अध्याय उन्नीस – राजा ययाति को मुक्ति लाभ (9.19)
1-15 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे महाराज परीक्षित, ययाति स्त्री पर अत्यधिक अनुरक्त था। किन्तु कालक्रम से जब वह विषय-भोग तथा इसके बुरे प्रभावों से ऊब गया तो उसने यह जीवन-शैली त्याग दी और अपने निजी जीवन पर आधारित बकरे-बकरी की एक कहानी बनाई और अपनी प्रियतमा को सुनाई। कहानी सुनाने के बाद उससे कहा – हे सुन्दर भौंहों वाली प्रिये, मैं उसी बकरे के सदृश हूँ क्योंकि मैं इतना मन्दबुद्धि हूँ कि मैं तुम्हारे सौन्दर्य से मोहित होकर आत्म-साक्षात्कार के असली कार्य को भूल गया हूँ। कामी पुरुष का मन कभी तुष्ट नहीं होता भले ही उसे इस संसार की हर वस्तु जैसे कि धान, जौ, अन्य अनाज, सोना, पशु तथा स्त्रियाँ इत्यादि प्रचुर मात्रा में उपलब्ध क्यों न हो, कोई भी वस्तु उसे संतुष्ट नहीं कर सकती। जिस तरह अग्नि में घी डालने से अग्नि शान्त नहीं होती अपितु अधिकाधिक बढ़ती जाती है उसी प्रकार निरन्तर भोग द्वारा कामेच्छाओं को रोकने का प्रयास कभी भी सफल नहीं हो सकता। (असल में मनुष्य को स्वेच्छा से भौतिक इच्छाएँ समाप्त करनी चाहिए) जब मनुष्य द्वेष-रहित होता है और किसी का बुरा नहीं चाहता तो वह समदर्शी होता है। ऐसे व्यक्ति के लिए सारी दिशाएँ सुखमय प्रतीत होती हैं।
16 जो लोग भौतिक भोग में अत्यधिक लिप्त रहते हैं उनके लिए इन्द्रियतृप्ति को त्याग पाना अत्यन्त कठिन है। यहाँ तक कि वृद्धावस्था के कारण अशक्त व्यक्ति भी इन्द्रियतृप्ति की ऐसी इच्छाओं को नहीं त्याग पाता। अतएव जो सचमुच सुख चाहता है उसे ऐसी अतृप्त इच्छाओं को त्याग देना चाहिए क्योंकि ये सारे कष्टों की जड़ है।
17 मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी माता, बहन या पुत्री के साथ एक ही आसन पर न बैठे क्योंकि इन्द्रियाँ इतनी प्रबल होती हैं कि बड़े से बड़ा विद्वान भी विचलित हो सकता है।
18 मैंने इन्द्रियतृप्ति के भोगने में पूरे एक हजार वर्ष बिता दिये हैं फिर भी ऐसे आनन्द को भोगने की मेरी इच्छा नित्य प्रति बढ़ती जाती है।
19 अतएव अब मैं इन सारी इच्छाओं को त्याग दूँगा और पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का ध्यान करूँगा। मनोरथों के द्वन्द्वों से तथा मिथ्या अहंकार से रहित होकर मैं जंगल में पशुओं के साथ विचरण करूँगा।
20 जो यह जानता है कि भौतिक सुख चाहे अच्छा हो या बुरा, इस जीवन में हो या अगले जीवन में, इस लोक में हो या स्वर्गलोक में हो, क्षणिक तथा निरर्थक है और यह जानता है कि बुद्धिमान पुरुष को ऐसी वस्तुओं को भोगने या सोचने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए, वह मनुष्य आत्मज्ञानी है। ऐसा स्वरूपसिद्ध व्यक्ति भलीभाँति जानता है कि भौतिक सुख बारम्बार जन्म लेने एवं अपनी स्वाभाविक स्थिति के विस्मरण का एकमात्र कारण है।
21 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अपनी पत्नी देवयानी से इस प्रकार कहकर समस्त इच्छाओं से मुक्त हुए राजा ययाति ने अपने सबसे छोटे पुत्र पुरु को बुलाया और उसे उसकी जवानी लौटाकर अपना बुढ़ापा वापस ले लिया।
22 राजा ययाति ने अपने पुत्र द्रुहयु को दक्षिण पूर्व की दिशा, अपने पुत्र यदु को दक्षिण की दिशा, अपने पुत्र तुर्वसु को पश्चिमी दिशा और अपने चौथे पुत्र अनु को उत्तरी दिशा दे दी। इस तरह उन्होंने राज्य का बँटवारा कर दिया।
23 ययाति ने अपने सबसे छोटे पुत्र को सारे विश्व का सम्राट तथा सारी सम्पत्ति का स्वामी बना दिया और पुरु से बड़े अपने अन्य सारे पुत्रों को पुरु के अधीन कर दिया।
24 हे राजा परीक्षित, ययाति ने अनेकानेक वर्षों तक विषयवासनाओं का भोग किया, क्योंकि वे इसके आदी थे, किन्तु उन्होंने एक क्षण के भीतर अपना सर्वस्व त्याग दिया जिस तरह पंख उगते ही पक्षी अपने घोंसले से उड़ जाता है।
25 चूँकि राजा ययाति ने भगवान वासुदेव के चरणकमलों में पूरी तरह अपने को समर्पित कर दिया था अतएव वे भौतिक प्रकृति के गुणों के सारे कल्मष से मुक्त हो गये। अपने आत्मसाक्षात्कार के कारण वे अपने मन को परब्रह्म वासुदेव में स्थिर कर सके और इस प्रकार अन्ततः उन्हें भगवान के पार्षद का पद प्राप्त हुआ।
26 जब देवयानी ने महाराज ययाति द्वारा कही गई बकरे-बकरी की कथा सुनी तो वह समझ गयी की हास-परिहास के रूप में पति-पत्नी के मध्य मनोरंजनार्थ कही गई यह कथा उसमें उसकी स्वाभाविक स्थिति को जाग्रत करने के निमित्त थी।
27-28 तत्पश्चात शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी समझ गई कि पति, मित्रों तथा सम्बन्धियों का सांसारिक साथ प्याऊ में यात्रियों की संगति के समान है। भगवान की माया से समाज के सम्बन्ध, मित्रता तथा प्रेम ठीक स्वप्न की ही भाँति उत्पन्न होते है। कृष्ण के अनुग्रह से देवयानी ने भौतिक जगत की अपनी काल्पनिक स्थिति छोड़ दी। उसने अपने मन को पूरी तरह कृष्ण में स्थिर कर दिया और स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों से मुक्ति प्राप्त कर ली।
29 हे भगवान वासुदेव, हे पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर, आप समस्त विराट जगत के स्रष्टा हैं। आप सबों के हृदय में परमात्मा रूप में निवास करते हैं और सूक्ष्मतम से सूक्ष्मतर होते हुए भी बृहत्तम से बृहत्तर हैं तथा सर्वव्यापक हैं। आप परम शान्त लगते हैं मानो आपको कुछ करना-धरना न हो लेकिन ऐसा आपके सर्वव्यापक स्वभाव एवं सर्व ऐश्वर्य से पूर्ण होने के कारण है। अतएव मैं आपको सादर नमस्कार करती हूँ।
( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )
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हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏