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अध्याय नौ – मार्कण्डेय ऋषि को भगवान की मायाशक्ति के दर्शन (12.9)

1 सूत गोस्वामी ने कहा: नर के मित्र भगवान नारायण, बुद्धिमान मुनि मार्कण्डेय द्वारा की गई उपयुक्त स्तुति से तुष्ट हो गये। अतएव वे उन श्रेष्ठ भृगुवंशी से बोले।

2 भगवान ने कहा: हे मार्कण्डेय, तुम समस्त विद्वान ब्राह्मणों में श्रेष्ठ हो। तुमने अविचल भक्ति, तपस्या, वेदाध्ययन एवं विधि-विधानों द्वारा परमात्मा पर ध्यान स्थिर करके अपने जीवन को सफल बना लिया है।

3 हम तुम्हारे आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत से पूर्णतया संतुष्ट हैं, तुम्हारा कल्याण हो। मैं समस्त वर देने वालों का स्वामी हूँ, अतः जो चाहो, वह वर चुन लो।

4 ऋषि ने कहा: हे देव-देवेश, आपकी जय हो। हे अच्युत, आप उन भक्तों का सारा कष्ट दूर कर देते हैं, जो आपके शरणागत हैं। आपने कृपा करके मुझे अपना दर्शन दिया, यही मेरे द्वारा चाहा गया वर है।

5 ब्रह्मा जैसे देवताओं ने आपके सुन्दर चरणकमलों का दर्शन करके ही उच्च पद प्राप्त किया क्योंकि उनके मन योगाभ्यास से परिपक्व हो चुके थे और हे प्रभु, अब आप मेरे समक्ष साक्षात प्रकट हुए हैं।

6 हे कमलनयन, हे विख्यात पुरुषों के शिरोमणि, यद्यपि मैं मात्र आपका दर्शन करके तुष्ट हूँ किन्तु मैं आपकी मायाशक्ति को देखना चाहता हूँ जिसके प्रभाव से सम्पूर्ण जगत तथा उसके अधिष्ठाता देवता सत्य को भौतिक दृष्टि से विविधतापूर्ण मानते हैं।

7 सूत गोस्वामी ने कहा: हे विज्ञ शौनक, मार्कण्डेय की स्तुति तथा पूजा से इस तरह तुष्ट हुए भगवान ने मन्द हास के साथ उत्तर दिया "तथास्तु" और तब बदरिकाश्रम स्थित अपने आश्रम चले गये।

8-9 मार्कण्डेय ऋषि –अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, जल, पृथ्वी, वायु, वियत (बिजली) तथा अपने हृदय में भगवान का निरन्तर ध्यान करते हुए और मन में कल्पित साज-सामग्री से उनकी पूजा करते हुए, भगवान की माया का दर्शन करने की इच्छा के विषय में सदैव चिन्तन करते रहे। वे कभी-कभी भगवतप्रेम की तरंगों से अभिभूत होकर नियमित पूजा करना भूल जाते।

10 हे ब्राह्मण शौनक, हे भृगुश्रेष्ठ, एक दिन जब मार्कण्डेय पुष्पभद्रा नदी के तट पर संध्याकालीन पूजा कर रहे थे तो सहसा तेज वायु चलने लगी।

11 वायु अपने साथ भयावने बादल लेती आई जिनके साथ बिजली तथा गर्जना भरी गड़गड़ाहट थी और जिन्होंने सभी दिशाओं में गाड़ी के पहियों जितनी मोटी मूसलाधार वर्षा की।

12 तब सभी दिशाओं में चार महासागर प्रकट हो गये जो वायु से उमड़ती हुई लहरों से पृथ्वी की सतह को लील रहे थे। इन महासागरों में भयानक मगर, भँवरें थीं तथा अमांगलिक-गर्जन हो रहा था।

13 ऋषि ने अपने सहित ब्रह्माण्ड के सारे निवासियों को देखा जो तेज वायु, बिजली के वज्रपात तथा आकाश से भी ऊपर तक उठने वाली बड़ी-बड़ी लहरों से भीतर और बाहर से त्रस्त हुये जा रहे थे। ज्योंही सारी पृथ्वी जलमग्न हो गई, वे हताश तथा भयातुर हो उठे।

14 मार्कण्डेय के देखते-देखते बादलों से हो रही वर्षा समुद्र को भरती रही जिससे महासागर के जल ने अंधड़ द्वारा भयानक लहरों के उठने से पृथ्वी के द्वीपों, पर्वतों तथा महाद्वीपों को ढक लिया।

15 जल ने पृथ्वी, अन्तरिक्ष, स्वर्ग तथा स्वर्ग-क्षेत्र को आप्लावित कर दिया। दरअसल, सारा ब्रह्माण्ड सभी दिशाओं में जलमग्न था और उसके सारे निवासियों में से एकमात्र मार्कण्डेय ही बचे थे। उनकी जटाएँ छितरा गई थीं और ये महामुनि जल में अकेले इधर-उधर घूम रहे थे मानो मुक तथा अन्धे हों।

16 भूख-प्यास से सताये, दैत्याकार मकरों तथा तिमिंगिल मछलियों द्वारा हमला किये गये तथा वायु और लहरों से त्रस्त, वे उस अपार अंधकार में निरुद्देश्य घूमते रहे जिसमें वे गिर चुके थे। जब वे अत्यधिक थक गये तो उन्हें दिशाओं की सुधि न रही और वे आकाश तथा पृथ्वी में भेद नहीं कर पा रहे थे।

17-18 कभी वे भारी भँवर में फँस जाते, कभी प्रबल लहरों के थपेड़े खाते, कभी जल-दैत्यों के परस्पर आक्रमण करने पर उनके द्वारा निगले जाने से आशंकित हो उठते। कभी उन्हें शोक, मोह, दुख, सुख या भय का अनुभव होता तो कभी उन्हें ऐसी भयानक रुग्णता तथा पीड़ा का अनुभव होता जैसे कि वे मारे जा रहे हों।

19 मार्कण्डेय को उस जलप्लावन में इधर-उधर घूमते हजारों वर्ष बीत गये; उनका मन भगवान विष्णु की माया से विमोहित था।

20 ब्राह्मण मार्कण्डेय ने एक बार जल में विचरण करते हुए पृथ्वी के उठे स्थान पर फलों तथा कोपलों से सुशोभित एक छोटा बरगद का पेड़ देखा।

21 उन्होंने पेड़ की उत्तर-पूर्व दिशा की शाखा में पत्ते के भीतर एक शिशु को लेटे हुए देखा जिसका तेज अंधकार को लील रहा था।

22-25 बालक का गहरा नील रंग निर्मल मरकत जैसा था; उसका कमल मुखमण्डल अपार सौन्दर्य के कारण चमक रहा था और उसकी गर्दन में शंख जैसी रेखाएँ थीं। उसका वक्षस्थल चौड़ा, नाक सुन्दर आकार वाली, भौहें सुन्दर तथा अनार के फूलों जैसे सुन्दर कान थे जिसके भीतर के वलन शंख के घुमावों जैसे थे। उसकी आँखों के कोर कमल के कोश जैसे लाल रंग के थे और मूँगे जैसे होंठों का तेज उसके मुखमण्डल की सुधामयी मोहिनी मुसकान को लाल-लाल बना रहा था। जब वह साँस लेता, उसके सुन्दर बाल हिलते थे और गहरी नाभि उसके बरगद के पत्ते जैसे उदर की चमड़ी के हिलते वलनों से टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती थी। वह ब्राह्मण-श्रेष्ठ आश्चर्य से उस बालक को देख रहा था, जो अपने एक चरणकमल को आकर्षक अँगुलियों से पकड़कर चूस रहा था।

26 जैसे ही मार्कण्डेय ने बालक को देखा उनकी सारी थकान जाती रही। दरअसल उनको इतनी अधिक प्रसन्नता हुई की उनका हृदय तथा उनके नेत्र कमल की भाँति पूरी तरह प्रफुल्लित हो उठे और उन्हें रोमांच हो आया। इस बालक की अद्भुत पहचान के विषय में शंकित मुनि उसके पास पहुँचे।

27 तभी उस शिशु ने श्वास ली जिससे मार्कण्डेय मच्छर की तरह उसके शरीर के भीतर खींच गये। वहाँ पर ऋषि ने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रलय के पूर्व की स्थिति में सुव्यवस्थित पाया। यह देखकर मार्कण्डेय अत्यधिक आश्चर्यचकित तथा विस्मित हो गए।

28-29 वहाँ पर मुनि ने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड देखा – आकाश, स्वर्ग तथा पृथ्वी, तारे, पर्वत, सागर, द्वीप तथा महाद्वीप, हर दिशा में विस्तार, सन्त तथा आसुरी जीव, वन, देश, नदियाँ, नगर तथा खानें, खेतिहर गाँव तथा चरागाह, समाज के वर्ण तथा आश्रम। उन्होंने सृष्टि के मूल तत्त्वों तथा उनके गौण उत्पादों के साथ ही साक्षात काल को देखा जो ब्रह्मा के दिनों में असंख्य युगों को नियमित करता है। इसके अतिरिक्त उन्होंने भौतिक जीवन में काम आने वाली अन्य सारी वस्तुएँ देखीं। उन्होंने यह सब देखा जो सत्य जैसा प्रतीत हो रहा था।

30 उन्होंने अपने समक्ष हिमालय पर्वत, पुष्पभद्रा नदी तथा अपना आश्रम देखा जहाँ उन्होंने नर-नारायण ऋषियों के दर्शन किये थे। तत्पश्चात मार्कण्डेय द्वारा सम्पूर्ण विश्व के देखते-देखते, जब उस शिशु ने श्वास बाहर निकाली तो ऋषि उसके शरीर से बाहर छिटक आये और प्रलय सागर में गिरा दिए गए।

31-32 मार्कण्डेय मुनि ने उस विशाल सागर में, छोटे-से द्वीप पर बरगद–वृक्ष के पत्ते के दोने में शिशु को लेटे हुए देखा। वह शिशु उनको आँखों की कोरों से–प्रेमामृत भरी हँसी से देख रहा था। मार्कण्डेय ने उस छबि को आँखों के द्वारा आत्मसात कर लिया और ऋषि भगवान का आलिंगन करने दौड़े।

33 तभी भगवान, जोकि योगेश्वर हैं तथा हर एक के हृदय में छिपे रहते हैं, ऋषि की आँखों से ओझल हो गये जिस तरह अक्षम व्यक्ति की सारी उपलब्धियाँ सहसा विलीन हो जाती है।

34 हे ब्राह्मण, भगवान के अदृश्य हो जाने पर, वह बरगद का वृक्ष, अपार जल राशि तथा ब्रह्माण्ड का प्रलय – सारे के सारे विलीन हो गये और क्षण-भर में मार्कण्डेय ने पहले की तरह स्वयं को अपनी कुटिया में पाया।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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Comments

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    🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
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