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अध्याय आठ – मार्कण्डेय द्वारा नर-नारायण ऋषि की स्तुति (12.8)

1 श्री शौनक ने कहा: हे सूत, आप दीर्घायु हों। हे साधु, हे वक्ताओं में श्रेष्ठ, आप हमसे इसी तरह बोलते रहें। निस्सन्देह, आप ही मनुष्यों को उस अज्ञान से निकलने का मार्ग दिखा सकते हैं जिसमें वे विचरण कर रहे हैं।

2-5 विद्वानों का कहना है कि मृकण्डु के पुत्र मार्कण्डेय ऋषि, अति दीर्घ आयु वाले मुनि थे और ब्रह्मा के दिन के अन्त होने पर वे ही एकमात्र बचे हुए थे जबकि सारा ब्रह्माण्ड प्रलय की बाढ़ में जलमग्न हुआ था। किन्तु यही मार्कण्डेय ऋषि, जोकि भृगुवंशियों में सर्वोपरि हैं, मेरे ही परिवार में ब्रह्मा के दिन की अवधि में जन्मे थे और हमने अभी ब्रह्मा के इस दिन का पूर्ण प्रलय नहीं देखा है। यही नहीं, यह भलीभाँति ज्ञात है कि मार्कण्डेय मुनि ने प्रलय के महासागर में असहाय होकर इधर-उधर घूमते हुए उस भयानक जल में एक अद्भुत पुरुष को देखा – एक शिशु जो बरगद के पत्ते के दौने में अकेले लेटा था। हे सूतजी, मैं इन महर्षि मार्कण्डेय के विषय में अत्यधिक मोहग्रस्त तथा उत्कण्ठित हूँ। हे महान योगी, आप समस्त पुराणों के गणमान्य विद्वान माने जाते हैं, इसलिए मेरे संशय को दूर कीजिये।

6 सूत गोस्वामी ने कहा: हे महर्षि शौनक, तुम्हारे इस प्रश्न से हर एक का मोह दूर हो सकेगा क्योंकि इसका सम्बन्ध भगवान नारायण की कथाओं से है, जो कथाएँ इस कलियुग के कल्मष को दूर करती हैं।

7-11 अपने पिता द्वारा ब्राह्मण की दीक्षा प्राप्त करने के लिए किये गये निर्दिष्ट अनुष्ठानों द्वारा शुद्ध बनकर, मार्कण्डेय ने वैदिक स्तोत्रों का अध्ययन किया और विधि-विधानों का कठोरता से पालन किया। वे तपस्या तथा वैदिक ज्ञान में आगे बढ़ गये और जीवन-भर ब्रह्मचारी रहे अपनी जटा से तथा छाल से बने अपने वस्त्रों से अत्यन्त शान्त प्रतीत होते हुए, उन्होंने अपनी आध्यात्मिक प्रगति को योगी का कमण्डल, दण्ड, जनेऊ, ब्रह्मचारी पेटी, काला मृग-चर्म कमल के बीज की जपमाला तथा कुश के समूह को धारण करके और आगे बढ़ाया। उन्होंने दिन की सन्धियों पर भगवान के पाँच रूपों – यज्ञ-अग्नि, सूर्य, गुरु, ब्राह्मण तथा उनके हृदय के भीतर परमात्मा की नियमित पूजा की। वे प्रातः तथा सायंकाल भिक्षा माँगने जाते और लौटने पर सारा एकत्रित भोजन अपने गुरु को भेंट कर देते। जब गुरु उन्हें आमंत्रित करते, तभी वे मौन भाव से दिन में एक बार भोजन करते, अन्यथा उपवास करते। इस तरह तपस्या तथा वैदिक अध्ययन में समर्पित मार्कण्डेय ऋषि ने इन्द्रियों के परम प्रभु भगवान की करोड़ों वर्षों तक पूजा की और इस तरह उन्होंने दुर्जेय मृत्यु को जीत लिया।

12 मार्कण्डेय ऋषि की उपलब्धि से ब्रह्मा, भृगु मुनि, शिवजी, प्रजापति दक्ष, ब्रह्मा के महान पुत्र, मनुष्यों में से अन्य अनेक लोग, देवता, पूर्वज तथा भूतप्रेत – सभी चकित थे।

13 इस तरह भक्तियोगी मार्कण्डेय ने तपस्या, वेदाध्ययन तथा आत्मानुशासन द्वारा कठोर ब्रह्मचर्य धारण किया। फिर सारे उत्पातों से मुक्त वे अपने मन से अंदर की ओर मुड़े और भगवान का ध्यान किया जो भौतिक इन्द्रियों के परे स्थित हैं।

14 जब योगी मार्कण्डेय इस तरह महान योगाभ्यास द्वारा अपने मन को एकाग्र कर रहे थे, तो छह मनुओं की आयु के बराबर (मन्वन्तर) विपुल समय बीत गया।

15 हे ब्राह्मण, वर्तमान सातवें मन्वन्तर में, इन्द्र को मार्कण्डेय की तपस्या का पता चला तो वह उनकी बढ़ती योगशक्ति से भयभीत हो उठा, अतः उसने मुनि की तपस्या में विघ्न डालने का प्रयास किया।

16 मुनि की आध्यात्मिक तपस्या नष्ट करने के लिए, इन्द्र ने कामदेव, सुन्दर गन्धर्वों, अप्सराओं, वसन्त ऋतु तथा मलय पर्वत से चलने वाली चन्दन की गन्ध से युक्त मन्द समीर के साथ साक्षात लोभ तथा नशे (मद) को भेजा।

17 हे शक्तिशाली शौनक, वे मार्कण्डेय की कुटिया पर गये जो हिमालय पर्वत की उत्तरी दिशा में थी और जहाँ से पुष्पभद्रा नदी सुप्रसिद्ध चोटी चित्रा के निकट से बहती है।

18 मार्कण्डेय ऋषि के आश्रम को पवित्र वृक्षों के कुन्ज अलन्कृत कर रहे थे और बहुत-से साधु ब्राह्मण अनेकानेक शुद्ध, पवित्र तालाबों का आनन्द उठाते हुए वहाँ रह रहे थे।

19 वह आश्रम उन्मत्त भौंरों की गुनगुनाहट से तथा उत्तेजित कोयलों की कुहु-कुहु से प्रतिध्वनित हो रहा था और प्रफुल्लित मोर इधर-उधर नाच रहे थे। दरअसल उन्मत्त पक्षियों के अनेक परिवारों के झुण्ड के झुण्ड उस आश्रम में रह रहे थे।

20 वहाँ पर इन्द्र द्वारा भेजी वसन्त की वायु पास के झरनों से शीतल बूँदों की फुहार ले आते हुए प्रविष्ट हुई। वह वायु वन के फूलों के आलिंगन से सुगन्धित थी। उसने आश्रम में प्रवेश किया और कामदेव की कामेच्छा को जगाना प्रारम्भ कर दिया।

21 तब मार्कण्डेय के आश्रम में वसन्त ऋतु प्रकट हुआ। संध्याकालीन आकाश उदय हो रहे चन्द्रमा के प्रकाश से इस प्रकार चमक रहा था मानो वह वसन्त का मुख हो और नई कोंपले और ताजे फूल प्रायः वृक्षों और लताओं के झुण्डों को आच्छादित किये हुए थे।

22 तब स्वर्ग की अनेक स्त्रियों का स्वामी कामदेव वहाँ पर अपना धनुष और बाण लिए आया। उसके पीछे-पीछे गन्धर्वों की टोलियाँ थी जो वाद्य-यंत्र बजा रहे थे और गा रहे थे।

23 इन्द्र के दासों ने ऋषि को ध्यान लगाये बैठा पाया, जिसने अभी अभी यज्ञ-अग्नि में नियत आहुतियाँ डाली थीं। उसकी आँखें समाधि में बन्द थीं; वह दुर्जेय प्रतीत हो रहा था मानो साक्षात अग्नि हो।

24 ऋषि के समक्ष स्त्रियाँ नाचने लगीं और गन्धर्वों ने मृदंग, वीणा तथा मंजीरों के साथ मनोहर गीत गाये।

25 जब काम का पुत्र (साक्षात लोभ), वसन्त तथा इन्द्र के अन्य नौकर मार्कण्डेय के मन को विचलित करने का प्रयत्न कर रहे थे, तो कामदेव ने अपना पाँच सिरों वाला तीर निकाला और उसे अपने धनुष पर चढ़ाया।

26 पुञ्जीकस्थली नामक अप्सरा अनेक गेंदों से खेलने का प्रदर्शन करने लगी। उसके बालों में गुँथे फूलों का हार बिखर रहा था। जब वह इधर-उधर दृष्टि डालती, गेंदों के पीछे दौड़ती, तो उसके झीने वस्त्र की पेटी ढीली पड़ गई और सहसा वायु उसके वस्त्र उड़ा ले गया।

28 तब कामदेव ने यह सोचकर कि उसने ऋषि को जीत लिया है, अपना तीर चलाया, किन्तु मार्कण्डेय को बहकाने के ये सारे प्रयास निष्फल रहे।

29 हे विद्वान शौनक, जब कामदेव तथा उसके अनुयायी मुनि की तपस्या को भंग करने का प्रयास कर रहे थे, तो वे स्वयं उनकी शक्ति (तेज) से जलने लगे और उन्होंने अपना प्रयास करना बन्द कर दिया।

30 हे ब्राह्मण, इन्द्र के अनुयायियों ने उद्दण्डता वश सन्त-सदृश मार्कण्डेय पर आक्रमण किया था; फिर भी वे मिथ्या अहंकार के किसी भी प्रभाव के आगे झुके नहीं। महात्माओं के लिए ऐसी सहिष्णुता तनिक भी आश्चर्यजनक नहीं है।

31 बलशाली इन्द्र ने जब महर्षि मार्कण्डेय की योगशक्ति के विषय में सुना तो उसे अत्यधिक आश्चर्य हुआ। उसने देखा कि किस तरह कामदेव तथा उसके संगी महर्षि की उपस्थिति में शक्तिहीन हो गये थे।

32 सन्त स्वभाव वाले मार्कण्डेय पर, जिन्होंने तपस्या, वेदाध्ययन तथा संयम के द्वारा आत्म-साक्षात्कार में अपने मन को पूरी तरह स्थिर कर लिया था, अपनी दया दिखलाने की इच्छा से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान उनके समक्ष नर तथा नारायण रूपों में प्रकट हुए।

33-34 उनमें से एक गोरे वर्ण का और दूसरा साँवला था और उन दोनों के चार-चार भुजाएँ थी। उनके नेत्र खिले कमल की पत्तियों जैसे थे और वे श्याम मृगचर्म तथा छाल का वस्त्र तथा तीन सूत्रों वाला जनेऊ पहने थे। वे पवित्र करनेवाले अपने हाथों में, यती का कमण्डल, सीधे बाँस का लट्ठ और कमल के बीज की जपमाला तथा दर्भ के पुंजों के प्रतीक रूप में सबको पवित्र करनेवाले वेदों को भी धारण किये हुए थे। उनका कद लम्बा था और उनका पीला तेज चमकती बिजली के रंग का था। वे साक्षात तपस्या की मूर्ति रूप में प्रकट हुए थे और अग्रगण्य देवताओं द्वारा पूजे जा रहे थे।

35 ये दोनों मुनि नर तथा नारायण भगवान के साकार रूप थे। जब मार्कण्डेय ऋषि ने दोनों को देखा तो वे तुरन्त उठ खड़े हुए और तब पृथ्वी पर डंडे की तरह गिरकर अतीव आदर के साथ उन्हें नमस्कार किया।

36 उन्हें देखने से उत्पन्न हुए आनन्द ने मार्कण्डेय के शरीर, मन तथा इन्द्रियों को पूरी तरह तुष्ट कर दिया और उनके शरीर में रोमांच ला दिया और उनके नेत्रों को आँसुओं से भर दिया। भावविह्वल होने से मार्कण्डेय उन्हें देख पाने में असमर्थ हो रहे थे।

37 सम्मान में हाथ जोड़े खड़े होकर तथा दीनतावश अपना सिर झुकाये मार्कण्डेय को इतनी उत्सुकता हुई कि उन्हें लगा कि वे दोनों विभुओं का आलिंगन कर रहे हैं। आनन्द से रुद्ध हुई वाणी से उन्होंने बारम्बार कहा "मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।"

38 उन्होंने उन दोनों को आसन प्रदान किये, उनके चरण पखारे और तब अर्ध्य, चन्दन-लेप, सुगन्धित तेल, धूप तथा फूल-मालाओं की भेंट चढ़ाकर पूजा की।

39 मार्कण्डेय ऋषि ने पुनः इन दो पूज्य मुनियों के चरणकमलों पर शीश झुकाया जो सुखपूर्वक बैठे थे और उन पर कृपा करने के लिए उद्यत थे। तब उन्होंने उनसे इस प्रकार कहा।

40 श्री मार्कण्डेय ने कहा: हे सर्वशक्तिमान प्रभु, भला मैं आपका वर्णन कैसे कर सकता हूँ? आप प्राणवायु को जागृत करते हैं, जो मन, इन्द्रियों तथा वाकशक्ति को कार्य करने के लिए प्रेरित करती है। यह सारे सामान्य बद्धजीवों पर, यहाँ तक कि ब्रह्मा तथा शिव जैसे महान देवताओं पर भी लागू होता है। अतएव यह निस्सन्देह, मेरे लिए भी सही है। तो भी, आप अपनी पूजा करनेवालों के घनिष्ठ मित्र बन जाते हैं।

41 हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, आपके ये दो साकार रूप तीनों जगतों को चरम लाभ प्रदान करने के लिए – भौतिक कष्ट की समाप्ति तथा मृत्यु पर विजय के लिए – प्रकट हुए हैं। हे प्रभु, यद्यपि आप इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि करते हैं और इसकी रक्षा करने के लिए नाना प्रकार के दिव्य रूप धारण करते हैं, किन्तु आप इसे निगल भी लेते हैं जिस तरह मकड़ी पहले जाल बुनती है और बाद में उसे निगल जाती है।

42 चूँकि आप सारे चर तथा अचर प्राणियों के रक्षक तथा परम नियन्ता हैं, इसलिए जो भी आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करता है, उसे भौतिक कर्म, गुण या काल के दूषण छु तक नहीं सकते। जिन महर्षियों ने वेदों के अर्थ को आत्मसात कर रखा है, वे आपकी स्तुति करते हैं। आपका सान्निध्य प्राप्त करने के लिए वे हर अवसर पर आपको नमस्कार करते हैं, निरन्तर आपको पूजते हैं और आपका ध्यान करते हैं।

43 हे प्रभु, ब्रह्मा भी, जोकि ब्रह्माण्ड की पूरी अवधि तक अपने उच्च पद का भोग करता है, काल की गति से भयभीत रहता है। तो उन बद्धजीवों के बारे में क्या कहा जाय जिन्हें ब्रह्मा उत्पन्न करते हैं। वे अपने जीवन के पग-पग पर भयावने संकटों का सामना करते हैं। मैं इस भय से छुटकारा पाने के लिए आपके चरणकमलों की जो साक्षात मोक्ष –स्वरूप हैं, शरण ग्रहण करने के सिवाय और कोई साधन नहीं जानता।

44 इसलिए मैं भौतिक शरीर तथा उन सारी वस्तुओं से, जो मेरी असली आत्मा को प्रच्छन्न करती हैं, अपनी पहचान का परित्याग करके आपके चरणकमलों की पूजा करता हूँ। ये व्यर्थ, अयथार्थ तथा क्षणिक आवरण, आपसे जिनकी बुद्धि समस्त सत्य को समेटे हुये है, पृथक होने की मात्र कल्पनाएँ हैं। परमेश्वर तथा आत्मा के गुरु स्वरूप आपको प्राप्त करके मनुष्य प्रत्येक वांछित वस्तु प्राप्त कर लेता है।

45 हे प्रभु, हे बद्धजीव के परम मित्र, यद्यपि इस जगत की उत्पत्ति, पालन और संहार के लिए आप सतो, रजो तथा तमोगुणों को जो आपकी मायाशक्ति हैं, स्वीकार करते हैं? किन्तु बद्धजीवों को मुक्त करने के लिए आप सतोगुण का प्रयोग करते हैं। अन्य दो गुण उनके लिए मात्र कष्ट, मोह तथा भय लाने वाले हैं।

46 हे प्रभु, चूँकि निर्भीकता, आध्यात्मिक सुख तथा भगवदधाम – ये सभी सतोगुण के द्वारा ही प्राप्त किये जाते हैं इसलिए आपके भक्त इसी गुण को आपकी प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति मानते हैं, रजो तथा तमोगुण को नहीं। इस तरह बुद्धिमान व्यक्ति आपके प्रिय दिव्य रूप को, जोकि शुद्ध सत्त्व से बना होता है, आपके शुद्ध भक्तों के आध्यात्मिक स्वरूपों के साथ पूजा करते हैं।

47 मैं उन भगवान को सादर नमस्कार करता हूँ। वे ब्रह्माण्ड के सर्वव्यापक तथा सर्वस्व हैं और इसके गुरु भी हैं। मैं भगवान नारायण को नमस्कार करता हूँ जो ऋषि के रूप में प्रकट होनेवाले परम पूज्य देव हैं। मैं सन्त स्वभाव वाले नर को भी नमस्कार करता हूँ जो मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ हैं, जो पूर्ण सात्विक हैं, जिनकी वाणी संयमित है और जो वैदिक वाड्मय के प्रचारक हैं।

48 भौतिकतावादी की बुद्धि उसकी धोखेबाज इन्द्रियों की क्रिया से विकृत रहती है, इसलिए वह आपको तनिक भी पहचान नहीं पाता यद्यपि आप उसकी इन्द्रियों तथा हृदय में और उसकी अनुभूति की वस्तुओं में सदैव विद्यमान रहते हैं। मनुष्य का ज्ञान आपकी माया से आवृत होते हुए भी, यदि वह, सबों के गुरु आपसे, वैदिक ज्ञान प्राप्त करता है, तो वह आपको प्रत्यक्ष रूप से समझ सकता है।

49 हे प्रभु, केवल वैदिक ग्रन्थ ही आपके परम स्वरूप का गुह्य ज्ञान प्रकट करने वाले हैं, अतएव भगवान ब्रह्मा जैसे महान विद्वान भी आगमन विधियों द्वारा आपको समझने के प्रयास में मोहित हो जाते हैं। दार्शनिक अपने विशेष चिन्तनपरक निष्कर्ष के अनुसार आपको समझता है। मैं उन परम पुरुष की पूजा करता हूँ जिनका ज्ञान बद्धात्माओं के आध्यात्मिक स्वरूप को आवृत करने वाली शारीरिक उपाधियों से छिपा हुआ है।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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Comments

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    🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
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