अध्याय तेईस – देवताओं को स्वर्गलोक की पुनर्प्राप्ति (8.23)
1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब परम पुरातन नित्य भगवान ने सर्वत्र मान्य शुद्ध भक्त एवं महात्मा बलि महाराज से यह कहा तो बलि महाराज ने आँखों में आँसू भरकर, हाथ जोड़कर तथा भक्तिभाव के कारण लड़खड़ाती वाणी में इस प्रकार कहा।
2 बलि महाराज ने कहा: आपको सादर नमस्कार करने के प्रयास में भी कैसा अद्भुत प्रभाव है! मैंने तो आपको नमस्कार अर्पित करने का प्रयास ही किया था, किन्तु वह प्रयास शुद्ध भक्तों के प्रयासों के समान सफल सिद्ध हुआ। आपने मुझ पतित असुर पर जो अहैतुकी कृपा प्रदर्शित की है, वह देवताओं या लोकपालों को भी कभी प्राप्त नहीं हुई।
3 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस प्रकार कहने के पश्चात बलि महाराज ने सर्वप्रथम भगवान हरि को और फिर ब्रह्माजी तथा शिवजी को नमस्कार किया। इस तरह वे नागपाश (वरुणपाश) से मुक्त कर दिये गये और पूर्णतया संतुष्ट होकर सुतललोक में प्रविष्ट हुए।
4 इस प्रकार इन्द्र को स्वर्गलोकों का स्वामित्व प्रदान करके तथा देवमाता अदिति की इच्छा पूरी करके पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ब्रह्माण्ड के कार्यकलापों पर शासन करने लगे।
5 जब प्रह्लाद महाराज ने सुना कि उनका पौत्र तथा वंशज बलि महाराज किस तरह बन्धन से मुक्त किया गया है और उसे भगवान का आशीर्वाद प्राप्त हुआ है, तो वे अत्यधिक प्रेमाभक्ति के स्वर में इस प्रकार बोले।
6 प्रह्लाद महाराज ने कहा: हे भगवान! आप विश्वपूज्य हैं, यहाँ तक कि ब्रह्माजी तथा शिवजी भी आपके चरणकमलों की पूजा करते हैं। इतने महान होते हुए भी आपने कृपापूर्वक हम असुरों की रक्षा करने का वचन दिया है। मेरा विचार है कि ब्रह्माजी, शिवजी या लक्ष्मीजी को भी कभी ऐसी दया प्राप्त नहीं हुई; तो अन्य देवताओं या सामान्य व्यक्तियों की बात ही क्या है!
7 हे सबके परम आश्रय! ब्रह्माजी जैसे महापुरुष आपके चरणकमलों की सेवा रूपी मधु का स्वाद चखने मात्र से सिद्धि को भोग पाते हैं। किन्तु हम लोगों पर, जो सारे के सारे धूर्त हैं और असुरों के ईर्ष्यालु वंश में जन्मे हैं आपकी कृपा किस प्रकार हो सकी? यह तो केवल इसीलिए सम्भव हो सका है क्योंकि आपकी कृपा अहैतुकी है।
8 हे प्रभु! आपकी लीलाएँ , अचिन्त्य आध्यात्मिक शक्तियों द्वारा विचित्र ढंग से सम्पन्न होती है। भौतिक शक्ति (माया) द्वारा आपने सारे ब्रह्माण्डों की सृष्टि की है। आप सभी जीवों के परमात्मा के रूप में हर बात जानते हैं। अतएव निश्चय ही, आप सब पर समान दृष्टि रखते हैं, तो भी आप अपने भक्तों का पक्ष लेते हैं। यह पक्षपात नहीं है क्योंकि आपका यह गुण उस कल्पवृक्ष की तरह है, जो इच्छानुसार कोई भी वस्तु प्रदान करता है।
9 भगवान ने कहा: हे मेरे प्रिय पुत्र प्रह्लाद! तुम्हारा कल्याण हो। अभी तुम सुतल नामक स्थान को जाओ और वहाँ अपने पौत्र एवं अन्य कुटुम्बियों तथा मित्रों सहित सुख भोगो।
10 भगवान ने प्रह्लाद महाराज को आश्वासन दिया कि तुम वहाँ पर हाथों में शंख, चक्र, गदा तथा कमल लिए मेरे नित्य रूप का दर्शन कर सकोगे। वहाँ मेरे निरन्तर प्रत्यक्ष दर्शन से दिव्य आनन्द प्राप्त करके तुम और अधिक कर्म-बन्धन में नहीं पड़ोगे।
11-12 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा परीक्षित! समस्त असुरपतियों के स्वामी प्रह्लाद महाराज ने बलि महाराज समेत हाथ जोड़कर भगवान के आदेश को सिर पर चढ़ाया। उन्होंने भगवान से हाँ कहकर, उनकी प्रदक्षिणा की और सादर प्रणाम करके सुतल नामक अधोलोक में प्रवेश किया।
13 तत्पश्चात भगवान हरि अथवा नारायण ने शुक्राचार्य को सम्बोधित किया जो पुरोहितों (ब्रह्म, होता, उदगाता तथा अध्वर्यु) के निकट ही सभा में बैठे थे। हे महाराज परीक्षित! ये सभी पुरोहित ब्रह्मवादी थे अर्थात यज्ञ सम्पन्न करने के लिए वैदिक सिद्धान्तों का पालन करने वाले थे।
14 हे ब्राह्मणश्रेष्ठ शुक्राचार्य! आप यज्ञ में लगे अपने शिष्य बलि महाराज का अपराध या त्रुटि बतलाईये। इस अपराध का निराकरण योग्य ब्राह्मणों की उपस्थिति में निर्णय लेने पर हो जाएगा।
15 शुक्राचार्य ने कहा: हे प्रभु! आप यज्ञ के भोक्ता हैं और सभी यज्ञों को सम्पन्न करने के लिए विधि-प्रदाता हैं। आप यज्ञपुरुष हैं अर्थात आप ही वे पुरुष हैं जिनके लिए सारे यज्ञ किए जाते हैं। यदि किसी ने आपको पूरी तरह संतुष्ट कर लिया तो फिर उसके यज्ञ करने में त्रुटियों अथवा दोषों के रहने का अवसर ही कहाँ रह जाता है।
16 मंत्रों के उच्चारण तथा कर्मकाण्ड के पालन में त्रुटियाँ रह सकती हैं। देश, काल, व्यक्ति तथा सामग्री के विषय में भी कमियाँ रह सकती हैं। किन्तु भगवन! यदि आपके पवित्र नाम का कीर्तन किया जाए तो हर वस्तु दोषरहित बन जाती है।
17 हे भगवान विष्णु! तो भी मैं आपके आदेशानुसार आपकी आज्ञा का पालन करूँगा क्योंकि आपके आदेश का पालन करना परम शुभ और हरेक का सर्वोपरि कर्तव्य है।
18 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस प्रकार सर्वाधिक शक्तिशाली शुक्राचार्य ने आदरपूर्वक भगवान की आज्ञा स्वीकार कर ली। उन्होंने श्रेष्ठ ब्राह्मणों के साथ बलि महाराज द्वारा सम्पन्न यज्ञ की त्रुटियों को पूरा करना शुरु कर दिया।
19 हे राजा परीक्षित! इस प्रकार भिक्षा के रूप में बलि महाराज की सारी भूमि लेकर भगवान वामनदेव ने उसे अपने भाई इन्द्र को दे दिया जिसे इन्द्र के शत्रु ने ले लिया था।
20-21 ब्रह्माजी ने (जो राजा दक्ष तथा अन्य सभी प्रजापतियों के स्वामी हैं) सारे देवताओं, महान सन्तों, पितृलोक के वासियों, मनुओं, मुनियों, दक्ष भृगु, अंगिरा जैसे नायकों, कार्तिकेय तथा शिवजी सहित भगवान वामनदेव को हरेक के संरक्षक के रूप में स्वीकार किया। यह सब उन्होंने कश्यप मुनि तथा उनकी पत्नी अदिति की प्रसन्नता के लिए एवं ब्रह्माण्ड के समस्त वासियों तथा उनके विभिन्न नायकों के कल्याण के लिए किया।
22-23 हे राजा परीक्षित! इन्द्र को सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का राजा माना जाता था, किन्तु ब्रह्माजी समेत अन्य देवता उपेन्द्र अर्थात वामनदेव को वेदों, धर्म, यश, ऐश्वर्य, मंगल, व्रत, स्वर्गलोक तथा उन्नति तथा मुक्ति के रक्षक के रूप में चाहते थे। इसलिए उन्होंने उपेन्द्र अर्थात वामनदेव, को सबका परम स्वामी स्वीकार कर लिया। इस निर्णय से सारे जीव अत्यधिक प्रसन्न हो गए।
24 तत्पश्चात स्वर्गलोकों के सारे प्रधानों सहित स्वर्ग के राजा इन्द्र, वामनदेव को अपने समक्ष करके ब्रह्मा की अनुमति से, उन्हें देवी वायुयान में बैठाकर स्वर्गलोक ले आये।
25 इस प्रकार भगवान वामनदेव की बाहुओं से रक्षित होकर स्वर्ग के राजा इन्द्र ने तीनों लोकों का अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लिया और निर्भय होकर तथा पूर्णतया संतुष्ट होकर वे अपने परम ऐश्वर्यशाली पद पर पुनः प्रतिष्ठित कर दिए गए।
26-27 ब्रह्माजी, शिवजी, कार्तिकेय, महर्षि भृगु, अन्य सन्त, पितृलोक के वासी तथा सिद्धलोक के निवासी एवं वायुयान द्वारा बाह्य आकाश की यात्रा करनेवाले जीवों के समेत वहाँ पर उपस्थित सारे मनुष्यों ने भगवान वामनदेव के असामान्य कार्यों की महिमा का गायन किया। हे राजन! भगवान का कीर्तन एवं उनकी महिमा का गायन करते हुए वे सभी अपने-अपने स्वर्गलोकों को लौट गये। उन्होंने अदिति के पद की भी प्रशंसा की।
28 हे महाराज परीक्षित! हे अपने वंश के आनन्द! मैंने अब तुमसे भगवान वामनदेव के अद्भुत कार्यों के विषय में सारा वर्णन कर दिया है। जो लोग इसे सुनते हैं, वे निश्चित रूप से पापकर्मों के सभी फलों से मुक्त हो जाते हैं।
29 मरणशील व्यक्ति भगवान त्रिविक्रम अर्थात विष्णु की महिमा की थाह नहीं पा सकता जिस प्रकार कि वह सम्पूर्ण पृथ्वीलोक के कणों की संख्या नहीं जान सकता। कोई भी व्यक्ति जिसने जन्म ले लिया है या जो जन्म लेने वाला है ऐसा नहीं कर सकता। इसका गायन महर्षि वसिष्ठ ने किया है।
30 यदि कोई पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के विभिन्न अवतारों के असामान्य कार्यकलापों का श्रवण करता है, तो वह निश्चित रूप से स्वर्गलोक को भेजा जाता है या अपने घर को अर्थात भगवान के धाम को वापस जाता है।
31 जब भी कर्मकाण्ड के दौरान, चाहे देवताओं को प्रसन्न करने के लिए या पितृलोक के पितरों को प्रसन्न करने के लिए कोई उत्सव किया जाए, या विवाह जैसा सामाजिक कृत्य मनाने के लिए वामनदेव के कार्यकलापों का वर्णन हो, तो उस उत्सव को परम मंगलमय समझना चाहिए।
( समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान )
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