हिन्दी भाषी संघ (229)

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अध्याय दो – विष्णुदूतों द्वारा अजामिल का उद्धार (6.2)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! भगवान विष्णु के दूत नीति तथा तर्कशास्त्र में अति पटु होते हैं। यमदूतों के कथनों को सुनने के बाद उन्होंने इस प्रकार उत्तर दिया।

2 विष्णुदूतों ने कहा: हाय! यह कितना दुःखद है कि ऐसी सभा में जहाँ धर्म का पालन होना चाहिए, वहाँ अधर्म को लाया जा रहा है। दरअसल, धार्मिक सिद्धान्तों का पालन करने के अधिकारीजन एक निष्पाप एवं अदण्डनीय व्यक्ति को व्यर्थ ही दण्ड दे रहे हैं।

3 राजा या सरकारी शासक को इतना सुयोग्य होना

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अध्याय एक – अजामिल के जीवन का इतिहास (6.1)

1 महाराज परीक्षित ने कहा: हे प्रभु! हे श्रील शुकदेव गोस्वामी, आप पहले ही (द्वितीय स्कन्ध में) मुक्ति-मार्ग (निवृत्ति मार्ग) का वर्णन कर चुके हैं। उस मार्ग का अनुसरण करने से मनुष्य निश्चित रूप से क्रमशः सर्वोच्च लोक अर्थात ब्रह्मलोक तक ऊपर उठ जाता है, जहाँ से वह ब्रह्मा के साथ-साथ आध्यात्मिक (वैकुण्ठ) जाता है। इस तरह भौतिक जगत में जन्म-मृत्यु का चक्र समाप्त हो जाता है।

2 हे मुनि श्रील शुकदेव गोस्वामी! जब तक जीव प्रकृति के भौतिक गुणों के संक्रमण से मुक्त

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अध्याय पच्चीस -- भगवान अनन्त की महिमा (5.25)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित से कहा: हे राजन, पाताल लोक से 240000 मील नीचे श्रीभगवान के एक अन्य अवतार निवास करते हैं। वे भगवान अनन्त अथवा भगवान संकर्षण कहलाते हैं और भगवान विष्णु के अंश हैं। वे सदैव दिव्य पद पर आसीन हैं किन्तु तमोगुणी देवता भगवान शिव के आराध्य होने के कारण कभी-कभी तामसी कहलाते हैं। भगवान अनन्त सभी बद्धजीवों के अहं तथा तमोगुण के प्रमुख देवता हैं। जब बद्धजीव यह सोचता है कि यह संसार भोग्य है और मैं उसका भोक्ता हूँ तो यह जीवन

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 10876581475?profile=RESIZE_584xअध्याय चौबीस – नीचे के स्वर्गीय लोकों का वर्णन (5.24)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी बोले- हे राजन, कुछ पुराण-वाचकों का कथन है की सूर्य से 10000 योजन (80000 मील) योजन नीचे राहू नामक ग्रह है जो नक्षत्रों की भाँति घूमता है। इस ग्रह का अधिष्ठाता देवता, जो सिंहिका का पुत्र है समस्त असुरों में घृणास्पद है और इस पद के लिए सर्वथा अयोग्य होने पर भी श्रीभगवान की कृपा से उसे प्राप्त कर सका है। मैं उसके विषय में आगे कहूँगा।

2 ऊष्मा के स्रोत सूर्य के गोलक का विस्तार 10000 योजन (80000 मील) है। चन्द्रमा का 20000

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अध्याय तेईस -- शिशुमार ग्रह-मण्डल (5.23)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजन, सप्तर्षि-मण्डल से 1300000 योजन (10400000 मील) ऊपर भगवान विष्णु का धाम कहा जाता है। वहाँ पर अब भी महाराज उत्तानपाद के पुत्र, परम भक्त महाराज ध्रुव वास करते हैं, जो इस सृष्टि के अन्त तक रहने वाले समस्त जीवात्माओं के प्राणाधार हैं। वहाँ पर इन्द्र, अग्नि, प्रजापति, कश्यप तथा धर्म सभी समवेत होकर उनका आदर करते हैं और नमस्कार करते हैं। वे उनके दाईं ओर रहकर उनकी प्रदक्षिणा करते है। मैं पहले ही महाराज ध्रुव के यशस्वी कार

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अध्याय बाईस – ग्रहों की कक्ष्याएँ (5.22)

1 राजा परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा- हे भगवान, आपने पहले ही इस सत्य की पुष्टि की है कि परम शक्तिमान सूर्यदेव ध्रुवलोक तथा सुमेरु पर्वत को अपने दाएँ रखकर ध्रुवलोक की परिक्रमा करते हैं, तो भी वे राशियों की ओर मुख किये रहते हैं और सुमेरु तथा ध्रुवलोक को अपने बाएँ भी रखते हैं, अतः हम तर्क तथा निर्णय द्वारा कैसे स्वीकारें कि हर समय सूर्यदेव, सुमेरु तथा ध्रुवलोक को दाएँ तथा बाएँ दोनों ओर रखते हुए चलते हैं?

2 श्रील शुकदेव ने उत्तर दिया- जब कुम्हार के

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अध्याय इक्कीस – सूर्य की गतियों का वर्णन (5.21)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, मैंने यहाँ तक आपसे विद्वानों के अनुमानों के आधार पर ब्रह्माण्ड के व्यास (पचास करोड़ योजन या चार अरब मील) तथा इसके सामान्य लक्षणों का वर्णन किया है।

2 जिस प्रकार गेहूँ के दाने को भागों में विभाजित कर देने पर निचले भाग के परिमाण (आकार) का ज्ञान होने पर ऊपरी भाग का पता लगाया जाता है उसी प्रकार भूगोलवेत्ताओं का कहना है कि इस ब्रह्माण्ड के ऊपरी भाग की माप को तभी समझा जा सकता है, जब निचले भाग की माप ज्ञात हो। भूलोक

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अध्याय बीस – ब्रह्माण्ड रचना का विश्लेषण (5.20)

1 महर्षि श्रील शुकदेव गोस्वामी बोले- इसके पश्चात मैं प्लक्षादि अन्य छह द्वीपों के आकार प्रकार, लक्षण तथा स्थिति का वर्णन करूँगा।

2 जिस प्रकार सुमेरु पर्वत चारों ओर से घिरा हुआ है, उसी प्रकार जम्बूद्वीप भी लवण के सागर से घिरा है। जम्बूद्वीप की चौड़ाई 100000 योजन (800000 मील) है और लवण का सागर भी इतना ही चौड़ा है। जिस तरह कभी-कभी दुर्ग की खाई उपवन से घिरी रहती है उसी प्रकार जम्बूद्वीप को घेरने वाला लवण-सागर भी प्लक्षद्वीप से घिरा हुआ है। प्लक्षद्वीप की

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अध्याय उन्नीस – जम्बूद्वीप का वर्णन (5.19)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी बोले – हे राजन, किम्पुरुषवर्ष में महान भक्त हनुमान वहाँ के निवासियों सहित लक्ष्मण के अग्रज तथा सीतादेवी के पति भगवान रामचन्द्र की सेवा में सदैव तत्पर रहते हैं।

2 गन्धर्वों का समूह सदा ही भगवान रामचन्द्र के यशों का गान करता है। ऐसा गायन अत्यन्त मंगलकारी होता है। हनुमानजी तथा किम्पुरुषवर्ष के प्रधान पुरुष आर्ष्टिषेण अत्यन्त मनोयोग से इस यशोगान का निरन्तर श्रवण करते हैं। हनुमानजी निम्न मंत्रों का जप करते हैं ।

3 हे प्रभो, मैं ॐकार बी

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अध्याय अठारह -- जम्बूद्वीप के निवासियों द्वारा भगवान की स्तुति (5.18)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी बोले- धर्मराज के पुत्र भद्रश्रवा भद्राश्ववर्ष नामक भूखण्ड में राज्य करते हैं। जिस प्रकार इलावृतवर्ष में भगवान शिव संकर्षण की पूजा करते हैं उसी प्रकार भद्रश्रवा अपने सेवकों तथा राज्य के समस्त वासियों समेत वासुदेव के स्वांश हयशीर्ष की पूजा करते हैं। हयशीर्ष भक्तों को अत्यन्त प्रिय हैं और वे समस्त धार्मिक विधानों के निदेशक हैं। गहन समाधि में स्थित भद्रश्रवा तथा उनके सेवक भगवान को सादर नमस्कार करते हैं और सा

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गंगा-अवतरण (5.17)

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अध्याय सत्रह – गंगा-अवतरण (5.17)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, सभी यज्ञों के भोक्ता भगवान विष्णु महाराज बलि की यज्ञशाला में वामनदेव का रूप धारण करके प्रकट हुए। तब उन्होंने अपने वाम पाद को ब्रह्माण्ड के छोर तक फैला दिया और अपने पैर के अँगूठे से उसके आवरण में एक छिद्र बना दिया। कारण-समुद्र के विशुद्ध जल ने, इस छिद्र के माध्यम से गंगा नदी के रूप में इस ब्रह्माण्ड में प्रवेश किया। विष्णु के चरणकमलों को, जो केशर से लेपित थे, धोने से गंगा का जल अत्यन्त मनोहर गुलाबी रंग का हो गया। गंगा के दि

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अध्याय सोलह – जम्बूद्वीप का वर्णन (5.16)

1 राजा परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से कहा: हे ब्राह्मण, आपने मुझे पहले ही बता दिया है कि भूमण्डल की त्रिज्या वहाँ तक विस्तृत है जहाँ तक सूर्य का प्रकाश और ऊष्मा पहुँचती है तथा चन्द्रमा और अन्य नक्षत्र दृष्टिगोचर होते हैं।

2 हे भगवन, महाराज प्रियव्रत के रथ के चक्रायमाण पहियों से सात गड्डे हुए, जिससे सात समुद्रों की उत्पत्ति हुई। इन सात समुद्रों के ही कारण भूमण्डल सात द्वीपों में विभक्त है। आपने इनकी माप, नाम तथा विशिष्टताओं का अत्यन्त सामान्य वर्णन

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अध्याय पन्द्रह – राजा प्रियव्रत के वंशजों का यश-वर्णन (5.15)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: महाराज भरत के पुत्र सुमति ने ऋषभदेव के मार्ग का अनुसरण किया, किन्तु कुछ पाखण्डी लोग उन्हें साक्षात भगवान बुद्ध मानने लगे। वस्तुतः इन पाखण्डी नास्तिक और दुश्चरित्र लोगों ने वैदिक नियमों का पालन काल्पनिक तथा अप्रसिद्ध ढंग से अपने कर्मों की पुष्टि के लिए किया। इस प्रकार इन पापात्माओं ने सुमति को भगवान बुद्धदेव के रूप में स्वीकार किया और इस मत का प्रवर्तन किया कि प्रत्येक व्यक्ति को सुमति के नियमों का पा

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अध्याय चौदह – भौतिक संसार भोग का एक विकट वन (5.14)

1 राजा परीक्षित ने जब श्रील शुकदेव गोस्वामी से भौतिक वन का अर्थ स्पष्ट करने के लिए कहा तो उन्होंने इस प्रकार उत्तर दिया--- हे राजन, वणिक की रुचि सदैव धन उपार्जन के प्रति रहती है। कभी-कभी वह लकड़ी तथा मिट्टी जैसी कुछ अल्पमूल्य की वस्तुएँ प्राप्त करने और उन्हें ले जाकर नगर में अच्छे मूल्य में विक्रय करने की आकांक्षा से वन में प्रवेश करता है। इसी प्रकार बद्धजीव लोभवश कुछ भौतिक सुख-लाभ करने की इच्छा से इस भौतिक जगत में प्रवेश करता है। धीरे-धीरे वह वन

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अध्याय तेरह - राजा रहूगण तथा जड़ भरत के बीच और आगे वार्ता (5.13)

1 ब्रह्म-साक्षात्कार प्राप्त जड़ भरत ने आगे कहा: हे राजा रहूगण, जीवात्मा इस संसार के दुर्लंघ्य पथ पर घूमता रहता है और बारम्बार जन्म तथा मृत्यु स्वीकार करता है। प्रकृति के तीन गुणों (सत्त्व, रज तथा तम) के प्रभाव से इस संसार के प्रति आकृष्ट होकर जीवात्मा प्रकृति के जादू से केवल तीन प्रकार के फल जो शुभ, अशुभ तथा शुभाशुभ होते हैं देख पाता है। इस प्रकार वह धर्म, आर्थिक विकास, इन्द्रियतृप्ति तथा मुक्ति की अद्वैत भावना (परमात्मा में तादात्म

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अध्याय ग्यारह – जड़ भरत द्वारा राजा रहूगण को शिक्षा (5.11)

1 ब्राह्मण जड़ भरत ने कहा: हे राजन, यद्यपि तुम थोड़ा भी अनुभवी नहीं हो तो भी तुम अत्यन्त अनुभवी व्यक्ति के समान बोलने का प्रयत्न कर रहे हो। अतः तुम्हें अनुभवी व्यक्ति नहीं माना जा सकता। अनुभवी व्यक्ति कभी भी तुम्हारे समान स्वामी तथा सेवक अथवा भौतिक सुखों और दुखों के सम्बन्ध में इस प्रकार से नहीं बोलता। ये तो मात्र बाह्य कार्य हैं। कोई भी महान अनुभवी व्यक्ति परम सत्य को जानते हुए इस प्रकार बातें नहीं करता।

2 हे राजन, स्वामी तथा सेवक, राजा तथ

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अध्याय नौ – जड़ भरत का सर्वोत्कृष्ट चरित्र (5.9)

1-2 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजन, मृग शरीर त्याग कर भरत महाराज ने एक विशुद्ध ब्राह्मण के कुल में जन्म लिया। वह ब्राह्मण अंगिरा गोत्र से सम्बन्धित था और ब्राह्मण के समस्त गुणों से सम्पन्न था। वह अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में करनेवाला तथा वैदिक एवं अन्य पूरक साहित्यों का ज्ञाता था। वह दानी, संतुष्ट, सहनशील, विनम्र, पण्डित तथा किसी से ईर्ष्या न करने वाला था। वह स्वरूपसिद्ध एवं ईश्वर की सेवा में तत्पर रहने वाला था। वह सदैव समाधि में रहता

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भगवद्भक्ति में रत महाराज भरत का हिरण में आसक्त होकर शनैः शनै: अपने दैनिक यम, नियम, उपासनादि से विलग हो जाना (5.8.8)

अध्याय आठ – भरत महाराज के चरित्र का वर्णन (5.8)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजन! एक दिन प्रातःकालीन नित्य-नैमित्तिक शौचादि कृत्यों से निवृत्त होकर महाराज भरत कुछ क्षणों के लिए गण्डकी नदी के तट पर बैठकर ओंकार से प्रारम्भ होनेवाले अपने मंत्र का जप करने लगे।

2 हे राजन, जब महाराज भरत नदी के तट पर बैठे हुए थे उसी समय एक प्यासी हिरणी पानी पीने आई।

3 जब वह हिरणी अगाध तृप्ति के स

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अध्याय सात – राजा भरत के कार्यकलाप (5.7)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित को और आगे बताया- हे राजन, भरत महाराज सर्वोच्च भक्त थे। अपने पिता (जिन्होंने उन्हें सिंहासन पर बैठाने का निर्णय पहले ही ले रखा था) की आज्ञा का पालन करते हुए वे तदनुसार पृथ्वी पर राज्य करने लगे। समस्त संसार पर राज्य करते हुए वे अपने पिता के आदेशों का पालन करने लगे और उन्होंने विश्वरूप की कन्या पञ्चजनी से विवाह कर लिया।

2 जिस प्रकार मिथ्या अहंकार से भूत-तन्मात्र (सूक्ष्म-इन्द्रिय विषय) उत्पन्न होते हैं, वैसे ही महा

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अध्याय छह – भगवान ऋषभदेव के कार्यकलाप (5.6)

1 राजा परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा-- हे भगवन, जो पूर्णरूपेण विमल हृदय हैं उन्हें भक्तियोग से ज्ञान प्राप्त होता है और सकाम कर्म के प्रति आसक्ति जलकर राख हो जाती है। ऐसे व्यक्तियों में योग शक्तियाँ स्वतः उत्पन्न होती हैं। इनसे किसी प्रकार का क्लेश नहीं पहुँचता, तो फिर ऋषभदेव ने उनकी उपेक्षा क्यों की?

2 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया- हे राजन, तुमने बिल्कुल सत्य कहा है। किन्तु जिस प्रकार चालाक बहेलिया पशुओं को पकड़ने के बाद उन पर विश्वास

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