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अध्याय दस – शिवजी तथा उमा द्वारा मार्कण्डेय ऋषि का गुणगान (12.10)

1 सूत गोस्वामी ने कहा: भगवान नारायण के द्वारा नियोजित मोहमयी शक्ति के ऐश्वर्यशाली प्रदर्शन का अनुभव करके मार्कण्डेय ऋषि ने भगवान की शरण ग्रहण की।

2 श्री मार्कण्डेय ने कहा: हे भगवान हरि, शरण ग्रहण करनेवालों को अभय दान देने वाले आपके चरणकमलों के तलवों की, मैं शरण ग्रहण करता हूँ। बड़े-बड़े देवता भी आपकी माया से मोहित रहते हैं जो ज्ञान के रूप में उनके समक्ष प्रकट होती है।

3 सूत गोस्वामी ने कहा: एक बार जब भगवान शिवजी – माता पार्वती सहित आकाश से होकर यात्रा कर रहे थे, तो उन्होंने मार्कण्डेय ऋषि को ध्यान-समाधि में लीन देखा।

4 ऋषि को देखकर देवी उमा ने प्रभु गिरीश से कहा, “हे स्वामी, शरीर, मन तथा इन्द्रियों को समाधि में अचल किये हुए इस विद्वान ब्राह्मण को देखिये।"

5 वह उस समुद्र के जल की तरह शान्त है जब वायु बन्द हो जाती है और मछलियाँ स्थिर हो जाती हैं। हे प्रभु! चूँकि आप तपस्या करनेवाले को सिद्धि प्रदान करते हैं, अतः इस ऋषि को सिद्धि प्रदान करें।

6 शिवजी ने उत्तर दिया: निश्चय ही, यह सन्त-ब्राह्मण किसी वर की, यहाँ तक कि मोक्ष तक की भी कामना नहीं करता क्योंकि इसने भगवान अव्यय की शुद्ध भक्ति प्राप्त कर ली है।

7 तो भी हे भवानी, चलो हम इस सन्त पुरुष से बातें करें। निस्सन्देह, सन्त भक्तों की संगति मनुष्यों के लिये सर्वोत्तम लाभ है।

8 तत्पश्चात शुद्धात्माओं के आश्रय, समस्त आध्यात्मिक विद्याओं के स्वामी तथा समस्त देहधारी जीवों के नियन्ता भगवान शंकर उस ऋषि के पास गये।

9 चूँकि मार्कण्डेय का भौतिक मन कार्य करना बन्द कर चुका था अत: वे ब्रह्माण्ड के नियन्ता शिव तथा माता पार्वती का आना देख नहीं पाये। मार्कण्डेय ध्यान में इतने लीन थे कि उन्हें अपनी या बाह्य जगत की कोई सुध-बुध नहीं थी।

10 स्थिति से भलीभाँति परिचित होने पर, शक्तिमान शिवजी ने मार्कण्डेय के हृदय-आकाश के भीतर प्रविष्ट होने के लिए योगशक्ति का प्रयोग किया जिस तरह वायु छेद में से प्रवेश कर जाती है।

11-13 श्री मार्कण्डेय ने सहसा भगवान शिव को अपने हृदय के भीतर प्रकट हुए देखा। शिवजी के केश बिजली के समान सुनहरे, तीन नेत्र, दस भुजाएँ तथा ऊँचा शरीर था, जो उदय हो रहे सूर्य की तरह चमक रहा था। वे व्याघ्र चर्म पहने थे और त्रिशूल, धनुष, बाण, तलवार तथा ढाल लिए थे। वे जपमाला, डमरू, कपाल तथा परशु भी लिए थे।

14 मुनि ने चकित होकर अपनी आँखें खोल दी और तीनों जगत के गुरु भगवान रुद्र को उमा तथा उनके गणों समेत देखा। तब मार्कण्डेय ने सिर के बल झुककर उन्हें सादर नमस्कार किया।

15 मार्कण्डेय ने उमा तथा शिव के गणों समेत शिवजी की पूजा स्वागतपूर्ण वचनों, आसन, पाँव धोने के लिए जल, सुगन्धित तेल, फूल-मालाओं तथा दीप-आरती द्वारा की।

16 मार्कण्डेय ने कहा: हे विभु, अपने ही आनन्द में सदैव तुष्ट रहनेवाले, आपके लिए, मैं क्या कर सकता हूँ? निस्सन्देह, आप अपनी कृपा से इस सारे जगत को तुष्ट करते हैं।

17 हे सर्वमंगलकारी दिव्य पुरुष, मैं बारम्बार आपको नमस्कार करता हूँ। सतोगुण के स्वामी के रूप में आप आनन्द के दाता हैं, रजोगुण के सम्पर्क में आप अत्यन्त भयावने लगते हैं और तमोगुण से भी आप सान्निध्य रखते हैं।

18 सूत गोस्वामी ने कहा: देवताओं में अग्रणी तथा साधु भक्तों के आश्रय रूप भगवान शिव, मार्कण्डेय की स्तुति से तुष्ट हो गये। प्रसन्न होने के कारण वे मन्द मन्द हँसे और मुनि से बोले।

19 शिवजी ने कहा: तुम मुझसे कोई वर माँगो क्योंकि वर देने वालों में से हम तीन – ब्रह्मा, विष्णु तथा मैं – सर्वश्रेष्ठ हैं। हमारा दर्शन व्यर्थ नहीं जाता क्योंकि हमारे दर्शन मात्र से मर्त्य प्राणी अमरता प्राप्त कर लेता है।

20-21 ब्रह्मा, भगवान हरि तथा मुझ समेत सारे लोकों के निवासी एवं अधिशासक देवता उन ब्राह्मणों की वन्दना, पूजा तथा सहायता करते हैं, जो सन्त स्वभाव के, सदैव शान्त, भौतिक आसक्ति से रहित, समस्त जीवों पर दयालु, हमारे प्रति शुद्ध भक्ति से युक्त, घृणा से रहित एवं समदृष्टि से युक्त होते हैं।

22 ये भक्तगण भगवान विष्णु, ब्रह्मा तथा मुझमें अन्तर नहीं करते, न ही वे अपने तथा अन्य जीवों के बीच भेद करते हैं। तुम इसी तरह के सन्त भक्त हो, इसलिए हम तुम्हारी पूजा करते हैं।

23 सभी जलाशय तीर्थस्थान नहीं होते, न ही देवताओं की निर्जीव मूर्तियाँ वास्तविक पूज्य अर्चाविग्रह होती हैं। चूँकि बाह्य दृष्टि पवित्र नदियों तथा देवताओं के उच्च आशय को समझ नहीं पाती, इसलिए ये दीर्घकाल बाद ही पवित्र बना पाते हैं। किन्तु तुम जैसे भक्त, दर्शन मात्र से, पवित्र कर देते हैं।

24 परमात्मा का ध्यान करके, तपस्या करके, वेदाध्ययन करके तथा विधि-विधानों का पालन करके, ब्राह्मणजन अपने भीतर तीनों वेदों को, जोकि विष्णु, ब्रह्मा तथा मुझसे अभिन्न हैं, धारण कर लेते हैं। इसलिए मैं ब्राह्मणों को नमस्कार करता हूँ।

25 अधम से अधम पापी तथा अछूत भी तुम जैसे पुरुषों के श्रवण करने या दर्शन करने से शुद्ध बन जाते हैं। तब जरा कल्पना करो कि प्रत्यक्ष तुमसे बात करने से वे कितने शुद्ध बन जाते हैं?

26 सूत गोस्वामी ने कहा: भगवान शिव के अमृत तुल्य शब्दों को, जोकि धर्म के गुह्य सार से पूरित थे, अपने कानों से पीते हुए मार्कण्डेय ऋषि अभी तुष्ट नहीं हुए थे।

27 भगवान विष्णु की माया द्वारा प्रलय के जल में दीर्घकाल तक भटकते रहने के लिए बाध्य होने के कारण मार्कण्डेय अत्यधिक थक चुके थे। किन्तु शिवजी के अमृत तुल्य शब्दों से उनका संचित क्लेश नष्ट हो गया। अतः वे शिवजी से बोले।

28 श्री मार्कण्डेय ने कहा: देहधारी जीवों के लिए ब्रह्माण्ड के नियन्ताओं की लीलाओं को समझ पाना सबसे कठिन है क्योंकि ऐसे प्रभु अपने ही द्वारा शासित जीवों को सिर झुकाते तथा उनकी स्तुति करते हैं।

29 सामान्यतया देहधारी जीवों को धार्मिक सिद्धान्त स्वीकार करने हेतु प्रेरित करने के लिए ही प्रामाणिक धर्माचार्य, अन्यों को प्रोत्साहित करके तथा उनके आचरण की प्रशंसा करके, आदर्श आचरण प्रदर्शित करते हैं।

30 यह ऊपरी विनयशीलता दया का दिखावा मात्र है। भगवान तथा उनके संगियों का ऐसा आचरण, जिसे भगवान अपनी मोहिनी शक्ति से दिखलाते हैं, उनकी शक्ति को नहीं बिगाड़ता जिस तरह जादूगर की शक्तियाँ जादूगरी की करामातें दिखाने से घटती नहीं।

31-32 मैं उन भगवान को नमस्कार करता हूँ जिन्होंने अपनी इच्छा मात्र से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सृष्टि की और फिर उसमें परमात्मा रूप में प्रविष्ट हो गये। वे प्रकृति के गुणों को क्रियाशील बनाकर इस जगत के प्रत्यक्ष स्रष्टा प्रतीत होते हैं जिस तरह स्वप्न देखने वाला अपने स्वप्न के भीतर कर्म करता प्रतीत होता है। वे प्रकृति के तीनों गुणों के स्वामी और परम नियन्ता हैं, फिर भी वे पृथक रहते हैं और शुद्ध तथा अद्वितीय हैं। वे सबों के परम गुरु तथा परम सत्य के आदि साकार रूप हैं।

33 हे सर्वव्यापक प्रभु, चूँकि मुझे आपका दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका है, इसलिए मैं आपसे अन्य किस वर की याचना करूँ? केवल आपके दर्शन मात्र से मनुष्य की सारी इच्छाएँ पूरी हो जाती हैं और वह कोई भी कल्पित कार्य सम्पन्न कर सकता है।

34 आप समस्त सिद्धि में पूर्ण हैं और समस्त इच्छाओं की पूर्ति की वर्षा करने में समर्थ हैं अतः मैं आपसे एक वर माँगता हूँ। मैं आपसे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की तथा उनके समर्पित भक्तों की, विशेष रूप से आपकी, अच्युत भक्ति के लिए याचना करता हूँ।

35 सूत गोस्वामी ने कहा: मुनि मार्कण्डेय के वाक्पटु कथनों द्वारा पूजित तथा प्रशंसित भगवान शर्व (शिव) ने अपनी प्रिया द्वारा प्रोत्साहित किये जाने पर उनसे इस प्रकार कहा।

36 हे महर्षि, तुम भगवान अधोक्षज के प्रति समर्पित हो, इसलिए तुम्हारी सारी इच्छाएँ पूरी होंगी। इस सृष्टि चक्र के अन्त तक तुम पवित्र यश तथा वृद्धावस्था एवं मृत्यु से मुक्ति का भोग करोगे।

37 हे ब्राह्मण, तुम्हें भूत, वर्तमान तथा भविष्य का पूर्ण ज्ञान और उसी के साथ वैराग्य से युक्त परम पुरुष की दिव्य अनुभूति प्राप्त हो। तुम्हारे पास आदर्श ब्राह्मण का तेज है, जिससे तुम पुराणों के आचार्य का पद पा सको।

38 सूत गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार मार्कण्डेय ऋषि को वर देकर शिवजी, देवी पार्वती से ऋषि की उपलब्धियों का तथा उनके द्वारा अनुभव की गई भगवान की माया के प्रत्यक्ष प्रदर्शन का वर्णन करते हुए प्रस्थान कर गये।

39 श्रेष्ठ भृगुवंशी मार्कण्डेय ऋषि अपनी योगसिद्धि की उपलब्धि के कारण यशस्वी हैं। आज भी वे इस जगत में भगवान की अनन्य भक्ति में पूरी तरह लीन होकर विचरण करते हैं।

40 इस तरह मैंने तुमसे अत्यन्त बुद्धिमान ऋषि मार्कण्डेय के कार्यकलापों का, विशेष रूप से जिस तरह उन्होंने भगवान की माया की अद्भुत शक्ति का अनुभव किया, वर्णन कर दिया।

41 यद्यपि यह घटना अद्वितीय तथा अभूतपूर्व थी, किन्तु कुछ अज्ञानी लोग इसकी तुलना बद्धजीवों के लिए भगवान द्वारा रचित मायामय जगत के चक्र से करते हैं – ऐसा अन्तहीन चक्र जो अनन्त काल से चला आ रहा है।

42 हे श्रेष्ठ भृगुवंशी, मार्कण्डेय ऋषि से सम्बन्धित यह विवरण रथ के पहिये को हाथ में धारण करने वाले भगवान श्री हरि की दिव्य शक्ति से सिक्त है। जो कोई इसका ठीक से वर्णन करता है या इसे सुनता है, उसे सकाम कर्म करने की इच्छा पर आधारित भौतिक जगत में पुनः नहीं आना होगा।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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Comments

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    🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
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