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अध्याय बीस - शुद्ध भक्ति ज्ञान एवं वैराग्य से आगे निकल जाती है (11.20)

1 श्री उद्धव ने कहा : हे कमलनयन कृष्ण, आप परमेश्वर हैं और इस तरह विधियों तथा निषेधों से युक्त वैदिक वाड्मय आपका आदेश है। ऐसा वाड्मय कर्म के गुण तथा दोषों पर दृष्टि एकाग्र करता है।

2 वैदिक वाड्मय के अनुसार, वर्णाश्रम में उच्च तथा निम्न कोटि के परिवार के पवित्र और पापमय गुणों के कारण हैं। पाप तथा पुण्य किसी स्थिति विशेष यथा – भौतिक अवयव, स्थान, आयु तथा काल में, वैदिक विश्लेषण के संदर्भ बिन्दु हैं। निस्सन्देह, वेदों से भौतिक स्वर्ग तथा नरक के अस्तित्व प्रकट होते हैं, जो निश्चित रूप से पाप तथा पुण्य पर आधारित हैं।

3 पाप तथा पुण्य के बीच के अन्तर को जाने बिना भला कोई किस तरह आपके उन आदेशों को जो कि वैदिक वाड्मय के रूप में हैं, समझ सकता है, जो मनुष्य को पुण्य करने का आदेश देते हैं और पाप करने से मना करते हैं? इतना ही नहीं, अन्ततोगत्वा मोक्ष प्रदान करनेवाले ऐसे प्रामाणिक वैदिक वाड्मय के बिना, मनुष्य किस तरह जीवन-सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं?

4 हे प्रभु, प्रत्यक्ष अनुभव से परे वस्तुओं को – यथा आध्यात्मिक मोक्ष या स्वर्ग-प्राप्ति, अन्य भौतिक भोग जो हमारी वर्तमान क्षमता से परे हैं तथा सभी वस्तुओं के साध्य-साधन को समझने के लिए – पितरों, देवताओं तथा मनुष्यों को वैदिक वाड्मय से मार्गदर्शन लेना चाहिए क्योंकि ये सर्वोच्च प्रमाण तथा ईश्वरी ज्ञान हैं।

5 हे प्रभु, पाप तथा पुण्य में दिखाई पड़ने वाला अन्तर आपके वैदिक ज्ञान से उत्पन्न होता है और वह स्वयमेव उत्पन्न नहीं होता। यदि वही वैदिक वाड्मय बाद में पाप तथा पुण्य के ऐसे अन्तर को निरस्त कर दे, तो निश्चित रूप से भ्रम उत्पन्न होगा।

6 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने कहा: हे उद्धव, चूँकि मेरी इच्छा है कि मनुष्य सिद्धि प्राप्त करे, अतएव मैंने उत्थान के तीन मार्ग प्रस्तुत किये हैं–ज्ञान, कर्म तथा भक्ति-मार्ग। इन तीनों के अतिरिक्त ऊपर उठने का अन्य कोई साधन नहीं है।

7 तीनों मार्गों में से ज्ञान-योग अर्थात दार्शनिक चिन्तन का मार्ग उन लोगों के लिए संस्तुत किया गया है, जो भौतिक जीवन से ऊब चुके हैं और सामान्य सकाम कर्मों से विरक्त हैं। जो लोग भौतिक जीवन से ऊबे नहीं है और जिन्हें अब भी अनेक इच्छाएँ पूरी करनी हैं, उन्हें कर्म-योग के माध्यम से मोक्ष की खोज करनी चाहिए।

8 यदि कहीं कोई सौभाग्यवश मेरी महिमा के सुनने तथा कीर्तन करने में श्रद्धा उत्पन्न कर लेता है, तो ऐसे व्यक्ति को जो भौतिक जीवन से न तो अत्यधिक ऊबा रहता है न आसक्त रहता है मेरी प्रेमाभक्ति के मार्ग द्वारा सिद्धि प्राप्त करनी चाहिए।

9 जब तक मनुष्य सकाम कर्म से तृप्त नहीं हो जाता और श्रवणम् कीर्तनं विष्णो: द्वारा भक्ति के लिए रुचि जागृत नहीं कर लेता, तब तक उसे वैदिक आदेशों के विधानों के अनुसार कर्म करना होता है।

10 हे उद्धव, जो व्यक्ति वैदिक यज्ञों द्वारा समुचित पूजा करके, किन्तु ऐसी पूजा का फल न चाहकर, अपने नियत कर्तव्य में स्थित रहता है, वह स्वर्गलोक नहीं जाता है; इसी तरह निषिद्ध कार्यों को न करने से वह नरक नहीं जाएगा।

11 जो व्यक्ति अपने नियत कर्म में दृढ़ रहता है, जो पापमय कार्यों से मुक्त होता है और भौतिक कल्मष से रहित होता है, वह इसी जीवन में या तो दिव्य ज्ञान प्राप्त करता है या दैववश मेरी भक्ति पाता है।

12 स्वर्ग तथा नरक दोनों ही के निवासी पृथ्वीलोक पर मनुष्य का जन्म पाने की आकांक्षा रखते हैं क्योंकि मनुष्य-जीवन दिव्य ज्ञान तथा भगवतप्रेम की प्राप्ति को सुगम बनाता है, जबकि न तो स्वर्गिक, न ही नारकीय शरीर पूर्णत: ऐसा अवसर सुलभ कराते हैं।

13 जो मनुष्य विद्वान हो उसे न तो कभी स्वर्गलोक जाने, न नरक में निवास करने की इच्छा करनी चाहिए। दरअसल, मनुष्य को पृथ्वी पर भी स्थायी निवास की कामना नहीं करनी चाहिए क्योंकि भौतिक देह में ऐसी तल्लीनता से मनुष्य अपने वास्तविक आत्म-हित के प्रति मूर्खतावश उपेक्षा बरतने लगता है।

14 यह जानते हुए कि यद्यपि भौतिक शरीर मर्त्य है, तो भी यह उसे जीवन-सिद्धि प्रदान कर सकता है, विद्वान व्यक्ति को मृत्यु आने के पूर्व इस अवसर का लाभ उठाने में मूर्खतावश उपेक्षा नहीं बरतनी चाहिए।

15 जब साक्षात मृत्यु रूपी क्रूर पुरुषों द्वारा उस वृक्ष को काट दिया जाता है, जिसमें किसी पक्षी का घोंसला बना था, तो वह पक्षी बिना किसी आसक्ति के उस वृक्ष को त्याग देता है और इस तरह वह अन्य स्थान में सुख का अनुभव करता है।

16 यह जानते हुए कि मनुष्य की आयु दिन-रात बीतने के साथ क्षीण होती जा रही है, उसे भय से काँपना चाहिए। इस तरह सारी भौतिक आसक्ति तथा इच्छा त्याग कर, वह भगवान को समझने लगता है और पूर्ण शान्ति प्राप्त करता है।

17 जीवन का समस्त लाभ प्रदान करनेवाला मानव शरीर प्रकृति के नियमों द्वारा स्वतः प्राप्त होता है यद्यपि यह अत्यन्त दुर्लभ है। इस मानव शरीर की तुलना बड़े जतन से निर्मित नाव से की जा सकती है, जिसका माझी गुरु है और भगवान के आदेश वे अनुकूल हवाएँ हैं, जो उसे आगे बढ़ाती हैं। इन सारे लाभों पर विचार करते हुए जो मनुष्य अपने जीवन का उपयोग संसाररूपी सागर को पार करने में नहीं करता, उसे अपनी ही आत्मा का हन्ता माना जाना चाहिए।

18 भौतिक सुख के लिए समस्त प्रयासों से ऊबकर तथा निराश होकर, योगी जब इन्द्रियों को पूरी तरह नियंत्रित करके विरक्ति उत्पन्न कर ले, तब उसे आध्यात्मिक अभ्यास द्वारा अपने मन को अविचल भाव से आध्यात्मिक धरातल पर स्थिर करना चाहिए।

19 जब भी आध्यात्मिक धरातल पर एकाग्र मन सहसा अपनी आध्यात्मिक पद से भटके, तो मनुष्य को चाहिए कि वह सावधानी से नियत साधनों के सहारे उसे अपने वश में कर ले।

20 मनुष्य को चाहिए कि मानसिक कार्यों के वास्तविक लक्ष्य को दृष्टि से ओझल न होने दे, प्रत्युत प्राणवायु तथा इन्द्रियों पर विजय पाकर तथा सतोगुण से सुदृढ़ हुई बुद्धि का उपयोग करके, मन को अपने वश में कर ले।

21 एक कुशल घुड़सवार तेज घोड़े को पालतू बनाने की इच्छा से सर्वप्रथम घोड़े को कुछ देर उसकी राह चलने देता है, तब लगाम खींच कर धीरे धीरे उसे इच्छित राह पर ले आता है। इसी प्रकार सर्वोत्कृष्ट योगिविधि वह है, जिससे मनुष्य मन की गतियों तथा इच्छाओं का सावधानी से अवलोकन करता है और क्रमशः उन्हें पूर्ण वश में कर लेता है।

22 जब तक मनुष्य का मन आध्यात्मिक तुष्टि प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक उसे समस्त भौतिक वस्तुओं की नश्वर प्रकृति का, चाहे वे विराट विश्व की हों, पृथ्वी की हों या सूक्ष्म हों, वैश्लेषिक अध्ययन करते रहना चाहिये। उसे सृजन का अनुलोम विधि से और संहार का प्रतिलोम विधि से निरन्तर अवलोकन करना चाहिए।

23 जब कोई व्यक्ति इस जगत के नश्वर तथा मोहमय स्वभाव से ऊब उठता है और इस तरह उससे विरक्त हो जाता है, तो उसका मन अपने गुरु के आदेशों से मार्गदर्शन पाकर, इस जगत के स्वभाव के बारे में बारम्बार विचार करता है और अन्त में पदार्थ के साथ अपनी झूठी पहचान को त्याग देता है।

24 मनुष्य को चाहिए कि योग-प्रणाली के विभिन्न यमों तथा संस्कारों द्वारा, तर्क तथा आध्यात्मिक शिक्षा द्वारा अथवा मेरी पूजा और उपासना द्वारा, योग के लक्ष्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के स्मरण में अपने मन को लगाये। इस कार्य के लिए वह अन्य साधनों का प्रयोग न करे।

25 यदि क्षणिक असावधानी से कोई योगी अकस्मात कोई गर्हित (निन्दित) कर्म कर बैठता है, तो उसे चाहिए कि वह योगाभ्यास द्वारा उस पाप को कभी भी किसी अन्य विधि का प्रयोग किए बिना भस्म कर डाले।

26 यह दृढ़तापूर्वक घोषित है कि योगियों का अपने-अपने आध्यात्मिक पदों पर निरन्तर बने रहना असली पुण्य है और जब कोई योगी अपने नियत कर्तव्य की अवहेलना करता है, तो वह पाप होता है। जो पाप तथा इस पुण्य के मानदण्ड को, इन्द्रियतृप्ति के साथ समस्त पुरानी संगति को सच्चे दिल से त्यागने की इच्छा से अपनाता है, वह भौतिकतावादी कर्मों को वश में कर लेता है, जो स्वभावतः अशुद्ध होते हैं।

27-28 मेरे यश की कथाओं में श्रद्धा उत्पन्न करके, सारे भौतिक कार्यों से ऊबकर और यह जानते हुए भी कि सभी प्रकार की इन्द्रियतृप्ति दुखदायी है, किन्तु इन्द्रियभोग त्याग पाने में असमर्थ, मेरे भक्त को चाहिए कि वह सुखी रहे और अत्यन्त श्रद्धा तथा पूर्ण विश्वास के साथ मेरी पूजा करे। कभी कभी इन्द्रियभोग में लगे रहते हुए भी, मेरा भक्त जानता है कि समस्त प्रकार की इन्द्रियतृप्ति का परिणाम दुख है और वह ऐसे कार्यों के लिए सच्चे दिल से पश्चाताप करता है।

29 जब कोई बुद्धिमान व्यक्ति मेरे द्वारा बताई गई प्रेमाभक्ति के द्वारा निरन्तर मेरी पूजा करने में लग जाता है, तो उसका हृदय दृढ़तापूर्वक मुझमें स्थित हो जाता है। इस तरह उसके हृदय के भीतर की सारी भौतिक इच्छाएँ नष्ट हो जाती हैं।

30 जब मैं उसे भगवान के रूप में दिखता हूँ, तो उसके हृदय की गाँठ खुल जाती है, सारे संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं तथा सकाम कर्मों की शृंखला समाप्त हो जाती है।

31 इसलिए वह भक्त जो मुझ पर अपना मन स्थिर करके मेरी प्रेमाभक्ति में लगा रहता है, उसके लिए ज्ञान का अनुशीलन तथा वैराग्य सामान्यतया इस जगत में सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करने के साधन नहीं हैं।

32-33 इन सारी वस्तुओं को जो सकाम कर्म, तपस्या, ज्ञान, वैराग्य, योग, दान, धर्म तथा जीवन को पूर्ण बनानेवाले अन्य सारे साधनों से प्राप्त की जाती हैं, मेरा भक्त मेरे प्रति भक्ति से अनायास प्राप्त कर लेता है। यदि मेरा भक्त किसी न किसी तरह स्वर्ग जाने, मोक्ष या मेरे धाम में निवास करने की इच्छा करता है, तो वह ऐसे वर सरलता से प्राप्त कर लेता है।

34 चूँकि मेरे भक्तगण साधुवत आचरण तथा गम्भीर बुद्धि वाले होते हैं, इसलिए वे अपने आपको पूरी तरह मुझमें समर्पित कर देते हैं और मेरे अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहते। सच तो यह है कि यदि मैं उन्हें जन्म-मृत्यु से मुक्ति भी प्रदान करता हूँ, तो वे इसे स्वीकार नहीं करते।

35 कहा जाता है कि पूर्ण विरक्ति मुक्ति की सर्वोच्च अवस्था है, इसलिए जिसकी कोई निजी इच्छा नहीं होती और जो निजी लाभ के पीछे नहीं भागता, वह मेरी प्रेमाभक्ति प्राप्त कर सकता है।

36 इस जगत के अच्छे तथा बुरे से उत्पन्न भौतिक पुण्य तथा पाप मेरे शुद्ध भक्तों के अन्तःकरण में नहीं रह सकते क्योंकि वे भौतिक लालसा से मुक्त होने के कारण सभी परिस्थितियों में आध्यात्मिक चेतना को स्थिर बनाए रखते हैं। निस्सन्देह, ऐसे भक्तों ने भौतिक बुद्धि से अतीत मुझ भगवान को पा लिया है।

37 जो लोग मेरे द्वारा सिखलाये गये, मुझे प्राप्त करने के इन नियमों का गम्भीरता से पालन करते हैं, वे मोह से छुटकारा पा लेते हैं और मेरे धाम में पहुँचने पर वे परम सत्य को भलीभाँति समझ जाते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

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Comments

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