मूल:
नारीस्तनभरनाभिनिवेशं दृष्ट्वा मायामोहावेशम्।
एतन्मांसवसादिविकारं मनसि विचारय वारंवारम्॥
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढ़मते।
हिन्दी:
नारी-अंग निहार चपल चित्त, मत हो मायाविष्ट विमोहित।
मांसवसादिक के विकार ये, कर तू बारंबार विवेचित॥
भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढ़मते।
श्री शंकराचार्य का यह तीसरा श्लोक स्त्री-मोह के बारे में है। हम सब जानते हैं कि यह मोह कितना प्रबल है और इस पर विजय पाना कितना कठिन है।
स्त्री का शारीरिक सौन्दर्य एक भ्रम है। उससे होने वाले मानसिक उद्वेगों को सच्चा नहीं मा
