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अध्याय दस – भागवत सभी प्रश्नों का उत्तर है (2.10)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस श्रीमदभागवत में दस विभाग हैं, जो ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, उप—सृष्टि, लोकान्तर, भगवान द्वारा पोषण, सृष्टि प्रेरणा, मनुओं के परिवर्तन, ईश्वर ज्ञान, अपने घर—भगवदधाम गमन, मुक्ति तथा आश्रय से सम्बन्धित है।

2 इनमें से जो दसवाँ 'आश्रय' तत्त्व है उसकी दिव्यता को अन्यों से पृथक करने के लिए, उन सबका वर्णन कभी वैदिक साक्ष्य से, कभी प्रत्यक्ष व्याख्या से और कभी महापुरुषों द्वारा दी गई संक्षिप्त व्याख्याओं से किया जाता है।

3 पदार्थ के सोलह प्रकार—अर्थात पाँच तत्त्व (क्षिति, जल, पावक, गगन तथा वायु), ध्वनि, रूप, स्वाद, गन्ध, स्पर्श तथा नेत्र, कान, नाक, जीभ, त्वचा एवं मन—की तात्विक सृष्टि सर्ग कहलाती है और प्रकृति के गुणों की बाद की अन्तःक्रिया विसर्ग कहलाती है।

4 जीवात्मा के लिए उचित तो यही है कि वह भगवान के नियमों का पालन करें और पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के संरक्षण में पूरी तरह से मानसिक शान्ति प्राप्त करें। सभी मनु तथा उनके नियम जीवन को सही दिशा प्रदान करने के लिए हैं। कार्य करने की प्रेरणा ही सकाम कर्म की आकांक्षा है।

5 ईश्वर-विज्ञान (ईश-कथा) श्रीभगवान के विविध अवतारों, उनकी लीलाओं तथा साथ ही उनके भक्तों के कार्यकलापों का वर्णन करता है।

6 अपनी बद्धावस्था के जीवन सम्बन्धी प्रवृत्ति के साथ जीवात्मा का शयन करते हुए महाविष्णु में लीन होना प्रकट ब्रह्माण्ड का परिसमापन कहलाता है। परिवर्तनशील स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों को त्यागकर जीवात्मा के रूप की स्थायी स्थिति मुक्ति है।

7 परम पुरुष अथवा परमात्मा कहलाने वाले परमेश ही दृश्य जगत के परमस्रोत, इसके आगार (आश्रय) तथा लय है। इस प्रकार वे परमस्रोत, परम सत्य हैं।

8 विभिन्न इन्द्रियों से युक्त व्यक्ति आध्यात्मिक पुरुष कहलाता है और इन इन्द्रियों को वश में रखने वाला देव (श्रीविग्रह) अधिदैविक कहलाता है। नेत्र गोलकों में दिखने वाला स्वरूप अधिभौतिक पुरुष कहलाता है।

9 विभिन्न जीवात्माओं की उपर्युक्त तीनों अवस्थाएँ अन्योन्याश्रित है। किसी एक के अभाव में दूसरे को नहीं समझा जा सकता। किन्तु परमेश्वर इन सबको एक दूसरे के आश्रय रूप में देखता हुआ इन सबसे स्वतंत्र है, अतः वह परम आश्रय है।

10 विभिन्न ब्रह्माण्डों को पृथक करके विराट स्वरूप भगवान (महाविष्णु), जो प्रथम पुरुष अवतार के प्रकट होने के स्थान कारणार्णव से बाहर आये थे, सृजित दिव्य जल (गर्भोदक) में शयन करने की इच्छा से उन विभिन्न ब्रह्माण्डों में प्रविष्ट हुए।

11 परमपुरुष निराकार नहीं है, अतः वे स्पष्टतः नर अथवा पुरुष है। इसीलिए इन परम नर द्वारा उत्पन्न दिव्य जल नार कहलाता है। चूँकि वे इसी जल में शयन करते हैं इसीलिए नारायण कहलाते हैं।

12 मनुष्य को यह भलीभाँति समझ लेना चाहिए कि समस्त भौतिक तत्त्व, कर्म, काल तथा गुण और इन सब को भोगने वाली जीवात्माएँ भगवत्कृपा से ही विद्यमान हैं। उनके द्वारा उपेक्षित होते ही ये सारी वस्तुएँ अस्तित्वहीन हो जाती हैं।

13 योगनिद्रा की शय्या में लेटे हुए भगवान ने एकाकी रूप में से नाना प्रकार के जीवों को प्रकट करने की इच्छा करते हुए अपनी बहिरंगा शक्ति से सुनहरे रंग का वीर्य-प्रतीक उत्पन्न किया।

14 मुझसे सुनो कि भगवान अपनी एक शक्ति को किस प्रकार अधिदैव, अध्यात्म तथा अधिभूत नामक तीन भागों में विभक्त करते हैं, जिसका उल्लेख ऊपर हो चुका है।

15 महाविष्णु के दिव्य शरीर के भीतर स्थित आकाश से इन्द्रिय बल, मानसिक बल तथा शारीरिक बल उत्पन्न होते हैं। इनके साथ ही सम्पूर्ण जीवनी शक्ति (प्राण) का समग्र उत्स (स्रोत) उत्पन्न होता है।

16 जिस प्रकार राजा के अनुयायी अपने स्वामी का अनुसरण करते हैं उसी तरह सम्पूर्ण शक्ति के गतिशील होने पर अन्य समस्त जीव हिलते-डुलते (गति करते) हैं और जब सम्पूर्ण शक्ति निश्चेष्ट हो जाती है, तो अन्य समस्त जीवों की इन्द्रिय—क्रियाशीलता रुक जाती है।

17 विराट पुरुष द्वारा विचलित किए जाने पर जीवनी शक्ति (प्राण) ने भूख तथा प्यास को उत्पन्न किया और जब विराट पुरुष ने पीने तथा खाने की इच्छा की तो मुँह खुल गया।

18 मुख से तालु प्रकट हुआ और फिर जीभ भी उत्पन्न हुई। इन सबके बाद विविध स्वादों की उत्पत्ति हुई जिससे जीभ उनका स्वाद ले सके।

19 जब परम पुरुष की बोलने की इच्छा हुई तो उनके मुख से वाणी गूँजी। फिर मुख से अधिष्ठाता देव अग्नि की उत्पत्ति हुई। किन्तु जब वे जल में शयन कर रहे थे तो ये सारे कार्य बन्द पड़े थे।

20 तत्पश्चात जब परम पुरुष को सुगन्धि सूँघने की इच्छा हुई तो नथुने तथा श्वास, घ्राणेंद्रिय तथा सुगन्धियों की उत्पत्ति हुई और सुगन्धि को वहन करने वाली वायु के अधिष्ठाता देव भी प्रकट हुए।

21 इस प्रकार जब सारी वस्तुएँ अंधकार में विद्यमान थीं तो भगवान की अपने आपको तथा जो कुछ उन्होंने रचा था, उन सबको देखने की इच्छा हुई। तब आँखें, प्रकाशमान सूर्यदेव देखने की शक्ति तथा दिखने वाली वस्तु—ये सभी प्रकट हुई।

22 महान ऋषियों द्वारा जानने की इच्छा विकसित होने से कान, सुनने की शक्ति, सुनने के अधिष्ठाता देव तथा सुनने की वस्तुएँ प्रकट हुईं। ऋषिगण आत्मा के विषय में सुनना चाह रहे थे।

23 जब पदार्थ के भौतिक गुणों—यथा कोमलता, कठोरता, उष्णता, शीतलता, हल्कापन तथा भारीपन—को देखने की इच्छा हुई तो अनुभूति की पृष्ठभूमि त्वचा, त्वचा के छिद्र, रोम तथा उनके अधिष्ठाता देवों (वृक्षों) की उत्पत्ति हुई। त्वचा के भीतर तथा बाहर वायु की खोल है, जिसके माध्यम से स्पर्श का अनुभव होने लगा।

24 तत्पश्चात जब परम पुरुष को नाना प्रकार के कार्य करने की इच्छा हुई तो दो हाथ तथा उनकी नियामक शक्ति एवं स्वर्ग के देवता इन्द्र के साथ ही दोनों हाथों तथा देवता पर आश्रित कार्य भी प्रकट हुए।

25 तत्पश्चात गति (इधर उधर चलना) को नियंत्रित करने की इच्छा से उनकी टाँगें प्रकट हुई और टाँगों से उनके अधिष्ठाता देव विष्णु की उत्पत्ति हुई। इस कार्य की स्वयं विष्णु द्वारा निगरानी करने से सभी प्रकार के मनुष्य अपने—अपने निर्धारित यज्ञों (कार्यों) में संलग्न हैं।

26 तत्पश्चात काम-सुख, सन्तानोत्पत्ति तथा स्वर्गिक अमृत सुख के आस्वादन के लिए भगवान ने जननेन्द्रियाँ उत्पन्न कीं। इस प्रकार जननेन्द्रिय तथा उसके अधिष्ठाता देव प्रजापति उत्पन्न हुए। काम--सुख की वस्तु तथा अधिष्ठाता देव भगवान की जननेन्द्रियों के अधीन रहते हैं।

27 तत्पश्चात जब उन्हें खाये हुए भोजन के मल त्याग की इच्छा हुई तो गुदा द्वार और फिर पायु – इन्द्रिय और उनके अधिष्ठाता देव मित्र विकसित हुए। पायु इन्द्रिय तथा उत्सर्जित पदार्थ ये दोनों अधिष्ठाता देव के आश्रय में रहते हैं।

28 तत्पश्चात जब उन्हें एक शरीर से दूसरे में जाने की इच्छा हुई तो नाभि तथा अपानवायु एवं मृत्यु की एकसाथ सृष्टि हुई। मृत्यु तथा अपानवायु दोनों का ही आश्रय नाभि है।

29 जब भोजन तथा जल लेने की इच्छा हुई तो उदर, आँतें तथा धमनियाँ प्रकट हुई। नदियाँ तथा समुद्र इनके पोषण तथा उपापचय के स्रोत हैं।

30 जब उन्हें अपनी शक्ति के कार्यकलापों के विषय में सोचने की इच्छा हुई तो हृदय (मन का स्थान), मन, चन्द्रमा, संकल्प तथा सारी इच्छा का उदय हुआ ।

31 त्वचा, चर्म, मांस, रक्त, मेदा, मज्जा तथा अस्थि-- शरीर के ये सात तत्त्व पृथ्वी, जल तथा अग्नि से बने हैं जबकि प्राण की उत्पत्ति आकाश, जल तथा वायु से हुई है।

32 इन्द्रियाँ प्रकृति के गुणों से जुड़ी होती हैं और भौतिक प्रकृति के ये गुण मिथ्या अहंकार से जनित हैं। मन पर समस्त प्रकार के भौतिक अनुभवों (सुख-दुख) का प्रभाव पड़ता है और बुद्धि मन के तर्क-वितर्क स्वरूप है।

33 इस तरह भगवान का बाह्य रूप अन्य लोकों की ही तरह स्थूल रूपों से घिरा हुआ है, जिनका वर्णन मैं तुमसे पहले ही कर चुका हूँ।

34 अतः इस (स्थूल शरीर) से परे दिव्य संसार है, जो सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर है। न तो इसका आदि है, न मध्य और न अन्त, अतः यह व्याख्या अथवा चिन्तन की सीमाओं के परे है और भौतिक बोध से भिन्न है।

35 मैंने तुमसे भौतिक दृष्टिकोण से भगवान के जिन दो रूपों का ऊपर वर्णन किया है, उनमें से कोई भी भगवान को जानने वाले शुद्ध भक्तों द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता।

36 अपने दिव्य नाम, गुण, लीलाओं, परिवेश तथा विभिन्नताओं के कारण भगवान अपने आपको दिव्य रूप में प्रकट करते हैं। यद्यपि इन समस्त कार्यकलापों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, किन्तु वे व्यस्त से प्रतीत होते हैं।

37-40 हे राजन, मुझसे यह जान लो कि सभी जीवात्माएँ अपने विगत कर्मों के अनुसार परमेश्वर द्वारा उत्पन्न किए जाते हैं। इसमें ब्रह्मा तथा उनके दक्ष जैसे पुत्र, वैवस्वत मनु जैसे सामयिक प्रधान, इन्द्र, चन्द्र तथा वरुण जैसे देवता, भृगु, व्यास, वसिष्ठ जैसे महर्षि, पितृलोक तथा सिद्धलोक के वासी, चारण, गन्धर्व, विद्याधर, असुर यक्ष किन्नर तथा देवदूत, नाग, बन्दर जैसे किम्पुरुष, मनुष्य, मातृलोक के वासी, असुर, पिशाच, भूत-प्रेत, उन्मादी, शुभ-अशुभ नक्षत्र, विनायक, जंगली पशु, पक्षी, घरेलू पशु, सरीसृप, पर्वत, जड़ तथा चेतन जीव, जरायुज, अण्डज, स्वेदज तथा उदिभज जीव तथा अन्य समस्त जल, स्थल या आकाश के सुखी, दुखी अथवा मिश्रित सुखी--दुखी जीव सम्मिलित हैं। ये सभी अपने पूर्व कर्मों के अनुसार परमेश्वर द्वारा सृजित होते हैं ।

41 प्रकृति के विभिन्न गुण—सतो, रजो तथा तमो गुणों—के अनुसार विभिन्न प्रकार के प्राणी होते हैं, जो देवता, मनुष्य तथा नारकीय जीव कहलाते हैं। हे राजन, यही नहीं, जब कोई एक गुण अन्य दो गुणों से मिलता है, तो वह तीन में विभक्त होता है और इस प्रकार प्रत्येक प्राणी अन्य गुणों से प्रभावित होता है और इसकी आदतों को अर्जित कर लेता है।

42 वे भगवान ब्रह्माण्ड में सबके पालक रूप में सृष्टि की स्थापना करके विभिन्न अवतारों में प्रकट होते हैं और मनुष्यों, अमानवों तथा देवताओं में से समस्त बद्धजीवों का उध्दार करते हैं।

43 तत्पश्चात युग के अन्त में भगवान स्वयं संहारकर्ता रुद्र--रूप में सम्पूर्ण सृष्टि का उसी तरह संहार करेंगे जिस प्रकार वायु बादलों को हटा देती है।

44 बड़े-बड़े तत्त्वज्ञानी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के कार्यकलापों का ऐसा ही वर्णन करते हैं, किन्तु शुद्ध भक्त भावातीत दशा में ऐसे रूपों से भी बढ़कर महिमामय वस्तुएँ देखने के अधिकारी होते हैं।

45 भौतिक जगत की सृष्टि तथा संहार के लिए भगवान के द्वारा किसी प्रकार का प्रत्यक्ष कौशल नहीं किया जाता। उनके प्रत्यक्ष हस्तक्षेप के विषय में वेदों में जो कुछ वर्णित है, वह केवल इस विचार का निराकरण करने के लिए है कि भौतिक प्रकृति ही स्रष्टा है।

46 यहाँ पर सारांश रुप में वर्णित सृष्टि तथा संहार का यह प्रक्रम ब्रह्मा के एक दिन (कल्प) के लिए विधि-विधान स्वरूप है। यही महत-सृष्टि का भी नियामक-विधान है, जिसमें प्रकृति विसर्जित हो जाती है।

47 हे राजन, आगे चलकर मैं काल के स्थूल तथा सूक्ष्म रूपों की माप का उनके विशिष्ट लक्षणों सहित वर्णन करूँगा, किन्तु इस समय मैं तुमसे पाद्म कल्प के विषय में कहना चाहता हूँ।

48 सृष्टि के विषय में यह सब सुनने के बाद शौनक ऋषि ने सूत गोस्वामी से विदुर के विषय में पूछा, क्योंकि सूत गोस्वामी ने पहले ही उन्हें बता रखा था कि विदुर ने किस प्रकार अपने उन परिजनों को छोड़कर गृहत्याग किया था जिनको छोड़ पाना बहुत दुष्कर होता है।

49-50 शौनक ऋषि ने कहा: आप हमें बताएँ कि विदुर तथा मैत्रेय के बीच अध्यात्म पर चर्चा हुई, विदुर ने क्या पूछा और मैत्रेय ने क्या उत्तर दिया था । कृपा करके हमें यह भी बताएँ कि विदुर ने अपने कुटुम्बियों को क्यों छोड़ा था और वे पुनः घर क्यों लौट आये ? तीर्थ स्थानों की यात्रा के समय उन्होंने जो कार्य किये उन्हें भी बतलाएँ।

51 श्री सूत गोस्वामी ने बताया—अब मैं तुम्हें वे सारे विषय बताऊँगा जिन्हें राजा परीक्षित के द्वारा पूछे जाने पर महामुनि ने उनसे कहा था । कृपया उन्हें ध्यानपूर्वक सुनो।

इस प्रकार श्रीमद भागवतम (द्वितीय स्कन्ध) के समस्त अध्यायों के भक्ति वेदान्त श्लोकार्थ पूर्ण हुए।

-::हरि ॐ तत् सत्::-

समर्पित एवं सेवारत-जगदीश चन्द्र माँगीलाल चौहान

 

 

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