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भगवान कृष्ण को अवतारी भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है, “जिनसे समस्त अवतार उद्भूत होते हैं।" भगवद गीता (10.8) में भगवान कृष्ण कहते हैं – अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते – मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का उद्गम हूँ, हर वस्तु मुझ ही से उद्भूत है। -तात्पर्य श्रीमद भागवतम (4.17.6-7) ~श्रील प्रभुपाद~!

अध्याय सत्रह – महाराज पृथु का पृथ्वी पर कुपित होना (4.17)

1 मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा: इस प्रकार उन गायकों ने जो महाराज पृथु की महिमा का गायन कर रहे थे, उनके गुणों तथा वीरतापूर्ण कार्यों का वर्णन किया। अन्त में महाराज पृथु ने सम्मानपूर्वक उन्हें अनेक भेंटें प्रदान कीं और उनकी यथेष्ट पूजा की।

2 राजा पृथु ने ब्राह्मण तथा अन्य जातियों के समस्त नायकों, अपने नौकरों, मंत्रियों, पुरोहितों, नागरिकों, सामान्य देशवासियों, प्रशंसकों तथा अन्य सभी का सम्मान किया। इस प्रकार सभी अत्यन्त प्रसन्न हो गये।

3 विदुर ने मैत्रेय ऋषि से पूछा: हे ब्राह्मण, जब धरती माता अनेक रूप धारण कर सकती है, तो फिर उसने गाय का ही रूप क्यों ग्रहण किया? और जब राजा पृथु ने उसको दुहा तो कौन बछड़ा बना और दुहने का पात्र क्या था?

4 पृथ्वी की सतह स्वभावतः कहीं ऊँची है, तो कहीं नीची। तो फिर राजा पृथु ने पृथ्वी की सतह को कैसे समतल बनाया, और स्वर्ग के राजा इन्द्र ने यज्ञ के घोड़े को क्यों चुराया?

5 महान साधु राजा, महाराज पृथु, ने परम वैदिक विद्वान सनत्कुमार से ज्ञान प्राप्त किया। अपने जीवन में इस ज्ञान को व्यवहृत करने के लिए ज्ञान प्राप्त करके उस राजा ने इच्छित गन्तव्य किस प्रकार प्राप्त किया?

6-7 पृथु महाराज भगवान कृष्ण की शक्तियों के शक्त्यावेश अवतार थे। फलतः उनके कार्यों से सम्बन्धित कोई भी कथा सुनने में मनभावन लगती है और कल्याणकर होती है। मैं तो आपका तथा अधोक्षज भगवान का भी भक्त हूँ। अतः आप उन राजा पृथु की सभी कथाएँ सुनाएँ जिन्होंने राजा वेन के पुत्र के रूप में गोरूप धरती का दोहन किया।

8 सूत गोस्वामी ने आगे कहा- जब विदुर को भगवान कृष्ण के विविध अवतारों के कार्यकलापों को सुनने की प्रेरणा प्राप्त हुई तो मैत्रेय ने विदुर की प्रशंसा की क्योंकि वे स्वयं उनसे प्रोत्साहित और अत्यधिक प्रसन्न थे। तब मैत्रेय ने इस प्रकार कहा।

9 मैत्रेय ने आगे कहा: हे विदुर जब ब्राह्मणों तथा ऋषियों ने राजा पृथु को राजसिंहासन पर बिठा दिया तथा उन्हें नागरिकों का रक्षक घोषित किया तो उस समय अन्न का अभाव था। नागरिक भूख के मारे सूखकर काँटा हो गये थे, अतः वे राजा के समक्ष आये और उन्हें अपनी वास्तविक स्थिति कह सुनाई।

10-11 हे राजन, जिस प्रकार वृक्ष के कोटर में लगी आग वृक्ष को धीरे-धीरे सुखा देती है, उसी प्रकार हम जठराग्नि (भूख) से सूख रहे हैं। आप शरणागत जीवों के रक्षक हैं और आप हमें वृत्ति (जीविका) देने के लिए नियुक्त हुए हैं। अतः हम सभी आपके संरक्षण में आये हैं। आप केवल राजा ही नहीं हैं, आप भगवान के अवतार भी हैं। वास्तविक रूप में आप राजाओं के राजा हैं। आप हमें सभी प्रकार की जीविकाएँ प्रदान कर सकते हैं, क्योंकि आप हमारी जीविका के स्वामी हैं। अतः हे राजराजेश्वर, उचित अन्न वितरण के द्वारा हमारी भूख को शान्त करने की व्यवस्था कीजिये। आप हमारी रक्षा करें जिससे हम अन्न के अभाव से मरें नहीं।

12 नागरिकों के इस शोकालाप को सुनकर तथा उनकी दयनीय स्थिति देखकर राजा ने दीर्घकाल तक इस विषय पर विचार किया कि क्या वह मूलभूत कारणों को खोज सकता है?

13 ऐसा निश्चय करके, राजा ने अपना धनुष-बाण उठाया और पृथ्वी की ओर उसी प्रकार लक्षित किया जिस प्रकार शिवजी क्रोध से सारे जगत का विनाश कर देते हैं।

14 जब पृथ्वी ने देखा कि राजा पृथु उसे मारने के लिए धनुष-बाण धारण कर रहे हैं, तो वह भय के मारे काँपने लगी। उसके बाद वह उसी प्रकार भागी जिस प्रकार शिकारी द्वारा पीछा किये जाने पर हिरणी तेजी से भागती है। राजा के भय से पृथ्वी ने गाय का रूप धारण कर लिया और भागने लगी।

15 यह देखकर महाराज पृथु अत्यन्त क्रुद्ध हुए और उनकी आँखें प्रातःकालीन सूर्य की भाँति लाल-लाल हो गई। अपने धनुष पर बाण चढ़ाये वे जहाँ-जहाँ गोरूप पृथ्वी दौड़कर जाती, वहीं-वहीं उसका पीछा करते रहे।

16 गोरूप पृथ्वी स्वर्ग तथा पृथ्वी के बीच अन्तरिक्ष में इधर-उधर दौड़ने लगी और जहाँ भी वह जाती, राजा अपना धनुष-बाण लिए उसका पीछा करते रहे।

17 जिस प्रकार मनुष्य मृत्यु के क्रूर हाथों से बच नहीं सकता, उसी प्रकार गोरूप पृथ्वी वेन के पुत्र से नहीं बच सकी। अन्त में पृथ्वी भयभीत होकर और दुखित हृदय से असहायावस्था में पीछे की ओर मुड़ी।

18 परम ऐश्वर्यवान राजा पृथु को धर्म के ज्ञाता तथा शरणागतों के आश्रय के रूप में सम्बोधित करते हुए उसने कहा--कृपया मुझे बचाइये। आप समस्त जीवात्माओं के रक्षक हैं। अब आप इस लोक के राजा के रूप में पदस्थ हैं।

19 गोरूप पृथ्वी राजा से अनुनय-विनय करती रही – मैं अत्यन्त दीन हूँ और मैंने कोई पापकर्म नहीं किया। तो फिर आप मुझे क्यों मारना चाहते हैं? आप धर्म के नियमों को जाननेवाले हैं, तो फिर आप क्यों मुझसे द्वेष रख रहे हैं और क्यों एक स्त्री को मारने के लिए इस प्रकार उद्यत हैं?

20 यदि स्त्री कोई पापकर्म भी करे तो मनुष्य को उस पर हाथ नहीं उठाना चाहिए। हे राजन, आप तो इतने दयालु हैं कि आपके विषय में क्या कहा जाये? आप रक्षक हैं और दीनवत्सल हैं।

21 गोरूप पृथ्वी ने आगे कहा: हे राजन, मैं एक सुदृढ़ नाव के तुल्य हूँ और समस्त संसार की सारी सामग्री मुझी पर टिकी है। यदि आप मुझे छिन्न कर देंगे तो फिर आप अपने को तथा अपनी प्रजा को डूबने से किस प्रकार बचा पायेंगे?

22 राजा पृथु ने पृथ्वी को उत्तर दिया: हे पृथ्वी, तुमने मेरी आज्ञा तथा नियमों का उल्लंघन किया है। तुमने हमारे द्वारा सम्पन्न यज्ञों में देवता के रूप में अपना अंश ग्रहण किया है, किन्तु बदले में पर्याप्त अन्न नहीं उत्पन्न किया। इस कारण मैं तुम्हारा वध कर दूँगा।

23 यद्यपि तुम नित्य ही हरी घास चरती हो, किन्तु तुम हमारे उपयोग के लिए अपने थन को दूध से भरती नहीं हो। चूँकि तुम जान-बुझ कर अपराध कर रही हो, अतः तुम्हारे द्वारा गाय का रूप धारण करने के कारण तुम्हें दण्ड देना अनुचित नहीं कहा जा सकता।

24 तुमने इस तरह अपनी बुद्धि गँवा दी है कि मेरी आज्ञा के होते हुए भी तुम जड़ी-बूटियों तथा अन्नों के बीज नहीं दे रही हो, जिन्हें पूर्वकाल में ब्रह्मा ने उत्पन्न किया था और जो तुम्हारे भीतर छिपे हुए हैं।

25 अब मैं अपने बाणों से तुम्हारा खण्ड-खण्ड कर दूँगा और तुम्हारे मांस से क्षुधार्त नागरिकों को, जो अन्न के अभाव में त्राहि-त्राहि कर रहे हैं, संतुष्ट करूँगा। इस प्रकार मैं अपने राज्य की प्रजा का बिलखना दूर करूँगा।

26 ऐसा कोई भी क्रूर व्यक्ति–चाहे वह पुरुष, स्त्री या नपुंसक हो–जो अपनी निजी भरण-पोषण में ही रुचि रखता है और दूसरे जीवों पर दया नहीं दिखाता, राजा द्वारा वध्य है। ऐसा वध कभी भी वास्तविक वध नहीं माना जाता। तुम गर्व से अत्यन्त फुली हुई हो और प्रायः उन्मत सी हो गई हो।

27 इस समय तुमने अपनी योगशक्ति से गाय का रूप धारण कर रखा है, तो भी मैं तुम्हें अनाज के दानों की भाँति खण्ड-खण्ड कर दूँगा और अपने योग-बल से सारी जनता को धारण करूँगा (सँभाल लूँगा)

28 इस समय पृथु महाराज ठीक यमराज जैसे बन गये और उनका सारा शरीर अत्यन्त क्रोधित प्रतीत होने लगा। दूसरे शब्दों में, वे साक्षात क्रोध लग रहे थे। उनके शब्द सुनकर पृथ्वी काँपने लगी। उसने आत्म-समर्पण कर दिया और हाथ जोड़ कर इस प्रकार कहने लगी।

29 पृथ्वी ने कहा: हे भगवन, आपकी स्थिति दिव्य है और आपने अपनी माया के द्वारा तीनों गुणों की अन्योन्य क्रिया से स्वयं को नाना रूपों तथा योनियों में विस्तारित कर रखा है। अन्य कुछ स्वामियों से भिन्न आप सदैव दिव्य स्थिति में रहते हैं और भौतिक सृष्टि द्वारा प्रभावित नहीं होते जो विभिन्न भौतिक अन्योन्य क्रियाओं से प्रभावित है। फलतः आप भौतिक कर्मों से मोहग्रस्त नहीं होते।

30 पृथ्वी ने आगे कहा: हे भगवन, आप भौतिक सृष्टि के पूर्ण संचालक हैं। आपने इस दृश्य जगत की तथा तीन गुणों की उत्पत्ति की है, अतः आपने मुझ पृथ्वी को बनाया है, जो समस्त जीवात्माओं की आश्रय है। फिर भी हे भगवान, आप परम स्वतंत्र हैं। अब जबकि चूँकि आप मेरे समक्ष उपस्थित होकर मुझे अपने हथियारों से मारने के लिए उद्यत हैं। आप मुझे बताएँ कि मैं किसकी शरण गहूँ और मुझे शरण दे भी कौन सकता है?

31 आपने सृष्टि के प्रारम्भ में अपनी अकल्पनीय शक्ति से इन समस्त जड़ तथा चेतन जीवों को उत्पन्न किया है। अब आप उसी शक्ति से जीवात्माओं की रक्षा करने के लिए उद्यत हैं। आप धर्म के नियमों के परम रक्षक हैं। आप मुझ गोरूप को मारने के लिए इतने उत्सुक क्यों हैं?

32 हे भगवन, यद्यपि आप एक हैं, तो भी अपनी अकल्पनीय शक्तियों से आपने अपने को अनेक रूपों में विस्तारित कर रखा है। आपने इस ब्रह्माण्ड की रचना ब्रह्मा के माध्यम से की है। अतः आप प्रत्यक्ष: पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं। जो लोग अधिक अनुभवी नहीं हैं वे आपके दिव्य कार्यों को नहीं समझ सकते क्योंकि वे व्यक्ति आपकी माया से आवृत हैं।

33 हे भगवन, आप अपनी शक्तियों द्वारा भौतिक तत्त्वों, इन्द्रियों, इनके नियामक देवों, बुद्धि, अहंकार तथा प्रत्येक वस्तु के आदि कारण हैं। अपनी शक्ति से आप सम्पूर्ण दृश्य जगत की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं। आपकी ही शक्ति से प्रत्येक वस्तु कभी प्रकट होती है और कभी प्रकट नहीं होती है। अतः आप समस्त कारणों के कारण पुरषोत्तम भगवान हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करती हूँ।

34 हे भगवन, आप अजन्मा हैं। एक बार आपने आदि सूकर (वराह) रूप में मुझे ब्रह्माण्ड के नीचे के जल से बाहर निकाला था। आपने संसार के पालन हेतु अपनी शक्ति से सभी भौतिक तत्त्वों, इन्द्रियों तथा मन की उत्पत्ति की है।

35 हे भगवन, इस प्रकार आपने एक बार जल-राशि से मेरा उद्धार किया, जिससे आपका नाम धराधर, अर्थात पृथ्वी को धारण करनेवाला पड़ा। तो भी आप इस समय, महान वीर के रूप में अपने तीखे बाणों से मुझे मारने के लिए उद्यत हैं। किन्तु मैं तो जल की नाव के सदृश हूँ, जो प्रत्येक वस्तु को तैराये रखती है।

36 हे भगवन, मैं भी आपकी त्रिगुणात्मक शक्ति से उत्पन्न हूँ, फलतः मैं आपकी गतिविधियों से भ्रमित हूँ। जब आपके भक्तों के कार्यकलाप समझ के परे हैं, तो फिर आपकी लीलाओं के विषय में क्या कहा जाये? इस प्रकार प्रत्येक वस्तु हमें विरोधाभासी और आश्चर्यजनक लगती है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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Comments

  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
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