भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक
अध्याय बारह भक्तियोग
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेश्य ।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥ 8 ॥
मयि- मुझमें;एव- निश्चय ही;मनः- मन को;आधत्स्व- स्थिर करो;मयि- मुझमें;बुद्धिम्- बुद्धि को;निवेश्य- लगाओ;निवसिष्यसि- तुम निवास करोगे;मयि- मुझमें;एव- निश्चय ही;अतः-अर्ध्वम्- तत्पश्चात्;न- कभी नहीं;संशयः- सन्देह।
भावार्थ : मुझ भगवान् में अपने चित्त को स्थिर करो और अपनी साड़ी बुद्धि मुझमें लगाओ। इस प्रकार तुम निस्सन्देह मुझमें सदैव वास करोगे।
तात्पर्य : जो भगवान् कृष्ण की भक्ति में रत रहता है, उसका परमेश्वर के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है। अतएव इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं कि प्रारम्भ से ही उसकी स्थिति दिव्य होती है। भक्त कभी भौतिक धरातल पर नहीं रहता - वह सदैव कृष्ण में वास करता है। भगवान् का पवित्र नाम तथा भगवान् अभिन्न हैं। अतः जब भक्त हरे कृष्ण कीर्तन करता है, तो कृष्ण तथा उनकी अन्तरंगाशक्ति भक्त की जिह्वा पर नाचते रहते हैं। जब वह कृष्ण को भोग चढ़ाता है, जो कृष्ण प्रत्यक्ष रूप से ग्रहण करते हैं और इस तरह इस उच्छिष्ट (जूठन) को खाकर कृष्णमय हो जाता है। जो इस प्रकार सेवा में ही नहीं लगता, वह नहीं समझ पाता कि यह सब कैसे होता है, यद्यपि भगवद्गीता तथा अन्य वैदिक ग्रंथों में इसी विधि की संस्तुति की गई है।
(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)
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