हिन्दी भाषी संघ (229)

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अध्याय पाँच – भगवान ऋषभदेव द्वारा अपने पुत्रों को उपदेश (5.5)

1 भगवान ऋषभदेव ने अपने पुत्रों से कहा: हे पुत्रों इस संसार के समस्त देहधारियों में जिसे मनुष्य देह प्राप्त हुई है उसे इन्द्रियतृप्ति के लिए ही दिन-रात कठिन श्रम नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा तो मल खाने वाले कूकर-सूकर भी कर लेते हैं। मनुष्य को चाहिए कि भक्ति का दिव्य पद प्राप्त करने के लिए वह अपने को तपस्या में लगाये। ऐसा करने से उसका हृदय शुद्ध हो जाता है और जब वह इस पद को प्राप्त कर लेता है, तो उसे शाश्वत जीवन का आनन्द मिलता है, जो भौत

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अध्याय चार – भगवान ऋषभदेव के लक्षण (5.4)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जन्म से ही महाराज नाभि के पुत्र में भगवान के लक्षण प्रकट थे, यथा चरणतल के चिन्ह (ध्वज, वज्र इत्यादि)। यह पुत्र सबों के साथ समभाव रखनेवाला और अत्यन्त शान्त स्वभाव का था। यह अपनी इन्द्रियों तथा मन को वश में कर सकता था और परम ऐश्वर्यवान होने के कारण उसे भौतिक सुख की लिप्सा नहीं थी। इन समस्त गुणों से सम्पन्न होने के कारण महाराज नाभि का पुत्र दिनों-दिन शक्तिशाली बनता गया। फलतः समस्त नागरिकों, विद्वान ब्राह्मणों देवताओं तथा मंत्रि

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अध्याय तीन – राजा नाभि की पत्नी मेरुदेवी के गर्भ से ऋषभदेव का जन्म (5.3)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: आग्नीध्र के पुत्र महाराज नाभि ने सन्तान की इच्छा की, इसलिए उन्होंने समस्त यज्ञों के भोक्ता एवं स्वामी भगवान विष्णु की अत्यन्त मनोयोग से स्तुति एवं आराधना प्रारम्भ की। उस समय तक महाराज नाभि की पत्नी मेरुदेवी ने किसी सन्तान को जन्म नहीं दिया था, अतः वह भी अपने पति के साथ भगवान विष्णु की आराधना करने लगी।

2 यज्ञ में भगवान का अनुग्रह प्राप्त करने के सात दिव्य साधन है-- 1- बहुमूल्य सामग्रियों य

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अध्याय दो – महाराज आग्नीध्र का चरित्र (5.2)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी आगे बोले–अपने पिता महाराज प्रियव्रत के इस प्रकार आध्यात्मिक जीवन पथ अपनाने के लिए तपस्या में संलग्न हो जाने पर राजा आग्नीध्र ने उनकी आज्ञा का पूरी तरह पालन किया और धार्मिक नियमों के अनुसार उन्होंने जम्बूद्वीप के वासियों को अपने ही पुत्रों के समान सुरक्षा प्रदान की।

2 एक बार महाराज आग्नीध्र ने सुयोग्य पुत्र प्राप्त करने तथा पितृलोक का वासी बनने की कामना से भौतिक सृष्टि के स्वामी भगवान ब्रह्मा की आराधना की। वे मन्दाराचल की घाटी मे

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अध्याय तीस – प्रचेताओं के कार्यकलाप (4.30)

1 विदुर ने मैत्रेय से जानना चाहा: हे ब्राह्मण, आपने पहले मुझसे प्राचीनबर्हि के पुत्रों के विषय में बतलाया था कि उन्होंने शिव द्वारा रचे हुए गीत के जप से भगवान को प्रसन्न किया। तो उन्हें इस प्रकार क्या प्राप्त हुआ?

2 हे बार्हस्पत्य (बृहस्पति के शिष्य), राजा बर्हिषत के पुत्रों ने, जिन्हें प्रचेता कहते हैं, उन्होंने भगवान शिवजी से भेंट करने के बाद क्या प्राप्त किया, जो मोक्षदाता भगवान को अत्यन्त प्रिय हैं? वे वैकुण्ठलोक तो गये ही, किन्तु इसके अतिरिक्त उन्हो

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अध्याय उन्तीस -- नारद तथा प्राचीनबर्हि के मध्य वार्तालाप

1-5 राजा प्राचीनबर्हि ने उत्तर दिया: हे प्रभु, हम आपके कहे गये राजा पुरञ्जन के रुपक आख्यान (अन्योक्ति) का सारांश पूर्ण रूप से नहीं समझ सके। वास्तव में जो आध्यात्मिक ज्ञान में निपुण हैं, वे तो समझ सकते हैं, किन्तु हम जैसे सकाम कर्मों में अत्यधिक लिप्त पुरुषों के लिए आपके आख्यान का तात्पर्य समझ पाना अत्यन्त कठिन है। नारद मुनि ने कहा – तुम जानो कि पुरञ्जन रूपी जीव अपने कर्म के अनुसार विभिन्न रूपों में देहान्तर करता रहता है, जो एक, दो, तीन, चा

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अध्याय अट्ठाईस – अगले जन्म में पुरञ्जन को स्त्री-योनि की प्राप्ति (4.28)

1 नारद मुनि ने आगे कहा: हे राजा प्राचीनबर्हिषत, तत्पश्चात यवनराज साक्षात भय, प्रज्वार, काल-कन्या तथा अपने सैनिकों सहित सारे संसार में विचरने लगा।

2 एक बार भयानक सैनिकों ने पुरञ्जन-नगरी पर बड़े वेग से आक्रमण किया। यद्यपि यह नगरी भोग की सारी सामग्री से परिपूर्ण थी, किन्तु इसकी रखवाली एक बूढ़ा सर्प कर रहा था।

3 धीरे-धीरे कालकन्या ने घातक सैनिकों की सहायता से पुरञ्जन की नगरी के समस्त वासियों पर आक्रमण कर दिया और उन्हें सभी प्रकार

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अध्याय सत्ताईस – राजा पुरञ्जन की नगरी पर चण्डवेग का धावा और कालकन्या का चरित्र (4.27)

1 महर्षि नारद ने आगे कहा: हे राजन, अनेक प्रकार से अपने पति को मोहित करके अपने वश में करती हुई राजा पुरञ्जन की पत्नी उसे सारा आनन्द प्रदान करने लगी और उसके साथ विषयी जीवन व्यतीत करने लगी।

2 रानी ने स्नान किया और शुभ वस्त्रों तथा आभूषणों से अपने को सुसज्जित किया। भोजन करने तथा परम संतुष्ट होने के बाद वह राजा के पास आई। उस अत्यन्त सुसज्जित तथा आकर्षक मुख वाली को देखकर राजा ने उसका तन्मयता से अभिनन्दन किया।

3 रानी प

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अध्याय छब्बीस – राजा पुरञ्जन का आखेट के लिए जाना और रानी का क्रुद्ध होना (4.26)

1-3 नारद मुनि ने आगे कहा: हे राजन, एक बार राजा पुरञ्जन ने अपना विशाल धनुष लिया और सोने का कवच धारण करके तरकस में असंख्य तीर भरकर वह अपने ग्यारह सेनापतियों के साथ अपने रथ पर बैठ गया, जिसे पाँच तेज घोड़े खींच रहे थे और पञ्चप्रस्थ नामक वन में गया। उसने अपने साथ उस रथ में दो विस्फोटक तीर ले लिये। यह रथ दो पहियों तथा एक घूमते हुए धुरे पर स्थित था। रथ पर तीन ध्वजाएँ, एक लगाम, एक सारथी, एक बैठने का स्थान, दो काठी (जुए), पाँच

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अध्याय पच्चीस - राजा पुरञ्जन के गुणों का वर्णन (4.25)

1 महर्षि मैत्रेय ने विदुर से आगे कहा: हे विदुर, शिवजी ने इस प्रकार से राजा बर्हिषत के पुत्रों को उपदेश दिया। राजकुमारों ने भी शिवजी की अगाध भक्ति के साथ श्रद्धापूर्वक पूजा की। अन्त में वे राजकुमारों की दृष्टि से ओझल हो गये।

2 सभी प्रचेतागण दस हजार वर्षों तक जल के भीतर खड़े रहकर शिवजी द्वारा दिये गये स्तोत्र का जप करते रहे।

3 जब राजकुमार जल के भीतर कठिन तपस्या कर रहे थे तो उनके पिता विभिन्न प्रकार के सकाम कर्म सम्पन्न करने में रत थे। उसी समय सम

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अध्याय चौबीस – शिवजी द्वारा की गई स्तुति का गान (4.24)

1-10 मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा: महाराज पृथु का सबसे बड़ा पुत्र विजिताश्व, जिसकी ख्याति अपने पिता की ही तरह थी, राजा बना और उसने अपने छोटे भाइयों को पृथ्वी की विभिन्न दिशाओं पर राज्य करने का अधिकार सौंप दिया, क्योंकि वह अपने भाइयों को अत्यधिक चाहता था। महाराज विजिताश्व ने संसार का पूर्वी भाग अपने भाई हर्यक्ष को, दक्षिणी भाग धूम्रकेश को, पश्चिमी भाग वृक को तथा उत्तरी भाग द्रविण को प्रदान किया। पूर्वकाल में महाराज विजिताश्व ने स्वर्ग के राजा इन्द्र

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अपने जीवन की अन्तिम अवस्था में तपस्या हेतु वन में गए हुए राजा पृथु ने भगवान के चरणकमलों का ध्यान करते हुए अपने भौतिक शरीर को त्याग दिया। साथ आयी हुई रानी अर्चि भी अपने पतिदेव के चरणों का ध्यान करते हुए अग्नि में जलकर सती हो गयीं। देवताओं ने उनकी प्रशंसा में पुष्पवृष्टि की।   श्रीमद भागवतम 4.23.18-26 श्रील प्रभुपाद

अध्याय तेईस – महाराज पृथु का भगवदधाम गमन (4.23)

1-3 अपने जीवन की अन्तिम अवस्था में, जब महाराज पृथु ने देखा कि मैं वृद्ध हो चला हूँ तो उस महापुरुष ने, जो संसार का राजा था, अपने द्वारा सं

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अध्याय बाईस – चारों कुमारों से पृथु महाराज की भेंट (4.22)

1 महामुनि मैत्रेय ने कहा: जिस समय सारे नागरिक परम शक्तिमान महाराज पृथु की इस प्रकार स्तुति कर रहे थे उसी समय वहाँ पर सूर्य के समान तेजस्वी चारों कुमार आये।

2 समस्त योगशक्तियों के स्वामी चारों कुमारों के देदीप्यमान तेज को देखकर राजा तथा उनके पार्षदों ने उन्हें आकाश से उतरते ही पहचान लिया।

3 चारों कुमारों को देखकर पृथु महाराज उनके स्वागत के लिए आतुर हो उठे। अतः अपने पार्षदों सहित वे तुरन्त इस तरह तेजी से उठकर खड़े हो गये मानो कोई बद्धजीव प्

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अध्याय इक्कीस – महाराज पृथु द्वारा उपदेश (4.21)

1 महर्षि मैत्रेय ने विदुर से कहा: जब राजा ने अपनी नगरी में प्रवेश किया, तो उसके स्वागत के लिए नगरी को मोतियों, पुष्पहारों, सुन्दर वस्त्रों तथा सुनहरे द्वारों से सुन्दर ढंग से सजाया गया था और सारी नगरी अत्यन्त सुगन्धित धूप से सुवासित थी।

2 नगर की गलियाँ, सड़कें तथा छोटे उद्यान चन्दन तथा अरगजा के सुगन्धित जल से सींच दिये गये थे और सर्वत्र समूचे फलों, फूलों, भिगोए हुए अन्नों, विविध खनिजों तथा दीपों के अलंकरणों से सजे थे। सभी माँगलिक वस्तुओं के दृश्य उप

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अध्याय बीस – महाराज पृथु के यज्ञस्थल में भगवान विष्णु का प्राकट्य (4.20)

1 मैत्रेय ने आगे कहा: हे विदुर, महाराज पृथु द्वारा निन्यानवे अश्वमेध यज्ञों के सम्पन्न किये जाने से भगवान विष्णु अत्यन्त प्रसन्न हुए और वे यज्ञस्थल में प्रकट हुए। उनके साथ राजा इन्द्र भी था। तब भगवान विष्णु ने कहना प्रारम्भ किया।

2 भगवान विष्णु ने कहा: हे राजा पृथु, स्वर्ग के राजा इन्द्र ने तुम्हारे सौवें यज्ञ में विघ्न डाला है। अब वह मेरे साथ तुमसे क्षमा माँगने के लिए आया है, अतः उसे क्षमा कर दो।

3 हे राजन, जो व्यक्ति परम

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अध्याय उन्नीस – राजा पृथु के एक सौ अश्वमेध यज्ञ (4.19)

1 महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा: हे विदुर, राजा पृथु ने उस स्थान पर जहाँ सरस्वती नदी पूर्वमुखी होकर बहती है, एक सौ अश्वमेध यज्ञ आरम्भ किए। यह भूखण्ड ब्रह्मावर्त कहलाता है, जो स्वायम्भुव मनु द्वारा शासित था।

2 जब स्वर्ग के राजा सर्वाधिक शक्तिशाली इन्द्र ने यह देखा तो उसने विचार किया कि सकाम कर्मों में राजा पृथु उससे बाजी मारने जा रहा है। अतः वह राजा पृथु द्वारा किये जा रहे यज्ञ-महोत्सव को सहन न कर सका।

3 भगवान विष्णु हर प्राणी के हृदय में परमात्

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अध्याय अठारह – पृथु महाराज द्वारा पृथ्वी का दोहन (4.18)

1 मैत्रेय ने विदुर को सम्बोधित करते हुए आगे कहा: हे विदुर, जब पृथ्वी ने स्तुति पूरी करली तब भी राजा पृथु शान्त नहीं हुए थे, उनके होंठ क्रोध से काँप रहे थे। यद्यपि पृथ्वी डरी हुई थी, किन्तु उसने धैर्य धारण करके राजा को आश्वस्त करने के लिए इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया।

2 हे भगवन, आप अपने क्रोध को पूर्णतः शान्त करें और जो कुछ मैं निवेदन कर रही हूँ, उसे धैर्यपूर्वक सुनें। कृपया इस ओर ध्यान दें। मैं भले ही दीन हूँ, किन्तु बुद्धिमान व्यक्ति सभी स्

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भगवान कृष्ण को अवतारी भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है, “जिनसे समस्त अवतार उद्भूत होते हैं।" भगवद गीता (10.8) में भगवान कृष्ण कहते हैं – अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते – मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का उद्गम हूँ, हर वस्तु मुझ ही से उद्भूत है। -तात्पर्य श्रीमद भागवतम (4.17.6-7) ~श्रील प्रभुपाद~!

अध्याय सत्रह – महाराज पृथु का पृथ्वी पर कुपित होना (4.17)

1 मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा: इस प्रकार उन गायकों ने जो महाराज पृथु की महिमा का गायन कर रहे थे, उनके गुणों तथा वीरतापूर्ण कार्यों का वर्ण

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अध्याय सोलह – बन्दीजनों द्वारा राजा पृथु की स्तुति (4.16)

1 महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा: जब राजा पृथु इस प्रकार विनम्रता से बोले, तो उनकी अमृत-तुल्य वाणी से गायक अत्यधिक प्रसन्न हुए। तब वे पुनः ऋषियों द्वारा दिये गये आदेशों के अनुसार राजा की भूरी-भूरी प्रशंसा करने लगे।

2 गायकों ने आगे कहा: हे राजन, आप भगवान विष्णु के साक्षात अवतार हैं और उनकी अहैतुकी कृपा से आप पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं। अतः हममें इतनी सामर्थ्य कहाँ कि आपके महान कार्यों का सही-सही गुणगान कर सकें? यद्यपि आप राजा वेन के शरीर से प्रकट

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अध्याय पन्द्रह – राजा पृथु की उत्पत्ति और राज्याभिषेक (4.15)

1 मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा: हे विदुर, इस प्रकार ब्राह्मण तथा ऋषियों ने राजा वेन के मृत शरीर की दोनों बाहुओं का भी मंथन किया। फलस्वरूप उसकी बाँहों से एक स्त्री तथा एक पुरुष का जोड़ा उत्पन्न हुआ।

2 ऋषिगण वैदिक ज्ञान में पारंगत थे। जब उन्होंने वेन की बाहुओं से एक स्त्री तथा एक पुरुष को उत्पन्न देखा, तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए क्योंकि वे जान गए कि यह युगल (दम्पत्ति) भगवान विष्णु के पूर्णांश का विस्तार है।

3 ऋषियों ने कहा: यह पुरुष तो सम्पूर्ण

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