अध्याय छब्बीस – राजा पुरञ्जन का आखेट के लिए जाना और रानी का क्रुद्ध होना (4.26)
1-3 नारद मुनि ने आगे कहा: हे राजन, एक बार राजा पुरञ्जन ने अपना विशाल धनुष लिया और सोने का कवच धारण करके तरकस में असंख्य तीर भरकर वह अपने ग्यारह सेनापतियों के साथ अपने रथ पर बैठ गया, जिसे पाँच तेज घोड़े खींच रहे थे और पञ्चप्रस्थ नामक वन में गया। उसने अपने साथ उस रथ में दो विस्फोटक तीर ले लिये। यह रथ दो पहियों तथा एक घूमते हुए धुरे पर स्थित था। रथ पर तीन ध्वजाएँ, एक लगाम, एक सारथी, एक बैठने का स्थान, दो काठी (जुए), पाँच आयुध तथा सात आवरण थे। यह रथ पाँच भिन्न-भिन्न शैलियों से गति कर रहा था और उसके सामने पाँच अवरोध थे। रथ की सारी साज सज्जा सोने की बनी थी।
4 यद्यपि राजा पुरञ्जन के लिए अपनी रानी को एक पल भर भी छोड़ना कठिन था। तो भी उस दिन उसे शिकार का ऐसा शौक लगा कि अपनी पत्नी की परवाह किये बिना वह बड़े गर्व से धनुष-बाण लेकर जंगल चला गया।
5 उस समय राजा पुरञ्जन अपनी आसुरी वृत्तियों के प्रभाव में आ गया था, जिसके कारण उसका हृदय कठोर तथा दयाशून्य हो गया था, अतः उसने अपने तीखे बाणों से बिना सोचे-बिचारे अनेक निर्दोष जंगली पशुओं का वध कर दिया।
6 यदि राजा मांस खाने का अत्यधिक इच्छुक हो तो वह यज्ञ के लिए शास्त्रों में दिये गये आदेशों के अनुसार वन जाकर केवल वध्य पशुओं का वध करे। किसी को वृथा ही या बिना रोकटोक पशुओं के वध की अनुमति नहीं है। वेद उन मूर्ख पुरुषों के द्वारा अन्धाधुंध पशुवध को नियमित करते हैं, जो तमोगुण तथा अविद्या द्वारा प्रभावित रहते हैं।
7 नारद मुनि ने राजा प्राचीनबर्हिषत से आगे कहा: हे राजा, जो व्यक्ति शास्त्रानुमोदित कर्मों का आचरण करता है, वह सकाम कर्मों में लिप्त नहीं होता।
8 अन्यथा जो मनुष्य मनमाना कर्म करता है, वह मिथ्या अभिमान के कारण नीचे गिर जाता है और इस तरह प्रकृति के तीन गुणों में फँस जाता है। इस प्रकार से जीव अपनी वास्तविक बुद्धि से रहित हो जाता है और जन्म-मृत्यु के चक्र में सदा-सदा के लिए खो जाता है। इस प्रकार वह मल के एक सूक्ष्म जीवाणु से लेकर ब्रह्मलोक में उच्च पद तक ऊपर-नीचे आता-जाता रहता है।
9 जब राजा पुरञ्जन इस प्रकार आखेट करने लगा तो तीक्ष्ण बाणों से भिदकर जंगल में अनेक पशु अत्यधिक पीड़ा से अपना प्राण त्यागने लगे। राजा के इन विनाशकारी निर्दयतापूर्ण कार्यों को देखकर दयालु पुरुष अत्यन्त खिन्न हो गए और वे यह सारा वध सहन नहीं कर सके।
10 इस प्रकार राजा पुरञ्जन ने अनेक पशुओं का वध किया जिसमें खरगोश, सूअर, भैंसे, नीलगाय, श्याम हिरण, साही तथा अन्य शिकारी जानवर शामिल थे। लगातार शिकार करते रहने से राजा अत्यधिक थक गया।
11 इसके बाद अत्यन्त थका-माँदा, भूखा एवं प्यासा राजा अपने राजमहल लौट आया। लौटने के बाद उसने स्नान किया और यथोचित भोजन किया। तब उसने विश्राम किया इस तरह सारी थकान से मुक्त हो गया।
12 तत्पश्चात राजा पुरञ्जन ने अपने शरीर में उपयुक्त आभूषण धारण किये। उसने अपने शरीर पर चन्दन का लेप किया और फूलों की माला पहनी। इस प्रकार वह पूर्णत: तरोताजा (विश्रान्त) हो गया। इसके बाद वह अपनी रानी की खोज करने लगा।
13 भोजन कर लेने तथा अपनी भूख और प्यास बुझा लेने के बाद पुरञ्जन को मन में कुछ प्रफुल्लता हुई और उसे अपनी पत्नी को ढूँढने की इच्छा हुई जिसने उसे गृहस्थ जीवन में प्रसन्न कर रखा था।
14 उस समय राजा पुरञ्जन कुछ-कुछ उत्सुक हुआ और उसने रनिवास की स्त्रियों से पूछा: हे सुन्दरियों, तुम सब अपनी स्वामिनी सहित पहले के समान प्रसन्न तो हो?
15 राजा पुरञ्जन ने कहा: मेरी समझ में नहीं आ रहा कि मेरे घर का सारा साज-सामान पहले की भाँति मुझे अच्छा क्यों नहीं लग रहा ? मैं सोचता हूँ कि यदि घर में माता अथवा पति-परायण पत्नी न हो तो घर पहियों से विहीन रथ की तरह प्रतीत होता है। ऐसा कौन मूर्ख है, जो ऐसे व्यर्थ के रथ पर बैठेगा?
16 कृपया मुझे उस सुन्दरी का पता बताओ जो मुझे सदैव संकट के समुद्र में डूबने से उबारती है। वह मुझे पग-पग पर सद्बुद्धि प्रदान करके बचाती है।
17 सभी स्त्रियों ने राजा को सम्बोधित किया: हे प्रजा के स्वामी, हम यह नहीं जानती कि आपकी प्रिया ने क्यों ऐसी स्थिति बना रखी है। हे शत्रुओं के संहारक! कृपया देखें। वे बिना बिस्तर के जमीन पर लेटी हुई हैं। हम नहीं समझ पा रहीं कि वे ऐसा क्यों कर रही हैं।
18 महर्षि नारद ने कहा: हे राजा प्राचीनबर्हि, जैसे ही राजा पुरञ्जन ने अपनी रानी को अवधूत की भाँति पृथ्वी पर लेटे देखा, वह तुरन्त मोहग्रस्त हो गया।
19 दुखित हृदय से राजा अपनी पत्नी से अत्यन्त मीठे शब्द कहने लगा। यद्यपि वह दुखी था और उसे प्रसन्न करने का प्रयास कर रहा था, किन्तु उसने अपनी प्राणप्रिया पत्नी के हृदय में क्रोध का एक भी लक्षण नहीं देखा।
20 चूँकि राजा मनाने में अत्यन्त निपुण था, अतः उसने रानी को धीरे-धीरे मनाना प्रारम्भ किया। पहले उसने उसके दोनों पाँव छूये, फिर उसका आलिंगन किया और अपनी गोद में बैठाकर इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया।
21 राजा पुरञ्जन ने कहा: हे सुन्दरी, जब स्वामी किसी मनुष्य को दास रूप में स्वीकार तो कर लेता है, किन्तु उसके अपराधों के लिए उसे दण्ड नहीं देता तो उस दास को समझना चाहिए कि वह अभागा है।
22 हे तन्वंगी, जब कोई स्वामी अपने सेवक को दण्ड देता है, तो उसे परम अनुग्रह समझ कर स्वीकार कर लेना चाहिए । जो क्रुद्ध होता है, वह अत्यन्त मूर्ख है और वह यह नहीं जानता कि ऐसा करना तो उसके मित्र का कर्तव्य होता है।
23 हे प्रिये, तुम अत्यन्त सुन्दर दाँतों वाली हो। तुम अपने आकर्षक अंगों के कारण अत्यन्त मनस्वी लगती हो। तुम अपना क्रोध त्याग कर मुझ पर कृपा करो और अत्यन्त प्यार से तनिक मुस्कराओ। जब मैं तुम्हारे सुन्दर मुखमण्डल की मुसकान, तुम्हारे नीले रंग वाले बाल एवं तुम्हारी उन्नत नासिका को देखूँगा तथा तुम्हारे मीठे वचनों को सुनूँगा तो तुम मुझे और भी सुन्दर लगोगी और अपनी ओर आकृष्ट करती प्रतीत होओगी। तुम मेरी अत्यन्त आदरणीया स्वामिनी हो।
24 हे वीरपत्नी, मुझे बताओ कि क्या किसी ने तुम्हें अपमानित किया है? मैं ऐसे व्यक्ति को यदि वह ब्राह्मण कुल का नहीं है, दण्ड देने के लिए तैयार हूँ, मैं मुररिपु (श्रीकृष्ण) के दास के अतिरिक्त तीनों लोको में किसी को भी क्षमा नहीं करूँगा। तुम्हें अपमानित करके कोई स्वच्छन्दतापूर्वक विचरण नहीं कर सकता, क्योंकि मैं उसे दण्ड देने के लिए तैयार हूँ।
25 प्रिये, आज तक मैंने कभी भी तुम्हारे मुख को तिलक से रहित नहीं देखा, न ही मैंने तुम्हें कभी खिन्न तथा कान्ति या स्नेह से रहित देखा है। न ही मैंने तुम्हारे नेत्रों को अश्रुओं से सिक्त देखा है। न ही मैंने तुम्हारे बिम्बा फलों के समान लाल-लाल होंठों को कभी लालिमा से रहित देखा है।
26 हे रानी, मैं अपनी पापपूर्ण इच्छाओं के कारण तुमसे बिना पूछे शिकार करने जंगल चला गया। अतः मैं स्वीकार करता हूँ कि मुझसे अपराध हुआ। फिर भी मुझे अपना अन्तरंग समझ कर तुम्हें अत्यन्त प्रसन्न होना चाहिए। भला ऐसी कौन सुन्दरी होगी जो अपने पति को त्याग देगी और उससे मिलना अस्वीकार कर देगी?
(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)
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हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏