भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक
अध्याय अठारह उपसंहार -- संन्यास की सिद्धि
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवो नीतिर्मतिर्मम ।। 78 ।।
यत्र– जहाँ;योग-ईश्वरः– योग के स्वामी; कृष्णः– भगवान् कृष्ण; यत्र– जहाँ; पार्थः– पृथापुत्र; धनुः–धरः– धनुषधारी; तत्र– वहाँ; श्रीः– ऐश्वर्य; विजयः– जीत; भूतिः– विलक्षण शक्ति; ध्रुवा– निश्चित; नीतिः– नीति; मतिःमम– मेरा मत।
भावार्थ : जहाँ योगेश्वर कृष्ण है और जहाँ परम धनुर्धर अर्जुन हैं, वहीं ऐश्वर्य, विजय, अलौकिक शक्ति तथा नीति भी निश्चित रूप से रहती है। ऐसा मेरा मत है।
तात्पर्य : भगवद्गीता का शुभारम्भ धृतराष्ट्र की जिज्ञासा से हुआ। वह भीष्म, द्रोण तथा कर्ण जैसे महारथियों की सहायता से अपने पुत्रों की विजय के प्रति आशावान था। उसे आशा थी कि विजय उसके पक्ष में होगी। लेकिन युद्धक्षेत्र के दृश्य का वर्णन करने के बाद संजय ने राजा से कहा - “आप अपनी विजय की बात सोच रहें हैं, लेकिन मेरा मत है कि जहाँ कृष्ण तथा अर्जुन उपस्थित हैं, वहीं सम्पूर्ण श्री होगी।” उसने प्रत्यक्ष पुष्टि की कि धृतराष्ट्र को अपने पक्ष की विजय की आशा नहीं रखनी चाहिए। विजय तो अर्जुन के पक्ष की निश्चित है, क्योंकि उसमें कृष्ण हैं। श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन के सारथी का पद स्वीकार करना एक ऐश्वर्य का प्रदर्शन था। कृष्ण समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं और इनमें से वैराग्य एक है। ऐसे वैराग्य के भी अनेक उदाहरण हैं, क्योंकि कृष्ण वैराग्य के भी ईश्वर हैं।
युद्ध तो वास्तव में दुर्योधन तथा युधिष्ठिर के बीच था। अर्जुन अपने ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठिर की ओर से लड़ रहा था। चूँकि कृष्ण तथा अर्जुन युधिष्ठिर की ओर थे अतएव युधिष्ठिर की विजय ध्रुव थी। युद्ध को यह निर्णय करना था कि संसार पर शासन कौन करेगा। संजय ने भविष्यवाणी की कि सत्ता युधिष्ठिर के हाथ में चली जाएगी। यहाँ पर इसकी भी भविष्यवाणी हुई है कि इस युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद युधिष्ठिर उत्तरोत्तर समृद्धि करेंगे, क्योंकि वे न केवल पुण्यात्मा तथा पवित्रात्मा थे, अपितु वे कठोर नीतिवादी थे। उन्होंने जीवन भर कभी असत्य भाषण नहीं किया था।
ऐसे अनेक अल्पज्ञ व्यक्ति हैं, जो भगवद्गीता को युद्धस्थल में दो मित्रों की वार्ता के रूप में ग्रहण करते हैं। लेकिन इससे ऐसा ग्रंथ कभी शास्त्र नहीं बन सकता। कुछ लोग विरोध कर सकते हैं कि कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध करने के लिए उकसाया, जो अनैतिक है, लेकिन वास्तविकता तो यह है कि भगवद्गीता नीति का परम आदेश है। यह नीति विषयक आदेश नवें अध्याय के चौंतीसवें श्लोक में है – मन्मना भव मद्भक्तः। मनुष्य को कृष्ण का भक्त बनना चाहिए और सारे धर्मों का सार है – कृष्ण की शरणागति (सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज)। भगवद्गीता का आदेश धर्म तथा नीति की परम विधि है। अन्य सारी विधियाँ भले ही शुद्ध करने वाली तथा इस विधि तक ले जाने वाली हों, लेकिन गीता का अन्तिम सन्देश समस्त नीतियों तथा धर्मों का सार वचन है – कृष्ण की शरण ग्रहण करो या कृष्ण को आत्मसमर्पण करो। यह अठारहवें अध्याय का मत है।
भगवद्गीता से हम यह समझ सकते हैं कि ज्ञान तथा ध्यान द्वारा अपनी अनुभूति एक विधि है, लेकिन कृष्ण की शरणागति सर्वोच्च सिद्धि है। यह भगवद्गीता के उपदेशों का सार है। वर्णाश्रम धर्म के अनुसार अनुष्ठानों (कर्मकाण्ड) का मार्ग, ज्ञान का गुह्य मार्ग हो सकता है। लेकिन धर्म के अनुष्ठान के गुह्य होने पर भी ध्यान तथा ज्ञान गुह्यतर हैं तथा पूर्ण कृष्णभावनाभावित होकर भक्ति में कृष्ण की शरणागति गुह्यतम उपदेश है। यही अठारहवें अध्याय का सार है।
भगवद्गीता की अन्य विशेषता यह है कि वास्तविक सत्य भगवान् कृष्ण हैं। परम सत्य की अनुभूति तीन रूपों में होती है – निर्गुण ब्रह्म, अन्तर्यामी परमात्मा तथा भगवान् श्रीकृष्ण। परम सत्य के पूर्ण ज्ञान का अर्थ है, कृष्ण का पूर्ण ज्ञान। यदि कोई कृष्ण को जान लेता है तो ज्ञान के सारे विभाग इसी ज्ञान के अंश हैं। कृष्ण दिव्य हैं क्योंकि वे अपनी नित्य अन्तरंगा शक्ति में स्थित रहते हैं। जीव उनकी शक्ति से प्रकट हैं और दो श्रेणी के होते हैं – नित्यबद्ध तथा नित्यमुक्त। ऐसे जीवों की संख्या असंख्य है और वे सब कृष्ण के मूल अंश माने जाते हैं। भौतिक शक्ति चौबीस प्रकार से प्रकट होती है। सृष्टि शाश्वत काल द्वारा प्रभावित है और बहिरंगाशक्ति द्वारा इसका सृजन तथा संहार होता है। यह दृश्य जगत पुनःपुनः प्रकट तथा अप्रकट होता रहता है।
भगवद्गीता में पाँच प्रमुख विषयों की व्याख्या की गई है – भगवान्, भौतिक प्रकृति, जीव, शाश्वतकाल तथा सभी प्रकार के कर्म। सब कुछ भगवान् कृष्ण पर आश्रित है। परम सत्य की सभी धारणाएँ – निराकार ब्रह्म, अन्तर्यामी परमात्मा तथा अन्य दिव्य अनुभूतियाँ – भगवान् के ज्ञान की कोटि में सन्निहित हैं। यद्यपि ऊपर से भगवान्, जीव, प्रकृति तथा काल भिन्न प्रतीत होते हैं, लेकिन ब्रह्म से कुछ भी भिन्न नहीं है। लेकिन ब्रह्म सदैव समस्त वस्तुओं से भिन्न है। भगवान् चैतन्य का दर्शन है “अचिन्त्यभेदाभेद”। यह दर्शन पद्धति परम सत्य के पूर्णज्ञान से युक्त है।
जीव अपने मूलरूप में शुद्ध आत्मा है। वह परमात्मा का एक परमाणु मात्र है। इस प्रकार भगवान् कृष्ण की उपमा सूर्य से दी जा सकती है और जीवों की सूर्यप्रकाश से। चूँकि सारे जीव कृष्ण की तटस्था शक्ति हैं, अतएव उनका संसर्ग भौतिक शक्ति (अपरा) या आध्यात्मिक शक्ति (परा) से होता है। दूसरे शब्दों में, जीव भगवान् की पराशक्ति से है, अतएव उसमें किंचित् स्वतन्त्रता रहती है। इस स्वतन्त्रता के सदुपयोग से ही वह कृष्ण के प्रत्यक्ष आदेश के अन्तर्गत आता है। इस प्रकार वह ह्लादिनी शक्ति की अपनी सामान्य दशा को प्राप्त होता है।
भक्तार्पण : इस प्रकार श्रीमद भगवद्गीता यथारूप के 108 महत्त्वपूर्ण श्लोकों के भक्ति वेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए ।
कृष्णकृपामूर्ति श्री श्रीमद अभय चरणारविन्द भक्ति वेदान्त स्वामी श्रील प्रभुपाद
संस्थापकाचार्य : अन्तर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ
भगवद्गीता माहात्म्य
गीता शास्त्रमिंद पुण्यं य: पठेत् प्रायत: पुमान्-
यदि कोई भगवद्गीताके उपदेशों का पालन करे तो वह जीवन के दुखों तथा चिन्ताओं से मुक्त हो सकता है। भय शोकादिवर्जित: । वह इस जीवन में सारे भय से मुक्त हो जाएगा ओर उसका अगला जीवन आध्यात्मिक होगा । (गीता माहात्म्य 1)
एक अन्य लाभ भी होता है :
गीताध्ययनशीलस्य प्राणायामपरस्य च ।
नव सन्ति हि पापानि पूर्वजन्मकृतानि च ॥
"यदि कोई भगवद्गीता को निष्ठा तथा गम्भीरता के साथ पढ़ता है तो भगवान् की कृपा से उसके सारे पूर्व दुष्कर्मों के फ़लों का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता" । (गीतामाहात्म्य2) भगवान भगवद्गीता के अन्तिम अंश (18.66) में जोर देकर कहते है : सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरण व्रज । अहं त्वां सार्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच : ॥ "सब धर्मो को त्याग कर एकमात्र मेरी ही शरण में आओ । मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा । तुम डरो मत ।" इस प्रकार अपनी शरण में आये भक्त का पूरा उत्तरदायित्व भगवान् अपने उपर ले लेते हे और उसके समस्त पापो को क्षमा कर देते हैं।
मलिनेमोचनं पुंसां जलस्नान दिने दिने ।
सकृद्गीतामृतस्नानं संसारमलनाशनम् ॥
"मनुष्य जल में स्नान करके नित्य अपने को स्वच्छ कर सकता हे, लेकिन यदि कोई भगवद्गीता रूपी पवित्र गंगा-जल में एक बार भी स्नान कर ले तो वह भवसागर की मलिनता से सदा-सदा के लिए मुक्त हो जाताहै । (गीतामाहात्म्य3)
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैशास्त्रविस्तरै: ।
यास्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माव्दिनि:सृता ॥
चूँकि भगवद्गीता भगवान् के मुख से निकली है, अतएव किसी को अन्य वैदिक साहित्य पढ़ने की आवश्यकता नहीं रहती। उसे केवल भगवद्गीता का ही ध्यानपूर्वक तथा मनोयोग से श्रवण तथा पठन करना चाहिए। वर्तमान युग में लोग सांसारिक कार्यों में इतने व्यस्त हैं कि उनके लिए समस्त वैदिक साहित्य का अध्ययन कर पाना सम्भव नहीं रह गया है। परन्तु इसकी आवश्यकता भी नहीं है। केवल एक पुस्तक भगवद्गीता ही पर्याप्त है क्योंकि यह समस्त वैदिक ग्रंथों का सार है और इसका प्रवचन भगवान् ने किया है। (गीता माहात्म्य 4)
जैसा कि कहा गया है:
भारतामृतसर्वस्वं विष्णुववक्त्राव्दिनि:सृतम् ।
गीता-गङ्गोदकं पित्वा पुनर्जन्म नविद्यते ॥
"जो गंगाजल पीता है उसे मुक्ति मिलतीहे ! अतएव उसके लिए क्या कहा जाय जो भगवद्गीता का अमृत पान करता हो? भगवद्गीता महाभारत का अमृत है और इसे भगवान् कृष्ण (मूल विष्णु ) ने स्वयं सुनाया है। " (गीता महात्म्य 5) भगवद्गीता भगवान् के मुख से निकली है और गंगा भगवान् के चरणकमलों से निकली है! निस्सन्देह भगवान् के मुख से तथा चरणों मे कोई अन्तर नहीं है लेकिन निष्पक्ष अध्ययन से हम पाएँगे कि भगवद्गीता गंगा-जल की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है ।
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दन: ।
पार्थो वत्स: सुधीर्भोक्ता दुग्ध गीतामृतं महत् ॥
"यह गीतोपनिषद्, भगवद्गीता, जो समस्त उपनिषदों का सार है, गाय के तुल्य है और ग्वालबाल के रूप में विख्यात भगवान् कृष्ण इस गाय को दुह रहे हैं। अर्जुन बछड़े के समान है और सारे विद्वान तथा शुद्ध भक्त भगवद्गीता के अमृतमय दूध का पान करने वाले हैं ।" (गीता माहात्म्य 6)
एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतम्
एको देवो देवकीपुत्रएव ।
एको मन्त्रस्तस्य नामानि यानि
कर्माप्येकंतस्य देवस्य सेवा ॥
आज के युग में लोग एक शास्त्र, एक ईश्वर, एक धर्म तथा एक वृत्ति के लिए अत्यन्त उत्सुक हैं। अतएव एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतम् - केवल एक शास्त्र भगवद्गीता हो, जो सारे विश्व के लिये हो। एको देवो देवकीपुत्र एव - सारे विश्व के लिये एक ईश्वर हो - श्रीकृष्ण।एको मन्त्रस्तस्य नामानि यानि और एक मन्त्र, एक प्रार्थना हो - उनके नाम का कीर्तन - हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे । हरे राम, हरे राम, राम, राम हरे हरे ॥ कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा - और केवल एक ही कार्य हो - भगवान् की सेवा । (गीता माहात्म्य 7)
आप सभी भक्तों एवं टीम इस्कॉन डिजायर ट्री.कॉम.
का हार्दिक आभार और धन्यवाद !
(Thanks a lot to ALL DEVOTEE and TEAM IDT.Com.)
***भगवान हरि की जय हो!**
**हरि बोल! हरि बोल! हरि बोल! ***
-- ::हरि ॐ तत सत:: --
(समर्पित एवं सेवारत-जगदीश चन्द्र चौहान)
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हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे🙏