अध्याय आठ – क्षीरसागर का मन्थन ( 8.8 )
1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: शिवजी द्वारा विषपान कर लिये जाने पर देवता तथा दानव दोनों ही अत्यधिक प्रसन्न हुए और नवीन उत्साह के साथ समुद्र मन्थन करने लगे। इसके फलस्वरूप सुरभि नामक गाय उत्पन्न हुई।
2 हे राजा परीक्षित! वैदिक अनुष्ठानों के पूर्ण जानकार ऋषियों ने उस सुरभि गाय को ले लिया जो अग्नि में आहुती डालने के लिए नितान्त आवश्यक पदार्थ अर्थात मट्ठा, दूध तथा घी उत्पन्न करने वाली थी। उन्होंने शुद्ध घी के लिए ही ऐसा किया क्योंकि उन्हें उच्चलोकों में ब्रह्मलोक तक जाने के लिए यज्ञ सम्पन्न करने के लिए घी की आवश्यकता थी।
3 तत्पश्चात चन्द्रमा के समान श्वेत रंग का उच्चैःश्रवा नामक घोड़ा उत्पन्न हुआ। बलि महाराज ने इसे लेना चाहा। स्वर्ग के राजा इन्द्र ने इसका विरोध नहीं किया क्योंकि भगवान ने पहले से ही उन्हें ऐसी सलाह दे रखी थी।
4 मन्थन के फलस्वरूप अगली बार हाथियों का राजा ऐरावत उत्पन्न हुआ। यह हाथी श्वेत रंग का था और अपने चारों दाँतों के कारण यह शिवजी के यशस्वी धाम कैलाश पर्वत को भी मात दे रहा था।
5 हे राजन इसके बाद आठ बड़े-बड़े हाथी उत्पन्न हुए जो किसी भी दिशा में जा सकते थे। उनमें ऐरावण प्रमुख था। अभ्रमु आदि आठ हथिनियाँ भी उत्पन्न हुई।
6 तत्पश्चात महान समुद्र से विख्यात रत्न कौस्तुभ मणि तथा पद्मराग मणि उत्पन्न हुए। भगवान विष्णु ने अपने वक्षस्थल को अलंकृत करने के लिए इसे पाने की इच्छा व्यक्ति की। तब पारिजात पुष्प उत्पन्न हुआ जो स्वर्गलोकों को विभूषित करता है। हे राजा! जिस प्रकार तुम इस लोक के प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा पूरी करते हो उसी तरह पारिजात हरेक की इच्छाओं को पूरा करता है।
7 अप्सराएँ जो स्वर्ग में रहती हैं, प्रकट हुईं। वे सोने के आभूषणों तथा मालाओं से पूरी तरह सजी हुई थीं और आकर्षक महीन वस्त्र धारण किये थीं। अप्सराएँ अत्यन्त मन्दगति से आकर्षक शैली में चलती हैं जिससे स्वर्गलोक के निवासी मोहित हो जाते हैं।
8 तब धन की देवी रमा प्रकट हुईं जो भगवान की नित्य शक्ति हैं और उन्हीं को समर्पित रहती हैं। वे बिजली की भाँति प्रकट हुईं और उनकी कान्ति संगमरमर के पर्वत को प्रकाशित करने वाली बिजली को मात कर रही थीं।
9 उनके अपूर्व सौन्दर्य, शारीरिक सौष्ठव, तारुण्य, रंग तथा यश के कारण हर व्यक्ति, यहाँ तक कि देवता, असुर तथा मनुष्य उनको पाने की कामना करने लगे। वे इसीलिए आकृष्ट थे क्योंकि रमादेवी समस्त ऐश्वर्यों की उद्गम हैं।
10 स्वर्ग का राजा इन्द्र लक्ष्मीजी के बैठने के लिए उपयुक्त आसन ले आया। पवित्र जल वाली सारी नदियाँ--यथा गंगा तथा यमुना-साकार हो उठीं और सभी माता लक्ष्मीजी के लिए सुनहरे जलपात्र में शुद्ध जल ले आईं।
11 भूमि ने साकार होकर अर्चाविग्रह की स्थापना के लिए जड़ी-बूटियाँ एकत्र कीं। गायों ने पाँच प्रकार के उत्पाद दिए – दूध, दही, घी, गोमूत्र तथा गोबर और साक्षात वसन्त ऋतु ने चैत्र-वैशाख (अप्रैल तथा मई) मास में उत्पन्न होने वाली हर वस्तु को एकत्र किया।
12 ऋषियों ने प्रामाणिक शास्त्रों में निर्दिष्ट विधि से सौभाग्य की देवी (लक्ष्मी) का अभिषेक उत्सव सम्पन्न किया, गन्धर्वों ने सर्वमंगलकारी वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया, नर्तकियों ने सुन्दर नृत्य किया तथा वेदों द्वारा बताये गये प्रामाणिक गीतों को गाया।
13 साक्षात बादलों ने तरह-तरह के ढोल- यथा मृदंग, पणव, मुरज तथा आनक—बजाये। उन्होंने शंख तथा गोमुख नामक तुरहियाँ भी बजाईं और बाँसुरी तथा वीणा का वादन किया। इन सब वाद्ययंत्रों की सम्मिलित ध्वनि अत्यन्त तुमुलपूर्ण थी।
14 तत्पश्चात सभी दिशाओं के दिग्गज गंगाजल से भरे कलश ले आये और भाग्य की देवी को विद्वान ब्राह्मणों द्वारा उच्चारित वैदिक मंत्रों के साथ स्नान कराया। स्नान कराये जाते समय लक्ष्मीजी अपनी मौलिक शैली को बनाए रखकर अपने हाथ में कमल धारण किये अत्यन्त सुन्दर लग रही थीं। वे परम सती साध्वी हैं क्योंकि वे भगवान के अतिरिक्त किसी को नहीं जानती।
15 समस्त बहुमूल्य रत्नों के स्रोत समुद्र ने उन्हें पीले रेशमी वस्त्र प्रदान किये। जल के प्रधान देवता वरुण ने फूलों की मालाएँ प्रदान कीं जिनके चारों ओर मधु पिये हुए मस्त हुए भौंरे मँडरा रहे थे।
16 प्रजापति विश्वकर्मा ने तरह-तरह के अलंकृत आभूषण दिये। विद्या की देवी सरस्वती ने गले का हार, ब्रह्माजी ने कमल का फूल तथा नागलोक के वासियों ने कान के कुण्डल प्रदान किये।
17-18 तत्पश्चात शुभ अनुष्ठान द्वारा पूजित माता लक्ष्मी कमलपुष्पों की माला हाथ में लेकर इधर-उधर विचरण करने लगीं जिनके चारों ओर भौंरे मँडरा रहे थे। जब वे इधर-उधर चलती तो उनकी पायल मन्द झनकार करती थी। लज्जा से मुस्काती हुई, कुण्डलों से गाल अलंकृत होने के कारण वे सोने की किसी लता के समान अत्यन्त सुन्दर लग रही थीं।
19-20 गन्धर्वों, यक्षों, असुरों, सिद्धों, चारणों तथा स्वर्गलोक के वासियों के बीच विचरण करती हुई भाग्य की देवी लक्ष्मीदेवी उन सबका निरीक्षण कर रही थीं, किन्तु उनमें से कोई भी उन्हें समस्त स्वाभाविक उत्तम गुणों से युक्त नहीं मिला। उनमें से कोई भी दोषों से रहित न था अतएव वे किसी की भी शरण ग्रहण नहीं कर सकीं। सभा का निरीक्षण करते हुए लक्ष्मीजी ने इस प्रकार सोचा, जिसने महान तपस्या की है उसने अभी तक क्रोध पर विजय नहीं पाई। किसी के पास ज्ञान है, तो वह भौतिक इच्छाएँ नहीं जीत पाया। कोई महान पुरुष है, तो उसने अपनी कामेच्छाएँ नहीं जीतीं। यहाँ तक कि महापुरुष भी किसी अन्य बात पर आश्रित रहता है। फिर वह परम नियन्ता (ईश्वर) कैसे हो सकता है?
21 भले ही किसी के पास धर्म का पूरा ज्ञान क्यों न हो फिर भी वह समस्त जीवों पर दयालु नहीं होता। किसी में, चाहे वह देवता हो या मनुष्य, त्याग हो सकता है, किन्तु वह मुक्ति का कारण नहीं होता। भले ही किसी में महान बल क्यों न हो फिर भी वह नित्य काल की शक्ति को रोकने में अक्षम रहता है। भले ही कोई भौतिक जगत की आसक्ति से विरक्त हो चुका हो फिर भी वह भगवान की बराबरी नहीं कर सकता। अतएव कोई भी व्यक्ति प्रकृति के भौतिक गुणों के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त नहीं है।
22 हो सकता है कि कोई दीर्घायु हो, किन्तु वह अच्छे आचरण वाला या मंगलमय न हो। किसी में मंगलमय तथा अच्छा आचरण दोनों ही पाये जा सकते हैं, किन्तु उसकी आयु की अवधि निश्चित नहीं होती। यद्यपि शिवजी जैसे देवताओं का जीवन शाश्वत होता है, किन्तु उनकी आदतें अमंगल सूचक होती हैं – यथा श्मशान में वास। अन्य लोग सभी प्रकार से योग्य होते हुए भी भगवान के भक्त नहीं होते।
23 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस प्रकार पूरी तरह विचार-विमर्श करने के बाद भाग्य की देवी (लक्ष्मी) ने मुकुन्द को पति रूप में वरण कर लिया। यद्यपि वे स्वतंत्र हैं और उन्हें उनकी चाहत भी नहीं थी, तथापि वे समस्त दिव्य गुणों और योग शक्तियों से युक्त हैं, अतएव वे सर्वाधिक वांछनीय हैं।
24 भगवान के पास जाकर लक्ष्मीजी ने नवीन कमल पुष्पों की माला उनके गले में पहना दी जिसके चारों ओर मधु की खोज में भौंरे गुंजार कर रहे थे। तब भगवान के वक्षस्थल पर स्थान पाने की आशा से वे उनकी समीप खड़ी रहीं और उनका मुख लज्जा से मुस्करा रहा था।
25 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान तीनों लोकों के पिता हैं और उनका वक्षस्थल समस्त ऐश्वर्यों की स्वामिनी भाग्य की देवी माता लक्ष्मी का निवास है। लक्ष्मीजी अपनी कृपापूर्ण चितवन से तीनों लोकों के अधिपतियों, देवताओं, तथा उनके निवासियों के ऐश्वर्य को बढ़ा सकती हैं।
26 तब गन्धर्व तथा चारण लोकों के निवासियों ने अपने-अपने वाद्य यंत्र--यथा शंख, तुरही तथा ढोल बजाये। वे अपनी-अपनी पत्नियों के साथ नाचने गाने लगे।
27 ब्रह्माजी, शिवजी, अंगिरा मुनि तथा विश्व व्यवस्थापन के ऐसे ही निदेशकों ने फूल बरसाये और भगवान की दिव्य महिमा के सूचक मंत्रों का उच्चारण किया।
28 सभी प्रजापति उनकी प्रजा सहित तथा सारे देवता लक्ष्मीजी की चितवन से धन्य होकर तुरन्त ही अच्छे आचरण तथा दिव्य गुणों से सम्पन्न हो गये। इस तरह वे अत्यधिक संतुष्ट हो गये।
29 हे राजन! लक्ष्मी द्वारा उपेक्षित हो जाने पर असुर तथा राक्षस अत्यन्त निराश, मोहग्रस्त तथा उद्विग्न हो गये और इस तरह से वे निर्लज्ज बन गये।
30 तब कमलनयनी देवी वारुणी प्रकट हुई जो मद्यपों को वश में रखती है। भगवान कृष्ण की अनुमति से बलि महाराज इत्यादि असुरों ने उस तरुणी को अपने अधिकार में ले लिया।
31 हे राजन! तत्पश्चात जब कश्यप के पुत्र – असुर तथा देवता – दोनों ही क्षीरसागर के मन्थन में लगे हुए थे तो एक अत्यन्त अद्भुत पुरुष प्रकट हुआ।
32 उसका शरीर सुदृढ़ था, उसकी भुजाएँ लम्बी तथा बलिष्ठ थीं, उसकी शंख जैसी गर्दन में तीन रेखाएँ थीं, उसकी आँखें लाल-लाल थीं और उसका रंग साँवला था। वह अत्यन्त तरुण था, उसके गले में फूलों की माला थी तथा उसका सारा शरीर नाना प्रकार के आभूषणों से सुसज्जित था।
33 वह पीले वस्त्र पहने था और उसके कानों में मोतियों के बने तरासे हुए कुण्डल थे। उसके बालों के सिरे तेल से चुपड़े थे और उसका वक्षस्थल अत्यन्त चौड़ा था। उसका शरीर अत्यन्त सुगठित तथा सिंह के समान बलवान था। उसने बाजूबन्द पहन रखे थे। उसके हाथ में अमृत से लबालब कलश था।
34 यह व्यक्ति धन्वन्तरी था, जो भगवान विष्णु के स्वांश का स्वांश था। वह औषधि विज्ञान (आयुर्वेद) में अत्यन्त पटु था और देवता के रूप में यज्ञों में भाग पाने का अधिकारी था ।
35 धन्वन्तरी को अमृत पात्र लिए हुए देखकर असुरों ने पात्र तथा उसके भीतर जो कुछ था उसकी चाहत के कारण तुरन्त ही उसे बलपूर्वक छीन लिया।
36 जब अमृत का पात्र असुरों द्वारा छीन लिया गया तो देवतागण अत्यन्त हताश हो गए। उन्होंने जाकर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हरि के चरणकमलों की शरण ली।
37 अपने भक्तों की मनोकामनाओं को सदा पूरा करने की इच्छा रखने वाले भगवान ने जब यह देखा कि देवतागण हताश हैं, तो उन्होंने उनसे कहा "दुःखी मत होओ। मैं अपनी शक्ति से असुरों में झगड़ा करा कर उन्हें मोहग्रस्त कर लूँगा। इस प्रकार तुम लोगों की अमृत प्राप्त करने की इच्छा मैं पूरी कर दूँगा।
38 हे राजन! तब असुरों के बीच झगड़ा उठ खड़ा हो गया कि सबसे पहले कौन अमृत ले। उनमें से हर एक यही कहने लगा "तुम पहले नहीं पी सकते। मुझे सबसे पहले पीना चाहिए। तुम नहीं, पहले मैं।"
39-40 कुछ असुरों ने कहा "सभी देवताओं ने क्षीरसागर के मन्थन में हाथ बँटाया है। चूँकि हर एक को समान अधिकार है कि वह किसी भी सार्वजनिक यज्ञ में भाग लें अतः सनातन धर्म के नियमों के अनुसार यह उचित होगा कि अमृत में देवताओं को भी भाग मिले।" हे राजन, इस प्रकार निर्बल असुरों ने प्रबल असुरों को अमृत लेने से मना किया।
41-46 तब किसी भी प्रतिकूल परिस्थिति का सामना करने में दक्ष भगवान विष्णु ने एक अत्यन्त सुन्दर स्त्री का रूप धारण कर लिया। स्त्री के रूप में यह अवतार–मोहिनी मूर्ति–अत्यन्त मनभावन था। उसका रंग नवविकसित श्यामल कमल के रंग का था और उसके शरीर का हर अंग सुन्दर ढंग से सुसज्जित था। उसके कानों में कुण्डल सजे थे, गाल अतीव सुन्दर थे, नाक उठी हुई, कमर अत्यन्त पतली थी और मुखमण्डल तरुणावस्था की कान्ति से युक्त था। उसके मुख तथा शरीर की सुगन्धी से आकर्षित भौरें उसके चारों ओर गुनगुना रहे थे और उसकी आँखें चंचल थीं। उसके बाल अत्यन्त सुन्दर थे और उन पर मल्लिका के फूलों की माला पड़ी थी। उसकी आकर्षक गर्दन हार तथा अन्य आभूषणों से सुशोभित थी, बाँहों में बाजूबन्द शोभित हो रहे थे और शरीर स्वच्छ साड़ी से ढका था। उसके पाँवों में पायल शोभा दे रहे थे। जब वह लज्जा से हँसती और असुरों पर बाँकी चितवन फेरती तो उसकी भौहों के हिलने से सारे असुर कामेच्छा से पूरित हो उठते और उनमें से हरेक उसे अपना बनाने की इच्छा करने लगा।
( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )
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