूर्य ने अपनी किरणों से आठ मास तक पृथ्वी की जल रूपी सम्पत्ति का शोषण किया था। अब उपयुक्त समय आ गया था और सूर्य अपनी उस संचित सम्पत्ति को मुक्त करने लगा।

6 बिजली चमकाये बड़े बड़े बादल प्रचण्ड वायु के द्वारा हिलाये-डुलाये जाकर दूर ले जाये गये थे। ये बादल दयालु पुरुषों की तरह इस संसार की खुशी के लिए अपना जीवन दान कर रहे थे।

7 ग्रीष्म के ताप से पृथ्वी कृष्णकाय हो चुकी थी किन्तु वर्षा के देवता द्वारा तर किये जाने पर पुनः पूरी तरह हरीभरी हो गई। इस तरह पृथ्वी उस व्यक्ति के समान थी जिसका शरीर भौतिक कामना से की गई तपस्या के कारण कृष्णकाय हो जाता है किन्तु तपस्या का फल प्राप्त हो जाने पर वह पुनः पूरी तरह हष्ट पुष्ट हो उठता है।

8 वर्षा ऋतु के साँझ के धुंधलेपन में, अंधकार के कारण जुगनू तो चमक रहे थे किन्तु नक्षत्रगण प्रकाश नहीं बिखेर पा रहे थे, जिस प्रकार कि कलियुग में पापकृत्यों की प्रधानता से नास्तिक सिद्धान्त वेदों के असली ज्ञान को आच्छादित कर देते हैं।

9 वे मेंढक जो अभी तक मौन पड़े हुए थे, वर्षा ऋतु के बादलों की गर्जना सुनकर अचानक टर्राने लगे मानो शान्त भाव से प्रातःकालीन कृत्य करनेवाले ब्राह्मण विद्यार्थी, गुरु द्वारा बुलाए जाने पर अपना पाठ सुनाने लगे हों।

10 वर्षा ऋतु के आगमन के साथ ही सूखी हुई क्षुद्र नदियाँ बढ़ने लगी और अपने असली मार्गों को छोड़कर इधर उधर बहने लगीं मानों इन्द्रियों के वशीभूत किसी मनुष्य के शरीर, सम्पत्ति तथा धन हों।

11 नई उगी घास से पृथ्वी पन्ने (मरकत) की तरह हरी हो रही थी, इन्द्रगोप कीटों ने उसमें लाल रंग मिला दिया और श्वेत रंग के कुकुरमुत्तों ने और भी रंगत ला दी। इस प्रकार पृथ्वी उस व्यक्ति जैसी लगने लगी जो सहसा धनी बन जाता है।

12 अपनी अन्नरूपी सम्पदा से सारे खेत किसानों को प्रफुल्लित कर रहे थे। किन्तु वही खेत उन लोगों के हृदयों में पश्चाताप उत्पन्न कर रहे थे, जो इतने घमण्डी थे कि खेती के कार्य में नहीं लगना चाहते थे और यह नहीं समझ पाते थे कि किस तरह हर वस्तु भगवान के अधीन है।

13 चूँकि जल तथा स्थल के समस्त प्राणियों ने नवीन वर्षाजल का लाभ उठाया इसलिए उनके रूप आकर्षक एवं सुहावने हो गये जिस तरह कोई भक्त भगवान की सेवा में लगने पर सुन्दर लगने लगता है।

14 जहाँ जहाँ नदियाँ आकर समुद्र से मिलीं, वहाँ समुद्र विक्षुब्ध हो उठा और हवा से उसकी लहरें इधर उधर उठने लगीं, जिस तरह कि किसी अपरिपक्व योगी का मन इन्द्रियतृप्ति के विषयों के प्रति अनुरक्त होने से डगमगाने लगता है।

15 जिस प्रकार भगवान में लीन मन वाले भक्तगण सभी प्रकार के संकटों से प्रहार किये जाने पर भी शान्त बने रहते हैं उसी प्रकार वर्षा ऋतु में जलवाही बादलों द्वारा बारम्बार प्रहार किये जाने पर भी पर्वत तनिक भी विचलित नहीं हुए।

16 वर्षा ऋतु में रास्तों को साफ न करने से वे घास-फूस और कूड़े-करकट से ढक गये और उन्हें पहचान पाना कठिन हो गया। ये रास्ते उन धार्मिक शास्त्रों (श्रुतियों) के तुल्य थे, जो ब्राह्मणों द्वारा अध्ययन न किये जाने से भ्रष्ट हो गये हों और कालक्रम से आच्छादित हो चुके हों।

17 यद्यपि बादल सारे जीवों के शुभैषी मित्र होते हैं लेकिन दुर्बलमना चंचल बिजली बादलों के एक समूह से दूसरे समूह में इस तरह गति करने लगी मानो गुणवान पुरुषों के प्रति भी विश्वासघात करनेवाली स्त्रियाँ हों।

18 जब आकाश में इन्द्रधनुष प्रकट हुआ जिसमें गर्जना करने का गुण था, तो वह सामान्य धनुषों से भिन्न था क्योंकि वह प्रत्यञ्चा पर टिका हुआ नहीं था। इसी प्रकार जब भगवान इस जगत में, जो कि भौतिक गुणों की पारस्परिक क्रिया स्वरूप है, प्रकट होते हैं, तो वे सामान्य पुरुषों से भिन्न होते हैं क्योंकि वे समस्त भौतिक गुणों से मुक्त तथा समस्त भौतिक दशाओं से स्वतंत्र होते हैं।

19 वर्षा ऋतु में बादलों से ढके रहने के कारण चन्द्रमा के प्रकट होने में व्यवधान पड़ता था और यही बादल चन्द्रमा की किरणों से प्रकाशित होते थे। इसी प्रकार इस भौतिक जगत में मिथ्या अहंकार के आवरण से जीव प्रत्यक्ष प्रकट नहीं हो पाता जबकि वह स्वयं शुद्ध आत्मा की चेतना से प्रकाशित होता है।

20 जब मोरों ने बादलों को आते देखा तो वे उल्लासित हो गये और हर्षयुक्त अभिनन्दन में टेरने लगे जिस तरह गृहस्थ जीवन में दुखित लोग अच्युत भगवान के शुद्ध भक्तों के आगमन पर हर्षित हो जाते हैं।

21 जो वृक्ष दुबले हो गए थे तथा सूख गये थे उनके शरीर के विभिन्न अंग अपनी जड़ों (पाँवों) से वर्षा का नया जल पाकर लहलहा उठे। इसी तरह तपस्या के कारण जिसका शरीर पतला और दुर्बल हो जाता है, वह पुनः उस तपस्या के माध्यम से प्राप्त भौतिक वस्तुओं का भोग करके स्वस्थ शरीरवाला दिखने लगता है।

22 वर्षाकाल में सरोवरों के तटों के विक्षुब्ध होने पर भी सारस पक्षी तटों पर रहते रहे जिस तरह दूषित मनवाले भौतिकतावादी व्यक्ति अनेक उत्पातों के बावजूद घरों पर ही रहते जाते हैं।

23 जब इन्द्र ने अपनी वर्षा छोड़ भेजी तो बाढ़ के पानी से खेतों में सिंचाई के बाँध उसी तरह टूट गये जिस तरह कलियुग में नास्तिकों के सिद्धान्तों से वैदिक आदेशों की सीमाएँ टूट जाती हैं।

24 वायु द्वारा प्रेरित बादलों ने सारे जीवों के लाभ हेतु अपना अमृत तुल्य जल उसी तरह विमुक्त किया जिस तरह राजागण अपने ब्राह्मण पुरोहितों के आदेशानुसार अपनी प्रजा में दान बाँटते हैं।

25 जब वृन्दावन का जंगल पके खजूरों तथा जामुन के फलों से लदकर इस प्रकार शोभायमान था, तो भगवान श्रीकृष्ण अपनी गौवों तथा ग्वालबालों से घिरकर एवं श्रीबलराम के साथ उस वन में आनन्द मनाने के लिए प्रविष्ट हुए।

26 गौवों को अपने दूध से भरे थनों के भार के कारण मन्द गति से चलना पड़ा किन्तु ज्योंही भगवान ने उन्हें बुलाया वे तुरन्त दौड़ पड़ीं और उनके प्रति स्नेह के कारण उनके स्तन गीले हो गए।

27 भगवान ने हर्षित वनवासी कन्याओं, मधुर रस टपकाते वृक्षों तथा पर्वतीय झरनों को देखा जिनकी प्रतिध्वनि से सूचित हो रहा था कि पास ही गुफाएँ हैं।

28 जब वर्षा होती तो भगवान कभी किसी गुफा में, तो कभी वृक्ष के कोटर में घुस जाते जहाँ वे खेलते तथा कन्दमूल और फल खाते।

29 भगवान कृष्ण – श्रीबलराम तथा ग्वालबालों के साथ बैठकर घर से भेजे गये दही-भात को भगवान संकर्षण और ग्वालबालों के साथ खाते जो सदैव उनके साथ ही भोजन किया करते थे। वे पानी के निकट किसी विशाल शिला पर बैठकर भोजन करते।

30-31 भगवान कृष्ण ने हरी घास पर बैठे और आँखें बन्द किये चरते हुए संतुष्ट साँडों, बछड़ों तथा गौवों पर नजर डाली और देखा कि गौवें अपने दूध से भरे भारी थनों के भार से थक गई हैं। इस तरह परम आनन्द के स्रोत भगवान ने वृन्दावन की वर्षा ऋतु के सौन्दर्य और ऐश्वर्य का निरीक्षण करते हुए उस ऋतु को नमस्कार किया जो उनकी ही अन्तरंगा शक्ति का विस्तार थी।

32 इस तरह जब भगवान राम तथा भगवान केशव वृन्दावन में रह रहे थे तो शरद ऋतु आ गई जिसमें आकाश बादलों से रहित, जल स्वच्छ तथा वायु मन्द हो जाती है।

33 कमलपुष्पों को पुनः उत्पन्न करनेवाली शरद ऋतु ने विविध जलाशयों को पूर्ववत स्वच्छ (निर्मल) बना दिया जिस तरह कि भक्तियोग पतित योगियों के मनों को पुनः इस ओर लौटने पर शुद्ध बनाता है।

34 शरद ऋतु ने आकाश से बादलों को हटा दिया, पशुओं को भीड़भाड़ भरी जगहों से निकाल लिया, पृथ्वी के कीचड़ को साफ कर दिया तथा जल के गंदलेपन को दूर कर दिया जिस तरह कि भगवान कृष्ण की प्रेमाभक्ति चारों आश्रमों के सदस्यों को उनकी अपनी-अपनी व्याधियों से मुक्त कर देती है।

35 बादल अपना सर्वस्व त्यागकर शुद्ध तेज से उसी तरह चमकने लगे जिस तरह शान्त मुनिगण अपनी समस्त भौतिक इच्छाएँ त्यागने पर पापपूर्ण लालसाओं से मुक्त हो जाते हैं।

36 इस ऋतु में पर्वत कभी तो अपना शुद्ध जल मुक्त करते थे और कभी नहीं करते थे जिस तरह कि दिव्य विज्ञान में पटु लोग कभी तो दिव्य ज्ञान रूपी अमृत प्रदान करते हैं और कभी-कभी नहीं करते।

37 अत्यन्त छिछले जल में तैरनेवाली मछलियाँ यह नहीं जान पाई कि जल घट रहा है, जिस तरह कि परिवार के मूर्ख लोग यह नहीं देख पाते कि हर दिन के बीतने पर उनकी बाकी आयु किस तरह क्षीण होती जा रही है।

38 जिस प्रकार कंजूस तथा निर्धन कुटुम्बी अपनी इन्द्रियों को वश में न रखने के कारण कष्ट पाता है उसी तरह छिछले जल में तैरनेवाली मछलियों को शरदकालीन सूर्य का ताप सहना पड़ता है।

39 धीरे-धीरे स्थल के विभिन्न भागों ने अपनी कीचड़-युक्त अवस्था त्याग दी और पौधे अपनी कच्ची अवस्था से आगे बढ़ गये। यह उसी तरह हुआ जिस तरह कि धीर मुनि अपना अहंभाव तथा ममता त्याग देते हैं। ये वास्तविक आत्मा – अर्थात भौतिक शरीर तथा इसके उत्पादों से सर्वथा भिन्न वस्तुओं – पर आधृत होते हैं।

40 शरद ऋतु के आते ही समुद्र तथा सरोवर शान्त हो गये, उनका जल उस मुनि की तरह शान्त हो गया जो सारे भौतिक कार्यों से विरत हो गया हो और जिसने वैदिक मंत्रों का पाठ बन्द कर दिया हो।

41 जिस तरह योग का अभ्यास करनेवाले अपनी चेतना को क्षुब्ध इन्द्रियों द्वारा बाहर निकलने से रोकने के लिए इन्द्रियों को कठोर नियंत्रण में रखते हैं उसी तरह किसानों ने अपने धान के खेतों से जल को बहकर बाहर न जाने देने के लिए मजबूत मेंड़ें उठा दीं।

42 शरदकालीन चन्द्रमा ने सूर्य की किरणों से उत्पन्न कष्ट से सभी जीवों को छुटकारा दिला दिया जिस प्रकार कि मनुष्य का ज्ञान उसे अपने भौतिक शरीर से अपनी पहचान करने से उत्पन्न होनेवाले दुख से छुटकारा दिला देता है और जिस तरह भगवान मुकुन्द वृन्दावन की स्त्रियों को उनके वियोग से उत्पन्न कष्ट से छुटकारा दिला देते हैं।

43 बादलों से रहित तथा साफ दिखते तारों से भरा हुआ शरदकालीन आकाश उसी तरह चमकने लगा, जिस प्रकार वैदिक शास्त्रों के तात्पर्य का प्रत्यक्ष अनुभव करनेवाले की आध्यात्मिक चेतना करती है।

44 पूर्ण चन्द्रमा तारों से घिरकर आकाश में उसी तरह चमकने लगा, जिस तरह यदुवंश के स्वामी श्रीकृष्ण समस्त वृष्णियों से घिरकर पृथ्वी पर सुशोभित हो उठे।

45 गोपियों के हृदय कृष्ण द्वारा हर लिये गये थे अतः उनके अतिरिक्त सारे लोग पुष्पों से लदे वन से आनेवाली वायु का आलिंगन करके अपने-अपने कष्ट भूल गये। वह वायु न तो गर्म थी, न सर्द।

46 शरद ऋतु के प्रभाव से सारी गौवें, मृगियाँ, स्त्रियाँ तथा चिड़ियाँ ऋतुमती हो गईं और उनके अपने-अपने जोड़े उनका पीछा करने लगे जिस प्रकार भगवान की सेवा में किये गये कार्य स्वतः सभी प्रकार के लाभप्रद फल देते हैं।

47 हे राजा परीक्षित, जब शरदकालीन सूर्य उदित हुआ तो रात में फुलनेवाली कुमुदिनी के अतिरिक्त सारे कमल के फूल प्रसन्नता – पूर्वक खिल गये जिस तरह कि सशक्त शासक की उपस्थिति में चोरों के अतिरिक्त सारे लोग निर्भय रहते हैं।

48 सभी नगरों तथा ग्रामों में लोगों ने नई फसल के नवान्न का स्वागत और आस्वादन करने के लिए वैदिक अग्नि-यज्ञ करके तथा स्थानीय प्रथा एवं परम्परा का अनुसरण करते हुए अन्य ऐसे ही समारोहों सहित बड़े-बड़े उत्सव मनाए। इस तरह नवान्न से समृद्ध एवं कृष्ण तथा बलराम की उपस्थिति के कारण विशेषतया सुन्दर दिखने वाली पृथ्वी भगवान के अंश रूप में सुशोभित हो उठी।

49 व्यापारी, मुनिजन, राजा तथा ब्रह्मचारी विद्यार्थी, जो वर्षा के कारण जहाँ तहाँ अटके पड़े थे अब बाहर जाने और अपने अभीष्ट पदार्थ प्राप्त करने के लिए स्वतंत्र थे जिस तरह इसी जीवन में सिद्धि प्राप्त व्यक्ति उपयुक्त समय आने पर भौतिक शरीर त्यागकर अपने-अपने स्वरूप प्राप्त करते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय उन्नीस दावानल पान (10.19)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब ग्वालबाल खेलने में पूरी तरह मग्न थे तो उनकी गौवें दूर चली गई। अधिक घास के लोभ में तथा कोई उनकी देखभाल करनेवाला न होने से वे घने जंगल में घुस गई।

2 विशाल जंगल के एक भाग से दूसरे भाग में जाते हुए बकरियाँ, गौवें तथा भैंसे अन्ततः मूँज से आच्छादित क्षेत्र में घुस गई। पास के जंगल की अग्नि की गर्मी से उन्हें प्यास लगी और वे कष्ट के कारण रँभाने लगी।

3 गौवों को सामने न देखकर कृष्ण, राम तथा उनके ग्वालमित्रों को सहसा अपनी असावधानी पर पछतावा हुआ। उन बालकों ने चारों ओर ढूँढा किन्तु यह पता न लगा पाये कि वे कहाँ चली गई हैं।

4 तब बालकों ने गौवों के खुरों के चिन्हों और खुरों तथा दाँतों से तोड़ी गई घास के तिनकों को देखकर उनके रास्ते का पता लगाना शुरु किया। सारे ग्वालबाल अत्यधिक चिन्तित थे क्योंकि वे अपनी जीविका का साधन खो चुके थे।

5 अन्त में ग्वालबालों को अपनी बहुमूल्य गौवें मुञ्जा वन में मिली जो अपना रास्ता भटक जाने से चिल्ला रही थी। तब प्यासे तथा थके-माँदे ग्वालबाल उन गौओं को घर के रास्ते पर वापस ले आये।

6 भगवान ने उन पशुओं को गरजते बादल की तरह गूँजती वाणी से पुकारा। अपने-अपने नामों की ध्वनि सुनकर गौवें अत्यधिक हर्षित हुई और हुंकार भरकर भगवान को उत्तर देने लगी।

7 सहसा चारों दिशाओं में महान दावाग्नि प्रकट हुई जिससे जंगल के समस्त प्राणियों के नष्ट होने का संकट उत्पन्न हो गया। सारथी तुल्य वायु, अग्नि को आगे बढ़ाती जा रही थी और चारों ओर भयानक चिनगारियाँ निकल रही थीं। निस्सन्देह, इस महान अग्नि ने अपनी ज्वालाओं रूपी जिह्वाओं को समस्त चर और अचर प्राणियों की ओर लपलपा दिया था।

8 जब गौवों तथा ग्वालबालों ने चारों ओर से दावाग्नि को अपने ऊपर आक्रमण करते देखा तो वे बहुत डर गये। अतः वे रक्षा के लिए कृष्ण तथा बलराम के निकट गये जिस तरह मृत्यु-भय से विचलित लोग भगवान की शरण में जाते हैं। उन बालकों ने उन्हें इस प्रकार से सम्बोधित किया।

9 [ग्वालबालों ने कहा] हे कृष्ण, हे कृष्ण, हे महावीर, हे राम, हे अमोघ शक्तिशाली, कृपा करके अपने उन भक्तों को बचाये जो जंगल की इस अग्नि से जलने ही वाले हैं और आपकी शरण में आये हैं।

10 कृष्ण! निस्सन्देह आपके अपने मित्रों को तो नष्ट नहीं होना चाहिए। हे समस्त वस्तुओं की प्रकृति को जाननेवाले, हमने आपको अपना स्वामी मान रखा है और हम आपके शरणागत हैं।

11 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अपने मित्रों के ऐसे दयनीय वचन सुनकर भगवान कृष्ण ने उनसे कहा-- ”तुम लोग, बस अपनी आँखें मूँद लो और डरो नहीं।"

12 बालकों ने उत्तर दिया "बहुत अच्छा" और तुरन्त ही उन्होंने अपनी आँखें बन्द कर लीं। तब समस्त योगशक्ति के स्वामी भगवान ने अपना मुख खोला और उस भयानक अग्नि को निगलकर अपने मित्रों को संकट से बचा लिया।

13 ग्वालबालों ने अपनी आँखें खोलीं तो यह देखकर चकित हुए कि न केवल उन्हें तथा गौवों को उस विकराल अग्नि से बचा लिया गया है अपितु वे भाण्डीर वृक्ष के पास वापस ला दिये गये हैं।

14 जब ग्वालबालों ने देखा कि भगवान की अन्तरंगा शक्ति से प्रकट योगशक्ति द्वारा उन्हें दावाग्नि से बचाया जा चुका है, तो वे सोचने लगे कि कृष्ण अवश्य ही कोई देवता हैं।

15 अब दोपहर ढल चुकी थी और बलराम सहित भगवान कृष्ण ने गौवों को घर की ओर मोड़ा। अपनी वंशी को एक विशिष्ट ढंग से बजाते हुए कृष्ण अपने ग्वाल मित्रों के साथ गोपग्राम लौटे। ग्वालबाल उनके यश का गान कर रहे थे।

16 गोविन्द को घर आते देखकर तरुण गोपियों को अत्यन्त आनन्द प्राप्त हुआ क्योंकि उनकी संगति के बिना एक क्षण भी उन्हें सौ युगों के समान प्रतीत हो रहा था।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

 

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अध्याय अठारह - भगवान बलराम द्वारा प्रलम्बासुर का वध (10.18)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अपने आनन्द-विभोर साथियों से घिरे हुए, जो निरन्तर उनके यश का गान कर रहे थे, श्रीकृष्ण व्रजग्राम में प्रविष्ट हुए जो गौवों के झुण्डों से मण्डित था।

2 जब कृष्ण तथा बलराम इस तरह से सामान्य ग्वालबालों के वेश में वृन्दावन में जीवन का आनन्द ले रहे थे तो शनै-शनै ग्रीष्म ऋतु आ गई। यह ऋतु देहधारियों को अधिक सुहावनी नहीं लगती।

3 फिर भी, चूँकि साक्षात भगवान कृष्ण बलराम सहित वृन्दावन में रह रहे थे अतएव ग्रीष्म ऋतु वसन्त के गुण प्रकट कर रही थी। ऐसे हैं – वृन्दावन की भूमि के गुण।

4 वृन्दावन में झरनों की तीव्र ध्वनि से झींगुरों की झनकार छिप गई और उन झरनों की फुहार से निरन्तर नम रहते हुए वृक्षों के समूहों ने सम्पूर्ण क्षेत्र को मण्डित कर दिया।

5 सरोवरों की लहरों तथा बहती हुई नदियों का स्पर्श करती हुई अनेक प्रकार के कमलों तथा कमलिनियों के पराग-कण अपने साथ लेती हुई वायु सम्पूर्ण वृन्दावन को शीतल बनाती थी। इस तरह वहाँ के निवासियों को ग्रीष्म की जलती धूप तथा मौसमी दावाग्नियों से उत्पन्न गर्मी से कष्ट नहीं उठाना पड़ता था। निस्सन्देह वृन्दावन ताजी हरी-भरी घास से भरा-पूरा था।

6 गहरी नदियाँ अपनी उठती लहरों से तटों को तर करके उन्हें गीला तथा दलदला बना देती थीं। इस तरह सूर्य की विकराल किरणें, न तो पृथ्वी के रस को उड़ा पाती न इसकी हरी घास को सुखा पाती।

7 फूलों से वृन्दावन बड़े ही सुन्दर ढंग से सजा हुआ था और नाना प्रकार के पशु तथा पक्षी अपनी ध्वनि से उसे पूरित कर रहे थे। मोर तथा भौरें गा रहे थे और कोयल तथा सारस कुहु कुहु कर रहे थे।

8 क्रीड़ा करने की इच्छा से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण, ग्वालबालों, भगवान बलराम सहित तथा गौवों से घिरकर अपनी बाँसुरी बजाते हुए वृन्दावन के जंगल में प्रविष्ट हुए ।

9 कोपलों, मोरपंखों, मालाओं, फूल की कलियों के गुच्छों तथा रंगबिरंगे खनिज पदार्थों से अपने को सजाकर बलराम, कृष्ण तथा उनके ग्वालमित्र नाचने लगे, कुश्ती लड़ने तथा गाने लगे।

10 जब कृष्ण नाचने लगे तो कुछ बालक गाकर और कुछ बाँसुरी, हाथ के मंजीरे तथा भेसों के सींग बजा बजाकर उनका साथ देने लगे तथा कुछ अन्य बालक उनके नाच की प्रशंसा करने लगे।

11 हे राजन, देवताओं ने गोप जाति के सदस्यों का वेश बनाया और जिस तरह नाटक के नृतक दूसरे नृतक की प्रशंसा करते हैं उसी तरह उन्होंने ग्वालबालों के रूप में प्रकट हुए कृष्ण तथा बलराम की पूजा की।

12 कृष्ण तथा बलराम चक्कर काटते, कूदते, फेंकते, थपथपाते तथा लड़ते भिड़ते हुए अपने ग्वाल सखाओं के साथ खेलने लगे। कभी-कभी कृष्ण तथा बलराम बालकों के सिरों की चोटियाँ खींच लेते थे।

13 हे राजन जब अन्य बालक नाचते होते तो, कभी-कभी कृष्ण तथा बलराम, गीत और वाद्य संगीत से उनका साथ देते और कभी-कभी वे दोनों 'बहुत अच्छा', 'बहुत अच्छा' कहकर बालकों की प्रशंसा करते थे।

14 ग्वालबाल कभी बिल्व या कुम्भ फलों से खेलते और कभी मुट्ठी में आमलक फलों को लेकर खेलते। कभी वे एक दूसरे को छूने का या आँखमिचौनी के समय किसी को पहचानने का खेल खेलते तो कभी वे पशुओं तथा पक्षियों की नकल उतारते।

15 कभी-कभी वे मेंढकों की तरह फुदक-फुदक कर चलते, कभी तरह तरह के हास परिहास करते, कभी झूले में झूलते और कभी राजाओं की नकल उतारते।

16 इस तरह से कृष्ण तथा बलराम वृन्दावन की नदियों, पर्वतों, घाटियों, कुन्जों, वृक्षों तथा सरोवरों के बीच घूमते हुए सभी प्रकार के प्रसिद्ध खेल खेलते रहते।

17 इस तरह जब वृन्दावन के जंगल में राम, कृष्ण तथा उनके ग्वालमित्र गौवें चरा रहे थे तो प्रलम्ब नामक असुर उनके बीच में घुस आया। कृष्ण तथा बलराम का हरण करने के इरादे से उसने ग्वालबाल का वेश बना लिया था।

18 चूँकि दशार्ह वंश में उत्पन्न भगवान श्रीकृष्ण सब कुछ देखते हैं अतएव वे जान गये कि वह असुर कौन है? फिर भी भगवान ने ऐसा दिखावा किया कि जैसे वे उसे अपना मित्र मान चुके हों जबकि वे गम्भीरतापूर्वक यह विचार कर रहे थे कि उसको कैसे मारा जाय।

19 तब समस्त क्रीड़ाओं के ज्ञाता कृष्ण ने सारे ग्वालबालों को बुलाया और उनसे इस प्रकार कहा: हे ग्वालबालों अब चलो खेलें हम अपने आपको दो समान टोलियों में बाँट लें।

20 ग्वालबालों ने कृष्ण तथा बलराम को दोनों टोलियों का अगुवा (नायक) चुन लिया। कुछ बालक कृष्ण की ओर थे और कुछ बलराम के साथ थे।

21 बालकों ने तरह तरह के खेल खेले जिनमें पीठ पर चढ़ना तथा उठाना जैसे खेल होते हैं। इन खेलों में जीतने वाले हार जाने वालों की पीठ पर चढ़ते हैं और हारने वाले उन्हें अपनी पीठ पर चढ़ाते हैं।

22 इस तरह एक दूसरे पर चढ़ते और चढ़ाते हुए और साथ ही गौवें चराते हुए सारे बालक कृष्ण के पीछे-पीछे भाण्डीरक नामक बरगद के पेड़ तक गये।

23 हे राजा परीक्षित, जब इन खेलों में भगवान बलराम की टोली के श्रीदामा, वृषभ तथा अन्य सदस्य विजयी होते तो कृष्ण तथा उनके साथियों को उन सबको अपने ऊपर चढ़ाना पड़ता था।

24 हारकर, भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीदामा को अपने ऊपर चढ़ा लिया। भद्रसेन ने वृषभ को तथा प्रलम्ब ने रोहिणी पुत्र बलराम को चढ़ा लिया।

25 भगवान कृष्ण को दुर्दम सोचकर वह असुर (प्रलम्ब), बलराम को तेजी से उस स्थान से बहुत आगे ले गया जहाँ उतारना निश्चित किया गया था।

26 जब वह महान असुर बलराम को लिये जा रहा था, तो वे विशाल सुमेरु पर्वत की तरह भारी हो गये जिससे प्रलम्ब को अपनी गति धीमी करनी पड़ी। उसके बाद उसने अपना असली रूप धारण किया – तेजमय शरीर जो सुनहरे आभूषणों से ढका था और उस बादल के समान लग रहा था जिसमें बिजली चमक रही हों और जो अपने साथ चन्द्रमा लिये जा रहा हो।

27 जब हलधर भगवान बलराम ने आकाश में विचरण करते हुए उस असुर की जलती हुई आँखें, अग्नि सदृश बाल, भौंहों तक उठे हुए भयानक दाँत तथा उसके बाजूबन्दों, मुकुट तथा कुण्डलों से उत्पन्न आश्चर्य-जनक तेज युक्त विराट शरीर को देखा तो वे कुछ कुछ भयभीत से हो गये।

28 वास्तविक स्थिति का स्मरण करते हुए निर्भीक बलराम की समझ में आ गया कि यह असुर मेरा अपहरण करके मुझे मेरे साथियों से दूर ले जाने का प्रयास कर रहा है। तब वे क्रुद्ध हो उठे और उन्होंने असुर के सिर पर अपनी कठोर मुट्ठी से उसी तरह प्रहार किया जिस प्रकार देवताओं के राजा इन्द्र अपने वज्र से पर्वत पर प्रहार करते हैं।

29 बलराम की मुट्ठी के प्रहार से प्रलम्ब का सिर तुरन्त ही फट गया। वह मुख से रक्त उगलने लगा और बेहोश हो गया। तत्पश्चात वह निष्प्राण होकर पृथ्वी पर भीषण धमाके के साथ ऐसे गिर पड़ा मानो इन्द्र द्वारा विनष्ट कोई पर्वत हो।

30 ग्वालबाल यह देखकर अत्यन्त चकित थे कि बलशाली बलराम ने किस तरह प्रलम्बासुर को मार डाला और वे सभी 'बहुत खूब' 'बहुत खूब' कहकर चिल्ला उठे।

31-32 उन्होंने बलराम को आशीर्वाद दिया और उनकी प्रशंसा की। उनके मन प्रेम से विभोर हो उठे और उन्होंने उनका इस प्रकार आलिंगन किया मानो वे मृत अवस्था से लौटे हों। पापी प्रलम्बासुर के मारे जाने पर देवता अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने बलराम पर फूलमालाओं की वर्षा की और उनकी प्रशंसा की।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय सत्रह -- कालिय का इतिहास (10.17)

1 [इस प्रकार कृष्ण ने कालिय की प्रताड़णा की उसे सुनकर] राजा परीक्षित ने पूछा: कालिय ने सर्पों के निवास रमणक द्वीप को क्यों छोड़ा और गरुड़ उसीका इतना विरोधी क्यों बन गया?

2-3 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: गरुड़ द्वारा खाये जाने से बचने के लिए सर्पों ने पहले से उससे यह समझौता कर रखा था कि उनमें से हर सर्प मास में एक बार अपनी भेंट लाकर वृक्ष के नीचे रख जाया करेगा। इस तरह हे महाबाहु परीक्षित, प्रत्येक मास हर सर्प अपनी रक्षा के मूल्य के रूप में विष्णु के शक्तिशाली वाहन को अपनी भेंट चढ़ाता था।

4 यद्यपि अन्य सभी सर्पगण ईमानदारी से गरुड़ को भेंट दे जाया करते थे किन्तु एक सर्प, कद्रु-पुत्र अभिमानी कालिय, इन सभी भेंटों को गरुड़ के पाने से पहले ही खा जाया करता था। इस तरह कालिय भगवान विष्णु के वाहन का प्रत्यक्ष अनादर करता था।

5 हे राजन, जब भगवान के अत्यन्त प्रिय, परम शक्तिशाली गरुड़ ने यह सुना तो वह क्रुद्ध हो उठा। वह कालिय को मार डालने के लिए उसकी ओर तेजी से झपटा।

6 ज्योंही गरुड़ तेजी से कालिय पर झपटा त्योंही विष के हथियार से लैस उसने वार करने के लिए अपने अनेक सिर उठा लिये। अपनी भयावनी जीभें दिखलाते और अपनी उग्र आँखें फैलाते हुए विषैले दाँतों से गरुड़ को काट लिया।

7 ताक्षर्य का क्रुद्ध पुत्र गरुड़, कालिय के वार को पीछे धकेलने के लिए प्रचण्ड वेग से आगे बढ़ा। उस अत्यन्त शक्तिशाली भगवान मधुसूदन के वाहन ने कद्रु के पुत्र पर अपने स्वर्ण जैसे चमकीले बाएँ पंख से प्रहार किया।

8 गरुड़ के पंख की चोट खाने से कालिय अत्यधिक बैचेन हो उठा अतः उसने यमुना नदी के निकटस्थ सरोवर में शरण ले ली। गरुड़ इस सरोवर में नहीं घुस सका। निस्सन्देह, वह वहाँ तक पहुँच भी नहीं सका ।

9 उसी सरोवर में गरुड़ ने एक बार एक मछ्ली को जो कि उसका सामान्य भक्ष्य है, खाना चाहा। जल के भीतर ध्यानमग्न सौभरि मुनि के मना करने पर भी गरुड़ ने साहस किया और भूखा होने के कारण उस मछली को पकड़ लिया।

10 उस सरोवर की अभागिनी मछलियों को अपने स्वामी की मृत्यु के कारण अत्यन्त दुखी देखकर सौभरि मुनि ने इस आशय से शाप दे दिया कि वे उस सरोवर के रहने वालों के कल्याण हेतु कृपापूर्ण कर्म कर रहे हैं।

11 यदि गरुड़ ने फिर कभी इस सरोवर में घुसकर मछलियाँ खाई तो वह तुरन्त अपने प्राणों से हाथ धो बैठेगा। मैं जो कह रहा हूँ वह सत्य है।

12 "सारे सर्पों में केवल कालिय" ही इस बात को जानता था और गरुड़ के भय से उसने यमुना के सरोवर में अपना निवास बना रखा था । बाद में कृष्ण ने उसे निकाल भगाया।

13-14 [कृष्ण द्वारा कालिय की प्रताड़णा का वर्णन फिर से प्रारम्भ करते हुए श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा] : कृष्ण दिव्य मालाएँ, सुगन्धियाँ तथा वस्त्र धारण किये अनेक उत्तम मणियों से आच्छादित एवं स्वर्ण से अलंकृत होकर उस सरोवर से ऊपर उठे। जब ग्वालों ने उन्हें देखा तो वे सब तुरन्त उठ खड़े हो गये मानो किसी मूर्छित व्यक्ति की इन्द्रियाँ पुनः जीवित हो उठी हों। उन्होंने अतीव हर्ष से सराबोर होकर स्नेहपूर्वक उनको गले लगा लिया।

15 अपनी जीवनदायी चेतनाएँ वापस पाकर यशोदा, रोहिणी, नन्द तथा अन्य सारी गोपियाँ एवं ग्वाले कृष्ण के समीप पहुँच गये। हे कुरुवंशी, ऐसे में सूखे वृक्ष भी सजीव हो उठे।

16 भगवान बलराम ने अपने अच्युत भाई का आलिंगन किया और कृष्ण की शक्ति को अच्छी तरह जानते हुए हँसने लगे। अत्यधिक प्रेमभाव के कारण बलराम ने कृष्ण को अपनी गोद में उठा लिया और बारम्बार उनकी ओर देखा। गौवों, साँडों तथा बछियों को भी परम आनन्द प्राप्त हुआ।

17 सारे गुरुजन ब्राह्मण अपनी पत्नियों सहित नन्द महाराज को बधाई देने आये। उन्होंने उनसे कहा, “तुम्हारा पुत्र कालिय के चंगुल में था किन्तु देवकृपा से अब वह छूट आया है।"

18 तब, ब्राह्मणों ने नन्द महाराज को सलाह दी, “तुम्हारा पुत्र कृष्ण सदैव संकट से मुक्त रहे इससे आश्वस्त रहने के लिए तुम्हें चाहिए कि ब्राह्मणों को दान दो।“ हे राजन, तब प्रसन्नचित्त नन्द महाराज ने हर्षपूर्वक उन्हें गौवों तथा स्वर्ण की भेंटें दीं।

19 परम भाग्यशालिनी माता यशोदा ने अपने खोये हुए पुत्र को फिर से पाकर उसे अपनी गोद में ले लिया। उनको बारम्बार गले लगाते हुए उस साध्वी ने आँसुओं की झड़ी लगा दी।

20 हे नृपश्रेष्ठ (परीक्षित), चूँकि वृन्दावन के निवासी भूख, प्यास तथा थकान के कारण अत्यन्त निर्बल हो रहे थे। अतः उन्होंने तथा गौवों ने रात्रि विश्राम कालिन्दी के तट पर किया।

21 रात्रि में जब वृन्दावन के सभी लोग सोये हुए थे तो सूखे ग्रीष्मकालीन जंगल में भीषण आग भड़क उठी। इस आग ने चारों ओर से व्रजवासियों को घेर लिया और उन्हें झुलसाने लगी।

22 तब उन्हें जलाने जा रही विशाल अग्नि से अत्यधिक विचलित होकर वृन्दावनवासी जाग गये। उन्होंने दौड़कर भगवान कृष्ण की शरण ली जो आध्यात्मिक शक्ति से सामान्य मनुष्य रूप में प्रकट हुए थे।

23 वृन्दावनवासियों ने कहा: हे कृष्ण, हे कृष्ण, हे समस्त वैभव के स्वामी, हे असीम शक्ति के स्वामी राम, यह अत्यन्त भयानक अग्नि आपके भक्तों को निगल ही जाएगी।

24 हे प्रभु, हम आपके सच्चे मित्र तथा भक्त हैं। कृपा करके आप इस दुर्लंघ्य कालरूपी अग्नि से हमारी रक्षा कीजिये, समस्त भय को भगाने वाले आपके चरणकमलों को हम कभी नहीं त्याग सकते।

25 अपने भक्तों को इतना व्याकुल देखकर, असीम शक्ति को धारण करनेवाले – जगत के अनन्त स्वामी भगवान श्रीकृष्ण ने उस भयंकर दावाग्नि को निगल लिया।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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