हिन्दी भाषी संघ (229)

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अध्याय चौवन – कृष्ण रुक्मिणी विवाह (10.54)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: सारे क्रुद्ध राजाओं ने अपने कवच पहने और धनुष धारण कर सेना सहित भगवान कृष्ण का पीछा करने लगे।

2 जब यादव सेना के सेनापतियों ने देखा कि शत्रुगण उन पर आक्रमण करने के लिये आ रहे हैं, तो हे राजन, वे सब उनका सामना करने के लिए मुड़े और दृढ़तापूर्वक अड़ गये।

3 घोड़ों, हाथियों तथा रथों पर सवार शत्रु राजाओं ने यदुओं पर बाणों की ऐसी वर्षा की जैसी कि बादल पर्वतों पर वर्षा करते हैं।

4 रुक्मिणी ने अपने स्वामी की सेना को बाणों की धुँआधार वर्ष

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अध्याय तिरपन – कृष्ण द्वारा रुक्मिणी का हरण (10.53)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह कुमारी वैदर्भी का गुप्त सन्देश सुनकर यदुनन्दन ने ब्राह्मण का हाथ अपने हाथ में ले लिया और मुसकाते हुए उससे इस प्रकार बोले।

2 भगवान ने कहा: जिस तरह रुक्मिणी का मन मुझ पर लगा है उसी तरह मेरा मन उस पर लगा है। मैं रात्रि में निद्रा लाभ नहीं ले पा रहा हूँ। मैं जानता हूँ कि द्वेषवश रुक्मी ने हमारा विवाह रोक दिया है।

3 वह अपने आपको एकमात्र मेरे प्रति समर्पित कर चुकी है और उसका सौन्दर्य निष्कलंक है। मैं उसे, उन अयो

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अध्याय बावन – भगवान कृष्ण के लिए रुक्मिणी सन्देश (10.52)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा, इस प्रकार कृष्ण द्वारा दया दिखाये गए मुचुकुन्द ने उनकी प्रदक्षिणा की और उन्हें नमस्कार किया। तब इक्ष्वाकुवंशी प्रिय मुचुकुन्द गुफा के मुँह से बाहर आये।

2 यह देखकर कि सभी मनुष्यों, पशुओं, लताओं तथा वृक्षों के आकार अत्यधिक छोटे हो गये हैं और इस तरह यह अनुभव करते हुए कि कलियुग सन्निकट है, मुचुकुन्द उत्तर दिशा की ओर चल पड़े।

3 भौतिक संगति से परे तथा सन्देह से मुक्त सौम्य राजा तपस्या के महत्व के प्रति वि

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अध्याय इक्यावन – मुचुकुन्द का उद्धार (10.51)

1-6 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: कालयवन ने उदित होते चन्द्रमा की भाँति भगवान को मथुरा से आते देखा। देखने में भगवान अतीव सुन्दर थे, वर्ण श्याम था और वे रेशमी पीताम्बर धारण किये थे, वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह था और उनके गले में कौस्तुभमणि सुशोभित थी, चारों भुजाएँ बलिष्ठ तथा लम्बी थीं, मुख कमल सदृश सदैव प्रसन्न रहने वाला था, आँखें गुलाबी कमलों जैसी थीं, गाल सुन्दर तेजवान थे, हँसी स्वच्छ थी तथा उनके कान की चमकीली बालियाँ मछली की आकृति की थीं। उस म्लेच

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अध्याय पचास – कृष्ण द्वारा द्वारकापुरी की स्थापना (10.50)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब कंस मार डाला गया तो हे भरतर्षभ, उसकी दो पटरानियाँ अस्ति तथा प्राप्ति अत्यन्त दुखी होकर अपने पिता के घर चली गई।

2 दुखी रानियों ने अपने पिता मगध के राजा जरासन्ध से सारा हाल कह सुनाया कि वे किस तरह विधवा हुईं।

3 हे राजन, यह अप्रिय समाचार सुनकर जरासन्ध शोक तथा क्रोध से भर गया और पृथ्वी को यादवों से विहीन करने के यथासम्भव प्रयास में जुट गया।

4 उसने तेईस अक्षौहिणी सेना लेकर यदुओं की राजधानी मथुरा के चारों ओर घ

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अध्याय उनचास – अक्रूर का हस्तिनापुर जाना (10.49) 

1-2 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अक्रूर पौरव शासकों की ख्याति से प्रसिद्ध नगरी हस्तिनापुर गये। वहाँ वे धृतराष्ट्र, भीष्म, विदुर तथा कुन्ती के साथ-साथ बाह्यिक तथा उसके पुत्र सोमदत्त से मिले। उन्होंने द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, अश्वत्थामा, पाण्डवगण तथा अन्य घनिष्ठ मित्रों से भी भेंट की।

3 जब गान्दिनीपुत्र अक्रूर अपने समस्त सम्बन्धियों तथा मित्रों से भलीभाँति मिल चुके तो उन लोगों ने अपने परिवार वालों के समाचार पूछे और प्रत्युत्तर में अ

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अध्याय अड़तालीस - कृष्ण द्वारा अपने भक्तों की तुष्टि (10.48)

1-2 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: तदनन्तर सबके स्वामी भगवान कृष्ण ने सेवा करने वाली त्रिवक्रा को तुष्ट करना चाहा, अतः वे उसके घर गये। त्रिवक्रा का घर ऐश्वर्ययुक्त साज-सामान से बड़ी शान से सजाया हुआ था । उसमें झण्डियाँ, मोती की लड़ें, चँदोवा, सुन्दर शय्या (पलंग) तथा बैठने के आसन थे और सुगन्धित अगुरु, दीपक, फूल-मालाएँ तथा सुगन्धित चन्दन-लेप भी था। जब त्रिवक्रा ने उन्हें अपने घर की ओर आते देखा तो वह हड़बड़ाकर तुरन्त ही अपने आसन से उठ खड़ी हुई।

3

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अध्याय सैंतालीस --  भ्रमर गीत (10.47)

1-2 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: व्रज की ललनाएँ कृष्ण के अनुचर को देखकर चकित हो गई। उनके हाथ लम्बे थे और आँखें नये खिले कमल जैसी थीं। वह पीत वस्त्र धारण किये था, गले में कमल की माला थी तथा अत्यन्त परिष्कृत किये हुए कुण्डलों से चमकता उसका मुखमण्डल कमल जैसा था। गोपियों ने पूछा, “यह सुन्दर पुरुष कौन है? यह कहाँ से आया है? यह किसकी सेवा करता है? यह तो कृष्ण के वस्त्र और आभूषण पहने हैं! “यह कहकर गोपियाँ उद्धव के चारों ओर उत्सुकता से एकत्र हो गई जिनका आश्रय भगवान

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अध्याय छियालीस – उद्धव की वृन्दावन यात्रा (10.46)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अत्यन्त बुद्धिमान उद्धव वृष्णि वंश के सर्वश्रेष्ठ सलाहकार, भगवान कृष्ण के प्रिय मित्र तथा बृहस्पति के प्रत्यक्ष शिष्य थे।

2 भगवान हरि ने जो अपने शरणागतों के सारे कष्टों को हरने वाले हैं, एक बार अपने भक्त एवं प्रियतम मित्र उद्धव का हाथ अपने हाथ में लेकर उससे इस प्रकार कहा।

3 भगवान कृष्ण ने कहा: हे भद्र उद्धव, तुम व्रज जाओ और हमारे माता-पिता को आनन्द प्रदान करो। यही नहीं, मेरा सन्देश देकर उन गोपियों को भी क्लेश-मुक्

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अध्याय पैंतालीस - कृष्ण द्वारा अपने गुरु पुत्र की रक्षा (10.45)  

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: यह जानकर कि कृष्ण के माता-पिता उनके दिव्य ऐश्वर्य से अवगत हो चुके हैं, भगवान ने यह सोचा कि ऐसा नहीं होने दिया जाना चाहिए। अतः उन्होंने भक्तों को मोहने वाली अपनी योगमाया का विस्तार किया।

2 सात्वतों में महानतम भगवान कृष्ण अपने बड़े भाई सहित अपने माता-पिता के पास पहुँचे। वे उन्हें विनयपूर्वक शीश झुकाकर और आदरपूर्वक “हे माते“ तथा "हे पिताश्री“ सम्बोधित करके प्रसन्न करते हुए इस प्रकार बोले।

3 भगवान कृष्ण

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अध्याय – चवालीस कंस वध (10.44)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह सम्बोधित किये जाने पर कृष्ण ने इस चुनौती को स्वीकार करने का मन बना लिया। उन्होंने चाणुर को और भगवान बलराम ने मुष्टिक को अपना प्रतिद्वन्द्वी चुना।

2 एक दूसरे के हाथों को पकड़कर और एक दूसरे के पाँवों को फँसाकर ये प्रतिद्वन्द्वी विजय की अभिलाषा से बलपूर्वक संघर्ष करने लगे।

3 वे एक दूसरे से मुट्ठियों से मुट्ठियाँ, घुटनों से घुटनें, सिर से सिर तथा छाती से छाती भिड़ाकर प्रहार करने लगे।

4 प्रत्येक कुश्ती लड़ने वाला अपने विपक्षी को खींचकर

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अध्याय तैंतालीस  - कृष्ण द्वारा कुवलयापीड हाथी का वध (10.43)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे परन्तप, नित्य शौच कर्मों से निवृत्त होकर जब कृष्ण तथा बलराम ने अखाड़े (रंगशाला) में बजने वाली ध्वनि सुनी तो वे वहाँ यह देखने गये कि क्या हो रहा है।

2 जब भगवान कृष्ण अखाड़े के प्रवेशद्वार पर पहुँचे तो उन्होंने देखा कि कुवलयापीड नामक हाथी अपने महावत की उत्प्रेरणा से उनका रास्ता रोक रहा है।

3 भगवान कृष्ण ने अपना फेंटा कसकर तथा अपने घुँघराले बालों को पीछे बाँधकर महावत से बादलों जैसी गम्भीर गर्जना में ये शब्द

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10891538452?profile=RESIZE_400xअध्याय बयालीस - यज्ञ के धनुष का टूटना (10-42)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब भगवान माधव राजमार्ग पर जा रहे थे तो उन्होंने एक युवा कुबड़ी स्त्री को देखा जिसका मुख आकर्षक था और वह सुगन्धित लेपों का थाल लिए हुए जा रही थी। प्रेमानन्द दाता ने हँसकर उससे इस प्रकार पूछा।

2 भगवान कृष्ण ने कहा: हे सुन्दरी तुम कौन हो? ओह, लेप! हे सुन्दरी, यह किसके लिए है? हमें सच-सच बता दो। हम दोनों को अपना कोई उत्तम लेप दो तो तुम्हें शीघ्र ही महान वर प्राप्त होगा।

3 दासी ने उत्तर दिया: हे सुन्दर, मैं राजा कंस की दासी

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अध्याय इकतालीस - कृष्ण तथा बलराम का मथुरा में प्रवेश (10.41)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अभी अक्रूर स्तुति कर ही रहे थे कि भगवान कृष्ण ने अपना वह रूप जिसे उन्होंने जल के भीतर प्रकट किया था, उसी तरह छिपा लिया जिस तरह कोई नट अपना खेल समाप्त कर देता है।

2 जब अक्रूर ने उस दृश्य को अन्तर्धान होते देखा तो वे जल के बाहर आ गये और उन्होंने जल्दी जल्दी अपने विविध अनुष्ठान-कर्म सम्पन्न किये। तत्पश्चात वे विस्मित होकर अपने रथ पर लौट आये।

3 भगवान कृष्ण ने अक्रूर से पूछा: क्या आपने पृथ्वी पर, या आकाश में य

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अध्याय चालीस - अक्रूर द्वारा स्तुति (10.40)

1 श्री अक्रूर ने कहा: हे समस्त कारणों के कारण, आदि तथा अव्यय महापुरुष नारायण, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आपकी नाभि से उत्पन्न कमल के कोष से ब्रह्मा प्रकट हुए हैं और उनसे यह ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आया है।

2 पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश एवं इसका स्रोत तथा मिथ्या अहंकार, महत-तत्त्व, समस्त भौतिक प्रकृति और उसका उद्गम तथा भगवान का पुरुष अंश, मन, इन्द्रियाँ, इन्द्रिय विषय तथा इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता ( ये सब विराट जगत के कारण ) आपके दिव्य शरीर से उत्पन

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अध्याय उनतालीस - अक्रूर द्वारा दर्शन (10.39) 

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान बलराम तथा भगवान कृष्ण द्वारा इतना अधिक सम्मानित किये जाने पर पलंग में सुखपूर्वक बैठे अक्रूर को लगा कि उन्होंने रास्ते में जितनी इच्छाएँ की थीं वे सभी अब पूरी हो गई हैं।

2 हे राजन, जिसने लक्ष्मी के आश्रय पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को संतुष्ट कर लिया हो भला उसके लिए क्या अलभ्य है? ऐसा होने पर भी जो उनकी भक्ति में समर्पित हैं, वे कभी भी उनसे कुछ नहीं चाहते।

3 शाम के भोजन के बाद देवकीपुत्र भगवान कृष्ण ने अक्रूर से पूछा कि

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अध्याय अड़तीस - वृन्दावन में अक्रूर का आगमन (10.38) 

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: महामति अक्रूर ने वह रात मथुरा में बिताई और तब अपने रथ पर सवार होकर नन्द महाराज के ग्वाल-ग्राम के लिए रवाना हुए।

2 मार्ग में यात्रा करते हुए महात्मा अक्रूर को कमलनेत्र भगवान के प्रति अपार भक्ति का अनुभव हुआ अतः वे इस प्रकार सोचने लगे। श्री अक्रूर ने सोचा: मैंने ऐसे कौन-से शुभ कर्म किये हैं, ऐसी कौन-सी कठिन तपस्या की है, ऐसी कौन-सी पूजा की है या ऐसा कौन-सा दान दिया है, जिससे आज मैं भगवान केशव का दर्शन करूँगा।

4 चूँक

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अध्याय सैंतीस -- केशी तथा व्योम असुरों का वध (10.37)

1-2 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: कंस द्वारा भेजा गया केशी असुर व्रज में विशाल घोड़े के रूप में प्रकट हुआ। मन जैसे तेज वेग से दौड़ते हुए वह अपने खुरों से पृथ्वी को विदीर्ण करने लगा। उसकी गर्दन के बालों से सारे आकाश के बादल तथा देवताओं के विमान तितर-बितर हो गये। अपनी भारी हिनहिनाहट से उसने वहाँ पर उपस्थित सबको भयभीत कर दिया।

3 भगवान को अपने सामने खड़ा देखकर केशी अत्यन्त क्रुद्ध होकर उनकी ओर दौड़ा मानो वह आकाश को निगल जायेगा। प्रचण्ड वेग से दौड़ते हुए

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अध्याय छत्तीस - वृषभासुर अरिष्ट का वध (10.36)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: तत्पश्चात अरिष्टासुर गोपों के गाँव में आया। वह बड़े डिल्ले वाले बैल के रूप में प्रकट होकर अपने खुरों से पृथ्वी को क्षत-विक्षत करके उसे कँपाने लगा।

2 अरिष्टासुर ने ज़ोर से रँभाते हुए धरती को खुरों से कुरेदा। वह अपनी पूँछ उठाये और आँखें चमकाता सींगों की नोक से बाँधों को चीरने लगा और बीच-बीच में मलमूत्र भी छोड़ता जाता था।

3-4 हे राजन, तीखे सींगों वाले अरिष्टासुर के डिल्ले को पर्वत समझकर बादल उसके आसपास मँडराने लगे। अतः जब ग्व

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अध्याय पैंतीस - कृष्ण के वनविहार के समय गोपियों द्वारा कृष्ण का गायन (10.35)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब भी कृष्ण वन को जाते थे गोपियों के मन उन्हीं के पीछे भाग जाते थे और इस तरह युवतियाँ उनकी लीलाओं का गान करते हुए खिन्नतापूर्वक अपने दिन बिताती थीं।

2-3 गोपियों ने कहा: जब मुकुन्द अपने होंठों पर रखी बाँसुरी के छेदों को अपनी सुकुमार अँगुलियों से बन्द करके उसे बजाते हैं, तो वे अपने बाएँ गाल को अपनी बाईं बाँह पर रखकर अपनी भौंहों को नचाने लगते हैं। उस समय आकाश में अपने पतियों अर्थात सिद्धों सम

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