अध्याय दो – महाराज आग्नीध्र का चरित्र (5.2)
1 श्रील शुकदेव गोस्वामी आगे बोले–अपने पिता महाराज प्रियव्रत के इस प्रकार आध्यात्मिक जीवन पथ अपनाने के लिए तपस्या में संलग्न हो जाने पर राजा आग्नीध्र ने उनकी आज्ञा का पूरी तरह पालन किया और धार्मिक नियमों के अनुसार उन्होंने जम्बूद्वीप के वासियों को अपने ही पुत्रों के समान सुरक्षा प्रदान की।
2 एक बार महाराज आग्नीध्र ने सुयोग्य पुत्र प्राप्त करने तथा पितृलोक का वासी बनने की कामना से भौतिक सृष्टि के स्वामी भगवान ब्रह्मा की आराधना की। वे मन्दाराचल की घाटी में गये जहाँ स्वर्गलोक की सुन्दरियाँ विहार करने आती हैं। वहाँ उन्होंने वाटिका से फूल तथा अन्य आवश्यक सामग्री एकत्र की और फिर कठिन तप तथा उपासना में लग गये।
3 इस ब्रह्माण्ड के सर्वशक्तिमान तथा आदि पुरुष भगवान ब्रह्मा ने राजा आग्नीध्र की अभिलाषा जानकर अपनी सभा की श्रेष्ठ अप्सरा को, जिसका नाम पूर्वचित्ति था, चुनकर राजा के पास भेजा।
4 श्री ब्रह्मा द्वारा भेजी गई अप्सरा उस उपवन के निकट विचरने लगी जहाँ राजा ध्यान में लगकर आराधना कर रहा था। वह उपवन सघन वृक्षों तथा स्वर्णिम लताओं के कारण अत्यन्त रमणीय था। उस स्थल पर मयूर जैसे अनेक पक्षियों के जोड़े और सरोवर में बत्तख तथा हंस सुमधुर कूजन कर रहे थे। इस प्रकार वह उपवन वृक्षों, निर्मल जल, कमल पुष्प तथा सुमधुर कूजन करते विविध पक्षियों के कारण अत्यन्त सुन्दर लग रहा था।
5 ज्योंही अत्यन्त मनोहर गति तथा हावभाव से युक्त पूर्वचित्ति उस पथ से निकली त्योंही प्रत्येक पग पर चरण-नूपुरों की झनकार होने लगी। यद्यपि राजकुमार आग्नीध्र अधखुले नेत्रों से योग साध कर इन्द्रियों को वश में कर रहे थे, किन्तु कमल सदृश नेत्रों से वे उसे देख सकते थे। तभी उन्हें उसके कंगनों की मधुर झनकार सुनाई दी। उन्होंने अपने नेत्रों को कुछ और खोला, तो देखा कि वह उनके बिलकुल निकट थी।
6-16 वह अप्सरा सुन्दर तथा आकर्षक फूलों को मधुमक्खी के समान सूँघ रही थी। वह अपनी चपल गति, लज्जा, विनय, चितवन तथा मुख से निकलने वाली मधुर ध्वनि और अपने अंगों की गति से मनुष्यों तथा देवताओं के मन तथा ध्यान को आकर्षित करने वाली थी। जब वह बोलती, तो उसके मुख से अमृत झरता था। उसके श्वास लेने पर श्वास का स्वाद लेने के लिए भौंरे मदान्ध होकर उसके कमलवत नेत्रों के चारों ओर मँडराने लगते। संक्षेप में पूर्वचित्ति नामक स्वर्ग कन्या आकर्षक वेष बनाकर विविध प्रकार के स्त्रियोचित हाव-भावों के साथ महाराज आग्नीध्र के समक्ष आई। उस कन्या की गति, हावभाव, मुस्कान, मृदु वचन तथा चंचल चितवन उन्हें सम्मोहक लगी।
17 श्रील शुकदेव गोस्वामी आगे बोले- महाराज आग्नीध्र देवताओं के समान बुद्धिमान और स्त्रियों को रिझा करके अपने पक्ष में कर लेने की कला में अत्यन्त निपुण थे। अतः उन्होंने उस स्वर्गकन्या को अपनी वाकपटुता से प्रसन्न करके उसको अपने पक्ष में कर लिया।
18 आग्नीध्र की बुद्धि, तरुणाई, सौन्दर्य, ऐश्वर्य तथा उदारता से आकर्षित होकर पूर्वचित्ति जम्बूद्वीप के राजा तथा समस्त वीरों के स्वामी आग्नीध्र के साथ कई हजार वर्षों तक रही और उसने भौतिक तथा स्वर्गिक दोनों प्रकार के सुखों का भरपूर भोग किया।
19 राजाओं में श्रेष्ठ महाराज आग्नीध्र को पूर्वचित्ति के गर्भ से नौ पुत्र प्राप्त हुए जिनके नाम नाभि, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्यक, हिरण्यमय, कुरु, भद्राश्व तथा केतुमाल थे।
20 पूर्वचित्ति ने प्रति वर्ष एक-एक करके इन नौ पुत्रों को जन्म दिया, किन्तु जब वे बड़े हो गये, तो वह उन्हें घर पर छोड़कर ब्रह्मा की उपासना करने के लिए उनके पास उपस्थित हुई।
21 अपनी माता के अनुग्रह से आग्नीध्र के नवों पुत्र अत्यन्त बलिष्ठ एवं सुगठित शरीर वाले हुए। उनके पिता ने प्रत्येक को जम्बूद्वीप का एक-एक भाग दे दिया। इन राज्यों के नाम पुत्रों के नामों के अनुसार पड़े। इस प्रकार आग्नीध्र के सभी पुत्र पिता से प्राप्त राज्यों पर राज्य करने लगे।
22 पूर्वचित्ति के चले जाने पर, राजा आग्नीध्र उसी के विषय में सोचते रहते। अतः वैदिक आज्ञाओं के अनुसार राजा मृत्यु के पश्चात उसी लोक में गये जहाँ उनकी पत्नी थी। यह लोक पितृलोक कहलाता है जहाँ कि पितरगण अत्यन्त आनन्द से रहते हैं।
23 अपने पिता के प्रयाण के पश्चात नवों भाइयों ने मेरु की नौ पौत्रियों के साथ विवाह कर लिया, जिनके नाम मेरुदेवी, प्रतिरूपा, उग्रदंष्ट्री, लता, रम्या, श्यामा, नारी, भद्रा तथा देववीति थे।
( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )
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