भूमि गीत (12.3)

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अध्याय तीन – भूमि गीत (12.3)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस जगत के राजाओं को अपने पर विजय प्राप्त करने के प्रयास में जुटे देखकर, पृथ्वी हँसने लगी। उसने कहा: “जरा देखो तो इन राजाओं को जो मृत्यु के हाथों में खिलौनों जैसे हैं, मुझ पर विजय पाने की इच्छा कर रहे हैं।"

2 मनुष्यों के महान शासक जो कि विद्वान भी हैं, भौतिक कामेच्छा के कारण हताशा तथा असफलता को प्राप्त होते हैं। ये राजा काम से प्रेरित होकर, मांस के मृत पिण्ड में, जिसे हम शरीर कहते हैं, अत्यधिक आशा तथा श्रद्धा रखते हैं यद्यपि भौतिक ढाँचा जल पर तैरते फेन के बुलबुलों के समान क्षणभंगुर है।

3-4 राजे तथा राजनेता यह कल्पना करते हैं कि सर्वप्रथम मैं अपनी इन्द्रियों तथा मन को जीतूँगा; फिर मैं अपने प्रमुख मंत्रियों का दमन करूँगा और अपने सलाहकारों, नागरिकों, मित्रों तथा सम्बन्धियों एवं अपने हाथियों के रखवालों रूपी कंटकों से अपने को मुक्त कर लूँगा। इस तरह धीरे धीरे मैं पूरी पृथ्वी को जीत लूँगा। चूँकि इन नेताओं के हृदयों में बड़ी-बड़ी अपेक्षाएँ रहती हैं अतएव ये पास ही खड़ी प्रतीक्षारत मृत्यु को नहीं देख पाते।

5 ये गर्वित राजागण मेरे तल पर सारी भूमि को जीत लेने के बाद, समुद्र को जीतने के लिए बलपूर्वक समुद्र में प्रवेश करते हैं। भला उनके ऐसे आत्मसंयम से क्या लाभ जिसका लक्ष्य राजनीतिक शोषण हो? आत्मसंयम का वास्तविक लक्ष्य तो आध्यात्मिक मुक्ति है।

6 हे कुरुश्रेष्ठ, पृथ्वी ने आगे कहा: यद्यपि पूर्व काल में मुझे छोड़कर, बड़े-बड़े पुरुष तथा उनके वंशज इस संसार से उसी असहायवस्था में चल बसे जिस दशा में वे इसमें आये थे, किन्तु आज भी मूर्ख लोग मुझे जीतने का प्रयास किये जा रहे हैं।

7 मुझे जीतने के उद्देश्य से भौतिकतावादी लोग परस्पर लड़ते हैं। पिता अपने पुत्र का विरोध करता है और भाई एक-दूसरे से झगड़ते हैं क्योंकि उनके हृदय राजनैतिक शक्ति पाने के लिए बँधे रहते हैं।

8 राजनेता लोग यह सारी भूमि मेरी है – "अरे मूर्खों! यह तुम्हारी नहीं है" – ऐसा कहकर एक-दूसरे पर हमला करते हैं और मर जाते हैं।

9-13 पृथु, पुरुरवा, गाधि, नहुष, भरत, कार्तवीर्य अर्जुन, मान्धाता, सगर, राम, खटवांग, धुन्धुहा, रघु, तृणबिन्दु, ययाति, शर्याति, शन्तनु, गय, भगीरथ, कुवलयाक्ष, ककुत्स्थ, नैषध, नृग, हिरण्यकशिपु, वृत्र, सारे जग को रुलाने वाला रावण, नमूची, शम्बर, भौम, हिरण्याक्ष तथा तारक के साथ साथ अन्य असुर तथा अन्यों पर शासन करने की महान शक्ति से युक्त राजे – ये सारे के सारे ज्ञानी, शूर, सबको जीतने वाले तथा अजेय थे। तो भी हे सर्वशक्तिमान प्रभु, ये सारे राजा मुझे पाने के लिए गहन प्रयास करते हुए जीवन बिताते रहे, किन्तु काल के अधीन थे और काल ने सबको मात्र ऐतिहासिक वृत्तान्त बना दिया है। इनमें से एक भी स्थायी रूप से अपना शासन स्थापित नहीं कर सका।"

14 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे बलशाली परीक्षित, मैंने इन सारे महान राजाओं की कथाएँ तुमसे बतला दीं जिन्होंने संसार - भर में अपना यश फैलाया और फिर चले गये। मेरा असली उद्देश्य दिव्य ज्ञान तथा वैराग्य की शिक्षा देना था। राजाओं की कथाएँ इन वृत्तान्तों को शक्ति तथा ऐश्वर्य प्रदान करती हैं लेकिन वे स्वयं ज्ञान के चरम पक्ष का निर्माण नहीं करती हैं।

15 जो व्यक्ति भगवान कृष्ण की शुद्ध भक्ति चाहता है उसे भगवान उत्तमश्लोक के यशपूर्ण गुणों की कथाएँ सुननी चाहिए जिनके निरन्तर कीर्तन से सारे अमंगल विनष्ट हो जाते हैं। भक्तों को नियमित दैनिक संगोष्ठियों में ऐसे श्रवण में स्वयं को लगाना चाहिए और दिनभर इसी में लगे रहना चाहिए।

16 राजा परीक्षित ने कहा: हे स्वामी, कलियुग में रहनेवाले लोग इस युग के संचित कल्मष से किस तरह अपने को छुटा सकते हैं? हे महामुनि यह मुझे बतलाये।

17 कृपया विश्व इतिहास के विभिन्न युगों, प्रत्येक युग के विशिष्ट गुणों, ब्रह्माण्ड स्थिति की अवधि तथा संहार एवं परमात्मा स्वरूप विष्णु के प्रत्यक्ष प्रतिनिधि काल की गति के बारे में बतलाये।

18 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, प्रारम्भ में, सत्ययुग में, धर्म अपने चार अक्षत पैरों से युक्त रहता है और उस युग के लोगों द्वारा सावधानी से धारण किया जाता है। शक्तिशाली धर्म के चार पैर हैं – सत्य, दया, तपस्या तथा दान।

19 सत्ययुग के लोग प्रायः आत्मतुष्ट, दयालु, सबके मित्र, शान्त, गम्भीर तथा सहिष्णु होते हैं। वे अन्तःकरण से आनन्द लेनेवाले, सभी वस्तुओं को एक-सा देखनेवाले तथा आध्यात्मिक सिद्धि के लिए सदैव उद्यमशील होते हैं।

20 त्रेतायुग में अधर्म के चार पैरों – झूठ, हिंसा, असंतोष तथा कलह – के प्रभाव से धर्म का प्रत्येक पैर क्रमशः एक चौथाई क्षीण हो जाता है।

21 त्रेतायुग में लोग कर्मकाण्ड तथा कठिन तपस्या में लगे रहते हैं। वे न तो अत्यधिक उग्र होते हैं न ऐन्द्रिय आनन्द के पीछे अत्यधिक कामुक होते हैं। उनकी रुचि मुख्यतः धर्म, आर्थिक विकास तथा नियमित इन्द्रियतृप्ति में रहती है और वे तीन वेदों की संस्तुतियों का पालन करते हुए सम्पन्नता प्राप्त करते हैं। हे राजा, यद्यपि इस युग में समाज में चार पृथक-पृथक श्रेणियाँ (वर्ण) उत्पन्न हो जाती हैं, किन्तु अधिकांश लोग ब्राह्मण होते हैं।

22 द्वापर युग में तपस्या, सत्य, दया तथा दान के धार्मिक गुण अपने अधार्मिक विलोम अंशों-असंतोष, असत्य, हिंसा तथा शत्रुता – के द्वारा घटकर आधे रह जाते हैं।

23 द्वापर युग में लोग यश में रुचि रखते हैं तथा अत्यन्त नेक होते हैं। वे वेदाध्ययन में अपने को लगाये रखते हैं, प्रचुर ऐश्वर्य वाले होते हैं, बड़े-बड़े परिवारों वाले होते हैं और जीवन का ओजपूर्वक आनन्द उठाते हैं। चारों वर्णों में से क्षत्रिय तथा ब्राह्मण ही सर्वाधिक संख्या में होते हैं।

24 कलियुग में धार्मिक सिद्धान्तों का केवल एक चौथाई शेष रह जाता है और यह अवशेष भी अधर्म के सदैव बढ़ने के कारण लगातार घटता जायेगा और अन्त में विनष्ट हो जायेगा।

25 कलियुग में लोग लोभी, दुराचारी तथा निर्दयी होते हैं और वे बिना कारण ही एक-दूसरे से लड़ते-झगड़ते हैं। कलियुग के लोग अभागे तथा भौतिक इच्छाओं से त्रस्त होकर, प्रायः सभी शूद्र एवं बर्बर होते हैं।

26 सतो, रजो तथा तमोगुण, जिनके रूपान्तर पुरुष के मन के भीतर देखने में आते हैं, काल की शक्ति से गतिमान होते हैं।

27 जब मन, बुद्धि तथा इन्द्रियाँ पूरी तरह से सतोगुण में स्थित हैं, तो उस काल को सत्ययुग समझना चाहिए। तब लोग ज्ञान तथा तपस्या में रुचि लेते हैं।

28 हे परम बुद्धिमान, जब बद्धजीव अपने कर्मों के प्रति समर्पित तो होते हैं किन्तु उनमें बाह्य मनोभाव पाये जाते हैं और वे निजी प्रतिष्ठा की चाह करते हैं, तो तुम यह जान लो कि ऐसी स्थिति त्रेतायुग की है, जिसमें राजसिक कर्मों की प्रधानता होती है।

29 जब लोभ, असन्तोष, मिथ्या अहंकार, दिखावा तथा ईर्ष्या प्रधान बन जाते हैं और साथ में स्वार्थपूर्ण कार्यों के लिए आकर्षण होता है, तो ऐसा काल द्वापर युग है, जिसमें रजो तथा तमोगुण के मिश्रण की प्रधानता होती है।

30 जब धोखा (कपट), झूठ, तन्द्रा, निद्रा, हिंसा, विषाद, शोक, मोह, भय तथा दरिद्रता का बोलबाला होता है, वह युग कलियुग अर्थात तमोगुण का युग होता है।

31 कलियुग के दुर्गुणों के कारण मनुष्य क्षुद्र दृष्टि वाले, अभागे, पेटु, कामी तथा दरिद्र होंगे। स्त्रियाँ कुलटा होने से एक पुरुष को छोड़कर बेरोक टोक दूसरे के पास चली जायेंगी।

32 शहरों में चोरों का दबदबा होगा, वेद नास्तिकों के द्वारा की गई मनमानी व्याख्या से दूषित किए जायेंगे, राजनीतिक नेता प्रजा का भक्षण करेंगे और तथाकथित पुरोहित तथा बुद्धिजीवी अपने पेट तथा जननांगों के भक्त होंगे।

33 ब्रह्मचारी अपने व्रतों को सम्पन्न नहीं कर सकेंगे और सामान्यतया अस्वच्छ रहेंगे। गृहस्थ लोग भिखारी बन जायेंगे; वानप्रस्थि गाँवों में रहने लगेंगे और संन्यासी लोग धन के लालची बन जायेंगे।

34 स्त्रियों का आकार काफी छोटा हो जायेगा और वे अधिक भोजन करेंगी, अधिक सन्तानें उत्पन्न करेंगी जिनका पालन-पोषण करने में वे अक्षम होंगी और सारी लाज खो बैठेंगी। वे सदैव कड़वा बोलेंगी और चोरी, कपट तथा अप्रतिबन्धित साहस के गुण प्रदर्शित करेंगी।

35 व्यापारी लोग क्षुद्र व्यापार में लगे रहेंगे और धोखाधड़ी से धन कमायेंगे। आपात काल न होने पर भी लोग किसी भी अधम पेशे को अपनाने की सोचेंगे।

36 नौकर उस मालिक को छोड़ देंगे जो अपनी धन-संपदा गँवा चुका होता है भले ही वह मालिक सन्त-सदृश उत्कृष्ट आचरण का क्यों न हो। मालिक भी अक्षम नौकर को त्याग देंगे भले ही वह नौकर पीढ़ियों से उस परिवार में क्यों न रहा हो। दूध देना बन्द कर चुकी गौवों को या तो छोड़ दिया जायेगा या मार दिया जायेगा।

37 कलियुग में मनुष्य कंजूस तथा स्त्रियों द्वारा नियंत्रित होंगे। वे अपने पिता, भाई, अन्य सम्बन्धियों तथा मित्रों को त्यागकर साले तथा सालियों की संगति करेंगे। इस तरह उनकी मैत्री की धारणा नितान्त यौन-सम्बन्धों पर आधारित होगी।

38 असंस्कृत लोग भगवान के नाम पर दान लेंगे और तपस्या का स्वाँग रचाकर तथा साधु का वेश धारण करके अपनी जीविका चलायेंगे। धर्म न जानने वाले उच्च आसन पर बैठेंगे और धार्मिक सिद्धान्तों पर प्रवचन करने का ढोंग रचेंगे।

39-40 कलियुग में लोगों के मन सदैव अशान्त रहेंगे। हे राजन, वे अकाल तथा कर-भार से दुर्बल हो जायेंगे और सूखे के भय से सदैव विचलित रहेंगे। उन्हें पर्याप्त वस्त्र, भोजन तथा पेय का अभाव रहेगा; वे न तो ठीक से विश्राम कर सकेंगे, न स्नान कर सकेंगे। उनके पास अपने शरीरों को सुसज्जित करने के लिए आभूषण नहीं होंगे। वस्तुतः कलियुग के लोग धीरे-धीरे पिशाच जैसे दिखने लगेंगे।

41 कलियुग में लोग थोड़े से सिक्कों के लिए भी शत्रुता ठान लेंगे। वे सारे मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों को त्यागकर स्वयं मरने तथा अपने ही सम्बन्धियों को मार डालने पर उतारु हो जायेंगे।

42 लोग अपने बूढ़े माता-पिता, अपने बच्चों या अपनी सम्मान्य पत्नियों की रक्षा नहीं कर सकेंगे। वे अत्यन्त पतित होकर अपने पेट तथा जननांगों की तुष्टि में लगे रहेंगे।

43 हे राजन, कलियुग में लोगों की बुद्धि नास्तिकता के द्वारा विपथ हो जायेगी और वे ब्रह्माण्ड के परम गुरु स्वरूप भगवान को कभी भी भेंट नहीं चढ़ायेंगे। तीनों लोकों के नियन्ता महापुरुष तक भगवान के चरणकमलों पर अपना शीश नवाते हैं, किन्तु इस युग के क्षुद्र एवं दुखी लोग ऐसा नहीं करेंगे।

44 मरने वाला व्यक्ति भयभीत होकर अपने बिस्तर पर गिर जाता है। यद्यपि उसकी वाणी अवरुद्ध हुई रहती है और उसे इसका बोध नहीं रहता कि वह क्या कह रहा है, किन्तु यदि भगवान का पवित्र नाम लेता है, तो कर्मफल से मुक्त हो सकता है और चरम गन्तव्य को प्राप्त कर सकता है। किन्तु तो भी कलियुग में लोग भगवान की पूजा नहीं करेंगे।

45 कलियुग में वस्तुएँ, स्थान तथा व्यक्ति भी, सभी प्रदूषित हो जाते हैं। किन्तु भगवान उस व्यक्ति के जीवन से ऐसा सारा कल्मष हटा सकते हैं, जो अपने मन के भीतर भगवान को स्थिर कर लेता है।

46 यदि कोई व्यक्ति हृदय के भीतर स्थित परमेश्वर के विषय में सुनता है, महिमा का गान करता है, पूजा करता है या अत्यधिक आदर करता है, तो भगवान उसके मन से हजारों जन्मों से संचित कल्मष को दूर कर देते हैं।

47 जिस तरह सोने को गलाने पर अग्नि अन्य धातुओं की रंचमात्र उपस्थिति से उत्पन्न बदरंग को दूर कर देती है उसी तरह हृदय के भीतर स्थित भगवान विष्णु योगियों के मन को शुद्ध कर देते हैं।

48 देवपूजा, तपस्या, प्राणायाम, दया, तीर्थस्थान, कठिन व्रत, दान तथा विविध मंत्रों के उच्चारण से मन को वैसी परम शुद्धि प्राप्त नहीं हो सकती जैसी कि हृदय के भीतर अनन्त भगवान के प्रकट होने पर होती है।

49 इसलिए हे राजन, अपनी शक्तिभर अपने हृदय में परम भगवान केशव को स्थिर करने का प्रयास करो। यह एकाग्रता भगवान पर बनाये रखो और अपनी मृत्यु के समय तुम निश्चित रूप से परम गन्तव्य को प्राप्त करोगे।

50 हे राजन, भगवान परम नियन्ता हैं। वे परमात्मा है और सारे प्राणियों के परम आश्रय है। मरणासन्न लोगों के द्वारा ध्यान किए जाने पर वे उन्हें अपना नित्य आध्यात्मिक स्वरूप प्रकट करते हैं।

51 हे राजन, यद्यपि कलियुग दोषों का सागर है फिर भी इस युग में एक अच्छा गुण है – केवल हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करने से मनुष्य भवबन्धनसे मुक्त हो जाता है और दिव्य धाम को प्राप्त होता है।

52 सत्ययुग में विष्णु का ध्यान करने से, त्रेतायुग में यज्ञ करने से तथा द्वापर युग में भगवान के चरणकमलों की सेवा करने से, जो फल प्राप्त होता है, वही कलियुग में केवल हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करके प्राप्त किया जा सकता है।

(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)

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Comments

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    🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
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