10895546500?profile=RESIZE_584x

अध्याय चार – ब्रह्माण्ड के प्रलय की चार कोटियाँ (12.4)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, मैं पहले ही तुम्हें एक परमाणु की गति से मापे जाने वाले सबसे छोटे अंश से लेकर ब्रह्मा की कुल आयु तक काल की माप बतला चुका हूँ। मैंने ब्रह्माण्ड के इतिहास के विभिन्न युगों की माप भी बतला दी है। अब ब्रह्मा के दिन तथा प्रलय की प्रक्रिया के विषय में सुनो।

2 चार युगों के एक हजार चक्रों से ब्रह्मा का एक दिन होता है, जो कल्प कहलाता है। हे राजा, इस अवधि में चौदह मनु आते-जाते हैं।

3 ब्रह्मा के एक दिन के बाद, उनकी रात के समय, जो उतनी ही अवधि की होती है, प्रलय होता है। उस समय तीनों लोक विनष्ट हो जाते हैं, उनका संहार हो जाता है।

4 यह नैमित्तिक प्रलय कहलाता है, जिसमें आदि स्रष्टा नारायण अनन्त शेष की शैय्या पर लेट जाते हैं और ब्रह्मा के सोते समय वे समूचे ब्रह्माण्ड को अपने में लीन कर लेते हैं।

5 जब सर्वोच्च जीव ब्रह्माजी के जीवन काल के दो परार्ध पूरे हो जाते हैं, तो सृष्टि के सात मूलभूत तत्त्व विनष्ट हो जाते हैं।

6 हे राजन, भौतिक तत्त्वों के प्रलय के बाद, सृष्टि के तत्त्वों के मिश्रण से बने ब्रह्माण्ड को विनाश का सामना करना होता है।

7 हे राजन, ज्यों-ज्यों प्रलय निकट आयेगा, त्यों-त्यों पृथ्वी पर एक सौ वर्षों तक वर्षा नहीं होगी। सूखे से दुर्भिक्ष पड़ जायेगा और भूखों मर रही जनता एक-दूसरे को सचमुच ही खाने लगेगी। पृथ्वी के निवासी काल की शक्ति से मोहग्रस्त होकर धीरे धीरे नष्ट हो जाएँगे।

8 सूर्य अपने संहारक रूप में अपनी भयंकर किरणों के द्वारा समुद्र, शरीरों तथा पृथ्वी का सारा पानी पी लेगा, किन्तु बदले में यह वर्षा नहीं करेगा।

9 इसके बाद प्रलय की विशाल अग्नि भगवान संकर्षण के मुख से धधक उठेगी। वायु के प्रबल वेग से ले जाई गई, यह अग्नि निर्जीव विराट खोल को झुलसाकर, सारे ब्रह्माण्ड में जल उठेगी।

10 ऊपर से दहकता सूर्य तथा नीचे से भगवान संकर्षण की अग्नि से इस तरह सभी दिशाओं से–जलता हुआ ब्रह्माण्ड गोबर के दहकते पिण्ड की तरह चमकने लगेगा।

11 भीषण विनाशकारी वायु एक सौ वर्षों से भी अधिक काल तक बहेगी और धूल से आच्छादित आकाश भूरा हो जायेगा।

12 हे राजन, उसके बाद नाना रंग के बादलों के समूह बिजली के साथ घोर गर्जना करते हुए एकत्र होंगे और एक सौ वर्षों तक मूसलाधार वर्षा करते रहेंगे।

13 उस समय ब्रह्माण्ड की खोल जल से भर जायेगी और एक विराट सागर का निर्माण करेगी।

14 जब सारा ब्रह्माण्ड जलमग्न हो जाता है, तो यह जल पृथ्वी के अद्वितीय सुगन्धि गुण को हर लेगा और पृथ्वी, अपने इस विभेदकारी गुण से विहीन होकर, विलीन हो जायेगी।

15-19 हे राजन जल तत्त्व अपने अद्वितीय गुण, स्वाद से वंचित होकर अग्नि में लीन हो जाता है और अग्नि अपना निहित रूप खोकर वायु में विलीन हो जाती है। वायु के गुण स्पर्श को आकाश ले लेता है और वह आकाश में प्रवेश कर जाती है। तमोगुणी मिथ्या अहंकार, आकाश का गुण ध्वनि को हर लेता है और आकाश मिथ्या अहंकार में विलीन हो जाता है। रजोगुणी मिथ्या अहंकार, इन्द्रियों को अपने में समा लेता है और सतोगुणी अहंकार देवताओं को विलीन कर लेता है। तत्पश्चात मिथ्या अहंकार को सम्पूर्ण महत तत्त्व उसके विविध कार्यों समेत ग्रहण करता है और यह महत तत्त्व प्रकृति के तीन गुणों –सतो, रजो तथा तमो– द्वारा जकड़ लिया जाता है। हे राजा परीक्षित, ये गुण काल द्वारा प्रेरित प्रकृति के मूल अव्यक्त रूप द्वारा अधिगृहीत हो जाते हैं। अव्यक्त प्रकृति काल के प्रभाव द्वारा उत्पन्न छह प्रकार के विकारों के अधीन नहीं होती–इसका न तो आदि होता है और न अन्त। यह सृष्टि का अव्यक्त, शाश्वत, अव्यय कारण है।

20-21 प्रकृति की अव्यक्त अवस्था, जिसे प्रधान कहते हैं, उसमें न वाणी, न मन, न महत इत्यादि सूक्ष्म तत्त्व और न ही सतो, रजो तथा तमोगुण होते हैं। उसमें न तो प्राणवायु, न बुद्धि, न कोई इन्द्रियाँ या देवता रहते हैं। उसमें न तो ग्रहों की स्पष्ट व्यवस्था होती है, न ही चेतना की विभिन्न अवस्थाएँ – सुप्त, जागृत तथा सुषुप्त – ही होती हैं। उसमें आकाश, जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि या सूर्य नहीं होते। यह स्थिति सुषुप्ति अथवा शून्य जैसी होती है। निस्सन्देह, यह अवर्णनीय है। किन्तु आध्यात्मिक विज्ञानवेत्ता बताते हैं कि प्रधान के मूल वस्तु होने से यह भौतिक सृष्टि का वास्तविक कारण है।

22 परम पुरुष की अव्यक्त भौतिक प्रकृति से सम्बन्धित शक्तियाँ – काल के वेग द्वारा अव्यवस्थित हो जाने से, शक्तिविहीन होकर, पूरी तरह प्राकृतिक प्रलय में विलीन हो जाती हैं।

23 एकमात्र परम सत्य ही बुद्धि, इन्द्रियों तथा इन्द्रिय-अनुभूति की वस्तुओं के रूपों में प्रकट होता है और वही उनका परम आधार है। जिस किसी का भी आदि तथा अन्त होता है, वह अपर्याप्त (अवस्तु) है क्योंकि वह सीमित इन्द्रियों के द्वारा अनुभूत वस्तु है और अपने कारण से अभिन्न है।

24 दीपक, उस दीपक के प्रकाश से देखने वाली आँख तथा देखा जानेवाला दृश्य रूप, मूलतः अग्नि तत्त्व से अभिन्न हैं। इसी तरह बुद्धि, इन्द्रियों तथा इन्द्रिय अनुभूतियों का परम सत्य से पृथक कोई अस्तित्व नहीं है यद्यपि वह परम सत्य उनसे सर्वथा भिन्न होता है।

25 बुद्धि की तीन अवस्थाएँ जागृत, सुप्त तथा सुषुप्त कहलाती है, लेकिन, इन विभिन्न अवस्थाओं से उत्पन्न नाना प्रकार के अनुभव माया के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं।

26 जिस तरह आकाश में बादल बनते हैं और अपने घटक तत्त्वों के मिश्रण तथा विलय के द्वारा इधर-उधर बिखर जाते हैं, उसी तरह यह भौतिक ब्रह्माण्ड, परब्रह्म के भीतर, अपने अवयव रूपी तत्त्वों के मिश्रण तथा विघटन से, बनता और विनष्ट होता है।

27 हे राजन, वेदान्त सूत्र में यह कहा गया है कि इस ब्रह्माण्ड में किसी व्यक्त पदार्थ को निर्मित करनेवाला अवयवी कारण, पृथक सत्य के रूप में, उसी तरह देखा जा सकता है, जिस तरह वस्त्र को बनाने वाले धागे उनसे बनी हुई वस्तु वस्त्र से अलग देखे जा सकते हैं।

28 सामान्य कारण तथा विशिष्ट कार्य के रूप में अनुभव की हुई कोई भी वस्तु भ्रम है क्योंकि ऐसे कारण तथा कार्य एक-दूसरे के सापेक्ष होते हैं। निस्सन्देह, जिसका भी आदि तथा अन्त है, वह असत्य है।

29 भौतिक प्रकृति के एक भी परमाणु का अनुभव किया जानेवाले रूपान्तर, परमात्मा के उल्लेख के बिना कोई चरम अर्थ नहीं रखता। किसी वस्तु को यथार्थ रूप में विद्यमान मानने के लिए उस वस्तु को शुद्ध आत्मा जैसी गुण वाली, नित्य तथा अव्यय होना चाहिए।

30 परम सत्य में कोई भौतिक द्वैत नहीं है। अज्ञानी व्यक्ति द्वारा अनुभूत द्वैत, रिक्त पात्र के भीतर तथा पात्र के बाहर के आकाश के अन्तर के समान, अथवा जल में सूर्य के प्रतिबिम्ब तथा आकाश में सूर्य के अन्तर के समान, अथवा एक शरीर के भीतर की प्राणवायु तथा दूसरे शरीर की प्राणवायु में, जो अन्तर है उसके समान है।

31 लोग विभिन्न प्रयोजनों के अनुसार सोने का उपयोग नाना प्रकार से करते हैं, इसलिए सोना विविध रूपों में देखा जाता है। इसी तरह भौतिक इन्द्रियों के लिए अगम्य भगवान का वर्णन विभिन्न प्रकार के लोगों द्वारा विभिन्न रूपों में – सामान्य तथा वैदिक रूप में – किया जाता है।

32 यद्यपि बादल सूर्य की ही उपज है और सूर्य द्वारा दृश्य भी होता है, तो भी यह देखने वाली आँख के लिए जो सूर्य का ही दूसरा अंश है, अँधेरा उत्पन्न कर देता है। इसी तरह परम सत्य की विशेष उपज मिथ्या अहंकार जो परम सत्य द्वारा ही दृश्य बनाई जाती है, आत्मा को परम सत्य का साक्षात्कार करने से रोकता है यद्यपि आत्मा भी परम सत्य का ही अंश है।

33 जब सूर्य से उत्पन्न बादल तितर-बितर हो जाता है, तो आँख सूर्य के वास्तविक स्वरूप को देख सकती है। इसी तरह, जब आत्मा दिव्य विज्ञान के विषय में जिज्ञासा (पूछताछ) करके, मिथ्या अहंकार के भौतिक आवरण को नष्ट कर देता है, तो वह अपनी मूल आध्यात्मिक जागरूकता को फिर से प्राप्त होता है।

34 हे राजा परीक्षित, जब आत्मा को बाँधने वाले मायामय मिथ्या अहंकार को विवेक-शक्ति की तलवार से काट दिया जाता है और मनुष्य अच्युत परमात्मा का अनुभव प्राप्त कर लेता है, तो वह भौतिक जगत का आत्यन्तिक या परम प्रलय कहलाता है।

35 हे शत्रुओं के दमन – कर्ता, प्रकृति की सूक्ष्म कार्य-प्रणाली के ज्ञाताओं ने घोषित किया है कि उत्पत्ति तथा प्रलय की प्रक्रियाएँ निरन्तर चलती रहती हैं जिनसे ब्रह्मा इत्यादि सारे प्राणी निरन्तर प्रभावित होते रहते हैं।

36 सारी भौतिक वस्तुओं में रूपान्तर होते हैं और वे काल के प्रबल प्रवाह द्वारा तेजी से क्षरित हो जाती हैं। भौतिक वस्तुओं द्वारा प्रदर्शित अपने अस्तित्व की विविध अवस्थाएँ उनकी उत्पत्ति तथा प्रलय के स्थायी कारण हैं।

37 भगवान के निर्विशेष प्रतिनिधि स्वरूप, आदि तथा अन्तहीन काल द्वारा उत्पन्न, जगत की अवस्थाएँ उसी तरह दृश्य नहीं हैं जिस तरह आकाश में नक्षत्रों की स्थिति में होनेवाले अत्यन्त सूक्ष्म परिवर्तनों को नहीं देखा जा सकता।

38 इस प्रकार काल की प्रगति को चार प्रकार के प्रलय के रूप में वर्णित किया जाता है। ये हैं स्थायी, नैमित्तिक, प्राकृतिक तथा आत्यन्तिक।

39 हे कुरुश्रेष्ठ, मैंने तुम्हें भगवान नारायण की लीलाओं की ये कथाएँ संक्षेप में बतला दी हैं। भगवान इस जगत के स्रष्टा हैं और सारे जीवों के अन्ततः आगार हैं। यहाँ तक कि ब्रह्मा भी उन कथाओं को पूरी तरह बतलाने में अक्षम हैं।

40 असंख्य सन्तापों की अग्नि से पीड़ित तथा दुर्लंघ्य संसार सागर को पार करने के इच्छुक व्यक्ति के लिए, भगवान की लीलाओं की कथाओं के दिव्य आस्वाद के प्रति भक्ति का अनुशीलन करने के अतिरिक्त कोई अन्य उपयुक्त नाव नहीं है।

41 बहुत दिन बीते, सारे पुराणों की यह आवश्यक संहिता, अच्युत नर-नारायण ऋषि ने नारद से कही थी, जिन्होंने फिर इसे कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास से कहा।

42 हे महाराज परीक्षित, महापुरुष श्रील व्यासदेव ने मुझे उसी शास्त्र श्रीमदभागवत की शिक्षा दी जो महत्त्व में चारों वेदों के ही तुल्य है।

43 हे कुरुश्रेष्ठ, हमारे समक्ष आसीन यही सूत गोस्वामी नैमिषारण्य के विराट यज्ञ में एकत्र ऋषियों से इस भागवत का प्रवचन करेंगे। ऐसा वे तब करेंगे जब शौनक आदि सभा के सदस्य उनसे प्रश्न करेंगे।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

E-mail me when people leave their comments –

You need to be a member of ISKCON Desire Tree | IDT to add comments!

Join ISKCON Desire Tree | IDT

Comments

  • https://youtu.be/PZipMpxiFgk
    🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
This reply was deleted.