jagdish chandra chouhan's Posts (549)

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अध्याय चौबीस – भगवान का मत्स्यावतार (8.24)

1 महाराज परीक्षित ने कहा: भगवान हरि नित्य ही अपने दिव्य पद पर स्थित हैं; फिर भी वे इस भौतिक जगत में अवतरित होते हैं और विभिन्न रूपों में स्वयं को प्रकट करते हैं। उनका पहला अवतार एक बड़ी मछली के रूप में हुआ। हे श्रील शुकदेव गोस्वामी! मैं आपसे उस मत्स्यावतार की लीलाएँ सुनने का इच्छुक हूँ।

2-3 किस कारण से भगवान ने कर्म-नियम के अन्तर्गत विविध रूप धारण करनेवाले सामान्य जीव की भाँति गर्हित मछली का रूप स्वीकार किया? मछली का रूप निश्चित रूप से गर्हित एवं घोर पीड़ा से पूर्ण होता है। हे प्रभु! इस अवतार का क्या प्रयोजन था? कृपा करके मुझे समझाईये क्योंकि भगवान की लीलाओं का श्रवण हरेक के लिए मंगलकारी होता है।

4 सूत गोस्वामी ने कहा: जब परीक्षित महाराज ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से इस प्रकार जिज्ञासा प्रकट की तो उन महान शक्तिशाली साधु-पुरुष ने भगवान के मत्स्यावतार की लीलाओं का वर्णन करना प्रारम्भ किया।

5 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! गायों, ब्राह्मणों, देवताओं, भक्तों, वैदिक वाड्मय, धार्मिक सिद्धान्तों तथा जीवन के उद्देश्य को पूरा करनेवाले नियमों की रक्षा करने के लिए भगवान अवतरित होते हैं।

6 यद्यपि भगवान कभी मनुष्य रूप में और कभी निम्न पशु के रूप में प्रकट होते हैं, किन्तु वे विभिन्न प्रकार के वायुमण्डल में से गुजरने वाली वायु की तरह प्रकृति से सदैव परे रहते हैं। प्रकृति के गुणों से परे रहने के कारण वे उच्च तथा निम्न रूपों से प्रभावित नहीं होते।

7 हे राजा परीक्षित! विगत कल्प के अन्त में, ब्रह्मा का दिन समाप्त होने पर चूँकि ब्रह्मा की रात्रि में निद्रा में रहते हुए प्रलय आ गई और तीनों लोक समुद्र के जल से प्लवित हो गये।

8 ब्रह्मा का दिन समाप्त होने पर जब ब्रह्मा को नींद आने लगी और वे लेटने की इच्छा करने लगे तब उस समय उनके मुख से वेद निकल रहे थे। तभी हयग्रीव नामक बड़े राक्षस ने उस वैदिक ज्ञान को चुरा लिया।

9 यह जानकर कि यह कार्य महान असुर ने किया है, सर्व ऐश्वर्यशाली भगवान हरि ने मछली का रूप धारण किया और उस असुर को मारकर वेदों को बचाया।

10 चाक्षुस मन्वन्तर में सत्यव्रत नाम का एक महान राजा हुआ जो भगवान का बड़ा भक्त था। उसने केवल जल-पान के द्वारा जीवन को बनाए रखकर तपस्या की।

11 इस (वर्तमान) कल्प में राजा सत्यव्रत बाद में सूर्यलोक के राजा विवस्वान का पुत्र बना और श्राद्धदेव के नाम से विख्यात हुआ। भगवान की कृपा से उसे मनु का पद प्राप्त हुआ।

12 एक दिन जब राजा सत्यव्रत कृतमाला नदी के तट पर जल का तर्पण करके तपस्या कर रहा था, तो उसकी अंजुली के जल में एक छोटी सी मछली प्रकट हुई।

13 हे भरतवंशी राजा परीक्षित ! द्रविड़ देश के राजा सत्यव्रत ने अपनी अंजुली के जल के साथ ही उस मछली को नदी के जल में फेंक दिया। .

14 उस बेचारी छोटी मछली ने अत्यन्त कृपालु राजा सत्यव्रत से करुणापूर्ण स्वर में कहा हे दीनों के रक्षक राजा! आप मुझे नदी के जल में क्यों फेंक रहे हैं जहाँ पर अन्य जलचर हैं, जो मुझे मार सकते हैं? मैं उनसे बहुत भयभीत हूँ।

15 राजा सत्यव्रत ने यह न जानते हुए कि यह मछली भगवान है अपनी प्रसन्नता के लिए सहर्ष उस मछली को संरक्षण प्रदान करने का निर्णय लिया।

16 उस मछली के कारुणिक शब्दों से प्रभावित होकर उस दयालु राजा ने उस मछली को एक जलपात्र में रख लिया और उसे अपने घर ले आया।

17 किन्तु मछली एक ही रात में इतनी बड़ी हो गई कि उसे जलपात्र में अपना शरीर इधर-उधर घुमाने में कठिनाई होने लगी। तब उसने राजा से इस प्रकार कहा।

18 “हे मेरे प्रिय राजा! मैं इस जलपात्र में इतनी कठिनाई से रहना पसंद नहीं करती हूँ। अतएव कृपा करके इससे अच्छा जलाशय ढूँढें जहाँ मैं सुखपूर्वक रह सकूँ ।

19 तत्पश्चात राजा ने उस मछली को जलपात्र से निकालकर एक विशाल कुएँ में डाल दिया। किन्तु वह मछली एक क्षण में ही बढ़कर तीन हाथ की हो गई।

20 तब मछली ने कहा: हे राजा ! यह जलाशय मेरे सुखमय निवास के लिए उपयुक्त नहीं है। कृपया और अधिक विस्तृत जलाशय प्रदान करें क्योंकि मैं आपकी शरण में हूँ।

21 हे महाराज परीक्षित! राजा ने उस मछली को कुएँ से निकाला और उसे एक झील में डाल दिया, किन्तु तब उस मछली ने जल के विस्तार से भी अधिक विशाल रूप धारण कर लिया। .

22 तब मछली ने कहा: हे राजन! मैं विराट जलचर हूँ और यह जल मेरे लिए तनिक भी उपयुक्त नहीं है। अब कृपा करके मुझे बचाने का कोई उपाय ढूँढ निकालिए। अच्छा हो यदि आप मुझे ऐसी झील के जल में रखें जो कभी न घटे।

23 इस प्रकार प्रार्थना किये जाने पर राजा सत्यव्रत उस मछली को जल के सबसे बड़े आगार में ले आया। किन्तु जब वह भी अपर्याप्त सिद्ध हुआ तो राजा ने अन्त में उस मछली को समुद्र में डाल दिया।

24 समुद्र में फेंके जाते समय मछ्ली ने राजा सत्यव्रत से कहा: हे वीर! इस जल में अत्यन्त शक्तिशाली एवं घातक मगर हैं, जो मुझे खा जायेंगे। अतएव तुम मुझे इस स्थान में मत डालो।

25 मत्स्यरूप भगवान से इन मधुर वचनों को सुनकर मोहित हुए राजा ने पूछा: आप कौन हैं? आप तो हम सबको मोहित कर रहे हैं।

26 हे प्रभु! एक ही दिन में आपने अपना विस्तार सैकड़ों मील तक करके नदी तथा समुद्र के जल को आच्छादित कर लिया है। इससे पहले मैंने न तो ऐसा जलचर पशु देखा था और न ही सुना था।

27 हे प्रभु! आप निश्चय ही अव्यय भगवान नारायण अर्थात श्री हरि हैं। आपने जीवों पर अपनी कृपा प्रदर्शित करने के लिए ही अब जलचर का स्वरूप धारण किया है।

28 हे प्रभु! हे सृष्टि, पालन तथा संहार के स्वामी! हे भोक्ताओं में श्रेष्ठ भगवान विष्णु! आप हम जैसे शरणागत भक्तों के पथप्रदर्शक तथा गन्तव्य हैं। अतएव मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ।

29 आपकी सारी लीलाएँ तथा अवतार निश्चय ही समस्त जीवों के कल्याण के लिए होते हैं। अतएव हे प्रभु! मैं वह प्रयोजन जानना चाहता हूँ जिसके लिए आपने यह मत्स्य रूप धारण किया है।

30 हे कमल की पंखुड़ियों के समान नेत्र वाले प्रभु! देहात्मबुद्धि वाले देवताओं की पूजा सभी तरह से व्यर्थ है। चूँकि आप हरेक के परम मित्र तथा प्रियतम परमात्मा हैं अतएव आपके चरणकमलों की पूजा कभी व्यर्थ नहीं जाती। इसलिए आपने मछली का रूप दिखलाया है।

31 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब राजा सत्यव्रत ने इस तरह कहा तो अपने भक्त को लाभ पहुँचाने तथा बाढ़ के जल में अपनी लीलाओं का आनन्द उठाने के लिए युग के अन्त में मछली का रूप धारण करने वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने इस प्रकार उत्तर दिया।

32 भगवान ने कहा: हे शत्रुओं का दमन कर सकने वाले राजा! आज से सातवें दिन भूः,भुव: तथा स्वः ये तीनों लोक बाढ़ के जल में डूब जायेंगे।

33 जब तीनों लोक जल में डूब जायेंगे तो मेरे द्वारा भेजी गई एक विशाल नाव तुम्हारे समक्ष प्रकट होगी।

34-35 हे राजन! तत्पश्चात तुम सभी तरह की औषधियाँ एवं बीज एकत्र करोगे और उन्हें उस विशाल नाव में लाद लोगे। तब सप्तर्षियों समेत एवं सभी प्रकार के जीवों से घिरकर तुम उस नाव में चढ़ोगे और बिना किसी खिन्नता के तुम अपने संगियों सहित बाढ़ के समुद्र में सुगमता से विचरण करोगे। उस समय महान ऋषियों का तेज ही एकमात्र प्रकाश होगा।

36 तब ज्योंही नाव तेज हवा से डगमगाने लगे तुम उसे महान सर्प वासुकि के द्वारा मेरे सींग से बाँध देना क्योंकि मैं तुम्हारे पास ही उपस्थित रहूँगा।

37 हे राजन! नाव में बैठे तुम्हें तथा सारे ऋषियों को खींचते हुए, प्रलय-जल में मैं तब तक विचरण करूँगा जब तक ब्रह्मा की शयनरात्रि समाप्त नहीं हो जाती।

38 मैं तुम्हें ठीक से सलाह दूँगा और तुम्हारा पक्ष भी लूँगा और मुझ परब्रह्म की महिमाओं के विषय में तुम्हारी जिज्ञासाओं के कारण हर बात तुम्हारे हृदय के भीतर प्रकट होगी। इस तरह तुम मेरे विषय में सब कुछ जान लोगे।

39 राजा को इस प्रकार आदेश देने के बाद भगवान तुरन्त अन्तर्धान हो गये। तब राजा सत्यव्रत उस काल की प्रतीक्षा करने लगा, जिसका आदेश भगवान दे गये थे।

40 सन्त सदृश राजा ने कुशों के सिरों को पूर्व दिशा की ओर करके उन्हें बिछा दिया और स्वयं उत्तर-पूर्व की ओर मुख करके कुशों पर बैठकर उन भगवान विष्णु का ध्यान करने लगा जिन्होंने मछली का रूप धारण किया था।

41 तत्पश्चात विशाल बादलों ने झड़ी लगाकर समुद्र के जल को और अधिक चढ़ा दिया। इससे समुद्र बढ़कर स्थल के ऊपर बहने लगा और उसने समस्त विश्व को जलमग्न करना आरम्भ कर दिया।

42 ज्योंही सत्यव्रत को भगवान का आदेश स्मरण आया त्योंही उसे अपनी ओर आती हुई एक नाव दिखी। तब उसने वनस्पतियों तथा लताओं को एकत्र किया और वह साधु सदृश ब्राह्मणों को साथ लेकर उस नाव में चढ़ गया।

43 उन सन्त सदृश ब्राह्मणों ने प्रसन्न होकर राजा से कहा: हे राजन! भगवान केशव का ध्यान कीजिए। वे हमें इस आसन्न संकट से उबार लेंगे और हमारे कल्याण की व्यवस्था करेंगे।

44 जब राजा भगवान का निरन्तर ध्यान कर रहे थे तो प्रलय सागर में एक बड़ी सुनहरी मछली प्रकट हुई। इस मछली के एक सींग था और वह अस्सी लाख मील लम्बी थी।

45 जैसा कि भगवान पहले आदेश दे चुके थे उसका पालन करते हुए राजा ने वासुकि सर्प को रस्सी बनाकर उस नाव को मछली के सींग में बाँध दिया। इस प्रकार संतुष्ट होकर भगवान की स्तुति करनी प्रारम्भ कर दी।

46 राजा ने कहा: भगवान की कृपा से उन लोगों को जो अनन्त काल से आत्मज्ञान खो बैठे हैं और इस अविद्या के कारण भौतिक कष्टमय बद्धमय जीवन में रह रहे हैं, भगवदभक्तों से भेंट करने का अवसर मिलता है। मैं उन भगवान को परम आध्यात्मिक गुरु स्वीकार करता हूँ।

47 इस संसार में सुखी बनने की आकांक्षा से मूर्ख बद्धजीव सकाम कर्म करता है जिससे केवल कष्ट ही मिलते हैं। किन्तु भगवान की सेवा करने से मनुष्य सुख की ऐसी झूठी इच्छाओं से मुक्त हो जाता है। हे मेरे गुरु! मेरे हृदय के भीतर की झूठी इच्छाओं की ग्रंथि को काट दें।

48 भवबन्धन से जो छूटना चाहता है उसे भगवान की सेवा करनी चाहिए और पवित्र तथा अपवित्र कर्मों से युक्त तमोगुण का संसर्ग छोड़ देना चाहिए। इस तरह मनुष्य को अपनी मूल पहचान फिर से प्राप्त होती है, जिस प्रकार अग्नि में तपाने पर चाँदी या सोने का टुकड़ा अपना सारा मल छुड़ा कर शुद्ध हो जाता है। ऐसे अव्यय भगवान! आप हमारे गुरु बनें क्योंकि आप अन्य सभी गुरुओं के आदि गुरु हैं।

49 न तो सारे देवता, न तथाकथित गुरु, न ही अन्य सारे लोग, स्वतंत्र रूप से या साथ मिलकर, आपकी कृपा के दस हजारवें भाग के बराबर भी कृपा प्रदान कर सकते हैं। अतएव मैं आपके चरणकमलों की शरण लेना चाहता हूँ।

50 जिस प्रकार एक अन्धा पुरुष न देख सकने के कारण दूसरे अन्धे को अपना नायक मान लेता है, उसी तरह जो लोग जीवन लक्ष्य को नहीं जानते वे किसी न किसी धूर्त अथवा मूर्ख को अपना गुरु बना लेते हैं, किन्तु हमारा लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार है अतएव हम आपको अपना गुरु स्वीकार करते हैं क्योंकि आप सभी दिशाओं में देखने में समर्थ हैं और सूर्य की तरह सर्वज्ञ हैं।

51 तथाकथित भौतिकतावादी गुरु अपने भौतिकतावादी शिष्यों को आर्थिक विकास एवं इन्द्रियतृप्ति के विषय में उपदेश देता है और ऐसे उपदेशों से मूर्ख शिष्य अज्ञान के भौतिक संसार में पड़े रहते हैं। किन्तु आप शाश्वत ज्ञान प्रदान करते हैं और बुद्धिमान व्यक्ति ऐसा ज्ञान प्राप्त करके तुरन्त ही अपनी मूल वैधानिक स्थिति को प्राप्त कर लेता है।

52 हे प्रभु! आप सबों के परम हितैषी तथा प्रियतम मित्र, नियन्ता, परमात्मा, परम उपदेशक, परम ज्ञान के दाता तथा समस्त इच्छाओं को पूरा करने वाले हैं। यद्यपि आप हृदय में रहते हैं, किन्तु हृदय में बसी कामेच्छाओं के कारण मूर्ख व्यक्ति आपको समझ नहीं पाता।

53 हे परमेश्वर! आत्म-साक्षात्कार के लिए मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ। आप सभी वस्तुओं के परम नियन्ता के रूप में देवताओं द्वारा पूजित होते हैं। आप अपने उपदेशों से जीवन के प्रयोजन को प्रकट करते हुए कृपया मेरे हृदय की ग्रंथि को काट दीजिये और मुझे जीवन का लक्ष्य बतलाईये।

54 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: जब सत्यव्रत ने मत्स्य रूप धारण करने वाले भगवान से इस प्रकार प्रार्थना की तो उसको बाढ़ के जल में विचरण करते हुए भगवान ने परम सत्य के विषय में उपदेश दिया।

55 इस प्रकार भगवान ने राजा सत्यव्रत को वह आध्यात्मिक विज्ञान बतलाया जो सांख्ययोग कहलाता है, जिससे पदार्थ तथा आत्मा का अन्तर (अर्थात भक्तियोग) जाना जाता है। इसके साथ ही भगवान ने पुराणों (प्राचीन इतिहास) तथा संहिताओं में पाये जाने वाले उपदेश भी बतलाये। भगवान ने इन सारे ग्रन्थों में अपनी व्याख्या की है।

56 राजा सत्यव्रत ने ऋषियों सहित नाव में बैठे-बैठे आत्म-साक्षात्कार के विषय में भगवान के उपदेशों को सुना। ये सारे उपदेश शाश्वत वैदिक साहित्य (ब्रह्म) से थे। इस तरह राजा तथा ऋषियों को परम सत्य (परब्रह्म) के विषय में कोई संशय नहीं रहा।

57 (स्वायम्भुव मनु के काल में) पिछली बाढ़ के अन्त में भगवान ने हयग्रीव नामक असुर को मारा और ब्रह्मा को निद्रा से जागने पर उन्हें सारा वैदिक साहित्य प्रदान कर दिया।

58 भगवान विष्णु की कृपा से राजा सत्यव्रत को सारा वैदिक ज्ञान प्राप्त हो गया और इस काल में उसने अब सूर्यदेव के पुत्र वैवस्वत मनु के रूप में जन्म लिया है।

59 महान राजा सत्यव्रत तथा भगवान विष्णु के मत्स्यावतार से सम्बन्धित यह कथा एक महान दिव्य आख्यान है। जो भी इसे सुनता है, वह पापमय जीवन के फलों से छूट जाता है।

60 जो कोई मत्स्य अवतार तथा राजा सत्यव्रत के इस वर्णन को सुनाता है उसकी सारी आकांक्षाएँ पूरी होंगी और वह निश्चित रूप से भगवदधाम वापस जाएगा।

61 मैं उन भगवान को सादर नमस्कार करता हूँ जिन्होंने उस विशाल मछली का रूप धारण करने का बहाना किया जिसने ब्रह्मा के निद्रा से जागने पर उन्हें वैदिक साहित्य वापस लाकर दिया और राजा सत्यव्रत तथा महर्षियों को वैदिक साहित्य का सार कह समझाया।

इस प्रकार श्रीमद भागवतम (अष्टम स्कन्ध) के समस्त अध्यायों के भक्ति वेदान्त श्लोकार्थ पूर्ण हुए।

::हरि ॐ तत सत::

समर्पित एवं सेवारत-जगदीश चन्द्र माँगीलाल चौहान

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अध्याय तेईस – देवताओं को स्वर्गलोक की पुनर्प्राप्ति (8.23)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब परम पुरातन नित्य भगवान ने सर्वत्र मान्य शुद्ध भक्त एवं महात्मा बलि महाराज से यह कहा तो बलि महाराज ने आँखों में आँसू भरकर, हाथ जोड़कर तथा भक्तिभाव के कारण लड़खड़ाती वाणी में इस प्रकार कहा।

2 बलि महाराज ने कहा: आपको सादर नमस्कार करने के प्रयास में भी कैसा अद्भुत प्रभाव है! मैंने तो आपको नमस्कार अर्पित करने का प्रयास ही किया था, किन्तु वह प्रयास शुद्ध भक्तों के प्रयासों के समान सफल सिद्ध हुआ। आपने मुझ पतित असुर पर जो अहैतुकी कृपा प्रदर्शित की है, वह देवताओं या लोकपालों को भी कभी प्राप्त नहीं हुई।

3 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस प्रकार कहने के पश्चात बलि महाराज ने सर्वप्रथम भगवान हरि को और फिर ब्रह्माजी तथा शिवजी को नमस्कार किया। इस तरह वे नागपाश (वरुणपाश) से मुक्त कर दिये गये और पूर्णतया संतुष्ट होकर सुतललोक में प्रविष्ट हुए।

4 इस प्रकार इन्द्र को स्वर्गलोकों का स्वामित्व प्रदान करके तथा देवमाता अदिति की इच्छा पूरी करके पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ब्रह्माण्ड के कार्यकलापों पर शासन करने लगे।

5 जब प्रह्लाद महाराज ने सुना कि उनका पौत्र तथा वंशज बलि महाराज किस तरह बन्धन से मुक्त किया गया है और उसे भगवान का आशीर्वाद प्राप्त हुआ है, तो वे अत्यधिक प्रेमाभक्ति के स्वर में इस प्रकार बोले।

6 प्रह्लाद महाराज ने कहा: हे भगवान! आप विश्वपूज्य हैं, यहाँ तक कि ब्रह्माजी तथा शिवजी भी आपके चरणकमलों की पूजा करते हैं। इतने महान होते हुए भी आपने कृपापूर्वक हम असुरों की रक्षा करने का वचन दिया है। मेरा विचार है कि ब्रह्माजी, शिवजी या लक्ष्मीजी को भी कभी ऐसी दया प्राप्त नहीं हुई; तो अन्य देवताओं या सामान्य व्यक्तियों की बात ही क्या है!

7 हे सबके परम आश्रय! ब्रह्माजी जैसे महापुरुष आपके चरणकमलों की सेवा रूपी मधु का स्वाद चखने मात्र से सिद्धि को भोग पाते हैं। किन्तु हम लोगों पर, जो सारे के सारे धूर्त हैं और असुरों के ईर्ष्यालु वंश में जन्मे हैं आपकी कृपा किस प्रकार हो सकी? यह तो केवल इसीलिए सम्भव हो सका है क्योंकि आपकी कृपा अहैतुकी है।

8 हे प्रभु! आपकी लीलाएँ , अचिन्त्य आध्यात्मिक शक्तियों द्वारा विचित्र ढंग से सम्पन्न होती है। भौतिक शक्ति (माया) द्वारा आपने सारे ब्रह्माण्डों की सृष्टि की है। आप सभी जीवों के परमात्मा के रूप में हर बात जानते हैं। अतएव निश्चय ही, आप सब पर समान दृष्टि रखते हैं, तो भी आप अपने भक्तों का पक्ष लेते हैं। यह पक्षपात नहीं है क्योंकि आपका यह गुण उस कल्पवृक्ष की तरह है, जो इच्छानुसार कोई भी वस्तु प्रदान करता है।

9 भगवान ने कहा: हे मेरे प्रिय पुत्र प्रह्लाद! तुम्हारा कल्याण हो। अभी तुम सुतल नामक स्थान को जाओ और वहाँ अपने पौत्र एवं अन्य कुटुम्बियों तथा मित्रों सहित सुख भोगो।

10 भगवान ने प्रह्लाद महाराज को आश्वासन दिया कि तुम वहाँ पर हाथों में शंख, चक्र, गदा तथा कमल लिए मेरे नित्य रूप का दर्शन कर सकोगे। वहाँ मेरे निरन्तर प्रत्यक्ष दर्शन से दिव्य आनन्द प्राप्त करके तुम और अधिक कर्म-बन्धन में नहीं पड़ोगे।

11-12 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा परीक्षित! समस्त असुरपतियों के स्वामी प्रह्लाद महाराज ने बलि महाराज समेत हाथ जोड़कर भगवान के आदेश को सिर पर चढ़ाया। उन्होंने भगवान से हाँ कहकर, उनकी प्रदक्षिणा की और सादर प्रणाम करके सुतल नामक अधोलोक में प्रवेश किया।

13 तत्पश्चात भगवान हरि अथवा नारायण ने शुक्राचार्य को सम्बोधित किया जो पुरोहितों (ब्रह्म, होता, उदगाता तथा अध्वर्यु) के निकट ही सभा में बैठे थे। हे महाराज परीक्षित! ये सभी पुरोहित ब्रह्मवादी थे अर्थात यज्ञ सम्पन्न करने के लिए वैदिक सिद्धान्तों का पालन करने वाले थे।

14 हे ब्राह्मणश्रेष्ठ शुक्राचार्य! आप यज्ञ में लगे अपने शिष्य बलि महाराज का अपराध या त्रुटि बतलाईये। इस अपराध का निराकरण योग्य ब्राह्मणों की उपस्थिति में निर्णय लेने पर हो जाएगा।

15 शुक्राचार्य ने कहा: हे प्रभु! आप यज्ञ के भोक्ता हैं और सभी यज्ञों को सम्पन्न करने के लिए विधि-प्रदाता हैं। आप यज्ञपुरुष हैं अर्थात आप ही वे पुरुष हैं जिनके लिए सारे यज्ञ किए जाते हैं। यदि किसी ने आपको पूरी तरह संतुष्ट कर लिया तो फिर उसके यज्ञ करने में त्रुटियों अथवा दोषों के रहने का अवसर ही कहाँ रह जाता है।

16 मंत्रों के उच्चारण तथा कर्मकाण्ड के पालन में त्रुटियाँ रह सकती हैं। देश, काल, व्यक्ति तथा सामग्री के विषय में भी कमियाँ रह सकती हैं। किन्तु भगवन! यदि आपके पवित्र नाम का कीर्तन किया जाए तो हर वस्तु दोषरहित बन जाती है।

17 हे भगवान विष्णु! तो भी मैं आपके आदेशानुसार आपकी आज्ञा का पालन करूँगा क्योंकि आपके आदेश का पालन करना परम शुभ और हरेक का सर्वोपरि कर्तव्य है।

18 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस प्रकार सर्वाधिक शक्तिशाली शुक्राचार्य ने आदरपूर्वक भगवान की आज्ञा स्वीकार कर ली। उन्होंने श्रेष्ठ ब्राह्मणों के साथ बलि महाराज द्वारा सम्पन्न यज्ञ की त्रुटियों को पूरा करना शुरु कर दिया।

19 हे राजा परीक्षित! इस प्रकार भिक्षा के रूप में बलि महाराज की सारी भूमि लेकर भगवान वामनदेव ने उसे अपने भाई इन्द्र को दे दिया जिसे इन्द्र के शत्रु ने ले लिया था।

20-21 ब्रह्माजी ने (जो राजा दक्ष तथा अन्य सभी प्रजापतियों के स्वामी हैं) सारे देवताओं, महान सन्तों, पितृलोक के वासियों, मनुओं, मुनियों, दक्ष भृगु, अंगिरा जैसे नायकों, कार्तिकेय तथा शिवजी सहित भगवान वामनदेव को हरेक के संरक्षक के रूप में स्वीकार किया। यह सब उन्होंने कश्यप मुनि तथा उनकी पत्नी अदिति की प्रसन्नता के लिए एवं ब्रह्माण्ड के समस्त वासियों तथा उनके विभिन्न नायकों के कल्याण के लिए किया।

22-23 हे राजा परीक्षित! इन्द्र को सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का राजा माना जाता था, किन्तु ब्रह्माजी समेत अन्य देवता उपेन्द्र अर्थात वामनदेव को वेदों, धर्म, यश, ऐश्वर्य, मंगल, व्रत, स्वर्गलोक तथा उन्नति तथा मुक्ति के रक्षक के रूप में चाहते थे। इसलिए उन्होंने उपेन्द्र अर्थात वामनदेव, को सबका परम स्वामी स्वीकार कर लिया। इस निर्णय से सारे जीव अत्यधिक प्रसन्न हो गए।

24 तत्पश्चात स्वर्गलोकों के सारे प्रधानों सहित स्वर्ग के राजा इन्द्र, वामनदेव को अपने समक्ष करके ब्रह्मा की अनुमति से, उन्हें देवी वायुयान में बैठाकर स्वर्गलोक ले आये।

25 इस प्रकार भगवान वामनदेव की बाहुओं से रक्षित होकर स्वर्ग के राजा इन्द्र ने तीनों लोकों का अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लिया और निर्भय होकर तथा पूर्णतया संतुष्ट होकर वे अपने परम ऐश्वर्यशाली पद पर पुनः प्रतिष्ठित कर दिए गए।

26-27 ब्रह्माजी, शिवजी, कार्तिकेय, महर्षि भृगु, अन्य सन्त, पितृलोक के वासी तथा सिद्धलोक के निवासी एवं वायुयान द्वारा बाह्य आकाश की यात्रा करनेवाले जीवों के समेत वहाँ पर उपस्थित सारे मनुष्यों ने भगवान वामनदेव के असामान्य कार्यों की महिमा का गायन किया। हे राजन! भगवान का कीर्तन एवं उनकी महिमा का गायन करते हुए वे सभी अपने-अपने स्वर्गलोकों को लौट गये। उन्होंने अदिति के पद की भी प्रशंसा की।

28 हे महाराज परीक्षित! हे अपने वंश के आनन्द! मैंने अब तुमसे भगवान वामनदेव के अद्भुत कार्यों के विषय में सारा वर्णन कर दिया है। जो लोग इसे सुनते हैं, वे निश्चित रूप से पापकर्मों के सभी फलों से मुक्त हो जाते हैं।

29 मरणशील व्यक्ति भगवान त्रिविक्रम अर्थात विष्णु की महिमा की थाह नहीं पा सकता जिस प्रकार कि वह सम्पूर्ण पृथ्वीलोक के कणों की संख्या नहीं जान सकता। कोई भी व्यक्ति जिसने जन्म ले लिया है या जो जन्म लेने वाला है ऐसा नहीं कर सकता। इसका गायन महर्षि वसिष्ठ ने किया है।

30 यदि कोई पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के विभिन्न अवतारों के असामान्य कार्यकलापों का श्रवण करता है, तो वह निश्चित रूप से स्वर्गलोक को भेजा जाता है या अपने घर को अर्थात भगवान के धाम को वापस जाता है।

31 जब भी कर्मकाण्ड के दौरान, चाहे देवताओं को प्रसन्न करने के लिए या पितृलोक के पितरों को प्रसन्न करने के लिए कोई उत्सव किया जाए, या विवाह जैसा सामाजिक कृत्य मनाने के लिए वामनदेव के कार्यकलापों का वर्णन हो, तो उस उत्सव को परम मंगलमय समझना चाहिए।

( समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय बाईस – बलि महाराज द्वारा आत्मसमर्पण (8.22)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! यद्यपि ऊपर से ऐसा लग रहा था कि भगवान ने बलि महाराज के साथ दुर्व्यवहार किया है, किन्तु बलि महाराज अपने संकल्प पर अडिग थे। यह सोचते हुए कि मैंने अपना वचन पूरा नहीं किया है, वे इस प्रकार बोले।

2 बलि महाराज ने कहा: हे परमेश्वर, हे सभी देवताओं के परम पूज्य! यदि आप सोचते हैं कि मेरा वचन झूठा हो गया है, तो मैं उसे सत्य बनाने के लिए अवश्य ही भूल सुधार दूँगा। मैं अपने वचन को झूठा नहीं होने दे सकता। अतएव आप कृपा करके अपना तीसरा कमलरूपी पग मेरे सिर पर रखे।

3 मैं अपनी सारी सम्पत्ति से वंचित होने, नारकीय जीवन बिताने, गरीबी के लिए वरुणपाश द्वारा बाँधे जाने या आपके द्वारा दण्डित होने से उतना भयभीत नहीं होता हूँ जितना कि मैं अपनी अपकीर्ति से डरता हूँ।

4 यद्यपि कभी-कभी किसी व्यक्ति के पिता, माता, भाई या मित्र उसके हितैषी होने के कारण उसे दण्डित कर सकते हैं, किन्तु वे कभी भी अपने आश्रित को इस प्रकार दण्डित नहीं करते। किन्तु आप परम पूज्य भगवान हैं अतएव आपने मुझे जो दण्ड दिया है उसे मैं अत्यन्त प्रशंसनीय समझता हूँ।

5 चूँकि आप हम असुरों के अप्रत्यक्ष रूप से महानतम शुभचिन्तक हैं, अतः हमारे सर्वोच्च कल्याण के लिए ऐसे कर्म करते हैं जैसे कि आप हमारे शत्रु हों। चूँकि हम-जैसे असुर सदैव मिथ्या प्रतिष्ठा का पद पाने की महत्त्वाकांक्षा करते हैं, अतएव आप हमें दण्डित करके हमारे ज्ञान-चक्षु खोलते हैं जिनसे हम सन्मार्ग देख सकें।

6-7 आपसे लगातार शत्रुता रखने वाले अनेक असुरों ने अन्ततः महान योगियों की सिद्धि प्राप्त की। आप एक ही कार्य से अनेक उद्देश्यों की पूर्ति कर सकते हैं; फलस्वरूप यद्यपि आपने मुझे अनेक प्रकार से दण्डित किया है फिर भी मुझे वरुणपाश से बन्दी बनाए जाने की न तो लज्जा है न ही मैं कोई कष्ट अनुभव कर रहा हूँ।

8 मेरे बाबा प्रह्लाद महाराज आपके सारे भक्तों द्वारा मान्य होकर प्रसिद्ध हैं। यद्यपि उनके पिता हिरण्यकशिपु ने उन्हें अनेक प्रकार से कष्ट दिए थे, फिर भी वे आपके चरणकमलों का आश्रय लेकर आज्ञाकारी बने रहे।

9 उस भौतिक शरीर से क्या लाभ जो जीवन के अन्त में अपने स्वामी को स्वतः छोड़ देता है? और परिवार के उन सभी सदस्यों से क्या लाभ जो वास्तव में उस धन का अपहरण कर लेते हैं, जो दिव्य ऐश्वर्य के लिए भगवान की सेवा में उपयोगी हो सकता है? उस पत्नी से भी क्या लाभ जो भौतिक दशाओं को बढ़ाने की स्रोत मात्र है। उस परिवार, घर, देश तथा जाति से भी क्या लाभ जिसमें आसक्त होने से सारे जीवन की मूल्यवान शक्ति का मात्र अपव्यय होता है।

10 मेरे पितामह जो सभी मनुष्यों में श्रेष्ठ थे और जिन्होंने असीम ज्ञान प्राप्त किया था और जो हरेक द्वारा पूज्य थे, वे इस जगत के सामान्य लोगों से भयभीत रहते थे। आपके चरणकमलों में प्राप्त होने वाले आश्रय को पूर्णतया समझकर ही उन्होंने आपके द्वारा मारे गये अपने पिता तथा अपने असुर मित्रों की इच्छा के विरुद्ध आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण की थी।

11 मैं तो देववश ही बलपूर्वक होकर आपके चरणों में लाया गया हूँ और अपने समस्त ऐश्वर्य से विहीन कर दिया गया हूँ। सामान्य संसारी लोग भौतिक स्थितियों में रहते हुए नश्वर ऐश्वर्य द्वारा उत्पन्न मोह के कारण पग पग पर आकस्मिक मृत्यु का सामना करते हुए भी नहीं समझ पाते कि यह जीवन नश्वर है। मैं तो देववश ही उस स्थिति से बच गया हूँ।

12 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे कुरुश्रेष्ठ! जब बलि महाराज इस प्रकार अपने भाग्य की प्रशंसा कर रहे थे तो भगवान के परम प्रिय भक्त प्रह्लाद महाराज वहाँ प्रकट हुए मानो रात्रि में चन्द्रमा उदय हो गया हो।

13 तब बलि महाराज ने परम भाग्यशाली व्यक्ति अपने पितामह प्रह्लाद महाराज को देखा जिनका श्यामल शरीर आँखों के अंजन जैसा लग रहा था। उनका लम्बा, भव्य शरीर पीताम्बर धारण किये था, उनकी भुजाएँ लम्बी थीं और उनकी सुन्दर आँखें कमल की पंखुड़ियों के समान थीं। वे सबके अत्यन्त प्रिय तथा मोहक थे।

14 वरुणपाश से बँधे होने के कारण बलि महाराज पहले की तरह प्रह्लाद महाराज को भलीभाँति सम्मान नहीं दे पाये। उन्होंने केवल सिर के द्वारा प्रणाम किया, उनके नेत्र अश्रुपूरित थे और लज्जा से उनका सिर नीचा था।

15 जब प्रह्लाद महाराज ने देखा कि वहाँ पर सुनन्द जैसे अपने घनिष्ठ संगियों से घिर कर एवं पूजित होकर भगवान बैठे हैं, तो उनकी आँखें प्रेमाश्रुओं से छलछला उठीं। उनके पास जाकर और भूमि पर गिरकर उन्होंने सिर के बल भगवान को प्रणाम किया।

16 प्रह्लाद महाराज ने कहा: हे प्रभु ! इस बलि को इन्द्र-पद का महान ऐश्वर्य आपकी ही देन है और अब उसको आपने ही छीन लिया है। मेरे विचार से आपने दोनों ही बार समान सुन्दरता से कार्य किया है। चूँकि स्वर्ग के राजा का उच्च पद उसे अज्ञान के अंधकार में डाले हुए था अतएव आपने उसका सारा ऐश्वर्य छीनकर उसके ऊपर महान अनुग्रह किया है।

17 भौतिक ऐश्वर्य इतना मोहक है कि विद्वान तथा आत्मसंयमी व्यक्ति भी आत्म-साक्षात्कार के लक्ष्य को खोजना भूल जाता है। लेकिन भगवान नारायण, जो ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं, अपनी इच्छानुसार प्रत्येक वस्तु को देख सकते हैं। अतएव मैं उन्हें सादर प्रणाम करता हूँ।

18 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजा परीक्षित! तब ब्रह्माजी अपने पास हाथ जोड़कर खड़े प्रह्लाद महाराज को सुनाकर भगवान से कहने लगे।

19 लेकिन बलि महाराज की सती पत्नी अपने पति को बन्दी देखकर भयभीत तथा दुःखी थी। उसने तुरन्त भगवान वामनदेव (उपेंद्र) को नमस्कार किया और हाथ जोड़कर इस प्रकार बोली।

20 श्रीमती विंध्यावलि ने कहा: हे प्रभु! आपने निजी लीलाओं का आनन्द उठाने के लिए सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की रचना की है, किन्तु मूर्ख तथा बुद्धिहीन व्यक्तियों ने भौतिक भोग के लिए उस पर अपना स्वामित्व जताया है। निस्सन्देह, वे निर्लज्ज संशयवादी हैं। वे झूठे ही स्वामित्व जताकर यह सोचते हैं कि वे उसको दान दे सकते हैं और भोग सकते हैं। ऐसी दशा में भला वे आपकी कौन सी भलाई कर सकते हैं, जो इस ब्रह्माण्ड के स्वतंत्र स्रष्टा, पालक तथा संहारक हैं?

21 ब्रह्माजी ने कहा: हे समस्त जीवों के हितैषी एवं स्वामी, हे सभी देवताओं के पूज्य देव, हे सर्वव्यापी भगवान! अब यह व्यक्ति पर्याप्त दण्ड पा चुका है क्योंकि आपने इसका सर्वस्व ले लिया है। अब आप इसे छोड़ दें। अब यह और अधिक दण्डित होने का पात्र नहीं है।

22 बलि महाराज ने आपको पहले ही अपना सर्वस्व दे दिया था। उन्होंने बिना हिचक के अपनी भूमि, अपने सारे लोक तथा अपने पुण्यकर्मों से जो कुछ भी अर्जित किया था, यहाँ तक कि अपने शरीर को भी अर्पित कर दिया है।

23 जिनके मन में द्वैत नहीं होता वे आपके चरणों में केवल जल, दूर्वादल या अंकुर अर्पित करके वैकुण्ठ में उच्चतम स्थान प्राप्त कर सकते हैं। इन बलि महाराज ने अब बिना द्वैत के तीनों लोकों की प्रत्येक वस्तु आपको अर्पित कर दी है। तो फिर वे बन्दी होने के कष्ट के भागी कैसे हो सकते हैं?

24 भगवान ने कहा: हे ब्रह्माजी ! भौतिक ऐश्वर्य के कारण मूर्ख व्यक्ति मन्दबुद्धि एवं पागल हो जाता है। इस तरह तीनों लोकों में वह किसी का सम्मान नहीं करता और मेरी सत्ता की भी अवहेलना करता है। सर्वप्रथम ऐसे व्यक्ति की सारी सम्पत्ति छीनकर मैं उस पर विशेष अनुग्रह प्रदर्शित करता हूँ।

25 अपने ही सकाम कर्मों के कारण विभिन्न योनियों में जन्म-मरण के चक्र में बारम्बार घूमते हुए परतंत्र जीव सौभाग्य से मनुष्य का शरीर प्राप्त कर सकता है। यह मनुष्य-जन्म विरले ही प्राप्त हो पाता है।

26 यदि कोई मनुष्य उच्चकुल में जन्मा हो, यदि वह अद्भुत कर्म करे, यदि वह तरुण हो, यदि उसके पास सौन्दर्य, उत्तम शिक्षा तथा प्रचुर सम्पत्ति हो और यदि वह इतने पर भी अपने ऐश्वर्य पर न इतराये तो यह समझना चाहिए कि उस पर भगवान की विशेष कृपा है।

27 यद्यपि उच्चकुल में जन्म एवं ऐसे अन्य ऐश्वर्य भक्ति की उन्नति में बाधक होते हैं क्योंकि ये झूठी प्रतिष्ठा तथा घमण्ड के कारण हैं, किन्तु भगवान के अनन्य भक्त को ये ऐश्वर्य कभी विचलित नहीं करते।

28 बलि महाराज असुरों एवं नास्तिकों में सर्वाधिक विख्यात हो गये हैं क्योंकि अपने सारे ऐश्वर्य से वंचित होकर भी वे अपनी भक्ति में अचल हैं।

29-30 बलि महाराज यद्यपि धनविहीन, अपने मौलिक पद से च्युत, अपने शत्रुओं द्वारा पराजित तथा बन्दी बनाये गये, अपने कुटुम्बियों तथा मित्रों द्वारा भर्त्सित हुए और परित्यक्त, बाँधे जाने की पीड़ा से त्रस्त तथा अपने गुरु द्वारा भर्त्सित तथा शापित थे, किन्तु वे अपने व्रत में अटल रहे। उन्होंने अपना सत्य नहीं छोड़ा। मैंने तो निश्चित रूप से छल से धर्म के विषय में बातें कहीं, किन्तु उन्होंने अपना धर्म नहीं छोड़ा क्योंकि वे अपने वचन के पक्के हैं।

31 भगवान ने आगे कहा: उसकी महान सहनशक्ति के कारण मैंने उसे वह स्थान प्रदान किया है, जो देवताओं को भी सुलभ नहीं हो पाता। वह सावर्णि मनु के कार्यकाल में स्वर्ग का राजा (इन्द्र) बनेगा।

32 जब तक बलि महाराज स्वर्ग के राजा (इन्द्र) का पद प्राप्त नहीं कर लेते तब तक वे सुतललोक में रहेंगे जिसे विश्वकर्मा ने मेरे आदेश से निर्मित किया था। चूँकि इसकी रक्षा मेरे द्वारा विशेष रूप से होती है अतएव यह मानसिक तथा शारीरिक व्याधियों, थकान, आलस्य, पराजय तथा अन्य सभी उपद्रवों से मुक्त है। हे बलि महाराज! अब तुम वहाँ जाकर शान्तिपूर्वक रह सकते हो।

33 हे बलि महाराज (इन्द्रसेन)! तुम उस सुतललोक में जाओ जिसकी कामना देवता भी करते हैं। वहाँ अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों की संगति में शान्तिपूर्वक रहो। तुम्हारा कल्याण हो।

34 सुतललोक में, सामान्य लोग तो क्या, अन्य लोकों के प्रधान देवता भी तुम्हें नहीं जीत पायेंगे। रही असुरों की बात, यदि वे तुम्हारे शासन का उल्लंघन करेंगे तो मेरा चक्र उनका वध कर देगा।

35 हे शूरवीर! मैं सदैव तुम्हारे साथ रहूँगा और तुम्हारे संगियों तथा साज-सामग्री समेत तुम्हें सभी प्रकार से संरक्षण प्रदान करूँगा। साथ ही, तुम वहाँ मुझे सदैव देख सकोगे।

36 चूँकि तुम्हें वहाँ मेरे परम पराक्रम का दर्शन होगा अतएव असुरों तथा दानवों की संगति से तुममें जो भौतिकतावादी विचार एवं चिन्ताएँ उदित हुई हैं, वे तुरन्त ही विनष्ट हो जायेंगी।

( समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय इक्कीस – भगवान द्वारा बलि महाराज को बन्दी बनाया जाना (8.21)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: जब कमलपुष्प से उत्पन्न ब्रह्माजी ने देखा कि भगवान वामनदेव के अँगूठे के नाखूनों के चमकीले तेज से उनके धाम ब्रह्मलोक का तेज कम हो गया है, तो वे भगवान के पास गये। ब्रह्माजी के साथ मरीचि इत्यादि ऋषि तथा सनन्दन जैसे योगीजन थे, किन्तु हे राजन! उस तेज के समक्ष ब्रह्मा तथा उनके पार्षद भी नगण्य प्रतीत हो रहे थे।

2-3 जो महापुरुष भगवान के चरणकमलों की पूजा के लिए आए उनमें वे भी थे जिन्होंने आत्मसंयम तथा विधि-विधानों में सिद्धि प्राप्त की थी। साथ ही वे जो तर्क, इतिहास, सामान्य शिक्षा तथा कल्प नामक (प्राचीन ऐतिहासिक घटनाओं से सम्बन्धित) वैदिक वाड्मय में दक्ष थे। अन्य लोग ब्रह्म संहिताओं जैसे वैदिक उपविषयों, वेदों के अन्य ज्ञान तथा वेदांगों (आयुर्वेद, धनुर्वेद इत्यादि) में पटु थे। अन्य ऐसे थे जिन्होंने योगाभ्यास से जागृत दिव्यज्ञान के द्वारा कर्मफलों से अपने को मुक्त कर लिया था। कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने सामान्य कर्म से नहीं प्रत्युत उच्च वैदिक ज्ञान द्वारा ब्रह्मलोक में निवासस्थान प्राप्त किया था। जल तर्पण द्वारा भगवान के ऊपर उठे चरणकमलों की भक्तिपूर्वक पूजा कर लेने के बाद भगवान विष्णु की नाभि से निकले कमल से उत्पन्न ब्रह्माजी ने भगवान की स्तुति की।

4 हे राजन! ब्रह्मा के कमण्डल से निकला जल अद्भुत कार्यों को करनेवाले उरुक्रम भगवान वामनदेव के चरणकमलों को धोने लगा। इस प्रकार यह जल इतना शुद्ध हो गया कि यह गंगाजल में परिणत होकर आकाश से नीचे बहता हुआ तीनों लोकों को शुद्ध करने लगा मानो भगवान का विमल यश हो।

5 ब्रह्माजी तथा विभिन्न लोकों के प्रधान देवता अपने उन परम स्वामी भगवान वामनदेव की पूजा करने लगे जिन्होंने अपने सर्वत्र-व्यापक रूप को छोटा करके अपना आदि रूप ग्रहण कर लिया था। उन्होंने पूजा की सारी सामग्री एकत्रित की।

6-7 उन्होंने सुगन्धित पुष्प, जल पाद्य तथा अर्ध्य, चन्दन तथा अगुरु के लेप, धूप, दीप, लावा, अक्षत, फल, मूल तथा अंकुरों से भगवान की पूजा की। ऐसा करते समय उन्होंने भगवान के यशस्वी कार्यों को सूचित करने वाली स्तुतियाँ कीं और जयजयकार किया। इस तरह भगवान की पूजा करते हुए उन्होंने नृत्य किया, वाद्ययंत्र बजाये, गाया और शंख तथा दुन्दुभियाँ बजाई।

8 रीछों के राजा जाम्बवान भी इस उत्सव में सम्मिलित हो गये। उन्होंने बिगुल बजाकर सारी दिशाओं में भगवान वामनदेव की विजय का महोत्सव घोषित कर दिया।

9 जब बलि महाराज के असुर अनुयायियों ने देखा कि उनके स्वामी ने जिन्होंने यज्ञ सम्पन्न करने का संकल्प कर रखा था, वामनदेव द्वारा तीन पग भूमि माँगे जाने के बहाने सब कुछ गँवा दिया है, तो वे अत्यधिक क्रुद्ध हुए और इस प्रकार बोले।

10 यह वामन निश्चित रूप से ब्राह्मण न होकर ठगराज भगवान विष्णु है। उसने ब्राह्मण का रूप धारण करके अपने असली रूप को छिपा लिया है और इस तरह यह देवताओं के हित के लिए कार्य कर रहा है।

11 हमारे स्वामी बलि महाराज यज्ञ करने की स्थिति में होने के कारण दण्ड देने की अपनी शक्ति त्याग बैठे हैं। इसका लाभ उठाकर हमारे शाश्वत शत्रु विष्णु ने ब्रह्मचारी भिखारी के वेश में उनका सर्वस्व छीन लिया है।

12 हमारे स्वामी बलि महाराज सदैव सत्य पर दृढ़ रहते हैं और इस समय तो विशेष रूप से क्योंकि उन्हें यज्ञ करने के लिए दीक्षा दी गई है। वे ब्राह्मणों के प्रति सदैव दयालु तथा सदय रहते हैं और वे कभी भी झूठ नहीं बोल सकते।

13 अतएव इस वामनदेव भगवान विष्णु को मार डालना हमारा कर्तव्य है। यह हमारा धर्म है और अपने स्वामी की सेवा करने का तरीका है। इस निर्णय के बाद महाराज बलि के असुर अनुयायियों ने वामनदेव को मारने के उद्देश्य से अपने हथियार उठा लिये।

14 हे राजन! असुरों का सामान्य क्रोध भड़क उठा, उन्होंने अपने-अपने भाले तथा त्रिशूल अपने हाथों में ले लिये और बलि महाराज की इच्छा के विरुद्ध वे वामनदेव को मारने के लिए आगे बढ़े।

15 हे राजन! जब विष्णु के सहयोगियों ने देखा कि असुर सैनिक हिंसा पर उतारू होकर आगे बढ़ रहे हैं, तो वे हँसने लगे। उन्होंने अपने हथियार उठाते हुए असुरों को ऐसा प्रयत्न करने से मना किया।

16-17 नन्द, सुनन्द, जय, विजय, प्रबल, बल, कुमुद, कुमुदाक्ष, विष्वक्सेन, पतत्रिराट (गरुड़) जयन्त, श्रुतदेव, पुष्पदन्त तथा सात्वत-ये सभी भगवान विष्णु के संगी थे। वे दस हजार हाथियों के तुल्य बलवान थे और अब वे असुरों के सैनिकों को मारने लगे।

18 जब बलि महाराज ने देखा कि उनके अपने सैनिक भगवान विष्णु के अनुचरों द्वारा मारे जा रहे हैं, तो उन्हें शुक्राचार्य का शाप याद आया और उन्होंने अपने सैनिकों को युद्ध जारी रखने से मना कर दिया।

19 हे विप्रचित्ति, हे राहू, हे नेमि! जरा मेरी बात तो सुनो! तुम लोग मत लड़ो। तुरन्त रुक जाओ क्योंकि यह समय हमारे अनुकूल नहीं है।

20 हे दैत्यों! कोई भी व्यक्ति मानवीय प्रयासों से उन भगवान को परास्त नहीं कर सकता जो समस्त जीवों को सुख तथा दुख देने वाले हैं।

21 परम काल जो भगवान का प्रतिनिधित्व करता है और जो पहले हमारे अनुकूल और देवताओं के प्रतिकूल था, वही काल अब हमारे विरुद्ध है।

22 कोई भी व्यक्ति भौतिक बल, मंत्रियों की सलाह, बुद्धि, राजनय, किला, मंत्र, औषधि, जड़ी-बूटी या अन्य किसी उपाय से भगवान स्वरूप काल को परास्त नहीं कर सकता।

23 पहले तुम सबने भाग्य द्वारा शक्ति प्राप्त करके भगवान विष्णु के ऐसे अनेक अनुयायियों को परास्त किया था। किन्तु आज वे ही अनुयायी हमें परास्त करके शेरों की तरह उल्लास से दहाड़ रहे हैं।

24 जब तक भाग्य हमारे अनुकूल न हो तब तक हम विजय प्राप्त नहीं कर सकेंगे। अतएव हमें उस अनुकूल समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए तब हम उन्हें पराजित कर सकेंगे।

25 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजन! अपने स्वामी बलि महाराज के आदेश के अनुसार दैत्यों तथा दानवों के सारे सेनापति ब्रह्माण्ड के निचले भागों में प्रविष्ट हुए जहाँ उन्हें विष्णु के सैनिकों ने खदेड़ दिया था।

26 तत्पश्चात यज्ञ समाप्त हो जाने के बाद सोमपान के दिन पक्षीराज गरुड़ ने अपने स्वामी की इच्छा जानकर बलि महाराज को वरुणपाश से बन्दी बना लिया।

27 जब बलि महाराज परम शक्तिशाली भगवान विष्णु द्वारा इस प्रकार बन्दी बना लिये गये तो ब्रह्माण्ड के अधो तथा ऊर्ध्व लोकों की समस्त दिशाओं में शोक से हाहाकार मच गया।

28 हे राजन! तब भगवान वामनदेव अत्यन्त उदार एवं सुविख्यात बलि महाराज से बोले जिन्हें उन्होंने वरुणपाश से बन्दी बनवा लिया था। यद्यपि बलि महाराज के शरीर की सारी कान्ति जा चुकी थी तो भी वे अपने निर्णय पर अटल थे।

29 हे असुरराज! तुमने मुझे तीन पग भूमि देने का वचन दिया है, किन्तु मैंने तो दो ही पग में सारा ब्रह्माण्ड घेर लिया है। अब बताओ कि मैं अपना तीसरा पग कहाँ रखूँ ।

30 जहाँ तक सूर्य तथा तारे सहित चन्द्रमा चमक रहे हैं और जहाँ तक बादल वर्षा करते हैं, वहाँ तक ब्रह्माण्ड की सारी भूमि आपके अधिकार में हैं।

31 इनमें से मैंने एक पग से भूर्लोक को अपना बना लिया है और अपने शरीर से मैंने सारे आकाश तथा सारी दिशाएँ अपने अधिकार में कर ली हैं। तुम्हारी उपस्थिति में ही मैंने अपने दूसरे पग से उच्च स्वर्गलोक को अपना लिया है।

32 चूँकि तुम अपने वचन के अनुसार दान देने में असमर्थ रहे हो अतएव नियम कहता है कि तुम नरकलोक में रहने के लिए चले जाओ। इसलिए अपने गुरु शुक्राचार्य के आदेश से अब तुम नीचे जाओ और वहाँ रहो।

33 जो कोई भिखारी को वचन देकर ठीक से दान नहीं देता उसका स्वर्ग जाना या उसकी इच्छा पूरी होना तो दूर रहा वरन नारकीय जीवन में जा गिरता है।

34 अपने वैभव पर वृथा गर्वित होकर तुमने मुझे भूमि देने का वचन दिया, किन्तु तुम अपने वचन पूरा नहीं कर पाये। अतएव अब तुम्हारे वचन (वादे) झूठे हो जाने के कारण तुम्हें कुछ वर्षों तक नारकीय जीवन बिताना होगा।

( समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय बीस – बलि महाराज द्वारा ब्रह्माण्ड समर्पण (8.20)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा परीक्षित! जब बलि महाराज को उनके गुरु एवं कुलपुरोहित शुक्राचार्य ने इस प्रकार सलाह दी तो वे कुछ समय तक चुप रहे और फिर पूर्ण विचार-विमर्श के बाद अपने गुरु से इस प्रकार बोले।

2 बलि महाराज ने कहा: जैसा कि आप कह चुके हैं, जो धर्म किसी के आर्थिक विकास, इन्द्रियतृप्ति, यश तथा जीविका के साधन में बाधक नहीं होता वही गृहस्थ का असली धर्म है। मैं भी सोचता हूँ कि यही धर्म सही है।

3 मैं महाराज प्रह्लाद का पौत्र हूँ। जब मैं पहले ही कह चुका हूँ कि मैं यह भूमि दान में दूँगा तो फिर धन के लालच से मैं अपने वचन से किस तरह विचलित हो सकता हूँ? मैं किस तरह एक सामान्य वञ्चक का आचरण कर सकता हूँ और वह भी एक ब्राह्मण के प्रति?

4 असत्य से बढ़कर पापमय कुछ भी नहीं है। इसी कारण से एक बार माता पृथ्वी ने कहा था, “मैं किसी भारी बोझ को सहन कर सकती हूँ, किसी झूठे व्यक्ति को नहीं।"

5 मैं नरक, दरिद्रता, दुखरूपी समुद्र, पदच्युत होने या साक्षात मृत्यु से उतना नहीं डरता जितना कि एक ब्राह्मण को ठगने से डरता हूँ।

6 हे प्रभु ! आप यह भी देख सकते हैं कि इस संसार का सारा भौतिक ऐश्वर्य उसके स्वामी की मृत्यु के समय निश्चित रूप से विलग हो जाता है। अतएव यदि ब्राह्मण वामनदेव दिये गए उपहारों से तुष्ट नहीं होते तो क्यों न उन्हें उस धन से तुष्ट कर लिया जाये जो मृत्यु के समय चला जाने वाला है?

7 दधीचि, शिबि तथा अन्य अनेक महापुरुष जनसाधारण के लाभ हेतु अपने प्राणों तक की आहुति देने के इच्छुक थे। इतिहास इसका साक्षी है। तो फिर इस नगण्य भूमि को क्यों न त्याग दिया जाये? इसके लिए गम्भीर सोच विचार कैसा?

8 हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! निस्सन्देह, उन महान असुर राजाओं ने इस संसार का भोग किया है, जो युद्ध करने से कभी भी हिचकिचाते नहीं थे, किन्तु कालान्तर में उनकी कीर्ति के अतिरिक्त उनके पास की हर वस्तु छीन ली गई और वे उसी कीर्ति के बल पर आज भी विद्यमान हैं। दूसरे शब्दों में, मनुष्य को चाहिए कि सब कुछ छोड़कर सुयश अर्जित करने का प्रयास करे।

9 हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! ऐसे अनेक लोग हुए हैं जिन्होंने युद्ध से न डरकर युद्धभूमि में अपने प्राणों की बलि दे दी है, किन्तु ऐसा अवसर किसी को विरले ही मिला है जब किसी मनुष्य ने अपना संचित धन किसी ऐसे साधु पुरुष को निष्ठापूर्वक दान दिया हो जो तीर्थस्थल को जन्म देता है।

10 दान देने से उदार तथा दयालु व्यक्ति निस्सन्देह और अधिक शुभ बन जाता है, विशेषतया जब वह आप जैसे पुरुष को दान देता है। ऐसी परिस्थिति में मुझे इस लघु ब्रह्मचारी को उसका मुँहमाँगा दान देना चाहिए।

11 हे महामुनि! आप जैसे सन्त महापुरुष जो कर्मकाण्ड तथा यज्ञ सम्पन्न करने के वैदिक सिद्धान्तों से पूर्णतया भिज्ञ हैं सभी परिस्थितियों में भगवान विष्णु की उपासना करते हैं। अतएव वही भगवान विष्णु यहाँ चाहे मुझे वरदान देने के लिए आये हों या शत्रु के रूप में मुझे दण्ड देने आये हों, मेरा कर्तव्य है कि मैं उनके आदेश का पालन करूँ और उनके द्वारा माँगी गई भूमि बिना हिचक के उन्हें दूँ।

12 यद्यपि वे साक्षात विष्णु हैं, किन्तु भयवश उन्होंने मेरे पास भिक्षा माँगने आने के लिए ब्राह्मण का वेश धारण कर रखा है, ऐसी परिस्थिति में जब उन्होंने ब्राह्मण रूप धारण कर रखा है तो वे चाहे अधर्म द्वारा मुझे बन्दी बनाते हैं या मेरा वध भी कर देते हैं तब भी मैं उनसे बदला नहीं लूँगा यद्यपि वे मेरे शत्रु हैं।

13 यदि यह ब्राह्मण वास्तव में भगवान विष्णु है, जिसकी पूजा वैदिक स्तुतियों द्वारा की जाती है, तो वह अपने सर्वव्यापक यश को कभी नहीं छोड़ेगा; वह या तो मेरे द्वारा मारा जाकर धराशायी हो जायेगा या युद्ध में मेरा वध कर देगा।

14 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: तत्पश्चात भगवान से प्रेरित होकर गुरु शुक्राचार्य ने अपने उच्च शिष्य बलि महाराज को शाप दे दिया जो इतने उदार एवं सत्यनिष्ठ थे कि अपने गुरु के आदेशों को मानने की बजाय उनकी आज्ञा का उल्लंघन करना चाह रहे थे।

15 यद्यपि तुम्हें कोई ज्ञान नहीं है फिर भी तुम तथाकथित विद्वान पुरुष बन गए हो; और इतने धृष्ट होकर तुम मेरे आदेश का उल्लंघन करने का दुस्साहस कर रहे हो। मेरी आज्ञा का उल्लंघन करने के कारण तुम शीघ्र ही सारे ऐश्वर्य से विहीन हो जाओगे।

16 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: अपने गुरु द्वारा इस प्रकार शापित होने पर भी महापुरुष होने के नाते बलि महाराज अपने संकल्प से डिगे नहीं। अतएव प्रथा के अनुसार उन्होंने सर्वप्रथम वामनदेव को जल अर्पण किया और तब उन्हें वह भूमि भेंट की जिसके लिए वे वचन दे चुके थे।

17 बलि महाराज की पत्नी विध्यावलि जो गले में मोतियों का हार पहने थीं वहाँ पर तुरन्त आई और भगवान की पूजा करने के निमित्त उनके चरणकमलों को पखारने के लिए अपने साथ पानी से भरा सोने का एक बड़ा जलपात्र लेती आई।

18 वामनदेव की पूजा करने वाले बलि महाराज ने प्रसन्नतापूर्वक भगवान के चरणकमलों को धोया; फिर उस जल को अपने सिर पर चढ़ाया क्योंकि वह जल सम्पूर्ण विश्व का उद्धार करता है।

19 उस समय स्वर्गलोक के निवासी--यथा देवता, गन्धर्व, विद्याधर, सिद्ध तथा चारण सभी – बलि महाराज के इस सहज द्वैतरहित कृत्य से परम प्रसन्न हुए और उन्होंने उनके गुणों की प्रशंसा की तथा उन पर लाखों फूल बरसाए।

20 गन्धर्वों, किम्पुरुषों तथा किन्नरों ने पुनः पुनः हजारों दुन्दुभियाँ एवं तुरहियाँ बजाई और परम प्रसन्न होकर गाना शुरु किया, “बलि महाराज कितने महान पुरुष हैं और उन्होंने कितना कठिन कार्य सम्पन्न किया है। यद्यपि वे जानते थे कि भगवान विष्णु उनके शत्रुओं के पक्ष में हैं, तो भी उन्होंने भगवान को दान में सम्पूर्ण तीनों लोक दे दिये।”

21 तब अनन्त भगवान, जिन्होंने वामन का रूप धारण कर रखा था, भौतिक शक्ति की दृष्टि से आकार में बढ़ने लगे यहाँ तक कि ब्रह्माण्ड की सारी वस्तुएँ जिनमें पृथ्वी, अन्य लोक, आकाश, दिशाएँ, ब्रह्माण्ड के विभिन्न छिद्र, समुद्र, पक्षी, पशु, मनुष्य, देवता तथा ऋषिगण सम्मिलित थे, उनके शरीर के भीतर समा गये।

22 बलि महाराज ने अपने समस्त पुरोहितों, आचार्यों तथा सभा के सदस्यों सहित भगवान के विश्वरूप को देखा जो षडऐश्वर्यों से युक्त था। उस शरीर में ब्रह्माण्ड की सारी वस्तुएँ विद्यमान थीं – सारे भौतिक तत्त्व, इन्द्रियाँ, इन्द्रिय-विषय, मन बुद्धि अहंकार, विविध जीव तथा प्रकृति के तीनों गुणों के कर्म तथा उनके फल।

23 तत्पश्चात राजा इन्द्र के आसन पर आसीन बलि महाराज ने अधोलोकों को, यथा रसातल को, भगवान के विराट रूप के पाँव के तलवों पर देखा। उन्होंने भगवान के पाँवों पर पृथ्वी को, पिंडलियों पर सारे पर्वतों को, घुटनों पर विविध पक्षियों को तथा जाँघों पर वायु के विभिन्न प्रकारों (मरुदगण) को देखा।

24 बलि महाराज ने अद्भुत कार्य करने वाले भगवान के वस्त्रों के नीचे संध्या की जगमग देखी, उनके गुप्तांगों में प्रजापतियों को देखा और उनके कटि प्रदेश के गोल भाग में उन्होंने अपने को तथा अपने विश्वस्त पार्षदों को देखा। उन्होंने भगवान की नाभि में आकाश, कमर में सातों समुद्र तथा उनके वक्षस्थल में तारों के समूह देखे।

25-29 हे राजन! उन्होंने भगवान मुरारी के हृदय में धर्म, वक्षस्थल पर मधुर शब्द तथा सत्य, मन में चन्द्रमा, वक्षस्थल पर हाथ में कमल पुष्प लिए लक्ष्मीजी, गले में सारे वेद तथा सारी शब्द ध्वनियाँ, बाहुओं में इन्द्र इत्यादि सारे देवता, दोनों कानों में सारी दिशाएँ, सिर पर उच्चलोक, बालों में बादल, नथुनों में वायु, आँखों में सूर्य और मुख में अग्नि को देखा। उनके शब्दों से सारे वैदिक मंत्र निकल रहे थे, उनकी जीभ पर जलदेवता वरुणदेव थे, उनकी भौंहों पर विधि-विधान तथा उनकी पलकों पर दिन-रात थे (आँखें खुली रहने पर दिन और बन्द होने पर रात्रि)। उनके मस्तक पर क्रोध और उनके होंठों पर लालच था। हे राजन! उनके स्पर्श में कामेच्छाएँ, उनके वीर्य में सारे जल, उनकी पीठ पर अधर्म, उनके अद्भुत कार्यों या पगों में यज्ञ की अग्नि थी। उनकी छाया में मृत्यु, उनकी मुस्कान में माया थी और उनके शरीर के सारे बालों पर औषधियाँ तथा लताएँ थीं। उनकी नाड़ियों में सारी नदियाँ, उनके नाखूनों में सारे पत्थर, उनकी बुद्धि में ब्रह्माजी, देवता तथा महान ऋषिगण और उनके सारे शरीर तथा इन्द्रियों में सारे जड़ तथा चेतन जीव थे। इस प्रकार बलि महाराज ने भगवान के विराट शरीर में प्रत्येक वस्तु को देखा।

30 हे राजन! जब महाराज बलि के समस्त असुर अनुयायियों ने भगवान के विराट रूप को देखा, जिन्होंने अपने शरीर के भीतर सब कुछ समा लिया था, और जब उन्होंने भगवान के हाथ में सुदर्शन नामक चक्र को देखा जो असह्य ताप उत्पन्न करता है और जब उन्होंने उनके धनुष की कोलाहलपूर्ण टनकार सुनी तो इन सबके कारण उनके हृदयों में विषाद उत्पन्न हो गया।

31 बादल की सी गर्जना करने वाला भगवान का पाञ्चजन्य नामक शंख, अत्यन्त वेगवान कौमोदकी गदा, विद्याधर नामक तलवार, सैकड़ों चन्द्रमा जैसे चिन्हों से अलंकृत ढाल एवं तरकसों में सर्वश्रेष्ठ अक्षयसायक – ये सभी भगवान की स्तुति करने के लिए एक साथ प्रकट हुए।

32-33 सुनन्द तथा अन्य प्रमुख पार्षदों के साथ-साथ विभिन्न लोकों के प्रधान देवों ने भगवान की स्तुति की जो चमकीला मुकुट, बाजूबन्द तथा चमकदार मकराकृत कुण्डल पहने हुए थे। भगवान के वक्षस्थल पर श्रीवत्स नामक बालों का गुच्छा और दिव्य कौस्तुभ मणि थे। वे पीतवस्त्र पहने थे जिसके ऊपर कमर की पेटी बँधी थी। वे फूलों की माला से सज्जित थे जिसके चारों ओर भौंरे मँडरा रहे थे। हे राजा! इस प्रकार अपने आपको प्रकट करते हुए अद्भुत कार्यकलापों वाले भगवान ने अपने एक पग से सम्पूर्ण पृथ्वी को, अपने शरीर से आकाश को और अपनी भुजाओं से समस्त दिशाओं को ढक लिया।

34 जब भगवान ने अपना दूसरा पग भरा तो उसमें सारे स्वर्गलोक आ गये। अब तीसरे पग के लिए रंचमात्र भी भूमि न बची क्योंकि भगवान का पग महर्लोक, जनलोक, तपोलोक, यहाँ तक कि सत्यलोक से भी ऊपर तक फैल गया।

( समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय उन्नीस – बलि महाराज से वामनदेव द्वारा दान की याचना (8.19)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: जब भगवान वामनदेव ने बलि महाराज को इस प्रकार मनभावन ढंग से बोलते हुए सुना तो वे परम प्रसन्न हुए क्योंकि बलि महाराज धार्मिक सिद्धान्तों के अनुरूप बोले थे। इस तरह वे बलि की प्रशंसा करने लगे।

2 भगवान ने कहा: हे राजन! तुम सचमुच महान हो क्योंकि तुम्हें वर्तमान सलाह देने वाले ब्राह्मण भृगुवंशी हैं, और तुम्हारे भावी जीवन के शिक्षक तुम्हारे बाबा (पितामह) प्रह्लाद महराज हैं, जो शान्त एवं सम्माननीय (वयोवृद्ध) हैं। तुम्हारे कथन अत्यन्त सत्य हैं और वे धार्मिक शिष्टाचार से पूरी तरह मेल खाते हैं। वे तुम्हारे वंश के आचरण के अनुरूप हैं और तुम्हारे यश को बढ़ाने वाले हैं।

3 मुझे ज्ञात है कि आज तक तुम्हारे परिवार में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं जन्मा है, जो संकीर्ण मन वाला या कंजूस हो। किसी ने न तो ब्राह्मणों को दान देने से मना किया है, न ही दान देने का वचन देकर कोई उसे पूरा करने से विमुख हुआ है।

4 हे राजा बलि! तुम्हारे कुल में कभी भी ऐसा क्षुद्र हृदय वाला राजा उत्पन्न नहीं हुआ जिसने तीर्थस्थानों में ब्राह्मणों द्वारा माँगे जाने पर दान न दिया हो या युद्धभूमि में क्षत्रियों से लड़ने से मना किया हो। तुम्हारा वंश तो प्रह्लाद महाराज के कारण और भी यशस्वी है क्योंकि वे आकाश में सुन्दर चन्द्रमा के समान हैं।

5 तुम्हारे ही वंश में हिरण्याक्ष ने जन्म लिया था। वह केवल अपनी गदा लेकर सारी दिशाओं को जीतने के लिए बिना किसी सहायता के सारी पृथ्वी में अकेले घूम आया, किन्तु उसे कोई ऐसा वीर न मिला जो उसका सामना कर सके।

6 गर्भोदक सागर से पृथ्वी का उद्धार करते समय भगवान विष्णु ने वराह अवतार में हिरण्याक्ष का वध किया जो उनके समक्ष प्रकट हो गया था। तब घमासान युद्ध हुआ और भगवान ने उसे बड़ी कठिनाई से मारा। बाद में जब भगवान ने हिरण्याक्ष के असाधारण पराक्रम के विषय में विचार किया, तो उन्होंने अपने को सचमुच विजयी अनुभव किया।

7 जब हिरण्यकशिपु ने सुना कि उसके भाई का वध कर दिया गया है, तो वह अत्यन्त क्रुद्ध होकर अपने भाई के हत्यारे विष्णु को मारने उनके धाम गया।

8 हिरण्यकशिपु को हाथ में त्रिशूल लिए साक्षात काल की भाँति आगे बढ़ते देखकर समस्त मायावियों में श्रेष्ठ तथा काल की गति को जानने वाले भगवान विष्णु ने इस प्रकार सोचा।

9 जहाँ कहीं भी मैं जाऊँगा, हिरण्यकशिपु मेरा पीछा करेगा जिस तरह मृत्यु सभी जीवों का पीछा करती है। अतएव मेरे लिए यही श्रेयस्कर होगा कि इसके अन्तःस्थल में प्रवेश कर जाऊँ। तब यह अपनी केवल बहिर्मुखी दृष्टि की शक्ति के कारण मुझे नहीं देख सकेगा।

10 भगवान वामनदेव ने आगे कहा: हे असुर-राज! इस निर्णय के बाद भगवान अपने पीछे दौड़ते अपने शत्रु हिरण्यकशिपु के शरीर में प्रवेश कर गये। सूक्ष्म शरीर जिसकी हिरण्यकशिपु कल्पना भी न कर सकता था, धारण करके चिन्तामग्न भगवान विष्णु उसकी श्वास के साथ उसके नथुने में प्रविष्ट हो गये।

11 भगवान विष्णु के निवास – स्थान को रिक्त देखकर हिरण्यकशिपु ने सर्वत्र उनकी खोज करनी शुरु की। उन्हें न पाने के कारण कुपित होकर हिरण्यकशिपु ने ज़ोर से गर्जना की और फिर सारे ब्रह्माण्ड, पृथ्वीलोक, स्वर्गलोक, सारी दिशाओं तथा सारी गुफाओं एवं समुद्रों में उन्हें खोजना शुरु किया। किन्तु वह महान वीर विष्णु को कहीं नहीं देख पाया।

12 उन्हें न देखकर हिरण्यकशिपु ने कहा: मैंने सारा ब्रह्माण्ड छान मारा, किन्तु अपने भाई के हत्यारे विष्णु को मैं कहीं नहीं पा सका। अतएव वह अवश्य ही ऐसी जगह चला गया होगा जहाँ से कोई भी लौट नहीं सकता (अर्थात वह अब मर गया होगा)

13 भगवान विष्णु के प्रति हिरण्यकशिपु का क्रोध उसकी मृत्यु तक बना रहा। देहात्मबुद्धि वाले अन्य लोग केवल मिथ्या अहंकार तथा अज्ञान के प्रबल प्रभाव के कारण क्रोध बनाये रखते हैं।

14 तुम्हारे पिता विरोचन, जो महाराज प्रह्लाद के पुत्र थे, ब्राह्मणों के प्रति अत्यन्त स्नेहिल थे। यद्यपि वे भलीभाँति जानते थे कि ब्राह्मणों का वेश धारण करके देवतागण उनके समक्ष आये थे, किन्तु उनके माँगने पर उन्होंने उन्हें अपनी आयु दे डाली।

15 तुमने भी गृहस्थ ब्राह्मणों, अपने पुरखों तथा महान कार्यों के लिए सुविख्यात शूरवीरों जैसे महान पुरुषों के सिद्धान्तों का पालन किया है।

16 हे दैत्यराज! ऐसे कुलीन एवं मुक्तहस्त दान देने वाले आपसे मैं अपने पैरों के माप की केवल तीन पग भूमि की याचना करता हूँ।

17 हे समग्र ब्रह्माण्ड के नियामक राजा! यद्यपि आप अत्यन्त उदार है और जितनी भूमि चाहूँ मुझे दे सकते हैं, किन्तु मैं आपसे अनावश्यक वस्तु नहीं माँगना चाहता। यदि कोई विद्वान ब्राह्मण अन्यों से अपनी आवश्यकतानुसार दान लेता है, तो वह पापपूर्ण कर्मों में नहीं फँसता।

18 बलि महाराज ने कहा: हे ब्राह्मण पुत्र! तुम्हारे उपदेश विद्वान तथा वयोवृद्ध पुरुषों जैसे हैं। तो भी अभी तुम बालक हो और तुम्हारी बुद्धि अल्प है। अतएव तुम्हें अपने हित का पूरी तरह ज्ञान नहीं है।

19 मैं तुम्हें समूचा द्वीप दे सकता हूँ क्योंकि मैं ब्रह्माण्ड के तीनों विभागों का स्वामी हूँ। तुम मुझसे कुछ लेने आये हो और तुमने मुझे अपने मधुर वचनों से संतुष्ट किया है, किन्तु तुम केवल तीन पग भूमि माँग रहे हो अतएव तुम मुझे अधिक बुद्धिमान नहीं लगते हो।

20 हे बालक! जो एक बार कुछ माँगने के लिए मेरे पास आता है उसे अन्यत्र कुछ भी माँगने की आवश्यकता नहीं रहना चाहिए। अतएव चाहो तो तुम मुझसे उतनी भूमि माँग सकते हो जितने से तुम्हारी जीवनयापन सम्बन्धी आवश्यकता पूरी हो सके।

21 भगवान ने कहा: हे राजन! जिस मनुष्य की इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं उसे तीनों लोकों में इन्द्रियों को तृप्त करने के लिए जो कुछ भी है संतुष्ट नहीं कर सकता।

22 यदि मैं तीन पग भूमि से संतुष्ट न होऊँ तब तो यह निश्चित है कि नौ वर्षों से युक्त सातों द्वीपों में से एक द्वीप पाकर भी मैं संतुष्ट नहीं हो सकूँ गा। यदि मुझे एक द्वीप भी मिल जाये तो मैं अन्य द्वीपों को पाने की आशा करूँगा।

23 हमने सुना है कि यद्यपि महाराज पृथु तथा महाराज गय जैसे शक्तिशाली राजाओं ने सातों द्वीपों पर स्वामित्व प्राप्त कर लिया था, किन्तु फिर भी उन्हें न तो सन्तोष प्राप्त हुआ न ही वे अपनी आकांक्षाओं का कोई अन्त पा सके।

24 मनुष्य को अपने प्रारब्ध से जो कुछ मिलता है उससे संतुष्ट रहना चाहिए क्योंकि असन्तोष से कभी भी सुख प्राप्त नहीं हो सकता। जो व्यक्ति आत्मसंयमी नहीं है, वह तीनों लोकों को पाकर भी सुखी नहीं होगा।

25 भौतिक जीवन कामेच्छा की पूर्ति एवं अधिक धन पाने की इच्छा के कारण असन्तोष उत्पन्न करता है। बारम्बार जन्म तथा मृत्यु से पूर्ण भौतिक जीवन के बने रहने का यही कारण है। किन्तु प्रारब्ध से जो कुछ प्राप्त होता है उसी से संतुष्ट रहने वाले मनुष्य इस भौतिक जगत से मुक्ति पाने के योग्य है।

26 प्रारब्ध से जो कुछ भी प्राप्त होता है उसी से संतुष्ट रहने वाले ब्राह्मण की आध्यात्मिक शक्ति में प्रबुद्धता निरन्तर बढ़ते जाती है, किन्तु असंतुष्ट ब्राह्मण की आध्यात्मिक शक्ति उसी तरह क्षीण होती जाती है, जिस प्रकार पानी छिड़कने से अग्नि की ज्वलनशक्ति घटती है।

27 अतएव हे राजन! दानियों में सर्वश्रेष्ठ आपसे मैं केवल तीन पग भूमि माँग रहा हूँ। इस दान से मैं अत्यधिक प्रसन्न हो जाऊँगा क्योंकि सुखी होने की विधि यही है कि जो नितान्त आवश्यक हो उसे पाकर संतुष्ट हो लिया जाये।

28 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: जब बलि महाराज से भगवान इस प्रकार बोले तो बलि हँस पड़े और उन्होंने कहा "बहुत अच्छा। अब जो इच्छा हो प्राप्त करो।" वामनदेव को इच्छित भूमि देने के अपने वचन का संकल्प करने के लिए उन्होंने अपना जलपात्र उठाया।

29 भगवान विष्णु के प्रयोजन को जानते हुए विद्वानों में श्रेष्ठ शुक्राचार्य ने तुरन्त ही अपने शिष्य बलि से, जो भगवान वामनदेव को सब कुछ देने जा रहे थे, इस प्रकार कहा।

30 शुक्राचार्य ने कहा: हे विरोचनपुत्र! यह वामन रूपधारी ब्रह्मचारी साक्षात अव्यय भगवान विष्णु है। यह कश्यप मुनि को अपना पिता और अदिति को अपनी माता स्वीकार करके देवताओं का हित साधने के लिए प्रकट हुआ है।

31 तुम यह नहीं जान पा रहे कि इन्हें भूमि देने का वचन देकर तुमने कैसी घातक स्थिति अंगीकार कर ली है। मेरी समझ में यह वचन (प्रतिज्ञा) तुम्हारे लिए ठीक नहीं है। इससे असुरों को भारी क्षति होगी।

32 यह व्यक्ति जो ऊपर से ब्रह्मचारी लग रहा है वास्तव में भगवान हरि है, जो तुम्हारी सारी भूमि, सम्पत्ति, सौन्दर्य, शक्ति, यश तथा विद्या लेने के लिए इस रूप में आया है। यह तुम्हारा सर्वस्व छीनकर तुम्हारे शत्रु इन्द्र को दे देगा।

33 तुमने उन्हें दान में तीन पग भूमि देने का वचन दिया है, किन्तु जब तुम इसे दे दोगे तो वे तीनों लोकों में अधिकार जमा लेंगे। तुम निपट मूर्ख हो। तुम नहीं जानते कि तुमने कितनी बड़ी भूल की है। भगवान विष्णु को सर्वस्व दान देने पर तुम्हारे पास जीविका का कोई साधन नहीं रहेगा। तब तुम कैसे जियोगे?

34 सर्वप्रथम वामनदेव एक पग से तीनों लोकों को घेर लेंगे, तत्पश्चात वे दूसरा पग भरेंगे और बाह्य आकाश की प्रत्येक वस्तु को ले लेंगे और तब वे अपने विश्वरूप का विस्तार करके सर्वस्व पर अधिकार जमा लेंगे। तब तुम उन्हें तीसरा पग रखने के लिए कहाँ स्थान दोगे?

35 तुम निश्चित रूप से अपना वचन पूरा करने में असमर्थ होगे और मैं सोचता हूँ कि अपनी इस असमर्थता के कारण तुम्हें नरक में शाश्वत निवास करना पड़ेगा।

36 विद्वान व्यक्ति उस दान की सराहना नहीं करते जिससे किसी की अपनी ही जीविका खतरे में पड़ जाये। दान, यज्ञ, तप तथा सकाम कर्म वही कर सकता है, जो अपनी जीविका कमाने में पूर्ण सक्षम हो (जो अपना भरण-पोषण न कर सके उसके लिए ये कार्य असम्भव हैं)

37 अतएव जो ज्ञानी है उसे चाहिए कि अपने संचित धन को पाँच भागों में विभाजित कर दे---धर्म के लिए, यश के लिए, ऐश्वर्य के लिए, इन्द्रियतृप्ति के लिए तथा कुटुम्बी-जनों के भरण-पोषण के लिए। ऐसा व्यक्ति इस लोक में तथा परलोक में भी सुखी रहता है।

38 कोई यह तर्क कर सकता है कि चूँकि तुमने पहले ही वचन दे दिया है अतएव अब कैसे मना कर सकते हो? हे असुरश्रेष्ठ! तुम मुझसे बहुचश्रुति का साक्ष्य ले सकते हो जो यह कहती है कि वह वचन सत्य है, जिसके आरम्भ में ॐ हो; वह असत्य है, जो ॐ से आरम्भ न हो।

39 वेदों का आदेश है कि शरीर रूपी वृक्ष का वास्तविक परिणाम तो इससे मिलने वाले उत्तम फल तथा फूल हैं। किन्तु यदि यह शरीर रूपी वृक्ष ही न रहे तो फिर इन वास्तविक फल-फूलों के होने की कोई सम्भावना नहीं है। यहाँ तक कि यदि शरीर असत्य की नींव पर भी टिका हो तो भी शरीर रूपी वृक्ष के बिना वास्तविक फल-फूल नहीं हो सकते।

40 जड़ समेत उखाड़ने पर वृक्ष तुरन्त गिर जाता है और सूखने लगता है। इसी प्रकार यदि कोई इस शरीर की परवाह नहीं करता, जो असत्य माना जाता है – अर्थात यदि इस असत्य का उन्मूलन कर दिया जाये – तो यह शरीर निश्चय ही सूख जाता है।

41 ॐ शब्द का उच्चारण ही मनुष्य के धनधान्य के वियोग का सूचक है। दूसरे शब्दों में ॐ का उच्चारण करने से मनुष्य धन के प्रति आसक्ति से छूट जाता है क्योंकि उसका धन उससे ले लिया जाता है। किन्तु धनविहीन होना ठीक नहीं है क्योंकि ऐसी अवस्था में मनुष्य अपनी इच्छाओं को पूरा नहीं कर सकता। दूसरे शब्दों में, ॐ शब्द का उच्चारण करने से मनुष्य विपन्न हो जाता है। विशेषतया जब कोई किसी दरिद्र व्यक्ति या भिक्षुक को दान देता है, तो उसका आत्म-साक्षात्कार तथा उसकी इन्द्रियतृप्ति अधूरे रह जाते हैं।

42 अतएव सुरक्षित उपाय है कि 'नहीं' कह दिया जाये। यद्यपि यह असत्यता है, किन्तु इससे पूरी रक्षा हो जाती है, इससे अपने प्रति दूसरों की सहानुभूति भी मिलती है और अपने लिए अन्यों से धन एकत्र करने में पूरी सुविधा मिलती है। फिर भी यदि कोई सदा यही कहे कि उसके पास कुछ नहीं है, तो उसकी निन्दा होती है क्योंकि वह जीवित रहकर भी मृतक के समान है।

43 किसी स्त्री को अपने वश में लाने के लिए चिकनी-चुपड़ी बातें करने में, हास-परिहास में, विवाह-उत्सव में, अपनी जीविका कमाने में, प्राणों का संकट उपस्थित होने पर, गायों तथा ब्राह्मण संस्कृति की रक्षा करने या शत्रु के हाथों से किसी व्यक्ति की रक्षा करने में असत्य भाषण भी कभी निन्दनीय नहीं माना जाता।

( समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय अठारह – वामन अवतार भगवान वामनदेव (8.18)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब ब्रह्माजी इस प्रकार भगवान के कार्यों एवं पराक्रम का यशोगान कर चुके तो भगवान जिनकी एक सामान्य जीव की भाँति कभी मृत्यु नहीं होती, अदिति के गर्भ से प्रकट हुए। उनके चार हाथ शंख, चक्र, गदा तथा पद्म से सुशोभित थे। वे पीताम्बर धारण किये हुए थे और उनकी आँखें खिले हुए कमल की पंखुड़ियों जैसी प्रतीत हो रही थी।

2 भगवान का शरीर साँवले रंग का था और समस्त उन्मादों से मुक्त था। उनका कमलमुख मकराकृति जैसे कान के कुण्डलों से सुशोभित होकर अत्यन्त सुन्दर लग रहा था और उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह था। वे कलाइयों में कंगन पहने थे, अपनी भुजाओं में बाजूबन्द पहने थे, सिर पर मुकुट लगाये थे, उनकी कमर में करधनी थी, छाती पर जनेऊ पड़ा था और उनके चरणकमलों को पायल सुशोभित कर रही थी।

3 उनके वक्षस्थल पर सुन्दर फूलों की असाधारण माला थी और फूलों के अत्यधिक सुगन्धित होने से मधुमक्खियों का बड़ा सा समूह गुंजार करता हुआ शहद के लिए उन पर टूट पड़ा था। जब भगवान अपने गले में कौस्तुभ मणि पहनकर प्रकट हुए तो उनके तेज से प्रजापति कश्यप के घर का अंधकार दूर हो गया।

4 उस समय सभी दिशाओं में, नदी तथा सागर जैसे जलागारों में तथा सबके हृदयों में प्रसन्नता व्याप्त हो गई। विभिन्न ऋतुएँ अपने-अपने गुण दिखलाने लगीं तथा उच्चलोक, बाह्य आकाश एवं पृथ्वी के सारे जीव हर्षित हो उठे। देवता, गाएँ, ब्राह्मण तथा सारे पर्वत हर्ष से पूरित हो गए।

5 श्रवण द्वादशी (भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की द्वादशी) के दिन जब चन्द्रमा श्रवण राशि पर था और शुभ अभिजीत मुहूर्त था, भगवान इस ब्रह्माण्ड में प्रकट हुए। भगवान के प्राकट्य को अत्यन्त शुभ मानकर सूर्य से लेकर शनि इत्यादि समस्त तारे तथा ग्रह अत्यन्त उदार बन गये।

6 हे राजन! द्वादशी के दिन जब भगवान प्रकट हुए तो सूर्य मध्य आकाश में था, जैसा कि प्रत्येक विद्वान को पता है। यह द्वादशी विजया कहलाती है।

7 शंख, ढोल, मृदंग, पणव तथा आनक बजने लगे। इनके तथा अन्य विविध वाद्ययंत्रों की ध्वनि अत्यन्त कोलाहलपूर्ण थी।

8 अत्यधिक हर्षित होकर अप्सराएँ प्रसन्नता के मारे नाचने लगीं, श्रेष्ठ गन्धर्व गाने लगे और महा-मुनि, देवता, मनु, पितरगण तथा अग्निदेवों ने भगवान को प्रसन्न करने के लिए स्तुतियाँ कीं।

9-10 सिद्ध, विद्याधर, किम्पुरुष, किन्नर, चारण, यक्ष, राक्षस, सुपर्ण, सर्पलोक के सर्वश्रेष्ठ निवासी तथा देवताओं के अनुयायी – इन सबों ने भगवान का यशोगान तथा प्रशंसा करते हुए एवं नृत्य करते हुए अदिति के निवास स्थान पर इतने फूल बरसाये कि उनका पूरा घर ढक गया।

11 जब अदिति ने देखा कि भगवान ने जो उनके ही गर्भ से प्रकट हुए थे अपनी आध्यात्मिक शक्ति से दिव्य शरीर धारण कर लिया है, तो वे आश्चर्यचकित हो उठीं और अत्यन्त प्रमुदित हो गई। उस बालक को देखकर प्रजापति कश्यप परम सुख एवं आश्चर्य के वशीभूत होकर जय! जय! का घोष करने लगे।

12 भगवान अपने आदि रूप में आभूषण पहने तथा हाथ में आयुध धारण किये प्रकट हुए। यद्यपि उनका यह सदैव विद्यमान रहने वाला रूप भौतिक जगत में दृश्य नहीं है, तो भी वे इसी रूप में प्रकट हुए। तत्पश्चात अपने माता-पिता की उपस्थिति में ही उन्होंने उसी तरह ब्राह्मण वामन अर्थात ब्रह्मचारी का रूप धारण कर लिया जिस तरह कोई नट कर लेता है।

13 जब ऋषियों ने भगवान को ब्रह्मचारी वामन के रूप में देखा तो वे निश्चय ही परम प्रसन्न हुए। अतएव प्रजापति कश्यप मुनि को आगे करके उन्होंने सारे अनुष्ठान यथा-- जन्म संस्कार – सम्पन्न किये।

14 वामनदेव के यज्ञोपवीत संस्कार के समय सूर्यदेव ने स्वयं गायत्री मंत्र का जप कराया, बृहस्पति ने जनेऊ प्रदान किया और कश्यप मुनि ने मूँज की मेखला भेंट की।

15 माता पृथ्वी ने उन्हें मृगचर्म प्रदान किया तथा वनस्पतियों के राजा चन्द्रदेव ने उन्हें ब्रह्मदण्ड (ब्रह्मचारी का डंडा) प्रदान किया। उनकी माता अदिति ने उन्हें कौपीन के लिए वस्त्र तथा स्वर्गलोक के अधिष्ठाता देवता ने उन्हें छत्र प्रदान किया।

16 हे राजन! ब्रह्माजी ने अव्यय भगवान को कमण्डल प्रदान किया, सप्तर्षियों ने कुशा और माता सरस्वती ने उन्हें रुद्राक्ष की माला भेंट की।

17 जब इस प्रकार से वामनदेव का यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न हो चुका तो यक्षराज कुबेर ने उन्हें भिक्षा माँगने के लिए भिक्षापात्र एवं शिव-पत्नी, ब्रह्माण्ड की परम साध्वी, माता भगवती ने उन्हें पहली भिक्षा दी।

18 इस प्रकार सबके द्वारा स्वागत किये जाने पर ब्रह्मचारियों में श्रेष्ठ वामनदेव ने अपना ब्रह्मतेज प्रदर्शित किया। इस तरह महान सन्त ब्राह्मणों की उस पूरी सभा में वे अपनी सुन्दरता में अद्वितीय लग रहे थे। तत्पश्चात श्री वामनदेव ने यज्ञ-अग्नि प्रज्ज्वलित की, पूजा सम्पन्न की और यज्ञशाला में यज्ञ किया।

20 जब भगवान ने सुना कि बलि महाराज भृगुवंशी ब्राह्मणों के संरक्षण में अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न कर रहे हैं, तो सभी प्रकार परिपूर्ण भगवान बलि महाराज पर अपनी कृपा दिखाने के लिए वहाँ के लिए चल पड़े। एक-एक डग भरने पर उनके भार से पृथ्वी नीचे धँसने लगी।

21 नर्मदा नदी के उत्तरी तट पर भृगुकक्ष नामक क्षेत्र में यज्ञ सम्पन्न करते हुए भृगुवंशी ब्राह्मण पुरोहितों ने वामनदेव को ऐसे देखा मानो पास में ही सूर्य उदय हो रहा हो।

22 हे राजन! वामनदेव के उदीयमान तेज से बलि महाराज एवं सभा के सारे सदस्यों सहित सारे पुरोहित तेजहीन हो गये। वे परस्पर पूछने लगे कि कहीं साक्षात सूर्यदेव या सनत्कुमार या अग्निदेव तो यज्ञोत्सव को देखने नहीं आ गये?

23 जब भृगुवंशी पुरोहित तथा उनके शिष्य अनेक प्रकार के तर्क-वितर्कों में संलग्न थे उसी समय भगवान वामनदेव हाथों में दण्ड, छाता तथा जल से भरा कमण्डल लिए अश्वमेध यज्ञशाला में प्रविष्ट हुए।

24-25 भगवान वामनदेव मूँज की मेखला, जनेऊ, मृगचर्म का उत्तरीय वस्त्र तथा जटाजूट धारण किये हुए ब्राह्मण बालक के रूप में उस यज्ञशाला में प्रविष्ट हुए। उनके तेज से सारे पुरोहितों एवं उनके शिष्यों का तेज घट गया; वे अपने आसनों से उठ खड़े हुए और प्रणाम करते हुए सबों ने समुचित रीति से उनका स्वागत किया।

26 भगवान वामनदेव को देखकर अति प्रफुल्लित बलि महाराज ने परम प्रसन्नतापूर्वक उन्हें बैठने के लिए आसन प्रदान किया। भगवान के शरीर के सुन्दर अंग उनके शरीर की सुन्दरता को समान रूप से योगदान दे रहे थे।

27 इस प्रकार मुक्त्तात्माओं को सदैव सुन्दर लगने वाले भगवान का समुचित स्वागत करते हुए बलि महाराज ने उनके चरणकमल पखारकर उनकी पूजा की।

28 देवताओं में सर्वश्रेष्ठ, ललाट पर चन्द्रमा का प्रतीक-चिन्ह धारण करने वाले शिवजी विष्णु के अँगूठे से निकलने वाले गंगाजल को अपने सिर पर भक्तिपूर्वक धारण करते हैं। धार्मिक सिद्धान्तों को जानने वाले होने के कारण बलि महाराज को यह ज्ञात था; फलस्वरूप शिवजी का अनुसरण करते हुए उन्होंने भी भगवान के चरणकमलों के प्रक्षालन से प्राप्त जल को अपने सिर पर रख लिया।

29 तब बलि महाराज ने वामनदेव से कहा: हे ब्राह्मण! मैं आपका हार्दिक स्वागत करता हूँ और आपको सादर नमस्कार करता हूँ। कृपया बतलायें कि हम आपके लिये क्या करें? हम आपको ब्रह्मर्षियों की तपस्या का साकार रूप मानते हैं।

30 हे प्रभु! आप कृपा करके हमारे घर पधारे हैं अतः मेरे सारे पूर्वज संतुष्ट हो गये, हमारा परिवार तथा समस्त वंश पवित्र हो गया और हम जिस यज्ञ को कर रहे थे वह आपकी उपस्थिति से अब पूरा हो गया।

31 हे ब्राह्मणपुत्र! आज यह यज्ञ-अग्नि शास्त्रों के आदेशानुसार प्रज्ज्वलित हुई है और आपके पादप्रक्षालित जल से मैं अपने पापकर्मों के समस्त फलों से मुक्त हो गया हूँ। हे स्वामी! आपके लघु चरणारविन्द के स्पर्श से समग्र जगती-तल पवित्र हो गया है।

32 हे ब्राह्मणपुत्र ! ऐसा प्रतीत होता है कि आप यहाँ मुझसे कुछ माँगने आये हैं। अतएव आप जो भी चाहें मुझसे ले सकते हैं। हे परम पूज्य! आप गाय, सोना, सज्जित घर, स्वादिष्ट भोजन तथा पेय, पत्नी के रूप में ब्राह्मण कन्या, समृद्ध गाँव, घोड़े, हाथी, रथ या जो भी इच्छा हो मुझसे ले सकते हैं।

( समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय सत्रह – भगवान को अदिति का पुत्र बनना स्वीकार (8.17)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! इस प्रकार अपने पति कश्यपमुनि द्वारा उपदेश दिये जाने पर अदिति ने बिना आलस्य के उनके आदेशों का दृढ़ता से पालन किया और पयोव्रत अनुष्ठान सम्पन्न किया।

2-3 अदिति ने पूर्ण अविचल ध्यान से भगवान का चिन्तन किया और इस तरह उन्होंने शक्तिशाली घोड़ों जैसे अपने मन तथा इन्द्रियों को पूरी तरह अपने वश में कर लिया। उन्होंने अपने मन को भगवान वासुदेव पर एकाग्र कर दिया और इस तरह पयोव्रत नामक अनुष्ठान पूरा किया।

4 हे राजन! तब अदिति के समक्ष आदि भगवान पीताम्बर वस्त्र पहने तथा अपने चारों हाथों में शंख, चक्र, गदा तथा कमल धारण किए हुए प्रकट हुए।

5 जब अदिति की आँखों से भगवान दिखने लगे तो दिव्य आनन्द के कारण वे इतनी भाव विभोर हो उठीं कि वह तुरन्त ही उठकर भगवान को सादर नमस्कार करने के लिए भूमि पर दण्ड के समान लोट गई।

6 भगवान की स्तुति करने में असमर्थ होने के कारण अदिति हाथ जोड़े मौन खड़ी रहीं। दिव्य आनन्द के कारण उनकी आँखों में आँसू भर आए और उनके शरीर के रोंगटे खड़े हो गये। चूँकि वे भगवान को अपने समक्ष देख रही थीं अतएव वे आह्लादित हो उठीं और उनके शरीर में कँपकपी छूट गयी।

7 हे महराज परीक्षित! तब देवी अदिति ने थरथराती हुई वाणी से अत्यन्त प्रेमपूर्वक भगवान की स्तुति प्रारम्भ की। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वे लक्ष्मीपति, समस्त यज्ञों के भोक्ता तथा समग्र विश्व के प्रभु एवं स्वामी भगवान को अपनी आँखों से पिये जा रही हों।

8 देवी अदिति ने कहा: हे समस्त यज्ञों के भोक्ता तथा स्वामी, हे अच्युत तथा परम प्रसिद्ध पुरुष, जिनका नाम लेते ही मंगल का प्रसार होता है, हे आदि भगवान, परम नियन्ता, समस्त पवित्र तीर्थस्थलों के आश्रय! आप समस्त दीन-दुखियों के आश्रय हैं और उनका कष्ट कम करने के लिए प्रकट हुए हैं। आप हम पर कृपालु हों और हमारे सौभाग्य का विस्तार करें।

9 हे प्रभु! आप सर्वव्यापी विश्वरूप इस विश्व के परम स्वतंत्र स्रष्टा, पालक तथा संहारक हैं। यद्यपि आप अपनी शक्ति को पदार्थ में लगाते हैं, तो भी आप सदैव अपने आदि रूप में स्थित रहते हैं और कभी उस पद से च्युत नहीं होते क्योंकि आपका ज्ञान अच्युत है और किसी भी स्थिति के लिए सदैव उपयुक्त है। आप कभी मोहग्रस्त नहीं होते। हे स्वामी! मैं आपको सादर नमस्कार करती हूँ।

10 हे अनन्त! यदि आप प्रसन्न हैं, तो मनुष्य को ब्रह्मा जैसी दीर्घायु, उच्च, मध्य या निम्नलोक में शरीर, असीम भौतिक ऐश्वर्य, धर्म, अर्थ तथा इन्द्रियतोष, पूर्ण दिव्यज्ञान तथा आठों योगिसिद्धियाँ बड़ी आसानी से प्राप्त हो सकती हैं। अपने प्रतिद्वन्द्वियों पर विजय प्राप्त करने की बात करना तो अत्यन्त नगण्य उपलब्धि है ।

11 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे भरतवंश में श्रेष्ठ, राजा परीक्षित! जब अदिति ने सभी जीवों के परमात्मा कमलनयन की इस तरह से स्तुति की तो भगवान ने इस प्रकार उत्तर दिया।

12 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने कहा: हे देवताओं की माता! मैं तुम्हारी उस दीर्घकाल से इच्छित अभिलाषा को पहले ही समझ गया हूँ जो तुम्हारे उन पुत्रों के कल्याण के विषय में है, जो शत्रुओं द्वारा अपने समस्त ऐश्वर्य से च्युत कर दिये गये हैं और अपने घरों से खदेड़ दिये गये हैं।

13 हे देवी! मैं समझ रहा हूँ कि तुम अपने पुत्रों को पुनः प्राप्त करके, शत्रुओं को युद्धभूमि में पराजित करके, अपना धाम तथा ऐश्वर्य पुनः प्राप्त करके उन सबके साथ मिलकर मेरी पूजा करना चाहती हो।

14 तुम अपने पुत्रों के शत्रु उन असुरों की पत्नियों को उनके पतियों की मृत्यु पर विलाप करते हुए देखना चाहती हो जब वे इन्द्रादि देवताओं द्वारा युद्ध में मारे जाएँ।

15 तुम चाहती हो कि तुम्हारे पुत्र खोया हुआ यश तथा ऐश्वर्य फिर से प्राप्त करें और पुनः पूर्ववत अपने स्वर्गलोक में निवास करें।

16 हे देवताओं की माता! मेरे विचार से असुरों के सारे प्रधान अब अजेय हैं क्योंकि वे उन ब्राह्मणों द्वारा सुरक्षित हैं जिन पर भगवान की सदैव कृपा रहती है। अतएव उनके विरुद्ध बल-प्रयोग अब सुख का स्रोत नहीं बन सकता।

17 हे देवी अदिति! फिर भी चूँकि मैं तुम्हारे व्रत-कार्य से प्रसन्न हुआ हूँ अतएव मुझे तुम पर कृपा करने के लिए कोई न कोई साधन खोजना होगा क्योंकि मेरी पूजा कभी व्यर्थ नहीं जाती, प्रत्युत पात्रता के अनुरूप वांछित फल देने वाली होती है।

18 तुमने अपने पुत्रों की रक्षा के लिए मेरी स्तुति की है और महान पयोव्रत रखकर मेरी समुचित पूजा की है। मैं कश्यपमुनि की तपस्या के कारण तुम्हारा पुत्र बनना स्वीकार करूँगा और इस प्रकार तुम्हारे अन्य पुत्रों की रक्षा करूँगा।

19 तुम अपने पति कश्यप के शरीर के भीतर सदैव मुझे स्थित मानकर उनकी पूजा करो क्योंकि वे अपनी तपस्या से शुद्ध हो चुके हैं।

20 हे नारी! यदि कोई पूछे तो भी तुम्हें यह बात किसी को प्रकट नहीं करनी चाहिए। यदि परम गोपनीय बात को गुप्त रखा जाता है, तो वह सफल होती है।

21 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: ऐसा कहकर भगवान उस स्थान से अन्तर्धान हो गये। भगवान से यह परम मूल्यवान आशीर्वाद पाकर कि वे उसके पुत्र रूप में प्रकट होंगे, अदिति ने अपने को अत्यन्त सफल माना और वह अत्यन्त भक्तिपूर्वक अपने पति के पास गई। ध्यान समाधि में स्थित होने के कारण अचूक दृष्टि वाले कश्यप मुनि यह देख सके कि उनके भीतर भगवान का स्वांश प्रविष्ट कर गया है।

23 हे राजन! जिस तरह वायु काठ के दो टुकड़ों के बीच घर्षण को तेज करती है और अग्नि उत्पन्न कर देती है उसी तरह भगवान में पूर्णतया ध्यानमग्न कश्यपमुनि ने अपने वीर्य को अदिति की कोख में स्थानांतरित कर दिया।

24 जब ब्रह्माजी को ज्ञात हो गया कि भगवान अदिति के गर्भ में हैं, तो वे दिव्य नामों का पाठ करके भगवान की स्तुति करने लगे।

25 ब्रह्माजी ने कहा: हे भगवान! आपकी जय हो। आप सबके द्वारा महिमान्वित हैं और आपके कार्यकलाप असामान्य होते हैं। हे योगियों के प्रभु, हे प्रकृति के तीनों गुणों के नियन्ता! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। मैं आपको पुनः पुनः नमस्कार करता हूँ।

26 हे सर्वव्यापी भगवान विष्णु! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ क्योंकि आप समस्त जीवों के हृदयों के भीतर स्थित हैं। तीनों लोक आपकी नाभि के भीतर निवास करते हैं, फिर भी आप इन तीनों लोकों से परे हैं। पहले आप पृश्नि के पुत्र रूप में प्रकट हुए थे। मैं उन परम स्रष्टा को सादर नमस्कार करता हूँ जिन्हें केवल वैदिक ज्ञान के द्वारा ही जाना जा सकता है।

27 हे प्रभु! आप तीनों लोकों के आदि, मध्य तथा अन्त हैं और वेदों में आप असीम शक्तियों के आगार, परम पुरुष के रूप में विख्यात हैं। हे स्वामी! जिस प्रकार लहरें गहरे जल में गिरी हुई टहनियों तथा पत्तियों को खींच लेती हैं उसी प्रकार परम शाश्वत काल रूप आप इस ब्रह्माण्ड की प्रत्येक वस्तु को खींचते हैं।

28 हे प्रभु! आप समस्त चर या अचर जीवों के आदि जनक हैं और आप प्रजापतियों के भी जनक हैं। हे स्वामी! जिस प्रकार जल में डूबते हुए व्यक्ति के लिए नाव ही एकमात्र सहारा होती है उसी तरह आप इस समय अपने स्वर्ग-पद से च्युत देवताओं के एकमात्र आश्रय हैं।

( समर्पित एवं सेवारत जगदीश चन्द्र चौहान )

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अध्याय सोलह – पयोव्रत पूजा विधि का पालन करना (8.16)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! जब अदिति के पुत्र देवतागण स्वर्गलोक से अदृश्य हो गये और असुरों ने उनका स्थान ग्रहण कर लिया तो अदिति इस प्रकार विलाप करने लगी मानो उसका कोई रक्षक न हो।

2 महान शक्तिशाली कश्यपमुनि कई दिनों बाद जब ध्यान की समाधि से उठे और घर लौटे तो देखा कि अदिति के आश्रम में न तो हर्ष है, न उल्लास।

3 हे कुरुश्रेष्ठ! भलीभाँति सम्मान तथा स्वागत किये जाने के बाद कश्यपमुनि ने आसन ग्रहण किया और अत्यन्त उदास दिख रही अपनी पत्नी अदिति से इस प्रकार कहा।

4 हे भद्रे! मुझे आश्चर्य है कि कहीं धर्म पर, ब्राह्मण वर्ग या काल की सोच के अधीन जनता को कुछ हो तो नहीं गया?

5 हे गृहस्थ जीवन में अनुरक्त मेरी पत्नी! यदि कोई गृहस्थ जीवन में धर्म, अर्थ तथा काम का समुचित पालन करता है, तो उसके कार्यकलाप एक अध्यात्मवादी (योगी) के ही समान श्रेष्ठ होते हैं। मुझे आश्चर्य है कि क्या इन नियमों के पालन में कोई त्रुटि आ गई है?

6 मुझे आश्चर्य है कि कहीं तुम अपने परिवार के सदस्यों में अत्यधिक आसक्त रहने के कारण अचानक आए अतिथियों का ठीक से स्वागत नहीं कर पाई और वे बिना सत्कार के ही वापस चले गये?

7 जिन घरों में मेहमान एक गिलास जल भेंट किए गए बिना वापस चले जाते हैं, वे घर खेतों के उन बिलों के समान हैं जिनमें सियार रहते हैं।

8 हे सती तथा शुभे! जब मैं घर से अन्य स्थानों को चला गया तो क्या तुम इतनी चिन्तित थीं कि अग्नि में घी की आहुति भी नहीं दे सकीं?

9 एक गृहस्थ अग्नि तथा ब्राह्मणों की पूजा करके उच्च लोकों में निवास करने के वांछित लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है क्योंकि यज्ञ की अग्नि तथा ब्राह्मणों को समस्त देवताओं के परमात्मा स्वरूप भगवान विष्णु का मुख माना जाना चाहिए।

10 हे मनस्विनि! तुम्हारे सारे पुत्र कुशलपूर्वक तो हैं? तुम्हारे म्लान मुख को देखकर मुझे लगता है कि तुम्हारा मन शान्त नहीं है। ऐसा क्यों है?

11 अदिति ने कहा: हे मेरे पूज्य ब्राह्मण पति! ब्राह्मण, गाएँ, धर्म तथा अन्य लोग सभी कुशलपूर्वक हैं। हे मेरे घर के स्वामी! धर्म, अर्थ तथा काम ये तीनों गृहस्थ जीवन में ही फलते फूलते हैं जिसके फलस्वरूप यह जीवन सौभाग्य से पूर्ण होता है।

12 हे प्रिय पति! मैं अग्नि, अतिथि, सेवक तथा भिखारी इन सबका समुचित ध्यान रखती रही हूँ। चूँकि मैं सदैव आपका चिन्तन करती रही हूँ अतएव धर्म में किसी प्रकार की उपेक्षा की सम्भावना नहीं रही।

13 हे स्वामी! जब आप प्रजापति हैं और धर्म के सिद्धान्तों के पालन में साक्षात मेरे उपदेशक हैं, तो फिर मेरी इच्छाओं के पूरा न होने में क्या सम्भावना रह सकती है?

14 हे मरीचि पुत्र! आप महापुरुष होने के कारण असुरों तथा देवताओं के प्रति समभाव रखते हैं क्योंकि वे या तो आपके शरीर से उत्पन्न हैं या आपके मन से। वे सतो, रजो तथा तमो गुणों में से किसी न किसी गुण से युक्त हैं। लेकिन परम नियन्ता भगवान समस्त जीवों पर समदर्शी होते हुए भी भक्तों पर विशेष रूप से अनुकूल रहते हैं।

15 अतएव हे भद्र स्वामी! अपनी दासी पर कृपा कीजिये। हमारे प्रतिद्वन्द्वी असुरों ने अब हमें ऐश्वर्य तथा घर-बार से विहीन कर दिया है। कृपा करके हमें संरक्षण प्रदान कीजिये।

16 अत्यन्त शक्तिशाली शत्रु असुरों ने हमारा ऐश्वर्य, सौन्दर्य, यश--यहाँ तक कि हमारा घर भी हमसे छीन लिया है। दरअसल अब हमें वनवास दे दिया गया है और हम विपत्ति के सागर में डूबे जा रहे हैं।

17 हे श्रेष्ठ साधु, हे कल्याण करने वाले परम श्रेष्ठ! हमारी स्थिति पर विचार करें और मेरे पुत्रों को ऐसा वर दें जिससे वे अपनी खोई हुई वस्तुएँ फिर से प्राप्त कर सकें।

18 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: जब अदिति ने कश्यप मुनि से इस प्रकार प्रार्थना की तो वे कुछ मुस्काये और उन्होंने कहा "ओह! भगवान विष्णु की माया कितनी प्रबल है, जिससे सारा संसार बच्चों के स्नेह से बँधा रहता है।"

19 कश्यप मुनि ने आगे कहा: यह पाँच तत्त्वों से बना भौतिक शरीर है क्या? यह आत्मा से भिन्न है। निस्सन्देह, आत्मा उन भौतिक तत्त्वों से सर्वथा भिन्न है जिनसे यह शरीर बना हुआ है। किन्तु शारीरिक आसक्ति के कारण ही किसी को पति या पुत्र माना जाता है। ये मोहमय सम्बन्ध अज्ञान के कारण उत्पन्न होते हैं।

20 हे अदिति! तुम उन भगवान की भक्ति में लगो जो हरेक के स्वामी, शत्रुओं का दमन करने वाले तथा जो सबके हृदय में आसीन रहते हैं। वे ही परम पुरुष, श्रीकृष्ण अथवा वासुदेव, सबको शुभ वरदान दे सकते हैं क्योंकि वे विश्व के स्वामी हैं।

21 दीनों पर अत्यन्त दयालु भगवान तुम्हारी सारी इच्छाओं को पूरा करेंगे क्योंकि उनकी भक्ति अच्युत है। भक्ति के अतिरिक्त अन्य सारी विधियाँ व्यर्थ हैं। ऐसा मेरा मत है।

22 श्रीमती अदिति ने कहा: हे ब्राह्मण! मुझे वह विधि-विधान बतलाये जिससे मैं जगन्नाथ की पूजा कर सकूँ और भगवान मुझसे प्रसन्न होकर मेरी समस्त इच्छाओं को पूरा कर दें।

23 हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! कृपा करके मुझे भगवान की भक्तिपूर्वक पूजा की पूर्ण विधि का उपदेश दें जिससे भगवान मुझ पर तुरन्त ही प्रसन्न हो जायें और मुझे मेरे पुत्रों सहित इस अत्यन्त संकटपूर्ण परिस्थिति से उबार लें।

24 श्री कश्यप मुनि ने कहा: जब मुझे सन्तानों की इच्छा हुई तो मैंने कमलपुष्प से उत्पन्न होनेवाले ब्रह्माजी से जिज्ञासा की। अब मैं तुम्हें वही विधि बतलाऊँगा जिसका उपदेश ब्रह्माजी ने मुझे दिया था और जिससे भगवान केशव तुष्ट होते हैं।

25 फाल्गुन मास (फरवरी-मार्च) के शुक्ल पक्ष में द्वादशी के बारह दिनों तक मनुष्य को केवल दूध पर आश्रित रहकर व्रत रखना चाहिए और भक्तिपूर्वक कमलनयन भगवान की पूजा करनी चाहिए।

26 यदि सुअर द्वारा खोदी गई मिट्टी उपलब्ध हो तो अमावस्या के दिन अपने शरीर पर इस मिट्टी का लेप करे और बहती नदी में स्नान करे। स्नान करते समय निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करे।

27 हे माता पृथ्वी! तुम्हारे द्वारा ठहरने के लिए स्थान पाने की इच्छा करने पर भगवान ने वराह रूप में तुम्हें ऊपर निकाला था। मैं प्रार्थना करता हूँ कि कृपा करके मेरे पापी जीवन के सारे फलों को आप विनष्ट कर दें। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

28 तत्पश्चात वह अपने नित्य तथा नैमित्तिक आध्यात्मिक कार्य करे और तब बड़े ही मनोयोग से भगवान के अर्चाविग्रह की पूजा करे। साथ ही वेदी, सूर्य, जल, अग्नि तथा गुरु को भी पूजे।

29 हे भगवान, हे महानतम, हे सबके हृदय में वास करने वाले तथा जिनमें सभी जीव वास करते हैं, हे प्रत्येक वस्तु के स्वामी, हे सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वव्यापी पुरुष वासुदेव! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

30 हे परम पुरुष! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण आप भौतिक आँखों से कभी नहीं दिखते। आप चौबीस तत्त्वों के ज्ञाता हैं और आप सांख्य योगपद्धति के सूत्रपात-कर्ता हैं।

31 हे भगवान! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ, जिनके दो सिर (प्रायणीय तथा उदानीय) तीन पाँव (सवन-त्रय) चार सींग (चार वेद) तथा सात हाथ (सप्त छन्द यथा गायत्री) हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ, जिनका हृदय तथा आत्मा तीनों वैदिक काण्डों (कर्मकाण्ड, ज्ञानकाण्ड तथा उपासना काण्ड) हैं तथा जो इन काण्डों को यज्ञ के रूप में विस्तार करते हैं।

32 हे शिव, हे रुद्र! मैं समस्त शक्तियों के आगार, समस्त ज्ञान के भण्डार तथा प्रत्येक जीव के स्वामी आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

33 हिरण्यगर्भ में स्थित, जीवन के स्रोत, प्रत्येक जीव के परमात्मा स्वरूप आपको मैं सादर नमस्कार करता हूँ। आपका शरीर समस्त योग के ऐश्वर्य का स्रोत है। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

34 मैं आदि भगवान, प्रत्येक के हृदय में स्थित साक्षी तथा मनुष्य रूप में नर-नारायण ऋषि के अवतार आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

35 हे पीताम्बरधारी भगवान! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। आपके शरीर का रंग मरकत मणि जैसा है और आप लक्ष्मीजी को पूर्णतः वश में रखने वाले हैं। हे भगवान केशव! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

36 हे परम पूज्य भगवान, हे वरदायकों में सर्वश्रेष्ठ! आप हरेक की इच्छाओं को पूरा कर सकते हैं अतएव जो धीर हैं, वे अपने कल्याण के लिए आपके चरणकमलों की धूल को पूजते हैं।

37 सारे देवता तथा लक्ष्मीजी भी उनके चरणकमलों की सेवा में लगी रहती हैं। दरअसल, वे उन चरणकमलों की सुगन्ध का आदर करते हैं। ऐसे भगवान मुझ पर प्रसन्न हों।

38 कश्यप मुनि ने आगे कहा: इन सभी मंत्रों के उच्चारण द्वारा भगवान का श्रद्धा तथा भक्ति के साथ स्वागत करके एवं उन्हें पूजा की वस्तुएँ (पाद्य तथा अर्ध्य) अर्पित करके मनुष्य को केशव अर्थात हृषीकेश अर्थात भगवान कृष्ण की पूजा करनी चाहिए।

39 `सर्वप्रथम भक्त को द्वादश अक्षर मंत्र का उच्चारण करना चाहिए और फूल की माला, अगुरु इत्यादि अर्पित करने चाहिए। इस प्रकार से भगवान की पूजा करने के बाद भगवान को दूध से नहलाना चाहिए और उन्हें उपयुक्त वस्त्र तथा यज्ञोपवीत (जनेऊ) पहनाकर गहनों से सजाना चाहिए। तत्पश्चात भगवान के चरणों का प्रक्षालन करने के लिए जल अर्पित करके सुगन्धित पुष्प, अगुरु तथा अन्य सामग्री से भगवान की पुनः पूजा करनी चाहिए।

40 यदि सामर्थ्य हो तो भक्त अर्चाविग्रह पर दूध में घी तथा गुड़ के साथ पकाये चावल अर्थात खीर चढ़ाए। उसी मूल मंत्र का उच्चारण करते हुए यह सामग्री अग्नि में डाली जाये।

41 उसे चाहिए कि वह सारा प्रसाद या उसका कुछ अंश किसी वैष्णव को दे और तब कुछ प्रसाद स्वयं ग्रहण करे। तत्पश्चात अर्चाविग्रह को आचमन कराए और तब पान सुपारी चढ़ाकर फिर से भगवान की पूजा करे।

42 तत्पश्चात उसे चाहिए कि वह मन ही मन में 108 बार मंत्र का जप करे और भगवान की महिमा की स्तुतियाँ करे। तब वह भगवान की प्रदक्षिणा करे और अन्त में परम सन्तोष तथा प्रसन्नतापूर्वक भूमि पर लोटकर (दण्डवत) प्रणाम करे।

43 अर्चाविग्रह पर चढ़ाये गये जल तथा सभी फूलों को अपने सिर से छूने के बाद उन्हें किसी पवित्र स्थान पर उँड़ेल दे। तब कम से कम दो ब्राह्मणों को खीर का भोजन कराए।

44-45 जिन सम्मान्य ब्राह्मणों को भोजन कराया हो उनका भलीभाँति सत्कार करे और तब उनकी अनुमति से अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों सहित स्वयं प्रसाद ग्रहण करे। उस रात में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करे और दूसरे दिन प्रातः स्नान करने के बाद अत्यन्त शुद्धता तथा ध्यान के साथ अर्चाविग्रह को दूध से स्नान कराए और विस्तारपूर्वक पूर्वोक्त विधियों के अनुसार उनकी पूजा करे।

46 केवल दूधपान करके और श्रद्धा तथा भक्तिपूर्वक भगवान विष्णु की पूजा करते हुए भक्त इस व्रत का पालन करे। उसे चाहिए कि वह अग्नि में हवन करे और पूर्वोक्त विधि से ब्राह्मणों को भोजन कराए।

47 इस तरह बारह दिनों तक प्रतिदिन भगवान का पूजन, नैत्यिक कर्म, हवन तथा ब्राह्मण-भोजन सम्पन्न कराकर यह पयोव्रत सम्पन्न किया जाये।

48 प्रतिपदा से लेकर अगले शुक्लपक्ष की तेरस (शुक्ल त्रयोदशी) तक पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करे, फर्श पर सोये, प्रतिदिन तीन बार स्नान करे और इस व्रत को सम्पन्न करे।

49 इस अवधि में सांसारिक प्रपंचों या इन्द्रियतृप्ति के विषय पर अनावश्यक चर्चा न चलाये, वह सारे जीवों के प्रति ईर्ष्या से पूर्णतया मुक्त रहे और भगवान वासुदेव का शुद्ध एवं सरल भक्त बने।

50 तत्पश्चात शास्त्रविद ब्राह्मणों की सहायता से शास्त्रों के आदेशानुसार शुक्लपक्ष की तेरस को भगवान विष्णु को पञ्चामृत (दूध, दही, घी, चीनी तथा शहद) से स्नान कराये।

51-52 धन न खर्च करने में कंजूसी की आदत छोड़कर अन्तर्यामी भगवान विष्णु की भव्य पूजा का आयोजन करे। मनुष्य को चाहिए कि वह अत्यन्त मनोयोग से घी में पकाये अन्न तथा दूध से आहुति (हव्य) तैयार करे और पुरुष-सूक्त मंत्रोच्चार करे और विविध स्वादों वाले भोजन अर्पण करे। इस प्रकार मनुष्य को भगवान का पूजन करना चाहिए।

53 मनुष्य को चाहिए कि वह वैदिक साहित्य में पारंगत गुरु (आचार्य) को तुष्ट करे और उनके सहायक पुरोहितों को (जो होता, उदगाता, अध्वर्यु तथा ब्राह्मण कहलाते हैं) तुष्ट करे। उन्हें वस्त्र, आभूषण तथा गाएँ देकर प्रसन्न करे। यही विष्णु-आराधन अर्थात भगवान विष्णु की आराधना का अनुष्ठान है।

54 हे परम पवित्र स्त्री! मनुष्य को चाहिए कि वह ये सारे अनुष्ठान विद्वान आचार्यों के निर्देशानुसार सम्पन्न करे और उन्हें तथा उनके पुरोहितों को तुष्ट करे। उसे चाहिए कि प्रसाद वितरण करके ब्राह्मणों को तथा वहाँ पर एकत्र हुए लोगों को भी तुष्ट करे।

55 मनुष्य को चाहिए कि गुरु तथा सहायक पुरोहितों को वस्त्र, आभूषण, गाएँ तथा कुछ धन का दान देकर प्रसन्न करे तथा प्रसाद वितरण द्वारा वहाँ पर आये सभी लोगों को यहाँ तक कि सबसे अधम व्यक्ति चाण्डाल (कुत्ते का माँस खाने वाले) को भी तुष्ट करे।

56 मनुष्य को चाहिए कि वह दरिद्र अन्धे, अभक्त तथा अब्राह्मण हर व्यक्ति को विष्णु प्रसाद बाँटे। यह जानते हुए कि जब हरेक व्यक्ति पेट भरकर विष्णु-प्रसाद पा लेते है तो भगवान विष्णु परम प्रसन्न होते हैं। यज्ञकर्ता को अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों के साथ-साथ प्रसाद ग्रहण करना चाहिए।

57 प्रतिपदा से त्रयोदशी तक इस अनुष्ठान को मनुष्य प्रतिदिन नाच, गाना, बाजा, स्तुति तथा शुभ मंत्रोच्चार एवं श्रीमदभागवत के पाठ के साथ-साथ जारी रखे। इस प्रकार मनुष्य भगवान की पूजा करे।

58 यह धार्मिक अनुष्ठान पयोव्रत कहलाता है, जिसके द्वारा भगवान की पूजा की जा सकती है। यह ज्ञान मुझे अपने पितामह ब्रह्माजी से मिला और अब मैंने विस्तार के साथ इसका वर्णन तुमसे किया है।

59 हे परम भाग्यशालिनी! तुम अपने मन को शुद्ध भाव में स्थिर करके इस पयोव्रत विधि को सम्पन्न करो और इस तरह अच्युत भगवान केशव की पूजा करो।

60 यह पयोव्रत सर्वयज्ञ भी कहलाता है। दूसरे शब्दों में, इस यज्ञ को सम्पन्न कर लेने पर अन्य सारे यज्ञ स्वतः सम्पन्न हो जाते हैं। इसे समस्त अनुष्ठानों में सर्वश्रेष्ठ भी माना गया है। हे भद्रे! यह समस्त तपस्याओं का सार है और दान देने तथा परम नियन्ता को प्रसन्न करने की विधि है ।

61 अधोक्षज कहलाने वाले दिव्य भगवान को प्रसन्न करने की यह सर्वोत्तम विधि है। यह समस्त विधि-विधानों में श्रेष्ठ है, यह सर्वश्रेष्ठ तपस्या है, दान देने की और यज्ञ की सर्वश्रेष्ठ विधि है।

62 अतएव हे भद्रे! तुम विधि-विधानों का दृढ़ता से पालन करते हुए इस आनुष्ठानिक व्रत को सम्पन्न करो। इस विधि से परम पुरुष तुम पर शीघ्र ही प्रसन्न होंगे और तुम्हारी सारी इच्छाओं को पूरा करेंगे।

( समर्पित एवं सेवारत जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय पन्द्रह – बलि महाराज द्वारा स्वर्गलोक पर विजय (8.15)

1-2 महाराज परीक्षित ने पूछा: भगवान प्रत्येक वस्तु के स्वामी हैं। तो फिर उन्होंने निर्धन व्यक्ति की भाँति बलि महाराज से तीन पग भूमि क्यों माँगी और जब उन्हें मुँह माँगा दान मिल गया तो फिर उन्होंने बलि महाराज को बन्दी क्यों बनाया? मैं इन विरोधाभासों के रहस्य को जानने के लिए अत्यन्त उत्सुक हूँ।

3 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! जब बलि का सारा ऐश्वर्य छिन गया और वे युद्ध में मारे गए तो भृगुमुनि के एक वंशज शुक्राचार्य ने उन्हें फिर से जीवित कर दिया। इससे महात्मा बलि शुक्राचार्य के शिष्य बन गए और अपना सर्वस्व अर्पित करके अत्यन्त श्रद्धापूर्वक उनकी सेवा करने लगे।

4 भृगुमुनि के ब्राह्मण वंशज बलि महाराज पर अत्यन्त प्रसन्न हो गए जो इन्द्र का साम्राज्य जीतना चाह रहे थे। अतएव उन्होंने उन्हें अनुष्ठान-पूर्वक शुद्ध करके तथा स्नान कराकर विश्वजित नामक यज्ञ करने में लगा दिया।

5 जब यज्ञ-अग्नि में घी की आहुति दी गई तो अग्नि से स्वर्ण तथा रेशम से आच्छादित एक देवी रथ प्रकट हुआ। साथ ही इन्द्र के घोड़ों जैसे पीले घोड़े तथा सिंह चिन्ह से अंकित एक ध्वजा प्रकट हुए।

6 उस यज्ञ अग्नि से एक सुनहरा धनुष, अच्युत बाणों से युक्त दो तरकश तथा एक दिव्य कवच भी प्रकट हुए। बलि महाराज के पितामह प्रह्लाद महाराज ने उन्हें कभी न मुरझाने वाले फूलों की माला दी और शुक्राचार्य ने एक शंख प्रदान किया।

7 ब्राह्मणों की सलाह के अनुसार विशेष अनुष्ठान सम्पन्न कर तथा उनकी कृपा से युद्ध-सामग्री प्राप्त करने के बाद, महाराज बलि ने ब्राह्मणों की प्रदक्षिणा की और उन्हें नमस्कार किया। उन्होंने प्रह्लाद महाराज को भी प्रणाम किया।

8 तब शुक्राचार्य द्वारा दिये गये रथ पर सवार होकर सुन्दर माला से विभूषित बलि महाराज ने अपने शरीर में सुरक्षा-कवच धारण किया, अपने को बाणों से लैस किया, एक तलवार तथा तूणीर (तरकस) लिया।

9 जब वे रथ में आसान ग्रहण कर चुके तो सुनहरे कड़ों से विभूषित बाँहों तथा मरकत मणि के कुण्डलों से विभूषित कानों सहित वे पूजनीय अग्नि की तरह चमक रहे थे।

10-11 जब वे अपने सैनिकों तथा असुर-नायकों समेत एकत्र हुए जो बल, ऐश्वर्य एवं सुन्दरता में उन्हीं के समान थे तो ऐसा लग रहा था मानो वे आकाश को निगल जायेंगे और अपनी दृष्टि से सारी दिशाओं को जला देंगे। इस तरह असुर-सैनिकों को एकत्र करके बलि महाराज ने इन्द्र की ऐश्वर्यमयी राजधानी के लिए कूच किया। दरअसल, ऐसा लग रहा था मानो वे सारे जगत को कम्पायमान कर देंगे।

12 राजा इन्द्र की पुरी सुहावने बाग बगीचों से यथा नन्दन बाग से परिपूर्ण थी। फूलों, पत्तियों तथा फलों के भार से उनके शाश्वत वृक्षों की शाखाएँ नीचे झुकी हुई थीं। इन उद्यानों में चहकते पक्षियों के जोड़े तथा गुंजाती मधुमक्खियाँ आती-जाती थीं। वहाँ का सारा वायुमण्डल अत्यन्त दिव्य था।

13 उद्यानों में देवताओं द्वारा रक्षित सुन्दर स्त्रियाँ खेलती थीं जिनके कमल-ताल हंसों, सारसों, चक्रवाकों तथा बत्तखों से भरे हुए थे।

14 वह पुरी आकाशगंगा नामक गंगाजल से भरी हुई खाइयों द्वारा तथा अग्नि जैसे रंग वाली एक अत्यन्त ऊँची दीवाल से घिरी हुई थी। इस दीवाल पर युद्ध करने के लिए मुंडेर बने थे।

15 उसके दरवाजे ठोस सोने के पत्तरों से बने थे और फाटक उत्कृष्ट संगमरमर के थे। ये सभी विभिन्न जनमार्गों से जुड़े थे। पूरी नगरी का निर्माण विश्वकर्मा ने किया था।

16 यह नगरी आँगनों, चौमार्गों, सभा भवनों तथा कम से कम दस करोड़ विमानों से पूर्ण थी। चौराहे मोती से बने थे और आसन-मंच भी हीरे तथा मूँगे से बने थे।

17 उस पुरी में नित्य सुन्दर तथा तरुण स्त्रियाँ स्वच्छ वस्त्र पहने ज्वालाओं से युक्त अग्नियों की भाँति चमक रही थीं। उन सब में श्यामा के गुण विद्यमान थे।

18 उस पुरी की सड़कों से होकर बहने वाला मन्द समीर देवताओं की स्त्रियों के बालों से झर रही फूलों की सुगन्धी से युक्त था।

19 अप्सराएँ जिन सड़कों से होकर गुजरती थीं वहाँ अगुरु का श्वेत सुगन्धित धुआँ छाया रहता था जो सुनहरी तारकशी वाली खिड़कियों से निकल रहा था।

20 नगरी में मोतियों से सजे चँदोवे की छाया पड़ रही थी और महलों की गुम्बदों में मोती तथा सोने की पताकाएँ थीं। वह नगरी सदा मोरों, कबूतरों तथा भौंरों की ध्वनि से गूँजती रहती थी। उसके ऊपर विमान उड़ते रहते थे, जो कानों को अच्छे लगने वाले मंगल गीतों का निरन्तर गायन करने वाली सुन्दर स्त्रियों से भरे रहते थे।

21 वह नगरी मृदंग, शंख, दमामे, वंशी तथा तारवाले सुरीले वाद्ययंत्रों के समूहवादन के स्वरों से पूरित थी। वहाँ निरन्तर नृत्य चलता रहता था और गन्धर्वगण गाते रहते थे। इन्द्रपुरी की संयुक्त सुन्दरता साक्षात सुन्दरता (छटा) को जीत रही थी।

22 जो पापी, ईर्ष्यालु, अन्य जीवों के प्रति उग्र, चालाक, मिथ्या अभिमानी, कामी तथा लालची थे वे उस नगरी में प्रवेश नहीं कर सकते थे। वहाँ रहने वाले सभी निवासी इन दोषों से रहित थे।

23 असंख्य सैनिकों के सेनानायक बलि महाराज ने इन्द्र के इस निवास स्थान के बाहर अपने सैनिकों को एकत्र किया और चारों दिशाओं से उस पर आक्रमण कर दिया। उन्होंने अपने गुरु शुक्राचार्य द्वारा प्रदत्त शंख बजाया जिससे इन्द्र द्वारा रक्षित स्त्रियों के लिए भयावह स्थिति उत्पन्न हो गई।

24 बलि महाराज के अथक प्रयास को देखकर तथा उसके मन्तव्य को समझकर राजा इन्द्र अन्य देवताओं के साथ अपने गुरु बृहस्पति के पास गया और इस प्रकार बोला।

25 हे प्रभु! हमारे पुराने शत्रु बलि महाराज में अब नया उत्साह पैदा हो गया है और उसने ऐसी आश्चर्यजनक शक्ति प्राप्त कर ली है कि हमारा विचार है कि हम उसके तेज का शायद प्रतिरोध नहीं कर सकते।

26-27 कोई कहीं भी बलि की इस सैन्य व्यवस्था का प्रतिकार नहीं कर सकता। अब ऐसा प्रतीत होता है जैसे बलि अपने मुँह से सारे विश्व को पी जाना चाह रहा हो, अपनी जीभ से दसों दिशाओं को चाट जाना चाह रहा हो और अपने नेत्रों से प्रत्येक दिशा में अग्नि भड़काने का प्रयास कर रहा हो। निस्सन्देह, वह संवर्तक नामक प्रलयंकारी अग्नि के समान उठ खड़ा है।

27 कृपया मुझे बतायें कि बलि महाराज की शक्ति, उद्यम, प्रभाव तथा विजय का क्या कारण है? वह इतना उत्साही कैसे हो गया है?

28 देवताओं के गुरु बृहस्पति ने कहा: हे इन्द्र! मैं वह कारण जानता हूँ जिससे तुम्हारा शत्रु इतना शक्तिशाली बन गया है। भृगुमुनि के ब्राह्मण वंशजों ने उनके शिष्य बलि महाराज से प्रसन्न होकर उन्हें ऐसी अद्वितीय शक्ति प्रदान की है।

29 न तो तुम, न ही तुम्हारे सैनिक परमशक्तिशाली बलि को जीत सकते हैं। निस्सन्देह, भगवान के अतिरिक्त कोई भी उसे जीत नहीं सकता क्योंकि वह अब ब्रह्मतेज से युक्त है। जिस तरह यमराज के समक्ष कोई टिक नहीं पाता उसी तरह बलि महाराज के सामने भी कोई नहीं टिक सकता।

30 अतएव तुम सबको चाहिए कि अपने शत्रुओं की स्थिति के पलटने के समय तक प्रतीक्षा करते हुए इस स्वर्गलोक को छोड़ दो और कहीं ऐसे स्थान में चले जाओ जहाँ तुम दिखाई न पड़ो।

31 इस समय बलि महाराज ब्राह्मणों द्वारा प्रदत्त आशीषों के कारण अत्यन्त शक्तिशाली बन गया है, किन्तु बाद में जब वह इन्हीं ब्राह्मणों का अपमान करेगा तो वह अपने मित्रों तथा सहायकों सहित विनष्ट हो जायेगा।

32 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस प्रकार बृहस्पति द्वारा उनके हित का उपदेश दिये जाने पर देवताओं ने तुरन्त उनकी बातें मान ली। उन्होंने इच्छानुसार रूप धारण किया और वे स्वर्गलोक को छोड़कर असुरों की दृष्टि से ओझल हो गये।

33 जब देवतागण अदृश्य हो गये तो विरोचन के पुत्र बलि महाराज स्वर्ग में प्रविष्ट हुए और वहाँ से उन्होंने तीनों लोकों को अपने अधिकार में कर लिया।

34 भृगु के ब्राह्मण वंशजों ने अपने विश्वविजयी शिष्य से अत्यधिक प्रसन्न होकर उसे एक सौ अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न करने में लगा दिया।

35 जब बलि महाराज ने इन यज्ञों को सम्पन्न कर लिया तो उनकी कीर्ति तीनों लोकों में सभी दिशाओं में फैल गई। इस प्रकार वे अपने पद पर उसी प्रकार चमक उठे जिस तरह आकाश में चमकता हुआ चाँद।

36 ब्राह्मणों के अनुग्रह के कारण महात्मा बलि परम ऐश्वर्यवान तथा सम्पन्न हो गये और संतुष्ट होकर राज्य का भोग करने लगे।

( समर्पित एवं सेवारत जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय चौदह – विश्व-व्यवस्था की पद्धति (8.14)

1 महाराज परीक्षित ने जिज्ञासा की: हे परम ऐश्वर्यशाली श्रील शुकदेव गोस्वामी! कृपा करके मुझे बतायें कि प्रत्येक मन्वन्तर में मनु तथा अन्य लोग किस तरह अपने-अपने कर्तव्यों में लगे रहते हैं और वे किसके आदेश से ऐसा करते हैं।

2 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! सारे मनु, मनु के पुत्र, ऋषि, इन्द्र तथा देवता भगवान के यज्ञ जैसे विविध अवतारों में नियुक्त किए जाते हैं।

3 हे राजन! मैं आपसे पहले ही भगवान के विभिन्न अवतारों का वर्णन कर चुका हूँ – यथा यज्ञ अवतार का। यही अवतार मनुओं तथा अन्यों का चुनाव करते हैं और उन्हीं के आदेश पर वे विश्व-व्यवस्था का संचालन करते हैं।

4 प्रत्येक चार युगों के अन्त में महान सन्तपुरुष जब यह देखते हैं कि मानव के शाश्वत वृत्तिपरक कर्तव्यों का दुरुपयोग हुआ है, तो वे धर्म के सिद्धान्तों की पुनः स्थापना करते हैं।

5 हे राजन! तत्पश्चात भगवान के आदेशानुसार व्यस्त होकर सारे मनु चारों अंशों में साक्षात पुनर्स्थापना करते हैं।

6 यज्ञों के फलों का भोग करने के लिए विश्व के शासक, अर्थात मनु के पुत्र तथा पौत्र, मनु के शासन काल के अन्त तक भगवान के आदेशों का पालन करते हैं। देवता भी इन यज्ञों के फलों में भाग प्राप्त करते हैं।

7 भगवान से आशीष प्राप्त करके तथा इस तरह अत्यधिक विकसित ऐश्वर्य का भोग करते हुए स्वर्ग का राजा इन्द्र सभी लोकों पर पर्याप्त वर्षा करके तीनों लोकों के सारे जीवों का पालन करता है।

8 प्रत्येक युग में भगवान हरि दिव्य ज्ञान का उपदेश देने के लिए सनक जैसे सिद्धों का रूप धारण करते हैं, याज्ञवल्क्य जैसे महान ऋषियों का रूप धारण करके वे कर्मयोग की शिक्षा देने के लिए तथा योग की विधि सिखाने के लिए दत्तात्रेय जैसे महान योगियों का रूप धारण करते हैं।

9 भगवान प्रजापति मरीचि के रूप में सन्तान उत्पन्न करते हैं, राजा का रूप धारण करके वे चोर-उचक्कों का वध करते हैं और काल के रूप में वे सबका संहार करते हैं। भौतिक संसार के जितने गुण हैं उन्हें भगवान के ही गुण समझना चाहिए।

10 सामान्य लोग माया के द्वारा विमोहित हो जाते हैं, अतएव वे परम सत्य भगवान को विविध प्रकार के शोधों तथा दार्शनिक चिन्तन के द्वारा पाने का प्रयास करते हैं। किन्तु इतने पर भी वे भगवान का दर्शन पाने में असमर्थ रहते हैं।

11 एक कल्प में, अर्थात ब्रह्मा के एक दिन में कई परिवर्तन होते हैं, जो विकल्प कहलाते हैं। हे राजन! मैं इन सबका वर्णन पहले ही कर चुका हूँ। विद्वान व्यक्तियों ने जो भूत, वर्तमान तथा भविष्य को जानते हैं विश्वासपूर्वक जान लिया है कि ब्रह्मा के एक दिन में चौदह मनु होते हैं।

( समर्पित एवं सेवारत जगदीश चन्द्र चौहान )

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अध्याय तेरह – भावी मनुओं का वर्णन (8.13)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: वर्तमान मनु का नाम श्राद्धदेव है और वे सूर्यलोक के प्रधान देवता विवस्वान के पुत्र हैं। श्राद्धदेव सातवें मनु हैं। अब मैं उनके पुत्रों का वर्णन करता हूँ कृपा करके सुने।

2-3 हे राजा परीक्षित! मनु के दस पुत्रों में (प्रथम छह) इक्ष्वाकु, नभग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यंत, तथा नाभाग हैं। सातवाँ पुत्र दिष्ट नाम से जाना जाता है। फिर तरुष, तहत, पृषध्र के नाम आते हैं और दसवाँ पुत्र वसुमान कहलाता है।

4 हे राजन! इस मन्वन्तर में आदित्य, वसु, रुद्र, विश्वेदेवा, मरुत्गण, दोनों भाई अश्विनीकुमार तथा ऋभु देवता हैं। इनका प्रधान राजा (इन्द्र) पुरन्दर है।

5 कश्यप, अत्री, वसिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि तथा भरद्वाज सप्तर्षि के रूप में जाने जाते हैं।

6 इस मन्वन्तर में भगवान आदित्यों में सबसे छोटे, वामन के नाम से अवतरित हुए। उनके पिता कश्यप तथा माता अदिति थीं।

7 मैंने तुमसे संक्षेप में सात मनुओं की स्थिति बतला दी है। अब मैं भगवान विष्णु के अवतारों सहित भावी मनुओं का वर्णन करूँगा।

8 हे राजन! मैं तुमसे पहले ही (छठे स्कन्ध में) विश्वकर्मा की दो पुत्रियों का वर्णन कर चुका हूँ जिनके नाम संज्ञा तथा छाया थे, जो विवस्वान की प्रथम दो पत्नियाँ थीं।

9 ऐसा कहा जाता है कि सूर्यदेव के एक तीसरी पत्नी भी थी जिसका नाम वडवा था। इन तीनों पत्नियों में से संज्ञा के तीन सन्तानें हुईं-यम, यमी तथा श्राद्धदेव। अब मैं छाया की सन्तानों का वर्णन करूँगा।

10 छाया का एक पुत्र सावर्णि तथा तपती नाम की एक पुत्री थी जो बाद में राजा संवरण की पत्नी बनी। छाया की तीसरी सन्तान शनैश्चर (शनि) कहलाई। वडवा ने दो पुत्रों को जन्म दिया जिनके नाम अश्विनी-बन्धु हैं।

11 हे राजन! आठवें मनु की कालावधि आने पर सावर्णि मनु बनेगा निर्मोक और विरजस्क उसके पुत्र होंगे।

12 आठवें मन्वन्तर में सुतपा, विरज तथा अमृतप्रभगण देवता होंगे और विरोचन पुत्र बलि महाराज देवताओं के राजा अर्थात इन्द्र बनेंगे।

13 बलि महाराज ने भगवान विष्णु को तीन पग भूमि दान में दी जिसके कारण उन्हें तीनों लोक खोने पड़े। तत्पश्चात बलि द्वारा सर्वस्व दान दे दिये जाने पर जब भगवान विष्णु प्रसन्न हुए तो बलि महाराज को इन्द्र का पद त्यागने पर जीवन की सिद्धि प्राप्त हो जाएगी।

14 भगवान ने प्रेमपूर्वक बलि को बाँध लिया और फिर उन्हें सुतल राज्य में अधिष्ठित किया जो स्वर्गलोक की अपेक्षा अधिक ऐश्वर्यशाली है। इस समय बलि महाराज उसी लोक में रहते हैं और इन्द्र की अपेक्षा अधिक सुखमय स्थिति में है।

15-16 हे राजन! आठवें मन्वन्तर में गालव, दीप्तिमान, परशुराम, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, ऋश्यशृंग तथा हमारे पिता व्यासदेव, जो नारायण के अवतार हैं, सप्तर्षि होंगे। इस समय वे सब अपने आश्रमों में निवास कर रहे हैं।

17 आठवें मन्वन्तर में महान शक्तिशाली भगवान सार्वभौम जन्म ग्रहण करेंगे। उनके पिता होंगे देवगुह्य और माता होंगी सरस्वती। वे पुरन्दर (इन्द्र) से राज्य छीनकर उसे बलि महाराज को देंगे।

18 हे राजन! नौवाँ मनु दक्षसावर्णि होगा जो वरुण का पुत्र होगा। भूतकेतु, दीप्तकेतु इत्यादि उसके पुत्र होंगे।

19 नवें मन्वन्तर में पार तथा मरीचिगर्भ इत्यादि देवता रहेंगे। स्वर्ग के राजा इन्द्र का नाम होगा अद्भुत और द्युतिमान सप्तर्षियों में से एक होगा।

20 भगवान के अंशावतार ऋषभदेव अपने पिता आयुष्मान तथा माता अम्बुधारा से जन्म लेंगे। वे अद्भुत नामक इन्द्र को तीनों लोकों का ऐश्वर्य भोगने के योग्य बनायेंगे।

21 उपश्लोक का पुत्र ब्रह्मसावर्णि दसवाँ मनु होगा। भूरिषेण उसके पुत्रों में एक होगा।

22 हविष्मान, सुकृत, सत्य, जय, मूर्ति इत्यादि ब्राह्मण सप्तर्षि होंगे। सुवासन- गण तथा विरुद्धगण देवता होंगे और शम्भू उन सबका राजा (इन्द्र) होगा।

23 विश्वसृष्टा के घर में विषूची के गर्भ से भगवान के स्वांश विष्वक्सेन के रूप में भगवान अवतरित होंगे। वे शम्भू से मैत्री स्थापित करेंगे।

24 ग्यारहवें मन्वन्तर में धर्मसावर्णि मनु होंगे जो अध्यात्म ज्ञान के अत्यन्त विद्वान होंगे। उनके दस पुत्र होंगे जिनमें सत्यधर्म प्रमुख होगा।

25 विहंगम, कामगम, निर्वाणरुचि इत्यादि देवता होंगे। वैधृत देवताओं का राजा (इन्द्र) होगा और अरुण इत्यादि सप्तर्षि होंगे।

26 आर्यक का पुत्र धर्मसेतु आर्यक की पत्नी वैधृता की कोख से भगवान के अंशावतार के रूप में जन्म लेगा और तीनों लोकों में शासन करेगा।

27 हे राजा ! बारहवाँ मनु रुद्रसावर्णि कहलायेगा। देववान, उपदेव तथा देवश्रेष्ठ उसके पुत्र होंगे।

28 इस मन्वन्तर में ऋतधामा इन्द्र होगा और हरित इत्यादि देवता होंगे। तपोमूर्ति तपस्वी तथा आग्निध्रक सप्तर्षि होंगे।

29 माता सुनृता तथा पिता सत्यसहा से भगवान का अंशावतार स्वधामा उत्पन्न होगा। वह उस मन्वन्तर में शासन करेगा।

30 तेरहवें मनु का नाम देवसावर्णि होगा और वह आध्यात्मिक ज्ञान में काफी बढ़ा-चढ़ा होगा। चित्रसेन तथा विचित्र उसके पुत्रों में से होंगे।

31 तेरहवें मन्वन्तर में सुकर्मा तथा सूत्रामा इत्यादि देवता होंगे, दिवस्पति स्वर्ग का राजा इन्द्र होगा और निर्मोक तथा तत्त्वदर्श सप्तर्षि होंगे।

32 देवहोत्र का पुत्र योगेश्वर भगवान के अंशावतार रूप में प्रकट होगा। उसकी माता का नाम बृहती होगा। वह दिवस्पति के कल्याणार्थ कार्य करेगा।

33 चौदहवें मनु का नाम इन्द्रसावर्णि होगा। उसके पुत्रों के नाम उरु, गम्भीर तथा बुध होंगे।

34 पवित्रगण तथा चाक्षुषगण इत्यादि देवता होंगे और शुचि इन्द्र होगा। अग्नि, बाहु, शुचि, शुद्ध, मागध तथा अन्य तपस्वी सप्तर्षि होंगे।

35 हे राजा परीक्षित! चौदहवें मन्वन्तर में भगवान विताना के गर्भ से प्रकट होंगे और उनके पिता का नाम सत्रायण होगा। यह अवतार बृहदभानु के नाम से विख्यात होगा और वह आध्यात्मिक कार्यकलाप करेगा।

36 हे राजन! मैंने अभी तुमसे भूत, वर्तमान तथा भविष्य में हुए अथवा होने वाले चौदहों मनुओं का वर्णन किया। ये मनु कुल मिलाकर जितने समय तक शासन करते हैं वह एक हजार युग चक्र है। यह कल्प या ब्रह्माजी का एक दिन कहलाता है।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय बारह – मोहिनी-मूर्ति अवतार पर शिवजी का मोहित होना (8.12)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: स्त्री के रूप में भगवान हरि ने दानवों को मोह लिया और देवताओं को अमृत पिलाया।

2 इन लीलाओं को सुनकर बैल पर सवारी करनेवाले शिवजी उस स्थान पर गये जहाँ भगवान मधुसूदन रहते हैं। शिवजी अपनी पत्नी उमा को साथ लेकर तथा अपने साथी प्रेतों से घिरकर वहाँ भगवान के स्त्री-रूप को देखने गये।

3 भगवान ने शिवजी तथा उमा का अत्यन्त सम्मान के साथ स्वागत किया और ठीक प्रकार से बैठ जाने पर शिवजी ने भगवान की विधिवत पूजा की तथा मुस्काते हुए वे इस प्रकार बोले।

4 महादेवजी ने कहा: हे देवताओं में प्रमुख देव! हे सर्वव्यापी, ब्रह्माण्ड के स्वामी! आपने अपनी शक्ति से अपने को सृष्टि में रूपान्तरित कर दिया है। आप हर वस्तु के मूल एवं सक्षम कारण हैं। आप भौतिक नहीं हैं। निस्सन्देह, आप हर एक की परम संजीवनी शक्ति या परमात्मा हैं। अतएव आप परमेश्वर हैं अर्थात सभी नियंत्रकों के परम नियंत्रक हैं।

5 हे भगवन! व्यक्त, अव्यक्त, मिथ्या अहंकार तथा इस दृश्य जगत का आदि (उत्पत्ति), पालन तथा संहार सभी कुछ आपसे है। आप परम सत्य, परमात्मा, परम ब्रह्म हैं अतएव जन्म, मृत्यु तथा पालन जैसे परिवर्तन आप में नहीं पाये जाते।

6 जो शुद्ध भक्त या महान सन्त पुरुष (मुनिगण) जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त करने के इच्छुक हैं तथा इन्द्रियतृप्ति की समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित हैं, वे आपके चरणकमलों की भक्ति में निरन्तर लगे रहते हैं। हे प्रभु! आप ब्रह्म (सर्वव्यापी परम सत्य) तथा सभी प्रकार से पूर्ण हैं। पूर्णत: आध्यात्मिक होने के कारण आप नित्य, प्रकृति के भौतिक गुणों से मुक्त, शोकरहित तथा दिव्य आनन्द से पूरित हैं।

7 चूँकि आप समस्त कारणों के परम कारण हैं अतएव आपके बिना कोई अस्तित्व नहीं हो सकता, फिर भी जहाँ तक कारण तथा कार्य का सम्बन्ध है, आपसे भिन्न हैं क्योंकि एक दृष्टि से कार्य तथा कारण पृथक-पृथक हैं। आप सृष्टि, पालन तथा संहार के मूल कारण हैं और समस्त जीवों को वर देते हैं। हर व्यक्ति अपने कर्मफलों के लिए आप पर निर्भर है, किन्तु आप सर्वदा स्वतंत्र हैं।

8 हे प्रभु! आप कार्य तथा कारण भी हैं, अतएव दो प्रतीत होते हुए भी परम पूर्ण एक हैं। जिस तरह आभूषण के सोने तथा खान के सोने में कोई अन्तर नहीं होता, उसी तरह कारण तथा कार्य में अन्तर नहीं होता, दोनों ही एक हैं। अज्ञान के कारण ही लोग अन्तर तथा द्वैत गढ़ते हैं। आप भौतिक कल्मष से मुक्त हैं और चूँकि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड आपके द्वारा उत्पन्न है और आपके बिना विद्यमान नहीं रह सकता, अतएव यह आपके दिव्य गुणों का प्रभाव है। इस प्रकार इस अवधारणा को माना नहीं जा सकता कि ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है।

9 जो निर्विशेष – मायावादी कहलाते हैं,वे आपको निर्विशेष ब्रह्म के रूप में मानते हैं। दूसरे जो मीमांसक विचारक हैं, आपको धर्म के रूप में मानते हैं। सांख्य दार्शनिक आपको ऐसा परम पुरुष मानते हैं, जो प्रकृति तथा पुरुष के परे है और देवताओं का भी नियंत्रक है। जो लोग पञ्चरात्र नामक भक्ति के नियमों के अनुयायी हैं, वे आपको नौ शक्तियों से युक्त मानते हैं तथा पतंजलि मुनि के अनुयायी, जो पतंजल दार्शनिक कहलाते हैं, आपको उस परम स्वतंत्र भगवान के रूप में मानते हैं जिसके न तो कोई तुल्य है और न कोई श्रेष्ठ है।

10 हे प्रभु! सभी देवताओं में श्रेष्ठ माने जाने वाला मैं, ब्रह्माजी तथा मरिची इत्यादि महर्षि सतोगुण से उत्पन्न हैं। तब भी हम सभी आपकी माया से मोहग्रस्त हैं और यह नहीं समझ पाते कि यह सृष्टि क्या है। हमारी बात छोड़ भी दें तो उन असुरों तथा मनुष्यों के बारे में क्या कहा जाये जो प्रकृति के निम्न गुणों (रजो तथा तमो गुणों) से युक्त हैं? वे आपको कैसे जान सकते हैं?

11 हे प्रभु! आप साक्षात परम ज्ञान हैं। आप इस सृष्टि तथा इसके सृजन, पालन तथा संहार के विषय में सब कुछ जानते हैं। आप जीवों द्वारा किये जाने वाले उन सारे प्रयासों से अवगत हैं जिनके द्वारा वे इस भौतिक जगत से बँधते या मुक्त होते हैं। जिस प्रकार वायु विस्तीर्ण आकाश के साथ-साथ समस्त चराचर प्राणियों में प्रविष्ट करती है उसी प्रकार आप सर्वत्र विद्यमान हैं, अतएव सर्वज्ञ हैं।

12 हे प्रभु! मैंने आपके उन सभी अवतारों का दर्शन किया है जिन्हें आप अपने दिव्य गुणों के द्वारा प्रकट कर चुके हैं। अब जबकि आप एक सुन्दर युवा स्त्री के रूप में प्रकट हुए हैं, मैं आपके उसी स्वरूप का दर्शन करना चाहता हूँ।

13 हे भगवान! हम लोग यहाँ पर आपके उस रूप का दर्शन करने आये हैं जिसे आपने असुरों को पूर्णतया मोहित करने के लिए दिखलाया था और इस प्रकार देवताओं को अमृत पान करने दिया था। मैं उस रूप को देखने के लिए अत्यन्त उत्सुक हूँ।

14 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब त्रिशूलधारी शिवजी ने भगवान विष्णु से इस तरह प्रार्थना की तो वे गम्भीर होकर हँस पड़े और उन्होंने इस प्रकार से उत्तर दिया।

15 भगवान ने कहा: जब असुरों ने अमृत घट छीन लिया तो मैंने उन्हें प्रत्यक्ष छलावा देकर मोहित करने के उद्देश्य से और इस तरह देवताओं के हित में कार्य करने के लिए, एक सुन्दर स्त्री का रूप धारण कर लिया।

16 हे देवश्रेष्ठ! अब मैं तुम्हें अपना वह रूप दिखाऊँगा जो कामी पुरुषों द्वारा अत्यधिक सराहा जाता है। चूँकि तुम मेरा वैसा रूप देखना चाहते हो अतएव मैं तुम्हारे समक्ष उसे प्रकट करूँगा।

17 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: ऐसा कहकर भगवान विष्णु तुरन्त ही अन्तर्धान हो गये और शिवजी उमा सहित वहीं पर चारों ओर आँखें घुमाते हुए उन्हें ढूँढते रह गये।

18 तत्पश्चात शिवजी ने लाल-गुलाबी पत्तियों तथा विविध प्रकार के फूलों से भरे, निकट के एक रमणीक जंगल में एक सुन्दर स्त्री को गेंद से खेलते देखा। उसके कूल्हे एक चमचमाती साड़ी से ढके थे तथा करधनी से सुशोभित थे।

19-20 उस स्त्री का मुखमण्डल चौड़ा तथा सुन्दर था और चंचल आँखों से सुशोभित था और वे आँखें उसके हाथों द्वारा उछाली गई गेंद के साथ इधर-उधर घूम रही थी। उसके कानों के दो जगमगाते कुण्डल उसके चमकते गालों पर साँवली छाया की तरह सुशोभित हो रहे थे और उसके मुख पर बिखरे बाल उसे देखने में और भी सुन्दर बना रहे थे।

21 जब वह गेंद खेलती तो उसके शरीर को ढके रखने वाली साड़ी ढीली पड़ जाती और उसके बाल बिखर जाते। वह अपने सुन्दर बाएँ हाथ से अपने बालों को बाँधने का प्रयास करती और साथ ही दाएँ हाथ से गेंद खेलती जा रही थी। यह इतना आकर्षक दृश्य था कि भगवान ने अपनी अन्तरंगा शक्ति से हर एक को मोह लिया।

22 जब शिवजी इस सुन्दर स्त्री को गेंद खेलते हुए देख रहे थे, तब वह कभी इन पर दृष्टि डालती और लजाकर थोड़ा हँस देती। ज्योंही शिवजी ने उस सुन्दर स्त्री को देखा और उसने इन्हें ताका त्योंही वे स्वयं, अपनी सर्वसुन्दर पत्नी उमा और निकटस्थ पार्षदों को भूल गये।

23 जब गेंद उसके हाथ से उछलकर दूर जा गिरी तो वह स्त्री उसका पीछा करने लगी, किन्तु जब शिवजी इन लीलाओं को निहार रहे थे तो अचानक वायु का झोंका उसके सुन्दर वस्त्र तथा उसकी करधनी को जो उसे ढके हुए थे, उड़ा ले गया।

24 इस प्रकार शिवजी ने उस स्त्री को देखा जिसके शरीर का अंग-प्रत्यंग सुगठित था और उस सुन्दर स्त्री ने भी उनकी ओर देखा। अतएव यह सोचकर कि वह स्त्री उनके प्रति आकृष्ट है, शिवजी उसके प्रति अत्यधिक आकृष्ट हो गये।

25 उस स्त्री के साथ रमण करने की इच्छा के कारण अपना विवेक खोते हुए शिवजी इतने विह्वल हो उठे कि भवानी कि उपस्थिति में भी वे उसके समीप जाने में तनिक भी नहीं हिचकिचाये।

26 वह सुन्दरी पहले ही विवस्त्रा हो चुकी थी और जब उसने देखा कि शिवजी उसकी ओर चले आ रहे हैं, तो वह अत्यन्त लज्जित हुई। उसने अपने आपको वृक्षों के बीच छिपा लिया वह किसी एक ही स्थान पर खड़ी नहीं रही।

27-30 शिवजी की इन्द्रियाँ विचलित थीं और वे कामेच्छाओं के वशीभूत होकर उसका पीछा करने लगे। तेजी से उसका पीछा करते हुए शिवजी ने उसके बालों का जुड़ा पकड़ लिया और उसे अपने पास खींच लिया। वह स्त्री, जिसके बाल बिखरे थे, शिवजी द्वारा आलिंगित होकर साँप की तरह सरकने लगी। हे राजा, यह स्त्री भगवान द्वारा प्रस्तुत की गई योगमाया थी। उसने अपने को जिस-तिस भाँति शिवजी के आलिंगन से छुड़ाया और भाग गई।

31-36 भगवान विष्णु जिन्होंने मोहिनी रूप धारण कर रखा था, का शिवजी ऐसे पीछा करने लगे जैसे वे काम-वासना रूपी शत्रु द्वारा सताये गए हों। शिवजी उस सुन्दर स्त्री का पीछा कर रहे थे। शिवजी मोहिनी का पीछा करते हुए नदियों तथा झीलों के किनारे, पर्वतों, जंगलों, उद्यानों के पास तथा जहाँ कहीं ऋषिमुनि रह रहे थे, गये और उनका वीर्य स्खलित हो गया। यद्यपि स्खलित हुआ उनका वीर्य व्यर्थ नहीं जाता। हे राजन! पृथ्वी पर जहाँ-जहाँ महापुरुष शिवजी का वीर्य गिरा बाद में वहीं-वहीं सोने तथा चाँदी की खानें प्रकट हो गई। इस प्रकार शिवजी को अपनी स्थिति तथा असीम शक्तिमान भगवान की स्थिति का बोध हो गया। इस ज्ञान के प्राप्त होने पर उन्हें तनिक भी आश्चर्य नहीं हुआ कि भगवान विष्णु ने किस अद्भुत विधि से उन पर माया का जाल फैलाया था।

37 शिवजी को अविचलित एवं लज्जारहित देखकर भगवान विष्णु (मधुसूदन) अत्यन्त प्रसन्न हुए। तब उन्होंने अपना मूल रूप धारण कर लिया और वे इस प्रकार बोले।

38 भगवान ने कहा: हे देवताओं में श्रेष्ठ ! यद्यपि तुम मेरे द्वारा स्त्रीरूप धारण करने की मेरी शक्ति द्वारा अत्यधिक पीड़ित हुए हो, किन्तु तुम अपने पद पर स्थिर हो। अतएव तुम्हारा कल्याण हो।

39 हे प्रिय शम्भू! इस भौतिक जगत में तुम्हारे अतिरिक्त ऐसा कौन है, जो मेरी माया से पार पा सके? सामान्यतया लोग इन्द्रियभोग में आसक्त रहते हैं और इसके प्रभाव में फँस जाते हैं। निस्सन्देह, उनके लिए माया के प्रभाव को लाँघ पाना अत्यन्त कठिन है।

40 यह भौतिक बहिरंगा शक्ति (माया), जो सृष्टि में मुझे सहयोग देती है और प्रकृति के तीनों गुणों में प्रकट होती है अब तुम्हें मोहित नहीं कर सकेगी।

41 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! वक्षस्थल पर श्रीवत्स-चिन्ह धारण करने वाले भगवान द्वारा इस प्रकार प्रशंसित होकर शिवजी ने उनकी परिक्रमा की। फिर उनकी अनुमति लेकर शिवजी अपने गणों सहित अपने धाम कैलाश लौट गये।

42 हे भरतवंशी महाराज! तब शिवजी ने परम प्रसन्न होकर अपनी पत्नी भवानी को सम्बोधित किया जो सभी अधिकारियों द्वारा भगवान विष्णु की शक्ति के रूप में स्वीकार की जाती हैं।

43 शिवजी ने कहा: हे देवी! अब तुमने भगवान की माया देख ली है, वे अजन्मा ही सबके स्वामी हैं। यद्यपि मैं उनके प्रमुख विस्तारों में से एक हूँ तो भी मैं उनकी शक्ति से भ्रमित हो गया था। तो फिर, उन लोगों के विषय में क्या कहा जाये जो माया पर पूर्णत: आश्रित हैं?

44 जब मैंने एक हजार वर्षों की योग-साधना पूरी कर ली तो तुमने मुझसे पूछा था कि मैं किसका ध्यान कर रहा था। अब ये वही परम पुरुष हैं जिन तक काल नहीं पहुँच पाता और जिन्हें वेद नहीं समझ पाते।

45 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! जिस पुरुष ने क्षीरसागर के मन्थन के लिए अपनी पीठ पर महान पर्वत धारण किया था, वही शार्ङ्गधन्वा नामक भगवान हैं। मैंने तुमसे अभी उन्हीं के पराक्रम का वर्णन किया है।

46 जो कोई क्षीरसागर के मन्थन की इस कथा को निरन्तर सुनता या सुनाता है, उसका प्रयास कभी भी निष्फल नहीं होगा। निस्सन्देह, भगवान के यश का कीर्तन ही इस भौतिक संसार में समस्त कष्टों को ध्वस्त करने का एकमात्र साधन है।

47 एक तरुण स्त्री का रूप धारण करके तथा इस प्रकार असुरों को मोहित करके भगवान ने अपने भक्तों अर्थात देवताओं को क्षीरसागर के मन्थन से उत्पन्न अमृत बाँट दिया। मैं उन भगवान को जो अपने भक्तों की इच्छाओं को सदा पूरा करते हैं, अपना सादर नमस्कार अर्पित करता हूँ।

( समर्पित एवं सेवारत जगदीश चन्द्र चौहान )

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अध्याय ग्यारह – इन्द्र द्वारा असुरों का संहार (8.11)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: तत्पश्चात भगवान श्रीहरि की परम कृपा से इन्द्र, वायु इत्यादि सारे देवता जीवित हो गये। इस प्रकार जीवित होकर सारे देवता उन्हीं असुरों को बुरी तरह पीटने लगे जिन्होंने पहले उन्हें परास्त किया था।

2 जब सर्वाधिक शक्तिशाली इन्द्र क्रुद्ध हो गए और उन्होंने महाराज बलि को मारने के लिए अपने हाथ में वज्र ले लिया तो सारे असुर "हाय हाय" चिल्लाकर शोक करने लगे।

3 गम्भीर, सहिष्णु तथा लड़ने के साज-सामान से भलीभाँति सज्जित बलि महाराज उस विशाल युद्धस्थल में इन्द्र के सामने घूम रहे थे। सदा हाथ में वज्र लिये रहने वाले इन्द्र ने बलि महाराज को इस प्रकार तिरस्कारपूर्वक ललकारा।

4 इन्द्र ने कहा: रे धूर्त! जिस प्रकार ठग बच्चे की आँखों पर पट्टी बाँधकर कभी-कभी उसका धन चुरा ले जाता है उसी प्रकार तुम यह जानते हुए कि हम सब ऐसी माया-शक्तियों के स्वामी हैं, अपनी मायाशक्ति दिखलाकर हमें परास्त करना चाहते हो।

5 उन मूर्खों तथा धूर्तों को जो माया या तांत्रिक साधनों से उच्चलोकों तक पहुँचना चाहते हैं या जो उच्चलोकों को भी पार करके वैकुण्ठलोक या मुक्ति प्राप्त करना चाहते हैं, मैं उन्हें ब्रह्माण्ड के सबसे निम्न भाग में भिजवा देता हूँ।

6 वही शक्तिशाली मैं इन्द्र आज हजारों तेज धारों वाले वज्र से तुम्हारे सिर को शरीर से काटकर अलग कर दूँगा। यद्यपि तुम माया द्वारा पर्याप्त चमत्कार दिखा सकते हो, किन्तु तुम्हारा ज्ञान अत्यल्प है। अब तुम अपने सम्बन्धियों तथा सहायकों सहित युद्धभूमि में ठहरे रहने की ही चेष्टा कर लो।

7 बलि महाराज ने उत्तर में कहा: सभी लोग जो इस युद्धभूमि में उपस्थित हैं निश्चय ही नित्य काल के वश में हैं और वे अपने नियत कर्मों के अनुसार क्रमशः यश, विजय, पराजय तथा मृत्यु प्राप्त करेंगे।

8 काल की गतियों को देखकर, जो लोग वास्तविक सत्य से अवगत हैं, वे विभिन्न परिस्थितियों के लिए न तो हर्षित होते हैं, न सोचते हैं। चूँकि तुम लोग अपनी विजय पर हर्षित हो अतः तुम्हें अत्यन्त विद्वान नहीं माना जा सकता।

9 तुम देवता लोग स्वयं को अपनी ख्याति तथा विजय प्राप्त करने का कारण मानते हो। तुम लोगों की अज्ञानता के कारण साधु पुरुष तुम्हारे लिए शोक करते हैं। अतएव तुम्हारे वचन मर्मस्पर्शी होते हुए भी हमें स्वीकार्य नहीं है।

10 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: स्वर्ग के राजा इन्द्र को इस प्रकार कटु वचनों से फटकारने के बाद वीरों का मर्दन करने वाले बलि महाराज ने नाराच बाणों को अपने कान तक खींचा और उनसे इन्द्र पर आक्रमण कर दिया। उन्होंने पुनः इन्द्र को कठोर शब्दों में फटकार लगायी।

11 चूँकि महाराज बलि की फटकारें सत्य थीं अतएव इन्द्र तनिक भी खिन्न नहीं हुआ जिस तरह कोई हाथी महावत द्वारा अंकुश से पीटा जाने पर भी कभी-कभी विचलित नहीं होता।

12 जब शत्रुओं को हराने वाले इन्द्र ने अमोघ वज्र बलि महाराज पर उन्हें मारने की इच्छा से चलाया तो बलि महाराज वायुयान समेत भूमि पर गिर पड़े मानो कोई पर्वत पंख काटे जाने से गिरा हो।

13 जब जम्भासुर ने देखा कि उसका मित्र बलि गिर गया है, तो वह उसके शत्रु इन्द्र के समक्ष प्रकट हुआ मानो मैत्रीपूर्ण आचरण से बलि महाराज की सेवा करने के लिए आया हो।

14 अत्यन्त शक्तिशाली जम्भासुर सिंह पर सवार होकर इन्द्र के पास आया और उसने अपनी गदा से उसके कंधे पर बलपूर्वक प्रहार किया। उसने इन्द्र के हाथी पर भी प्रहार किया।

15 जम्भासुर की गदा से चोट खाकर इन्द्र का हाथी विभ्रमित और व्यथित हो गया। उसने भूमि पर घुटने टेक दिये और अचेत होकर गिर गया।

16 तत्पश्चात इन्द्र का सारथी मातलि रथ ले आया जिसे एक हजार घोड़े खींच रहे थे। इन्द्र ने हाथी को छोड़ दिया और वह रथ पर चढ़ गया।

17 मातलि के सेवाभाव की प्रशंसा करते हुए असुरश्रेष्ठ जम्भासुर मुस्कराने लगा और उसने युद्धभूमि में अग्नि के समान जलते हुए त्रिशूल से मातलि पर प्रहार कर दिया।

18 मातलि की वेदना असहनीय थी, किन्तु धैर्यपूर्वक उसने सहन कर ली। इन्द्र अत्यधिक क्रुद्ध हो उठा और वज्र से प्रहार कर जम्भासुर के सिर को धड़ से अलग कर दिया।

19 जब नारद ऋषि ने जम्भासुर के मित्रों तथा सम्बन्धियों को यह जानकारी दी कि जम्भासुर मारा गया है, तो नमुचि, बल तथा पाक नामक तीन असुर बड़ी तेजी से युद्धभूमि में आ गए।

20 इन्द्र को कठोर, निष्ठुर तथा मर्मभेदी शब्दों से भला-बुरा कहते हुए इन असुरों ने उस पर बाणों से उसी प्रकार वर्षा की जिस तरह वर्षा की झड़ी किसी महान पर्वत को धो देती है।

21 बल नामक असुर ने युद्धभूमि में परिस्थिति को तुरन्त सँभालते हुए एक हजार घोड़ों को उतने ही बाणों से घायल करके इन्द्र को संकट में डाल दिया।

22-23 असुर पाक ने अपने धनुष पर दो सौ बाण चढ़ाकर सारथी मातलि पर आक्रमण कर दिया। असुर नमुचि ने इन्द्र को पन्द्रह सुनहरे पंखों वाले अत्यन्त शक्तिशाली बाणों से आक्रमण कर घायल कर दिया, जिनसे जल से भरे बादल के समान गर्जना हुई।

24 अन्य असुरों ने अपने बाणों की निरन्तर बौछार से इन्द्र को रथ तथा सारथी सहित ढक दिया जिस तरह वर्षा ऋतु में बादल सूर्य को ढक लेते हैं।

25 देवतागण अपने शत्रुओं द्वारा बुरी तरह से सताये जाने तथा युद्धभूमि में इन्द्र को न देख पाने के कारण अत्यन्त चिन्तित थे। वे बिना नायक या अधिपति के उसी तरह विलाप करने लगे जिस तरह समुद्र के बीच में जहाज ध्वंस होने पर व्यापारी विलाप करते हैं।

26 तत्पश्चात इन्द्र ने बाणों के पिंजर से अपने को मुक्त किया और रथ, झण्डे, घोड़े तथा सारथी के साथ प्रकट होते हुए आकाश, पृथ्वी तथा सभी दिशाओं में प्रसन्नता फैलाते हुए तेजी से ऐसे चमकने लगा मानो रात बीत जाने पर सूर्य तेजी से चमक रहा हो। इन्द्र स्पष्टतः तेजवान तथा सुन्दर लग रहा था।

27 वज्रधर नाम से विख्यात इन्द्र ने जब देखा कि उसके सैनिक युद्धभूमि में शत्रुओं द्वारा इस तरह सताये जा रहे हैं, तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआ और उसने शत्रुओं को मारने के लिए वज्र उठा लिया।

28 हे राजा परीक्षित! राजा इन्द्र ने बल तथा पाक दोनों असुरों के सिर को उनके सम्बन्धियों तथा अनुयायियों की उपस्थिति में वज्र द्वारा काट दिया। इस तरह उसने युद्धभूमि में अत्यन्त भयावह वातावरण उत्पन्न कर दिया।

29 हे राजन! जब असुर नमुचि ने बल तथा पाक दोनों असुरों को मारे जाते देखा तो वह सन्ताप तथा शोक से भर गया। अतः उसने क्रुद्ध होकर इन्द्र को मारने का एक जोरदार प्रयास किया।

30 सिंह गर्जना करते हुए नमुचि ने क्रोध में आकर इस्पात का एक भाला उठाया जिसमें घण्टियाँ बँधी थी और सोने के आभूषणों से सजाया गया था। वह ऊँचे स्वर से चिल्लाया "अब तुम मारे गये।" इस प्रकार इन्द्र को मारने के लिए उसके समक्ष जाकर नमुचि ने अपना हथियार चलाया।

31 हे राजन! जब स्वर्ग के राजा इन्द्र ने इस अत्यन्त शक्तिशाली भाले को ज्वलित उल्का की भाँति भूमि की ओर गिरते देखा तो तुरन्त ही उसे अपने बाणों से खण्ड-खण्ड कर दिया। इन्द्र ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर नमुचि के कंधे पर वज्र से प्रहार किया जिससे उसका सिर कट जाये।

32 यद्यपि इन्द्र ने नमुचि पर अपना वज्र बड़े ही वेग से चलाया था, किन्तु वह उसकी चमड़ी तक को भेद नहीं पाया। यह बड़ी विचित्र बात है कि जिस सुप्रसिद्ध वज्र ने वृत्रासुर के शरीर को भेद डाला था वह नमुचि की गर्दन की खाल को रंचमात्र भी क्षति नहीं पहुँचा पाया।

33 जब इन्द्र ने वज्र को शत्रु से वापस लौटते देखा तो वह अत्यन्त भयभीत हो गया और आश्चर्य करने लगा कि कहीं किसी चमत्कारी ऊँची देवी शक्ति से तो यह सब कुछ नहीं हुआ।

34 इन्द्र ने सोचा पूर्वकाल में जब अनेक पर्वत अपने पंखों के द्वारा आकाश में उड़ते हुए भूमि पर गिरते थे और लोगों को मार डालते थे तो मैं अपने इसी वज्र से उनके पंख काट लेता था।

35 यद्यपि वृत्रासुर, त्वष्टा द्वारा की गई तपस्या का सार-समाहार था, तो भी (इन्द्र के) वज्र ने उसका काम तमाम कर दिया था। निस्सन्देह, वही नहीं, अपितु ऐसे अनेक अग्रणी वीर भी जिनकी चमड़ी को अन्य हथियार तनिक भी क्षति नहीं पहुँचा सके थे, इसी वज्र द्वारा मारे गए।

36 किन्तु अब वही वज्र एक तुच्छ असुर पर छोड़े जाने पर भी प्रभावहीन हो गया है। अतएव ब्रह्मास्त्र जैसे होने पर भी यह मेरे लिए अब एक सामान्य डंडे की तरह व्यर्थ हो गया है।, इसलिए अब मैं इसे धारण नहीं करूँगा।

37 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: जब हताश इन्द्र इस तरह विषाद कर रहा था, तो एक देहरहित वाणी ने आकाश से कहा: यह असुर नमुचि किसी शुष्क या गीली वस्तु से विनष्ट नहीं किया जा सकता।

38 आकाशवाणी ने यह भी कहा "हे इन्द्र ! चूँकि मैंने इस असुर को वर दे रखा है कि वह कभी किसी सूखे या गीले हथियार से नहीं मारा जायेगा, अतएव उसे मारने के लिए कोई अन्य उपाय सोचो।"

39 वाणी को सुनकर इन्द्र बड़े मनोयोग से ध्यान करने लगा कि इस असुर को किस तरह मारा जाये। तब उसे यह सुझा कि झाग ही ऐसा साधन है, जो न तो गीली होती है, न शुष्क।

40 इस तरह स्वर्ग के राजा इन्द्र ने झाग के अपने हथियार से नमुचि का सिर काट दिया। यह झाग न तो शुष्क थी, न आर्द्र। तब सारे मुनियों ने उस महापुरुष इन्द्र पर फूलों की वर्षा की तथा माल्यार्पण द्वारा उसे लगभग ढक दिया और संतुष्ट कर लिया।

41 विश्वावसु तथा परावसु नामक दो गन्धर्व प्रमुखों ने अतीव प्रसन्नता में गीत गाये। देवताओं ने दुन्दुभियाँ बजाई और अप्सराओं ने हर्षित होकर नृत्य किया।

42 वायु, अग्नि, वरुण इत्यादि देवता अपने विरोधी असुरों को उसी तरह मारने लगे जिस तरह जंगल में हिरणों को सिंह मारते हैं।

43 हे राजन! जब ब्रह्मा ने देखा कि दानवों का पूर्ण संहार तुरन्त होने वाला है, तो उन्होंने नारद द्वारा सन्देश भेजा जो युद्ध रुकवाने के लिए देवताओं के समक्ष गये।

44 महामुनि नारद ने कहा: तुम सारे देवता भगवान नारायण की भुजाओं द्वारा सुरक्षित हो और उनकी कृपा से तुम सबको अमृत प्राप्त हुआ है। लक्ष्मीजी की कृपा से तुम हर तरह से गौरवान्वित हुए हो, अतएव अब यह लड़ाई बन्द कर दो।

45 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: नारदमुनि के वचनों को मानकर देवताओं ने अपना क्रोध त्याग दिया और लड़ाई बन्द कर दी। वे अपने अनुयायियों द्वारा प्रशंसित होकर स्वर्गलोक को लौट गये।

46 नारदमुनि के आदेशानुसार युद्धक्षेत्र में जितने भी असुर बचे थे, वे सब बलि महाराज को जिनकी अवस्था अत्यन्त गम्भीर थी, अस्तगिरि ले गये।

47 उस पर्वत पर शुक्राचार्य ने उन सारे असुर सैनिकों को जिनके सिर, धड़ तथा हाथ-पाँव कटे नहीं थे जीवित कर दिया। उन्होंने संजीवनी मंत्र के द्वारा यह सब किया।

48 बलि महाराज वैश्विक कार्यों में अत्यन्त अनुभवी थे। जब शुक्राचार्य की कृपा से उन्हें होश आया और उनकी स्मृति लौट आई तो जो कुछ हो चुका था उसे वे समझ गये, अतः पराजित होने पर भी उन्हें शोक नहीं हुआ।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

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अध्याय दस – देवताओं तथा असुरों के बीच संग्राम (8.10)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! यद्यपि असुर तथा दैत्य पूरे मनोयोग तथा श्रम के साथ समुद्र-मन्थन में लगे थे, किन्तु भगवान वासुदेव के भक्त न होने के कारण, असुर अमृत नहीं पी सके।

2 हे राजन! समुद्र-मन्थन का कार्य पूरा कर लेने तथा अपने प्रिय भक्त देवताओं को अमृत पान करवाने के बाद भगवान ने वहाँ से विदा ली और गरुड़ पर आसीन होकर अपने धाम चले गये।

3 देवताओं की विजय देखकर असुरगण उनके श्रेष्ठतर ऐश्वर्य को सहन न कर सके। अतः वे अपने हथियार उठाकर देवताओं की ओर दौड़ पड़े।

4 तत्पश्चात अमृत पीने से उत्तेजित देवताओं ने जो सदैव नारायण के चरणकमलों की शरण में रहते हैं असुरों पर प्रत्याक्रमण करने के लिए युद्ध की मनोवृत्ति से अपने विविध हथियारों का प्रयोग किया।

5 हे राजन! देवताओं तथा असुरों के मध्य क्षीरसागर के तट पर घमासान युद्ध शुरु हो गया। यह युद्ध इतना भयावह था कि इसके विषय में सुनने से ही शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

6 उस युद्ध में दोनों ही दल अत्यन्त क्रुद्ध थे। वे शत्रुतावश एक दूसरे पर तलवारों, बाणों तथा नानाविध अन्य हथियारों से प्रहार करने लगे।

7 पैदल सिपाहियों की आवाजों के साथ शंखों, तुरहियों, ढोलों, भेरियों, डमरियों, हाथियों, घोड़ों तथा रथों से निकलती ध्वनियाँ कोलाहल से पूर्ण थीं।

8 उस युद्धभूमि में रथी विपक्षी रथियों से, पैदल सेना विपक्षी पैदल सेना से, अश्वारोही विपक्षी अश्वारोहियों से तथा हाथियों पर सवार सैनिक विपक्षी हाथी-सवार सैनिकों से भिड़ गये। इस प्रकार समान पक्षों में युद्ध होने लगा।

9 कुछ सैनिक ऊँटों, हाथियों,गधों, बन्दरों, बाघों और कुछ सिंहों पर सवार होकर लड़ने लगे। इस प्रकार वे सब युद्ध किये जा रहे थे।

10-12 हे राजन! कुछ सैनिक गीधों, चील्हों, बगुलों, बाजों तथा भासपक्षियों की पीठ पर बैठकर लड़े। कुछ ने विशाल तिमिंगलों, सरभों, भैंसों, गैंडों, गायों, बैलों, बनगायों तथा अरुणों की पीठ पर सवार होकर युद्ध किया। अन्य लोगों ने सियारों, चूहों, छिपकलियों, खरहों, मनुष्यों, बकरों, काले हिरणों, हंसों तथा सुअरों की पीठ पर बैठकर युद्ध किया। इस प्रकार विकृत शरीर वाले पशुओं सहित, जल, स्थल तथा नभचारी पशुओं की पीठ पर बैठी दोनों सेनाएँ आमने-सामने होकर आगे बढ़ रही थीं।

13-15 हे राजन! हे महाराज पाण्डु के वंशज! देवता तथा असुर दोनों ही के सैनिक छत्रों, रंगबिरंगी झण्डियों तथा बहुमूल्य रत्नों एवं मोतियों से बनी मूठ वाले छातों से अलंकृत होने के कारण अत्यन्त सुन्दर लग रहे थे। चमचमाती धूप में सैनिक तथा उनके तीक्ष्ण स्वच्छ हथियार आँखों को चौंधिया रहे थे। इस तरह सैनिकों की टोलियाँ जलचरों के समूहों से भरे हुए दो सागरों के समान प्रतीत हो रही थीं।

16-18 उस युद्ध के लिए सुविख्यात सेनापति विरोचन-पुत्र महाराज बलि वैहायस नामक अद्भुत वायुयान पर आसीन थे। हे राजन! सुन्दर ढंग से सजाया गया यह वायुयान मय दानव द्वारा निर्मित किया गया था और युद्ध के लिए सभी प्रकार के हथियारों से युक्त था। यह अचिन्त्य तथा अवर्णनीय था। यह कभी दिखता तो कभी नहीं दिखता था। इस वायुयान में एक सुन्दर छाते के नीचे बैठे, चमरों से पंखा झले जाते हुए एवं अपने सेनानायकों से घिरे महाराज बलि इस प्रकार लग रहे थे मानों शाम को चन्द्रमा उदय हो रहा हो और सभी दिशाओं को प्रकाशित कर रहा हो।

19-24 महाराज बलि को चारों ओर से असुरों के सेनानायक तथा अधिपति घेरे थे। इनमें निम्नलिखित असुर रथों पर सवार थे – नमुचि, शम्बर, बाण, विप्रचित्ति, आयोमुख, द्विमूर्धा, कालनाभ, प्रहेति, हेति, इल्वल, शकुनि, भूतसंताप, वज्रदंष्ट्र , विरोचन, हयग्रीव, शंकुशिरा, कपिल, मेघदुन्दुभी, तारक, चक्रदृक, शुम्भ, निशुम्भ, जम्भ, उत्कल, अरिष्ट, अरिष्ट्नेमी, त्रिपुराधिप, मय, पुलोम के पुत्र कालेय तथा निवातकवच। ये सारे असुर अमृत पीने से वंचित रह गये थे, उन्होंने केवल समुद्र-मन्थन का श्रम उठाया था। अपनी सेनाओं को प्रोत्साहित करने के लिए उन्होंने सिंह-गर्जना के समान कोलाहल किया और जोर से शंख बजाये। बलभित अर्थात इन्द्रदेव प्रतिद्वंद्वियों की यह स्थिति देखकर अत्यन्त कुपित हुए।

25 एक ऐसा हाथी जो कहीं भी जा सकता है और जो छिड़कने के लिए जल तथा सुरा को संचित रखता है, ऐसे ऐरावत हाथी पर चढ़कर इन्द्र ऐसा लग रहा था मानो उदयगिरि जहाँ जल के आगार हैं से सूर्य निकल रहा हो।

26 देवतागण स्वर्ग के राजा इन्द्र को घेरे हुए थे। वे नाना प्रकार के यानों पर सवार थे और झण्डों तथा आयुधों से सज्जित थे। उपस्थित देवताओं में वायु, अग्नि, वरुण, विभिन्न लोकों के अन्य शासक तथा उनके पार्षद थे।

27 देवता तथा दानव एक दूसरे के सम्मुख आ गये और मर्मभेदी वचनों से एक दूसरे को धिक्कारने हुए युद्ध करने लगे।

28 हे राजन! महाराज बलि इन्द्र से, कार्तिकेय तारक से, वरुण हेति से तथा मित्र प्रहेति से भिड़ गये।

29 यमराज कालनाभ से, विश्वकर्मा मय दानव से, त्वष्टा शम्बर से तथा सूर्यदेव विरोचन से लड़ने लगे।

30-31 अपराजित देवता ने नमुचि असुर के साथ तथा दोनों अश्विनी कुमारों ने वृषपर्वा के साथ युद्ध किया। सूर्यदेव महाराज बलि के सौ पुत्रों से भिड़ गये जिनमें बाण प्रमुख था। चन्द्रदेव ने राहु से लड़ाई की। वायुदेव ने पुलोमा से तथा शुम्भ और निशुम्भ ने अत्यन्त शक्तिशाली माया भद्रकाली नामक दुर्गादेवी से युद्ध किया।

32-34 हे अरिंदम महाराज परीक्षित! शिवजी ने जम्भ से तथा विभावसु ने महिषासुर से युद्ध किया। इल्वल ने, अपने भाई वातापि सहित, ब्रह्मा के पुत्रों से युद्ध किया। दुर्मर्ष कामदेव से, उत्कल मातृका नामक देवियों से, बृहस्पति शुक्राचार्य से तथा शनैश्चर नरकासुर से युद्ध में भिड़ गए। मरुतगण निवातकवच से, वसुओं ने दैत्य कालकेयों से, विश्वेदेवों ने पौलोमों असुरों से तथा रुद्रगणों ने क्रुद्ध अर्थात क्रोध के वशीभूत असुरों से युद्ध किया।

35 ये सारे देवता तथा असुर लड़ने के उत्साह से युद्धभूमि में एकत्र हुए और अत्यन्त बलपूर्वक एक दूसरे पर प्रहार करने लगे। ये सब विजय की कामना करते हुए तेज बाणों, तलवारों तथा भालों से एक दूसरे को मारने लगे।

36 उन्होंने भुशुण्डी, चक्र, गदा, ऋष्टि, पट्टीश, शक्ति, उल्मुक, प्रास, परश्वध, निंस्त्रश, भाला, परिघ, मुद्गर तथा भिंदिपाल नामक हथियारों से एक दूसरे के सिर काट डाले।

37 हाथी, घोड़े, रथ, सारथी, पैदल सेना तथा सवारों सहित विविध प्रकार के वाहन टुकड़े-टुकड़े हो गये। सैनिकों की भुजाएँ, जाँघें, गर्दन तथा टाँगें कट गई और उनके झण्डे, धनुष, कवच तथा आभूषण छिन्न-भिन्न हो गये।

38 भूमि पर देवताओं तथा असुरों के पाँवों तथा रथों के पहियों के आघात से आकाश में तेजी से धूल के कण उड़ने लगे और धूल के बादल छा गये जिससे सूर्य तक का सारा बाह्य आकाश चारों ओर से ढक गया। किन्तु जब धूल के कणों के पश्चात रक्त की बूँदें सारे आकाश में फुहार की तरह उठने लगीं तो धूल के बादलों का आकाश में मँडराना बन्द हो गया।

39 युद्ध के दौरान रणभूमि वीरों के कटे सिरों से पट गई। उनकी आँखें अब भी घूर रही थीं और क्रोध से उनके दाँत होंठों से भिचे हुए थे। इन छिन्न सिरों के मुकुट तथा कुण्डल बिखर गये थे। इसी प्रकार आभूषणों से सज्जित तथा विविध हथियार पकड़े हुई अनेक भुजाएँ, हाथी की सूँडों जैसी अनेक टाँगे तथा जाँघें इधर-उधर पड़ी थीं।

40 उस युद्धभूमि में शीषरहित अनेक धड़ उत्पन्न हो गये थे। वे प्रेततुल्य धड़ अपने हाथों में हथियार लिए, पड़े हुए सिरों की आँखों से देखकर शत्रु सैनिकों पर आक्रमण कर रहे थे।

41 महाराज बलि ने तब दस बाणों से इन्द्र, तीन बाणों से इन्द्र के वाहन ऐरावत, चार बाणों से ऐरावत के पाँवों की रक्षा करने वाले घुड़सवारों पर आक्रमण किया।

42 इसके पूर्व कि बलि महाराज के बाण स्वर्ग के राजा इन्द्र तक पहुँचे, बाणों के चलाने में पटु इन्द्र ने हँसते हुए एक अन्य प्रकार के अत्यन्त तीक्ष्ण भल्ल नामक बाण से उन्हें काट डाला।

43 जब बलि महाराज ने इन्द्र के दक्ष सैन्य कार्यकलापों को देखा तो वे अपना क्रोध रोक न सके। उन्होंने शक्ति नामक एक दूसरा हथियार ग्रहण किया जो महान अग्नि पुंज की भाँति ज्वलित हो रहा था। किन्तु इन्द्र ने इसे बलि के हाथ से छूटने के पूर्व ही खण्ड-खण्ड कर दिया।

44 तत्पश्चात बलि महाराज ने एक-एक करके भाला, प्रास, तोमर, ऋष्टि तथा अन्य हथियार चलाये, किन्तु वे जो भी हथियार लेते थे, उन्हें महान इन्द्र तुरन्त ही खण्ड-खण्ड कर देते थे।

45 हे राजन! तब बलि महाराज अदृश्य हो गये और उन्होंने आसुरी माया का सहारा लिया। तब देवताओं की सेना के सिरों के ऊपर माया से उत्पन्न एक विशाल पर्वत प्रकट हुआ।

46 उस पर्वत से दावाग्नि से जलते हुए वृक्ष गिरने लगे। उससे कुल्हाड़ी जैसी तीक्ष्ण धार वाले पत्थर-खण्ड भी गिरने लगे जिससे देवताओं के सैनिक चकनाचूर हो गये।

47 देवताओं के सैनिकों पर बिच्छू, बड़े-बड़े सर्प तथा अन्य अनेक विषैले पशुओं के साथ-साथ सिंह, बाघ, सुअर तथा बड़े-बड़े हाथी गिरने लगे और हर वस्तु को चकनाचूर करने लगे।

48 हे राजन! तब कई सौ मानवभक्षी नर और मादा असुर, जो पूर्णतया नग्न थे और अपने हाथों में त्रिशूल लिए थे "काट डालो! छेद डालो!” के नारे लगाते हुए प्रकट हुए।

49 आकाश में प्रबल वायु से प्रताड़ित घनघोर घटाएँ प्रकट हो आई। वे गम्भीर गर्जना करती हुई जलते कोयलों के अंगारे बरसाने लगीं।

50 महाराज बलि द्वारा उत्पन्न की गई अत्यन्त संहारक अग्नि देवताओं के सभी सैनिकों को जलाने लगी। यह अग्नि तेज बहती हवाओं के साथ उस सांवर्तक अग्नि जैसी प्रतीत हो रही थी जो प्रलय के समय प्रकट होती है।

51 तत्पश्चात हवाओं के प्रचण्ड झकोरों से क्षुब्ध समुद्री लहरें तथा भँवर सबकी आँखों के सामने एक भीषण बाढ़ के रूप में चारों ओर प्रकट हो आए।

52 जब ऐसे मायावी कार्यों में दक्ष अदृश्य असुरों द्वारा युद्ध में इस तरह का जादुई वातावरण उत्पन्न किया जा रहा था, तो देवताओं के सैनिक उद्विग्न हो गये।

53 हे राजन! जब देवताओं को असुरों के उत्पातों के निराकरण का कोई उपाय न सुझा तो उन्होंने ब्रह्माण्ड के स्रष्टा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का पूर्ण मनोयोग से ध्यान किया और वे तुरन्त ही प्रकट हो गये।

54 नवविकसित कमल की पंखुड़ियों सदृश आँखों वाले भगवान गरुड़ की पीठ पर बैठे थे और गरुड़ के कंधों पर अपने चरणकमल फैलाये हुए थे। वे पीत वस्त्र धारण किये, कौस्तुभ मणि तथा लक्ष्मीजी से सुसज्जित एवं अमूल्य मुकुट तथा कुण्डल पहने अपनी आठों भुजाओं में विविध आयुध धारण किये देवताओं को दृष्टिगोचर हुए।

55 जिस प्रकार स्वप्न देखने वाले के जागते ही स्वप्न के भय दूर हो जाते हैं उसी तरह युद्धभूमि में भगवान के प्रवेश करते ही उनकी दिव्य शक्ति से असुरों की जादूगरी से उत्पन्न माया विलीन हो गई। निस्सन्देह, भगवान के स्मरण मात्र से मनुष्य सारे संकटों से मुक्त हो जाता है।

56 हे राजन! जब सिंह पर आरूढ़ कालनेमी दैत्य ने देखा कि गरुड़ पर आरूढ़ भगवान युद्धक्षेत्र में हैं, तो उसने तुरन्त अपना त्रिशूल निकाल लिया और उसे गरुड़ के सिर पर चलाया, किन्तु तीनों लोकों के स्वामी भगवान हरि ने तुरन्त ही उस त्रिशूल को पकड़ लिया और उसी हथियार से उस शत्रु कालनेमी को उसके वाहन सिंह समेत मार दिया।

57 तत्पश्चात भगवान ने माली तथा सुमाली नामक दो शक्तिमान असुरों को मारा। उन्होंने अपने चक्र से उनके सिर काट दिये। तब एक अन्य असुर माल्यवान ने भगवान पर आक्रमण किया। उसने नुकीली गदा से, सिंह की भाँति गर्जना करते हुए, अंडों से उत्पन्न पक्षीराज गरुड़ पर आक्रमण किया, किन्तु आदि पुरुष भगवान ने अपने चक्र का प्रयोग करते हुए उसके सिर को भी काट दिया।

( समर्पित एवं सेवारत जगदीश चन्द्र चौहान )

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अध्याय नौ – मोहिनी-मूर्ति के रूप में भगवान का अवतार (8.9)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: तत्पश्चात असुर एक दूसरे के शत्रु बन गये। उन्होंने अमृत पात्र को फेंकते और छीनते हुए अपने मैत्री-सम्बन्ध तोड़ लिये। इसी बीच उन्होंने देखा कि एक अत्यन्त सुन्दर तरुणी उनकी ओर बढ़ी आ रही है।

2 उस सुन्दरी को देखकर असुरों ने कहा: ओह! इसका सौन्दर्य कितना आश्चर्यजनक है, शरीर की कान्ति कितनी अद्भुत है और इसकी तरुणावस्था का सौन्दर्य कितना उत्कृष्ट है। इस तरह कहते हुए वे उसका भोग करने की इच्छा से तेजी से उसके पास पहुँच गये और उससे तरह-तरह से प्रश्न पूछने लगे।

3 हे अद्भुत सुन्दरी बाला! तुम्हारी आँखें इतनी सुन्दर हैं कि वे कमल पुष्प की पंखड़ियों जैसी लगती हैं। तुम कौन हो, कहाँ से आई हो, यहाँ आने का तुम्हारा प्रयोजन क्या है और तुम किसकी हो? हमारे मन तुम्हारे दर्शनमात्र से ही विचलित हो रहे हैं।

4 मनुष्यों की कौन कहे, देवता, असुर, सिद्ध, गन्धर्व, चारण तथा ब्रह्माण्ड के विभिन्न निर्देशक अर्थात प्रजापति तक इसके पूर्व तुम्हारा स्पर्श नहीं कर पाये। ऐसा नहीं है कि हम तुम्हें ठीक से पहचान नहीं पा रहे हों।

5 हे सुन्दर भौंहों वाली सुन्दरी! निश्चय ही, विधाता ने अपनी अहैतुकी कृपा से तुम्हें हम लोगों की इन्द्रियों और मन को प्रसन्न करने के लिए भेजा है।

6 इस समय हम लोग एक ही बात अमृत कलश को लेकर परस्पर शत्रुता में मग्न हैं। यद्यपि हम एक ही कुल में उत्पन्न हुए हैं फिर भी हममें शत्रुता बढ़ती ही जा रही है। अतएव हे क्षीण कटि वाली सुप्रतिष्ठित सुन्दरी! हमारी आपसे प्रार्थना है कि हमारे इस झगड़े को निपटाने की कृपा करें।

7 हम सभी देवता तथा असुर दोनों ही एक ही पिता कश्यप की सन्तानें हैं और इस तरह से भाई-भाई हैं। किन्तु मतभेद के कारण हम अपना-अपना पराक्रम दिखला रहे हैं। अतएव आपसे हमारी विनती है कि हमारे झगड़े का निपटारा कर दें और इस अमृत को हममें बराबर-बराबर बाँट दें।

8 असुरों द्वारा इस प्रकार प्रार्थना किये जाने पर सुन्दरी का रूप धारण किये हुए भगवान हँसने लगे। फिर स्त्री-सुलभ मोहक हावभाव से उनकी ओर देखते हुए इस प्रकार कहा।

9 मोहिनी-रूप भगवान ने असुरों से कहा: हे कश्यपमुनि के पुत्रों! मैं तो एक गणिका हूँ। तुम लोग किस तरह मुझ पर इतना विश्वास कर रहे हो? विद्वान पुरुष कभी स्त्री पर विश्वास नहीं करते।

10 हे असुरों! जिस प्रकार बन्दर, सियार तथा कुत्ते अपने यौन सम्बन्धों में अस्थिर होते हैं और नित्य ही नया-नया साथी चाहते हैं उसी प्रकार जो स्त्रियाँ स्वच्छन्ध होती हैं वे नित्य नया साथी ढूँढती हैं। ऐसी स्त्री की मित्रता कभी स्थायी नहीं होती। यह विद्वानों का अभिमत है।

11 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: मोहिनी-मूर्ति के परिहासपूर्ण शब्द सुनकर सारे असुर अत्यधिक आश्वस्त हुए। वे गम्भीर रूप से हँस पड़े और अन्ततः उन्होंने वह अमृत घट उसके हाथों में थमा दिया।

12 तत्पश्चात अमृत-पात्र को अपने हाथ में लेकर भगवान थोड़ा मुस्काये और फिर आकर्षक शब्दों में बोले। उस मोहिनी-मूर्ति ने कहा: मेरे प्रिय असुरों! मैं जो कुछ भी करूँ, चाहे वह खरा हो या खोटा, यदि तुम उसे स्वीकार करो तब मैं इस अमृत को तुम लोगों में बाँटने का उत्तरदायित्व ले सकती हूँ ।

13 असुरों के प्रधान निर्णय लेने में अधिक पटु नहीं थे। अतएव मोहिनी मूर्ति के मधुर शब्दों को सुनकर उन्होंने कहा “हाँ, आपने जो कहा है, वह बिल्कुल ठीक है।“ इस तरह असुर उसका निर्णय स्वीकार करने के लिए राजी हो गए।

14 तब असुरों तथा देवताओं ने उपवास रखा। स्नान करने के बाद उन्होंने अग्नि में घी की आहुतियाँ डाली और गायों, ब्राह्मणों तथा समाज के अन्य वर्णों--क्षत्रियों, वैश्यों तथा शूद्रों--को उनकी पात्रता के अनुसार दान दिया। तत्पश्चात असुरों तथा देवों ने ब्राह्मणों के निर्देशन में अनुष्ठान सम्पन्न किये।

15 तब अपनी रुचि के अनुसार नए वस्त्र धारण किये, आभूषणों से अपने शरीर को अलंकृत किया और पूर्व दिशा की ओर मुख करके कुश-आसनों पर बैठ गये।

16-17 हे राजन! ज्योंही देवता तथा असुर पूर्व दिशा में मुख करके उस सभा-मण्डप में बैठ गये जो फूल मालाओं तथा दीपों से पूर्णतया सजाया और धूप के धुएँ से सुगन्धित हो गया था, उसी समय अत्यन्त सुन्दर साड़ी पहने, पायलों की झनकार करती मोहिनी-मूर्ति ने मन्द गति चलते हुए सभा-मण्डप में प्रवेश किया। उसकी आँखें युवावस्था के मद से विह्वल और हाथ में अमृत-कलश लिए हुए थी।

18 उसकी आकर्षक नाक, गालों और सुनहले कुण्डलों से विभूषित कानों ने उसके मुखमण्डल को अतीव सुन्दर बना दिया था। जब वह चलती थी, उसकी साड़ी का किनारा उसके अंचल से खिसक रहा था। जब देवताओं तथा असुरों ने मोहिनी-मूर्ति के सुन्दर अंगों को देखा तो वे सब पूरी तरह मोहित हो गये क्योंकि वह उनको तिरछी नजर से देख कर मुस्काती जा रही थी।

19 असुर स्वभाव से सर्पों के समान कुटिल होते हैं। अतएव उन्हें अमृत में से हिस्सा देना तनिक भी सामान्य नहीं था क्योंकि यह सर्प को दूध पिलाने के समान घातक होता। यह सोचकर अच्युत भगवान ने असुरों को अमृत में हिस्सा नहीं दिया।

20 मोहिनी-मूर्ति रूपी ब्रह्माण्ड के स्वामी अर्थात भगवान ने देवताओं तथा असुरों को बैठने के लिए अलग-अलग पंक्तियों की व्यवस्था कर दी और उनके पद के अनुसार उन्हें बैठा दिया।

21 अपने हाथों में अमृत का कलश लिये वह सर्वप्रथम असुरों के निकट आई और अपनी मधुर वाणी से उन्हें संतुष्ट किया और इस तरह उनको अमृत के भाग से वंचित कर दिया। तब उसने दूरी पर बैठे देवताओं को अमृत पिला दिया जिससे वे अशक्तता, बुढ़ापा तथा मृत्यु से मुक्त हो सकें।

22 हे राजन! चूँकि असुरों ने वचन दिया था कि वह स्त्री जो कुछ भी करेगी, चाहे न्यायपूर्ण हो या अन्याय-पूर्ण, उसे वे स्वीकार करेंगे, अत: अब अपना वचन रखने, संतुलन दिखाने तथा स्त्री से झगड़ा करने से बचने के लिए वे मौन रहे।

23 असुरों को मोहिनी-मूर्ति से प्रेम तथा एक प्रकार का विश्वास हो गया था और उन्हें भय था कि उनके सम्बन्ध कहीं डगमगा न जाएँ। अतएव उन्होंने उसके वचनों का आदर-सम्मान किया और ऐसा कुछ भी नहीं कहा जिससे उसके साथ उनकी मित्रता में बाधा पड़े।

24 सूर्य तथा चन्द्रमा को ग्रसने वाला असुर राहु – देवता के वस्त्रों से आच्छादित होकर देवताओं के समूह में प्रविष्ट हो गया और किसी के द्वारा, जाने बिना अमृत पीने लगा। राहु से सतत शत्रुता के कारण, चन्द्रमा तथा सूर्य स्थिति को भाँप गये, अतः राहु पहचान लिया गया।

25 भगवान हरि ने छुरे के समान तेज धार वाले अपने चक्र को चलाकर तुरन्त ही राहु का सिर छिन्न कर दिया। जब राहु का सिर उसके शरीर से कट गया तो वह शरीर अमृत का स्पर्श न करने के कारण जीवित नहीं रह पाया।

26 किन्तु अमृत का स्पर्श करने के कारण राहु का सिर अमर हो गया। इस प्रकार ब्रह्माजी ने राहु के सिर को एक ग्रह (लोक) के रूप में मान लिया। चूँकि राहु सूर्य तथा चन्द्रमा का शाश्वत वैरी है, अतः वह पूर्णिमा तथा अमावस्या की रात्रियों में उन पर सदैव आक्रमण करने का प्रयत्न करता है।

27 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान तीनों लोकों के सर्वश्रेष्ठ मित्र तथा शुभचिन्तक हैं। जब देवताओं ने अमृत पीना समाप्त किया तब भगवान ने समस्त असुरों के समक्ष अपना वास्तविक रूप प्रकट कर दिया।

28 यद्यपि देवताओं तथा असुरों के देश, काल, कारण, उद्देश्य, कर्म तथा अभिलाषा एक-जैसे थे, किन्तु देवताओं को एक प्रकार का फल मिला और असुरों को दूसरे प्रकार का। चूँकि देवता सदैव भगवान के चरणकमलों की धूलि की शरण में रहते हैं अतएव वे अमृत प्राप्त कर सके, किन्तु भगवान के चरणकमलों का आश्रय ग्रहण नहीं करने के कारण असुर मनवांछित फल प्राप्त करने में असमर्थ रहे।

29 मानव समाज में मनुष्य के जीवन तथा धन-सम्पदा की सुरक्षा के लिए मनसावाचाकर्मणा विविध कार्य किये जाते हैं, किन्तु ये सब कार्य शरीर या इन्द्रियतृप्ति के लिए ही किये जाते हैं। ये सारे कार्य भक्ति से पृथक होने के कारण निराशाजनक होते हैं। किन्तु जब ये ही कार्य भगवान को प्रसन्न करने के लिए किये जाते हैं, तो उनके लाभकारी फल सब में बाँट दिए जाते हैं जिस तरह वृक्ष की जड़ में पानी डालने से वह समूचे वृक्ष में वितरित हो जाता है।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय आठ – क्षीरसागर का मन्थन ( 8.8 )

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: शिवजी द्वारा विषपान कर लिये जाने पर देवता तथा दानव दोनों ही अत्यधिक प्रसन्न हुए और नवीन उत्साह के साथ समुद्र मन्थन करने लगे। इसके फलस्वरूप सुरभि नामक गाय उत्पन्न हुई।

2 हे राजा परीक्षित! वैदिक अनुष्ठानों के पूर्ण जानकार ऋषियों ने उस सुरभि गाय को ले लिया जो अग्नि में आहुती डालने के लिए नितान्त आवश्यक पदार्थ अर्थात मट्ठा, दूध तथा घी उत्पन्न करने वाली थी। उन्होंने शुद्ध घी के लिए ही ऐसा किया क्योंकि उन्हें उच्चलोकों में ब्रह्मलोक तक जाने के लिए यज्ञ सम्पन्न करने के लिए घी की आवश्यकता थी।

3 तत्पश्चात चन्द्रमा के समान श्वेत रंग का उच्चैःश्रवा नामक घोड़ा उत्पन्न हुआ। बलि महाराज ने इसे लेना चाहा। स्वर्ग के राजा इन्द्र ने इसका विरोध नहीं किया क्योंकि भगवान ने पहले से ही उन्हें ऐसी सलाह दे रखी थी।

4 मन्थन के फलस्वरूप अगली बार हाथियों का राजा ऐरावत उत्पन्न हुआ। यह हाथी श्वेत रंग का था और अपने चारों दाँतों के कारण यह शिवजी के यशस्वी धाम कैलाश पर्वत को भी मात दे रहा था।

5 हे राजन इसके बाद आठ बड़े-बड़े हाथी उत्पन्न हुए जो किसी भी दिशा में जा सकते थे। उनमें ऐरावण प्रमुख था। अभ्रमु आदि आठ हथिनियाँ भी उत्पन्न हुई।

6 तत्पश्चात महान समुद्र से विख्यात रत्न कौस्तुभ मणि तथा पद्मराग मणि उत्पन्न हुए। भगवान विष्णु ने अपने वक्षस्थल को अलंकृत करने के लिए इसे पाने की इच्छा व्यक्ति की। तब पारिजात पुष्प उत्पन्न हुआ जो स्वर्गलोकों को विभूषित करता है। हे राजा! जिस प्रकार तुम इस लोक के प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा पूरी करते हो उसी तरह पारिजात हरेक की इच्छाओं को पूरा करता है।

7 अप्सराएँ जो स्वर्ग में रहती हैं, प्रकट हुईं। वे सोने के आभूषणों तथा मालाओं से पूरी तरह सजी हुई थीं और आकर्षक महीन वस्त्र धारण किये थीं। अप्सराएँ अत्यन्त मन्दगति से आकर्षक शैली में चलती हैं जिससे स्वर्गलोक के निवासी मोहित हो जाते हैं।

8 तब धन की देवी रमा प्रकट हुईं जो भगवान की नित्य शक्ति हैं और उन्हीं को समर्पित रहती हैं। वे बिजली की भाँति प्रकट हुईं और उनकी कान्ति संगमरमर के पर्वत को प्रकाशित करने वाली बिजली को मात कर रही थीं।

9 उनके अपूर्व सौन्दर्य, शारीरिक सौष्ठव, तारुण्य, रंग तथा यश के कारण हर व्यक्ति, यहाँ तक कि देवता, असुर तथा मनुष्य उनको पाने की कामना करने लगे। वे इसीलिए आकृष्ट थे क्योंकि रमादेवी समस्त ऐश्वर्यों की उद्गम हैं।

10 स्वर्ग का राजा इन्द्र लक्ष्मीजी के बैठने के लिए उपयुक्त आसन ले आया। पवित्र जल वाली सारी नदियाँ--यथा गंगा तथा यमुना-साकार हो उठीं और सभी माता लक्ष्मीजी के लिए सुनहरे जलपात्र में शुद्ध जल ले आईं।

11 भूमि ने साकार होकर अर्चाविग्रह की स्थापना के लिए जड़ी-बूटियाँ एकत्र कीं। गायों ने पाँच प्रकार के उत्पाद दिए – दूध, दही, घी, गोमूत्र तथा गोबर और साक्षात वसन्त ऋतु ने चैत्र-वैशाख (अप्रैल तथा मई) मास में उत्पन्न होने वाली हर वस्तु को एकत्र किया।

12 ऋषियों ने प्रामाणिक शास्त्रों में निर्दिष्ट विधि से सौभाग्य की देवी (लक्ष्मी) का अभिषेक उत्सव सम्पन्न किया, गन्धर्वों ने सर्वमंगलकारी वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया, नर्तकियों ने सुन्दर नृत्य किया तथा वेदों द्वारा बताये गये प्रामाणिक गीतों को गाया।

13 साक्षात बादलों ने तरह-तरह के ढोल- यथा मृदंग, पणव, मुरज तथा आनक—बजाये। उन्होंने शंख तथा गोमुख नामक तुरहियाँ भी बजाईं और बाँसुरी तथा वीणा का वादन किया। इन सब वाद्ययंत्रों की सम्मिलित ध्वनि अत्यन्त तुमुलपूर्ण थी।

14 तत्पश्चात सभी दिशाओं के दिग्गज गंगाजल से भरे कलश ले आये और भाग्य की देवी को विद्वान ब्राह्मणों द्वारा उच्चारित वैदिक मंत्रों के साथ स्नान कराया। स्नान कराये जाते समय लक्ष्मीजी अपनी मौलिक शैली को बनाए रखकर अपने हाथ में कमल धारण किये अत्यन्त सुन्दर लग रही थीं। वे परम सती साध्वी हैं क्योंकि वे भगवान के अतिरिक्त किसी को नहीं जानती।

15 समस्त बहुमूल्य रत्नों के स्रोत समुद्र ने उन्हें पीले रेशमी वस्त्र प्रदान किये। जल के प्रधान देवता वरुण ने फूलों की मालाएँ प्रदान कीं जिनके चारों ओर मधु पिये हुए मस्त हुए भौंरे मँडरा रहे थे।

16 प्रजापति विश्वकर्मा ने तरह-तरह के अलंकृत आभूषण दिये। विद्या की देवी सरस्वती ने गले का हार, ब्रह्माजी ने कमल का फूल तथा नागलोक के वासियों ने कान के कुण्डल प्रदान किये।

17-18 तत्पश्चात शुभ अनुष्ठान द्वारा पूजित माता लक्ष्मी कमलपुष्पों की माला हाथ में लेकर इधर-उधर विचरण करने लगीं जिनके चारों ओर भौंरे मँडरा रहे थे। जब वे इधर-उधर चलती तो उनकी पायल मन्द झनकार करती थी। लज्जा से मुस्काती हुई, कुण्डलों से गाल अलंकृत होने के कारण वे सोने की किसी लता के समान अत्यन्त सुन्दर लग रही थीं।

19-20 गन्धर्वों, यक्षों, असुरों, सिद्धों, चारणों तथा स्वर्गलोक के वासियों के बीच विचरण करती हुई भाग्य की देवी लक्ष्मीदेवी उन सबका निरीक्षण कर रही थीं, किन्तु उनमें से कोई भी उन्हें समस्त स्वाभाविक उत्तम गुणों से युक्त नहीं मिला। उनमें से कोई भी दोषों से रहित न था अतएव वे किसी की भी शरण ग्रहण नहीं कर सकीं। सभा का निरीक्षण करते हुए लक्ष्मीजी ने इस प्रकार सोचा, जिसने महान तपस्या की है उसने अभी तक क्रोध पर विजय नहीं पाई। किसी के पास ज्ञान है, तो वह भौतिक इच्छाएँ नहीं जीत पाया। कोई महान पुरुष है, तो उसने अपनी कामेच्छाएँ नहीं जीतीं। यहाँ तक कि महापुरुष भी किसी अन्य बात पर आश्रित रहता है। फिर वह परम नियन्ता (ईश्वर) कैसे हो सकता है?

21 भले ही किसी के पास धर्म का पूरा ज्ञान क्यों न हो फिर भी वह समस्त जीवों पर दयालु नहीं होता। किसी में, चाहे वह देवता हो या मनुष्य, त्याग हो सकता है, किन्तु वह मुक्ति का कारण नहीं होता। भले ही किसी में महान बल क्यों न हो फिर भी वह नित्य काल की शक्ति को रोकने में अक्षम रहता है। भले ही कोई भौतिक जगत की आसक्ति से विरक्त हो चुका हो फिर भी वह भगवान की बराबरी नहीं कर सकता। अतएव कोई भी व्यक्ति प्रकृति के भौतिक गुणों के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त नहीं है।

22 हो सकता है कि कोई दीर्घायु हो, किन्तु वह अच्छे आचरण वाला या मंगलमय न हो। किसी में मंगलमय तथा अच्छा आचरण दोनों ही पाये जा सकते हैं, किन्तु उसकी आयु की अवधि निश्चित नहीं होती। यद्यपि शिवजी जैसे देवताओं का जीवन शाश्वत होता है, किन्तु उनकी आदतें अमंगल सूचक होती हैं – यथा श्मशान में वास। अन्य लोग सभी प्रकार से योग्य होते हुए भी भगवान के भक्त नहीं होते।

23 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस प्रकार पूरी तरह विचार-विमर्श करने के बाद भाग्य की देवी (लक्ष्मी) ने मुकुन्द को पति रूप में वरण कर लिया। यद्यपि वे स्वतंत्र हैं और उन्हें उनकी चाहत भी नहीं थी, तथापि वे समस्त दिव्य गुणों और योग शक्तियों से युक्त हैं, अतएव वे सर्वाधिक वांछनीय हैं।

24 भगवान के पास जाकर लक्ष्मीजी ने नवीन कमल पुष्पों की माला उनके गले में पहना दी जिसके चारों ओर मधु की खोज में भौंरे गुंजार कर रहे थे। तब भगवान के वक्षस्थल पर स्थान पाने की आशा से वे उनकी समीप खड़ी रहीं और उनका मुख लज्जा से मुस्करा रहा था।

25 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान तीनों लोकों के पिता हैं और उनका वक्षस्थल समस्त ऐश्वर्यों की स्वामिनी भाग्य की देवी माता लक्ष्मी का निवास है। लक्ष्मीजी अपनी कृपापूर्ण चितवन से तीनों लोकों के अधिपतियों, देवताओं, तथा उनके निवासियों के ऐश्वर्य को बढ़ा सकती हैं।

26 तब गन्धर्व तथा चारण लोकों के निवासियों ने अपने-अपने वाद्य यंत्र--यथा शंख, तुरही तथा ढोल बजाये। वे अपनी-अपनी पत्नियों के साथ नाचने गाने लगे।

27 ब्रह्माजी, शिवजी, अंगिरा मुनि तथा विश्व व्यवस्थापन के ऐसे ही निदेशकों ने फूल बरसाये और भगवान की दिव्य महिमा के सूचक मंत्रों का उच्चारण किया।

28 सभी प्रजापति उनकी प्रजा सहित तथा सारे देवता लक्ष्मीजी की चितवन से धन्य होकर तुरन्त ही अच्छे आचरण तथा दिव्य गुणों से सम्पन्न हो गये। इस तरह वे अत्यधिक संतुष्ट हो गये।

29 हे राजन! लक्ष्मी द्वारा उपेक्षित हो जाने पर असुर तथा राक्षस अत्यन्त निराश, मोहग्रस्त तथा उद्विग्न हो गये और इस तरह से वे निर्लज्ज बन गये।

30 तब कमलनयनी देवी वारुणी प्रकट हुई जो मद्यपों को वश में रखती है। भगवान कृष्ण की अनुमति से बलि महाराज इत्यादि असुरों ने उस तरुणी को अपने अधिकार में ले लिया।

31 हे राजन! तत्पश्चात जब कश्यप के पुत्र – असुर तथा देवता – दोनों ही क्षीरसागर के मन्थन में लगे हुए थे तो एक अत्यन्त अद्भुत पुरुष प्रकट हुआ।

32 उसका शरीर सुदृढ़ था, उसकी भुजाएँ लम्बी तथा बलिष्ठ थीं, उसकी शंख जैसी गर्दन में तीन रेखाएँ थीं, उसकी आँखें लाल-लाल थीं और उसका रंग साँवला था। वह अत्यन्त तरुण था, उसके गले में फूलों की माला थी तथा उसका सारा शरीर नाना प्रकार के आभूषणों से सुसज्जित था।

33 वह पीले वस्त्र पहने था और उसके कानों में मोतियों के बने तरासे हुए कुण्डल थे। उसके बालों के सिरे तेल से चुपड़े थे और उसका वक्षस्थल अत्यन्त चौड़ा था। उसका शरीर अत्यन्त सुगठित तथा सिंह के समान बलवान था। उसने बाजूबन्द पहन रखे थे। उसके हाथ में अमृत से लबालब कलश था।

34 यह व्यक्ति धन्वन्तरी था, जो भगवान विष्णु के स्वांश का स्वांश था। वह औषधि विज्ञान (आयुर्वेद) में अत्यन्त पटु था और देवता के रूप में यज्ञों में भाग पाने का अधिकारी था ।

35 धन्वन्तरी को अमृत पात्र लिए हुए देखकर असुरों ने पात्र तथा उसके भीतर जो कुछ था उसकी चाहत के कारण तुरन्त ही उसे बलपूर्वक छीन लिया।

36 जब अमृत का पात्र असुरों द्वारा छीन लिया गया तो देवतागण अत्यन्त हताश हो गए। उन्होंने जाकर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हरि के चरणकमलों की शरण ली।

37 अपने भक्तों की मनोकामनाओं को सदा पूरा करने की इच्छा रखने वाले भगवान ने जब यह देखा कि देवतागण हताश हैं, तो उन्होंने उनसे कहा "दुःखी मत होओ। मैं अपनी शक्ति से असुरों में झगड़ा करा कर उन्हें मोहग्रस्त कर लूँगा। इस प्रकार तुम लोगों की अमृत प्राप्त करने की इच्छा मैं पूरी कर दूँगा।

38 हे राजन! तब असुरों के बीच झगड़ा उठ खड़ा हो गया कि सबसे पहले कौन अमृत ले। उनमें से हर एक यही कहने लगा "तुम पहले नहीं पी सकते। मुझे सबसे पहले पीना चाहिए। तुम नहीं, पहले मैं।"

39-40 कुछ असुरों ने कहा "सभी देवताओं ने क्षीरसागर के मन्थन में हाथ बँटाया है। चूँकि हर एक को समान अधिकार है कि वह किसी भी सार्वजनिक यज्ञ में भाग लें अतः सनातन धर्म के नियमों के अनुसार यह उचित होगा कि अमृत में देवताओं को भी भाग मिले।" हे राजन, इस प्रकार निर्बल असुरों ने प्रबल असुरों को अमृत लेने से मना किया।

41-46 तब किसी भी प्रतिकूल परिस्थिति का सामना करने में दक्ष भगवान विष्णु ने एक अत्यन्त सुन्दर स्त्री का रूप धारण कर लिया। स्त्री के रूप में यह अवतार–मोहिनी मूर्ति–अत्यन्त मनभावन था। उसका रंग नवविकसित श्यामल कमल के रंग का था और उसके शरीर का हर अंग सुन्दर ढंग से सुसज्जित था। उसके कानों में कुण्डल सजे थे, गाल अतीव सुन्दर थे, नाक उठी हुई, कमर अत्यन्त पतली थी और मुखमण्डल तरुणावस्था की कान्ति से युक्त था। उसके मुख तथा शरीर की सुगन्धी से आकर्षित भौरें उसके चारों ओर गुनगुना रहे थे और उसकी आँखें चंचल थीं। उसके बाल अत्यन्त सुन्दर थे और उन पर मल्लिका के फूलों की माला पड़ी थी। उसकी आकर्षक गर्दन हार तथा अन्य आभूषणों से सुशोभित थी, बाँहों में बाजूबन्द शोभित हो रहे थे और शरीर स्वच्छ साड़ी से ढका था। उसके पाँवों में पायल शोभा दे रहे थे। जब वह लज्जा से हँसती और असुरों पर बाँकी चितवन फेरती तो उसकी भौहों के हिलने से सारे असुर कामेच्छा से पूरित हो उठते और उनमें से हरेक उसे अपना बनाने की इच्छा करने लगा।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय सात – शिवजी द्वारा विषपान से ब्रह्माण्ड की रक्षा (8.7)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे कुरुश्रेष्ठ महाराज परीक्षित! देवों तथा असुरों ने सर्पराज वासुकि को बुलवाया और उसे वचन दिया कि वे उसे अमृत में हिस्सा देंगे। उन्होंने वासुकि को मन्दर पर्वत के चारों ओर मथने की रस्सी की भाँति लपेट दिया और क्षीरसागर के मन्थन द्वारा अमृत उत्पन्न करने का बड़ी प्रसन्नतापूर्वक प्रयत्न किया।

2 भगवान अजित ने सर्प के अगले हिस्से को पकड़ लिया और तब सारे देवताओं ने उनके पीछे होकर उसे पकड़ लिया।

3 दैत्यों के नेताओं ने पूँछ पकड़ना मूर्खतापूर्ण समझा क्योंकि यह सर्प का अशुभ अंग है। इसके स्थान पर वे अगला हिस्सा पकड़ना चाहते थे जिसे भगवान तथा देवताओं ने पकड़ रखा था क्योंकि वह भाग शुभ था। इस प्रकार असुरों ने इस दलील के साथ कि वे सभी वैदिक ज्ञान में अत्यधिक बढ़े-चढ़े हैं और अपने जन्म तथा कार्यकलापों के लिए विख्यात हैं, आपत्ति उठाई कि वे सर्प के अगले हिस्से को पकड़ना चाहते हैं।

4 इस प्रकार असुरगण देवताओं की इच्छा का विरोध करते हुए मौन रहे। भगवान असुरों के मनोभावों को ताड़ गए अतएव वे मुस्काने लगे। उन्होंने विचार-विमर्श किये बिना तुरन्त ही साँप की पूँछ पकड़ कर उनका प्रस्ताव मान लिया और सारे देवता उनके साथ हो लिये।

5 साँप को किस स्थान पर पकड़ना है, यह तय करने के पश्चात कश्यप के पुत्र देवता तथा असुर दोनों ने क्षीरसागर के मन्थन से अमृत पाने की लालसा से अपना-अपना कार्य प्रारम्भ कर दिया।

6 हे पाण्डुवंशी, जब क्षीरसागर में मन्दर पर्वत को इस तरह मथानी के रूप में प्रयुक्त किया जा रहा था, तो उसका कोई आधार न था अतएव असुरों तथा देवताओं के बलिष्ठ हाथों द्वारा पकड़ा रहने पर भी वह जल में डूब गया।

7 चूँकि पर्वत देवी शक्ति से डूबा था अतएव देवता तथा असुरगण निराश थे और उनके चेहरे कुम्हलाये से प्रतीत होते थे।

8 भगवदिच्छा से जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी उसे देखकर असीम शक्तिशाली एवं अच्युत संकल्प वाले भगवान ने कछुए का अद्भुत रूप धारण किया और जल में प्रविष्ट होकर विशाल मन्दर पर्वत को उठा लिया।

9 जब देवताओं तथा असुरों ने देखा कि मन्दर पर्वत जो एक विशाल द्वीप की भाँति आठ लाख मील तक फैला हुआ था उठाया गया है, तो वे प्रफुल्लित हो गए और पुनः मन्थन करने के लिए प्रोत्साहित हुए। यह पर्वत कछुवे की पीठ पर टिका था।

10 हे राजन! जब देवताओं तथा असुरों ने अपने बाहुबल से अद्भुत कछुवे की पीठ पर स्थित मन्दर पर्वत को घूमा-घूमा दिया तो कछुवे ने पर्वत के इस घूमने को अपना शरीर खुजलाने का साधन मान लिया। इससे उसे अत्यन्त सुखद अनुभूति हुई।

11 तत्पश्चात भगवान विष्णु, उन सबको प्रोत्साहित करने एवं विभिन्न प्रकार से शक्ति देने के लिए, असुरों में रजोगुण के रूप में, देवताओं में सतोगुण के रूप में तथा वासुकि में तमोगुण के रूप में प्रविष्ट हो गये।

12 मन्दर पर्वत की चोटी पर भगवान ने स्वयं को हजारों भुजाओं सहित प्रकट किया और एक हाथ से मन्दर पर्वत को पकड़े रखा। वे अन्य विशाल पर्वत की भाँति लग रहे थे। ब्रह्मा, शिव, इन्द्र तथा अन्य देवताओं ने उच्च लोकों में भगवान की स्तुति की और उन पर फूल बरसाये।

13 भगवान – देवताओं, असुरों, वासुकि, पर्वत के ऊपर, नीचे, तथा पर्वत में भी प्रविष्ट हो गए थे। इस प्रकार भगवान द्वारा प्रोत्साहित किये जाने पर देवता तथा असुर अमृत के लिए मानो मतवाले होकर कार्य कर रहे थे। देवताओं तथा असुरों के बल से, क्षीरसागर इतनी शक्ति के साथ विलोड़ित हो रहा था कि जल के सारे मगरमच्छ अत्यधिक विचलित हो उठे, तो भी समुद्र का मन्थन चलता रहा।

14 वासुकि के हजारों नेत्र तथा मुख थे। उसके मुख से धुँआ तथा अग्नि की लपटें निकल रही थीं जिससे पौलोम, कालेय, बलि, इल्वल आदि असुरगण पीड़ित हो रहे थे। इस तरह सारे असुर जो जंगल की आग से जले हुए सरल वृक्ष की भाँति प्रतीत हो रहे थे धीरे-धीरे शक्तिहीन होते गए।

15 चूँकि वासुकि की दहकती साँस से देवता भी प्रभावित हुए थे अतएव उनकी शारीरिक कान्ति घट गई और उनके वस्त्र, मालाएँ, आयुध तथा मुखमण्डल धुएँ से काले पड़ गये। किन्तु भगवतकृपा से समुद्र के ऊपर बादल प्रकट होकर मूसलाधार वर्षा करने लगे। समुद्री लहरों से जल के कण लेकर मन्द समीर बहने लगे जिससे देवताओं को राहत मिल सकी।

16 जब श्रेष्ठतम देवताओं तथा असुरों के द्वारा इतना उद्यम करने पर भी क्षीरसागर से अमृत नहीं निकला तो स्वयं भगवान अजित ने समुद्र को मथना प्रारम्भ किया।

17 भगवान श्याम बादलों की भाँति दिख रहे थे। वे पीले वस्त्र पहने थे, उनके कान के कुण्डल बिजली की तरह चमक रहे थे और उनके बाल कंधों पर बिखरे हुए थे। वे फूलों की माला पहने थे और उनकी आँखें गुलाबी थीं। विश्वभर में अभय देनेवाली अपनी बलिष्ठ यशस्वी भुजाओं से उन्होंने वासुकि को पकड़ लिया और मन्दर पर्वत को मथानी बनाकर समुद्र का मन्थन करने लगे। जब वे इस प्रकार व्यस्त थे तो वे इन्द्रनील नामक सुन्दर पर्वत की भाँति प्रतीत हो रहे थे।

18 मछलियाँ, हांगर, कछुवे तथा सर्प अत्यन्त विचलित एवं क्षुब्ध थे। सारा समुद्र उत्तेजित हो उठा और व्हेल, समुद्री हाथी, घड़ियाल तथा तिमिंग्डिल मछ्ली जैसे बड़े-बड़े जलचर सतह पर आ गये। जब इस प्रकार से समुद्र-मन्थन हो रहा था, तो इससे सर्वप्रथम हालहल नाम घातक विष उत्पन्न हुआ।

19 हे राजन, जब उग्र विष ऊपर-नीचे तथा सभी दिशाओं में वेग के साथ फैलने लगा तो सारे देवता भगवान समेत – शिवजी के पास गये। अपने को असुरक्षित तथा अत्यन्त भयभीत पाकर वे सब उनकी शरण माँगने लगे।

20 देवताओं ने शिवजी को तीनों लोको के मंगलमय अभ्युदय हेतु तपस्या करते हुए अपनी पत्नी भवानी सहित कैलाश पर्वत की चोटी पर देखा। मुक्ति की कामना करने वाले मुनिगण उनकी पूजा कर रहे थे। देवताओं ने उन्हें प्रणाम किया और आदरपूर्वक प्रार्थना की।

21 प्रजापतियों ने कहा: हे देवश्रेष्ठ महादेव, हे समस्त जीवों के परमात्मा तथा उनकी सुख-समृद्धि के कारण! हम आपके चरणकमलों की शरण में आये हैं। अब आप तीनों लोकों में फैलने वाले इस उग्र विष से हमारी रक्षा करें।

22 हे प्रभु! आप सारे विश्व के बन्धन तथा मोक्ष के कारण हैं, क्योंकि आप इसके शासक हैं। जो लोग आध्यात्मिक चेतना में बढ़े-चढ़े हैं, वे आपकी शरण में जाते हैं। आप ही उनके कष्टों को दूर करनेवाले और उनकी मुक्ति के कारण हैं। अतएव हम आपकी पूजा करते हैं।

23 हे प्रभु! आप स्वयं-प्रकाशित तथा सर्वश्रेष्ठ हैं। आप अपनी निजी शक्ति से इस भौतिक जगत का सृजन करते हैं और जब आप सृष्टि, पालन तथा संहार का कार्य करते हैं, तो ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर के नाम अपना लेते हैं।

24 आप समस्त कारणों के कारण, आत्म-प्रकाशित, अचिन्त्य, निराकार ब्रह्म हैं, जो मूलतः परब्रह्म हैं। आप इस दृश्य जगत में विविध शक्तियों को प्रकट करते हैं।

25 हे स्वामी! आप वैदिक ज्ञान के मूल स्रोत हैं। आप भौतिक सृष्टि, प्राण, इन्द्रियों, पाँच तत्त्वों, तीन गुणों तथा महत तत्त्व के मूल कारण हैं। आप नित्य काल, संकल्प तथा सत्य और ऋत कही जानेवाली दो धार्मिक प्रणालियाँ हैं। आप तीन अक्षरों – अ, उ तथा म् वाले ॐ शब्द के आश्रय हैं।

26 हे समस्त लोकों के पिता! विद्वान लोग जानते हैं कि अग्नि आपका मुख है, पृथ्वी आपके चरणकमल हैं, आप निखिल देवरूप हैं, नित्य काल आपकी गति है, सारी दिशाएँ आपके कान हैं और जल का स्वामी वरुण आपकी जीभ है।

27 हे प्रभु! आकाश आपकी नाभि है, वायु आपकी श्वसन क्रिया है, सूर्य आपकी आँखें हैं तथा जल आपका वीर्य है। आप समस्त प्रकार के उच्च तथा निम्न जीवों के आश्रय हैं। चन्द्रदेव आपका मन है। उच्चतर लोकमण्डल आपका सिर है।

28 हे प्रभु! आप साक्षात तीनों वेद हैं। सातों समुद्र आपके उदर हैं और पर्वत आपकी हड्डियाँ हैं। सारी औषधियाँ, लताएँ तथा वनस्पतियाँ आपके शरीर के रोएँ हैं। गायत्री जैसे वैदिक मंत्र आपके शरीर के सात कोश हैं और वैदिक धर्म पद्धति आपका हृदय है।

29 हे प्रभो! पाँच महत्वपूर्ण वैदिक मंत्र आपके पाँच मुखों के द्योतक है जिनसे अड़तीस महत्वपूर्ण वैदिक मंत्र उत्पन्न हुए हैं। आप शिव नाम से विख्यात स्वयं प्रकाशित हैं। आप परमात्मा नाम से प्रत्यक्ष परम सत्य के रूप में स्थित हैं।

30 हे भगवन! आपकी छाया अधर्म में दिखती है, जिससे नाना प्रकार की अधार्मिक सृष्टियाँ उत्पन्न होती हैं। प्रकृति के तीनों गुण—सत्त्व, रज तथा तमो–आपके तीन नेत्र हैं। छन्दों से युक्त सारे वैदिक ग्रंथ आपसे उद्भूत हैं क्योंकि उनके संग्रहकर्ताओं ने आपकी कृपादृष्टि प्राप्त करके ही उन शास्त्रों को लिखा।

31 हे गिरीश! चूँकि निराकार ब्रह्म-तेज सतो, रजो तथा तमो गुणों से परे है अतएव इस भौतिक जगत के विभिन्न निदेशक (लोकपाल) न तो इसकी प्रशंसा कर सकते हैं न ही यह जान सकते हैं कि वह कहाँ है। वह ब्रह्मा, विष्णु या स्वर्ग के राजा महेन्द्र द्वारा भी ज्ञेय नहीं है।

32 जब आपकी आँखों से उद्भूत लपटों तथा चिनगारियों से प्रलय होता है, तो सारी सृष्टि जलकर राख हो जाती है। तो भी आपको पता नहीं चलता कि यह कैसे होता है। अतएव आपके द्वारा दक्ष-यज्ञ, त्रिपुरासुर तथा कालकूट विष विनष्ट किये जाने के विषय में क्या कहा जा सकता है? ऐसे कार्यकलाप आपको अर्पित की जानेवाली स्तुतियों के विषय नहीं बन सकते।

33 सारे विश्व को उपदेश देनेवाले महान आत्मतुष्ट व्यक्ति अपने हृदयों में आपके चरणकमलों का निरन्तर चिन्तन करते हैं, किन्तु जब आपकी तपस्या को न जानने वाले व्यक्ति आपको उमा के साथ विचरते देखते हैं, तो वे आपको भ्रमवश काफी कामी समझते हैं अथवा जब वे आपको श्मशान में घूमते हुए देखते हैं, तो भ्रमवश वे आपको अत्यन्त नृशंस तथा ईर्ष्यालु समझते हैं। निस्सन्देह, वे निर्लज्ज हैं। वे आपके कार्यकलापों को कभी नहीं समझ सकते।

34 ब्रह्माजी तथा अन्य देवतागण जैसे व्यक्ति तक आपकी स्थिति नहीं समझ सकते क्योंकि आप चर तथा अचर सृष्टि से भी परे हैं। चूँकि आपको सही रूप में कोई नहीं समझ सकता तो फिर भला कोई किस तरह आपकी स्तुति कर सकता है? यह असम्भव है। जहाँ तक हमारा सम्बन्ध है, हम ब्रह्माजी की सृष्टि के प्राणी हैं। अतएव ऐसी परिस्थितियों में हम आपकी ठीक से स्तुति नहीं कर सकते, किन्तु हमने अपनी बुद्धि के अनुसार अपनी भावनाएँ व्यक्त की हैं।

35 हे महान शासक! हमारे लिए आपके असली स्वरूप को समझ पाना असम्भव है। जहाँ तक हम देख पाते हैं, आपकी उपस्थिति हर एक के लिए सुख-समृद्धि लाती है। इसके परे, कोई भी आपके कार्यकलापों को नहीं समझ सकता। हम इतना ही देख सकते हैं, इससे अधिक कुछ भी नहीं।

36 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: शिवजी सारे जीवों के प्रति सदैव कल्याणकारी हैं। जब उन्होंने देखा कि सारे जीव विष के सर्वत्र फैलने के कारण अत्यधिक उद्विग्न हैं, तो वे अत्यन्त दयाद्र हो उठे। अतः उन्होंने अपनी नित्य संगिनी सती से इस प्रकार कहा।

37 शिवजी ने कहा: हे प्रिय भवानी! जरा देखो तो किस तरह ये सारे जीव क्षीरसागर के मन्थन से उत्पन्न विष के कारण संकट में पड़ गये हैं।

38 जीवन संघर्ष में लगे समस्त जीवों को सुरक्षा प्रदान करना मेरा कर्तव्य है। निश्चय ही स्वामी का कर्तव्य है कि वह पीड़ित आश्रितों की रक्षा करे।

39 भगवान की माया से मोहग्रस्त सामान्य लोग सदैव एक दूसरे के प्रति शत्रुता में लगे रहते हैं। किन्तु भक्तगण अपने नश्वर शरीरों को भी संकट में डालकर उनकी रक्षा करने का प्रयास करते हैं।

40 हे मेरी भद्र पत्नी भवानी! जब कोई दूसरों के लिए उपकार के कार्य करता है, तो भगवान हरि अत्यधिक प्रसन्न होते हैं और जब भगवान प्रसन्न होते हैं, तो मैं भी अन्य सारे प्राणियों के साथ अत्यधिक प्रसन्न होता हूँ। अतएव मुझे यह विष पीने दो जिससे सारे जीवों का कल्याण हो सके।

41 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस प्रकार भवानी को सूचित करके शिवजी यह विष पीने लगे और भवानी ने उन्हें ऐसा करने की अनुमति दे दी क्योंकि वे शिवजी की क्षमताओं को भलीभाँति जानती थीं।

42 तत्पश्चात मानवता के लिए शुभ तथा उपकारी कार्य में समर्पित शिवजी ने कृपा करके सारा विष अपनी हथेली में रखा और वे उसे पी गये।

43 अपयश के कारण क्षीरसागर से उत्पन्न विष ने मानो अपनी शक्ति का परिचय शिवजी के गले में नीली रेखा बनाकर दिया हो, किन्तु अब वही रेखा शिवजी का आभूषण मानी जाती है।

44 कहा जाता है कि सामान्य लोगों के कष्टों के कारण महापुरुष सदैव स्वेच्छा से कष्ट भोगना स्वीकार करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में स्थित भगवान को पूजने की यह सर्वोच्च विधि मानी जाती है।

45 भवानी (दक्षकन्या), ब्रह्मा, विष्णु समेत देवताओं और सामान्य लोगों ने – शरणागतों को वरदान देने वाले शिवजी के इस कार्य की भूरी-भूरी प्रशंसा की।

46 जब शिवजी विषपान कर रहे थे उस समय उनके हाथ से जो थोड़ा सा विष इधर-उधर गिर गया उसे बिच्छू, सर्प, विषैली औषधियाँ तथा अन्य पशु जिनका दंश विषैला होता है पी गए।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय छह – देवताओं तथा असुरों द्वारा सन्धि की घोषणा (8.6)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा परीक्षित! देवताओं तथा ब्रह्माजी द्वारा इस प्रकार स्तुतियों से पूजित भगवान हरि उन सबके समक्ष प्रकट हो गये। उनका शारीरिक तेज एकसाथ हजारों सूर्य के उदय होने के समान था।

2 भगवान के तेज से सारे देवताओं की दृष्टि चौंधिया गई। वे न तो आकाश, दिशाएँ, पृथ्वी को देख सके, न ही अपने आपको देख सके। अपने समक्ष उपस्थित भगवान को देखना तो दूर रहा।

3-7 शिवजी सहित ब्रह्माजी ने भगवान के निर्मल शारीरिक सौन्दर्य को देखा जिनका श्यामल शरीर मरकत मणि के समान है, जिनकी आँखें कमल के फूल के भीतरी भाग जैसी लाल-लाल हैं, जो पिघले सोने जैसे पीले वस्त्र धारण किये हैं और जिनका समूचा शरीर आकर्षक ढंग से सज्जित है। उन्होंने उनके सुन्दर मुस्काते कमल जैसे मुखमण्डल को देखा जिसके ऊपर बहुमूल्य रत्नों से जड़ित मुकुट था। भगवान की भौंहें आकर्षक हैं और उनकी गालों पर कान के कुण्डल शोभित रहते हैं। ब्रह्माजी तथा शिवजी ने भगवान की कमर में पेटी, उनकी बाहों में बाजूबन्द, वक्षस्थल पर हार और पाँवों में पायल देखे। भगवान फूल की मालाओं से अलंकृत थे, उनकी गर्दन में कौस्तुभ मणि अलंकृत थी, उनके साथ लक्ष्मीजी थीं तथा वे चक्र, गदा इत्यादि निजी आयुध लिए हुए थे। जब ब्रह्माजी ने शिवजी तथा अन्य देवताओं के साथ भगवान के स्वरूप को इस तरह देखा तो सबने भूमि पर गिरकर उन्हें प्रणाम किया।

8 ब्रह्माजी ने कहा: यद्यपि आप अजन्मा हैं, किन्तु अवतार के रूप में आपका प्राकट्य तथा अन्तर्धान होना सदैव चलता रहता है। आप सदैव भौतिक गुणों से मुक्त रहते हैं और सागर के समान दिव्य आनन्द के आश्रय हैं। अपने दिव्य स्वरूप में नित्य रहते हुए आप अत्यन्त सूक्ष्म से भी सूक्ष्म हैं। अतएव हम आपको जिनका अस्तित्व अचिन्त्य है, सादर नमस्कार करते हैं ।

9 हे पुरुषश्रेष्ठ, हे परम नियन्ता ! जो लोग सचमुच परम सौभाग्य की कामना करते हैं, वे वैदिक तंत्रों के अनुसार आपके इसी रूप की पूजा करते हैं। हे प्रभु! हम आपमें तीनों लोकों को देख सकते हैं।

10 सदैव पूर्ण स्वतंत्र रहने वाले मेरे प्रभु! यह सारा दृश्य जगत आपसे उत्पन्न होता है, आप पर टिका रहता है और आपमें लीन हो जाता है। आप ही प्रत्येक वस्तु के आदि, मध्य तथा अन्त हैं जिस तरह पृथ्वी मिट्टी के पात्र का कारण है, वह उस पात्र को आधार प्रदान करती है और जब पात्र टूट जाता है, तो अन्ततः उसे अपने में मिला लेती है।

11 हे परम पुरुष! आप अपने में स्वतंत्र हैं और दूसरों से सहायता नहीं लेते। आप अपनी शक्ति से इस दृश्य जगत का सृजन करके इसमें प्रवेश कर जाते हैं। जो लोग कृष्णभावनामृत में बढ़े-चढ़े हैं, जो प्रामाणिक शास्त्रों से भलीभाँति परिचित हैं और जो भक्तियोग के अभ्यास से सारे भौतिक कल्मष से शुद्ध हो जाते हैं, वे शुद्ध मन से यह देख सकते हैं कि आप भौतिक गुणों के रूपान्तरों के भीतर रहते हुए भी इन गुणों से अछूते रहते हैं।

12 जिस प्रकार काठ से अग्नि, गाय के थन से दूध, भूमि से अन्न तथा जल और औद्योगिक उद्यम से जीविका के लिए समृद्धि प्राप्त की जा सकती है उसी तरह इस भौतिक जगत में मनुष्य भक्तियोग के अभ्यास द्वारा आपकी कृपा प्राप्त कर सकता है या बुद्धि से आपके पास पहुँच सकता है। जो पुण्यात्मा हैं, वे इसकी पुष्टि करते हैं।

13 जंगल की अग्नि से पीड़ित हाथी गंगाजल प्राप्त होने पर अत्यन्त प्रसन्न होते हैं। इसी प्रकार, हे कमलनाभ प्रभु! चूँकि आप हमारे समक्ष अब प्रकट हुए हैं अतएव हम दिव्य सुख का अनुभव कर रहे हैं। हमें आपके दर्शन की दीर्घकाल से आकांक्षा थी अतएव आपका दर्शन पाकर हमने अपने जीवन के चरम लक्ष्य को पा लिया है।

14 हे भगवन! हम विभिन्न देवता, इस ब्रह्माण्ड के निदेशक आपके चरणकमलों के निकट आये हैं। जिस प्रयोजन से हम आये हैं कृपया उसे पूरा करें। आप भीतर तथा बाहर से हर वस्तु के साक्षी हैं। आपसे कुछ भी अज्ञात नहीं है, अतएव आपको किसी बात के लिए पुनः सूचित करना व्यर्थ है।

15 मैं (ब्रह्मा), शिवजी तथा सारे देवताओं के साथ-साथ, दक्ष जैसे प्रजापति भी चिनगारियाँ मात्र हैं, जो मूल अग्नि स्वरूप आपके द्वारा प्रकाशित हैं। चूँकि हम आपके कण हैं अतएव हम अपनी कुशलता के विषय में समझ ही क्या सकते हैं? हे परमेश्वर! हमें मोक्ष का वह साधन प्रदान करें जो ब्राह्मणों तथा देवताओं के लिए उपयुक्त हों।

16 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: ब्रह्मा समेत सारे देवताओं द्वारा की गई स्तुति और उनके हृदय की बात जानकर, भगवान ने बादल की गर्जना के समान गम्भीर वाणी में, हाथ जोड़कर खड़े हुए देवताओं को उत्तर दिया।

17 यद्यपि भगवान, देवताओं के कार्यकलापों को स्वयं सम्पन्न करने में समर्थ थे फिर भी उन्होंने समुद्र-मन्थन की लीला का आनन्द उठाना चाहा। अतएव वे इस प्रकार बोले।

18 भगवान ने कहा: हे ब्रह्मा, शिव तथा अन्य देवताओं! तुम सभी ध्यानपूर्वक मेरी बात सुनो क्योंकि मैं जो कुछ कहूँगा उससे तुम सबका कल्याण होगा।

19 जब तक तुम उन्नत नहीं हो पा रहे हो, तुम सबको दानवों तथा असुरों के साथ सन्धि कर लेनी चाहिए क्योंकि सम्प्रति समय उनके अनुकूल चल रहा है।

20 हे देवताओं! अपना हित इतना महत्वपूर्ण होता है कि मनुष्य को अपने शत्रुओं से सन्धि भी करनी पड़ सकती है। अपने हित (लाभ) के लिए मनुष्य को सर्प तथा चूहे के तर्क के अनुसार कार्य करना चाहिए।

21 तुरन्त ही अमृत उत्पन्न करने का प्रयत्न करो जिसे पीकर मरणासन्न व्यक्ति भी अमर हो जाये।

22-23 हे देवताओं! क्षीरसागर में सभी प्रकार की वनस्पतियाँ, तृण, लताएँ तथा औषधियाँ डाल दो। तब मेरी सहायता से मन्दर पर्वत को मथानी तथा वासुकि को मथने की रस्सी बनाकर अविचल चित्त से क्षीरसागर का मन्थन करो। इस तरह से दैत्यगण श्रम कार्य में लग जायेंगे, किन्तु तुम देवताओं को वास्तविक फल--समुद्र से उत्पन्न अमृत--प्राप्त होगा।

24 हे देवताओं! धैर्य तथा शान्ति से हर कार्य सम्पन्न किया जा सकता है, किन्तु यदि कोई क्रोध से विक्षुब्ध रहे तो लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो पाती। अतएव असुरगण जो भी माँगे उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लो।

25 क्षीरसागर से कालकूट नामक विष उत्पन्न होगा, किन्तु तुम्हें उससे डरना नहीं है और जब समुद्र के मन्थन से विविध उत्पाद प्राप्त हों तो तुम्हें उनको प्राप्त करने के लिए न तो लालच करना होगा, न ही उत्सुक होना होगा, और न ही क्रुद्ध होना होगा।

26 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजा परीक्षित! देवताओं को इस प्रकार से सलाह देकर समस्त जीवों में श्रेष्ठ, स्वच्छन्द रहनेवाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान उनके समक्ष से अन्तर्धान हो गये।

27 तब भगवान को सादर नमस्कार करने के बाद ब्रहमाजी तथा शिवजी अपने-अपने धामों को लौट गये। फिर सारे देवता महाराज बलि के पास गये।

28 दैत्यों में सर्वाधिक विख्यात महाराज बलि भलीभाँति जानते थे कि कब सन्धि करनी चाहिए और कब युद्ध करना चाहिए। इस तरह से यद्यपि उनके सेनानायक विक्षुब्ध थे और देवताओं का वध कर देना चाहते थे, किन्तु जब महाराज बलि ने देखा कि सारे देवता उनके पास आक्रामक प्रवृत्ति त्याग कर आ रहे हैं, तो उन्होंने अपने सेनानायकों को मना कर दिया कि वे देवताओं को मारें नहीं।

29 देवगण विरोचन के पुत्र बलि महाराज के पास गये और उनके निकट बैठ गये। उस समय बलि महाराज की रक्षा असुरों के सेनानायकों द्वारा की जा रही थी और वे अत्यन्त ऐश्वर्यशाली थे। उन्होंने सारे ब्रह्माण्डों को जीत लिया था।

30 अत्यन्त बुद्धिमान एवं देवताओं के राजा इन्द्र ने बलि महाराज को विनीत शब्दों से प्रसन्न कर लेने के बाद उन सारे प्रस्तावों को अत्यन्त विनयपूर्वक प्रस्तुत किया जिन्हें भगवान विष्णु ने उन्हें सिखलाया था।

31 राजा इन्द्र द्वारा रखे गये प्रस्तावों को बलि महाराज ने, उनके सहायकों ने, जिनमें शम्बर तथा अरिष्टनेमि प्रमुख थे एवं त्रिपुर के अन्य सारे निवासियों ने तुरन्त ही मान लिया।

32 हे शत्रुओं को दण्ड देने वाले महाराज परीक्षित! तब देवताओं तथा असुरों ने परस्पर सन्धि कर ली और उन्होंने इन्द्र द्वारा प्रस्तावित अमृत उत्पन्न करने की योजना को बड़े ही उद्यमपूर्वक कार्यान्वित करने की व्यवस्था की।

33 तत्पश्चात देवताओं तथा अत्यन्त शक्तिशाली एवं लम्बी-लम्बी बलशाली भुजाओं वाले असुरों ने अत्यन्त बलपूर्वक मन्दर पर्वत को उखाड़ा और जोरों से निनाद करते हुए वे उसे क्षीरसागर की ओर ले चले ।

34 विशाल पर्वत को दूर तक उठाकर ले जाने के कारण राजा इन्द्र, महाराज बलि तथा अन्य सारे देवता एवं असुर थक गये। पर्वत को ले जाने में असमर्थ होने के कारण उन्होंने उसे रास्ते में छोड़ दिया।

35 यह पर्वत जो मन्दर के नाम से विख्यात था, अत्यन्त भारी तथा सोने का बना था, वहीं गिर पड़ा और इससे अनेक देवता तथा असुर कुचले गये।

36 देवता तथा असुर हताश एवं विक्षुब्ध थे और उनकी भुजाएँ, जाँघें तथा कंधे टूट गये थे। अतएव गरुड़ की पीठ पर सवार सर्वज्ञ भगवान वहाँ पर प्रकट हुए।

37 यह देखकर कि अधिकांश दानव तथा देवता पर्वत के गिरने से कुचले गये हैं, भगवान ने उन सब पर अपनी दृष्टि दौड़ाई और उन्हें जीवित कर दिया। इस प्रकार वे शोक से रहित हो गये और उनके शरीर के घाव भी जाते रहे।

38 फिर भगवान ने पर्वत को अत्यन्त सरलतापूर्वक एक हाथ से उठाकर गरुड़ की पीठ पर रख दिया। तब स्वयं वे भी गरुड़ पर सवार हुए और देवताओं तथा असुरों से घिरे हुए क्षीरसागर चले गये।

39 तत्पश्चात पक्षीराज गरुड़ ने अपने कंधे से मन्दर पर्वत को सागर के निकट उतारा, तब भगवान द्वारा कहे जाने पर गरुड़ वहाँ से चला गया।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय पाँच -- देवताओं द्वारा सुरक्षा के लिए भगवान से याचना (8.5)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजा, मैंने तुमसे गजेन्द्रमोक्षण लीला का वर्णन किया है, जो सुनने में अत्यन्त पवित्र है। भगवान की ऐसी लीलाओं के विषय में सुनकर मनुष्य सारे पापों के फलों से छूट सकता है। अब मैं रैवत मनु का वर्णन कर रहा हूँ, कृपया उसे सुनो।

2 तामस मनु का भाई रैवत पाँचवाँ मनु था। उसके पुत्रों में अर्जुन, बलि तथा विंध्य प्रमुख थे।

3 हे राजन, रैवत मनु के युग में स्वर्ग का राजा (इन्द्र) विभु था, देवताओं में भूतरय इत्यादि थे और सप्त लोकों के अधिपति सात ब्राह्मण हिरण्यरोमा, वेदशिरा तथा ऊर्ध्वबाहु इत्यादि थे।

4 शुभ्र तथा उसकी पत्नी विकुण्ठा के संयोग से भगवान वैकुण्ठ अपने स्वांश देवताओं सहित प्रकट हुए।

5 धन की लक्ष्मी (रमा) को प्रसन्न करने के लिए भगवान वैकुण्ठ ने उनकी प्रार्थना पर एक अन्य वैकुण्ठ लोक की रचना की जो सबके द्वारा पूजा जाता है।

6 यद्यपि भगवान के विविध अवतारों के महान कार्यों तथा दिव्य गुणों का अद्भुत विधि से वर्णन किया जाता है, किन्तु कभी-कभी हम उन्हें नहीं समझ पाते। किन्तु भगवान विष्णु के लिए सब कुछ सम्भव है। यदि कोई ब्रह्माण्ड के सारे परमाणुओं को गिन सके तो वह भगवान के गुणों की गणना कर सकता है। किन्तु ऐसा कर पाना सम्भव नहीं है। अतः कोई भी भगवान के दिव्य गुणों को नहीं गिन सकता।

7 चक्षु का पुत्र चाक्षुष कहलाया जो छठा मनु था। उसके कई पुत्र थे जिनमें पुरू, पूरुष तथा सुद्युम्न प्रमुख थे।

8 चाक्षुष मनु के राज्यकाल में स्वर्ग का राजा मंत्रद्रुम के नाम से विख्यात था। देवताओं में आप्यगण तथा सप्तर्षियों में हविष्मान तथा वीरक प्रमुख थे।

9 इस छठे मन्वन्तर में ब्रह्माण्ड के स्वामी भगवान विष्णु अपने अंश रूप में प्रकट हुए। वे वैराज की पत्नी देवसम्भूति के गर्भ से उत्पन्न हुए और उनका नाम अजित था।

10 क्षीरसागर का मन्थन करके अजित ने देवताओं के लिए अमृत उत्पन्न किया। कछुवे के रूप में वे महान मन्दर पर्वत को अपनी पीठ पर धारण किये इधर-उधर हिल-डुल रहे थे।

11-12 राजा परीक्षित ने पूछा: हे महान ब्राह्मण, श्रील शुकदेव गोस्वामी! भगवान विष्णु ने क्षीरसागर का मन्थन क्यों और कैसे किया? वे कच्छप रूप में जल के भीतर किसलिए रहे और मन्दर पर्वत को क्यों धारण किये रहे? देवताओं ने किस तरह अमृत प्राप्त किया? और सागर मन्थन से अन्य कौन-कौन सी वस्तुएँ उत्पन्न हुई? कृपा करके भगवान के इन सारे अद्भुत कार्यों का वर्णन करें।

13 मेरा हृदय भौतिक जीवन के तीन तापों से विचलित है, किन्तु वह अब भी आपके द्वारा वर्णित किये जा रहे भक्तों के स्वामी भगवान के यशस्वी कार्यकलापों को सुनकर तृप्त नहीं हुआ है।

14 श्रीसूत गोस्वामी ने कहा: यहाँ नैमिषारण्य में एकत्रित हे विद्वान ब्राह्मणों! जब द्वैपायन-पुत्र श्रील शुकदेव गोस्वामी से राजा ने इस तरह से प्रश्न पूछा तो उन्होंने राजा को बधाई दी और भगवान के यश को और भी आगे वर्णन करने का प्रयास किया।

15-16 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब असुरों ने अपने-अपने सर्प-आयुधों से युद्ध में देवताओं पर घमासान आक्रमण कर दिया तो अनेक देवता धराशायी हो गये और प्राणों की बलि चढ़ गये। वे फिर से जीवित नहीं किये जा सके। हे राजन! उस समय देवताओं को दुर्वासा मुनि ने शाप दिया हुआ था, तीनों लोक दरिद्रता से प्रभावित थे, इसीलिए अनुष्ठान सम्पन्न नहीं हो पा रहे थे। इसके प्रभाव अत्यन्त गम्भीर थे।

17-18 अपने जीवन को ऐसी स्थिति में देखकर इन्द्र, वरुण तथा अन्य देवताओं ने परस्पर विचार-विमर्श किया, किन्तु उन्हें कोई समाधान न मिल सका। तब सारे देवता एकत्र हुए और वे एकसाथ सुमेरु पर्वत की चोटी पर गये। वहाँ पर ब्रह्माजी की सभा में सबने ब्रह्माजी को साष्टांग प्रणाम किया और जितनी सारी घटनाएँ घटी थी उनसे अवगत कराया।

19-20 यह देखकर कि सारे देवता प्रभावहीन तथा बलहीन हो गये हैं जिसके फलस्वरूप तीनों लोक अमंगलमय हो चुके हैं तथा यह देखकर कि देवताओं की दशा विषम हो गयी है, किन्तु असुरगण फल-फूल रहे हैं ब्रह्मा ने, जो समस्त देवताओं में सर्वोपरि हैं और सर्वाधिक शक्तिशाली हैं अपना मन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान पर एकाग्र किया। इस प्रकार प्रोत्साहित होने से उनका मुख चमक उठा और वे देवताओं से इस प्रकार बोले।

21 ब्रह्माजी ने कहा: मैं, शिवजी, तुम सारे देवता, असुर, स्वेदज प्राणी, अंडज, पृथ्वी से उत्पन्न पेड़-पौधे तथा भ्रूण से उत्पन्न सारे जीव—सभी भगवान से, उनके रजोगुण अवतार (ब्रह्मा, गुणावतार) से तथा ऋषियों से जो मेरे ही अंश हैं, हम सभी भगवान के पास चलें और उनके चरणकमलों की शरण ग्रहण करें।

22 भगवान के लिए न तो कोई वध्य है, न रक्षणीय, न उपेक्षणीय और न पूजनीय । फिर भी समयानुसार सृष्टि, पालन तथा संहार के लिए वे सतो, रजो या तमोगुण में विभिन्न रूपों में अवतार लेना स्वीकार करते हैं।

23 देहधारी जीवों के सतोगुण का आह्वान करने का यही अवसर है। सतोगुण भगवान के शासन की स्थापना करने के निमित्त होता है, जो सृष्टि के अस्तित्व का पालन करेगा। अतएव भगवान की शरण ग्रहण करने के लिए यह उपयुक्त समय है। चूँकि वे देवताओं पर स्वभावतः अत्यन्त दयालु हैं और उन्हें प्रिय हैं अतएव वे हमें निश्चय ही सौभाग्य प्रदान करेंगे।

24 हे समस्त शत्रुओं का दमन करने वाले महाराज परीक्षित! देवताओं से बातें करने के बाद ब्रह्माजी उन्हें भगवान के धाम ले गये जो इस भौतिक जगत से परे है। भगवान का धाम श्वेतद्वीप नामक टापू में है, जो क्षीरसागर में स्थित है।

25 वहाँ (श्वेतद्वीप में) ब्रह्माजी ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की स्तुति की, यद्यपि उन्होंने परमेश्वर को इसके पूर्व कभी नहीं देखा था चूँकि उन्होंने वैदिक वाड्मय से भगवान के विषय में सुना हुआ था अतएव उन्होंने स्थिरचित्त होकर भगवान की उसी प्रकार स्तुति की जिस प्रकार वैदिक साहित्य में लिखी हुई या मान्य है।

26 ब्रह्माजी ने कहा: हे परमेश्वर, हे अविकारी, हे असीम परम सत्य! आप हर वस्तु के उद्गम हैं। सर्वव्यापी होने के कारण आप प्रत्येक के हृदय में और परमाणु में भी रहते हैं। आपमें कोई भौतिक गुण नहीं पाये जाते। निस्सन्देह, आप अचिन्त्य हैं। मन आपको कल्पना से नहीं ग्रहण कर सकता और शब्द आपका वर्णन करने में असमर्थ हैं। आप सबके परम स्वामी हैं, अतएव आप हर एक के आराध्य हैं। हम आपको नमस्कार करते हैं।

27 भगवान प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से जानते रहते हैं कि किस प्रकार प्राण, मन तथा बुद्धि समेत प्रत्येक वस्तु उनके नियंत्रण में कार्य करती है। वे हर वस्तु के प्रकाशक हैं और अज्ञान उन्हें छु तक नहीं गया है। उनका भौतिक शरीर नहीं होता जो पूर्वकर्मों के फलों से प्रभावित हो। वे पक्षपात तथा भौतिकतावादी विद्या के अज्ञान से मुक्त हैं। अतएव मैं उन भगवान के चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ जो नित्य, सर्वव्यापक तथा आकाश के समान विशाल हैं और तीनों युगों (सत्य, त्रेता तथा द्वापर) में अपने षडऐश्वर्यों समेत प्रकट होते हैं।

28 भौतिक कार्यों के चक्र में, भौतिक शरीर मानसिक रथ के पहिये जैसा होता है। दस इन्द्रियाँ (पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ) तथा शरीर के भीतर के पाँच प्राण मिलकर रथ के पहिये पन्द्रह अरे (तीलियाँ) बनाते हैं। प्रकृति के तीन गुण (सत्त्व, रजस तथा तमस) कार्यकलापों के केन्द्र बिन्दु हैं और प्रकृति के आठ अवयव (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा मिथ्या अहंकार) इस पहिये की बाहरी परिधि बनाते हैं। बहिरंगा भौतिक शक्ति इस पहिये को विद्युत शक्ति की भाँति घुमाती है। इस प्रकार यह पहिया बड़ी तेजी से अपनी धुरी पर या केंद्रीय आधार अर्थात भगवान के चारों ओर घूमता है, जो परमात्मा तथा चरम सत्य (परम-सत्य/मूलभूत-सत्य/) हैं। हम उन्हें सादर नमस्कार करते हैं।

29 भगवान शुद्ध सत्त्व में स्थित हैं, अतएव वे एकवर्ण – ॐकार (प्रणव) हैं। चूँकि भगवान अंधकार माने जाने वाले दृश्य जगत से परे हैं, अतएव वे भौतिक नेत्रों से नहीं दिखते। फिर भी वे दिक या काल द्वारा हमसे पृथक नहीं होते, अपितु वे सर्वत्र उपस्थित रहते हैं। अपने वाहन गरुड़ पर आसीन उनकी पूजा क्षोभ से मुक्ति पा चुके व्यक्तियों के द्वारा योगशक्ति से की जाती है। हम सभी उनको सादर नमस्कार करते हैं।

30 कोई भी व्यक्ति भगवान की माया का पार नहीं पा सकता जो इतनी प्रबल होती है कि हर व्यक्ति इससे भ्रमित होकर जीवन के लक्ष्य को समझने की बुद्धि गवाँ देता है। किन्तु वही माया उन भगवान के वश में रहती है, जो सब पर शासन करते हैं और सभी जीवों पर समान दृष्टि रखते हैं। हम उन्हें नमस्कार करते हैं।

31 चूँकि हमारे शरीर सत्त्वगुण से निर्मित हैं इसलिए हम देवगण भीतर तथा बाहर से सतोगुण में स्थित हैं। सारे सन्त पुरुष भी इसी प्रकार स्थित हैं। अतएव यदि हम भी भगवान को न समझ पायें तो उन नगण्य प्राणियों के विषय में क्या कहा जाये जो रजो तथा तमोगुणों में स्थित हैं? भला वे भगवान को कैसे समझ सकते हैं? हम उन भगवान को सादर नमस्कार करते हैं।

32 इस पृथ्वी पर चार प्रकार के जीव हैं और ये सभी उन्हीं के द्वारा उत्पन्न किये गये हैं। यह भौतिक सृष्टि उनके चरणकमलों पर टिकी है। वे ऐश्वर्य तथा शक्ति से उत्कृष्ट परम पुरुष हैं। वे हम पर प्रसन्न हों।

33 सारा विराट जगत जल से उद्भूत है और जल ही के कारण सारे जीव बने रहते हैं, जीवित रहते हैं तथा विकसित होते हैं। यह जल भगवान के वीर्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। अतएव इतनी महान शक्ति वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हम पर प्रसन्न हों।

34 सोम (चन्द्रमा) समस्त देवताओं के लिए अन्न, बल तथा दीर्घायु का स्रोत है। वह सारी वनस्पतियों का स्वामी तथा सारे जीवों की उत्पत्ति का स्रोत भी है। जैसा कि विद्वानों ने कहा है, चन्द्रमा भगवान का मन है। ऐसे समस्त ऐश्वर्यों के स्रोत भगवान हम पर प्रसन्न हों।

35 अनुष्ठानों की आहुतियाँ ग्रहण करने के लिए उत्पन्न अग्नि भगवान का मुख है। सागर की गहराइयों के भीतर भी सम्पदा उत्पन्न करने के लिए अग्नि रहती है और उदर में भोजन पचाने के लिए तथा शरीर पालन हेतु विभिन्न स्रावों को उत्पन्न करने के लिए भी अग्नि उपस्थित रहती है। ऐसे परम शक्तिमान भगवान हम पर प्रसन्न हों।

36 सूर्यदेव मुक्ति के मार्ग को चिन्हित करते हैं। वे वेदों के ज्ञान के प्रमुख स्रोत हैं, वे ही ऐसे धाम हैं जहाँ पर परम सत्य को पूजा जा सकता है। वे मोक्ष के द्वार हैं, वे नित्य जीवन के स्रोत हैं, वे मृत्यु के भी कारण हैं। सूर्यदेव भगवान की आँख हैं। ऐसे परम ऐश्वर्यवान भगवान हम पर प्रसन्न हों।

37 सारे चर तथा अचर प्राणी अपनी जीवनी शक्ति (प्राण), शारीरिक शक्ति तथा अपना जीवन तक वायु से प्राप्त करते हैं। हम सभी अपने प्राण के लिए वायु का उसी तरह अनुसरण करते हैं जिस प्रकार राजा का अनुसरण नौकर करता है। वायु की जीवनी शक्ति भगवान की मूल जीवनी शक्ति से उत्पन्न होती है। ऐसे भगवान हम पर प्रसन्न हों। परम शक्तिशाली भगवान हम पर प्रसन्न हों।

38 विभिन्न दिशाएँ उनके कानों से उत्पन्न होती है, शरीर के छिद्र उनके हृदय से निकलते हैं एवं प्राण, इन्द्रियाँ, मन, शरीर के भीतर की वायु तथा शरीर आश्रय रूपी शून्य (आकाश) उनकी नाभि से निकलते हैं।

39 स्वर्ग का राजा महेन्द्र भगवान के बल से उत्पन्न हुआ था, देवतागण भगवान की कृपा से उत्पन्न हुए थे, शिवजी भगवान के क्रोध से उत्पन्न हुए थे और ब्रह्माजी उनकी गम्भीर बुद्धि से उत्पन्न हुए थे। सारे वैदिक मंत्र भगवान के शरीर के छिद्रों से उत्पन्न हुए थे तथा ऋषि और प्रजापतिगण उनकी जननेन्द्रियों से उत्पन्न हुए थे। ऐसे परम शक्तिशाली भगवान हम पर प्रसन्न हों।

40 लक्ष्मी उनके वक्षस्थल से उत्पन्न हुई, पितृलोक के वासी उनकी छाया से, धर्म उनके स्तन से तथा अधर्म उनकी पीठ से उत्पन्न हुआ। स्वर्गलोक उनके सिर की चोटी से तथा अप्सराएँ उनके इन्द्रिय भोग से उत्पन्न हुई। ऐसे परम शक्तिमान भगवान हम पर प्रसन्न हों।

41 ब्राह्मण तथा वैदिक ज्ञान भगवान के मुख से निकले, क्षत्रिय तथा शारीरिक शक्ति उनकी भुजाओं से, वैश्य तथा उत्पादकता एवं धन-सम्पदा सम्बन्धी उनका दक्ष ज्ञान उनकी जाँघों से तथा वैदिक ज्ञान से विलग रहनेवाले शूद्र उनके चरणों से निकले। ऐसे भगवान, जो पराक्रम से पूर्ण है, हम पर प्रसन्न हों।

42 लोभ उनके निचले होंठ से, प्रीति उनके ऊपरी होंठ से, शारीरिक कान्ति उनकी नाक से, पाशविक वासनाएँ उनकी स्पर्शेन्द्रियों से, यमराज उनकी भौंहों से तथा नित्यकाल उनकी पलकों से उत्पन्न होते हैं। वे भगवान हम सबों पर प्रसन्न हों।

43 सभी विद्वान लोग कहते हैं कि पाँचों तत्त्व, नित्यकाल, सकाम कर्म, प्रकृति के तीनों गुण तथा इन गुणों से उत्पन्न विभिन्न किस्में – ये सब योगमाया की सृष्टियाँ हैं। अतएव इस भौतिक जगत को समझ पाना अत्यन्त कठिन है, किन्तु जो लोग अत्यन्त विद्वान हैं उन्होंने इसका तिरस्कार कर दिया है। जो सभी वस्तुओं के नियन्ता हैं ऐसे भगवान हम सब पर प्रसन्न हों।

44 हम उन भगवान को सादर नमस्कार करते हैं, जो पूर्णतया शान्त, प्रयास से मुक्त तथा अपनी उपलब्धियों से पूर्णतया संतुष्ट हैं। वे अपनी इन्द्रियों द्वारा भौतिक जगत के कार्यों में लिप्त नहीं होते। निस्सन्देह, इस भौतिक जगत में अपनी लीलाएँ सम्पन्न करते समय वे अनासक्त वायु की तरह रहते हैं।

45 हे भगवन! हम आपके शरणागत हैं फिर भी हम आपका दर्शन करना चाहते हैं। कृपया अपने आदि रूप को तथा अपने मुस्काते मुख को हमारे नेत्रों को दिखलाइये और अन्य इन्द्रियों द्वारा अनुभव करने दीजिये।

46 हे भगवन! आप विभिन्न युगों में अपनी इच्छा से विभिन्न अवतारों में प्रकट होते हैं और ऐसे असामान्य कार्य आश्चर्यजनक ढंग से करते हैं, जिन्हें कर पाना हम सब के लिए दुष्कर है।

47 कर्मीजन अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए सदैव धनसंग्रह करने के लिए लालायित रहते हैं, किन्तु इसके लिए उन्हें अत्यधिक श्रम करना पड़ता है। इतने कठोर श्रम के बावजूद भी उन्हें सन्तोषप्रद फल नहीं मिल पाता। निस्सन्देह ही कभी-कभी तो उनके कर्मफल से निराशा ही उत्पन्न होती है। किन्तु जिन भक्तों ने भगवान की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर रखा है वे कठोर श्रम किये बिना ही पर्याप्त फल प्राप्त कर सकते हैं। ये फल भक्तों की आशा से बढ़कर होते हैं।

48 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को समर्पित कार्य, भले ही छोटे पैमाने पर क्यों न किये जाँए, कभी भी व्यर्थ नहीं जाते। अतएव स्वाभाविक है कि परम पिता होने के कारण स्वाभाविक रूप से भगवान सबों को अत्यन्त प्रिय हैं और वे जीवों के कल्याण के लिए सदैव कर्म करने के लिए तैयार रहते हैं।

49 जब वृक्ष की जड़ में पानी डाला जाता है, तो वृक्ष का तना तथा शाखाएँ स्वतः तुष्ट हो जाती हैं। इसी प्रकार जब कोई भगवान विष्णु का भक्त बन जाता है, तो इससे हर एक की सेवा हो जाती है क्योंकि भगवान हर एक के परमात्मा हैं।

50 हे भगवन! आपको नमस्कार है क्योंकि आप नित्य हैं, भूत, वर्तमान तथा भविष्य की काल सीमा से परे हैं। आप अपने कार्यकलापों में अचिन्त्य हैं, आप भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों के स्वामी हैं और समस्त भौतिक गुणों से परे रहने के कारण आप भौतिक कल्मष से मुक्त हैं। आप प्रकृति के तीनों गुणों के नियन्ता हैं, किन्तु इस समय आप सतोगुण में स्थित हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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