अध्याय इक्कीस – भगवान कृष्ण द्वारा वैदिक पथ की व्याख्या (11.21)
1 भगवान ने कहा : जो मुझे प्राप्त करने वाली उन विधियों को, जो भक्ति, वैश्लेषिक दर्शन (ज्ञान) तथा नियत कर्मों के नियमित निष्पादन (कर्म-योग) से युक्त हैं, त्याग देता है और भौतिक इन्द्रियों से चलायमान होकर क्षुद्र इन्द्रियतृप्ति में लग जाता है, वह निश्चय ही बारम्बार संसार-चक्र में फँसता जाता है।
2 यह निश्चित मत है कि अपने-अपने पद पर निष्ठा (स्थिरता) वास्तविक शुद्धि कहलाती है और अपने पद से विचलन अशुद्धि है।
3 हे निष्पाप उद्धव, यह समझने के