हिन्दी भाषी संघ (229)

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अध्याय तीन – सुकन्या तथा च्यवन मुनि का विवाह (9.3)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजन, मनु का दूसरा पुत्र राजा शर्याति वैदिक ज्ञान में पारंगत था। उसने अंगीर वंशियों द्वारा सम्पन्न होने वाले यज्ञ के दूसरे दिन के उत्सवों के विषय में आदेश दिए।

2 शर्याति की सुकन्या नामक एक सुन्दर कमलनेत्री कन्या थी जिसके साथ वे जंगल में च्यवन मुनि के आश्रम को देखने गये।

3 जब वह सुकन्या जंगल में अपनी सहेलियों से घिरी हुई, वृक्षों से विविध प्रकार के फल एकत्र कर रही थी तो उसने बाँबी के छेद में दो जुगनू जैसी चमक

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अध्याय दो – मनु के पुत्रों की वंशावलियाँ (9.2)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इसके पश्चात जब वैवस्वत मनु (श्राद्धदेव) के पुत्र सुद्युम्न वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण करने के लिए जंगल में चले गये तो मनु ने और अधिक सन्तान प्राप्त करने की इच्छा से यमुना नदी के तट पर सौ वर्षों तक कठिन तपस्या की।

2 तब पुत्र कामना से श्राद्धदेव नामक मनु ने देवों के देव भगवान हरि की पूजा की। इस तरह उसे अपने ही सदृश दस पुत्र प्राप्त हुए। इनमें से इक्ष्वाकु सबसे बड़ा था।

3 इन पुत्रों में से पृषध्र अपने गुरु की आज्ञा का पालन करते

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अध्याय एक – राजा सुद्युम्न का स्त्री बनना (9.1)

1 राजा परीक्षित ने कहा: हे प्रभु श्रील शुकदेव गोस्वामी, आप विभिन्न मनुओं से सारे कालों का विस्तार से वर्णन कर चुके हैं और उनमें असीम शक्तिमान पूर्ण भगवान के अद्भुत कार्यकलापों का भी वर्णन कर चुके हैं। मैं भाग्यशाली हूँ कि मैंने आपसे ये सारी बातें सुनीं।

2-3 द्रविड़ देश के साधु सदृश राजा सत्यव्रत को भगवतकृपा से गत कल्प के अन्त में आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त हुआ और वह अगले मन्वन्तर में विवस्वान का पुत्र वैवस्वत मनु बना। मुझे इसका ज्ञान आपसे प्राप्त हुआ ह

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अध्याय तेईस – देवताओं को स्वर्गलोक की पुनर्प्राप्ति (8.23)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब परम पुरातन नित्य भगवान ने सर्वत्र मान्य शुद्ध भक्त एवं महात्मा बलि महाराज से यह कहा तो बलि महाराज ने आँखों में आँसू भरकर, हाथ जोड़कर तथा भक्तिभाव के कारण लड़खड़ाती वाणी में इस प्रकार कहा।

2 बलि महाराज ने कहा: आपको सादर नमस्कार करने के प्रयास में भी कैसा अद्भुत प्रभाव है! मैंने तो आपको नमस्कार अर्पित करने का प्रयास ही किया था, किन्तु वह प्रयास शुद्ध भक्तों के प्रयासों के समान सफल सिद्ध हुआ। आपने मुझ पतित असुर

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अध्याय अठारह – राजा इन्द्र का वध करने के लिए दिति का व्रत (6.18)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: पृश्नि, जो अदिति के पाँचवें पुत्र सविता की पत्नी थी, उनसे तीन पुत्रियाँ सावित्री, व्याह्यति तथा त्रयी और अग्निहोत्र, पशु, सोम, चार्तुमास्य तथा पंच महायज्ञ नामक पुत्र उत्पन्न हुए।

2 हे राजन! अदिति के छठे पुत्र भग की पत्नी का नाम सिद्धि था जिसके महिमा, विभु तथा प्रभु नामक तीन पुत्र तथा आशीष नामक एक अत्यन्त सुन्दरी कन्या उत्पन्न हुई।

3-4 अदिति के सातवें पुत्र धाता की चार पत्नियाँ थीं जिनके नाम थे कुहु,

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अध्याय सत्रह – माता पार्वती द्वारा चित्रकेतु को शाप (6.17)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जिस दिशा में भगवान अनन्त अन्तर्धान हुए थे उस दिशा की ओर नमस्कार करके, राजा चित्रकेतु विद्याधरों का अगुवा बनकर बाह्य अन्तरिक्ष में यात्रा करने लगा।

2-3 महान साधुओं तथा मुनियों एवं सिद्धलोक तथा चारणलोक के वासियों द्वारा प्रशंसित, सर्वाधिक शक्तिशाली योगी चित्रकेतु लाखों वर्षों तक जीवन का आनन्द भोगता हुआ विचरता रहा। शारीरिक शक्ति तथा इन्द्रियों के क्षीण हुए बिना वह सुमेरु पर्वत की घाटियों में वहाँ घूमता रहा जो

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अध्याय सोलह – राजा चित्रकेतु की परमेश्वर से भेंट (6.16)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा परीक्षित! नारद ऋषि ने अपनी योगशक्ति से शोकाकुल स्वजनों के समक्ष उस पुत्र को ला दिया और फिर वे इस प्रकार बोले।

2 श्री नारद मुनि ने कहा: हे जीवात्मा! तुम्हारा कल्याण हो। जरा अपने माता-पिता को तो देखो। तुम्हारे चले जाने (मरने) से तुम्हारे समस्त मित्र तथा सम्बन्धी शोकाकुल हैं।

3 तुम असमय ही मरे थे इसलिए तुम्हारी आयु अब भी शेष है। अतः तुम अपने शरीर में पुनः प्रवेश करके अपने मित्रों तथा स्वजनों की संगति में

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अध्याय पन्द्रह – नारद तथा अंगिरा ऋषियों द्वारा राजा चित्रकेतु को उपदेश (6.15)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी बोले--- जब राजा चित्रकेतु शोकग्रस्त होकर अपने पुत्र के शव के निकट पड़े मृतप्राय हुए थे तो नारद तथा अंगिरा नामक दो महर्षियों ने उन्हें आध्यात्मिक चेतना के सम्बन्ध में इस प्रकार उपदेश दिया।

2 हे राजन! जिस शव के लिए तुम शोक कर रहे हो उसका तुमसे और तुम्हारा उसके साथ क्या सम्बन्ध है? तुम कह सकते हो कि इस समय तुम पिता हो और वह पुत्र है, किन्तु क्या तुम सोचते हो कि यह सम्बन्ध पहले भी था? क्या सचमुच अब भी

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अध्याय चौदह – राजा चित्रकेतु का शोक (6-14)

1 राजा परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा -- हे विद्वान ब्राह्मण! रजो तथा तमो गुणों से आविष्ट होने के कारण असुर सामान्यतः पापी होते हैं। तो फिर वृत्रासुर भगवान नारायण के प्रति इतना परम प्रेम किस प्रकार प्राप्त कर सका?

2 प्रायः सत्त्वमय देवता तथा भौतिक सुख-रूपी रज से निष्कलंक ऋषि अत्यन्त कठिनाई से मुकुन्द के चरणकमलों की शुद्ध भक्ति कर पाते हैं। [तो फिर वृत्रासुर इतना बड़ा भक्त किस प्रकार बन सका?]

3 इस भौतिक जगत में जीवात्माओं की संख्या उतनी ही है जि

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अध्याय तेरह – ब्रह्महत्या से पीड़ित राजा इन्द्र (6.13)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे महादानी राजा परीक्षित! वृत्रासुर के वध से इन्द्र के अतिरिक्त तीनों लोकों के लोकपाल एवं समस्त निवासी तुरन्त ही प्रसन्न हुए और उनकी सब चिन्ताएँ जाती रहीं।

2 तत्पश्चात सभी देवता महान साधु पुरुष, पितर, भूत, असुर, देवताओं के अनुचर तथा ब्रह्मा, शिव तथा इन्द्र के अधीन देवगण अपने-अपने धामों को लौट गये। किन्तु विदा लेते समय वे इन्द्र से कुछ बोले नहीं।

3 महाराज परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा – हे मुनि! इन

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अध्याय बारह – वृत्रासुर की यशस्वी मृत्यु (6.12)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अपना शरीर छोड़ने की इच्छा से वृत्रासुर ने विजय की अपेक्षा युद्ध में अपनी मृत्यु को श्रेयस्कर समझा। हे राजा परीक्षित! उसने अत्यन्त बलपूर्वक अपना त्रिशूल उठाया और बड़े वेग से स्वर्ग के राजा पर उसी प्रकार से आक्रमण किया जिस प्रकार ब्रह्माण्ड के जलमग्न होने पर कैटभ ने श्रीभगवान पर बड़े ही बल से आक्रमण किया था।

2 तब असुरों में महान वीर वृत्रासुर ने कल्पान्त (प्रलय) की धधकती अग्नि की लपटों के समान तीखी नोकों वाले त्रिशूल को अत

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अध्याय ग्यारह – वृत्रासुर के दिव्य गुण (6.11)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन ! असुरों के प्रधान सेनानायक वृत्रासुर ने अपने सेनानायकों को धर्म के नियमों का उपदेश दिया, किन्तु वे कायर तथा भगोड़े सेनानायक भय से इतने विचलित हो चुके थे कि उन्होंने उसके वचनों को नहीं माना।

2-3 हे राजा परीक्षित! समयानुकूल अवसर का लाभ उठाकर देवताओं ने असुरों की सेना पर पीछे से आक्रमण कर दिया और असुर सैनिकों को ऐसे खदेड़ दिया, मानो उनकी सेना में कोई नायक ही न हो। अपने सैनिकों की दयनीय दशा को देखकर असुरश्रेष्ठ वृत्र

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अध्याय दस – देवताओं तथा वृत्रासुर के मध्य युद्ध (6.10)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार इन्द्र को आदेश देकर भगवान हरि, जो दृश्य जगत के कारण – स्वरूप हैं, देवताओं के देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गये।

2 हे राजा परीक्षित! भगवान की आज्ञानुसार देवतागण अथर्वा के पुत्र दधीचि के पास पहुँचे। वे अत्यन्त उदार थे और जब देवताओं ने उनसे शरीर देने के लिए प्रार्थना की तो वे तुरन्त तैयार हो गये। किन्तु उनसे धार्मिक उपदेश सुनने के उद्देश्य से वे हँसे और विनोद में इस प्रकार बोले।

3 हे देवताओं मृत्यु के सम

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अध्याय नौ – वृत्रासुर राक्षस का आविर्भाव (6.9)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: देवताओं के पुरोहित विश्वरूप के तीन सिर थे। इनमें से एक से वह सोमपान करता था, तो दूसरे से मदिरा पान और तीसरे से भोजन ग्रहण करता था। हे राजा परीक्षित! ऐसा मैंने विद्वानों से सुना है।

2 हे महाराज परीक्षित! देवतागण विश्वरूप के पितापक्ष से सम्बन्धित थे, अतः विश्वरूप सबों के समक्ष अग्नि में घी की आहुति इन मंत्रों का उच्चारण करके दे रहा था – ”इन्द्राय इदं स्वाहा" (यह राजा इन्द्र के लिए है) तथा "इदं अग्नये" (यह अग्निदेव के लि

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नारायण-कवच (6.8)

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अध्याय आठ – नारायण-कवच (6.8)

1 राजा परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा-- हे प्रभों ! कृपा करके मुझे वह विष्णु-मंत्र-कवच बताएँ जिससे राजा इन्द्र की रक्षा हो सकी और वह अपने शत्रुओं को उनके वाहनों सहित परास्त करके तीनों लोकों के ऐश्वर्य का उपभोग कर सका।

2 कृपया मुझे नारायण-कवच बताएँ जिसके द्वारा इन्द्र ने युद्ध में अपने उन शत्रुओं को हराकर सफलता प्राप्त की जो उसे मारने का प्रयत्न कर रहे थे।

3 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: देवताओं के राजा इन्द्र ने देवताओं के द्वारा पुरोहित के रूप में नियुक्त

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अध्याय सात – इन्द्र द्वारा गुरु बृहस्पति का अपमान (6.7)

1 महाराज परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा- हे महामुनि! देवताओं के गुरु बृहस्पति ने देवताओं का परित्याग क्यों किया जो उनके ही शिष्य थे। देवताओं ने अपने गुरु के साथ ऐसा कौन सा अपराध किया? कृपया मुझसे इस घटना का वर्णन करें।

2-8 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! एक बार तीनों लोकों के ऐश्वर्य से अत्यधिक गर्वित हो जाने के कारण स्वर्ग के राजा इन्द्र ने वैदिक आचार-संहिता का उल्लंघन कर दिया। वे सिंहासन पर आसीन थे और उनके चारों ओर मरुत,

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अध्याय छह – दक्ष की कन्याओं का वंश (6.6)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! तदनन्तर ब्रह्माजी की प्रार्थना पर प्रजापति दक्ष ने, जिन्हें प्राचेतस कहा जाता है, अपनी पत्नी असिक्नी के गर्भ से साठ कन्याएँ उत्पन्न कीं। सभी कन्याएँ अपने पिता को अत्यधिक स्नेह करती थीं।

2 उन्होंने धर्मराज (यमराज) को दस, कश्यप को तेरह, चन्द्रमा को सत्ताईस तथा अंगिरा, कृशाश्व एवं भूत को दो-दो कन्याएँ दान स्वरूप दीं। शेष चार कन्याएँ कश्यप को दे दी गई (इस प्रकार कश्यप को कुल सत्रह कन्याएँ प्राप्त हुई)

3 अब मुझसे इन समस

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अध्याय पाँच – प्रजापति दक्ष द्वारा नारद मुनि को शाप (6.5)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान विष्णु की माया से प्रेरित होकर प्रजापति दक्ष ने पाञ्चजनी (असिक्नी) के गर्भ से दस हजार पुत्र उत्पन्न किये। हे राजन ! ये पुत्र हर्यश्व कहलाये।

2 हे राजन ! प्रजापति दक्ष के सारे पुत्र समान रूप से अत्यन्त विनम्र तथा अपने पिता के आदेशों के प्रति आज्ञाकारी थे। जब उनके पिता ने सन्तानें उत्पन्न करने के लिए उन्हें आदेश दिया तो वे सभी पश्चिमी दिशा की ओर चले गये।

3 पश्चिम में, जहाँ सिन्धु नदी सागर में मिलती है,

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अध्याय चार -- प्रजापति दक्ष द्वारा भगवान से की गई हंसगुह्य प्रार्थनाएँ (6.4)

1-2 वर प्राप्त राजा ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से कहा: हे प्रभु! देवता, असुर, मनुष्य, नाग, पशु तथा पक्षी स्वायम्भुव मनु के शासन काल में उत्पन्न किये गये थे। आपने इस सृष्टि के विषय में संक्षेप में (तृतीय स्कन्ध में) कहा है। अब मैं इसके विषय में विस्तार से जानना चाहता हूँ। मैं भगवान की उस शक्ति के विषय में भी जानना चाहता हूँ जिससे उन्होंने गौण सृष्टि की।

3 सूत गोस्वामी ने कहा: हे (नैमिषारण्य में एकत्र) महामुनियों ! जब महान

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अध्याय तीन – यमराज द्वारा अपने दूतों को आदेश (6.3)

1 राजा परीक्षित ने कहा: हे प्रभु, हे श्रील शुकदेव गोस्वामी! यमराज सारे जीवों के धार्मिक तथा अधार्मिक कार्यों के नियंत्रक हैं, लेकिन उनका आदेश व्यर्थ कर दिया गया है। जब उनके सेवकों अर्थात यमदूतों ने उनसे विष्णुदूतों द्वारा अपनी पराजय की जानकारी दी जिन्होंने उन्हें अजामिल को बन्दी बनाने से रोका था, तो यमराज ने क्या उत्तर दिया?

2 हे महर्षि! इसके पूर्व यह कहीं भी सुनाई नहीं पड़ा कि यमराज के आदेश का उल्लंघन हुआ हो। इसलिए मैं सोचता हूँ कि लोगों को इस पर

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