jagdish chandra chouhan's Posts (549)

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श्रील प्रभुपाद की जय हो !

(All Glories to Sril Prabhupada)

हे प्रभु, हे वसुदेव पुत्र श्रीकृष्ण, हे सर्वव्यापी भगवान, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। मैं भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ, क्योंकि वे परम सत्य हैं और व्यक्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के समस्त कारणों के आदि कारण हैं। वे प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से सारे जगत से अवगत रहते हैं और वे परम स्वतंत्र हैं, क्योंकि उनसे परे अन्य कोई कारण है ही नहीं। उन्होंने ही सर्वप्रथम आदि जीव ब्रह्माजी के हृदय में वैदिक ज्ञान प्रदान किया। उन्हीं के कारण बड़े-बड़े मुनि तथा देवता उसी तरह मोह में पड़ जाते हैं, जिस प्रकार अग्नि में जल या जल में स्थल देखकर कोई माया के द्वारा मोहग्रस्त हो जाता है। उन्हीं के कारण ये सारे भौतिक ब्रहमाण्ड, जो प्रकृति के तीन गुणों की प्रतिक्रिया के कारण अस्थायी रूप से प्रकट होते हैं, वास्तविक लगते हैं जबकि ये अवास्तविक होते हैं। अतः मैं उन भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ, जो भौतिक जगत के भ्रामक रूपों से सर्वथा मुक्त अपने दिव्य धाम में निरन्तर वास करते हैं। मैं उनका ध्यान करता हूँ, क्योंकि वे ही परम सत्य हैं। यह भागवत पुराण, भौतिक कारणों से प्रेरित होने वाले समस्त धार्मिक कृत्यों को पूर्ण रूप से बहिष्कृत करते हुए, सर्वोच्च सत्य का प्रतिपादन करता है, जो पूर्ण रूप से शुद्ध हृदय वाले भक्तों के लिए बोधगम्य है। यह सर्वोच्च सत्य वास्तविकता है जो माया से पृथक होते हुए सबों के कल्याण के लिए है। ऐसा सत्य तीनों प्रकार के सन्तापों को समूल नष्ट करने वाला है। महामुनि व्यासदेव द्वारा (अपनी परिपक्वावस्था में) संकलित यह सौन्दर्यपूर्ण भागवत ईश्वर-साक्षात्कार के लिए अपने आप में पर्याप्त है। तो फिर अन्य किसी शास्त्र की क्या आवश्यकता है? जैसे जैसे कोई ध्यानपूर्वक तथा विनीत भाव से भागवत के सन्देश को सुनता है, वैसे वैसे ज्ञान के इस संस्कार (अनुशीलन) से उसके हृदय में परमेश्वर स्थापित हो जाते हैं। (श्रीमद भागवतम 1.1.1-2)

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10भगवद्गीता यथारूप पत्रिका स्वरूप में.pdf

11 प्रथम स्कन्ध ब्लॉग संकलन .pdf

12 द्वितीय स्कन्ध ब्लॉग संकलन .pdf

13 तृतीय स्कन्ध ब्लॉग संकलन .pdf

14 ब्लॉग संकलन चतुर्थ स्कन्ध .pdf

15 ब्लॉग संकलन पंचम स्कन्ध .pdf

16 ब्लॉग संकलन षष्ठ स्कन्ध.pdf

17 ब्लॉग संकलन सप्तम स्कन्ध.pdf

18 ब्लॉग संकलन अष्टम स्कन्ध .pdf

19 नवम स्कन्ध ब्लॉग संकलन.pdf

20 ब्लॉग संकलन दशम स्कन्ध भाग एक 1-13.pdf

21 दशम स्कन्ध भाग दो ब्लॉग संकलन 14-44 .pdf

22 दशम स्कन्ध (भाग तीन) ब्लॉग संकलन 45-69.pdf

23दशम स्कन्ध ब्लॉग संकलन भाग चार 70-90 .pdf

24 एकादश स्कन्ध ब्लॉग संकलन .pdf

25 ब्लॉग संकलन द्वादश स्कन्ध .pdf

26 श्रीभगवान की स्तुतियाँ पत्रिका स्वरूप में .pdf

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मैं श्रील शुकदेव गोस्वामी को सादर नमस्कार करता हूँ जो श्रेष्ठ योगी-मुनि हैं और परम सत्य के साकार रूप हैं। उन्होंने संसार रूपी सर्प द्वारा काटे गये परीक्षित महाराज को बचाया। हे ईशों के ईश, हे स्वामी, आप हमें जन्म-जन्मान्तर तक अपने चरणकमलों की शुद्ध भक्ति का वर दें। मैं उन भगवान हरि को सादर नमस्कार करता हूँ जिनके पवित्र नामों का सामूहिक कीर्तन सारे पापों को नष्ट करता है और जिनको नमस्कार करने से सारे भौतिक कष्टों से छुटकारा मिल जाता है। (श्रीमद भागवतम 12.13.21-23)

एकमात्र श्रीभगवान की (हम सब पर) असीम कृपा से ही – हिन्दी भाषी भक्तों के लाभार्थ दिनांक 31 जुलाई 2020 से प्रतिदिन ब्लॉग रूप में श्रीमद भगवद्गीता एवं श्रीमदभागवतम के समस्त अध्यायों और श्रीभगवान की स्तुतियों के भक्ति वेदान्त श्लोकार्थ के प्रकाशन का संकलन (पत्रिका स्वरूप में) अपलोड करने सम्बन्धी कार्य सम्भव हो सका है (पूर्ण हुआ)

                             पत्रिकाओं की विशिष्टताएँ:-

  1. प्रत्येक अध्याय एक सुन्दर इमेज कोट्स सहित

  2. शब्दों के स्पष्ट उच्चारण के लिए अनुस्वार का न्यूनतम प्रयोग 

  3. श्लोकार्थ पृथक रंग में

  4. श्रीमद भगवद्गीता के महत्त्वपूर्ण 108 श्लोक पृथक रंग (purple color) में

  5. पत्रिका के सभी पृष्ठ रंगीन

  6. बॉर्डर हेडर (शीर्षक) - फुटर पृथक रंग में

  7. पत्रिका की साइज भगवद्दर्शन पत्रिका के समान

भक्तार्पण

श्रीमद भागवतम के द्वादश स्कन्ध के अध्याय तेरह के श्लोक क्रमांक तेरह में इस दिव्य ग्रन्थ के दान का महत्त्व बताया गया है। अतः आप सभी भक्तों से मेरा विनम्र अनुरोध है कि, इन समस्त (सत्रह) पत्रिकाओं का कलर प्रिंट आउट लेकर (स्वयं के लिए दान कीजिए)।    इन्हीं भावपूर्ण शब्दों के साथ – अतीव विनीत एवं समर्पित भाव से – सभी भक्तों को सादर अर्पित।

आप सभी भक्तों एवं टीम इस्कॉन डिजायर ट्री.कॉम.

का हार्दिक आभार और धन्यवाद

(Thanks a lot to All devotee and team IDT.Com.)

***भगवान हरि की जय हो !**

**हरि बोल! हरि बोल! हरि बोल!***

-- :: हरि ॐ तत सत :: --

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(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र माँगीलाल चौहान)

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कृपया मेरा विनम्र प्रणाम स्वीकार करें ! (Please accept my humble obeisances)

श्रील प्रभुपाद की जय हो ! (All Glories to Sril Prabhupada)

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अध्याय तेरह – श्रीमद भागवत की महिमा (12.13)

1 सूत गोस्वामी ने कहा: ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र तथा मरुतगण दिव्य स्तुतियों का उच्चारण करके तथा वेदों को उनके अंगों, पद-क्रमों तथा उपनिषदों समेत बाँच कर जिनकी स्तुति करते हैं, सामवेद के गायक जिनका सदैव गायन करते हैं, सिद्ध योगी अपने को समाधि में स्थिर करके और अपने को उनके भीतर लीन करके जिनका दर्शन अपने मन में करते हैं तथा जिनका पार किसी देवता या असुर द्वारा कभी भी नहीं पाया जा सकता – ऐसे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को मैं सादर नमस्कार करता हूँ।

2 जब भगवान कूर्म (कछुवे) के रूप में प्रकट हुए तो उनकी पीठ पर स्थित भारी, घूमने वाले मन्दराचल पर्वत के नुकीले पत्थरों के द्वारा की गई खरोंचों के कारण भगवान उनींदे हो गये। भगवान की इसी सुप्तावस्था में, उनकी श्वास से उत्पन्न वायुओं द्वारा आप सबों की रक्षा हो। तभी से–आज तक, समुद्री ज्वारभाटा भगवान के इसी श्वास-निश्वास का अनुकरण करता आ रहा है।

3 अब मुझसे सभी पुराणों की श्लोक-संख्या सुनिये। इस भागवत पुराण के मूल विषय तथा उद्देश्य, इसे भेंट में देने की सही विधि, ऐसी भेंट देने का माहात्म्य और अन्त में इस ग्रन्थ के सुनने तथा कीर्तन करने का माहात्म्य सुनिये।

4-9 ब्रह्म पुराण में दस हजार, पद्म पुराण में पचपन हजार, श्री विष्णु पुराण में तेईस हजार, शिव पुराण में चौबीस हजार तथा श्रीमदभागवत में अठारह हजार श्लोक हैं। नारद पुराण में पच्चीस हजार हैं, मार्कण्डेय पुराण में नौ हजार, अग्नि पुराण में पन्द्रह हजार चार सौ, भविष्य पुराण में चौदह हजार पाँच सौ, ब्रह्मवैवर्त पुराण में अठारह हजार तथा लिंग पुराण में ग्यारह हजार श्लोक हैं। वराह पुराण में चौबीस हजार, स्कन्द पुराण में इक्यासी हजार एक सौ, वामन पुराण में दस हजार, कूर्म पुराण में सत्रह हजार, मत्स्य पुराण में चौदह हजार, गरुड़ पुराण में उन्नीस हजार तथा ब्रह्माण्ड पुराण में बारह हजार श्लोक हैं। इस तरह समस्त पुराणों की कुल श्लोक संख्या चार लाख है। पुनः इनमें से अठारह हजार श्लोक श्रीमदभागवत के हैं।

10 जब ब्रह्मा, संसार से भयभीत होकर, भगवान की नाभि से निकले कमल पर आसीन थे तब भगवान ने सर्वप्रथम ब्रह्मा को सम्पूर्ण श्रीमदभागवत का ज्ञान कराया।

11-12 श्रीमदभागवत आदि से अन्त तक ऐसी कथाओं से भरा पड़ा है, जो भौतिक जीवन से वैराग्य की ओर ले जाने वाली हैं। साथ ही इसमें भगवान हरि की दिव्य लीलाओं का अमृतमय विवरण भी है, जो सन्त भक्तों तथा देवताओं को भाव विभोर कर देने वाला है। यह भागवत समस्त वेदान्त दर्शन का सार है क्योंकि इसकी विषयवस्तु परम सत्य है, जो आत्मा से अभिन्न होते हुए भी अद्वितीय सर्वोपरि सत्य है। इस ग्रन्थ का लक्ष्य परम सत्य की एकान्तिक भक्ति है।

13 यदि कोई व्यक्ति भाद्र मास की पूर्णमासी को सोने के सिंहासन पर रखकर श्रीमदभागवत का दान उपहार के रूप में देता है, तो उसे परम दिव्य गन्तव्य प्राप्त होगा।

14 अन्य सारे पुराण तब तक सन्त भक्तों की सभा में चमकते हैं जब तक अमृत के महासागर श्रीमदभागवत को सुना नहीं गया हो।

15 श्रीमदभागवत को समस्त वेदान्त-दर्शन का सार कहा जाता है। जिसे इसके अमृतमय रस से तुष्टि हुई है, वह कभी अन्य किसी ग्रन्थ के प्रति आकृष्ट नहीं होगा।

16 जिस तरह गंगा समुद्र की ओर बहने वाली समस्त नदियों में सबसे बड़ी है, भगवान अच्युत देवों में सर्वोच्च हैं और भगवान शम्भू (शिव) वैष्णवों में सबसे बड़े हैं, उसी तरह श्रीमदभागवत समस्त पुराणों में सर्वोपरि है।

17 हे ब्राह्मणों, जिस तरह पवित्र स्थानों में काशी नगरी अद्वितीय है, उसी तरह समस्त पुराणों में श्रीमदभागवत सर्वश्रेष्ठ है।

18 श्रीमदभागवत निर्मल पुराण है। यह वैष्णवों को अत्यन्त प्रिय है क्योंकि यह परमहंसों के शुद्ध तथा सर्वोच्च ज्ञान का वर्णन करनेवाला है। यह भागवत समस्त भौतिक कर्म से छूटने के साधन के साथ ही दिव्य ज्ञान, वैराग्य तथा भक्ति की विधियों को प्रकाशित करता है। जो कोई भी श्रीमदभागवत को गम्भीरतापूर्वक समझने का प्रयास करता है, जो समुचित ढंग से श्रवण करता है और भक्तिपूर्वक कीर्तन करता है, वह पूर्ण मुक्त हो जाता है।

19 मैं उन शुद्ध तथा निष्कलुष परम पूर्ण सत्य (भगवान) का ध्यान करता हूँ जो दुख तथा मृत्यु से मुक्त हैं और जिन्होंने प्रारम्भ में इस ज्ञान के अतुलनीय दीपक को ब्रह्मा से प्रकट किया। तत्पश्चात ब्रह्मा ने इसे नारद मुनि से कहा, जिन्होंने इसे कृष्ण द्वैपायन व्यास से कह सुनाया। श्रील व्यास ने इस भागवत को मुनियों में सर्वोपरि, श्रील शुकदेव गोस्वामी, को बतलाया जिन्होंने कृपा करके इसे महाराज परीक्षित से कहा।

20 हम सर्वव्यापक साक्षी, भगवान वासुदेव को नमस्कार करते हैं जिन्होंने कृपा करके ब्रह्मा को यह विज्ञान तब बतलाया जब वे उत्सुकतापूर्वक मोक्ष चाह रहे थे।

21 मैं श्रील शुकदेव गोस्वामी को सादर नमस्कार करता हूँ जो श्रेष्ठ योगी-मुनि हैं और परम सत्य के साकार रूप हैं। उन्होंने संसार रूपी सर्प द्वारा काटे गये परीक्षित महाराज को बचाया।

22 हे ईशों के ईश, हे स्वामी, आप हमें जन्म-जन्मान्तर तक अपने चरणकमलों की शुद्ध भक्ति का वर दें।

23 मैं उन भगवान हरि को सादर नमस्कार करता हूँ जिनके पवित्र नामों का सामूहिक कीर्तन सारे पापों को नष्ट करता है और जिनको नमस्कार करने से सारे भौतिक कष्टों से छुटकारा मिल जाता है।

इस प्रकार श्रीमद भागवतम (द्वादश स्कन्ध) के समस्त अध्यायों के भक्ति वेदान्त श्लोकार्थ पूर्ण हुए।

-::हरि ॐ तत् सत्::-

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श्रीकृष्ण शरणम ममः -- भजन

श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः

श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः

जनम जनम के पाप कटे – भरम के बादल दूर हटे

जो मुख से इक बार रटे – श्रीकृष्ण शरणम ममः

श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः

श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः

तीन शब्द का ये संगीत – मुक्ति दिलाने वाला गीत

इसको गाकर जग को जीत – श्रीकृष्ण शरणम ममः

श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः

श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः

काम-क्रोध मद भस्म करे – लोभ मोह के प्राण हरे

जो मुख में ये मंत्र धरे श्रीकृष्ण शरणम ममः

श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः

श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः

गले में तुलसी की माला – अधर पे भक्ति का प्याला

मन में प्रभु का उजियाला – श्रीकृष्ण शरणम ममः

श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः

श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः

कलयुग में ये है वरदान – जन जन का करता कल्याण

वैष्णव जन का मंत्र महान - श्रीकृष्ण शरणम ममः

श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः

श्रीकृष्ण शरणम ममः श्रीकृष्ण शरणम ममः

आरती

श्री भागवत भगवान की है आरती – पापियों को पाप से है तारती

ये अमर ग्रन्थ, ये मुक्ति पन्थ, ये पंचम वेद निराला – नव ज्योति जगानेवाला

हरि नाम यही, हरि धाम यही, – यह जग मंगल की आरती, पापियों को पाप से है तारती

श्री भागवत भगवान की है आरती – पापियों को पाप से है तारती

ये शान्ति गीत, पावन पुनीत, पापों को मिटानेवाला – हरि दर्श दिखानेवाला

है सुख करणी, है दुख हरिणी – श्री मधुसूदन की आरती, पापियों को पाप से है तारती

श्री भागवत भगवान की है आरती – पापियों को पाप से है तारती

ये मधुर बोल, जग फन्द खोल, सन्मार्ग दिखानेवाला – बिगड़ी को बनानेवाला

श्री राम यही, घनश्याम यही – प्रभु की महिमा की आरती, पापियों को पाप से है तारती

श्री भागवत भगवान की है आरती – पापियों को पाप से है तारती

श्रीभगवान की असीम कृपा से - इस्कॉन स्थापना उद्देश्य क्रमांक दो – (महान ग्रंथों जैसे भगवद्गीता और श्रीमदभागवतम में प्रकाशित कृष्णभावनामृत का प्रचार-प्रसार करना) – के अनुरूप, इस प्रकार से हिन्दी भाषी भक्तों के लाभार्थ दिनांक 31 जुलाई 2020 से प्रतिदिन ब्लॉग रूप में "श्रीमद भगवद्गीता एवं श्रीमदभागवतम के समस्त अध्यायों और श्रीभगवान की स्तुतियों के भक्ति वेदान्त श्लोकार्थ प्रकाशन" सम्बन्धी कार्य पूर्ण हुआ।

**टीम वेब साइट इस्कॉन डिजायर ट्री. कॉम का हार्दिक आभार***

**(Thanks a lot to team IDT)***

***भगवान हरि की जय हो !**

**हरि बोल! हरि बोल! हरि बोल!***

-- :: हरि ॐ तत सत :: --

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 समर्पित एवं सेवारत-जगदीश चन्द्र माँगीलाल चौहान

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अध्याय बारह – श्रीमदभागवत की संक्षिप्त विषय-सूची (12.12)

"भगवान हरि उस व्यक्ति का सारा कष्ट स्वयं हर लेते हैं, जो उनकी महिमा का श्रवण/कीर्तन करता है ।"

1 सूत गोस्वामी ने कहा: परम धर्म भक्ति को, परम स्रष्टा भगवान कृष्ण को तथा समस्त ब्राह्मणों को नमस्कार करके, अब मैं धर्म के शाश्वत सिद्धान्तों का वर्णन करूँगा।

2 हे ऋषियों, मैं आप लोगों से भगवान विष्णु की अद्भुत लीलाएँ कह चुका हूँ, क्योंकि आप लोगों ने इनके विषय में मुझसे पूछा था। ऐसी कथाओं का सुनना उस व्यक्ति के लिए उचित है, जो वास्तव में मानव है।

3 यह ग्रन्थ उन भगवान श्री हरि का पूर्ण गुणगान करनेवाला है, जो अपने भक्तों के सारे पापों को दूर करने वाले हैं। भगवान का यह गुणगान नारायण, हृषिकेश तथा सात्वतों के प्रभु के रूप में किया गया है।

4 यह ग्रन्थ इस ब्रह्माण्ड के सृजन तथा संहार के स्रोत परम सत्य के रहस्य का वर्णन करता है। यही नहीं, इसमें उनके दैवी ज्ञान के साथ-साथ उसके अनुशीलन की विधि तथा मनुष्य द्वारा प्राप्त होनेवाली दिव्य अनुभूति का भी वर्णन हुआ है।

5 इसमें भक्ति की विधि के साथ-साथ वैराग्य का गौण स्वरूप तथा महाराज परीक्षित एवं नारद मुनि के इतिहास का भी वर्णन हुआ है।

6 इसके साथ ही ब्राह्मण-पुत्र के शाप के शमनार्थ परीक्षित का आमरण उपवास करना तथा परीक्षित और ब्राह्मण-श्रेष्ठ श्रील शुकदेव के मध्य हुई वार्ता का भी वर्णन हुआ है।

7 भागवत बतलाती है कि किस तरह योग में ध्यान स्थिर करके मृत्यु के समय मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। इसमें नारद तथा ब्रह्मा के बीच हुई वार्ता, भगवान के अवतारों की गणना तथा भौतिक प्रकृति की अव्यक्त अवस्था से लेकर क्रमशः यह ब्रह्माण्ड जिस तरह बना, उसका भी वर्णन हुआ है।

8 इस शास्त्र में उद्धव तथा मैत्रेय के साथ विदुर के संवादों, इस पुराण के विषय में प्रश्न तथा प्रलय के समय भगवान के शरीर में सृष्टि के विलीन होने का भी वर्णन हुआ है।

9 प्रकृति के गुणों के उद्वेलन से उत्पन्न सृष्टि, तात्विक विकारों से विकास की सात अवस्थाएँ तथा उस विश्व अंडे का निर्माण जिससे भगवान के विश्वरूप का उदय होता है – इन सबका इसमें पूरी तरह वर्णन हुआ है।

10 अन्य विषयों में काल की स्थूल तथा सूक्ष्म गतियाँ, गर्भोदकशायी विष्णु की नाभि से कमल की उत्पत्ति तथा हिरण्याक्ष असुर का वध, जब गर्भोदक सागर से पृथ्वी का उद्धार हुआ, सम्मिलित हैं।

11 भागवत में देवताओं, पशुओं तथा आसुरी योनियों की उत्पत्ति, भगवान रुद्र के जन्म तथा अर्ध नारीश्वर से स्वायम्भुव मनु के प्राकट्य का भी वर्णन हुआ है।

12 इसमें प्रथम स्त्री शतरुपा, जोकि मनु की अति गुणी प्रिया थीं तथा प्रजापति कर्दम की पवित्र पत्नियों की सन्तान का भी वर्णन हुआ है।

13 भागवत में महान कपिल मुनि के रूप में भगवान के अवतार का और इन विद्वान महात्मा तथा उनकी माता देवहूति के बीच हुई वार्ता का अंकन है।

14-15 इसमें नौ महान ब्राह्मणों की सन्तानों, दक्ष के यज्ञ के विध्वन्स तथा ध्रुव महाराज के इतिहास, तत्पश्चात राजा पृथु एवं राजा प्राचीनबर्ही की कथाओं, प्राचीनबर्ही तथा नारद के बीच संवाद तथा महाराज प्रियव्रत के जीवन का वर्णन हुआ है। तत्पश्चात हे ब्राह्मणों, भागवत में राजा नाभि, भगवान ऋषभ तथा राजा भरत के चरित्र एवं कार्यों का वर्णन मिलता है।

16 भागवत में पृथ्वी के महाद्वीपों, वर्षों, समुद्रों, पर्वतों तथा नदियों का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसमें स्वर्गिक मण्डल की व्यवस्था तथा पाताल और नरक में विद्यमान स्थितियों का भी वर्णन हुआ है।

17 इसमें प्रचेताओं के पुत्र रूप में प्रजापति दक्ष का पुनर्जन्म तथा दक्ष की पुत्रियों की सन्तति जिससे देवताओं, असुरों, मनुष्यों, पशुओं, सर्पों, पक्षियों इत्यादि प्रजातियाँ प्रारम्भ हुई-इन सबका वर्णन हुआ है।

18 हे ब्राह्मणों, भागवत में वृत्रासुर के तथा दितिपुत्र हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकशिपु के जन्म तथा मृत्यु का और उसी के साथ दिति के महानतम वंशज, प्रह्लाद महाराज, के इतिहास का वर्णन हुआ है।

19 इसमें प्रत्येक मनु का शासनकाल, गजेन्द्र के मोक्ष तथा प्रत्येक मन्वन्तर में भगवान विष्णु के विशिष्ट अवतारों, यथा भगवान हयशीर्ष, का भी वर्णन है।

20 भागवत में कूर्म, मत्स्य, नृसिंह तथा वामन के रूप में ब्रह्माण्ड के स्वामी के प्राकट्यो एवं अमृत प्राप्ति के लिए देवताओं द्वारा क्षीरसागर के मन्थन का भी वर्णन है।

21 देवताओं तथा असुरों के बीच लड़ा गया महासंग्राम, विभिन्न राजाओं के वंशों का क्रमबद्ध वर्णन तथा इक्ष्वाकु के जन्म, उसके वंश एवं महात्मा सुद्युम्न के वंश से सम्बन्धित कथाएँ – इन सबको इस ग्रन्थ में प्रस्तुत किया गया है।

22 इसमें इला तथा तारा के इतिहास तथा सूर्यदेव के वंशजों का जिनमें शशाद तथा नृग जैसे राजा सम्मिलित हैं, वर्णन हुआ है।

23 इसमें सुकन्या, शर्याति, बुद्धिमान ककुत्स्थ, खटवांग, मान्धाता, सौभरि तथा सगर की कथाएँ कही गई हैं।

24 भागवत में कौशल के राजा भगवान रामचन्द्र की पवित्रकारिणी लीलाओं का वर्णन है और उसी के साथ यह भी बताया गया है कि राजा निमि ने किस तरह अपना भौतिक शरीर छोड़ा। इसमें राजा जनक के वंशजों की उत्पत्ति का भी उल्लेख हुआ है।

25-26 श्रीमदभागवत में वर्णन हुआ है कि किस तरह भृगुवंशियों में सबसे महान भगवान परशुराम ने पृथ्वी से सारे क्षत्रियों का संहार किया। इसमें उन यशस्वी राजाओं के जीवनों का वर्णन हुआ है, जो चन्द्रवंश में प्रकट हुए--यथा ऐल, ययाति, नहुष, दुष्मन्त पुत्र भरत, शान्तनु तथा शान्तनु पुत्र भीष्म जैसे राजा। इसके साथ ही ययाति के ज्येष्ठ पुत्र राजा यदु द्वारा स्थापित महान वंश का भी वर्णन हुआ है।

27 ब्रह्माण्ड के स्वामी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण यदुवंश में अवतरित हुए, उन्होंने वसुदेव के घर में जन्म लिया और वे गोकुल में बड़े हुए – इन सबका इसमें विस्तार से वर्णन हुआ है।

28-29 इसमें असुरों के शत्रु श्रीकृष्ण की असंख्य लीलाओं का, जिनमें पूतना के स्तनों से दुग्ध के साथ प्राण को चूस लेने, शकट-भंजन, तृणावर्त-दलन, बकासुर वध, वत्सासुर तथा अघासुर के वध की बाल-लीलाएँ और ब्रह्मा द्वारा उनके बछड़ों तथा ग्वालबाल मित्रों का गुफा में छिपाये जाने के समय की गई लीलाओं का महिमा-गायन है।

30 श्रीमदभागवत में बताया गया है कि भगवान कृष्ण तथा बलराम ने धेनुकासुर तथा उसके साथियों को मारा, बलराम ने प्रलम्बासुर का विनाश किया और किस तरह कृष्ण ने दावाग्नि से घिरे ग्वालबालों को बचाया।

31-33 कालीय नाग का दमन, विशाल सर्प से नन्द महाराज का बचाया जाना, तरुण गोपियों द्वारा कठिन व्रत किया जाना और इस तरह कृष्ण का तुष्ट होना, उन वैदिक ब्राह्मणों की पश्चाताप कर रही पत्नियों के प्रति कृपा-प्रदर्शन, गोवर्धन पर्वत के उठाये जाने के बाद इन्द्र तथा सुरभि गाय द्वारा पूजा तथा अभिषेक किया जाना, शरदऋतु रात्रि में गोपियों के साथ रास--लीला तथा शंखचूड़, अरिष्ट एवं केशी असुरों का वध–इसमें विस्तार से वर्णित हैं।

34 भागवत में अक्रूर के आने, तत्पश्चात कृष्ण तथा बलराम के जाने, गोपियों का विलाप और मथुरा भ्रमण का वर्णन मिलता है।

35 इसमें यह भी वर्णन हुआ है कि कृष्ण तथा बलराम ने कुवलयापीड़ हाथी, मुष्टिक तथा चाणूर मल्लों एवं कंस इत्यादि असुरों का वध किया और कृष्ण अपने गुरु सान्दीपनी मुनि के मृत पुत्र को वापस ले आये।

36 तत्पश्चात, हे ब्राह्मणों, इस ग्रन्थ में बतलाया गया है कि किस तरह उद्धव और बलराम के साथ मथुरा में निवास करते हुए भगवान हरि ने यदुवंश की तुष्टि के लिए लीलाएँ कीं।

37 इसके साथ ही जरासंध द्वारा लाई गई अनेक सेनाओं का संहार, बर्बर राजा कालयवन का वध तथा द्वारकापुरी की स्थापना का भी वर्णन हुआ है।

38 इस कृति में इसका भी वर्णन है कि भगवान कृष्ण किस तरह स्वर्ग से पारिजात वृक्ष, सुधर्मा सभाभवन लाये और युद्ध में अपने प्रतिद्वन्द्वियों को हराकर रुक्मिणी का हरण किया।

39 इसमें इसका भी वर्णन हुआ है कि कृष्ण ने किस तरह बाणासुर के साथ युद्ध में, शिव को जँभाई दिलाकर परास्त किया, बाणासुर की भुजाएँ काटीं, प्रागज्योतिषपुर के स्वामी को मारा तथा उसके बाद उस नगरी में बन्दी की गई कुमारियों को छुड़ाया।

40-41 भागवत में चेदीराज, पौण्ड़ृक, शाल्व, मूर्ख दन्तव्रक, शम्बर, द्विविद, पीठ, मूर, पंचजन तथा अन्य असुरों के पराक्रम तथा मृत्यु के वर्णन के साथ-साथ बनारस के जलाये जाने का वर्णन है। इसमें यह भी बताया गया है कि किस तरह कृष्ण ने पाण्डवों को कुरुक्षेत्र के युद्ध में लगाकर पृथ्वी के भार को कम किया।

42-43 भगवान द्वारा ब्राह्मण शाप के बहाने अपने वंश की समाप्ति, नारद के साथ वसुदेव का संवाद, उद्धव तथा कृष्ण के बीच असाधारण बातचीत जो आत्म-विज्ञान को विस्तार से प्रकट करनेवाली है और मानव समाज के धर्म की व्याख्या करती है और फिर भगवान कृष्ण द्वारा अपने योगबल से इस मर्त्यलोक का परित्याग करना – इन सारी घटनाओं का भागवत में वर्णन हुआ है।

44 इस कृति में विभिन्न युगों में लोगों के लक्षण तथा आचरण, कलियुग में मनुष्यों के सम्मुख आनेवाली अव्यवस्था, चार प्रकार के प्रलय तथा तीन प्रकार की सृष्टि का भी वर्णन हुआ है।

45 इसमें बुद्धिमान तथा साधु स्वभाव वाले राजा विष्णुरात (परीक्षित) के निधन का, श्रील व्यासदेव द्वारा वेदों की शाखाओं के प्रसार की व्याख्या का, मार्कण्डेय ऋषि विषयक शुभ कथा का तथा भगवान के विश्वरूप एवं ब्रह्माण्ड की आत्मा सूर्य के रूप में उनके रूप की विस्तृत व्याख्या का भी विवरण है।

46 इस प्रकार हे श्रेष्ठ-ब्राह्मण जनों, यहाँ पर तुम लोगों ने जो कुछ मुझसे पूछा था, वह सब मैंने बतला दिया। इस ग्रन्थ में भगवान के लीला अवतारों के कार्यकलापों का विस्तार से गुणगान हुआ है।

47 यदि गिरते, लड़खड़ाते, पीड़ा अनुभव करते या छींकते समय कोई विवशता से भी उच्च स्वर से "भगवान हरि की जय हो" चिल्लाता है, तो वह स्वतः सारे पापों से मुक्त हो जाता है।

48 जब लोग ठीक से भगवान की महिमा का गायन करते हैं या उनकी शक्तियों के विषय में श्रवण करते हैं, तो भगवान स्वयं उनके हृदयों में प्रवेश करते हैं और सारे दुर्भाग्य को उसी तरह दूर कर देते हैं जिस तरह सूर्य अन्धेरे को दूर करता है या कि प्रबल वायु बादलों को उड़ा ले जाती है।

49 जो शब्द दिव्य भगवान का वर्णन नहीं करते अपितु क्षणिक व्यापारों की चर्चा चलाते हैं, वे निरे झूठे तथा व्यर्थ के होते हैं। केवल वे शब्द जो भगवान के दिव्य गुणों को प्रकट करते हैं, वास्तव में, सत्य, शुभ तथा पवित्र हैं।

50 सर्वप्रसिद्ध भगवान के यश का वर्णन करनेवाले शब्द आकर्षक, आस्वाद्य तथा नित नवीन रहते हैं। निस्सन्देह, ऐसे शब्द मन के लिए शाश्वत उत्सव हैं और वे कष्ट के सागर को सुखाने वाले हैं।

51 जो शब्द उन भगवान के यश का वर्णन नहीं करते जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के वातावरण को पावन करनेवाले हैं, वे कौवों के तीर्थस्थान के समान हैं तथा ज्ञानी मनुष्य कभी भी उनका प्रयोग नहीं करते। शुद्ध तथा साधु स्वभाव वाले भक्तगण केवल अच्युत भगवान के यश को वर्णन करनेवाली कथाओं में रुचि लेते हैं।

52 दूसरी ओर जो साहित्य अनन्त भगवान के नाम, यश, रूपों, लीलाओं इत्यादि की दिव्य महिमा के वर्णनों से पूर्ण होता है, वह एक सर्वथा भिन्न सृष्टि है, जो इस संसार की गुमराह सभ्यता के अपवित्र जीवन में क्रान्ति लाने वाले दिव्य शब्दों से पूर्ण होती है। ऐसे ग्रन्थ भले ही ठीक से रचे हुए न हों, किन्तु उसे पवित्र एवं धर्मनिष्ठ साधुजनों के द्वारा सुना, गाया और स्वीकार किया जाता है।

53 आत्म-साक्षात्कार का ज्ञान समस्त भौतिक आसक्ति से मुक्त होते हुए भी ठीक से काम नहीं करता यदि वह अच्युत (ईश्वर) के भाव से विहीन हो। तब अच्छे से अच्छे सम्पन्न कर्म जो प्रारम्भ से पीड़ादायक तथा क्षणिक स्वभाव के होते हैं, किस काम के हो सकते हैं यदि उनका उपयोग भगवान की भक्ति के लिए नहीं किया जाता?

54 वर्णाश्रम प्रणाली में सामान्य सामाजिक तथा धार्मिक कर्तव्यों को निबाहने में, तपस्या करने तथा वेदों को श्रवण करने में जो महान उद्यम करना पड़ता है, उससे मात्र संसारी यश तथा ऐश्वर्य की ही उपलब्धि हो पाती है। किन्तु भगवान लक्ष्मीपति के दिव्य गुणों का आदर करने तथा ध्यानपूर्वक उनका पाठ सुनने से मनुष्य उनके चरणकमलों का स्मरण कर सकता है।

55 भगवान कृष्ण के चरणकमलों की स्मृति प्रत्येक अशुभ वस्तु को नष्ट करती है और परम सौभाग्य प्रदान करती है। यह हृदय को परिशुद्ध बनाती है और परमात्मा की भक्ति के साथ-साथ अनुभूति तथा त्याग से युक्त ज्ञान प्रदान करती है।

56 हे सुप्रसिद्ध ब्राह्मणों! निस्सन्देह तुम सब अत्यन्त भाग्यशाली हो क्योंकि तुम लोगों ने पहले ही अपने हृदयों में भगवान श्री नारायण को – परम नियन्ता तथा सारे जगत के परम आत्मा भगवान को – धारण कर रखा है जिनसे बढ़कर कोई अन्य देव नहीं है। तुम लोगों में उनके लिए अविचल प्रेम है, अतएव तुम लोग उनकी पूजा करो, ऐसा मैं अनुरोध करता हूँ।

57 अब मुझे उस ईश-विज्ञान का पूरी तरह स्मरण हो आया है, जिसे मैंने महर्षियों की सभा में – महर्षि श्रील शुकदेव गोस्वामी के मुख से, मृत्युपर्यन्त उपवास पर बैठे महाराज परीक्षित से कहते हुए-सुना था।

58 हे ब्राह्मणों, इस तरह मैंने तुम लोगों से भगवान वासुदेव की महिमा का वर्णन किया जिनके असामान्य कार्य स्तुति के योग्य हैं। यह वर्णन समस्त अशुभ का विनाश करने वाला है।

59 जो व्यक्ति अविचल भाव से इस ग्रन्थ को प्रत्येक घंटे के प्रत्येक क्षण निरन्तर सुनाता है तथा जो व्यक्ति एक अथवा आधा श्लोक, अथवा एक या आधी पंक्ति श्रद्धा भाव से सुनता है, वह अपने को पवित्र बना लेता है।

60 जो कोई इस भागवत को एकादशी या द्वादशी के दिन सुनता है उसे निश्चित रूप से दीर्घायु प्राप्त होती है और जो व्यक्ति उपवास रखते हुए इसे ध्यानपूर्वक सुनाता है, वह सारे पापों के फल से शुद्ध हो जाता है।

61 जो व्यक्ति मन को वश में रखता है, जो पुष्कर, मथुरा या द्वारका जैसे पवित्र स्थानों में उपवास रखता है और इस शास्त्र का अध्ययन करता है, वह सारे भय से मुक्त हो जाता है।

62 जो व्यक्ति इस पुराण का कीर्तन करके अथवा इसको सुनकर इसकी स्तुति करते हैं उन्हें देवता, ऋषि, सिद्ध, पितर, मनु तथा पृथ्वी के राजा समस्त वांछित वस्तुएँ प्रदान करते हैं।

63 इस भागवत को पढ़कर एक ब्राह्मण वैसी ही शहद, घी तथा दूध की नदियों को भोग सकता है जैसी वह ऋग, यजुर तथा सामवेदों के मंत्रों का अध्ययन करके भोग सकता है।

64 जो ब्राह्मण समस्त पुराणों के इस अनिवार्य संकलन को कर्तव्यपरायणता से पढ़ता है, वह परम गन्तव्य को प्राप्त होता है, जिसका वर्णन स्वयं भगवान ने इस ग्रन्थ में किया है।

65 जो ब्राह्मण श्रीमदभागवत को पढ़ता है, वह भक्ति में अविचल बुद्धि प्राप्त करता है। जो राजा इसका अध्ययन करता है, वह पृथ्वी पर सारभौम सत्ता प्राप्त करता है, वैश्य विपुल कोश पा लेता है और शूद्र पापों से छूट जाता है।

66 सारे जीवों के परम नियन्ता भगवान हरि कलियुग के संचित पापों का संहार करनेवाले हैं, फिर भी अन्य ग्रन्थों में उनकी स्तुति नहीं मिलती। किन्तु असंख्य साकार अंशों के रूप में प्रकट होनेवाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान इस श्रीमदभागवत की विविध कथाओं में निरन्तर तथा प्रचुरता से वर्णित हुए हैं।

67 मैं अजन्मे तथा अनन्त परमात्मा को नमन करता हूँ जिनकी निजी शक्तियाँ ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के लिए उत्तरदायी हैं। ब्रह्मा, शंकर, इन्द्रादि भी उन अच्युत भगवान की महिमा की थाह नहीं पा सकते।

68 मैं उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को नमस्कार करता हूँ जो शाश्वत, स्वामी हैं और अन्य सारे देवों के प्रधान हैं, जिन्होंने अपनी नौ शक्तियों को विकसित करके अपने भीतर सारे चर तथा अचर प्राणियों का धाम व्यवस्थित कर रखा है और जो सदैव शुद्ध दिव्य चेतना में स्थित रहते हैं।

69 मैं अपने गुरु व्यासदेव-पुत्र, श्रील शुकदेव गोस्वामी, को सादर नमस्कार करता हूँ। वे ही इस ब्रह्माण्ड की सारी अशुभ वस्तुओं को नष्ट करते हैं। यद्यपि प्रारम्भ में वे ब्रह्म-साक्षात्कार के सुख में लीन थे और अन्य समस्त चेतनाओं को त्यागकर एकान्त स्थान में रह रहे थे, किन्तु वे भगवान श्रीकृष्ण की मनोहर तथा अत्यन्त मधुमयी लीलाओं के द्वारा आकृष्ट हुए। अतएव उन्होंने अत्यन्त कृपा करके इस सर्वश्रेष्ठ पुराण, श्रीमदभागवत, का प्रवचन किया जो परम सत्य का तेज प्रकाश है और भगवान के कार्यकलापों का वर्णन करनेवाला है।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

 

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अध्याय ग्यारह – महापुरुष का संक्षिप्त वर्णन (12.11)

1 श्री शौनक ने कहा: हे सूत, आप सर्वश्रेष्ठ विद्वान तथा भगवद्भक्त हैं। अतएव अब हम आपसे समस्त तंत्र शास्त्रों के अन्तिम निर्णय के विषय में पूछते हैं।

2-3 आपका कल्याण हो, कृपा करके हम जिज्ञासुओं को लक्ष्मीपति दिव्य भगवान की नियमित पूजा द्वारा सम्पन्न की जानेवाली क्रिया योग विधि बतायें। कृपा करके यह भी बतलायें कि भक्तगण उनके अंगों, संगियों, आयुधों तथा आभूषणों की किन विशेष भौतिक वस्तुओं से कल्पना करते हैं। भगवान की दक्षतापूर्वक पूजा करके मर्त्य प्राणी अमरता प्राप्त कर सकता है।

4 सूत गोस्वामी ने कहा; मैं अपने गुरुओं को नमस्कार करके कमल से उत्पन्न ब्रह्मा इत्यादि महान विद्वानों द्वारा वेदों तथा तंत्रों में दिये हुए भगवान के ऐश्वर्यों का वर्णन पुनः करूँगा।

5 भगवान का विराट रूप अव्यक्त प्रकृति तथा परवर्ती विकारों इत्यादि से युक्त सृष्टि के नौ मूलभूत तत्त्वों से बना है। एक बार चेतना द्वारा इस विराट रूप को अधिष्ठित करने पर इसमें तीनों लोक दिखाई पड़ने लगते हैं।

6-8 यह भगवान का विराट रूप है, जिसमें पृथ्वी उनके पाँव, आकाश उनकी नाभि, सूर्य उनकी आँखें, वायु उनके नथुने, प्रजापति उनके जननांग, मृत्यु उनकी गुदा तथा चन्द्रमा उनका मन है। स्वर्गलोक उनका सिर, दिशाएँ उनके कान तथा विभिन्न लोकपाल उनकी अनेक भुजाएँ हैं। यमराज उनकी भौंहें, लज्जा उनका निचला होंठ, लालच उनका ऊपरी होंठ, भ्रम उनकी मुसकान तथा चाँदनी उनके दाँत है, जबकि वृक्ष उन सर्वशक्तिमान पुरुष के शरीर के रोम हैं और बादल उनके सिर के बाल हैं।

9 जिस तरह इस जगत के सामान्य पुरुष के आकार-प्रकार को उसके विविध अंगों के मापन से निश्चित किया जा सकता है, उसी तरह महापुरुष के विराट रूप के अन्तर्गत लोकों की व्यवस्था की प्रमाप से महापुरुष का आकार-प्रकार जाना जा सकता है।

10 सर्वशक्तिमान अजन्मा भगवान अपने वक्षस्थल पर शुद्ध आत्मा का प्रतिनिधित्व करनेवाला कौस्तुभ मणि और उसी के साथ इस मणि के विस्तृत तेज का प्रत्यक्ष स्वरूप, श्रीवत्स चिन्ह, धारण किये रहते हैं।

11-12 उनकी वनमाला – भौतिक माया है, जो प्रकृति के गुणों के विविध मिश्रण से युक्त है। उनका पीत वस्त्र वैदिक छन्द हैं और उनका जनेऊ तीन ध्वनियों वाला ॐ अक्षर है। अपने दो मकराकृत कुण्डलों के रूप में भगवान सांख्य तथा योग की विधियाँ धारण करते हैं। उनका मुकुट जो सारे लोकवासियों को अभय प्रदान करता है, ब्रह्मलोक का परम पद है।

13 भगवान का आसन, अनन्त, भौतिक प्रकृति की अव्यक्त अवस्था है और भगवान का कमल सिंहासन, सतोगुण है, जो धर्म तथा ज्ञान से समन्वित है।

14-15 भगवान जो गदा धारण किये रहते हैं वह इन्द्रिय, मन, शरीर सम्बन्धी शक्तियों से युक्त मुख्य तत्त्व प्राण है। उनका उत्कृष्ट शंख जल तत्त्व है। उनका सुदर्शन चक्र अग्नि तत्त्व है और उनकी तलवार जोकि आकाश के समान निर्मल है, आकाश तत्त्व है। उनकी ढाल तमोगुण, उनका शार्ङ्ग नामक धनुष काल तथा उनका तरकस कर्मेन्द्रियाँ हैं।

16 उनके बाण इन्द्रियाँ हैं और उनका रथ चंचल वेगवान मन है। उनका बाह्य स्वरूप तन्मात्राएँ हैं और उनके हाथ के इशारे (मुद्राएँ) सार्थक क्रिया के सार हैं।

17 सूर्य मण्डल ही वह स्थान है जहाँ भगवान पूजे जाते हैं; दीक्षा ही आत्मा की शुद्धि का साधन है और भगवान की भक्ति करना ही किसी के पापों को समूल नष्ट करने की विधि है।

18 लीलाकमल को जोकि भग शब्द से विभिन्न ऐश्वर्यों का सूचक है सहज रुप में धारण करते हुए भगवान, धर्म तथा यशरूपी दो चामरों से सेवित हैं।

19 हे ब्राह्मणों, भगवान का छत्र उनका धाम वैकुण्ठ है जहाँ कोई भय नहीं है और यज्ञ के स्वामी को ले जाने वाला गरुड़, तीनों वेद हैं।

20 भगवती श्री, जो भगवान का संग कभी नहीं छोड़तीं, उनके साथ उनकी अन्तरंगा शक्ति के रूप में इस जगत में प्रकट होती हैं। विष्वक्सेन जोकि भगवान के निजी संगियों में प्रमुख हैं, पंचरात्र तथा अन्य तंत्रों के रूप में विख्यात हैं और नन्द इत्यादि भगवान के आठ द्वारपाल उनकी अणिमादिक योग सिद्धियाँ हैं।

21 हे ब्राह्मण शौनक – वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध – ये भगवान के साक्षात अंशों (चतुर्व्युह) के नाम हैं।

22 मनुष्य भगवान की कल्पना जागृत, सुप्त तथा सुषुप्त अवस्थाओं में कर सकता है, जो क्रमशः बाह्य वस्तुओं, मन तथा भौतिक बुद्धि के माध्यम से कार्य करती हैं। एक चौथी अवस्था भी है, जो चेतना का दिव्य स्तर है और शुद्ध ज्ञान के लक्षण वाली है।

23 इस प्रकार भगवान हरि चार साकार अंशों (मूर्तियों) के रूप में प्रकट होते हैं जिनमें से हर अंश प्रमुख अंग, गौण अंग, आयुध तथा आभूषण से युक्त होता है। इन स्पष्ट स्वरूपों से भगवान चार अवस्थाओं को बनाये रखते हैं।

24 हे ब्राह्मण-श्रेष्ठ, एकमात्र वे ही आत्म-प्रकाशित, वेदों के आदि स्रोत, परिपूर्ण तथा अपनी महिमा में पूर्ण हैं। वे अपनी मायाशक्ति से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का सृजन, पालन तथा संहार करते हैं। चूँकि वे विविध भौतिक कार्यों के कर्ता हैं अतएव कभी कभी उन्हें विभक्त कहा जाता है फिर भी वे शुद्ध ज्ञान में स्थित बने रहते हैं। जो लोग उनकी भक्ति में लगे हुए हैं, वे उन्हें अपनी असली आत्मा के रूप में अनुभव कर सकते हैं।

25 हे कृष्ण, हे अर्जुन के सखा, हे वृष्णिवंशियों के प्रमुख, आप इस पृथ्वी पर उत्पात मचाने वाले राजनीतिक पक्षों के संहारक हैं। आपका पराक्रम कभी घटता नहीं। आप दिव्य धाम के स्वामी हैं और आपकी पवित्र महिमा जो वृन्दावन के गोपों, गोपियों तथा उनके सेवकों द्वारा गाई जाती है, सुनने मात्र से सर्वमंगलदायिनी है। हे प्रभु, आप अपने भक्तों की रक्षा करें।

26 जो कोई प्रातःकाल जल्दी उठता है और शुद्ध मन को महापुरुष में स्थिर करके, उनके गुणों का यह वर्णन मन ही मन जपता है, वह उन्हें अपने हृदय के भीतर निवास करनेवाले परमात्मा के रूप में अनुभव करेगा।

27-28 श्री शौनक ने कहा: कृपया आपके वचनों में अत्यन्त श्रद्धा रखने वाले हमसे उन सात साकार रूपों तथा संगियों के विभिन्न समूहों का वर्णन उनके नामों तथा कार्यों समेत करें जिन्हें सूर्यदेव प्रति मास प्रदर्शित करते हैं। सूर्यदेव के संगी, जो अपने स्वामी की सेवा करते हैं, सूर्यदेव के अधिष्ठाता देवता के रूप में भगवान हरि के स्वांश हैं।

29 सूत गोस्वामी ने कहा: सूर्य समस्त ग्रहों के बीच भ्रमण करता है और उनकी गतियों को नियमित करता है। इसे समस्त देहधारियों के परमात्मा, भगवान विष्णु, ने अपनी अनादि भौतिक शक्ति के द्वारा उत्पन्न किया है।

30 भगवान हरि से अभिन्न होने के कारण सूर्यदेव सारे जगतों तथा उनके आदि स्रष्टा की अकेली आत्मा हैं। वे वेदों द्वारा बताए गये समस्त कर्मकाण्ड के उद्गम हैं और वैदिक ऋषियों ने उन्हें तरह-तरह के नाम दिये हैं।

31 हे शौनक, माया का स्रोत होने से भगवान हरि के अंश रूप सूर्यदेव को नौ प्रकार से – काल, देश, क्रिया, कर्ता, उपकरण, अनुष्ठान, शास्त्र, पूजा की साज-सामग्री तथा प्राप्तव्य फल के अनुसार वर्णित किया गया है।

32 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान अपनी कालशक्ति को सूर्यदेव के रूप में प्रकट करके मधु इत्यादि बारहों महीनों में ब्रह्माण्ड के भीतर ग्रहों की गति को नियमित करने हेतु इधर-उधर यात्रा करते हैं। बारहों महीनों सूर्यदेव के साथ यात्रा करनेवाला छह संगियों का पृथक-पृथक समूह है।

33 हे मुनि, मधु मास को धाता सूर्यदेव के रूप में, कृतस्थली अप्सरा रूप में, हेति राक्षस रूप में, वासुकि नाग के रूप में, रथकृत यक्ष रूप में, पुलस्त्य मुनि रूप में तथा तुम्बुरु गन्धर्व के रूप में, शासन करते हैं।

34 माधव मास पर अर्यमा सूर्य रूप में, पुलह मुनि, अथौजा यक्ष, प्रहेति राक्षस, पुञ्जीकस्थली अप्सरा, नारद, गन्धर्व तथा कच्छनीर नाग के रूप में, शासन करते हैं।

35 शुक्र मास पर मित्र सूर्यदेव के रूप में, अत्री मुनि, पौरुषेय राक्षस, तक्षक नाग, मेनका अप्सरा, हहा गन्धर्व तथा रथस्वन यक्ष के रूप में, शासन चलाते हैं।

36 शुचि मास पर वसिष्ठ ऋषि के रूप में, वरुण सूर्यदेव, रम्भा अप्सरा, सहजन्य राक्षस, हूहू गन्धर्व, शुक्र नाग तथा चित्रस्वन यक्ष के रूप में शासन करते हैं।

37 नभस (श्रवण) मास पर इन्द्र सूर्यदेव के रूप में, विश्वासु गन्धर्व, श्रोता यक्ष, एलापत्र नाग, अंगिरा मुनि, प्रम्लोचा अप्सरा तथा वर्य राक्षस के रूप में, शासन करते हैं।

38 नभस्य मास में विवस्वान सूर्यदेव के रूप में, उग्रसेन गन्धर्व, व्याघ्र राक्षस, आसारण यक्ष, भृगु मुनि, अनुम्लोचा अप्सरा तथा शंखपाल नाग के रूप में शासन चलाते हैं।

39 तपस मास पर पूषा सूर्यदेव के रूप में, धन्जय नाग, वात राक्षस, सुषेण गन्धर्व, सुरुचि यक्ष, घृताची अप्सरा तथा गौतम मुनि के रूप में शासन करते हैं।

40 तपस्य नामक मास पर ऋतु यक्ष के रूप में वर्चा राक्षस, भरद्वाज मुनि, पर्जन्य सूर्यदेव, सेनजित अप्सरा, विश्व गन्धर्व तथा ऐरावत नाग के रूप में शासन चलाते हैं।

41 सहस मास पर अंशु सूर्यदेव के रूप में, कश्यप मुनि, तार्क्ष्य यक्ष, ऋतसेन गन्धर्व, उर्वशी अप्सरा, विद्युच्छत्रु राक्षस तथा महाशंख नाग के रूप में शासन चलाते हैं।

42 पुष्य मास पर भग सूर्य के रूप में, स्फूर्ज राक्षस, अरिष्टिनेमि गन्धर्व, ऊर्ण यक्ष, आयुर मुनि, कर्कोटक नाग तथा पूर्वचित्ति अप्सरा के रूप में शासन चलाते है।

43 इष मास का त्वष्टा सूर्यदेव के रूप में, ऋचीक-पुत्र जमदग्नि मुनि, कम्बलाश्व नाग, तिलोत्तमा अप्सरा, ब्रह्मापेत राक्षस, शतजित यक्ष तथा धृतराष्ट्र गन्धर्व के रूप में, पालन-पोषण करते हैं।

44 ऊर्ज मास पर विष्णु सूर्यदेव के रूप में, अश्वतर नाग, रम्भा अप्सरा, सूर्यवर्चा गन्धर्व, सत्यजित यक्ष, विश्वामित्र मुनि तथा मखापेट राक्षस के रूप में, शासन करते हैं।

45 ये सारे पुरुष सूर्यदेव के रूप में भगवान विष्णु के ऐश्वर्यशाली अंश हैं। ये देव उन लोगों के सारे पापों को दूर कर देते हैं, जो प्रत्येक सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय उनका स्मरण करते हैं।

46 इस प्रकार बारहों महीने सूर्यदेव अपने छह प्रकार के संगियों के साथ सभी दिशाओं में विचरण करते हुए इस ब्रह्माण्ड के निवासियों में इस जीवन तथा अगले जीवन के लिए शुद्ध चेतना का विस्तार करते रहते हैं।

47-48 एक ओर जहाँ ऋषिगण सूर्यदेव की पहचान को प्रकट करनेवाले साम, ऋग तथा यजुर्वेदों के स्तोत्रों द्वारा सूर्यदेव की स्तुति करते हैं, वही गन्धर्वगण भी उनकी प्रशंसा करते हैं तथा अप्सराएँ उनके रथ के आगे-आगे नृत्य करती हैं; नागगण रथ की रस्सियों को कसते हैं और यक्षगण रथ में घोड़ों को जोतते हैं जबकि प्रबल राक्षसगण रथ को पीछे से धकेलते हैं।

49 रथ की ओर मुँह किये साठ हजार वाल्खिल्य नामक ब्रह्मर्षि आगे-आगे चलते हैं और वैदिक मंत्रों द्वारा सर्वशक्तिमान सूर्यदेव की स्तुति करते हैं।

50 इस तरह अजन्मा, अनादि तथा अनन्त भगवान सारे लोकों की रक्षा हेतु, ब्रह्मा के प्रत्येक दिन में अपना विस्तार अपने इन विशेष निजी स्वरूपों में करते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय दस – शिवजी तथा उमा द्वारा मार्कण्डेय ऋषि का गुणगान (12.10)

1 सूत गोस्वामी ने कहा: भगवान नारायण के द्वारा नियोजित मोहमयी शक्ति के ऐश्वर्यशाली प्रदर्शन का अनुभव करके मार्कण्डेय ऋषि ने भगवान की शरण ग्रहण की।

2 श्री मार्कण्डेय ने कहा: हे भगवान हरि, शरण ग्रहण करनेवालों को अभय दान देने वाले आपके चरणकमलों के तलवों की, मैं शरण ग्रहण करता हूँ। बड़े-बड़े देवता भी आपकी माया से मोहित रहते हैं जो ज्ञान के रूप में उनके समक्ष प्रकट होती है।

3 सूत गोस्वामी ने कहा: एक बार जब भगवान शिवजी – माता पार्वती सहित आकाश से होकर यात्रा कर रहे थे, तो उन्होंने मार्कण्डेय ऋषि को ध्यान-समाधि में लीन देखा।

4 ऋषि को देखकर देवी उमा ने प्रभु गिरीश से कहा, “हे स्वामी, शरीर, मन तथा इन्द्रियों को समाधि में अचल किये हुए इस विद्वान ब्राह्मण को देखिये।"

5 वह उस समुद्र के जल की तरह शान्त है जब वायु बन्द हो जाती है और मछलियाँ स्थिर हो जाती हैं। हे प्रभु! चूँकि आप तपस्या करनेवाले को सिद्धि प्रदान करते हैं, अतः इस ऋषि को सिद्धि प्रदान करें।

6 शिवजी ने उत्तर दिया: निश्चय ही, यह सन्त-ब्राह्मण किसी वर की, यहाँ तक कि मोक्ष तक की भी कामना नहीं करता क्योंकि इसने भगवान अव्यय की शुद्ध भक्ति प्राप्त कर ली है।

7 तो भी हे भवानी, चलो हम इस सन्त पुरुष से बातें करें। निस्सन्देह, सन्त भक्तों की संगति मनुष्यों के लिये सर्वोत्तम लाभ है।

8 तत्पश्चात शुद्धात्माओं के आश्रय, समस्त आध्यात्मिक विद्याओं के स्वामी तथा समस्त देहधारी जीवों के नियन्ता भगवान शंकर उस ऋषि के पास गये।

9 चूँकि मार्कण्डेय का भौतिक मन कार्य करना बन्द कर चुका था अत: वे ब्रह्माण्ड के नियन्ता शिव तथा माता पार्वती का आना देख नहीं पाये। मार्कण्डेय ध्यान में इतने लीन थे कि उन्हें अपनी या बाह्य जगत की कोई सुध-बुध नहीं थी।

10 स्थिति से भलीभाँति परिचित होने पर, शक्तिमान शिवजी ने मार्कण्डेय के हृदय-आकाश के भीतर प्रविष्ट होने के लिए योगशक्ति का प्रयोग किया जिस तरह वायु छेद में से प्रवेश कर जाती है।

11-13 श्री मार्कण्डेय ने सहसा भगवान शिव को अपने हृदय के भीतर प्रकट हुए देखा। शिवजी के केश बिजली के समान सुनहरे, तीन नेत्र, दस भुजाएँ तथा ऊँचा शरीर था, जो उदय हो रहे सूर्य की तरह चमक रहा था। वे व्याघ्र चर्म पहने थे और त्रिशूल, धनुष, बाण, तलवार तथा ढाल लिए थे। वे जपमाला, डमरू, कपाल तथा परशु भी लिए थे।

14 मुनि ने चकित होकर अपनी आँखें खोल दी और तीनों जगत के गुरु भगवान रुद्र को उमा तथा उनके गणों समेत देखा। तब मार्कण्डेय ने सिर के बल झुककर उन्हें सादर नमस्कार किया।

15 मार्कण्डेय ने उमा तथा शिव के गणों समेत शिवजी की पूजा स्वागतपूर्ण वचनों, आसन, पाँव धोने के लिए जल, सुगन्धित तेल, फूल-मालाओं तथा दीप-आरती द्वारा की।

16 मार्कण्डेय ने कहा: हे विभु, अपने ही आनन्द में सदैव तुष्ट रहनेवाले, आपके लिए, मैं क्या कर सकता हूँ? निस्सन्देह, आप अपनी कृपा से इस सारे जगत को तुष्ट करते हैं।

17 हे सर्वमंगलकारी दिव्य पुरुष, मैं बारम्बार आपको नमस्कार करता हूँ। सतोगुण के स्वामी के रूप में आप आनन्द के दाता हैं, रजोगुण के सम्पर्क में आप अत्यन्त भयावने लगते हैं और तमोगुण से भी आप सान्निध्य रखते हैं।

18 सूत गोस्वामी ने कहा: देवताओं में अग्रणी तथा साधु भक्तों के आश्रय रूप भगवान शिव, मार्कण्डेय की स्तुति से तुष्ट हो गये। प्रसन्न होने के कारण वे मन्द मन्द हँसे और मुनि से बोले।

19 शिवजी ने कहा: तुम मुझसे कोई वर माँगो क्योंकि वर देने वालों में से हम तीन – ब्रह्मा, विष्णु तथा मैं – सर्वश्रेष्ठ हैं। हमारा दर्शन व्यर्थ नहीं जाता क्योंकि हमारे दर्शन मात्र से मर्त्य प्राणी अमरता प्राप्त कर लेता है।

20-21 ब्रह्मा, भगवान हरि तथा मुझ समेत सारे लोकों के निवासी एवं अधिशासक देवता उन ब्राह्मणों की वन्दना, पूजा तथा सहायता करते हैं, जो सन्त स्वभाव के, सदैव शान्त, भौतिक आसक्ति से रहित, समस्त जीवों पर दयालु, हमारे प्रति शुद्ध भक्ति से युक्त, घृणा से रहित एवं समदृष्टि से युक्त होते हैं।

22 ये भक्तगण भगवान विष्णु, ब्रह्मा तथा मुझमें अन्तर नहीं करते, न ही वे अपने तथा अन्य जीवों के बीच भेद करते हैं। तुम इसी तरह के सन्त भक्त हो, इसलिए हम तुम्हारी पूजा करते हैं।

23 सभी जलाशय तीर्थस्थान नहीं होते, न ही देवताओं की निर्जीव मूर्तियाँ वास्तविक पूज्य अर्चाविग्रह होती हैं। चूँकि बाह्य दृष्टि पवित्र नदियों तथा देवताओं के उच्च आशय को समझ नहीं पाती, इसलिए ये दीर्घकाल बाद ही पवित्र बना पाते हैं। किन्तु तुम जैसे भक्त, दर्शन मात्र से, पवित्र कर देते हैं।

24 परमात्मा का ध्यान करके, तपस्या करके, वेदाध्ययन करके तथा विधि-विधानों का पालन करके, ब्राह्मणजन अपने भीतर तीनों वेदों को, जोकि विष्णु, ब्रह्मा तथा मुझसे अभिन्न हैं, धारण कर लेते हैं। इसलिए मैं ब्राह्मणों को नमस्कार करता हूँ।

25 अधम से अधम पापी तथा अछूत भी तुम जैसे पुरुषों के श्रवण करने या दर्शन करने से शुद्ध बन जाते हैं। तब जरा कल्पना करो कि प्रत्यक्ष तुमसे बात करने से वे कितने शुद्ध बन जाते हैं?

26 सूत गोस्वामी ने कहा: भगवान शिव के अमृत तुल्य शब्दों को, जोकि धर्म के गुह्य सार से पूरित थे, अपने कानों से पीते हुए मार्कण्डेय ऋषि अभी तुष्ट नहीं हुए थे।

27 भगवान विष्णु की माया द्वारा प्रलय के जल में दीर्घकाल तक भटकते रहने के लिए बाध्य होने के कारण मार्कण्डेय अत्यधिक थक चुके थे। किन्तु शिवजी के अमृत तुल्य शब्दों से उनका संचित क्लेश नष्ट हो गया। अतः वे शिवजी से बोले।

28 श्री मार्कण्डेय ने कहा: देहधारी जीवों के लिए ब्रह्माण्ड के नियन्ताओं की लीलाओं को समझ पाना सबसे कठिन है क्योंकि ऐसे प्रभु अपने ही द्वारा शासित जीवों को सिर झुकाते तथा उनकी स्तुति करते हैं।

29 सामान्यतया देहधारी जीवों को धार्मिक सिद्धान्त स्वीकार करने हेतु प्रेरित करने के लिए ही प्रामाणिक धर्माचार्य, अन्यों को प्रोत्साहित करके तथा उनके आचरण की प्रशंसा करके, आदर्श आचरण प्रदर्शित करते हैं।

30 यह ऊपरी विनयशीलता दया का दिखावा मात्र है। भगवान तथा उनके संगियों का ऐसा आचरण, जिसे भगवान अपनी मोहिनी शक्ति से दिखलाते हैं, उनकी शक्ति को नहीं बिगाड़ता जिस तरह जादूगर की शक्तियाँ जादूगरी की करामातें दिखाने से घटती नहीं।

31-32 मैं उन भगवान को नमस्कार करता हूँ जिन्होंने अपनी इच्छा मात्र से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सृष्टि की और फिर उसमें परमात्मा रूप में प्रविष्ट हो गये। वे प्रकृति के गुणों को क्रियाशील बनाकर इस जगत के प्रत्यक्ष स्रष्टा प्रतीत होते हैं जिस तरह स्वप्न देखने वाला अपने स्वप्न के भीतर कर्म करता प्रतीत होता है। वे प्रकृति के तीनों गुणों के स्वामी और परम नियन्ता हैं, फिर भी वे पृथक रहते हैं और शुद्ध तथा अद्वितीय हैं। वे सबों के परम गुरु तथा परम सत्य के आदि साकार रूप हैं।

33 हे सर्वव्यापक प्रभु, चूँकि मुझे आपका दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका है, इसलिए मैं आपसे अन्य किस वर की याचना करूँ? केवल आपके दर्शन मात्र से मनुष्य की सारी इच्छाएँ पूरी हो जाती हैं और वह कोई भी कल्पित कार्य सम्पन्न कर सकता है।

34 आप समस्त सिद्धि में पूर्ण हैं और समस्त इच्छाओं की पूर्ति की वर्षा करने में समर्थ हैं अतः मैं आपसे एक वर माँगता हूँ। मैं आपसे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की तथा उनके समर्पित भक्तों की, विशेष रूप से आपकी, अच्युत भक्ति के लिए याचना करता हूँ।

35 सूत गोस्वामी ने कहा: मुनि मार्कण्डेय के वाक्पटु कथनों द्वारा पूजित तथा प्रशंसित भगवान शर्व (शिव) ने अपनी प्रिया द्वारा प्रोत्साहित किये जाने पर उनसे इस प्रकार कहा।

36 हे महर्षि, तुम भगवान अधोक्षज के प्रति समर्पित हो, इसलिए तुम्हारी सारी इच्छाएँ पूरी होंगी। इस सृष्टि चक्र के अन्त तक तुम पवित्र यश तथा वृद्धावस्था एवं मृत्यु से मुक्ति का भोग करोगे।

37 हे ब्राह्मण, तुम्हें भूत, वर्तमान तथा भविष्य का पूर्ण ज्ञान और उसी के साथ वैराग्य से युक्त परम पुरुष की दिव्य अनुभूति प्राप्त हो। तुम्हारे पास आदर्श ब्राह्मण का तेज है, जिससे तुम पुराणों के आचार्य का पद पा सको।

38 सूत गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार मार्कण्डेय ऋषि को वर देकर शिवजी, देवी पार्वती से ऋषि की उपलब्धियों का तथा उनके द्वारा अनुभव की गई भगवान की माया के प्रत्यक्ष प्रदर्शन का वर्णन करते हुए प्रस्थान कर गये।

39 श्रेष्ठ भृगुवंशी मार्कण्डेय ऋषि अपनी योगसिद्धि की उपलब्धि के कारण यशस्वी हैं। आज भी वे इस जगत में भगवान की अनन्य भक्ति में पूरी तरह लीन होकर विचरण करते हैं।

40 इस तरह मैंने तुमसे अत्यन्त बुद्धिमान ऋषि मार्कण्डेय के कार्यकलापों का, विशेष रूप से जिस तरह उन्होंने भगवान की माया की अद्भुत शक्ति का अनुभव किया, वर्णन कर दिया।

41 यद्यपि यह घटना अद्वितीय तथा अभूतपूर्व थी, किन्तु कुछ अज्ञानी लोग इसकी तुलना बद्धजीवों के लिए भगवान द्वारा रचित मायामय जगत के चक्र से करते हैं – ऐसा अन्तहीन चक्र जो अनन्त काल से चला आ रहा है।

42 हे श्रेष्ठ भृगुवंशी, मार्कण्डेय ऋषि से सम्बन्धित यह विवरण रथ के पहिये को हाथ में धारण करने वाले भगवान श्री हरि की दिव्य शक्ति से सिक्त है। जो कोई इसका ठीक से वर्णन करता है या इसे सुनता है, उसे सकाम कर्म करने की इच्छा पर आधारित भौतिक जगत में पुनः नहीं आना होगा।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय नौ – मार्कण्डेय ऋषि को भगवान की मायाशक्ति के दर्शन (12.9)

1 सूत गोस्वामी ने कहा: नर के मित्र भगवान नारायण, बुद्धिमान मुनि मार्कण्डेय द्वारा की गई उपयुक्त स्तुति से तुष्ट हो गये। अतएव वे उन श्रेष्ठ भृगुवंशी से बोले।

2 भगवान ने कहा: हे मार्कण्डेय, तुम समस्त विद्वान ब्राह्मणों में श्रेष्ठ हो। तुमने अविचल भक्ति, तपस्या, वेदाध्ययन एवं विधि-विधानों द्वारा परमात्मा पर ध्यान स्थिर करके अपने जीवन को सफल बना लिया है।

3 हम तुम्हारे आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत से पूर्णतया संतुष्ट हैं, तुम्हारा कल्याण हो। मैं समस्त वर देने वालों का स्वामी हूँ, अतः जो चाहो, वह वर चुन लो।

4 ऋषि ने कहा: हे देव-देवेश, आपकी जय हो। हे अच्युत, आप उन भक्तों का सारा कष्ट दूर कर देते हैं, जो आपके शरणागत हैं। आपने कृपा करके मुझे अपना दर्शन दिया, यही मेरे द्वारा चाहा गया वर है।

5 ब्रह्मा जैसे देवताओं ने आपके सुन्दर चरणकमलों का दर्शन करके ही उच्च पद प्राप्त किया क्योंकि उनके मन योगाभ्यास से परिपक्व हो चुके थे और हे प्रभु, अब आप मेरे समक्ष साक्षात प्रकट हुए हैं।

6 हे कमलनयन, हे विख्यात पुरुषों के शिरोमणि, यद्यपि मैं मात्र आपका दर्शन करके तुष्ट हूँ किन्तु मैं आपकी मायाशक्ति को देखना चाहता हूँ जिसके प्रभाव से सम्पूर्ण जगत तथा उसके अधिष्ठाता देवता सत्य को भौतिक दृष्टि से विविधतापूर्ण मानते हैं।

7 सूत गोस्वामी ने कहा: हे विज्ञ शौनक, मार्कण्डेय की स्तुति तथा पूजा से इस तरह तुष्ट हुए भगवान ने मन्द हास के साथ उत्तर दिया "तथास्तु" और तब बदरिकाश्रम स्थित अपने आश्रम चले गये।

8-9 मार्कण्डेय ऋषि –अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, जल, पृथ्वी, वायु, वियत (बिजली) तथा अपने हृदय में भगवान का निरन्तर ध्यान करते हुए और मन में कल्पित साज-सामग्री से उनकी पूजा करते हुए, भगवान की माया का दर्शन करने की इच्छा के विषय में सदैव चिन्तन करते रहे। वे कभी-कभी भगवतप्रेम की तरंगों से अभिभूत होकर नियमित पूजा करना भूल जाते।

10 हे ब्राह्मण शौनक, हे भृगुश्रेष्ठ, एक दिन जब मार्कण्डेय पुष्पभद्रा नदी के तट पर संध्याकालीन पूजा कर रहे थे तो सहसा तेज वायु चलने लगी।

11 वायु अपने साथ भयावने बादल लेती आई जिनके साथ बिजली तथा गर्जना भरी गड़गड़ाहट थी और जिन्होंने सभी दिशाओं में गाड़ी के पहियों जितनी मोटी मूसलाधार वर्षा की।

12 तब सभी दिशाओं में चार महासागर प्रकट हो गये जो वायु से उमड़ती हुई लहरों से पृथ्वी की सतह को लील रहे थे। इन महासागरों में भयानक मगर, भँवरें थीं तथा अमांगलिक-गर्जन हो रहा था।

13 ऋषि ने अपने सहित ब्रह्माण्ड के सारे निवासियों को देखा जो तेज वायु, बिजली के वज्रपात तथा आकाश से भी ऊपर तक उठने वाली बड़ी-बड़ी लहरों से भीतर और बाहर से त्रस्त हुये जा रहे थे। ज्योंही सारी पृथ्वी जलमग्न हो गई, वे हताश तथा भयातुर हो उठे।

14 मार्कण्डेय के देखते-देखते बादलों से हो रही वर्षा समुद्र को भरती रही जिससे महासागर के जल ने अंधड़ द्वारा भयानक लहरों के उठने से पृथ्वी के द्वीपों, पर्वतों तथा महाद्वीपों को ढक लिया।

15 जल ने पृथ्वी, अन्तरिक्ष, स्वर्ग तथा स्वर्ग-क्षेत्र को आप्लावित कर दिया। दरअसल, सारा ब्रह्माण्ड सभी दिशाओं में जलमग्न था और उसके सारे निवासियों में से एकमात्र मार्कण्डेय ही बचे थे। उनकी जटाएँ छितरा गई थीं और ये महामुनि जल में अकेले इधर-उधर घूम रहे थे मानो मुक तथा अन्धे हों।

16 भूख-प्यास से सताये, दैत्याकार मकरों तथा तिमिंगिल मछलियों द्वारा हमला किये गये तथा वायु और लहरों से त्रस्त, वे उस अपार अंधकार में निरुद्देश्य घूमते रहे जिसमें वे गिर चुके थे। जब वे अत्यधिक थक गये तो उन्हें दिशाओं की सुधि न रही और वे आकाश तथा पृथ्वी में भेद नहीं कर पा रहे थे।

17-18 कभी वे भारी भँवर में फँस जाते, कभी प्रबल लहरों के थपेड़े खाते, कभी जल-दैत्यों के परस्पर आक्रमण करने पर उनके द्वारा निगले जाने से आशंकित हो उठते। कभी उन्हें शोक, मोह, दुख, सुख या भय का अनुभव होता तो कभी उन्हें ऐसी भयानक रुग्णता तथा पीड़ा का अनुभव होता जैसे कि वे मारे जा रहे हों।

19 मार्कण्डेय को उस जलप्लावन में इधर-उधर घूमते हजारों वर्ष बीत गये; उनका मन भगवान विष्णु की माया से विमोहित था।

20 ब्राह्मण मार्कण्डेय ने एक बार जल में विचरण करते हुए पृथ्वी के उठे स्थान पर फलों तथा कोपलों से सुशोभित एक छोटा बरगद का पेड़ देखा।

21 उन्होंने पेड़ की उत्तर-पूर्व दिशा की शाखा में पत्ते के भीतर एक शिशु को लेटे हुए देखा जिसका तेज अंधकार को लील रहा था।

22-25 बालक का गहरा नील रंग निर्मल मरकत जैसा था; उसका कमल मुखमण्डल अपार सौन्दर्य के कारण चमक रहा था और उसकी गर्दन में शंख जैसी रेखाएँ थीं। उसका वक्षस्थल चौड़ा, नाक सुन्दर आकार वाली, भौहें सुन्दर तथा अनार के फूलों जैसे सुन्दर कान थे जिसके भीतर के वलन शंख के घुमावों जैसे थे। उसकी आँखों के कोर कमल के कोश जैसे लाल रंग के थे और मूँगे जैसे होंठों का तेज उसके मुखमण्डल की सुधामयी मोहिनी मुसकान को लाल-लाल बना रहा था। जब वह साँस लेता, उसके सुन्दर बाल हिलते थे और गहरी नाभि उसके बरगद के पत्ते जैसे उदर की चमड़ी के हिलते वलनों से टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती थी। वह ब्राह्मण-श्रेष्ठ आश्चर्य से उस बालक को देख रहा था, जो अपने एक चरणकमल को आकर्षक अँगुलियों से पकड़कर चूस रहा था।

26 जैसे ही मार्कण्डेय ने बालक को देखा उनकी सारी थकान जाती रही। दरअसल उनको इतनी अधिक प्रसन्नता हुई की उनका हृदय तथा उनके नेत्र कमल की भाँति पूरी तरह प्रफुल्लित हो उठे और उन्हें रोमांच हो आया। इस बालक की अद्भुत पहचान के विषय में शंकित मुनि उसके पास पहुँचे।

27 तभी उस शिशु ने श्वास ली जिससे मार्कण्डेय मच्छर की तरह उसके शरीर के भीतर खींच गये। वहाँ पर ऋषि ने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रलय के पूर्व की स्थिति में सुव्यवस्थित पाया। यह देखकर मार्कण्डेय अत्यधिक आश्चर्यचकित तथा विस्मित हो गए।

28-29 वहाँ पर मुनि ने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड देखा – आकाश, स्वर्ग तथा पृथ्वी, तारे, पर्वत, सागर, द्वीप तथा महाद्वीप, हर दिशा में विस्तार, सन्त तथा आसुरी जीव, वन, देश, नदियाँ, नगर तथा खानें, खेतिहर गाँव तथा चरागाह, समाज के वर्ण तथा आश्रम। उन्होंने सृष्टि के मूल तत्त्वों तथा उनके गौण उत्पादों के साथ ही साक्षात काल को देखा जो ब्रह्मा के दिनों में असंख्य युगों को नियमित करता है। इसके अतिरिक्त उन्होंने भौतिक जीवन में काम आने वाली अन्य सारी वस्तुएँ देखीं। उन्होंने यह सब देखा जो सत्य जैसा प्रतीत हो रहा था।

30 उन्होंने अपने समक्ष हिमालय पर्वत, पुष्पभद्रा नदी तथा अपना आश्रम देखा जहाँ उन्होंने नर-नारायण ऋषियों के दर्शन किये थे। तत्पश्चात मार्कण्डेय द्वारा सम्पूर्ण विश्व के देखते-देखते, जब उस शिशु ने श्वास बाहर निकाली तो ऋषि उसके शरीर से बाहर छिटक आये और प्रलय सागर में गिरा दिए गए।

31-32 मार्कण्डेय मुनि ने उस विशाल सागर में, छोटे-से द्वीप पर बरगद–वृक्ष के पत्ते के दोने में शिशु को लेटे हुए देखा। वह शिशु उनको आँखों की कोरों से–प्रेमामृत भरी हँसी से देख रहा था। मार्कण्डेय ने उस छबि को आँखों के द्वारा आत्मसात कर लिया और ऋषि भगवान का आलिंगन करने दौड़े।

33 तभी भगवान, जोकि योगेश्वर हैं तथा हर एक के हृदय में छिपे रहते हैं, ऋषि की आँखों से ओझल हो गये जिस तरह अक्षम व्यक्ति की सारी उपलब्धियाँ सहसा विलीन हो जाती है।

34 हे ब्राह्मण, भगवान के अदृश्य हो जाने पर, वह बरगद का वृक्ष, अपार जल राशि तथा ब्रह्माण्ड का प्रलय – सारे के सारे विलीन हो गये और क्षण-भर में मार्कण्डेय ने पहले की तरह स्वयं को अपनी कुटिया में पाया।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय आठ – मार्कण्डेय द्वारा नर-नारायण ऋषि की स्तुति (12.8)

1 श्री शौनक ने कहा: हे सूत, आप दीर्घायु हों। हे साधु, हे वक्ताओं में श्रेष्ठ, आप हमसे इसी तरह बोलते रहें। निस्सन्देह, आप ही मनुष्यों को उस अज्ञान से निकलने का मार्ग दिखा सकते हैं जिसमें वे विचरण कर रहे हैं।

2-5 विद्वानों का कहना है कि मृकण्डु के पुत्र मार्कण्डेय ऋषि, अति दीर्घ आयु वाले मुनि थे और ब्रह्मा के दिन के अन्त होने पर वे ही एकमात्र बचे हुए थे जबकि सारा ब्रह्माण्ड प्रलय की बाढ़ में जलमग्न हुआ था। किन्तु यही मार्कण्डेय ऋषि, जोकि भृगुवंशियों में सर्वोपरि हैं, मेरे ही परिवार में ब्रह्मा के दिन की अवधि में जन्मे थे और हमने अभी ब्रह्मा के इस दिन का पूर्ण प्रलय नहीं देखा है। यही नहीं, यह भलीभाँति ज्ञात है कि मार्कण्डेय मुनि ने प्रलय के महासागर में असहाय होकर इधर-उधर घूमते हुए उस भयानक जल में एक अद्भुत पुरुष को देखा – एक शिशु जो बरगद के पत्ते के दौने में अकेले लेटा था। हे सूतजी, मैं इन महर्षि मार्कण्डेय के विषय में अत्यधिक मोहग्रस्त तथा उत्कण्ठित हूँ। हे महान योगी, आप समस्त पुराणों के गणमान्य विद्वान माने जाते हैं, इसलिए मेरे संशय को दूर कीजिये।

6 सूत गोस्वामी ने कहा: हे महर्षि शौनक, तुम्हारे इस प्रश्न से हर एक का मोह दूर हो सकेगा क्योंकि इसका सम्बन्ध भगवान नारायण की कथाओं से है, जो कथाएँ इस कलियुग के कल्मष को दूर करती हैं।

7-11 अपने पिता द्वारा ब्राह्मण की दीक्षा प्राप्त करने के लिए किये गये निर्दिष्ट अनुष्ठानों द्वारा शुद्ध बनकर, मार्कण्डेय ने वैदिक स्तोत्रों का अध्ययन किया और विधि-विधानों का कठोरता से पालन किया। वे तपस्या तथा वैदिक ज्ञान में आगे बढ़ गये और जीवन-भर ब्रह्मचारी रहे अपनी जटा से तथा छाल से बने अपने वस्त्रों से अत्यन्त शान्त प्रतीत होते हुए, उन्होंने अपनी आध्यात्मिक प्रगति को योगी का कमण्डल, दण्ड, जनेऊ, ब्रह्मचारी पेटी, काला मृग-चर्म कमल के बीज की जपमाला तथा कुश के समूह को धारण करके और आगे बढ़ाया। उन्होंने दिन की सन्धियों पर भगवान के पाँच रूपों – यज्ञ-अग्नि, सूर्य, गुरु, ब्राह्मण तथा उनके हृदय के भीतर परमात्मा की नियमित पूजा की। वे प्रातः तथा सायंकाल भिक्षा माँगने जाते और लौटने पर सारा एकत्रित भोजन अपने गुरु को भेंट कर देते। जब गुरु उन्हें आमंत्रित करते, तभी वे मौन भाव से दिन में एक बार भोजन करते, अन्यथा उपवास करते। इस तरह तपस्या तथा वैदिक अध्ययन में समर्पित मार्कण्डेय ऋषि ने इन्द्रियों के परम प्रभु भगवान की करोड़ों वर्षों तक पूजा की और इस तरह उन्होंने दुर्जेय मृत्यु को जीत लिया।

12 मार्कण्डेय ऋषि की उपलब्धि से ब्रह्मा, भृगु मुनि, शिवजी, प्रजापति दक्ष, ब्रह्मा के महान पुत्र, मनुष्यों में से अन्य अनेक लोग, देवता, पूर्वज तथा भूतप्रेत – सभी चकित थे।

13 इस तरह भक्तियोगी मार्कण्डेय ने तपस्या, वेदाध्ययन तथा आत्मानुशासन द्वारा कठोर ब्रह्मचर्य धारण किया। फिर सारे उत्पातों से मुक्त वे अपने मन से अंदर की ओर मुड़े और भगवान का ध्यान किया जो भौतिक इन्द्रियों के परे स्थित हैं।

14 जब योगी मार्कण्डेय इस तरह महान योगाभ्यास द्वारा अपने मन को एकाग्र कर रहे थे, तो छह मनुओं की आयु के बराबर (मन्वन्तर) विपुल समय बीत गया।

15 हे ब्राह्मण, वर्तमान सातवें मन्वन्तर में, इन्द्र को मार्कण्डेय की तपस्या का पता चला तो वह उनकी बढ़ती योगशक्ति से भयभीत हो उठा, अतः उसने मुनि की तपस्या में विघ्न डालने का प्रयास किया।

16 मुनि की आध्यात्मिक तपस्या नष्ट करने के लिए, इन्द्र ने कामदेव, सुन्दर गन्धर्वों, अप्सराओं, वसन्त ऋतु तथा मलय पर्वत से चलने वाली चन्दन की गन्ध से युक्त मन्द समीर के साथ साक्षात लोभ तथा नशे (मद) को भेजा।

17 हे शक्तिशाली शौनक, वे मार्कण्डेय की कुटिया पर गये जो हिमालय पर्वत की उत्तरी दिशा में थी और जहाँ से पुष्पभद्रा नदी सुप्रसिद्ध चोटी चित्रा के निकट से बहती है।

18 मार्कण्डेय ऋषि के आश्रम को पवित्र वृक्षों के कुन्ज अलन्कृत कर रहे थे और बहुत-से साधु ब्राह्मण अनेकानेक शुद्ध, पवित्र तालाबों का आनन्द उठाते हुए वहाँ रह रहे थे।

19 वह आश्रम उन्मत्त भौंरों की गुनगुनाहट से तथा उत्तेजित कोयलों की कुहु-कुहु से प्रतिध्वनित हो रहा था और प्रफुल्लित मोर इधर-उधर नाच रहे थे। दरअसल उन्मत्त पक्षियों के अनेक परिवारों के झुण्ड के झुण्ड उस आश्रम में रह रहे थे।

20 वहाँ पर इन्द्र द्वारा भेजी वसन्त की वायु पास के झरनों से शीतल बूँदों की फुहार ले आते हुए प्रविष्ट हुई। वह वायु वन के फूलों के आलिंगन से सुगन्धित थी। उसने आश्रम में प्रवेश किया और कामदेव की कामेच्छा को जगाना प्रारम्भ कर दिया।

21 तब मार्कण्डेय के आश्रम में वसन्त ऋतु प्रकट हुआ। संध्याकालीन आकाश उदय हो रहे चन्द्रमा के प्रकाश से इस प्रकार चमक रहा था मानो वह वसन्त का मुख हो और नई कोंपले और ताजे फूल प्रायः वृक्षों और लताओं के झुण्डों को आच्छादित किये हुए थे।

22 तब स्वर्ग की अनेक स्त्रियों का स्वामी कामदेव वहाँ पर अपना धनुष और बाण लिए आया। उसके पीछे-पीछे गन्धर्वों की टोलियाँ थी जो वाद्य-यंत्र बजा रहे थे और गा रहे थे।

23 इन्द्र के दासों ने ऋषि को ध्यान लगाये बैठा पाया, जिसने अभी अभी यज्ञ-अग्नि में नियत आहुतियाँ डाली थीं। उसकी आँखें समाधि में बन्द थीं; वह दुर्जेय प्रतीत हो रहा था मानो साक्षात अग्नि हो।

24 ऋषि के समक्ष स्त्रियाँ नाचने लगीं और गन्धर्वों ने मृदंग, वीणा तथा मंजीरों के साथ मनोहर गीत गाये।

25 जब काम का पुत्र (साक्षात लोभ), वसन्त तथा इन्द्र के अन्य नौकर मार्कण्डेय के मन को विचलित करने का प्रयत्न कर रहे थे, तो कामदेव ने अपना पाँच सिरों वाला तीर निकाला और उसे अपने धनुष पर चढ़ाया।

26 पुञ्जीकस्थली नामक अप्सरा अनेक गेंदों से खेलने का प्रदर्शन करने लगी। उसके बालों में गुँथे फूलों का हार बिखर रहा था। जब वह इधर-उधर दृष्टि डालती, गेंदों के पीछे दौड़ती, तो उसके झीने वस्त्र की पेटी ढीली पड़ गई और सहसा वायु उसके वस्त्र उड़ा ले गया।

28 तब कामदेव ने यह सोचकर कि उसने ऋषि को जीत लिया है, अपना तीर चलाया, किन्तु मार्कण्डेय को बहकाने के ये सारे प्रयास निष्फल रहे।

29 हे विद्वान शौनक, जब कामदेव तथा उसके अनुयायी मुनि की तपस्या को भंग करने का प्रयास कर रहे थे, तो वे स्वयं उनकी शक्ति (तेज) से जलने लगे और उन्होंने अपना प्रयास करना बन्द कर दिया।

30 हे ब्राह्मण, इन्द्र के अनुयायियों ने उद्दण्डता वश सन्त-सदृश मार्कण्डेय पर आक्रमण किया था; फिर भी वे मिथ्या अहंकार के किसी भी प्रभाव के आगे झुके नहीं। महात्माओं के लिए ऐसी सहिष्णुता तनिक भी आश्चर्यजनक नहीं है।

31 बलशाली इन्द्र ने जब महर्षि मार्कण्डेय की योगशक्ति के विषय में सुना तो उसे अत्यधिक आश्चर्य हुआ। उसने देखा कि किस तरह कामदेव तथा उसके संगी महर्षि की उपस्थिति में शक्तिहीन हो गये थे।

32 सन्त स्वभाव वाले मार्कण्डेय पर, जिन्होंने तपस्या, वेदाध्ययन तथा संयम के द्वारा आत्म-साक्षात्कार में अपने मन को पूरी तरह स्थिर कर लिया था, अपनी दया दिखलाने की इच्छा से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान उनके समक्ष नर तथा नारायण रूपों में प्रकट हुए।

33-34 उनमें से एक गोरे वर्ण का और दूसरा साँवला था और उन दोनों के चार-चार भुजाएँ थी। उनके नेत्र खिले कमल की पत्तियों जैसे थे और वे श्याम मृगचर्म तथा छाल का वस्त्र तथा तीन सूत्रों वाला जनेऊ पहने थे। वे पवित्र करनेवाले अपने हाथों में, यती का कमण्डल, सीधे बाँस का लट्ठ और कमल के बीज की जपमाला तथा दर्भ के पुंजों के प्रतीक रूप में सबको पवित्र करनेवाले वेदों को भी धारण किये हुए थे। उनका कद लम्बा था और उनका पीला तेज चमकती बिजली के रंग का था। वे साक्षात तपस्या की मूर्ति रूप में प्रकट हुए थे और अग्रगण्य देवताओं द्वारा पूजे जा रहे थे।

35 ये दोनों मुनि नर तथा नारायण भगवान के साकार रूप थे। जब मार्कण्डेय ऋषि ने दोनों को देखा तो वे तुरन्त उठ खड़े हुए और तब पृथ्वी पर डंडे की तरह गिरकर अतीव आदर के साथ उन्हें नमस्कार किया।

36 उन्हें देखने से उत्पन्न हुए आनन्द ने मार्कण्डेय के शरीर, मन तथा इन्द्रियों को पूरी तरह तुष्ट कर दिया और उनके शरीर में रोमांच ला दिया और उनके नेत्रों को आँसुओं से भर दिया। भावविह्वल होने से मार्कण्डेय उन्हें देख पाने में असमर्थ हो रहे थे।

37 सम्मान में हाथ जोड़े खड़े होकर तथा दीनतावश अपना सिर झुकाये मार्कण्डेय को इतनी उत्सुकता हुई कि उन्हें लगा कि वे दोनों विभुओं का आलिंगन कर रहे हैं। आनन्द से रुद्ध हुई वाणी से उन्होंने बारम्बार कहा "मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।"

38 उन्होंने उन दोनों को आसन प्रदान किये, उनके चरण पखारे और तब अर्ध्य, चन्दन-लेप, सुगन्धित तेल, धूप तथा फूल-मालाओं की भेंट चढ़ाकर पूजा की।

39 मार्कण्डेय ऋषि ने पुनः इन दो पूज्य मुनियों के चरणकमलों पर शीश झुकाया जो सुखपूर्वक बैठे थे और उन पर कृपा करने के लिए उद्यत थे। तब उन्होंने उनसे इस प्रकार कहा।

40 श्री मार्कण्डेय ने कहा: हे सर्वशक्तिमान प्रभु, भला मैं आपका वर्णन कैसे कर सकता हूँ? आप प्राणवायु को जागृत करते हैं, जो मन, इन्द्रियों तथा वाकशक्ति को कार्य करने के लिए प्रेरित करती है। यह सारे सामान्य बद्धजीवों पर, यहाँ तक कि ब्रह्मा तथा शिव जैसे महान देवताओं पर भी लागू होता है। अतएव यह निस्सन्देह, मेरे लिए भी सही है। तो भी, आप अपनी पूजा करनेवालों के घनिष्ठ मित्र बन जाते हैं।

41 हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, आपके ये दो साकार रूप तीनों जगतों को चरम लाभ प्रदान करने के लिए – भौतिक कष्ट की समाप्ति तथा मृत्यु पर विजय के लिए – प्रकट हुए हैं। हे प्रभु, यद्यपि आप इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि करते हैं और इसकी रक्षा करने के लिए नाना प्रकार के दिव्य रूप धारण करते हैं, किन्तु आप इसे निगल भी लेते हैं जिस तरह मकड़ी पहले जाल बुनती है और बाद में उसे निगल जाती है।

42 चूँकि आप सारे चर तथा अचर प्राणियों के रक्षक तथा परम नियन्ता हैं, इसलिए जो भी आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करता है, उसे भौतिक कर्म, गुण या काल के दूषण छु तक नहीं सकते। जिन महर्षियों ने वेदों के अर्थ को आत्मसात कर रखा है, वे आपकी स्तुति करते हैं। आपका सान्निध्य प्राप्त करने के लिए वे हर अवसर पर आपको नमस्कार करते हैं, निरन्तर आपको पूजते हैं और आपका ध्यान करते हैं।

43 हे प्रभु, ब्रह्मा भी, जोकि ब्रह्माण्ड की पूरी अवधि तक अपने उच्च पद का भोग करता है, काल की गति से भयभीत रहता है। तो उन बद्धजीवों के बारे में क्या कहा जाय जिन्हें ब्रह्मा उत्पन्न करते हैं। वे अपने जीवन के पग-पग पर भयावने संकटों का सामना करते हैं। मैं इस भय से छुटकारा पाने के लिए आपके चरणकमलों की जो साक्षात मोक्ष –स्वरूप हैं, शरण ग्रहण करने के सिवाय और कोई साधन नहीं जानता।

44 इसलिए मैं भौतिक शरीर तथा उन सारी वस्तुओं से, जो मेरी असली आत्मा को प्रच्छन्न करती हैं, अपनी पहचान का परित्याग करके आपके चरणकमलों की पूजा करता हूँ। ये व्यर्थ, अयथार्थ तथा क्षणिक आवरण, आपसे जिनकी बुद्धि समस्त सत्य को समेटे हुये है, पृथक होने की मात्र कल्पनाएँ हैं। परमेश्वर तथा आत्मा के गुरु स्वरूप आपको प्राप्त करके मनुष्य प्रत्येक वांछित वस्तु प्राप्त कर लेता है।

45 हे प्रभु, हे बद्धजीव के परम मित्र, यद्यपि इस जगत की उत्पत्ति, पालन और संहार के लिए आप सतो, रजो तथा तमोगुणों को जो आपकी मायाशक्ति हैं, स्वीकार करते हैं? किन्तु बद्धजीवों को मुक्त करने के लिए आप सतोगुण का प्रयोग करते हैं। अन्य दो गुण उनके लिए मात्र कष्ट, मोह तथा भय लाने वाले हैं।

46 हे प्रभु, चूँकि निर्भीकता, आध्यात्मिक सुख तथा भगवदधाम – ये सभी सतोगुण के द्वारा ही प्राप्त किये जाते हैं इसलिए आपके भक्त इसी गुण को आपकी प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति मानते हैं, रजो तथा तमोगुण को नहीं। इस तरह बुद्धिमान व्यक्ति आपके प्रिय दिव्य रूप को, जोकि शुद्ध सत्त्व से बना होता है, आपके शुद्ध भक्तों के आध्यात्मिक स्वरूपों के साथ पूजा करते हैं।

47 मैं उन भगवान को सादर नमस्कार करता हूँ। वे ब्रह्माण्ड के सर्वव्यापक तथा सर्वस्व हैं और इसके गुरु भी हैं। मैं भगवान नारायण को नमस्कार करता हूँ जो ऋषि के रूप में प्रकट होनेवाले परम पूज्य देव हैं। मैं सन्त स्वभाव वाले नर को भी नमस्कार करता हूँ जो मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ हैं, जो पूर्ण सात्विक हैं, जिनकी वाणी संयमित है और जो वैदिक वाड्मय के प्रचारक हैं।

48 भौतिकतावादी की बुद्धि उसकी धोखेबाज इन्द्रियों की क्रिया से विकृत रहती है, इसलिए वह आपको तनिक भी पहचान नहीं पाता यद्यपि आप उसकी इन्द्रियों तथा हृदय में और उसकी अनुभूति की वस्तुओं में सदैव विद्यमान रहते हैं। मनुष्य का ज्ञान आपकी माया से आवृत होते हुए भी, यदि वह, सबों के गुरु आपसे, वैदिक ज्ञान प्राप्त करता है, तो वह आपको प्रत्यक्ष रूप से समझ सकता है।

49 हे प्रभु, केवल वैदिक ग्रन्थ ही आपके परम स्वरूप का गुह्य ज्ञान प्रकट करने वाले हैं, अतएव भगवान ब्रह्मा जैसे महान विद्वान भी आगमन विधियों द्वारा आपको समझने के प्रयास में मोहित हो जाते हैं। दार्शनिक अपने विशेष चिन्तनपरक निष्कर्ष के अनुसार आपको समझता है। मैं उन परम पुरुष की पूजा करता हूँ जिनका ज्ञान बद्धात्माओं के आध्यात्मिक स्वरूप को आवृत करने वाली शारीरिक उपाधियों से छिपा हुआ है।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय सात – पौराणिक साहित्य (12.7)

1 सूत गोस्वामी ने कहा: सुमन्तु ऋषि, ने अथर्ववेद संहिता अपने शिष्य कबन्ध को पढ़ाई और उन्होंने इसे पाठ्य और वेददर्श से कही।

2 शौक्लायनी, ब्रह्मवलि, मोदोष तथा पिप्पलायनि वेददर्श के शिष्य थे। मुझसे पथ्य के भी शिष्यों के नाम सुनो। हे ब्राह्मण, वे हैं-कुमुद, शुनक तथा जाजलि। वे सभी अथर्ववेद को अच्छी तरह जानते थे।

3 बभ्रु तथा सैंधवायन नामक शुनक के शिष्यों ने अपने गुरु द्वारा संकलित अथर्ववेद के दो भागों का अध्ययन किया। सैंधवायन के शिष्य सावर्ण तथा अन्य ऋषियों के शिष्यों ने भी अथर्ववेद के इस संस्करण का अध्ययन किया।

4 नक्षत्रकल्प, शान्तिकल्प, कश्यप, आंगिरस तथा अन्य लोग भी अथर्ववेद के आचार्यों में से थे। हे मुनि, अब पौराणिक साहित्य के विद्वानों के नाम सुनो।

5 त्रय्यारुणि, कश्यप, सावर्णी, अकृतव्रण, वैशम्पायन तथा हारीत – ये पुराणों के आचार्य हैं।

6 इनमें से प्रत्येक ने मेरे पिता रोमहर्षण से जोकि श्रील व्यासदेव के शिष्य थे, पुराणों की छहों संहिताओं को पढ़ा। मैं इन छहों आचार्यों का शिष्य बन गया और मैंने इस पौराणिक ज्ञान का भलीभाँति प्रस्तुतिकरण सीखा।

7 वेदव्यास के शिष्य रोमहर्षण ने पुराणों को चार मूल संहिताओं में विभाजित कर दिया। मुनि कश्यप तथा मैंने सावर्णि तथा राम के शिष्य अकृतव्रण के साथ-साथ इन चारों संहिताओं को सीखा।

8 हे शौनक, तुम ध्यान से पुराण के लक्षण सुनो जिनकी परिभाषा अत्यन्त प्रसिद्ध विद्वान ब्राह्मणों ने वैदिक साहित्य के अनुसार दी है।

9-10 हे ब्राह्मण, इस विषय के विद्वान, पुराण के दस लक्षण बतलाते हैं – इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि (सर्ग), तत्पश्चात लोकों तथा जीवों की सृष्टि (विसर्ग), सारे जीवों का पालन-पोषण (वृत्ति), उनका भरण (रक्षा), विभिन्न मनुओं के शासन (अन्तराणी), महान राजाओं के वंश (वंश), ऐसे राजाओं के कार्यकलाप (वंशानुचरित), संहार (संस्था), कारण (हेतु) तथा परम आश्रय (अपाश्रय)। अन्य विद्वानों का कहना है कि महापुराणों में इन्हीं दस का वर्णन रहता है, जबकि छोटे पुराणों में केवल पाँच का।

11 अव्यक्त प्रकृति के भीतर मूल गुणों के उद्वेलन से महत तत्त्व उत्पन्न होता है। महत तत्त्व से मिथ्या अहंकार उत्पन्न होता है, जो तीन पक्षों में बँट जाता है। यह तीन प्रकार का मिथ्या अहंकार अनुभूति के सूक्ष्म रूपों, इन्द्रियों तथा स्थूल इन्द्रियविषयों के रूप में, प्रकट होता है। इन सबकी उत्पत्ति सर्ग कहलाती है।

12 गौण सृष्टि (विसर्ग), जो ईश्वर की कृपा से विद्यमान है, जीवों की इच्छाओं का व्यक्त संयोग है। जिस प्रकार एक बीज से अतिरिक्त बीज उत्पन्न होते हैं, उसी तरह कर्ता में भौतिक इच्छाओं को बढ़ाने वाले कार्य चर तथा अचर जीवों को जन्म देते हैं।

13 वृत्ति का अर्थ है भरण या निर्वाह की प्रक्रिया जिससे चेतन प्राणी जड़ प्राणियों पर निर्वाह करते हैं। मनुष्य के लिए वृत्ति का विशेष अर्थ होता है अपनी जीविका के लिए इस तरह से कार्य करना जो उसके निजी स्वभाव के अनुकूल हो। ऐसा कार्य या तो स्वार्थ की इच्छानुसार या फिर ईश्वर के नियमानुसार पूरा किया जा सकता है।

14 प्रत्येक युग में अच्युत भगवान पशुओं, मनुष्यों, ऋषियों तथा देवताओं के बीच प्रकट होते हैं। वे इन अवतारों में अपने कार्यकलापों से ब्रह्माण्ड की रक्षा करते हैं और वैदिक संस्कृति के शत्रुओं का वध करते हैं।

15 मनु के प्रत्येक शासनकाल (मन्वन्तर) में भगवान हरि के रूप में छह प्रकार के पुरुष प्रकट होते हैं – शासक मनु, प्रमुख देवता, मनुपुत्र, इन्द्र, महर्षि तथा भगवान के अंशावतार।

16 ब्रह्मा से लेकर भूत, वर्तमान तथा भविष्य तक लगातार चला आ रहा राजाओं का क्रम (पंक्तियाँ) वंश हैं। ऐसे वंशों के, विशेष रूप से सर्वाधिक प्रमुख व्यक्तियों के विवरण वंश-इतिहास के प्रमुख विषय होते हैं।

17 ब्रह्म प्रलय के चार प्रकार हैं – नैमित्तिक, प्राकृतिक, नित्य तथा आत्यन्तिक। ये सभी भगवान की अन्तर्निहित शक्ति द्वारा प्रभावित होते हैं। विद्वान पण्डितों ने इस विषय का नाम विलय रखा है।

18 जीव अज्ञानवश भौतिक कर्म करता है और इस तरह वह, एक अर्थ में, ब्रह्माण्ड के सृजन, पालन तथा संहार का हेतु बन जाता है। कुछ विद्वान जीव को भौतिक सृष्टि में निहित पुरुष मानते हैं जबकि अन्य उसे अव्यक्त आत्मा कहते हैं।

19 परम पूर्ण सत्य, जागरूकता की सभी अवस्थाओं – जागृत, सुप्त तथा सुषुप्ति – में, माया द्वारा प्रकट किये जानेवाले सारे परिदृश्यों में तथा सारे जीवों के कार्यों में उपस्थित रहते हैं। वे इन सबों से पृथक होकर भी उपस्थित रहते हैं। इस तरह अपने ही अध्यात्म में स्थित, वे परम तथा अद्वितीय आश्रय हैं।

20 यद्यपि भौतिक वस्तु विविध रूप तथा नाम धारण कर सकती है, किन्तु इसका मूलभूत अवयव सदैव इसके अस्तित्व का आधार बना रहता है। इसी तरह परम सत्य अकेले तथा संयुक्त रूप से, सदैव भौतिक शरीर की विभिन्न अवस्थाओं में – गर्भधारण से लेकर मृत्यु तक, – उपस्थित रहता है।

21 जब मनुष्य का मन या तो अपने आप से या नियमित आध्यात्मिक अभ्यास से जागृत, सुप्त तथा सुषुप्त अवस्थाओं में भौतिक स्तर पर कार्य करना बन्द कर देता है। तब वह परमात्मा को समझ पाता है और भौतिक प्रयास करना बन्द कर देता है।

22 प्राचीन इतिहास में दक्ष मुनियों ने घोषित किया है कि अपने विविध लक्षणों के अनुसार, पुराणों को अठारह प्रधान पुराणों और अठारह गौण पुराणों में विभाजित किया जा सकता है।

23-24 अठारह प्रधान पुराणों के नाम हैं – ब्रह्मा, पद्म, विष्णु, शिव, लिंग, गरुड़, नारद, भागवत, अग्नि, स्कन्द, भविष्य, ब्रह्मवैवर्त, मार्कण्डेय, वामन, वराह, मत्स्य, कूर्म तथा ब्रह्माण्ड पुराण।

25 हे ब्राह्मण, मैंने तुमसे वेदों की शाखाओं के महामुनि व्यासदेव, उनके शिष्यों तथा शिष्यों के भी शिष्यों द्वारा किये गये विस्तार का भलीभाँति वर्णन किया है। जो इस कथा को सुनता है उसका आध्यात्मिक बल बढ़ जाता है।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय छह - महाराज परीक्षित का निधन (12.6)

1 सूत गोस्वामी ने कहा: व्यासदेव के पुत्र, स्वरूपसिद्ध तथा समदृष्टि वाले श्रील शुकदेव गोस्वामी द्वारा जो कहा गया था उसे सुनकर महाराज परीक्षित नम्रतापूर्वक उनके चरणकमलों के पास गये। मुनि के चरणों पर अपना शीश झुकाते हुए, हाथ जोड़े, जीवन-भर भगवान विष्णु के संरक्षण में रह चुके राजा परीक्षित ने इस प्रकार कहा।

2 महाराज परीक्षित ने कहा: आपने आदि तथा अन्त से रहित भगवान हरि की यह कथा सुना कर मुझ पर इतनी महती कृपा प्रदर्शित की है कि मुझे अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त हो गया है।

3 मैं इसे तनिक भी आश्चर्यजनक नहीं मानता कि आप जैसे महात्मा, जिनके मन सदैव अच्युत भगवान में लीन रहते हैं, हम जैसे बद्धजीवों पर दया दिखाते हैं, जो भौतिक जीवन की समस्याओं से सताये हुए हैं।

4 मैंने आपसे यह श्रीमदभागवत का श्रवण किया है, जो सारे पुराणों का पूर्ण सार है और भगवान उत्तमश्लोक का समुचित रूप से वर्णन करता है।

5 हे प्रभु, अब मुझे तक्षक या किसी अन्य जीव का या बारम्बार मृत्यु का भी भय नहीं रहा क्योंकि मैंने स्वयं को उस विशुद्ध आध्यात्मिक परम सत्य में लीन कर दिया है, जो सारे भय को नष्ट कर देता है।

6 हे ब्राह्मण मुझे अनुमति दें कि मैं अपनी वाणी तथा अपनी अन्य इन्द्रियों के कार्यों को बन्द करके भगवान अधोक्षज को सौंप सकूँ । कृपया मुझे अनुमति दें कि मैं अपने मन को विषय-वासनाओं से शुद्ध करके उन्हीं में लीन कर अपना जीवन त्याग सकूँ ।

7 आपने मुझे भगवान के परम मंगलमय साकार रूप का साक्षात्कार कराया है। मेरा अज्ञान मिट चुका है, अब मैं ज्ञान तथा आत्म-साक्षात्कार में स्थिर हूँ।

8 सूत गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार अनुनय-विनय किये जाने पर श्रील व्यासदेव के सन्त सदृश पुत्र ने राजा परीक्षित को अनुमति दे दी। तत्पश्चात राजा तथा वहाँ पर उपस्थित मुनियों द्वारा पूजित होकर श्रील शुकदेव उस स्थान से प्रस्थान कर गये।

9-10 तब महाराज परीक्षित पूर्वाभिमुख दर्भ के बने आसन पर, उत्तर की ओर मुख करके, गंगा नदी के तट पर बैठ गए। योगसिद्धि प्राप्त करने के बाद उन्हें पूर्ण आत्म-साक्षात्कार की अनुभूति हुई और वे समस्त भौतिक आसक्ति तथा संशय से मुक्त थे। सन्त सदृश राजा ने अपनी शुद्ध बुद्धि से अपने मन को अपने आत्मा के भीतर स्थिर कर लिया और परम पूर्ण सत्य का ध्यान करने लगे। उनकी प्राणवायु ने गति करनी बन्द कर दी और वे वृक्ष की तरह स्थिर हो गये।

11 हे विद्वान ब्राह्मणों, ब्राह्मण के क्रुद्ध पुत्र द्वारा भेजा गया तक्षक सर्प राजा को मारने के लिए उसकी ओर जा रहा था कि उसने मार्ग में कश्यप मुनि को देखा।

12 तक्षक ने कश्यप मुनि को, जो विष उतारने में दक्ष थे, बहुमूल्य भेंटें देकर महाराज परीक्षित की रक्षा करने से रोक दिया। तब इच्छानुसार रूप धारण करने वाला तक्षक, जोकि ब्राह्मण के वेश में था, राजा के निकट गया और उसे काट लिया।

14 ब्रह्माण्ड-भर के जीवों के देखते-देखते उस स्वरूपसिद्ध राजर्षि का शरीर सर्प-विष की अग्नि से तुरन्त जल कर राख हो गया।

15 पृथ्वी पर तथा स्वर्ग में सभी दिशाओं में भीषण हाहाकार होने लगा और सारे देवता, असुर, मनुष्य तथा अन्य प्राणी चकित हो उठे।

15 देवलोक में दुन्दुभियाँ बजने लगीं, गन्धर्वों तथा अप्सराओं ने गीत गाये। देवताओं ने 'साधु-साधु' कहते हुए फूलों की वर्षा की।

16 यह सुनकर कि उनके पिता को तक्षक ने डस लिया है, महाराज जनमेजय अत्यधिक क्रुद्ध हुए और ब्राह्मणों से एक विशाल यज्ञ कराया जिसमें उन्होंने सारे सर्पों को यज्ञ-अग्नि में भेंट कर दिया।

17 जब तक्षक ने अत्यन्त शक्तिशाली सर्पों को भी उस सर्प-यज्ञ की प्रज्ज्वलित अग्नि में जलाया जाते देखा, तो वह भय से आकुल हो उठा और शरण के लिए इन्द्र के पास पहुँचा।

18 जब राजा जनमेजय ने तक्षक को यज्ञ-अग्नि में प्रवेश करते नहीं देखा तो उन्होंने ब्राह्मणों से कहा, “समस्त सर्पों में अधम वह तक्षक इस अग्नि में क्यों नहीं जल रहा ?”

19 ब्राह्मणों ने उत्तर दिया: हे राजेन्द्र, तक्षक सर्प इसलिए अग्नि में नहीं गिरा क्योंकि इन्द्र द्वारा उसकी रक्षा हो रही है, जिनके पास वह शरण के लिए पहुँचा है। इन्द्र उसे अग्नि से बचाये हुए है।

20 इन शब्दों को सुनकर बुद्धिमान राजा जनमेजय ने पुरोहितों से कहा, “तो हे ब्राह्मणों, तुम लोग तक्षक को, उसके रक्षक इन्द्र सहित, अग्नि में क्यों नहीं गिरा लेते?”

21 यह सुनकर पुरोहितों ने इन्द्र समेत तक्षक को यज्ञ-अग्नि में आहुती के रूप में अर्पित करने के लिए यह मंत्र पढ़ा, “हे तक्षक, तुम इस अग्नि में इन्द्र तथा उनके आतिथ्य में देवताओं के समूह सहित तुरन्त गिर पड़ो।"

22 जब ब्राह्मणों के इन अपमानजनक शब्दों के कारण इन्द्र अपने विमान तथा तक्षक समेत सहसा अपने स्थान से च्युत होने लगा, तो वह अत्यन्त घबरा गया।

23 जब अंगिरा मुनि के पुत्र बृहस्पति ने इन्द्र को तक्षक समेत आकाश से उसके विमान से गिरते देखा तो वे राजा जनमेजय के पास पहुँचे और उनसे इस प्रकार कहा।

24 “हे पुरुषों में राजा, यह उचित नहीं है कि सर्पराज आपके हाथों मृत्यु को प्राप्त हो क्योंकि इसने अमर देवताओं का अमृत पी रखा है। फलस्वरूप, इसे बुढ़ापा तथा मृत्यु के सामान्य लक्षण नहीं सताते।"

25 देहधारी आत्मा का जीवन तथा मरण और अगले जीवन में उसका गन्तव्य ये सभी उसके अपने कर्म द्वारा उत्पन्न होते हैं। इसलिए हे राजन, किसी के सुख तथा दुख को उत्पन्न करने के लिए कोई अन्य उत्तरदायी नहीं है।

26 जब बद्धजीव सर्पों, चोरों, अग्नि, बिजली, भूख, रोग या अन्य किसी कारण से मारा जाता है, तो वह अपने ही विगत कर्म के फल का अनुभव करता है।

27 इसलिए हे राजन, इस यज्ञ को जो अन्यों को हानि पहुँचाने की मंशा से शुरु किया गया है, बन्द करा दें। पहले ही अनेक निर्दोष सर्प जलाकर मार दिये गये हैं। दरअसल सारे व्यक्तियों को अपने विगत कर्मों के अदृष्ट परिणामों को भोगना ही पड़ेगा।

28 सूत गोस्वामी ने कहा: इस तरह कहे जाने पर महाराज जनमेजय ने उत्तर दिया, “तथास्तु"। महर्षि के वचनों का आदर करते हुए उन्होंने सर्प-यज्ञ बन्द करा दिया और फिर अत्यन्त वाक्पटु मुनि बृहस्पति की पूजा की।

29 यह निस्सन्देह भगवान विष्णु की मायाशक्ति है, जो अबाध्य है और जिसे देख पाना कठिन है। यद्यपि व्यष्टि आत्माएँ भगवान की भिन्नांश हैं, किन्तु इस मायाशक्ति के प्रभाव से, वे विविध भौतिक शरीरों के साथ अपनी पहचान से विमोहित हैं।

30-31 किन्तु एक सर्वोच्च सत्य होता है, जिसमें माया यह सोचते हुए कि, “मैं इस व्यक्ति को वश में कर सकती हूँ क्योंकि यह कपटी है" निर्भय होकर अपना प्रभुत्व नहीं दिखा सकती। सर्वोच्च सत्य में मायामय तर्क-वितर्क के दर्शन नहीं होते। प्रत्युत उसमें अध्यात्म विद्या के असली जिज्ञासु निरन्तर प्रमाणित आध्यात्मिक शोध में लगे रहते हैं। उस सर्वोच्च सत्य में भौतिक मन की अभिव्यक्ति नहीं होती, जो कभी निर्णय तो कभी संशय के रूप में कार्य करता है। सृजित वस्तुएँ, उनके सूक्ष्म कारण और उनके उपयोग से प्राप्त आनन्द के लक्ष्य वहाँ विद्यमान नहीं रहते। यही नहीं, उस सर्वोच्च सत्य में मिथ्या अहंकार तथा तीन गुणों से आच्छादित कोई बद्ध आत्मा नहीं होता। वह सत्य प्रत्येक सीमित अथवा असीमित वस्तु को अपने से अलग करता है। इसलिए जो बुद्धिमान है उसे चाहिए कि भौतिक जीवन की तरंगों को रोक कर सर्वोच्च सत्य के भीतर आनन्द ले।

32 जो लोग उन सारी वस्तुओं को बाह्य नकारात्मक विवेक के द्वारा त्याग देना चाहते हैं, जो वास्तव में सत्य नहीं है, वे भगवान विष्णु के परम पद की ओर नियमित रूप से आगे बढ़ते जाते हैं। वे क्षुद्र भौतिकता को त्यागकर अपने हृदयों के भीतर परम सत्य को ही अपना प्रेम प्रदान करते हैं और स्थिर ध्यान में उस सर्वोच्च सत्य का आलिंगन करते हैं।

33 ऐसे भक्त भगवान विष्णु के परम आध्यात्मिक पद को समझ पाते हैं, क्योंकि वे 'मैं' तथा 'मेरा' के विचारों से, जो देह तथा गेह पर आधारित हैं, दूषित नहीं होते।

34 मनुष्य को सारे अपमान सहन कर लेने चाहिए और किसी व्यक्ति के प्रति समुचित सम्मान प्रदर्शित करने से चूकना नहीं चाहिए। भौतिक शरीर से पहचान बनाने से बचते हुए मनुष्य को किसी के साथ शत्रुता उत्पन्न नहीं करनी चाहिए।

35 मैं अनवरुद्ध पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण को नमस्कार करता हूँ। उनके चरणकमलों पर ध्यान धरने से ही मैं इस महान ग्रन्थ का अध्ययन कर सका और इसकी सराहना कर सका।

36 शौनक ऋषि ने कहा: हे भद्र सूत, कृपा करके हमें बतलाये कि किस तरह पैल तथा श्रील व्यासदेव के अत्यन्त प्रतिभा सम्पन्न बुद्धिमान शिष्यों ने, जो कि वैदिक विद्या के आदर्श अधिकारी माने जाते हैं, वेदों का प्रवचन तथा सम्पादन किया।

37 सूत गोस्वामी ने कहा: हे ब्राह्मण, दिव्य ध्वनि की प्रथम सूक्ष्म गूँज सर्वश्रेष्ठ ब्रहमाजी के हृदयरूपी आकाश से प्रकट हुई जिनका मन आध्यात्मिक साक्षात्कार में पूरी तरह स्थिर था। इस सूक्ष्म गूँज का अनुभव कोई भी व्यक्ति कर सकता है जब वह अपनी सारी बाह्य श्रवण-क्रिया को रोक लेता है।

38 हे ब्राह्मण, वेदों के इस सूक्ष्म रूप की पूजा द्वारा योगीजन वस्तु की अशुद्धि, क्रिया तथा कर्ता से उत्पन्न सारे कल्मष से अपने हृदयों को स्वच्छ बनाते हैं और इस तरह वे बारम्बार जन्म-मृत्यु से छुटकारा प्राप्त कर लेते हैं।

39 उस दिव्य सूक्ष्म गूँज से तीन ध्वनियों से स्वरबद्ध ॐकार उत्पन्न हुआ। ॐकार में अदृश्य शक्तियाँ हैं और यह शुद्ध हृदय के भीतर स्वतः प्रकट होता है। यह परम सत्य की तीनों अवस्थाओं – भगवान, परमात्मा तथा परम निर्विशेष सत्य – में उनका स्वरूप है।

40-41 यह ॐकार, जोकि अन्ततः अभौतिक तथा अश्रव्य होता है, उसे परमात्मा कान या कोई अन्य इन्द्रियाँ न होते हुए भी सुनता है। वैदिक ध्वनि का पूरा विस्तार ॐकार से ही हुआ है, जो हृदय के आकाश के भीतर आत्मा से प्रकट होता है। यह स्व-जन्मा परम सत्य परमात्मा की प्रत्यक्ष उपाधि है और गुह्य सार तत्त्व तथा समस्त वैदिक स्तोत्रों का नित्य बीज है।

42 ॐकार से अ, , तथा म वर्णों की तीन मौलिक ध्वनियाँ प्रकट हुई। हे भृगुवंशियों में सर्वश्रेष्ठ, ये तीनों भौतिक जगत के तीन विभिन्न पक्षों को धारण करते हैं जिनमें प्रकृति के तीन गुण, ऋक, यजुर तथा साम वेदों के नाम से, भूर, भुवर एवं स्वर लोकों के नाम से विख्यात लक्ष्य तथा जागृत, सुप्त एवं सुषुप्त नामक तीन वृत्तियाँ धारण करते हैं।

43 ब्रह्मा ने ॐकार से अक्षर की सारी ध्वनियाँ – स्वर, व्यंजन, अर्धस्वर, ऊष्म, स्पर्श इत्यादि उत्पन्न कीं जो ह्रस्व तथा दीर्घ माप जैसे गुणों से विभेदित की जाती हैं।

44-45 सर्वशक्तिमान ब्रह्मा ने ध्वनियों के इस समूह का उपयोग अपने चार मुखों से चार वेदों को उत्पन्न करने के लिए किया जो पवित्र ॐकार तथा सात व्याहृतियों समेत प्रकट हुए। उनका अभीष्ट (मन्तव्य) वैदिक यज्ञ विधि को चार वेदों में से प्रत्येक के पुरोहितों द्वारा सम्पन्न विभिन्न कार्यों तक विस्तार देना था। ब्रह्मा ने इन वेदों की शिक्षा अपने पुत्रों को दी जो ब्राह्मणों में महान ऋषि थे और वैदिक वाचन-कला में पटु थे। फिर उन्होंने स्वयं आचार्यों की भूमिका ग्रहण की और अपने-अपने पुत्रों को वेदों की शिक्षा दी।

46 इस तरह चतुर्युग के सारे चक्रों में दृढ़व्रत शिष्यों ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी परम्परा द्वारा इन वेदों को प्राप्त किया। प्रत्येक द्वापर युग के अन्त में इन वेदों को प्रसिद्ध मुनिगण पृथक विभागों में सम्पादित करते हैं।

47 यह देखकर कि काल के प्रभाव से सामान्यतया लोगों की आयु, बल तथा बुद्धि घटती जा रही है, महामुनियों ने अपने हृदयों में स्थित भगवान से प्रेरणा ली और वेदों का क्रमबद्ध विभाजन कर दिया।

48-49 हे ब्राह्मण, वैवस्वत मनु के वर्तमान युग में, ब्रह्मा और शिवजी की अगुवाई में ब्रह्माण्ड के नायकों ने समस्त जगतों के रक्षक भगवान से धर्म के सिद्धान्तों की रक्षा करने के लिए प्रार्थना की। हे महान भाग्यवान शौनक, तब अपने स्वांश के अंश का दैवी स्फुलिंग प्रदर्शित करते हुए पराशर के पुत्र के रूप में सत्यवती के गर्भ से भगवान प्रकट हुए। इस रूप में, जिसे कृष्ण द्वैपायन व्यास कहते हैं, उन्होंने एक वेद को चार भाग में विभक्त कर दिया।

50 श्रील व्यासदेव ने ऋग, अथर्व, यजुर तथा साम वेदों के मंत्रों को चार वर्गों में अलग-अलग कर दिया जिस तरह मणियों के मिले-जुले संग्रह में से ढेरियाँ लगा दी जाती हैं। इस तरह उन्होंने चार पृथक-पृथक वैदिक ग्रन्थों की रचना की।

51 अत्यन्त शक्तिमान एवं बुद्धिमान व्यासदेव ने अपने चार शिष्यों को बुलाया और हे ब्राह्मण, उनमें से हर एक को इन चार संहिताओं में से एक-एक का प्रभार सौंप दिया।

52-53 श्रील व्यासदेव ने प्रथम संहिता ऋग्वेद की शिक्षा पैल को दी और इस संग्रह का नाम बहृच रखा। मुनि वैशम्पायन से उन्होंने यजुरमंत्रों का संग्रह, निगद, का प्रवचन किया। उन्होंने जैमिनी को छन्दोग संहिता से सामवेद के मंत्रों की शिक्षा दी और अपने प्रिय शिष्य सुमन्तु को उन्होंने अथर्ववेद कह सुनाया।

54-56 अपनी संहिता को दो भागों में विभक्त करने के बाद विद्वान पैल ने इसे इन्द्रप्रमिति तथा बाष्कल को बतलाया। हे भार्गव, बाष्कल ने अपने संग्रह को पुनः चार भागों में विभाजित कर दिया और उन्हें अपने चार शिष्यों---बोध्य, याज्ञवल्क्य, पराशर तथा अग्निमित्र को पढ़ाया। आत्मसंयमी ऋषि इन्द्रप्रमिति ने अपनी संहिता विद्वान योगी माण्डूकेय को पढ़ाई जिसके शिष्य देवमित्र ने आगे चलकर सौभरि तथा अन्यों को ऋग्वेद के सारे विभाग दे दिये।

57 माण्डूकेय के पुत्र शाकल्य ने अपनी संहिता को पाँच भागों में बाँट दिया और इनमें से प्रत्येक उपविभाग वात्स्य, मुद्गल, शालीय, गोखल्य तथा शिशिर को सौंप दिये।

58 मुनि जातुकर्ण्य भी शाकल्य का शिष्य था। उसने शाकल्य से प्राप्त संहिता के तीन विभाग किये और उसमें एक चौथा अनुभाग वैदिक शब्द संग्रह (निरुक्त) का जोड़ दिया। उसने इन चारों भागों में से एक-एक विभाग अपने चार शिष्यों – बलाक, द्वितीय पैल, जावाल तथा विरज को पढ़ाया।

59 बाष्कलि ने, ऋग्वेद की समस्त शाखाओं से, वालखिल्य संहिता तैयार की। यह संहिता वालायनि, भज्य तथा काशर को प्राप्त हुई।

60 इन सन्त ब्राह्मणों ने ऋग्वेद की इन विविध संहिताओं को शिष्य परम्परा द्वारा बनाये रखा। वैदिक स्तोत्रों के इस विभाजन को सुनने मात्र से मनुष्य सारे पापों से छूट जाता है।

61 वैशम्पायन के शिष्य अथर्ववेद के आचार्य बने। वे चरक कहलाते थे क्योंकि उन्होंने अपने गुरु को ब्राह्मण-हत्या के पाप से मुक्त कराने के लिए कठिन व्रत किए थे।

62 एक बार वैशम्पायन के एक शिष्य याज्ञवाल्क्य ने कहा "हे प्रभु, आपके इन निर्बल शिष्यों के दुर्बल प्रयासों से कितना लाभ प्राप्त किया जा सकता है? मैं स्वयं कुछ उत्कृष्ट तपस्या करूँगा।

63 ऐसा कहे जाने पर गुरु वैशम्पायन क्रुद्ध हो उठे और कहा: “यहाँ से निकल जाओ! अरे ब्राह्मणों का अपमान करने वाले शिष्य! बहुत हो चुका। तुम तुरन्त ही वह सब लौटा दो जो मैंने तुम्हें पढ़ाया है।"

64-65 तब देवरात पुत्र याज्ञवाल्क्य ने यजुर्वेद के मंत्र उगल दिए और वहाँ से चला गया। इन यजुरमंत्रों को ललचाई दृष्टि से देख रहे एकत्र शिष्यों ने तीतरों का रूप धारण करके उन्हें चुग लिया। इसलिए यजुर्वेद के ये विभाग अत्यन्त सुन्दर तैत्तिरीय संहिता अर्थात तीतरों द्वारा संकलित मंत्र के नाम से विख्यात हुए।

66 हे ब्राह्मण शौनक, तब याज्ञवल्क्य ने ऐसे नवीन यजुरमंत्रों की खोज करनी चाही जो उसके गुरु को भी ज्ञात न हों। इसे मन में रखकर उसने शक्तिशाली सूर्यदेव की ध्यानपूर्वक पूजा की।

67 श्री याज्ञवल्क्य ने कहा: मैं सूर्य देव के रूप में प्रकट भगवान को सादर नमस्कार करता हूँ। आप चार प्रकार के जीवों के जिनमें ब्राह्मण से लेकर घास की पत्ती तक सम्मिलित हैं, नियन्ता के रूप में उपस्थित हैं। जिस तरह आकाश हर जीव के भीतर तथा बाहर विद्यमान रहता है, उसी तरह आप परमात्मा रूप में सभी के हृदयों के भीतर तथा काल रूप में उनके बाहर उपस्थित रहते हैं। जिस तरह आकाश उसमें विद्यमान बादलों से आच्छादित नहीं हो सकता उसी तरह आप मिथ्या भौतिक उपाधि से कभी प्रच्छन्न नहीं होते। एक वर्ष क्षण, लव तथा निमेष जैसे लघु काल-खण्डों से बना है और वर्षों के प्रवाह से आप जल को सुखाकर तथा पुनः उसे वर्षा के रूप में जगत को प्रदान करके, उसका अकेले ही पालन-पोषण करते हैं।

68 हे शक्तिमान सूर्यदेव, आप सारे देवताओं में प्रमुख हैं। मैं आपके तेज मण्डल का मनोयोग से ध्यान करता हूँ क्योंकि जो कोई परम्परा से प्राप्त वैदिक विधि द्वारा प्रतिदिन आपकी तीन बार स्तुति करता है, उसके सारे पापकर्मों, सारे परवर्ती कष्टों तथा इच्छा के मूल बीज तक को आप जला देते हैं।

69 आप उन समस्त जड़ तथा चेतन जीवों के हृदयों में अन्तर्यामी प्रभु के रूप में उपस्थित रहते हैं, जो पूरी तरह आपकी शरण पर आश्रित हैं। निस्सन्देह आप उनके मन, इन्द्रियों तथा प्राणों को कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं।

70 यह संसार अंधकार रूपी अजगर के विकराल मुख में पड़कर निगला जा चुका है और इस तरह अचेत हो गया है, मानो मृत है। किन्तु आप संसार के सोते हुए लोगों पर कृपापूर्ण दृष्टि फेरते हुए (दृष्टि के उपहार से) उन्हें जगाते हैं। इस तरह आप सर्वाधिक करुणाकर हैं। प्रतिदिन तीनों पवित्र संधियों पर आप पुण्यात्माओं को परम श्रेयस मार्ग में लगाते हैं और उन्हें धार्मिक कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं जिससे वे आध्यात्मिक पद को प्राप्त होते हैं।

71 आप पृथ्वी के राजा की ही तरह सर्वत्र विचरण करते हुए असाधुओं के बीच भय फैलाते हैं और दिशाओं के शक्तिमान देव हाथ जोड़कर आपको कमल के फूल तथा अन्य आदरपूर्ण भेंटें प्रदान करते हैं।

72 इसलिए हे प्रभु, मैं आपकी स्तुति करते हुए आपके उन चरणों तक पहुँचना चाहता हूँ जिनका सम्मान तीनों लोकों के आध्यात्मिक स्वामी करते हैं क्योंकि मैं आप से यजुर्वेद के उन मंत्रों को पाने के लिए आशान्वित हूँ जो अन्य किसी को ज्ञात नहीं है।

73 सूत गोस्वामी ने कहा: ऐसी स्तुति से प्रसन्न होकर शक्तिशाली सूर्यदेव ने घोड़े का रूप धारण कर लिया और याज्ञवल्क्य मुनि को वे यजुरमंत्र प्रदान किये जो मानव समाज में पहले अज्ञात थे।

74 यजुर्वेद के इन सैकड़ों मंत्रों से शक्तिसम्पन्न मुनि ने वैदिक वाड्मय की पन्द्रह नवीन शाखाएँ बनाई। ये वाजसनेयि संहिता के नाम से विख्यात हुई क्योंकि वे घोड़े के अयालों से उत्पन्न हुई थीं और इन्हें काण्व, माध्यन्दिन तथा अन्य ऋषियों के अनुयायियों ने शिष्य-परम्परा रूप में स्वीकार कर लिया।

75 सामवेद के अधिकारी जैमिनी ऋषि के सुमन्तु नाम का पुत्र था और सुमन्तु का पुत्र सुत्वान था। जैमिनी मुनि ने उनमें से हर एक को सामवेद संहिता के विभिन्न खण्ड सुनाये।

76-77 जैमिनी का दूसरा शिष्य सुकर्मा महान पण्डित था। उसने सामवेद रूपी विशाल वृक्ष को एक हजार संहिताओं में विभक्त कर दिया। तब हे ब्राह्मण, सुकर्मा के तीन शिष्यों – कुशलपुत्र हिरण्यनाभ, पौष्यञ्जि तथा आध्यात्मिक साक्षात्कार में अग्रणी आवन्त्य – ने साम मंत्रों का प्रभार सँभाला।

78 पौष्यञ्जि तथा आवन्त्य के 500 शिष्य सामवेद के उत्तरी गायक के नाम से प्रसिद्ध हुए और बाद में उनमें से कुछ तो पूरबिया गायक भी कहलाने लगे।

79 पौष्यञ्जि के पाँच अन्य शिष्यों, लौगाक्षी, मांगलि, कुल्य, कुशीद तथा कुक्षि में से हर एक को – एक सौ संहिताएँ मिलीं।

80 हिरण्यनाभ के शिष्य कृत ने अपने शिष्यों से चौबीस संहिताएँ कही और शेष संहिताएँ स्वरूपसिद्ध मुनि आवन्त्य द्वारा आगे चलाई गई।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

 

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अध्याय पाँच – महाराज परीक्षित को श्रील शुकदेव गोस्वामी का अन्तिम उपदेश (12.5)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस श्रीमदभागवत की विविध कथाओं में भगवान हरि का विस्तार से वर्णन हुआ है जिनके प्रसन्न होने पर ब्रह्माजी उत्पन्न होते हैं और उनके क्रोध से रुद्र का जन्म होता है।

2 हे राजन, तुम यह सोचने की पशु-मनोवृत्ति कि, “मैं मरने जा रहा हूँ" त्याग दो। तुम शरीर से सर्वथा भिन्न हो क्योंकि तुमने जन्म नहीं लिया है। विगतकाल में ऐसा कोई समय नहीं था जब तुम नहीं थे और तुम विनष्ट होनेवाले भी नहीं हो।

3 तुम अपने ही पुत्रों तथा पौत्रों के रूप में फिर से जन्म नहीं लोगे जिस तरह बीज से अंकुर जन्म लेता है और पुनः नया बीज बनाता है। प्रत्युत तुम भौतिक शरीर तथा उसके साज-सामान से सर्वथा भिन्न हो, जिस तरह अग्नि अपने ईंधन से भिन्न होती है।

4 स्वप्न में मनुष्य अपने ही सिर को काटा जाते देख सकता है और वह यह समझ सकता है कि उसका आत्मा स्वप्न के अनुभव से अलग खड़ा है। इसी तरह जागने पर मनुष्य यह देख सकता है कि उसका शरीर पाँच भौतिक तत्त्वों का फल है। इसलिए यह माना जाता है कि वास्तविक आत्मा उस शरीर से पृथक है, जिसे वह देखता है और वह अजन्मा तथा अमर है।

5 जब घड़ा टूट जाता है, तो घड़े के भीतर का आकाश पहले की ही तरह आकाश तत्त्व बना रहता है। उसी तरह जब स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर मरते हैं, तो उनके भीतर का जीव अपना आध्यात्मिक स्वरूप धारण कर लेता है।

6 आत्मा के भौतिक शरीर, गुण तथा कर्म भौतिक मन द्वारा ही उत्पन्न किये जाते हैं। मन स्वयं भगवान की मायाशक्ति से उत्पन्न होता है और इस तरह आत्मा भौतिक अस्तित्व धारण करता है।

7 दीपक अपने ईंधन, पात्र, बत्ती तथा अग्नि के सम्मेल से ही कार्य करता है। इसी तरह भौतिक जीवन, शरीर के साथ आत्मा की पहचान पर आधारित होने से, उत्पन्न होता है और रजो, तमो तथा सतोगुणों के कार्यों से विनष्ट होता है, जो शरीर के अवयवी तत्त्व हैं।

8 शरीर के भीतर का आत्मा स्वयं-प्रकाशित है और दृश्य स्थूल शरीर तथा अदृश्य सूक्ष्म शरीर से पृथक है। यह परिवर्तनशील शरीरों का स्थिर आधार बना रहता है, जिस तरह आकाश भौतिक रूपान्तर की अपरिवर्तनशील पृष्ठभूमि है। इसलिए आत्मा अनन्त और भौतिक तुलना के परे है।

9 हे राजन, भगवान वासुदेव का निरन्तर ध्यान करते हुए तथा शुद्ध एवं तार्किक बुद्धि का प्रयोग करके अपनी आत्मा पर सावधानी से विचार करो कि यह भौतिक शरीर के भीतर किस तरह स्थित है।

10 ब्राह्मण के शाप से भेजा हुआ तक्षक सर्प तुम्हारी असली आत्मा को जला नहीं सकेगा। मृत्यु के दूत तुम जैसे आत्मा के स्वामी को कभी नहीं जला पायेंगे क्योंकि तुमने भगवदधाम जाने के मार्ग के सारे खतरों को पहले से ही जीत रखा है।

11-12 तुम मन में यह विचार लाओ कि, “मैं परम सत्य, परम धाम से अभिन्न हूँ और परम गन्तव्य परम सत्य मुझसे अभिन्न हैं।" इस तरह अपने को परमात्मा को सौंपते हुए जो सभी भौतिक उपाधियों से मुक्त हैं, तुम तक्षक सर्प को, जब वह तुम्हारे पास पहुँचकर अपने विष-दन्तों से तुम्हारे पैर में काटेगा, तो तुम्हें पता तक नहीं लगेगा। न ही तुम अपने मरते हुए शरीर को या अपने चारों ओर के जगत को देखोगे क्योंकि तुम अपने को उनसे पृथक अनुभव कर चुके होगे।

13 हे प्रिय राजा परीक्षित, मैंने तुमसे ब्रह्माण्ड के परमात्मा भगवान हरि की लीलाएँ – वे सारी कथाएँ – कह दीं जिन्हें प्रारम्भ में तुमने पूछा था। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो?

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय चार – ब्रह्माण्ड के प्रलय की चार कोटियाँ (12.4)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, मैं पहले ही तुम्हें एक परमाणु की गति से मापे जाने वाले सबसे छोटे अंश से लेकर ब्रह्मा की कुल आयु तक काल की माप बतला चुका हूँ। मैंने ब्रह्माण्ड के इतिहास के विभिन्न युगों की माप भी बतला दी है। अब ब्रह्मा के दिन तथा प्रलय की प्रक्रिया के विषय में सुनो।

2 चार युगों के एक हजार चक्रों से ब्रह्मा का एक दिन होता है, जो कल्प कहलाता है। हे राजा, इस अवधि में चौदह मनु आते-जाते हैं।

3 ब्रह्मा के एक दिन के बाद, उनकी रात के समय, जो उतनी ही अवधि की होती है, प्रलय होता है। उस समय तीनों लोक विनष्ट हो जाते हैं, उनका संहार हो जाता है।

4 यह नैमित्तिक प्रलय कहलाता है, जिसमें आदि स्रष्टा नारायण अनन्त शेष की शैय्या पर लेट जाते हैं और ब्रह्मा के सोते समय वे समूचे ब्रह्माण्ड को अपने में लीन कर लेते हैं।

5 जब सर्वोच्च जीव ब्रह्माजी के जीवन काल के दो परार्ध पूरे हो जाते हैं, तो सृष्टि के सात मूलभूत तत्त्व विनष्ट हो जाते हैं।

6 हे राजन, भौतिक तत्त्वों के प्रलय के बाद, सृष्टि के तत्त्वों के मिश्रण से बने ब्रह्माण्ड को विनाश का सामना करना होता है।

7 हे राजन, ज्यों-ज्यों प्रलय निकट आयेगा, त्यों-त्यों पृथ्वी पर एक सौ वर्षों तक वर्षा नहीं होगी। सूखे से दुर्भिक्ष पड़ जायेगा और भूखों मर रही जनता एक-दूसरे को सचमुच ही खाने लगेगी। पृथ्वी के निवासी काल की शक्ति से मोहग्रस्त होकर धीरे धीरे नष्ट हो जाएँगे।

8 सूर्य अपने संहारक रूप में अपनी भयंकर किरणों के द्वारा समुद्र, शरीरों तथा पृथ्वी का सारा पानी पी लेगा, किन्तु बदले में यह वर्षा नहीं करेगा।

9 इसके बाद प्रलय की विशाल अग्नि भगवान संकर्षण के मुख से धधक उठेगी। वायु के प्रबल वेग से ले जाई गई, यह अग्नि निर्जीव विराट खोल को झुलसाकर, सारे ब्रह्माण्ड में जल उठेगी।

10 ऊपर से दहकता सूर्य तथा नीचे से भगवान संकर्षण की अग्नि से इस तरह सभी दिशाओं से–जलता हुआ ब्रह्माण्ड गोबर के दहकते पिण्ड की तरह चमकने लगेगा।

11 भीषण विनाशकारी वायु एक सौ वर्षों से भी अधिक काल तक बहेगी और धूल से आच्छादित आकाश भूरा हो जायेगा।

12 हे राजन, उसके बाद नाना रंग के बादलों के समूह बिजली के साथ घोर गर्जना करते हुए एकत्र होंगे और एक सौ वर्षों तक मूसलाधार वर्षा करते रहेंगे।

13 उस समय ब्रह्माण्ड की खोल जल से भर जायेगी और एक विराट सागर का निर्माण करेगी।

14 जब सारा ब्रह्माण्ड जलमग्न हो जाता है, तो यह जल पृथ्वी के अद्वितीय सुगन्धि गुण को हर लेगा और पृथ्वी, अपने इस विभेदकारी गुण से विहीन होकर, विलीन हो जायेगी।

15-19 हे राजन जल तत्त्व अपने अद्वितीय गुण, स्वाद से वंचित होकर अग्नि में लीन हो जाता है और अग्नि अपना निहित रूप खोकर वायु में विलीन हो जाती है। वायु के गुण स्पर्श को आकाश ले लेता है और वह आकाश में प्रवेश कर जाती है। तमोगुणी मिथ्या अहंकार, आकाश का गुण ध्वनि को हर लेता है और आकाश मिथ्या अहंकार में विलीन हो जाता है। रजोगुणी मिथ्या अहंकार, इन्द्रियों को अपने में समा लेता है और सतोगुणी अहंकार देवताओं को विलीन कर लेता है। तत्पश्चात मिथ्या अहंकार को सम्पूर्ण महत तत्त्व उसके विविध कार्यों समेत ग्रहण करता है और यह महत तत्त्व प्रकृति के तीन गुणों –सतो, रजो तथा तमो– द्वारा जकड़ लिया जाता है। हे राजा परीक्षित, ये गुण काल द्वारा प्रेरित प्रकृति के मूल अव्यक्त रूप द्वारा अधिगृहीत हो जाते हैं। अव्यक्त प्रकृति काल के प्रभाव द्वारा उत्पन्न छह प्रकार के विकारों के अधीन नहीं होती–इसका न तो आदि होता है और न अन्त। यह सृष्टि का अव्यक्त, शाश्वत, अव्यय कारण है।

20-21 प्रकृति की अव्यक्त अवस्था, जिसे प्रधान कहते हैं, उसमें न वाणी, न मन, न महत इत्यादि सूक्ष्म तत्त्व और न ही सतो, रजो तथा तमोगुण होते हैं। उसमें न तो प्राणवायु, न बुद्धि, न कोई इन्द्रियाँ या देवता रहते हैं। उसमें न तो ग्रहों की स्पष्ट व्यवस्था होती है, न ही चेतना की विभिन्न अवस्थाएँ – सुप्त, जागृत तथा सुषुप्त – ही होती हैं। उसमें आकाश, जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि या सूर्य नहीं होते। यह स्थिति सुषुप्ति अथवा शून्य जैसी होती है। निस्सन्देह, यह अवर्णनीय है। किन्तु आध्यात्मिक विज्ञानवेत्ता बताते हैं कि प्रधान के मूल वस्तु होने से यह भौतिक सृष्टि का वास्तविक कारण है।

22 परम पुरुष की अव्यक्त भौतिक प्रकृति से सम्बन्धित शक्तियाँ – काल के वेग द्वारा अव्यवस्थित हो जाने से, शक्तिविहीन होकर, पूरी तरह प्राकृतिक प्रलय में विलीन हो जाती हैं।

23 एकमात्र परम सत्य ही बुद्धि, इन्द्रियों तथा इन्द्रिय-अनुभूति की वस्तुओं के रूपों में प्रकट होता है और वही उनका परम आधार है। जिस किसी का भी आदि तथा अन्त होता है, वह अपर्याप्त (अवस्तु) है क्योंकि वह सीमित इन्द्रियों के द्वारा अनुभूत वस्तु है और अपने कारण से अभिन्न है।

24 दीपक, उस दीपक के प्रकाश से देखने वाली आँख तथा देखा जानेवाला दृश्य रूप, मूलतः अग्नि तत्त्व से अभिन्न हैं। इसी तरह बुद्धि, इन्द्रियों तथा इन्द्रिय अनुभूतियों का परम सत्य से पृथक कोई अस्तित्व नहीं है यद्यपि वह परम सत्य उनसे सर्वथा भिन्न होता है।

25 बुद्धि की तीन अवस्थाएँ जागृत, सुप्त तथा सुषुप्त कहलाती है, लेकिन, इन विभिन्न अवस्थाओं से उत्पन्न नाना प्रकार के अनुभव माया के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं।

26 जिस तरह आकाश में बादल बनते हैं और अपने घटक तत्त्वों के मिश्रण तथा विलय के द्वारा इधर-उधर बिखर जाते हैं, उसी तरह यह भौतिक ब्रह्माण्ड, परब्रह्म के भीतर, अपने अवयव रूपी तत्त्वों के मिश्रण तथा विघटन से, बनता और विनष्ट होता है।

27 हे राजन, वेदान्त सूत्र में यह कहा गया है कि इस ब्रह्माण्ड में किसी व्यक्त पदार्थ को निर्मित करनेवाला अवयवी कारण, पृथक सत्य के रूप में, उसी तरह देखा जा सकता है, जिस तरह वस्त्र को बनाने वाले धागे उनसे बनी हुई वस्तु वस्त्र से अलग देखे जा सकते हैं।

28 सामान्य कारण तथा विशिष्ट कार्य के रूप में अनुभव की हुई कोई भी वस्तु भ्रम है क्योंकि ऐसे कारण तथा कार्य एक-दूसरे के सापेक्ष होते हैं। निस्सन्देह, जिसका भी आदि तथा अन्त है, वह असत्य है।

29 भौतिक प्रकृति के एक भी परमाणु का अनुभव किया जानेवाले रूपान्तर, परमात्मा के उल्लेख के बिना कोई चरम अर्थ नहीं रखता। किसी वस्तु को यथार्थ रूप में विद्यमान मानने के लिए उस वस्तु को शुद्ध आत्मा जैसी गुण वाली, नित्य तथा अव्यय होना चाहिए।

30 परम सत्य में कोई भौतिक द्वैत नहीं है। अज्ञानी व्यक्ति द्वारा अनुभूत द्वैत, रिक्त पात्र के भीतर तथा पात्र के बाहर के आकाश के अन्तर के समान, अथवा जल में सूर्य के प्रतिबिम्ब तथा आकाश में सूर्य के अन्तर के समान, अथवा एक शरीर के भीतर की प्राणवायु तथा दूसरे शरीर की प्राणवायु में, जो अन्तर है उसके समान है।

31 लोग विभिन्न प्रयोजनों के अनुसार सोने का उपयोग नाना प्रकार से करते हैं, इसलिए सोना विविध रूपों में देखा जाता है। इसी तरह भौतिक इन्द्रियों के लिए अगम्य भगवान का वर्णन विभिन्न प्रकार के लोगों द्वारा विभिन्न रूपों में – सामान्य तथा वैदिक रूप में – किया जाता है।

32 यद्यपि बादल सूर्य की ही उपज है और सूर्य द्वारा दृश्य भी होता है, तो भी यह देखने वाली आँख के लिए जो सूर्य का ही दूसरा अंश है, अँधेरा उत्पन्न कर देता है। इसी तरह परम सत्य की विशेष उपज मिथ्या अहंकार जो परम सत्य द्वारा ही दृश्य बनाई जाती है, आत्मा को परम सत्य का साक्षात्कार करने से रोकता है यद्यपि आत्मा भी परम सत्य का ही अंश है।

33 जब सूर्य से उत्पन्न बादल तितर-बितर हो जाता है, तो आँख सूर्य के वास्तविक स्वरूप को देख सकती है। इसी तरह, जब आत्मा दिव्य विज्ञान के विषय में जिज्ञासा (पूछताछ) करके, मिथ्या अहंकार के भौतिक आवरण को नष्ट कर देता है, तो वह अपनी मूल आध्यात्मिक जागरूकता को फिर से प्राप्त होता है।

34 हे राजा परीक्षित, जब आत्मा को बाँधने वाले मायामय मिथ्या अहंकार को विवेक-शक्ति की तलवार से काट दिया जाता है और मनुष्य अच्युत परमात्मा का अनुभव प्राप्त कर लेता है, तो वह भौतिक जगत का आत्यन्तिक या परम प्रलय कहलाता है।

35 हे शत्रुओं के दमन – कर्ता, प्रकृति की सूक्ष्म कार्य-प्रणाली के ज्ञाताओं ने घोषित किया है कि उत्पत्ति तथा प्रलय की प्रक्रियाएँ निरन्तर चलती रहती हैं जिनसे ब्रह्मा इत्यादि सारे प्राणी निरन्तर प्रभावित होते रहते हैं।

36 सारी भौतिक वस्तुओं में रूपान्तर होते हैं और वे काल के प्रबल प्रवाह द्वारा तेजी से क्षरित हो जाती हैं। भौतिक वस्तुओं द्वारा प्रदर्शित अपने अस्तित्व की विविध अवस्थाएँ उनकी उत्पत्ति तथा प्रलय के स्थायी कारण हैं।

37 भगवान के निर्विशेष प्रतिनिधि स्वरूप, आदि तथा अन्तहीन काल द्वारा उत्पन्न, जगत की अवस्थाएँ उसी तरह दृश्य नहीं हैं जिस तरह आकाश में नक्षत्रों की स्थिति में होनेवाले अत्यन्त सूक्ष्म परिवर्तनों को नहीं देखा जा सकता।

38 इस प्रकार काल की प्रगति को चार प्रकार के प्रलय के रूप में वर्णित किया जाता है। ये हैं स्थायी, नैमित्तिक, प्राकृतिक तथा आत्यन्तिक।

39 हे कुरुश्रेष्ठ, मैंने तुम्हें भगवान नारायण की लीलाओं की ये कथाएँ संक्षेप में बतला दी हैं। भगवान इस जगत के स्रष्टा हैं और सारे जीवों के अन्ततः आगार हैं। यहाँ तक कि ब्रह्मा भी उन कथाओं को पूरी तरह बतलाने में अक्षम हैं।

40 असंख्य सन्तापों की अग्नि से पीड़ित तथा दुर्लंघ्य संसार सागर को पार करने के इच्छुक व्यक्ति के लिए, भगवान की लीलाओं की कथाओं के दिव्य आस्वाद के प्रति भक्ति का अनुशीलन करने के अतिरिक्त कोई अन्य उपयुक्त नाव नहीं है।

41 बहुत दिन बीते, सारे पुराणों की यह आवश्यक संहिता, अच्युत नर-नारायण ऋषि ने नारद से कही थी, जिन्होंने फिर इसे कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास से कहा।

42 हे महाराज परीक्षित, महापुरुष श्रील व्यासदेव ने मुझे उसी शास्त्र श्रीमदभागवत की शिक्षा दी जो महत्त्व में चारों वेदों के ही तुल्य है।

43 हे कुरुश्रेष्ठ, हमारे समक्ष आसीन यही सूत गोस्वामी नैमिषारण्य के विराट यज्ञ में एकत्र ऋषियों से इस भागवत का प्रवचन करेंगे। ऐसा वे तब करेंगे जब शौनक आदि सभा के सदस्य उनसे प्रश्न करेंगे।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भूमि गीत (12.3)

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अध्याय तीन – भूमि गीत (12.3)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस जगत के राजाओं को अपने पर विजय प्राप्त करने के प्रयास में जुटे देखकर, पृथ्वी हँसने लगी। उसने कहा: “जरा देखो तो इन राजाओं को जो मृत्यु के हाथों में खिलौनों जैसे हैं, मुझ पर विजय पाने की इच्छा कर रहे हैं।"

2 मनुष्यों के महान शासक जो कि विद्वान भी हैं, भौतिक कामेच्छा के कारण हताशा तथा असफलता को प्राप्त होते हैं। ये राजा काम से प्रेरित होकर, मांस के मृत पिण्ड में, जिसे हम शरीर कहते हैं, अत्यधिक आशा तथा श्रद्धा रखते हैं यद्यपि भौतिक ढाँचा जल पर तैरते फेन के बुलबुलों के समान क्षणभंगुर है।

3-4 राजे तथा राजनेता यह कल्पना करते हैं कि सर्वप्रथम मैं अपनी इन्द्रियों तथा मन को जीतूँगा; फिर मैं अपने प्रमुख मंत्रियों का दमन करूँगा और अपने सलाहकारों, नागरिकों, मित्रों तथा सम्बन्धियों एवं अपने हाथियों के रखवालों रूपी कंटकों से अपने को मुक्त कर लूँगा। इस तरह धीरे धीरे मैं पूरी पृथ्वी को जीत लूँगा। चूँकि इन नेताओं के हृदयों में बड़ी-बड़ी अपेक्षाएँ रहती हैं अतएव ये पास ही खड़ी प्रतीक्षारत मृत्यु को नहीं देख पाते।

5 ये गर्वित राजागण मेरे तल पर सारी भूमि को जीत लेने के बाद, समुद्र को जीतने के लिए बलपूर्वक समुद्र में प्रवेश करते हैं। भला उनके ऐसे आत्मसंयम से क्या लाभ जिसका लक्ष्य राजनीतिक शोषण हो? आत्मसंयम का वास्तविक लक्ष्य तो आध्यात्मिक मुक्ति है।

6 हे कुरुश्रेष्ठ, पृथ्वी ने आगे कहा: यद्यपि पूर्व काल में मुझे छोड़कर, बड़े-बड़े पुरुष तथा उनके वंशज इस संसार से उसी असहायवस्था में चल बसे जिस दशा में वे इसमें आये थे, किन्तु आज भी मूर्ख लोग मुझे जीतने का प्रयास किये जा रहे हैं।

7 मुझे जीतने के उद्देश्य से भौतिकतावादी लोग परस्पर लड़ते हैं। पिता अपने पुत्र का विरोध करता है और भाई एक-दूसरे से झगड़ते हैं क्योंकि उनके हृदय राजनैतिक शक्ति पाने के लिए बँधे रहते हैं।

8 राजनेता लोग यह सारी भूमि मेरी है – "अरे मूर्खों! यह तुम्हारी नहीं है" – ऐसा कहकर एक-दूसरे पर हमला करते हैं और मर जाते हैं।

9-13 पृथु, पुरुरवा, गाधि, नहुष, भरत, कार्तवीर्य अर्जुन, मान्धाता, सगर, राम, खटवांग, धुन्धुहा, रघु, तृणबिन्दु, ययाति, शर्याति, शन्तनु, गय, भगीरथ, कुवलयाक्ष, ककुत्स्थ, नैषध, नृग, हिरण्यकशिपु, वृत्र, सारे जग को रुलाने वाला रावण, नमूची, शम्बर, भौम, हिरण्याक्ष तथा तारक के साथ साथ अन्य असुर तथा अन्यों पर शासन करने की महान शक्ति से युक्त राजे – ये सारे के सारे ज्ञानी, शूर, सबको जीतने वाले तथा अजेय थे। तो भी हे सर्वशक्तिमान प्रभु, ये सारे राजा मुझे पाने के लिए गहन प्रयास करते हुए जीवन बिताते रहे, किन्तु काल के अधीन थे और काल ने सबको मात्र ऐतिहासिक वृत्तान्त बना दिया है। इनमें से एक भी स्थायी रूप से अपना शासन स्थापित नहीं कर सका।"

14 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे बलशाली परीक्षित, मैंने इन सारे महान राजाओं की कथाएँ तुमसे बतला दीं जिन्होंने संसार - भर में अपना यश फैलाया और फिर चले गये। मेरा असली उद्देश्य दिव्य ज्ञान तथा वैराग्य की शिक्षा देना था। राजाओं की कथाएँ इन वृत्तान्तों को शक्ति तथा ऐश्वर्य प्रदान करती हैं लेकिन वे स्वयं ज्ञान के चरम पक्ष का निर्माण नहीं करती हैं।

15 जो व्यक्ति भगवान कृष्ण की शुद्ध भक्ति चाहता है उसे भगवान उत्तमश्लोक के यशपूर्ण गुणों की कथाएँ सुननी चाहिए जिनके निरन्तर कीर्तन से सारे अमंगल विनष्ट हो जाते हैं। भक्तों को नियमित दैनिक संगोष्ठियों में ऐसे श्रवण में स्वयं को लगाना चाहिए और दिनभर इसी में लगे रहना चाहिए।

16 राजा परीक्षित ने कहा: हे स्वामी, कलियुग में रहनेवाले लोग इस युग के संचित कल्मष से किस तरह अपने को छुटा सकते हैं? हे महामुनि यह मुझे बतलाये।

17 कृपया विश्व इतिहास के विभिन्न युगों, प्रत्येक युग के विशिष्ट गुणों, ब्रह्माण्ड स्थिति की अवधि तथा संहार एवं परमात्मा स्वरूप विष्णु के प्रत्यक्ष प्रतिनिधि काल की गति के बारे में बतलाये।

18 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, प्रारम्भ में, सत्ययुग में, धर्म अपने चार अक्षत पैरों से युक्त रहता है और उस युग के लोगों द्वारा सावधानी से धारण किया जाता है। शक्तिशाली धर्म के चार पैर हैं – सत्य, दया, तपस्या तथा दान।

19 सत्ययुग के लोग प्रायः आत्मतुष्ट, दयालु, सबके मित्र, शान्त, गम्भीर तथा सहिष्णु होते हैं। वे अन्तःकरण से आनन्द लेनेवाले, सभी वस्तुओं को एक-सा देखनेवाले तथा आध्यात्मिक सिद्धि के लिए सदैव उद्यमशील होते हैं।

20 त्रेतायुग में अधर्म के चार पैरों – झूठ, हिंसा, असंतोष तथा कलह – के प्रभाव से धर्म का प्रत्येक पैर क्रमशः एक चौथाई क्षीण हो जाता है।

21 त्रेतायुग में लोग कर्मकाण्ड तथा कठिन तपस्या में लगे रहते हैं। वे न तो अत्यधिक उग्र होते हैं न ऐन्द्रिय आनन्द के पीछे अत्यधिक कामुक होते हैं। उनकी रुचि मुख्यतः धर्म, आर्थिक विकास तथा नियमित इन्द्रियतृप्ति में रहती है और वे तीन वेदों की संस्तुतियों का पालन करते हुए सम्पन्नता प्राप्त करते हैं। हे राजा, यद्यपि इस युग में समाज में चार पृथक-पृथक श्रेणियाँ (वर्ण) उत्पन्न हो जाती हैं, किन्तु अधिकांश लोग ब्राह्मण होते हैं।

22 द्वापर युग में तपस्या, सत्य, दया तथा दान के धार्मिक गुण अपने अधार्मिक विलोम अंशों-असंतोष, असत्य, हिंसा तथा शत्रुता – के द्वारा घटकर आधे रह जाते हैं।

23 द्वापर युग में लोग यश में रुचि रखते हैं तथा अत्यन्त नेक होते हैं। वे वेदाध्ययन में अपने को लगाये रखते हैं, प्रचुर ऐश्वर्य वाले होते हैं, बड़े-बड़े परिवारों वाले होते हैं और जीवन का ओजपूर्वक आनन्द उठाते हैं। चारों वर्णों में से क्षत्रिय तथा ब्राह्मण ही सर्वाधिक संख्या में होते हैं।

24 कलियुग में धार्मिक सिद्धान्तों का केवल एक चौथाई शेष रह जाता है और यह अवशेष भी अधर्म के सदैव बढ़ने के कारण लगातार घटता जायेगा और अन्त में विनष्ट हो जायेगा।

25 कलियुग में लोग लोभी, दुराचारी तथा निर्दयी होते हैं और वे बिना कारण ही एक-दूसरे से लड़ते-झगड़ते हैं। कलियुग के लोग अभागे तथा भौतिक इच्छाओं से त्रस्त होकर, प्रायः सभी शूद्र एवं बर्बर होते हैं।

26 सतो, रजो तथा तमोगुण, जिनके रूपान्तर पुरुष के मन के भीतर देखने में आते हैं, काल की शक्ति से गतिमान होते हैं।

27 जब मन, बुद्धि तथा इन्द्रियाँ पूरी तरह से सतोगुण में स्थित हैं, तो उस काल को सत्ययुग समझना चाहिए। तब लोग ज्ञान तथा तपस्या में रुचि लेते हैं।

28 हे परम बुद्धिमान, जब बद्धजीव अपने कर्मों के प्रति समर्पित तो होते हैं किन्तु उनमें बाह्य मनोभाव पाये जाते हैं और वे निजी प्रतिष्ठा की चाह करते हैं, तो तुम यह जान लो कि ऐसी स्थिति त्रेतायुग की है, जिसमें राजसिक कर्मों की प्रधानता होती है।

29 जब लोभ, असन्तोष, मिथ्या अहंकार, दिखावा तथा ईर्ष्या प्रधान बन जाते हैं और साथ में स्वार्थपूर्ण कार्यों के लिए आकर्षण होता है, तो ऐसा काल द्वापर युग है, जिसमें रजो तथा तमोगुण के मिश्रण की प्रधानता होती है।

30 जब धोखा (कपट), झूठ, तन्द्रा, निद्रा, हिंसा, विषाद, शोक, मोह, भय तथा दरिद्रता का बोलबाला होता है, वह युग कलियुग अर्थात तमोगुण का युग होता है।

31 कलियुग के दुर्गुणों के कारण मनुष्य क्षुद्र दृष्टि वाले, अभागे, पेटु, कामी तथा दरिद्र होंगे। स्त्रियाँ कुलटा होने से एक पुरुष को छोड़कर बेरोक टोक दूसरे के पास चली जायेंगी।

32 शहरों में चोरों का दबदबा होगा, वेद नास्तिकों के द्वारा की गई मनमानी व्याख्या से दूषित किए जायेंगे, राजनीतिक नेता प्रजा का भक्षण करेंगे और तथाकथित पुरोहित तथा बुद्धिजीवी अपने पेट तथा जननांगों के भक्त होंगे।

33 ब्रह्मचारी अपने व्रतों को सम्पन्न नहीं कर सकेंगे और सामान्यतया अस्वच्छ रहेंगे। गृहस्थ लोग भिखारी बन जायेंगे; वानप्रस्थि गाँवों में रहने लगेंगे और संन्यासी लोग धन के लालची बन जायेंगे।

34 स्त्रियों का आकार काफी छोटा हो जायेगा और वे अधिक भोजन करेंगी, अधिक सन्तानें उत्पन्न करेंगी जिनका पालन-पोषण करने में वे अक्षम होंगी और सारी लाज खो बैठेंगी। वे सदैव कड़वा बोलेंगी और चोरी, कपट तथा अप्रतिबन्धित साहस के गुण प्रदर्शित करेंगी।

35 व्यापारी लोग क्षुद्र व्यापार में लगे रहेंगे और धोखाधड़ी से धन कमायेंगे। आपात काल न होने पर भी लोग किसी भी अधम पेशे को अपनाने की सोचेंगे।

36 नौकर उस मालिक को छोड़ देंगे जो अपनी धन-संपदा गँवा चुका होता है भले ही वह मालिक सन्त-सदृश उत्कृष्ट आचरण का क्यों न हो। मालिक भी अक्षम नौकर को त्याग देंगे भले ही वह नौकर पीढ़ियों से उस परिवार में क्यों न रहा हो। दूध देना बन्द कर चुकी गौवों को या तो छोड़ दिया जायेगा या मार दिया जायेगा।

37 कलियुग में मनुष्य कंजूस तथा स्त्रियों द्वारा नियंत्रित होंगे। वे अपने पिता, भाई, अन्य सम्बन्धियों तथा मित्रों को त्यागकर साले तथा सालियों की संगति करेंगे। इस तरह उनकी मैत्री की धारणा नितान्त यौन-सम्बन्धों पर आधारित होगी।

38 असंस्कृत लोग भगवान के नाम पर दान लेंगे और तपस्या का स्वाँग रचाकर तथा साधु का वेश धारण करके अपनी जीविका चलायेंगे। धर्म न जानने वाले उच्च आसन पर बैठेंगे और धार्मिक सिद्धान्तों पर प्रवचन करने का ढोंग रचेंगे।

39-40 कलियुग में लोगों के मन सदैव अशान्त रहेंगे। हे राजन, वे अकाल तथा कर-भार से दुर्बल हो जायेंगे और सूखे के भय से सदैव विचलित रहेंगे। उन्हें पर्याप्त वस्त्र, भोजन तथा पेय का अभाव रहेगा; वे न तो ठीक से विश्राम कर सकेंगे, न स्नान कर सकेंगे। उनके पास अपने शरीरों को सुसज्जित करने के लिए आभूषण नहीं होंगे। वस्तुतः कलियुग के लोग धीरे-धीरे पिशाच जैसे दिखने लगेंगे।

41 कलियुग में लोग थोड़े से सिक्कों के लिए भी शत्रुता ठान लेंगे। वे सारे मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों को त्यागकर स्वयं मरने तथा अपने ही सम्बन्धियों को मार डालने पर उतारु हो जायेंगे।

42 लोग अपने बूढ़े माता-पिता, अपने बच्चों या अपनी सम्मान्य पत्नियों की रक्षा नहीं कर सकेंगे। वे अत्यन्त पतित होकर अपने पेट तथा जननांगों की तुष्टि में लगे रहेंगे।

43 हे राजन, कलियुग में लोगों की बुद्धि नास्तिकता के द्वारा विपथ हो जायेगी और वे ब्रह्माण्ड के परम गुरु स्वरूप भगवान को कभी भी भेंट नहीं चढ़ायेंगे। तीनों लोकों के नियन्ता महापुरुष तक भगवान के चरणकमलों पर अपना शीश नवाते हैं, किन्तु इस युग के क्षुद्र एवं दुखी लोग ऐसा नहीं करेंगे।

44 मरने वाला व्यक्ति भयभीत होकर अपने बिस्तर पर गिर जाता है। यद्यपि उसकी वाणी अवरुद्ध हुई रहती है और उसे इसका बोध नहीं रहता कि वह क्या कह रहा है, किन्तु यदि भगवान का पवित्र नाम लेता है, तो कर्मफल से मुक्त हो सकता है और चरम गन्तव्य को प्राप्त कर सकता है। किन्तु तो भी कलियुग में लोग भगवान की पूजा नहीं करेंगे।

45 कलियुग में वस्तुएँ, स्थान तथा व्यक्ति भी, सभी प्रदूषित हो जाते हैं। किन्तु भगवान उस व्यक्ति के जीवन से ऐसा सारा कल्मष हटा सकते हैं, जो अपने मन के भीतर भगवान को स्थिर कर लेता है।

46 यदि कोई व्यक्ति हृदय के भीतर स्थित परमेश्वर के विषय में सुनता है, महिमा का गान करता है, पूजा करता है या अत्यधिक आदर करता है, तो भगवान उसके मन से हजारों जन्मों से संचित कल्मष को दूर कर देते हैं।

47 जिस तरह सोने को गलाने पर अग्नि अन्य धातुओं की रंचमात्र उपस्थिति से उत्पन्न बदरंग को दूर कर देती है उसी तरह हृदय के भीतर स्थित भगवान विष्णु योगियों के मन को शुद्ध कर देते हैं।

48 देवपूजा, तपस्या, प्राणायाम, दया, तीर्थस्थान, कठिन व्रत, दान तथा विविध मंत्रों के उच्चारण से मन को वैसी परम शुद्धि प्राप्त नहीं हो सकती जैसी कि हृदय के भीतर अनन्त भगवान के प्रकट होने पर होती है।

49 इसलिए हे राजन, अपनी शक्तिभर अपने हृदय में परम भगवान केशव को स्थिर करने का प्रयास करो। यह एकाग्रता भगवान पर बनाये रखो और अपनी मृत्यु के समय तुम निश्चित रूप से परम गन्तव्य को प्राप्त करोगे।

50 हे राजन, भगवान परम नियन्ता हैं। वे परमात्मा है और सारे प्राणियों के परम आश्रय है। मरणासन्न लोगों के द्वारा ध्यान किए जाने पर वे उन्हें अपना नित्य आध्यात्मिक स्वरूप प्रकट करते हैं।

51 हे राजन, यद्यपि कलियुग दोषों का सागर है फिर भी इस युग में एक अच्छा गुण है – केवल हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करने से मनुष्य भवबन्धनसे मुक्त हो जाता है और दिव्य धाम को प्राप्त होता है।

52 सत्ययुग में विष्णु का ध्यान करने से, त्रेतायुग में यज्ञ करने से तथा द्वापर युग में भगवान के चरणकमलों की सेवा करने से, जो फल प्राप्त होता है, वही कलियुग में केवल हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करके प्राप्त किया जा सकता है।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय दो – कलियुग के लक्षण (12.2)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, तब कलियुग के प्रबल प्रभाव से धर्म, सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया, आयु, शारीरिक बल तथा स्मरणशक्ति दिन प्रतिदिन क्षीण होते जायेंगे।

2 कलियुग में एकमात्र सम्पत्ति को ही मनुष्य के उत्तम जन्म, उचित व्यवहार तथा उत्तम गुणों का लक्षण माना जायेगा। कानून तथा न्याय तो मनुष्य के बल के अनुसार ही लागू होंगे।

3 पुरुष तथा स्त्रियाँ केवल ऊपरी आकर्षण के कारण एकसाथ रहेंगे और व्यापार की सफलता कपट पर निर्भर करेगी। पुरुषत्व तथा स्त्रीत्व का निर्णय कामशास्त्र में उनकी निपुणता के अनुसार किया जायेगा और ब्राह्मणत्व जनेऊ पहनने पर निर्भर करेगा।

4 मनुष्य का आध्यात्मिक पद मात्र बाह्य प्रतिकों से सुनिश्चित होगा और इसी आधार पर लोग एक आश्रम छोड़कर दूसरे आश्रम को स्वीकार करेंगे। यदि किसी की जीविका उत्तम नहीं है, तो उस व्यक्ति के औचित्य में सन्देह किया जायेगा और जो चिकनी-चुपड़ी बातें बनाने में चतुर होगा वह विद्वान पण्डित माना जायेगा।

5 यदि किसी व्यक्ति के पास धन नहीं है, तो वह अपवित्र माना जायेगा और दिखावे को गुण मान लिया जायेगा। विवाह मौखिक स्वीकृति के द्वारा व्यवस्थित होगा और कोई भी व्यक्ति अपने को जनता के बीच आने के लिए योग्य समझेगा यदि उसने केवल स्नान कर लिया हो।

6 तीर्थस्थान को दूरस्थ जलाशय और सौन्दर्य को मनुष्य की केश-सज्जा पर आश्रित, माना जायेगा। उदर-भरण जीवन का लक्ष्य बन जायेगा और जो जितना ढीठ होगा उसे उतना ही सत्यवादी मान लिया जायेगा। जो व्यक्ति परिवार का पालन-पोषण कर सकता है, वह दक्ष समझा जायेगा। धर्म का अनुसरण मात्र यश के लिए किया जायेगा।

7 इस तरह ज्यों-ज्यों पृथ्वी भ्रष्ट जनता से भरती जायेगी, त्यों-त्यों समस्त वर्णों में से जो अपने को सबसे बलवान दिखला सकेगा वह राजनैतिक शक्ति प्राप्त करेगा।

8 निष्ठुर शासकों द्वारा – (जिनका आचरण चोरों जैसा होगा) – नागरिक (जनता) अपनी पत्नियाँ तथा सम्पत्ति छीन लिये जाने पर, पर्वतों तथा जंगलों की ओर पलायन कर जायेगी।

9 अकाल तथा अत्यधिक कर (टैक्स) से सताये हुए लोग पत्तियाँ, जड़ें, मांस, जंगली शहद, फल, फूल तथा बीज खाने के लिए बाध्य हो जाएँगे। अनावृष्टि से पीड़ित होकर वे पूर्णतया विनष्ट हो जायेंगे।

10 जनता को शीत, वात, तपन, वर्षा तथा हिम से अत्यधिक कष्ट उठाना पड़ेगा। लोग आपसी झगड़ों, भूख प्यास, रोग तथा अत्यधिक चिन्ता से भी पीड़ित होते रहेंगे।

11 कलियुग में मनुष्यों की अधिकतम आयु पचास वर्ष हो जायेगी।

12-16 कलियुग समाप्त होने तक सभी प्राणियों के शरीर आकार में अत्यन्त छोटे हो जायेंगे और वर्णाश्रम मानने वालों के धार्मिक सिद्धान्त विनष्ट हो जायेंगे। मानव समाज वेदपथ को पूरी तरह भूल जायेगा और तथाकथित धर्म प्रायः नास्तिक होगा। राजा प्रायः चोर हो जायेंगे; लोगों का पेशा चोरी करना, झूठ बोलना तथा व्यर्थ हिंसा करना हो जायेगा और सारे सामाजिक वर्ण शूद्रों के स्तर तक नीचे गिर जायेंगे। गौवें बकरियों जैसी होंगी; आश्रम संसारी घरों से भिन्न नहीं होंगे तथा पारिवारिक सम्बन्ध तात्कालिक विवाह बन्धनसे आगे नहीं जायेंगे। अधिकांश वृक्ष तथा जड़ी-बूटियाँ छोटी हो जाएँगी और सारे वृक्ष बौने शमी वृक्षों जैसे प्रतीत होंगे। बादल बिजली से भरे होंगे; घर पवित्रता से रहित तथा सारे मनुष्य गधों जैसे गुणों वाले हो जायेंगे। उस समय भगवान पृथ्वी पर प्रकट होंगे। वे शुद्ध सतोगुण की शक्ति से कर्म करते हुए शाश्वत धर्म की रक्षा करेंगे।

17 भगवान विष्णु जो कि सारे जड़ तथा चेतन प्राणियों के गुरु एवं परमात्मा हैं, धर्म की रक्षा करने तथा अपने सन्त भक्तों को भौतिक कर्मफल से छुटकारा दिलाने के लिए प्रकट होते हैं।

18 भगवान कल्कि शम्भल ग्राम के एक सर्वाधिक गण्य-मान्य ब्राह्मण महात्मा विष्णुयशा के घर में प्रकट होंगे।

19-20 ब्रह्माण्ड के स्वामी भगवान कल्कि अपने तेज घोड़े देवदत्त पर सवार होंगे और हाथ में तलवार लेकर, ईश्वर के आठ योग ऐश्वर्यों तथा आठ विशिष्ट गुणों को प्रदर्शित करते हुए, पृथ्वी पर विचरण करेंगे। वे अपना अद्वितीय तेज प्रदर्शित करते हुए तथा तेज गति से सवारी करते हुए, उन करोड़ों चोरों का वध करेंगे जो राजाओं के वेश में रहने का दुस्साहस कर रहे होंगे।

21-23 जब सारे धूर्त राजा मारे जा चुकेंगे, तो शहरों तथा कस्बों के निवासी, भगवान वासुदेव को लेपित चन्दन तथा अन्य प्रसाधनों की सुगन्धि को लाती हुई पवित्र वायु का अनुभव करेंगे और उनके मन आध्यात्मिक रूप से शुद्ध हो जायेंगे। जब पृथ्वी पर धर्म के पालनहारे भगवान अपने दिव्य सात्विक, कल्कि के रूप में प्रकट होंगे, तो सत्ययुग प्रारम्भ हो जाएगा और सात्विक मानव समाज की स्थापना होगी।

24 जब चन्द्रमा, सूर्य तथा बृहस्पति एकसाथ कर्कट राशि में होते हैं और तीनों एक ही समय पुष्य नक्षत्र में प्रवेश करते हैं, ठीक उसी क्षण सत्ययुग या कृतयुग प्रारम्भ होगा।

25 इस तरह मैंने सूर्य तथा चन्द्र वंशों-के भूत, वर्तमान तथा भविष्य – के सारे राजाओं का वर्णन कर दिया है।

26 तुम्हारे जन्म से लेकर राजा नन्द के राजतिलक तक 1150 वर्ष बीत चुकेंगे।

27-28 सप्तर्षि मण्डल के सात तारों में से पुलह तथा क्रतु ही रात्रिकालीन आकाश में सबसे पहले उदय होते हैं। यदि उनके मध्य बिन्दु से होकर उत्तर दक्षिण को एक रेखा खींची जाय तो वह जिस नक्षत्र से होकर गुजरती, वह उस काल का प्रधान नक्षत्र माना जाता है। सप्तर्षिगण एक सौ मानवी वर्षों तक उस विशेष नक्षत्र से जुड़े रहते हैं। सम्प्रति (वर्तमान में) तुम्हारे जीवन-काल में, वे मघा नक्षत्र में स्थित हैं।

29 भगवान विष्णु सूर्य के समान तेजवान हैं और कृष्ण कहलाते हैं। जब वे वैकुण्ठलोक वापस चले गये, तो कलि ने इस जगत में प्रवेश किया और तब लोग पापकर्मों में आनन्द लेने लगे।

30 जब तक लक्ष्मीपति भगवान श्रीकृष्ण अपने चरणकमलों से पृथ्वी का स्पर्श करते रहे, तब तक कलि इस लोक को वश में करने में असमर्थ रहा।

31 जब सप्तर्षि मण्डल मघा नक्षत्र से होकर गुजरता है, तो कलियुग प्रारम्भ होता है। यह देवताओं के 1200 वर्षों तक रहता है।

32 जब सप्तर्षि मण्डल मघा से चलकर पूर्वाषाढ़ा में जायेगा तो कलि अपनी पूर्ण शक्ति में होगा और राजा नन्द तथा उसके वंश से इसका सूत्रपात होगा।

33 जो लोग भूतकाल को अच्छी तरह समझते हैं, वे यह कहते हैं की जिस दिन भगवान कृष्ण ने वैकुण्ठलोक के लिए प्रस्थान किया, उसी दिन से कलियुग का प्रभाव शुरु हो गया।

34 कलियुग के एक हजार दैवी वर्षों के बाद, सत्ययुग पुनः प्रकट होगा। उस समय सारे मनुष्यों के मन स्वयं प्रकाशमान हो उठेंगे।

35 जिस प्रकार मैंने श्रीमद भागवत के स्कन्धों में वर्णित वैवस्वत मनु के विख्यात राजवंश का वर्णन, कह सुनाया, उसी प्रकार विविध युगों में रहनेवाले वैश्यों, शूद्रों तथा ब्राह्मणों के इतिहास का अध्ययन किया जा सकता है।

36 वे पुरुष जो महात्मा थे – अब केवल अपने नामों से जाने जाते हैं, भूतकाल के विवरणों में ही पाये जाते हैं और पृथ्वी पर केवल उनका यश रहता है।

37 महाराज शान्तनु का भाई देवापी तथा इक्ष्वाकु वंशी मारू, दोनों ही महान योगशक्ति से युक्त हैं और अब भी कलाप ग्राम में रह रहे हैं।

38 कलियुग के अन्त में, ये दोनों ही राजा भगवान वासुदेव का आदेश पाकर, मानव समाज में लौट आएँगे और मनुष्य के शाश्वत धर्म की पुनः स्थापना करेंगे जिसमें वर्ण तथा आश्रम का विभाजन पूर्ववत रहेगा।

39 इस पृथ्वी पर जीवों के बीच चार युगों का – सत्य, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग का – चक्र निरन्तर चलता रहता है, जिससे घटनाओं का वही सामान्य अनुक्रम दोहराया (पिष्टपेषित) जाता है।

40 हे राजा परीक्षित, मेरे द्वारा वर्णित ये सारे राजा तथा अन्य सारे मनुष्य इस पृथ्वी पर आते हैं, अपना प्रभुत्व जताते हैं किन्तु अन्त में उन्हें यह जगत त्यागना पड़ता है।

41 भले ही अभी मनुष्य का शरीर राजा की उपाधि से युक्त हो, किन्तु अन्त में इसका नाम कीड़े, मल या राख हो जायेगा। जो व्यक्ति अपने शरीर के लिए अन्य जीवों को पीड़ा पहुँचाता है, वह अपने हित के विषय में क्या जान सकता है क्योंकि उसके कार्य उसे नरक की ओर ले जानेवाले होते हैं?

42 भौतिकतावादी राजा सोचता है – यह असीम पृथ्वी मेरे पूर्वजों के अधीन थी, अब मेरी प्रभुसत्ता में है और मैं इसे अपने पुत्रों, पौत्रों तथा अन्य वंशजों के हाथों में रहते जाने की व्यवस्था किस तरह करूँ?

43 यद्यपि मूर्ख लोग पृथ्वी, जल तथा अग्नि से बने शरीर को 'मैं' और इस पृथ्वी को 'मेरी' मान लेते हैं, किन्तु अन्ततः उन सबको अपना शरीर तथा पृथ्वी दोनों त्यागने पड़े और वे विस्मृति के गर्भ में चले गये।

44 हे राजा परीक्षित, सारे राजा जिन्होंने अपने बल से पृथ्वी का भोग करना चाहा, कालशक्ति द्वारा मात्र ऐतिहासिक वृत्तान्त बनकर रह गये।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय एक – कलियुग के पतित वंश (12.1)

1-2 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हमने इसके पूर्व मागध वंश के जिन भावी शासकों के नाम गिनाए उनमें अन्तरिम राजा पुरञ्जय था, जो बृहद्रथ के वंशज के रूप में जन्म लेगा। पुरञ्जय का मंत्री शुनक राजा की हत्या करके अपने पुत्र प्रद्योत को सिंहासनारूढ़ करेगा। प्रद्योग का पुत्र पालक होगा और उसका पुत्र विशाखयूप होगा जिसका पुत्र राजक होगा।

3 राजक का पुत्र नन्दिवर्धन होगा और प्रद्योतन वंश में पाँच राजा होंगे जो 138 वर्षों तक पृथ्वी का भोग करेंगे।

4 नन्दिवर्धन का शिशुनाग नामक पुत्र होगा और उसका पुत्र काकवर्ण कहलायेगा। काकवर्ण का पुत्र क्षेमधर्मा होगा तथा क्षेमधर्मा का पुत्र क्षेत्रज्ञ होगा।

5 क्षेत्रज्ञ का पुत्र विधिसार होगा और उसका पुत्र अजातशत्रु होगा। अजातशत्रु के दर्भक नाम का पुत्र होगा और उसका पुत्र अजय होगा।

6-8 अजय दूसरे नन्दिवर्धन का पिता बनेगा, जिसका पुत्र महानन्दि होगा। हे कुरुश्रेष्ठ, शिशुनाग वंश के ये दस राजा कलियुग में 360 वर्षों तक राज्य करेंगे। हे परीक्षित, राजा महानन्दि की शूद्रा पत्नी के गर्भ से अत्यन्त शक्तिशाली पुत्र होगा जो नन्द कहलायेगा। वह लाखों सैनिकों तथा प्रभूत सम्पत्ति का स्वामी होगा। वह क्षत्रियों में कहर ढायेगा और उसके बाद के प्रायः सारे राजागण अधार्मिक शूद्र होंगे।

9 महापद्म का स्वामी, राजा नन्द, सारी पृथ्वी पर इस तरह शासन करेगा मानों द्वितीय परशुराम हो और उसकी सत्ता को कोई चुनौती नहीं दे सकेगा।

10 सुमाल्य इत्यादि उसके आठ पुत्र होंगे जो शक्तिशाली राजाओं के रूप में पृथ्वी को एक सौ वर्षों तक अपने वश में रखेंगे।

11 कोई एक ब्राह्मण (चाणक्य) राजा नन्द तथा उसके आठ पुत्रों के साथ विश्वासघात करेगा और उनके वंश का विनाश कर देगा। उनके न रहने पर कलियुग में मौर्यगण विश्व पर शासन करेंगे।

12 यह ब्राह्मण चन्द्रगुप्त को सिंहासन पर बैठाएगा जिसका पुत्र वारिसार होगा। वारिसार का पुत्र अशोकवर्धन होगा।

13 अशोकवर्धन के बाद सुयशा होगा जिसका पुत्र संगत होगा। इसका पुत्र शालीशूक होगा जिसका पुत्र सोमशर्मा होगा और सोमशर्मा का पुत्र शतधन्वा होगा और इसका पुत्र बृहद्रथ कहलायेगा।

14 हे कुरुश्रेष्ठ, ये दस मौर्य राजा कलियुग के 137 वर्षों तक पृथ्वी पर राज्य करेंगे।

15-17 हे राजा परीक्षित, इसके बाद अग्निमित्र राजा बनेगा, फिर सुज्येष्ठ और सुज्येष्ठ के बाद वसुमित्र, भद्रक तथा भद्रक का पुत्र पुलिन्द राजा होंगे। इसके बाद पुलिन्द का पुत्र घोष शासन करेगा जिसके बाद वज्रमित्र, भागवत तथा देवभूति होंगे। इस तरह हे कुरुश्रेष्ठ, दस शुंग राजा पृथ्वी पर एक सौ वर्षों से अधिक तक राज्य करेंगे। तब यह पृथ्वी काण्व वंश के राजाओं के अधीन हो जायेगी जिनमें बहुत ही कम सद्गुण होंगे।

18 काण्व वंश से सम्बद्ध एक बुद्धिमान मंत्री वसुदेव, शुंग राजाओं में से देवभूति नामक अत्यन्त विलासी अन्तिम राजा को मारेगा और स्वयं शासन हाथ में ले लेगा।

19 वसुदेव का पुत्र भूमित्र होगा और उसका पुत्र नारायण होगा। काण्व वंश के ये राजा पृथ्वी पर कलियुग के अगले 345 वर्षों तक शासन चलायेंगे।

20 काण्वों का अन्तिम राजा सुशर्मा, अन्ध्र जाति के अधम शूद्र बली नामक नौकर के हाथों मारा जायेगा। यह अत्यन्त भ्रष्ट महाराज बली कुछ काल तक पृथ्वी पर शासन करेगा।

21-26 बली का भाई, कृष्ण, पृथ्वी का अगला शासक बनेगा। उसका पुत्र शान्तकरण होगा और शान्तकरण का पुत्र पौर्णमास होगा। पौर्णमास का पुत्र लम्बोदर होगा जिसका पुत्र महाराज चिबिलक होगा। चिबिलक से मेघस्वाति उत्पन्न होगा जिसका पुत्र अटमान होगा। अटमान का पुत्र अनिष्टकर्मा होगा। उसका पुत्र हालेय होगा जिसका पुत्र तलक होगा, तलक का पुत्र पुरुषभीरु होगा और उसके बाद सुनन्दन राजा बनेगा। सुनन्दन के बाद चकोर तथा आठ बहुगण होंगे जिनमें से शिवस्वाति शत्रुओं का महान दमनकर्ता होगा। शिवस्वाति का पुत्र गोमती होगा जिसका पुत्र पुरीमान होगा। पुरीमान का पुत्र मेदशीरा होगा। उसका पुत्र शिवस्कन्द होगा जिसका पुत्र यज्ञश्री होगा। यज्ञश्री का पुत्र विजय होगा जिसके दो पुत्र होंगे – चन्द्रविज्ञ तथा लोमधी। हे कुरुओं के प्रिय पुत्र, ये तीस राजा पृथ्वी पर कुल 456 वर्षों तक अपनी प्रभुसत्ता बनाये रखेंगे।

27 तत्पश्चात अवभृति नगरी की आभीर जाति के सात राजा होंगे और तब दस गर्दभी होंगे। उनके बाद कंक के सोलह राजा शासन करेंगे और वे अपने अत्यधिक लोभ के लिए विख्यात होंगे।

28 तब आठ यवन शासन सँभालेंगे जिनके बाद चौदह तुरुष्क, दस गुरुण्ड तथा ग्यारह मौल वंश के राजा होंगे।

29-31 ये आभीर, गर्दभी तथा कंक 1099 वर्षों तक पृथ्वी का भोग करेंगे और मौलगण 300 वर्षों तक राज्य करेंगे। इन सबके दिवंगत होने पर किलकिला नगरी में भूतनन्द, वंगिरि, शिशुनन्दी, उसका भाई यशोनन्दी तथा प्रविरक नामक राजाओं का वंश उदय होगा। किलकिला के ये राजा कुल मिलकर 106 वर्षों तक प्रभुत्व जमाये रखेंगे।

32-33 किलकिलाओं के बाद उनके तेरह पुत्र, बाह्विक होंगे और उनके बाद राजा पुष्पमित्र, उसका पुत्र दुर्मित्र, सात अन्ध्र, सात कौशल तथा विदुर और निषध प्रान्तों के राजा भी एक ही समय विश्व के अलग-अलग भागों में शासन करेंगे।

34 तब मागधों का राजा विश्वस्फूर्जी प्रकट होगा जो दूसरे पुरञ्जय के समान होगा। वह समस्त सभ्य वर्णों को निम्न श्रेणी के असभ्य मनुष्यों में बदल देगा, जिस तरह पुलिन्द, यदु तथा मद्रक होते हैं।

35 मूर्ख राजा विश्वस्फ़ुर्जी सारे नागरिकों को नास्तिकता की ओर ले जाएगा और अपनी शक्ति का उपयोग क्षत्रिय जाति को पूर्णतया ध्वन्स करने में करेगा। वह अपनी राजधानी पद्मवती में गंगा के उद्गम से लेकर प्रयाग तक शासन करेगा।

36 उस काल में सौराष्ट्र, अवनति, आभीर, शूर, अर्बुद तथा मालव प्रान्तों के ब्राह्मण अपने सारे विधि-विधान भूल जायेंगे और इन स्थानों के राजवंशों के सदस्य शूद्रों जैसे ही हो जाएँगे।

37 सिंधु नदी का तटवर्ती भाग तथा चन्द्रभागा, काउंटी एवं काश्मीर के जनपद शूद्रों, पतित ब्राह्मणों और मांसाहारियों के द्वारा शासित होंगे। वे वैदिक सभ्यता के मार्ग को त्यागकर समस्त आध्यात्मिक शक्ति खो चुकेंगे।

38 हे राजा परीक्षित, उसी समय शासन करनेवाले ऐसे अनेक असभ्य राजा होंगे और वे सब दान न देने वाले, अत्यन्त क्रोधी तथा अधर्म और असत्य के महान भक्त होंगे।

39-40 ये बर्बर लोग राजा के वेश में निर्दोष स्त्रियों, बच्चों, गौवों और ब्राह्मणों की हत्या करके तथा अन्य पुरुषों की पत्नियों को लुभाकर एवं सम्पत्ति को लूट करके सारी प्रजा का भक्षण करेंगे। उनका स्वभाव अनियमित होगा, उनमें चरित्र बल नहीं के बराबर होगा तथा वे अल्पायु होंगे। निस्सन्देह किसी वैदिक अनुष्ठान से शुद्ध न होने तथा विधि-विधानों के अभाव में, वे रजो तथा तमोगुणों से पूरी तरह प्रच्छन्न होंगे।

41 इन निम्न जाति के राजाओं द्वारा शासित प्रजा अपने शासकों के चरित्र, आचरण तथा वाणी का अनुकरण करेगी। वे लोग अपने अपने नायकों से तथा एक-दूसरे से सताये जाकर विनष्ट हो जायेंगे।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय इकतीस – भगवान श्रीकृष्ण का अन्तर्धान होना (11.31)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा : तब ब्रह्माजी, शिवजी–उनकी प्रेयसी भवानी, मुनियों, प्रजापतियों तथा इन्द्रादि देवताओं सहित, प्रभास आये।

2-3 भगवान का प्रस्थान देखने के लिए चारणों, यक्षों, राक्षसों, किन्नरों, अप्सराओं तथा गरुड़ के सम्बन्धियों को साथ लेकर पितरगण, सिद्ध, गन्धर्व, विद्याधर तथा बड़े बड़े सर्प भी आये। आते समय वे सभी व्यक्ति भगवान शौरी (कृष्ण) के जन्म तथा लीलाओं का कीर्तन और उनकी महिमा का गायन कर रहे थे।

4 हे राजन, उन्होंने आकाश में अपने विमानों की भीड़ लगाकर अत्यन्त भक्ति भाव से फूलों की वर्षा की।

5 अपने समक्ष ब्रह्माण्ड के पितामह ब्रह्माजी को अन्य देवताओं के साथ देखकर जो कि उनके निजी तथा शक्तिशाली अंश हैं, सर्वशक्तिमान प्रभु ने अपने मन को अपने भीतर स्थिर किया और अपने कमलनेत्र बन्द कर लिये।

6 अपने दिव्य शरीर को जलाने के लिए योगिक आग्नेयी ध्यान का उपयोग किये बिना, भगवान कृष्ण अपने धाम में प्रविष्ट हो गये। उनका दिव्य शरीर सारे जगतों का सर्वाकर्षक आश्रय है और समस्त धारणा तथा ध्यान का लक्ष्य है।

7 ज्योंही भगवान श्रीकृष्ण ने इस पृथ्वी को छोड़ा, त्योंही सत्य, धर्म, धृति, कीर्ति तथा सौन्दर्य उनके पीछे पीछे हो लिये। स्वर्ग में दुन्दुभियाँ बजने लगीं और आकाश से फूलों की वृष्टि होने लगी।

8 ब्रह्मा इत्यादि देवता, भगवान कृष्ण को उनके धाम में प्रवेश करते हुए नहीं देख सके क्योंकि भगवान ने अपनी गतिविधियों को प्रकट नहीं होने दिया, अतः सारे देवता अत्यधिक चकित थे।

9 जिस तरह सामान्य लोग बादलों से विलग बिजली के मार्ग को निश्चित नहीं कर सकते, उसी तरह अपने धाम लौटते हुए भगवान कृष्ण की गतिविधियों का पता देवतागण नहीं लगा पाये।

10 किन्तु कुछ देवतागण विशेष रूप से ब्रह्मा तथा शिवजी – यह निश्चित कर सके कि किस तरह भगवान की योगशक्ति कार्य कर रही है और इस तरह वे चकित थे। सारे देवताओं ने भगवान की योगशक्ति की प्रशंसा की और तब वे अपने–अपने लोक को लौट गये।

11 हे राजन, तुम जान लो कि भगवान का प्राकट्य तथा उनका अन्तर्धान होना, जो देहधारी बद्धजीवों के ही सदृश होते हैं, वास्तव में उनकी मायाशक्ति द्वारा अभिनीत खेल हैं जैसा कि कोई अभिनेता करता है। वे इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि करके उसमें प्रवेश करते हैं, कुछ काल तक उसके भीतर खिलवाड़ करते हैं और अन्त में समेट लेते हैं। तब भगवान विराट जगत के सारे कार्यों को बन्द करके, अपनी दिव्य महिमा में स्थित रह जाते हैं।

12 भगवान कृष्ण अपने गुरु-पुत्र को सशरीर यमराज के लोक से वापस ले आये और जब तुम अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र द्वारा जला दिये गये थे, तो उन्होंने परम रक्षक के रूप में तुम्हें भी बचाया। उन्होंने मृत्यु के दूतों को भी मृत्यु देनेवाले शिवजी को युद्ध में परास्त किया और जरा शिकारी को मानव शरीर में वैकुण्ठ भेज दिया। क्या कभी ऐसा पुरुष अपनी रक्षा करने में असमर्थ हो सकता है?

13 असीम शक्तियों के स्वामी भगवान कृष्ण असंख्य जीवों की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के एकमात्र कारण होते हुए भी, इस जगत में अपने शरीर को अब और अधिक नहीं रखना चाहते थे। इस तरह उन्होंने आत्मस्थ लोगों को गन्तव्य दिखलाया और यह प्रदर्शित किया कि इस मर्त्य जगत का अपना कोई मूल्य नहीं है।

14 जो व्यक्ति नियमित रूप से प्रातःकाल भगवान कृष्ण के दिव्य तिरोधान तथा उनके निजी धाम लौटने की महिमा का भक्तिपूर्वक कीर्तन करता है, वह निश्चय ही उसी परम पद को प्राप्त करेगा।

15 द्वारका पहुँचते ही दारुक वसुदेव तथा उग्रसेन के चरणों पर गिर पड़ा और भगवान कृष्ण की क्षति पर शोक करते हुए अपने आँसुओं से उनके चरणों को भिगो दिया।

16-17 दारुक ने वृष्णियों के पूर्ण विनाश का वृत्तांत कह सुनाया और हे परीक्षित, यह सुनकर लोग अपने हृदयों में अतीव किंकर्तव्यविमूढ़ और शोक से स्तम्भित हो गये। वे कृष्ण के बिछोह से विह्वल अपना सिर पीटते उस स्थान के लिए जल्दी जाने लगे जहाँ उनके सम्बन्धी मृत पड़े थे।

18 जब देवकी, रोहिणी तथा वसुदेव ने अपने कृष्ण तथा बलराम पुत्रों को नहीं पाया, तो वे शोक से अचेत हो गये।

19 भगवान के वियोग से आतुर उनके माता-पिता ने उसी स्थान पर अपने प्राण त्याग दिये। हे परीक्षित, तब यादवों की पत्नियाँ अपने अपने मृत पतियों का आलिंगन करके चिताओं पर चढ़ गईं।

20 भगवान बलराम की पत्नियाँ भी अग्नि में प्रविष्ट हुई और उनके शरीर का आलिंगन किया। इसी तरह वसुदेव की पत्नियाँ उनकी चिता में प्रविष्ट हुई और उनके शरीर को चूमा। हरि की पतोहुएँ अपने-अपने पतियों की चिताओं में प्रविष्ट हुईं। रुक्मिणी तथा भगवान कृष्ण की अन्य पत्नियाँ, जिनके हृदय उन्हीं में पूर्णतया लीन थे, उनकी चिता में प्रविष्ट हुईं।

21 अर्जुन अपने सर्वप्रिय मित्र भगवान कृष्ण के बिछोह से अत्यधिक दुखी हुए। किन्तु उन्होंने भगवान के उन दिव्य वचनों का स्मरण करके, जिन्हें उन्होंने गीता रूप में गाया था, स्वयं को सान्त्वना दी।

22 तत्पश्चात अर्जुन ने क्रमशः (मृतकों की आयु के क्रम से) यदुवंश के उन मृतकों का विधिपूर्वक दाहकर्म किया जिनके परिवार में कोई पुरुष सदस्य नहीं बचा था।

23 जैसे ही भगवान ने द्वारका का परित्याग किया, त्योंही, हे राजन, समुद्र ने उसे चारों ओर से घेर लिया और एकमात्र उनका महल ही अछूता रहा।

24 भगवान मधुसूदन शाश्वत रीति से द्वारका में उपस्थित रहते हैं। यह समस्त शुभ स्थानों में सर्वाधिक शुभ स्थान है और इसके स्मरण मात्र से सारे कल्मष नष्ट हो जाते हैं।

25 यदुवंश की बची हुई स्त्रियों, बच्चों तथा बूढ़ों को अर्जुन इन्द्रप्रस्थ ले आये जहाँ उन्होंने अनिरुद्ध के पुत्र वज्र को यदुओं के शासक के रूप में प्रतिष्ठापित किया।

26 हे राजन, अर्जुन से अपने मित्र की मृत्यु सुनकर आपके बाबा लोगों ने आपको वंश के धारक के रूप में स्थापित कर दिया और इस जगत से अपने प्रयाण की तैयारी के लिए चल पड़े।

27 जो व्यक्ति ईश्वरों के ईश्वर विष्णु की इन विविध लीलाओं तथा अवतारों की महिमाओं का श्रद्धापूर्वक कीर्तन करता है, वह सारे पापों से मोक्ष प्राप्त करता है।

28 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के सर्वाकर्षक अवतारों के सर्वमंगल पराक्रम तथा उनके द्वारा बाल्यकाल में की गई लीलाएँ इस श्रीमदभागवत तथा अन्य शास्त्रों में वर्णित हैं। जो कोई उनकी लीलाओं के इन वर्णनों का कीर्तन करता है, उसे उन भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति प्राप्त होगी जो समस्त सिद्ध मुनियों के गन्तव्य हैं।

इस प्रकार श्रीमद भागवतम (एकादश स्कन्धके समस्त अध्यायों के भक्ति वेदान्त श्लोकार्थ पूर्ण हुए।

-::हरि ॐ तत् सत्::-

समर्पित एवं सेवारत-जगदीश चन्द्र माँगीलाल चौहान

 

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अध्याय तीस -- यदुवंश का संहार (11.30)

1 राजा परीक्षित ने कहा : जब महान भक्त उद्धव जंगल चले गये तो समस्त जीवों के रक्षक भगवान ने द्वारका नगरी में क्या किया?

2 ब्राह्मणों के शाप से अपने ही वंश के नष्ट हो जाने के बाद, यदुओं में श्रेष्ठ भगवान ने किस तरह अपना शरीर छोड़ा जो सारे नेत्रों की परमप्रिय वस्तु था।

3 एक बार उनके दिव्य रूप पर अपनी आँखें गड़ा देने पर, स्त्रियाँ उन्हें हटा पाने में असमर्थ होती थीं और यदि वह रूप एक बार मुनियों के हृदयों में प्रवेश कर जाता, तो फिर वह हटाये नहीं हटता था। ख्याति पाने के विषय में क्या कहा जाय, जिन महान कवियों ने भगवान के रूप–सौन्दर्य का वर्णन किया उनके शब्द दिव्य मोहक आकर्षण में फँसकर रह गये और उस रूप को अर्जुन के रथ पर देखकर कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि के सारे योद्धाओं ने भगवान जैसे आध्यात्मिक शरीर प्राप्त कर मोक्ष-लाभ उठाया।

4 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा : आकाश, पृथ्वी तथा बाह्य आकाश में अनेक उत्पात-चिन्ह देखकर भगवान कृष्ण ने सुधर्मा नामक सभाभवन में एकत्र यदुओं से इस प्रकार कहा।

5 भगवान ने कहा : हे यदुवंश के नायकों जरा इन सारे भयावने अपशकुनों पर ध्यान दो जो द्वारका में मृत्यु की पताकाओं की तरह प्रकट हुए हैं। अब हमें यहाँ पर क्षणभर भी नहीं रुकना चाहिए।

6 स्त्रियों, बालकों तथा बूढ़े लोगों को यह नगर छोड़कर शंखोद्धार चले जाना चाहिए। हम सभी प्रभास क्षेत्र चलेंगे जहाँ सरस्वती नदी पश्चिम की ओर बहती है।

7 वहाँ हम शुद्धि के लिए स्नान करें, उपवास रखें और अपने मन को ध्यान में स्थिर करें। तत्पश्चात देवताओं की मूर्तियों को स्नान कराकर हम उनका पूजन करें, चन्दन का लेप करें और उन्हें विविध भेंटें अर्पित करें।

8 अत्यन्त भाग्यवान ब्राह्मणों की सहायता से स्वस्तिवाचन कराने के बाद हम उन ब्राह्मणों को गौवें, भूमि, सोना, वस्त्र, हाथी, घोड़े, रथ तथा घर भेंट देकर उनकी पूजा करें।

9 अपने आसन्न संकट का सामना करने के लिए निस्सन्देह यह उपयुक्त विधि है और इससे निश्चित ही सर्वोच्च सौभाग्य प्राप्त होगा। देवताओं, ब्राह्मणों तथा गौवों की ऐसी पूजा सारे जीवों को सर्वोच्च जन्म दिलाने वाली हो सकती है।

10 मधु असुर के शत्रु भगवान कृष्ण से ये शब्द सुनकर, यदुवंश के वरेषुजनों ने अपनी सहमति “तथास्तु” कहकर व्यक्त कर दी। नावों से समुद्र को पार करने के बाद वे रथों से प्रभास की ओर बढ़े।

11 वहाँ पर यादवों ने अत्यन्त भक्ति के साथ अपने स्वामी भगवान कृष्ण के आदेशानुसार धार्मिक और अन्य विविध शुभ अनुष्ठान भी सम्पन्न किये।

12 तब दैव द्वारा बुद्धि भ्रष्ट किये गये वे सब खुले मन से मधुर मैरेय पेय पीने में लग गये जो मन को पूरी तरह मदोन्मत्त कर देता है।

13 यदुवंश के वीरगण अत्यधिक पी लेने के कारण उन्मत्त और उद्दण्ड हो उठे। जब वे भगवान कृष्ण की निजी शक्ति से इस तरह विमोहित थे, तो उनके बीच भयानक कलह उठ खड़ा हुआ।

14 क्रुद्ध होकर उन्होंने अपने धनुष-बाण, तलवारें, भाले, गदाएँ, बर्छे, तोमर ले लिये और समुद्र के किनारे एक-दूसरे पर आक्रमण करने लगे।

15 हाथियों, रथों, गधों, ऊँटों, बैलों, भैंसों, खच्चरों एवं मनुष्यों पर भी सवार होकर अत्यन्त क्रुद्ध योद्धाओं ने एक-दूसरे पर बाणों से वेगपूर्वक उसी तरह आक्रमण किया जिस तरह जंगल में हाथी दाँतों से एक-दूसरे पर आक्रमण करते हैं।

16 आपसी शत्रुता भड़क उठने से प्रद्युम्न साम्ब से घनघोर लड़ाई करने लगा, अक्रूर कुन्तिभोज से, अनिरुद्ध सात्यकि से, सुभद्र संग्रामजित से, सौमित्र सूरथ से तथा दोनों गद एक-दूसरे से लड़ने लगे।

17 अन्य लोग भी, यथा निशठ, उल्मुक, सहस्रजित, शतजित तथा भानु एक-दूसरे से भिड़ गये और उन्होंने नशे से अन्धे हुए एवं भगवान मुकुन्द द्वारा पूर्णतया विमोहित हुए एक-दूसरे को मार दिया।

18 विविध यदुवंशियों – दाशार्हों, वृष्णियों, तथा अंधकों, भोजों, सात्वतों, मधुओं तथा अर्बुदों, माथुरों, शूरसेनों, विसर्जनों, कुकुरों तथा कुन्तियों ने अपनी आपसी सहज मित्रता त्यागकर एक-दूसरे को मार दिया।

19 इस तरह मोहग्रस्त हुए पुत्र अपने पिताओं से, भाई भाइयों से, भाँजे अपने मामाओं से, भतीजे अपने चाचों से और नाती अपने पितामहों से लड़ने लगे। मित्र अपने मित्रों से तथा शुभचिन्तक अपने शुभचिन्तकों से भिड़ गये। इस तरह घनिष्ठ मित्रों तथा सम्बन्धियों सभी ने एक-दूसरे को मार दिया।

20 जब उनके सारे धनुष टूट गये और उनके बाण तथा अन्य प्रक्षेपास्त्र समाप्त हो गये तो उन्होंने अपने खाली हाथों में बेंत के लम्बे डंठल ले लिये।

21 ज्योंही उन लोगों ने इन बेंत के डंठलों को अपनी मुट्ठियों में धारण किया, वे वज्र की तरह कठोर लोहे की छड़ों में बदल गये। योद्धा इन हथियारों से एक-दूसरे पर बारम्बार आक्रमण करने लगे और जब कृष्ण ने उन्हें रोकने का प्रयास किया, तो उन्होंने उन पर भी आक्रमण कर दिया।

22 हे राजन, उन सबों ने विमोहित अवस्था में बलराम को भी अपना शत्रु समझ लिया। वे हाथों में हथियार लिए उन्हें मारने के लिए आगे बढ़े।

23 हे कुरु-पुत्र, तब कृष्ण तथा बलराम अत्यधिक कुपित हो उठे और बेंत के डंठलों को उठाकर युद्धक्षेत्र में इधर-उधर घूमते हुए उन्हें मारने लगे।

24 जिस प्रकार बाँस के कुन्ज में लगी आग सारे जंगल को नष्ट कर देती है, उसी प्रकार ब्राह्मणों के शाप तथा भगवान कृष्ण की माया से विमोहित, वे योद्धा निज संहार को प्राप्त हुए।

25 जब यदुकुल के सारे सदस्य इस प्रकार विनष्ट हो गये, तो कृष्ण ने सोचा – कि धरती का शेष भार कम हुआ।

26 तब बलरामजी, भगवान के ध्यान में अपने को स्थिर कर समुद्र के तट पर बैठ गये।

27 अपने को स्वयं में लीन करते हुए उन्होंने यह मर्त्य संसार छोड़ दिया। बलराम के तिरोधान को देखकर देवकीपुत्र भगवान कृष्ण पृथ्वी की गोद में पीपल के वृक्ष के नीचे मौन होकर बैठ गये।

28-32 भगवान अपना अत्यन्त तेजोमय चतुर्भुजी रूप प्रकट किये हुए थे जिसकी प्रभा धूम्रविहीन अग्नि की तरह सारी दिशाओं के अंधकार को दूर करने वाली थी। उनका वर्ण गहरे नीले बादल के रंग का, ऐश्वर्य पिघले सोने के रंग जैसा, सर्वमंगल स्वरूप श्रीवत्स का चिन्ह धारण किये था, कमल जैसे मुखमण्डल पर सुन्दर हँसी थी, सिर पर श्याम रंग के बालों का गुच्छा सुशोभित था, कमल जैसी आँखें अत्यन्त आकर्षक थीं और मकराकृति जैसे कुण्डल चमक रहे थे। वे रेशमी वस्त्र की जोड़ी, अलंकृत पेटी, जनेऊ, कंगन तथा बाजूबन्द पहने हुए थे। वे मुकुट, कौस्तुभ मणि, गले का हार, पायल तथा अन्य राजसी चिन्ह धारण किये थे। उनका शरीर फूल मालाओं से सुशोभित था और उनके आयुध अपने साकार रूप में थे। वे बैठे हुए थे और उनका बायाँ पैर – जिसका तलवा लाल कमल जैसा था – उनकी दाहिनी जाँघ पर रखा था।

33 तभी जरा नामक शिकारी जो वहाँ आया, भगवान के पाँव को मृग का मुख समझकर और यह सोचकर कि उसे उसका शिकार मिल गया है, जरा ने उस पाँव को अपने उस तीर से बेध दिया जिसे उसने साम्ब की गदा के बचे हुए लोहे के टुकड़े से बनाया था।

34 तत्पश्चात उस चतुर्भुज पुरुष को देखकर, शिकारी अपने द्वारा किये गये अपराध से भयभीत हो उठा और वह असुरों के शत्रु भगवान के चरणों पर अपना सिर रखकर भूमि पर गिर पड़ा।

35 जरा ने कहा: हे मधुसूदन, मैं अत्यन्त पापी व्यक्ति हूँ। मैंने अनजाने में ही यह पाप कृत्य किया है। हे शुद्धतम प्रभु! हे उत्तमश्लोक! कृपा करके इस पापी को क्षमा कर दें।

36 हे भगवान विष्णु, विद्वान लोग कहते हैं कि आपका निरन्तर स्मरण करने से अज्ञानरूपी अंधकार नष्ट हो जाता है। हे प्रभु, मैंने आपका अनिष्ट किया है।

37 अतएव हे वैकुण्ठपति, आप इस पापी पशु-हन्ता को तुरन्त मार डालें जिससे वह सत्पुरुषों के साथ पुनः ऐसा अपराध न कर सकें।

38 आपकी योगशक्ति किस तरह कार्य करती है उसे न तो ब्रह्मा, न ही रुद्र इत्यादि उनके पुत्र, न ही वैदिक मंत्रों में प्रवीण कोई महर्षि ही, समझ सकते हैं। चूँकि उनकी दृष्टि आपकी माया से आवृत्त है, अतः मैं किस तरह इस विषय में कुछ कह सकता हूँ?

39 भगवान ने कहा : हे जरा, तुम डरो मत। उठो, जो कुछ हुआ है वास्तव में वह मेरी अपनी इच्छा है। मेरी अनुमति से तुम अब पवित्र आत्माओं के धाम वैकुण्ठलोक जाओ।

40 अपनी इच्छा से दिव्य शरीर धारण करनेवाले भगवान कृष्ण का आदेश पाकर जरा नामक शिकारी ने भगवान की तीन बार प्रदक्षिणा की, उन्हें शीश नवाया और स्वर्गिक विमान द्वारा वैकुण्ठधाम चला गया।

41 सारथी दारुक अपने स्वामी कृष्ण को ढूँढ रहा था। ज्योंही वह उस स्थान के पास पहुँचा जहाँ भगवान बैठे थे, उसने मन्द वायु में तुलसी के फूलों की गन्ध का अनुभव किया और उसी दिशा में बढ़ता गया।

42 भगवान कृष्ण को बरगद के वृक्ष की नीचे आराम करते और उन्हें असह्य तेजयुक्त आयुध से घिरा हुआ देखकर, दारुक अपने हृदय में उमड़ते स्नेह को सँभाल न सका। अश्रुपूरित नेत्रों से युक्त, रथ से नीचे उतरते हुए सारथी दारुक भगवान के चरणों पर गिर पड़ा।

43 दारुक ने कहा: जिस तरह चन्द्रविहीन रात में लोग अंधकार में विलीन हो जाते हैं और अपना रास्ता नहीं ढूँढ पाते, हे प्रभु, अब मुझे आपके चरणकमल नहीं दिखते, मैं अपनी दृष्टि खो चुका हूँ और अंधकार में अन्धे की तरह घूम रहा हूँ। न तो मैं अपनी दिशा बता सकता हूँ न कहीं कोई शान्ति पा सकता हूँ।

44 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजाओं में प्रधान, अभी वह सारथी बातें कर ही रहा था कि उसकी आँखों के सामने भगवान का रथ अपने घोड़ों तथा गरुड़ से अंकित ध्वजा समेत ऊपर उठ गया।

45 भगवान विष्णु के सारे दैवी हथियार ऊपर उठ गये और रथ का पीछा करने लगे। तब जनार्दन अपने उस सारथी से जो यह सब देखकर अत्यधिक चकित था, बोले।

46 हे सारथी, तुम द्वारका जाओ और हमारे परिवार वालों से कहो कि किस तरह उनके प्रियजनों ने एक-दूसरे का विनाश कर दिया है। उनसे संकर्षण के तिरोधान तथा मेरी वर्तमान दशा के विषय में भी बतलाना।

47 “तुम्हें तथा तुम्हारे सम्बन्धियों को यदुओं की राजधानी द्वारका में नहीं रहना चाहिए क्योंकि मेरे द्वारा छोड़ी गई यह नगरी समुद्र से आप्लावित हो जायेगी।"

48 तुम सबको अपने परिवार तथा मेरे माता-पिता को लेकर अर्जुन के संरक्षण में इन्द्रपस्थ चले जाना चाहिए।

49 हे दारुक, तुम आध्यात्मिक ज्ञान में स्थिर और भौतिक विचारों से अनासक्त रहते हुए, मेरी भक्ति में दृढ़ता से स्थित रहना। तुम इन लीलाओं को मेरी मायाशक्ति का प्रदर्शन समझते हुए शान्त रहना।

50 इस तरह आदेश पाकर दारुक ने भगवान की प्रदक्षिणा की, उनके चरणकमल अपने सिर पर रखे और उन्हें बारम्बार नमस्कार किया। तदनन्तर उदास मन से वह द्वारका नगर को लौट गया।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भक्तियोग (11.29)

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अध्याय उन्तीस – भक्तियोग (11.29)

1 श्री उद्धव ने कहा: हे भगवान अच्युत, मुझे भय है कि आपके द्वारा वर्णित योग-विधि उस व्यक्ति के लिए अत्यन्त कठिन है, जो अपने मन को वश में नहीं रख सकता । इसलिए आप सरल शब्दों में यह बतायें कि कोई व्यक्ति किस तरह इसे अधिक आसानी से सम्पन्न कर सकता है।

2 हे कमलनयन भगवान, सामान्यतया जो योगीजन मन को स्थिर करने का प्रयास करते हैं, उन्हें समाधि की दशा पूर्ण कर पाने की अपनी अक्षमता के कारण, निराशा का अनुभव करना पड़ता है। इस तरह वे मन को अपने वश में लाने के प्रयास में उकता जाते हैं।

3 इसलिए हे कमलनयन, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, हंस सदृश व्यक्ति खुशी-खुशी आपके उन चरणकमलों की शरण ग्रहण करते हैं, जो समस्त दिव्य आनन्द के स्रोत हैं। किन्तु जिन्हें अपने योग तथा कर्म की उपलब्धियों पर गर्व है, वे आपकी शरण में नहीं आ पाते और आपकी मायाशक्ति द्वारा परास्त होते हैं।

4 हे अच्युत प्रभु, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि आप अपने उन सेवकों के पास घनिष्ठतापूर्वक जाते हैं जिन्होंने एकमात्र आपकी शरण ले रखी है। जब आप भगवान रामचन्द्र के रूप में प्रकट हुए थे, उस अवधि में ब्रह्मा जैसे महान देवता आपके पादपीठ पर अपने मुकुट के ऐश्वर्यशाली सिरे रखने के लिए लालायित रहते थे; तब आपने हनुमान जैसे भक्तों पर विशेष स्नेह प्रदर्शित किया क्योंकि उन्होंने एकमात्र आपकी शरण ले रखी थी।

5 तो भला किसमें साहस है, जो आत्मारूप, पूजा के सर्वप्रिय लक्ष्य तथा सबके परम ईश्वर आपका – जो अपनी शरण लेने वाले भक्तों को सभी सम्भव सिद्धियाँ प्रदान करने वाले हैं, तिरस्कार कर सके? आपके द्वारा प्रदत्त लाभों को जानते हुए भला इतना कृतघ्न कौन हो सकता है? ऐसा कौन है, जो आपका तिरस्कार करके ऐसी वस्तु को भौतिक सुख के लिए स्वीकार करेगा जिससे आपकी विस्मृति होती हो और आपके चरणकमलों की धूलि की सेवा में निरत हम लोगों को किस चीज का अभाव है?

6 हे प्रभु, योगी कवि तथा आध्यात्मिक विज्ञान में पटु लोग आपके प्रति अपनी कृतज्ञता पूरी तरह अभिव्यक्त नहीं कर सके यद्यपि उन्हें ब्रह्माजी जितनी दीर्घायु प्राप्त थी क्योंकि आप दो रूपों में–बाह्यत: आचार्य रूप में और आन्तरिक रूप में परमात्मा की तरह देहधारी जीव को अपने पास आने का निर्देश करते हुए उद्धार करने के लिए प्रकट होते हैं।

7 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह अत्यन्त स्नेहिल उद्धव द्वारा पूछे जाने पर समस्त ईश्वरों के परम नियन्ता भगवान कृष्ण जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को खिलौने के रूप में मानते हैं और ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के तीन रूप ग्रहण करते हैं, सर्व-आकर्षक मुसकान दिखलाते हुए प्रेमपूर्वक उत्तर देने लगे।

8 भगवान ने कहा: हाँ, मैं तुमसे मेरी भक्ति के सिद्धान्तों का वर्णन करूँगा जिनको सम्पन्न करने से मर्त्य प्राणी दुर्जय मृत्यु पर विजय पा लेगा।

9 मनुष्य को चाहिए कि सदैव मेरा स्मरण करते हुए बिना हड़बड़ी के मेरे प्रति अपने सारे कर्तव्य पूरा करे। उसे चाहिए कि वह मुझे मन तथा बुद्धि अर्पित करके मेरी भक्ति के आकर्षण में अपना मन स्थिर करे।

10 मनुष्य को उन पवित्र स्थानों में जाकर शरण लेनी चाहिए जहाँ सन्त स्वभाव वाले मेरे भक्तगण निवास करते हैं। उसे मेरे भक्तों के आदर्श कार्यकलापों से मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिए। ये भक्त देवताओं, असुरों तथा मनुष्यों के बीच प्रकट होते हैं।

11 मेरी पूजा के लिए विशेष रूप से नियत पर्व, त्यौहार तथा उत्सव (यथा–एकादशी, जन्माष्टमी आदि) को मनाने के लिए, अकेला या सामूहिक जलसों में गायन, नृत्य तथा अन्य ठाट-बाट के आयोजन की व्यवस्था करे।

12 मनुष्य को चाहिए कि शुद्ध हृदय से सारे जीवों और स्वयं के भीतर मुझको परमात्मा रूप में देखे कि मैं किसी भौतिक वस्तु द्वारा अकलंकित हूँ और सर्वत्र उपस्थित हूँ जिस तरह सर्वव्यापक आकाश होता है।

13-14 हे तेजस्वी उद्धव, जो व्यक्ति सारे जीवों को इस भाव से देखता है कि मैं उनमें से हर एक में उपस्थित हूँ और जो इस दिव्य ज्ञान की शरण लेकर हर एक का सम्मान करता है, वह वास्तव में बुद्धिमान माना जाता है। ऐसा व्यक्ति ब्राह्मण और निम्न जाति का आदिवासी, चोर तथा ब्राह्मण संस्कृति के दानी संवर्धक, सूर्य तथा अग्नि की क्षुद्र चिनगारी, सदय तथा क्रूर को समान रूप से देखता है।

15 जो व्यक्ति समस्त जीवों में मेरी उपस्थिति का निरन्तर ध्यान करता है उसके लिए स्पर्धा की कुप्रवृत्तियाँ, ईर्ष्या तथा तिरस्कार एवं उसी के साथ मिथ्या अहंकार तुरन्त नष्ट हो जाते हैं।

16 मनुष्य को चाहिए कि वह अपने संगियों के उपहास की परवाह न करते हुए, देहात्म बुद्धि त्याग दे। उसे कुत्तों, चाण्डालों, गौवों तथा गधों तक के समक्ष भूमि पर दण्ड के समान गिरकर नमस्कार करना चाहिए।

17 जब तक मनुष्य सारे जीवों के भीतर मुझे देख पाने की क्षमता उत्पन्न नहीं कर लेता, तब तक उसे चाहिए कि वह अपनी वाणी, मन तथा शरीर के कार्यों द्वारा इस विधि से मेरी पूजा करता रहे।

18 सर्वव्यापी भगवान के ऐसे दिव्य ज्ञान से मनुष्य परम सत्य को सर्वत्र देख सकता है। सारे संशयों से इस प्रकार मुक्त होकर वह सकाम कर्मों का परित्याग कर देता है।

19 निस्सन्देह मैं मन, वाणी तथा शरीर के कार्यों को प्रयोग करके सारे जीवों के भीतर मेरी अनुभूति करने की विधि को आध्यात्मिक प्रकाश की सर्वश्रेष्ठ सम्भव विधि मानता हूँ।

20 हे उद्धव, चूँकि मैंने स्वयं इसकी स्थापना की है, इसलिए मेरी भक्ति की यह विधि दिव्य है। निश्चय ही इस विधि को ग्रहण करने से भक्त को रंचमात्र भी क्षति नहीं उठानी पड़ती।

21 हे सन्त शिरोमणि उद्धव, भयावह स्थिति में सामान्य व्यक्ति रोता है, डर जाता है और शोक करता है यद्यपि ऐसी व्यर्थ की भावनाओं से स्थिति में कोई परिवर्तन आने से रहा। किन्तु निजी अभिप्रेरण के बिना जो कार्य मुझे अर्पित किये जाते हैं, वे बाहर से व्यर्थ होते हुए भी, वास्तविक धर्म-विधि के तुल्य हैं।

22 यह विधि सर्वोत्कृष्ट है क्योंकि इसका पालन करने से मनुष्य इसी जीवन में मुझ नित्य सत्य को पाने में नश्वर (शरीर) तथा असत्य (अपनी सम्पत्ति--माया) का उपयोग कर सकता है।

23 इस तरह मैंने तुम्हें, संक्षेप और विस्तार दोनों ही रूपों में, परम सत्य विषयक विज्ञान का पूर्ण संकलन बता दिया। यह विज्ञान देवताओं के लिए भी समझ पाना अत्यन्त कठिन है।

24 मैं बारम्बार तुमसे स्पष्ट तर्क सहित यह ज्ञान बता चुका हूँ। जो कोई इसे ठीक से समझ लेता है, वह सारे संशयों से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करेगा।

25 जो कोई तुम्हारे प्रश्नों के इन स्पष्ट उत्तरों पर अपना ध्यान एकाग्र करता है, वह वेदों के शाश्वत गुह्य लक्ष्य – परम सत्य – को प्राप्त करेगा।

26 जो व्यक्ति उदारतापूर्वक इस ज्ञान को मेरे भक्तों के बीच फैलाता है, वह परम सत्य का देने वाला है और मैं उसे अपने आपको दे देता हूँ।

27 जो व्यक्ति इस स्पष्ट तथा शुद्ध बनाने वाले परम ज्ञान का जोर-जोर से वाचन करता है, वह दिन प्रतिदिन शुद्ध बनता जाता है क्योंकि वह दिव्य ज्ञानरूपी दीपक से अन्यों को मुझे उद्घाटित करता है।

28 जो कोई इस ज्ञान को श्रद्धा तथा ध्यान के साथ नियमित रूप से सुनता है और साथ ही मेरी शुद्ध भक्ति में लगा रहता है, वह भौतिक कर्म के फलों के बन्धन से कभी नहीं बँधता।

29 हे मित्र उद्धव, क्या अब तुम इस दिव्य ज्ञान को भलीभाँति समझ गये? क्या तुम्हारे मन में उठने वाले मोह तथा शोक दूर हो गये?

30 तुम इस उपदेश को ऐसे व्यक्ति को मत देना जो पाखण्डी, नास्तिक या बेईमान हो या जो श्रद्धापूर्वक न सुनता हो, जो भक्त न हो या जो विनीत न हो।

31 यह ज्ञान उसे दिया जाय जो इन दुर्गुणों से मुक्त हो, जो ब्राह्मणों के कल्याण-कार्य के प्रति समर्पित हो तथा जो प्रेमी हो, सन्त स्वभाव का हो और शुद्ध हो और यदि सामान्य श्रमिकों तथा स्त्रियों में भगवान के प्रति भक्ति पाई जाय, तो उन्हे भी योग्य श्रोताओं के रूप में स्वीकार करना चाहिए।

32 जब जिज्ञासु व्यक्ति इस ज्ञान को समझ लेता है, तो उसे और जानने के लिए कुछ भी नहीं रहता। आखिर, जो सर्वाधिक स्वादिष्ट अमृत का पान कर लेता है, वह कहीं प्यासा रह सकता है?

33 वैश्लेषिक ज्ञान, कर्मकाण्ड, योग सांसारिक कारोबार तथा राजनैतिक प्रशासन द्वारा लोग धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष में प्रगति करना चाहते हैं। तुम मेरे भक्त हो अतः जो कुछ इन नाना विधियों से प्राप्त किया जा सकता है, उसे तुम आसानी से मेरे भीतर पा सकोगे।

34 जो व्यक्ति सारे सकाम कर्म त्याग देता है और मेरी सेवा करने की तीव्र उत्कण्ठा से स्वयं को पूर्णरूप से मुझे सौंप देता है, वह जन्म-मृत्यु से मोक्ष पा लेता है और मेरे ऐश्वर्य के भागी के पद पर उन्नत हो जाता है।

35 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा : भगवान कृष्ण द्वारा कहे गये इन वचनों को सुनकर तथा इस प्रकार सम्पूर्ण योगमार्ग दिखलाए जाने पर, उद्धव प्रेम से विव्हल हो गए और अश्रुपूरित नेत्रों के साथ हाथ जोड़कर खड़े हो गए। उद्धव का गला रुँध गया जिससे वे कुछ भी नहीं कह पाये।

36 प्रेम से अभिभूत हुए अपने मन को स्थिर करते हुए उद्धव ने यदुवंश के महानतम वीर भगवान कृष्ण के प्रति अतीव कृतज्ञता का अनुभव किया। वे भगवान के चरणकमलों का स्पर्श करने के लिए झुके और फिर हाथ जोड़कर बोले।

37 श्री उद्धव ने कहा: हे अजन्मा आदि भगवान, यद्यपि मैं मोह के गहन अंधकार में गिर चुका था, किन्तु आपकी दयामयी संगति से अब मेरा अज्ञान दूर हो चुका है। वस्तुतः शीत, अंधकार तथा भय उस पर किस तरह अपनी शक्ति दिखा सकते हैं, जो तेजवान सूर्य के निकट पहुँच गया हो?

38 मेरे तुच्छ आत्म-निवेदन के बदले, आपने अपने सेवक मुझ पर दयापूर्वक दिव्य ज्ञान के प्रदीप का दान दिया है। इसलिए आपका कौन भक्त जिसमें तनिक भी कृतज्ञता होगी, आपके चरणकमलों को त्यागकर अन्य स्वामी की शरण ग्रहण करेगा?

39 दाशार्हों, वृष्णियों, अंधकों तथा सात्वतों के परिवारों के प्रति मेरे स्नेह की दृढ़ता से बँधी हुई रस्सी – वह रस्सी जिसे आपने अपनी सृष्टि को उत्पन्न करने हेतु अपनी माया से आरम्भ में मेरे ऊपर डाल रखा था – अब दिव्य आत्मज्ञान के हथियार से कट गई है।

40 हे महायोगी, आपको नमस्कार है। मुझ शरणागत को आप उपदेश दें कि मैं किस तरह आपके चरणकमलों के प्रति अनन्य अनुरक्ति पा सकता हूँ।

41-44 भगवान ने कहा : हे उद्धव, मेरा आदेश लो और बदरिका नामक मेरे आश्रम जाओ। तुम वहाँ के पवित्र जल को, जो मेरे चरणकमलों से निकला है, स्पर्श करना तथा उसमें स्नान करके अपने को शुद्ध करना। तुम पवित्र अलकनंदा नदी के दर्शन से समस्त पापों से अपने को मुक्त करना। तुम वृक्षों की छाल पहनना और जंगल में जो कुछ मिल सके उसे खाना। इस तरह तुम संतुष्ट और इच्छा से मुक्त, समस्त द्वैतों के प्रति सहिष्णु, उत्तम स्वभाव के, आत्मसंयमी, शान्त तथा आध्यात्मिक ज्ञान एवं विज्ञान से समन्वित हो सकोगे। अपना ध्यान एकाग्र करके मेरे द्वारा दिये गये उपदेशों का निरन्तर मनन करना और इनके सार को आत्मसात करना। अपने वचनों तथा विचारों को मुझ पर स्थिर करना और मेरे दिव्य गुणों की अनुभूति को बढ़ाने के लिए सदैव प्रयास करना। इस तरह तुम प्रकृति के तीन गुणों के गन्तव्य को पार कर अन्त में मेरे पास आओगे।

45 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह भौतिक जीवन के समस्त कष्ट को नष्ट करनेवाली बुद्धि के स्वामी भगवान कृष्ण द्वारा सम्बोधित किये जाने पर श्री उद्धव ने भगवान की प्रदक्षिणा की और तब भगवान के चरणों पर अपना सिर रखकर भूमि पर लेट गये। यद्यपि उद्धव सारे भौतिक द्वन्द्वों के प्रभाव से मुक्त थे, किन्तु उनका हृदय विदीर्ण हो रहा था और विदा के समय उन्होंने अपने आँसुओं से भगवान के चरणकमलों को भिगो दिया।

46 भगवान से उद्धव का अटूट स्नेह था उनसे बिछुड़ने से अत्यधिक डरे हुए, वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये और भगवान का साथ छोड़ नहीं पाये। अन्त में, अत्यधिक विषाद का अनुभव करते हुए, उन्होंने बारम्बार भगवान को नमस्कार किया और अपने स्वामी के खड़ाऊँ को सिर पर रखकर वहाँ से प्रस्थान कर गये।

47 तत्पश्चात भगवान को, हृदय में सुस्थित करते हुए महान भक्त उद्धव बदरिकाश्रम गये। वहाँ पर तपस्या में रत होकर उन्होंने भगवान के निजी धाम को प्राप्त किया जिसका वर्णन ब्रह्माण्ड के एकमात्र मित्र स्वयं कृष्ण ने उनसे किया था।

48 इस तरह भगवान कृष्ण ने जिनके चरणकमलों की सेवा समस्त बड़े बड़े योगेश्वरों द्वारा की जाती है, अपने भक्त से यह अमृततुल्य ज्ञान कहा जो आध्यात्मिक आनन्द के सम्पूर्ण सागर जैसा है। इस ब्रह्माण्ड में जो कोई भी इस कथा को अत्यन्त श्रद्धापूर्वक ग्रहण करता है, उसकी मुक्ति निश्चित है।

49 मैं उन भगवान कृष्ण को नमस्कार करता हूँ जो आदि तथा समस्त जीवों में महानतम हैं। वे वेदों के रचयिता हैं। उन्होंने अपने अनेक भक्तों को, भौतिक जगत के भय को नष्ट करने के लिए, आनन्दसागर से – इस समस्त ज्ञान तथा विज्ञान के अमृतमय सार का – यह अमृत प्रदान किया है और उनकी कृपा से ही भक्तों ने इसका पान किया है।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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ज्ञानयोग (11.28)

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अध्याय  अट्ठाईस -- ज्ञानयोग (11.28)

1 भगवान ने कहा: प्रकृति तथा भोक्ता आत्मा परम सत्य पर आश्रित हैं। अतः मनुष्य को किसी अन्य व्यक्ति के स्वभाव तथा कर्मों की न तो प्रशंसा न ही आलोचना करनी चाहिए।

2 जो भी व्यक्ति दूसरों के गुणों तथा आचरण की प्रशंसा करता है या आलोचना करता है, वह मायामय द्वैतों में फँसने के कारण – उत्तमोत्तम हित से शीघ्र विपथ हो जाएगा।

3 जिस तरह देहधारी आत्मा की इन्द्रियाँ स्वप्न देखने के भ्रम या मृत्यु जैसी गहरी निद्रावस्था के द्वारा परास्त हो जाती हैं, उसी तरह भौतिक द्वन्द्व का अनुभव करनेवाले व्यक्ति को मोह तथा मृत्यु का सामना करना पड़ता है।

4 जो कुछ भौतिक शब्दों से व्यक्त किया जाता है या मन के द्वारा ध्यान किया जाता है, वह चरम सत्य नहीं है। अतएव द्वैत के इस असार जगत में, वस्तुतः क्या अच्छा या क्या बुरा है और ऐसे अच्छे तथा बुरे की मात्रा को कैसे मापा जा सकता है?

5 यद्यपि छायाएँ, प्रतिध्वनियाँ तथा मृगमरीचिकाएँ अपनी असली वस्तुओं के भ्रामक प्रतिबिम्ब ही होती हैं, किन्तु ये प्रतिबिम्ब अर्थपूर्ण या ज्ञेय भाव का सा दृश्य उत्पन्न करते हैं। इसी तरह यद्यपि शरीर, मन तथा अहंकार के साथ बद्धजीव की पहचान भ्रामक है, किन्तु यह पहचान मृत्यु पर्यंत उसके भीतर भय उत्पन्न करती रहती हैं।

6-7 एकमात्र परमात्मा ही इस जगत के परम नियन्ता तथा स्रष्टा हैं, जो समस्त जगत का आत्मास्वरूप है, वह पालन भी करता है और पालित भी होता है; हरता है और हरा भी जाता है। यद्यपि परमात्मा हर वस्तु से तथा अन्य हर किसी से पृथक हैं, किन्तु कोई अन्य जीव उनसे पृथक रूप में निश्चित नहीं किया जा सकता। तीन प्रकार की प्रकृति के, जो उनके भीतर देखी जाती है, प्राकट्य का कोई वास्तविक आधार नहीं है। प्रत्युत तुम यह समझ लो कि तीन गुणों वाली यह प्रकृति उनकी मायाशक्ति का ही प्रतिफल है।

8 जिसने मेरे द्वारा यहाँ पर वर्णित सैद्धान्तिक तथा अनुभूत ज्ञान में स्थिर होने की विधि को भलीभाँति समझ लिया है, वह भौतिक निन्दा या स्तुति में अपने को नहीं उलझाता। वह इस जगत में सूर्य की तरह सर्वत्र स्वतंत्र होकर विचरण करता है।

9 प्रत्यक्ष अनुभूति, तर्कसंगत निगमन, शास्त्रोक्त प्रमाण तथा आत्म अनुभूति द्वारा मनुष्य को यह जान लेना चाहिए कि इस जगत का आदि तथा अन्त है, अतएव यह अन्तिम सत्य नहीं है। इस तरह मनुष्य को निर्लिप्त भाव से इस जगत में रहना चाहिए।

10 श्री उद्धव ने कहा : हे भगवान, द्रष्टारूपी आत्मा या दृश्यरूपी शरीर का अनुभव इस भौतिक जगत के लिए सम्भव नहीं है। एक ओर जहाँ आत्मा स्वाभाविक तौर पर पूर्ण ज्ञान से समन्वित होता है – वहीं दूसरी ओर भौतिक शरीर, चेतन जीव-सत्ता नहीं है, तो फिर इस संसार का अनुभव किससे सम्बद्ध है?

11 आत्मा अव्यय, दिव्य, शुद्ध, आत्म-प्रकाशित तथा किसी भौतिक वस्तु से कभी न ढका जाने वाला है। यह अग्नि के समान है। किन्तु अचेतन शरीर, काष्ठ की तरह मन्द है और अनभिज्ञ है। अतएव इस जगत में वह कौन है, जो वास्तव में भौतिक जीवन का अनुभव करता है?

12 भगवान ने कहा: जब तक आत्मा भौतिक शरीर, इन्द्रियों तथा प्राण के प्रति आकृष्ट रहता है, तब तक उसका भौतिक अस्तित्व विकसित होता रहता है यद्यपि अन्ततोगत्वा यह अर्थहीन होता है।

13 वस्तुतः जीव भौतिक जगत से परे है। किन्तु भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व जताने की मनोवृत्ति के कारण, उसका भौतिक अस्तित्व मिटता नहीं और वह सभी प्रकार की हानियों से प्रभावित होता है, जिस तरह स्वप्न में घटित होता है।

14 यद्यपि स्वप्न देखते समय मनुष्य को अनेक अवांछित वस्तुओं का अनुभव होता है, किन्तु जाग जाने पर वह स्वप्न के अनुभवों से तनिक भी भ्रमित नहीं होता।

15 शोक, हर्ष, भय, क्रोध, लोभ, मोह, लालसा के साथ-साथ जन्म तथा मृत्यु मिथ्या अहंकार के अनुभव हैं, शुद्ध आत्मा के नहीं।

16 जीव झूठे ही अपनी पहचान शरीर, इन्द्रियों, प्राण तथा मन से करता है और इन आवरणों के भीतर रहता है। वह अपने ही बद्ध भौतिक गुणों एवं कर्मों का रूप धारण करता है और विविध उपाधियाँ ग्रहण करता है। इस तरह वह परम काल के कठोर नियंत्रण में, संसार के भीतर इधर-उधर दौड़ता है।

17 यद्यपि मिथ्या अहंकार का कोई यथार्थ आधार नहीं है, किन्तु यह अनेक रूपों में देखा जाता है – यथा मन, वाणी, प्राण तथा शारीरिक कार्यों के रूप में। किन्तु प्रामाणिक गुरु की उपासना के द्वारा तेज की हुई दिव्य ज्ञानरूपी तलवार से, गम्भीर साधु इस मिथ्या पहचान को काट देता है और इस जगत में समस्त भौतिक आसक्ति से मुक्त होकर रहने लगता है।

18 असली आध्यात्मिक ज्ञान तो आत्मा और पदार्थ के अन्तर पर आधारित होता है और इसका अनुशीलन शास्त्रों के प्रमाण, तपस्या, प्रत्यक्ष अनुभूति, पुराणों के ऐतिहासिक वृत्तांतों के संग्रहण तथा तार्किक निष्कर्षों द्वारा किया जाता है। परम सत्य जो अकेला इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि के पूर्व विद्यमान था और जो इसके संहार के बाद भी बचा रहेगा वही काल तथा परम कारण भी है। इस सृष्टि के मध्य में भी एकमात्र परम सत्य ही वास्तविक यथार्थ है।

19 जिस तरह सोने की वस्तुएँ तैयार होने के पूर्व, एकमात्र सोना रहती है और जब ये वस्तुएँ नष्ट हो जाती हैं, तो भी एकमात्र सोना बचा रहता है और विविध नामों से व्यवहार में लाये जाने पर भी एकमात्र सोना ही अनिवार्य सत्य होता है, उसी तरह इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि के पूर्व, इसके संहार के बाद और इसके अस्तित्व के समय केवल मैं विद्यमान रहता हूँ।

20 भौतिक मन चेतना की तीन अवस्थाओं – जागृत, सुप्ति तथा सुषुप्ति – में प्रकट होता है, जो प्रकृति के तीन गुणों से उत्पन्न हैं। फिर मन तीन भिन्न भिन्न भूमिकाओं में – द्रष्टा, दृश्य तथा अनुभूति के नियामक रूप में – प्रकट होता है। इस तरह मन तीनों उपाधियों में लगातार विविध प्रकारों से प्रकट होता है। किन्तु इन सब से भिन्न एक चौथा तत्त्व भी विद्यमान रहता है और वही परम सत्य होता है।

21 जो भूतकाल में विद्यमान नहीं था और भविष्य में भी विद्यमान नहीं रहेगा, उसका इसकी पूरी अवधि में कोई अस्तित्व नहीं होता; वह केवल ऊपरी उपाधि होता है। मेरे मत में जो कुछ सृजित किया जाता है तथा किसी अन्य वस्तु से उद्घाटित किया जाता है, अन्ततः वही एकमात्र अन्य वस्तु होता है।

22 वास्तव में विद्यमान न होते हुए भी, रजोगुण से उत्पन्न रूपान्तरों की यह अभिव्यक्ति सत्य प्रतीत होती है क्योंकि स्वयं-व्यक्त, स्वयं-प्रकाशित परम सत्य अपने को नाना प्रकार की इन्द्रियों, इन्द्रियविषयों, मन तथा शरीर के तत्त्वों के रूप में प्रकट करता है।

23 इस तरह विवेकशील तर्क द्वारा परम सत्य की अनन्य स्थिति को अच्छी तरह समझ कर मनुष्य को चाहिए कि पदार्थ से अपनी गलत पहचान का दक्षता से निषेध करे और आत्मा की पहचान विषयक सारे संशयों को छिन्न-भिन्न कर डाले। आत्मा के स्वाभाविक आनन्द से तुष्ट होते हुए मनुष्य को भौतिक इन्द्रियों के काम-वासनामय कार्यों से दूर रहना चाहिए।

24 पृथ्वी से बना भौतिक शरीर असली आत्मा नहीं है, न ही इन्द्रियाँ, उनके अधिष्ठाता देवता या प्राणवायु; न बाह्य वायु, जल, अथवा अग्नि या मन ही हैं। ये सब तो मात्र पदार्थ हैं। इसी तरह न तो मनुष्य की बुद्धि, न भौतिक चेतना, न अहंकार, न ही आकाश या पृथ्वी के तत्त्व, न ही इन्द्रिय अनुभूति के विषय, न भौतिक साम्य की आदि अवस्था ही, को आत्मा की वास्तविक पहचान माना जा सकता है।

25 जिसने मेरी पहचान भगवान के रूप में कर ली है, उसके लिए इसमें क्या श्रेय रखा है यदि उसकी इन्द्रियाँ, जो गुणों से उत्पन्न हैं, ध्यान में पूरी तरह एकाग्र हों? दूसरी ओर, इसमें कौन-सा कलंक लगता है यदि उसकी इन्द्रियाँ चलायमान होती हैं? निस्सन्देह, इससे सूर्य का क्या बनता-बिगड़ता है यदि बादल आते और जाते हैं?

26 आकाश अपने में से होकर गुजरने वाली वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी के विविध गुणों को और उसी के साथ ऊष्मा तथा शीत के गुणों को भी प्रदर्शित कर सकता है, जो ऋतुओं के अनुसार निरन्तर आते-जाते रहते हैं। फिर भी, आकाश कभी भी इन गुणों के साथ उलझता नहीं। इसी प्रकार परम सत्य सतो, रजो तथा तमोगुणों के दूषणों से कभी बँधता नहीं क्योंकि ये मिथ्या अहंकार का भौतिक विकार उत्पन्न करनेवाले हैं।

27 मनुष्य जब तक दृढ़तापूर्वक मेरी भक्ति का अभ्यास करके अपने मन से भौतिक काम-वासना के कल्मष को पूरी तरह निकाल नहीं फेंकता है, तब तक उसे इन भौतिक गुणों की संगति करने में सावधानी बरतनी चाहिए जो मेरी मायाशक्ति द्वारा उत्पन्न होते हैं।

28 जिस तरह ठीक से उपचार न होने पर रोग फिर से लौट आता है और रोगी को बारम्बार कष्ट देता है, उसी तरह यदि मन को विकृत प्रवृत्तियों से पूरी तरह शुद्ध नहीं कर लिया जाता, तो वह भौतिक वस्तुओं में लिप्त रहने लगता है और अपूर्ण योगी को बारम्बार तंग करता रहता है।

29 कभी कभी अपूर्ण योगी की उन्नति पारिवारिक सदस्यों, शिष्यों अथवा अन्यों के प्रति आसक्ति के कारण रुक जाती है क्योंकि ऐसे लोग इसी प्रयोजन से ईर्ष्यालु देवताओं द्वारा भेजे जाते हैं। किन्तु अपनी संचित उन्नति के बल पर ऐसे अपूर्ण योगी अगले जन्म में अपना योगाभ्यास फिर चालू कर देते हैं। वे फिर कभी सकाम कर्म के जाल में नहीं फँसते।

30 सामान्य जीव भौतिक कर्म करता है और ऐसे कर्म के फल से रूपान्तरित हो जाता है। इस तरह वह विविध इच्छाओं से प्रेरित होकर अपनी मृत्यु तक सकाम कर्म करता रहता है। किन्तु बुद्धिमान व्यक्ति अपने स्वाभाविक आनन्द का अनुभव किये रहने से, सारी भौतिक इच्छाओं को त्याग देता है और सकाम कर्म में लिप्त नहीं होता।

31 बुद्धिमान व्यक्ति, जिसकी चेतना आत्मा में स्थित है, अपनी शारीरिक क्रियाओं पर भी ध्यान नहीं दे पाता। खड़े, बैठे, चलते, लेटे, भोजन करते या अन्य शारीरिक कार्य करते हुए भी, वह समझता है कि शरीर अपने स्वभाव के अनुसार कार्य करता है।

32 यद्यपि स्वरूपसिद्ध आत्मा कभी-कभी अशुद्ध वस्तु या कर्म को देख सकता है, किन्तु वह इसे सत्य नहीं मानता। अशुद्ध इन्द्रियविषयों को तर्क द्वारा मायावी भौतिक द्वैत पर आधारित समझकर, बुद्धिमान व्यक्ति उन्हें सत्य से सर्वथा विपरीत और पृथक मानता है, जिस तरह निद्रा से जागा हुआ मनुष्य अपने धुँधले स्वप्न को देखता है।

33 भौतिक अविद्या को, जो प्राकृतिक गुणों के कार्यों द्वारा नाना रूपों में विस्तार पाती है, बद्धजीव गलती से आत्मा मान बैठता है। किन्तु हे उद्धव, आध्यात्मिक ज्ञान के अनुशीलन से यही अविद्या मोक्ष के समय धुँधली हो जाती है। दूसरी ओर, नित्य आत्मा न तो कभी ग्रहण किया जा सकता है और न ही त्यागा जा सकता है।

34 जब सूर्य उदय होता है, तो वह मनुष्यों की आँखों को ढकने वाले अंधकार को नष्ट कर देता है, किन्तु वह उन वस्तुओं को उत्पन्न नहीं करता जिन्हें मनुष्य अपने समक्ष देखते हैं क्योंकि वे तो पहले से ही वहीं पर थीं। इसी तरह मेरी शक्तिशाली तथा यथार्थ अनुभूति मनुष्य की असली चेतना को ढकने वाले अंधकार को नष्ट कर देगी।

35 परमेश्वर स्वत: प्रकाशित, अजन्मा तथा अप्रमेय हैं। वे शुद्ध दिव्य चेतना हैं और हर वस्तु का अनुभव करते हैं। वे अद्वितीय हैं और जब सामान्य शब्द काम करना बन्द कर देते हैं, तभी उनकी अनुभूति होती है। उनके द्वारा वाक्शक्ति तथा प्राणों को गति प्राप्त होती है।

36 आत्मा में जो भी ऊपरी द्वैत अनुभव किया जाता है, वह केवल मन का संशय होता है। दरअसल, अपने ही आत्मा से पृथक ऐसे कल्पित द्वैत के ठहर पाने का कोई आधार नहीं है।

37 पाँच भौतिक तत्त्वों का द्वैत केवल नामों और रूपों में ही देखा जाता है। जो लोग कहते हैं कि यह द्वैत असली है, वे छद्म-पण्डित हैं और वस्तुतः बिना आधार के व्यर्थ ही तरह-तरह के सिद्धान्त प्रस्तावित करते रहते हैं।

38 अपने अभ्यास में अभी तक परिपक्व न होने वाले प्रयत्नशील योगी का शरीर कभी-कभी विविध उत्पातों की चपेट में आ सकता है। अतएव निम्नलिखित विधि संस्तुत की जाती है।

39 इनमें से कुछ व्यवधानों को योगिक ध्यान द्वारा या शारीरिक आसनों के द्वारा, जिनका अभ्यास प्राणायाम में एकाग्रता के साथ किया जाता है, दूर किया जा सकता है और अन्य व्यवधानों को विशेष तपस्याओं, मंत्रों या जड़ी-बूटियों से बनी औषधियों द्वारा दूर किया जा सकता है।

40 इन अशुभ उत्पातों को मेरा स्मरण करके, मेरे नामों का सामूहिक श्रवण और संकीर्तन करके या योग के महान स्वामियों के पदचिन्हों पर चलकर धीरे धीरे दूर किया जा सकता है।

41 कुछ योगीजन विविध उपायों से शरीर को रोग तथा वृद्धावस्था से मुक्त कर लेते हैं और उसे स्थायी रूप से तरुण बनाये रखते हैं। इस तरह वे भौतिक योग-सिद्धियाँ पाने के उद्देश्य से योग में प्रवृत्त होते हैं।

42 जो लोग दिव्य ज्ञान में पटु हैं, वे इस योग की शारीरिक सिद्धि को अत्यधिक महत्त्व नहीं देते। दरअसल, वे ऐसी सिद्धि के लिए किये गये प्रयास को व्यर्थ मानते हैं क्योंकि आत्मा तो वृक्ष के सदृश स्थायी है किन्तु शरीर वृक्ष के फल की तरह विनाशशील है।

43 यद्यपि योग की विभिन्न विधियों से शरीर सुधर सकता है, किन्तु बुद्धिमान व्यक्ति, जिसने अपना जीवन मुझे समर्पित कर दिया है योग के द्वारा शरीर को पूर्ण बनाने पर अपनी श्रद्धा नहीं दिखलाता और वास्तव में वह ऐसी विधियों को त्याग देता है।

44 जिस योगी ने मेरी शरण ग्रहण कर ली है, वह लालसा से मुक्त रहता है क्योंकि वह भीतर ही भीतर आत्मा के सुख का अनुभव करता है। इस तरह इस योग-विधि को सम्पन्न करते हुए वह कभी विघ्न-बाधाओं से पराजित नहीं होता।

 

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय सत्ताईस – देवपूजा विषयक श्रीकृष्ण के आदेश (11.27)

1 श्री उद्धव ने कहा : हे प्रभु, हे भक्तों के स्वामी, कृपा करके मुझे आपके अर्चाविग्रह रूप में पूजा की नियत विधि बतायें। अर्चाविग्रह की पूजा करने वाले भक्तों की क्या योग्यताएँ होती हैं? ऐसी पूजा किस आधार पर तय की जाती है? तथा पूजा की विशिष्ट विधि क्या है?

2 सारे मुनि बारम्बार घोषित करते हैं कि ऐसी पूजा से मनुष्य जीवन का बड़े-से-बड़ा सम्भव लाभ मिलता है। नारद मुनि, महान व्यासदेव तथा मेरे गुरु बृहस्पति का यही मत है।

3-4 हे वदान्य प्रभु, अर्चाविग्रह की पूजा-विधि के आदेश सर्वप्रथम आपने दिये। तब ब्रह्माजी ने इन्हें भृगु इत्यादि अपने पुत्रों को दिया और शिवजी ने अपनी पत्नी पार्वती को दिया। यह विधि सभी वर्णों तथा आश्रमों द्वारा स्वीकार की जाती है और उपयुक्त हैं। इसलिए मैं अर्चाविग्रह के रूप में आपकी पूजा को, स्त्रियों तथा शूद्रों तक के लिए समस्त आध्यात्मिक अभ्यासों में अत्यन्त लाभप्रद मानता हूँ।

5 हे कमलनयन, हे ब्रह्माण्ड के सारे प्रभुओं के परमेश्वर, कृपया अपने इस भक्त-दास को कर्मबन्धन से मोक्ष का साधन बतायें।

6 भगवान ने कहा: हे उद्धव, अर्चाविग्रह पूजा करने के लिए इतने वैदिक निर्देश हैं कि उनका कोई अन्त नहीं है; इसलिए मैं यह विषय तुम्हें संक्षेप में एक-एक करके बताऊँगा।

7 मनुष्य को चाहिए कि वैदिक, तांत्रिक अथवा मिश्रित, इन तीन विधियों में से, जिनसे मैं यज्ञ प्राप्त करता हूँ, किसी एक को चुनकर सावधानीपूर्वक मेरी पूजा करे।

8 तुम श्रद्धापूर्वक सुनो कि किस तरह द्विज पद को प्राप्त व्यक्ति सम्बद्ध वैदिक संस्तुतियों द्वारा भक्तिपूर्वक मेरी पूजा करे।

9 द्विज को चाहिए कि वह अपने आराध्य देव मुझको बिना द्वैत के मेरे अर्चाविग्रह पर प्रेममयी भक्ति के साथ उपयुक्त साज-सामग्री अर्पित करके पूजे अथवा पृथ्वी पर, अग्नि में, सूर्य में, जल में या पूजक के ही हृदय में प्रकट होनेवाले मेरे रूप को पूजे।

10 मनुष्य को चाहिए कि पहले वह अपने दाँत साफ करके तथा स्नान करके अपना शरीर शुद्ध बनाये। तत्पश्चात वह शरीर को मिट्टी से मलकर तथा वैदिक एवं तांत्रिक मंत्रों के उच्चारण द्वारा दुबारा शुद्ध करे।

11 मनुष्य को चाहिए कि वह मन को मुझ पर स्थिर करके, विविध नियत कार्यों द्वारा, यथा दिन में तीन सन्धियों पर गायत्री मंत्र का उच्चारण करके, मेरी पूजा करे। वेदों द्वारा ऐसे कार्यों का आदेश है और इनसे पूजा करनेवाला अपने कर्मफलों से शुद्ध हो जाता है।

12 भगवान के अर्चाविग्रह रूप का आठ प्रकारों में–पत्थर, काष्ठ, धातु, मिट्टी, चित्र, बालू, मन या रत्न में – प्रकट होना बतलाया जाता है।

13 समस्त जीवों के शरण रूप भगवान का अर्चाविग्रह अस्थायी अथवा स्थायी रूप से स्थापित किया जा सकता है। किन्तु हे उद्धव, स्थायी अर्चाविग्रह का आवाह्न हो चुकने पर उसका विसर्जन नहीं किया जा सकता।

14 जो अर्चाविग्रह अस्थायी रूप से स्थापित किया जाता है उसका आवाह्न और विसर्जन विकल्प रूप में किया जा सकता है किन्तु ये दोनों अनुष्ठान तब अवश्य करने चाहिए जब अर्चाविग्रह को भूमि पर अंकित किया गया हो। अर्चाविग्रह को जल से स्नान कराना चाहिए यदि वह मिट्टी, रंजक या काष्ठ से न बनाया गया हो। ऐसा होने पर जल के बिना ही ठीक से सफाई करनी चाहिए।

15 मनुष्य को चाहिए कि उत्तम से उत्तम साज-सामग्री भेंट करके मेरे अर्चाविग्रह – रूप में, मेरी पूजा करे। किन्तु भौतिक इच्छा से पूर्णतया मुक्त भक्त मेरी पूजा, जो भी वस्तु मिल सके उसी से करे, यहाँ तक कि वह अपने हृदय के भीतर मानसिक साज-सामग्री से भी मेरी पूजा कर सकता है।

16-17 हे उद्धव, मन्दिर के अर्चाविग्रह को पूजा में स्नान कराना तथा सजाना सर्वाधिक मनोहारी भेंटें हैं। पवित्र भूमि पर अंकित अर्चाविग्रह के लिए तत्त्वविन्यास ही सर्वाधिक रुचिकर विधि है। तिल तथा जौ को घी में सिक्त करके जो आहुतियाँ दी जाती हैं, उन्हें यज्ञ की अग्नि भेंट से अधिक अच्छा माना जाता है, जबकि उपस्थान तथा अर्ध्य से युक्त पूजा सूर्य के लिए अच्छी मानी जाती है। मनुष्य को चाहिए कि जल को ही अर्पित करके जल के रूप में मेरी पूजा करे। वस्तुतः मेरे भक्त द्वारा श्रद्धापूर्वक मुझे जो कुछ अर्पित किया जाता है–भले ही वह थोड़ा-सा जल ही क्यों न हो–मुझे अत्यन्त प्रिय है।

18 बड़ी से बड़ी ऐश्वर्यपूर्ण भेंट भी मुझे तुष्ट नहीं कर पाती यदि वे अभक्तों द्वारा प्रदान की जाँय। किन्तु मैं अपने प्रेमी भक्तों द्वारा प्रदत्त तुच्छ से तुच्छ भेंट से भी प्रसन्न हो जाता हूँ और जब सुगन्धित तेल, अगुरु, फूल तथा स्वादिष्ट भोजन की उत्तम भेंट प्रेमपूर्वक चढ़ाई जाती है, तो मैं निश्चय ही सर्वाधिक प्रसन्न होता हूँ।

19 अपने को स्वच्छ करके तथा सारी सामग्री एकत्र करके पूजक को चाहिए कि अपना आसन कुशों को पूर्वाभिमुख करके बनाये। तब वह पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके बैठे अन्यथा यदि अर्चाविग्रह किसी एक स्थान पर स्थिर है, तो अर्चाविग्रह के सामने मुख करके बैठे।

20 भक्त को चाहिए कि अपने शरीर के विभिन्न अंगों का स्पर्श करके तथा मंत्रोच्चार करते हुए उन्हें पवित्र बनाये। उसे मेरे अर्चाविग्रह रूप के साथ भी ऐसा ही करना चाहिए और तब उसे अपने हाथों से अर्चाविग्रह पर चढ़े पुराने फूलों तथा अन्य भेंटों को हटाना चाहिए। उसे पवित्र कलश (पात्र) तथा छिड़कने के लिए जल से भरा पात्र भी उचित ढंग से तैयार करना चाहिए।

21 तब उस प्रोक्षणीय पात्र से वह उस स्थान पर पानी छिड़के जहाँ अर्चाविग्रह की पूजा की जा रही हो, जहाँ भेंटें चढ़ाई जानी हों तथा साथ ही अपने शरीर पर भी पानी छिड़के। तत्पश्चात वह जल से भरे तीन पात्रों को विविध शुभ वस्तुओं से सजाये।

22 तब पूजा करनेवाला इन तीनों पात्रों को शुद्ध करे। उसे चाहिए कि भगवान के चरण पखारने के लिए जल वाले पात्र को हृदयाय नमः मंत्र से पवित्र करे; अर्ध्य के लिए जल-पात्र को शिरसे स्वाहा मंत्र से तथा भगवान का मुख धोने वाले जल के पात्र को शिखायै वषट् मंत्र का उच्चारण करके पवित्र बनाये। साथ ही, इन तीनों पात्रों के लिए गायत्री मंत्र का भी उच्चारण करे।

23 पूजा करने वाले को चाहिए कि वह मेरे सूक्ष्म रूप को, जो अब वायु तथा अग्नि से पवित्र हुए पूजा करने वाले के शरीर के भीतर स्थित होता है, समस्त जीवों के स्रोत रूप में ध्यान करे। भगवान का यह रूप पवित्र अक्षर ॐ की ध्वनि के अन्त में स्वरूपसिद्ध मुनियों द्वारा अनुभव किया जाता है।

24 भक्त परमात्मा का ध्यान करता है, जिसकी उपस्थिति भक्त के शरीर को उसकी अनुभूति के अनुरूप अधिक भर देती है। इस तरह भक्त अपनी सामर्थ्य-भर भगवान की पूजा करता है और उन्हीं में लीन हो जाता है। अर्चाविग्रह के विभिन्न अंगों का स्पर्श करके तथा उपयुक्त मंत्रोच्चार करके भक्त को चाहिए कि वह परमात्मा को अर्चाविग्रह रूप में आने के लिए आमंत्रित करे और तब वह मेरी पूजा करे।

25-26 पूजा करनेवाले को चाहिए कि सर्वप्रथम मेरे आसन को धर्म, ज्ञान, त्याग तथा ऐश्वर्य के साक्षात देवों से तथा मेरी नौ आध्यात्मिक शक्तियों से अलंकृत होने की कल्पना करे। वह भगवान के आसन को आठ पंखड़ियों वाले कमल के रूप में मान ले जो अपने कोश के भीतर केसर तन्तुओं से तेजवान है। तब वेदों तथा तंत्रों के नियमानुसार वह पाँव पखारने का जल, मुख साफ करने का जल, अर्ध्य तथा पूजा की अन्य वस्तुएँ मुझे अर्पित करे। इस विधि से उसे भौतिक भोग तथा मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है।

27 मनुष्य को चाहिए कि भगवान के सुदर्शन चक्र, पाञ्चजन्य शंख, कौमुदकी गदा, तलवार, धनुष, बाण, हल, मूसल, कौस्तुभ मणि, फूलमाला तथा उनके वक्षस्थल के केश-गुच्छ श्रीवत्स की पूजा इसी क्रम से करे।

28 मनुष्य को चाहिए कि नन्द, सुनन्द, गरुड़, प्रचण्ड तथा चण्ड, महाबल तथा बल एवं कुमुद तथा कुमुदेक्षण नामक भगवान के पार्षदों की पूजा करे।

29 मनुष्य को चाहिए कि वह प्रोक्षण इत्यादि भेंटों से दुर्गा, विनायक, व्यास, विष्वक्सेन, गुरुओं तथा विविध देवताओं की पूजा करे। इन सारे महापुरुषों को भगवान के अर्चाविग्रह की ओर मुख किए हुए अपने अपने स्थानों में होना चाहिए।

30-31 पूजा करने वाले को चाहिए कि अपनी आर्थिक सामर्थ्य के अनुसार प्रतिदिन अर्चाविग्रह को स्नान करने के लिए चन्दन-लेप, उशीर, कपूर, कुमकुम तथा अगुरु से सुगन्धित किए गए जल का प्रयोग करे। उसे विविध वैदिक स्तुतियों का भी, यथा अनुवाक जो कि स्वर्ण-धर्म कहलाती है, महापुरुष विद्या, पुरुष सूक्त, तथा सामवेद के विविध गीतों यथा राजन तथा रोहिण्य का भी उच्चारण करना चाहिए।

32 तब मेरे भक्त को चाहिए कि वह मुझे वस्त्रों, जनेऊ, विविध आभूषणों, तिलक-चिन्ह तथा मालाओं से अच्छी तरह अलंकृत करे और मेरे शरीर पर सुगन्धित तेल का नियत विधि से लेप करे।

33 पूजक को चाहिए कि वह मेरे पाँव तथा मुँह धोने के लिए जल, सुगन्धित तेल, फूल, अक्षत तथा इसी के साथ अगुरु, दीपक तथा अन्य भेंटें भी चढ़ाये।

34 अपने साधनों के अन्तर्गत (यदि उसके पास पर्याप्त साधन हों);-- भक्त को चाहिए कि मुझे भेंट करने के लिए गुड़, खीर, घी, शष्कुली (चाँवल के आटे, चीनी, तिल से बनी तथा घी में तली गई पूड़ी), आपूप (मीठा व्यञ्जन), मोदक (लड्डू), संयाव (आटा, घी तथा दूध से बनी आयताकार रोटी जिस पर चीनी तथा मसाला चुपड़ा हो) दही, शाक-शोरबा तथा अन्य स्वादिष्ट भोजन भेंट करने के लिए व्यवस्था करे।

35 विशेष अवसरों पर और यदि सम्भव हो तो नित्यप्रति अर्चाविग्रह को उबटन लगाया जाय, दर्पण दिखाया जाय, दाँत साफ करने के लिए नीम की दातुन दी जाय, पाँच प्रकार के अमृत (पंचामृत) से नहलाया जाय, विविध उच्च कोटि के व्यंजन भेंट किये जाँय तथा उनका गायन और नृत्य से मनोरंजन किया जाय।

36 भक्त को चाहिए कि शास्त्रोक्ति विधि से तैयार की गई यज्ञशाला में अग्नि-यज्ञ करे जिसमें वह पवित्र पेटी (मेखला), यज्ञ-कुण्ड तथा वेदी का प्रयोग करे। यज्ञ-अग्नि जलाते समय भक्त को चाहिए कि अपने हाथों से चिरी गई लकड़ियों को प्रज्ज्वलित करे।

37 जमीन पर कुश फैलाकर तथा उस पर जल छिड़कने के बाद, नियत विधियों के अनुसार अन्वाधान (ॐ भूर्भुव: स्वः का उच्चारण करते हुए अग्नि में लकड़ी रखे) किया जाय। तत्पश्चात आहुति में डाले जानेवाली वस्तुओं को व्यवस्थित करे और उन्हें पात्र में से जल छिड़क कर पवित्र बनाये। इसके बाद पूजा करनेवाला अग्नि के भीतर मेरा ध्यान करे।

38-41 बुद्धिमान भक्त को चाहिए कि वह भगवान के उस रूप का ध्यान करे जिसका रंग पिघले सोने जैसा, जिसकी चारों भुजाएँ शंख-चक्र-गदा तथा कमल-फूल से शोभायमान हैं तथा जो सदैव शान्त रहता है और कमल के फूल के भीतर के तन्तुओं जैसा रंगीन वस्त्र पहने रहता है। उनका मुकुट, कंगन, करधनी तथा बाजूबन्द खूब चमकते रहते हैं। उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह, चमकीली कौस्तुभ मणि तथा जंगली फूलों की माला रहती है। तत्पश्चात भक्त को घी में डूबी लकड़ियों को लेकर उन्हें अग्नि में डालते हुए भगवान की पूजा करनी चाहिए। उसे आधार अनुष्ठान करना चाहिए जिसमें घी में सिक्त सारी आहुति-सामग्री अग्नि को अर्पित की जाती है। तत्पश्चात उसे यमराज आदि इत्यादि सोलह देवताओं को स्विष्टि कृत (स्विष्टि अनुष्ठान) नामक आहुति देनी चाहिए जिसमें प्रत्येक देवता के मूल मंत्रों का तथा पुरुष सूक्त की सोलह पंक्तियों का उच्चारण किया जाता है। पुरुष सूक्त की प्रत्येक पंक्ति के बाद एक आहुति डालकर, उसे प्रत्येक देवता का नाम लेकर विशेष मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।

42 इस तरह यज्ञ-अग्नि में भगवान की पूजा करके भक्त को चाहिए कि भगवान के निजी पार्षदों को झुककर नमस्कार करे और तब उन्हें उपहार भेंट करे। तब वह भगवान के अर्चाविग्रह का मूल मंत्र मन ही मन जपे और भगवान नारायण के रूप में परम सत्य का स्मरण करे।

43 वह एक बार फिर अर्चाविग्रह को मुख धोने के लिए जल दे और जो भोजन बचा हो उसे विष्वक्सेन को दे दे। तत्पश्चात वह अर्चाविग्रह को सुगन्धित मुख-शुद्धि एवं लगा हुआ पान का बीड़ा दे।

44 दूसरों के साथ गाते हुए, जोर से कीर्तन करते तथा नाचते, मेरी दिव्य लीलाओं का अभिनय करते तथा मेरे विषय में कथाएँ सुनते तथा सुनाते हुए भक्त को चाहिए कि कुछ समय के लिए ऐसे उत्सव में लीन हो जाय।

45 भक्त को चाहिए कि पुराणों तथा अन्य प्राचीन शास्त्रों तथा सामान्य परम्परा के अनुसार सभी प्रकार की स्तुतियों तथा प्रार्थनाओं से भगवान को श्रद्धा अर्पित करे। उसे चाहिए कि, “हे प्रभु, मुझ पर दयालु हों“ ऐसी प्रार्थना करते हुए पृथ्वी पर दण्ड की तरह गिर कर नमस्कार करे।

46 अर्चाविग्रह के चरणों पर अपना सिर रखकर और भगवान के समक्ष हाथ जोड़े खड़े होकर, उसे प्रार्थना करनी चाहिए “हे प्रभु, मैं आपकी शरण में हूँ। कृपा करके मेरी रक्षा करें। मैं इस भवसागर से अत्यन्त भयभीत हूँ क्योंकि मैं मृत्यु के मुख पर खड़ा हूँ।”

47 इस प्रकार प्रार्थना करता हुआ भक्त मेरे द्वारा प्रदत्त उच्छिष्ठ को आदर-सहित अपने सिर पर रखे और यदि उस अर्चाविग्रह का पूजा के अन्त में विसर्जन करना हो, तो भक्त को अपने हृदय के भीतर के कमल के प्रकाश के अंदर अर्चाविग्रह की उपस्थिति के प्रकाश को एक बार पुनः धारण करना चाहिए।

48 जब भी कोई व्यक्ति मुझमें, चाहे मेरे अर्चाविग्रह रूप में या अन्य प्रामाणिक अभिव्यक्तियों के रूप में, श्रद्धा उत्पन्न कर लेता है, तो उसे उसी रूप में मेरी पूजा करनी चाहिए। मैं निश्चय ही, समस्त उत्पन्न जीवों के भीतर तथा पृथक रूप से अपने आदि रूप में भी विद्यमान रहता हूँ, क्योंकि मैं सबों का परमात्मा हूँ।

49 वेदों में तथा तंत्रों में संस्तुत विविध विधियों से मेरी पूजा करते हुए मनुष्य इस जीवन में तथा अगले जीवन में मुझसे इच्छित सिद्धि प्राप्त करेगा।

50 भक्त को चाहिए कि मजबूत मन्दिर बनवाकर उसी के साथ सुन्दर बगीचों से मेरे अर्चाविग्रह को अधिक पुष्टता से स्थापित करे। इन बगीचों को नित्यप्रति पूजा के लिए फूल प्रदान करने, विशेष अर्चाविग्रह जुलूसों और शुभ पर्वों के मनाने के लिए सुरक्षित रखना चाहिए।

51 जो व्यक्ति अर्चाविग्रह पर भूमि, बाजार, शहर तथा गाँव की भेंट चढ़ाता है, जिससे कि अर्चाविग्रह को दैनिक पूजा तथा विशिष्ट उत्सव निरन्तर चलते रहें, वह मेरे ही तुल्य ऐश्वर्य प्राप्त करेगा।

52 भगवान के अर्चाविग्रह की स्थापना करने से मनुष्य सारी पृथ्वी का राजा बन जाता है; भगवान के लिए मन्दिर बनवाने से तीनों जगतों का शासक बन जाता है; अर्चाविग्रह की पूजा तथा सेवा करने से वह ब्रह्मलोक को जाता है और इन तीनों कार्यों को करने से वह मुझ जैसा ही दिव्य स्वरूप प्राप्त करता है।

53 किन्तु जो व्यक्ति कर्मफल पर विचार किये बिना, भक्ति में लगा रहता है, वह मुझे प्राप्त करता है। इस तरह जो कोई भी मेरे द्वारा वर्णित विधि के अनुसार मेरी पूजा करता है, वह अन्ततः मेरी शुद्ध भक्ति प्राप्त करेगा।

54 जो व्यक्ति देवताओं या ब्राह्मणों की सम्पत्ति को चुराता है, चाहे वह उन्हें पहले उस व्यक्ति द्वारा दी गई हो या अन्य किसी के द्वारा, उसे एक करोड़ वर्षों तक मल के कीट के रूप में रहना पड़ता है।

55 न केवल चोरी करने वाला व्यक्ति अपितु उसकी सहायता करने वाला या जो अपराध के लिए उकसाता है या मात्र अनुमोदन करता है, वह भी अगले जीवन में पापफल में भागी बनेगा। भागीदारी की कोटि के अनुसार ही, उन्हें उसी अनुपात में फल भोगना होगा। [भगवान के या उनके अधिकारी प्रतिनिधियों की पूजा की वस्तु को किसी भी दशा में नहीं चुराना चाहिए।]

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

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ऐल गीत (11.26)

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अध्याय छब्बीस – ऐल गीत (11.26)

1 भगवान ने कहा: मानव-जीवन मेरा साक्षात्कार करने का अवसर प्रदान करता है। मेरी प्रेमाभक्ति में स्थित होकर, मनुष्य मुझे प्राप्त कर सकता है, जो समस्त आनन्द का आगार तथा प्रत्येक जीव के हृदय में वास करनेवाला परमात्मा स्वरूप है।

2 दिव्य ज्ञान में स्थिर व्यक्ति प्रकृति के गुणों के फलों से अपनी झूठी पहचान त्यागकर, बद्ध जीवन से मुक्त हो जाता है। इन फलों को मात्र मोह समझकर उन्हीं के बीच निरन्तर रहते हुए भी वह प्रकृति के गुणों में फँसने से अपने को बचाता है। चूँकि गुण तथा उनके फल सत्य नहीं होते, अतएव वह उन्हें स्वीकार नहीं करता।

3 मनुष्य को कभी ऐसे भौतिकतावादियों की संगति नहीं करनी चाहिए जो अपने जननांग तथा उदर की तृप्ति में लगे रहते हों। उनका अनुसरण करने पर मनुष्य अंधकार के गहरे गड्ढे में गिर जाता है, जिस तरह एक अन्धे व्यक्ति द्वारा दूसरे अन्धे व्यक्ति का अनुगमन करने पर होता है।

4 निम्नलिखित गीत सुप्रसिद्ध सम्राट पुरुरवा द्वारा गाया गया था। अपनी पत्नी उर्वशी से विलग होने पर सर्वप्रथम वह सम्भ्रमित हुआ किन्तु अपने शोक को वश में करने से वह विरक्ति का अनुभव करने लगा।

5 जब वह उसको छोड़कर जा रही थी तो निर्वस्त्र होते हुए भी, उसके पीछे पागल की तरह दौड़ने लगा और अत्यन्त दुख से चिल्लाने लगा, “मेरी पत्नी, अरे निष्ठुर नारी! जरा ठहरों।"

6 यद्यपि पुरुरवा ने वर्षों तक सायंकाल की घड़ियों में यौन आनन्द भोगा था, फिर भी ऐसे तुच्छ भोग से वह तृप्त नहीं हुआ था। उसका मन उर्वशी के प्रति इतना आकृष्ट था कि वह यह भी देख नहीं पाया कि रातें किस तरह आती और चली जाती हैं।

7 राजा ऐल ने कहा : हाय! मेरे मोह की सीमा को तो देखो! यह देवी मेरा आलिंगन करती थी और मेरी गर्दन अपनी मुट्ठी में किये रहती थी। मेरा हृदय काम-भाव से इतना दूषित था कि मुझे इसका ध्यान ही न रहा कि मेरा जीवन किस तरह बीता जा रहा है।

8 इस स्त्री ने मुझे इतना ठगा कि मैं उदय होते अथवा अस्त होते सूर्य को भी देख नहीं सका। हाय! मैं इतने वर्षों से व्यर्थ ही अपने दिन गँवाता रहा।

9 यद्यपि मैं शक्तिशाली सम्राट तथा इस पृथ्वी पर समस्त राजाओं का मुकुटमणि माना जाता हूँ, किन्तु देखो न! मोह ने मुझे स्त्रियों के हाथों का खिलौने जैसा पशु बना दिया है।

10 यद्यपि मैं प्रचुर ऐश्वर्य से युक्त शक्तिशाली स्वामी था, किन्तु उस स्त्री ने मुझे त्याग दिया मानों मैं कोई घास का तिनका पत्ती होऊँ। फिर भी मैं निर्लज्ज पागल व्यक्ति की तरह चिल्लाते हुए, उसका पीछा करता रहा।

11 कहाँ है मेरा तथाकथित अत्यधिक प्रभाव, बल तथा स्वामित्व? जिस स्त्री ने मुझे पहले ही छोड़ दिया था उसके पीछे मैं उसी तरह भागा जा रहा हूँ जैसे कि कोई गधा जिसके मुँह पर गधी दुलत्ती झाड़ती है।

12 ऊँची शिक्षा या तपस्या तथा त्याग किस काम का? इसी तरह धार्मिक शास्त्रों का अध्ययन करने, एकान्त तथा मौन होकर रहने और फिर स्त्री द्वारा किसी का मन चुराये जाने से क्या लाभ?

13 धिक्कार है मुझे! मैं इतना बड़ा मूर्ख हूँ कि मैंने यह भी नहीं जाना कि मेरे लिए क्या अच्छा है। मैंने तो यह सोचा था कि मैं अत्यधिक बुद्धिमान हूँ। यद्यपि मुझे स्वामी का उच्च पद प्राप्त हो गया, किन्तु मैं स्त्रियों से अपने को परास्त करवाता रहा मानो मैं कोई बैल या गधा होऊँ।

14 यद्यपि मैं उर्वशी के होठों के तथाकथित अमृत का सेवन वर्षों तक कर चुका था किन्तु मेरी काम-वासनाएँ मेरे हृदय में बारम्बार उठती रहीं और कभी तुष्ट नहीं हुईं जिस तरह घी की आहुति डालने पर, अग्नि कभी भी बुझाई नहीं जा सकती।

15 जो भौतिक अनुभूति के परे हैं और आत्माराम मुनियों के स्वामी हैं, उन भगवान के अतिरिक्त मेरी इस चेतना को जो स्त्री के द्वारा चुराई जा चुकी है, भला और कौन बचा सकता है?

16 चूँकि मैंने अपनी बुद्धि को मन्द बनने दिया और चूँकि मैं अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर सका, इसीलिए मेरे मन का विटप मोह मिटा नहीं यद्यपि उर्वशी ने सुन्दर वचनों द्वारा मुझे अच्छी सलाह दी थी।

17 भला मैं अपने कष्ट के लिए उसे कैसे दोष दे सकता हूँ जबकि मैं स्वयं अपने असली आध्यात्मिक स्वभाव से अनजान हूँ? मैं अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर पाया, इसीलिए मैं उस व्यक्ति की तरह हूँ जो निर्दोष रस्सी को भ्रमवश सर्प समझ बैठता है।

18 आखिर यह दूषित शरीर है क्या – इतना गंदा तथा दुर्गन्ध से भरा हुआ? मैं एक स्त्री के शरीर की सुगन्धि तथा सुन्दरता से आकृष्ट हुआ था किन्तु वे आकर्षक स्वरूप हैं क्या? वे माया (मोह) द्वारा उत्पन्न छद्म आवरण ही तो हैं।

19-20 कोई यह निश्चित नहीं कर सकता है कि शरीर वास्तव में किसकी सम्पत्ति है। क्या यह उस माता-पिता की है, जिसने उसे जन्म दिया है, अथवा इसे सुख देनेवाली पत्नी की है या इसके मालिक की है, जो शरीर को हुक्म देता रहता है? अथवा यह चिता की अग्नि की अथवा उन कुत्तों तथा सियारों की है, जो अन्ततोगत्वा इसका भक्षण करेंगे? क्या यह उस अन्तस्थ आत्मा की सम्पत्ति है, जो सुख-दुख में इसका साथ देता है अथवा यह शरीर उन घनिष्ठ मित्रों का है, जो इसको प्रोत्साहित करते तथा इसकी सहायता करते हैं? यद्यपि मनुष्य कभी भी शरीर के स्वामी को निश्चित रूप से तय नहीं कर पाता, किन्तु वह इससे अनुरक्त रहता है। यह भौतिक शरीर उस दूषित पदार्थ के समान है, जो निम्न स्थान की ओर बढ़ रहा है; फिर भी जब मनुष्य किसी स्त्री के मुख की ओर टकटकी लगाता है, तो सोचता है, “कितनी सुन्दर है यह स्त्री? कैसी सुघड़ नाक है इसकी और जरा इसकी सुन्दर हँसी को तो देखो।"

21 सामान्य कीड़ों-मकोड़ों तथा उन व्यक्तियों में अन्तर ही क्या है, जो चमड़ी, मांस, रक्त, पेशी, चर्बी, मज्जा, हड्डी, मल, मूत्र तथा पीब से बने इस भौतिक शरीर का भोग करना चाहते हैं?

22 शरीर की वास्तविक प्रकृति को सिद्धान्त रूप में जानने पर भी व्यक्ति को कभी भी स्त्रियों या स्त्रियों में लिप्त रहनेवाले पुरुषों की संगति नहीं करनी चाहिए। इन्द्रियों का उनके विषयों से सम्पर्क अनिवार्य रूप से मन को विचलित कर देता है।

23 चूँकि मन ऐसी वस्तु से विचलित नहीं होता जो न तो देखी गई हो, न सुनी गई हो, इसलिए ऐसे व्यक्ति का मन, जो अपनी इन्द्रियों को रोकता है, स्वत: अपने भौतिक कर्मों को करने से रोक दिया जाएगा और शान्त हो जायेगा।

24 इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी इन्द्रियों को स्त्रियों की या स्त्रियों के प्रति आसक्त पुरुषों की संगति न करने दे। यहाँ तक कि जो अत्यधिक विद्वान हैं वे मन के छह शत्रुओं पर भरोसा नहीं कर सकते, तो फिर मुझ जैसे मूर्ख व्यक्तियों के बारे में क्या कहा जाय?

25 भगवान ने कहा : इस प्रकार यह गीत गाकर, देवताओं तथा मनुष्यों में विख्यात महाराज पुरुरवा ने, वह पद त्याग दिया जिसे उसने उर्वशीलोक में प्राप्त कर लिया था। दिव्य ज्ञान से उसका मोह हट गया; उसने अपने हृदय में मुझे परमात्मा रूप में समझ लिया जिससे अन्त में उसे शान्ति मिल गई।

26 इसलिए बुद्धिमान मनुष्य को सारी कुसंगति त्याग देनी चाहिए और सन्त भक्तों की संगति ग्रहण करनी चाहिए जिनके शब्दों से मन का अति-अनुराग समाप्त हो जाता है।

27 मेरे भक्त अपने मन को मुझ पर स्थिर करते हैं और किसी भी भौतिक वस्तु पर निर्भर नहीं रहते। वे सदैव शान्त, समदृष्टि से युक्त तथा ममत्व, अहंकार, द्वन्द्व तथा लोभ से रहित होते हैं।

28 हे महाभाग उद्धव, ऐसे सन्त भक्तों की संगति में सदा मेरी चर्चा चलती रहती है और जो लोग मेरी महिमा के कीर्तन तथा श्रवण में भाग लेते हैं, वे निश्चित रूप से सारे पापों से शुद्ध हो जाते हैं।

29 जो कोई मेरी इन कथाओं को सुनता है, कीर्तन करता है और आदरपूर्वक आत्मसात करता है, वह श्रद्धा के साथ मेरे परायण हो जाता है और इस तरह मेरी भक्ति प्राप्त करता है।

30 पूर्ण भक्त के लिए मुझ परम सत्य की भक्ति प्राप्त कर लेने के बाद, करने के लिए बचता ही क्या है? परम सत्य के गुण असंख्य हैं और मैं साक्षात आनन्दमय अनुभव हूँ।

31 जो व्यक्ति यज्ञ-अग्नि के पास पहुँच चुका हो, उसके लिए जिस तरह शीत, भय तथा अंधकार दूर हो जाते हैं, उसी तरह जो व्यक्ति भगवान के भक्तों की सेवा में लगा रहता है उसका आलस्य, भय तथा अज्ञान दूर हो जाता है।

32 भगवान के भक्त, जो कि परम ज्ञान को शान्त भाव से प्राप्त हैं, उन लोगों के लिए चरम शरण हैं, जो भौतिक जीवन के भयावने सागर में बारम्बार डूबते तथा उठते हैं। ऐसे भक्त उस मजबूत नाव के सदृश होते हैं, जो डूब रहे व्यक्तियों की रक्षा करती है।

33 जिस तरह समस्त प्राणियों के लिए भोजन ही जीवन है, जिस तरह मैं दुखियारों का परम आश्रय हूँ तथा जिस तरह इस लोक से मरकर जाने वालों के लिए धर्म ही सम्पदा है, उसी तरह मेरे भक्त उन लोगों के एकमात्र आश्रय हैं, जो जीवन की दुखमय अवस्था में पड़ने से डरते रहते हैं।

34 मेरे भक्तगण दिव्य आँखें प्रदान करते हैं जबकि सूर्य केवल बाह्य दृष्टि प्रदान करता है और वह भी तब, जब वह आकाश में उदय हुआ रहता है। मेरे भक्तगण ही मनुष्य के पूज्य देव तथा असली परिवार हैं; वे स्वयं ही आत्मा हैं और वे मुझसे अभिन्न हैं।

35 इस तरह उर्वशी के लोक में रहने की अपनी इच्छा त्याग करके महाराज पुरुरवा समस्त भौतिक संगति से मुक्त होकर तथा अपने भीतर पूरी तरह तुष्ट होकर पृथ्वी पर विचरण करने लगे।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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