भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक
अध्याय ग्यारह विराट रूप
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोSर्जुन ।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ।। 54 ।।
भक्त्या- भक्ति से;तु- लेकिन;अनन्यया- सकामकर्म तथा ज्ञान के रहित;शक्यः- सम्भव;अहम्- मैं;एवम्-विधः- इस प्रकार;अर्जुन- हे अर्जुन;ज्ञातुम्- जानने;द्रष्टुम्- देखने;च- तथा;तत्त्वेन- वास्तव में;प्रवेष्टुम्- प्रवेश करने;च- भी;परन्तप- हे बलिष्ठ भुजाओं वाले।
भावार्थ : हे अर्जुन! केवल अनन्य भक्ति द्वारा मुझे उस रूप में समझा जा सकता है, जिस रूप म