jagdish chandra chouhan's Posts (549)

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अध्याय छप्पन – स्यमन्तक मणि (10.56) 

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: कृष्ण का अपमान करने के बाद सत्राजित ने अपनी पुत्री तथा स्यमन्तक मणि उन्हें भेंट करके प्रायश्चित करने का भरसक प्रयत्न किया।

2 महाराज परीक्षित ने पूछा: हे ब्राह्मण – राजा सत्राजित ने क्या कर दिया कि भगवान कृष्ण उससे रुष्ट हो गए? उसे स्यमन्तक मणि कहाँ से मिली और उसने अपनी पुत्री भगवान को क्यों दी?

3 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: सूर्यदेव अपने भक्त सत्राजित के प्रति अत्यन्त वत्सल थे। अतः उनके श्रेष्ठ मित्र के रूप में उन्होंने अपनी तुष्टि के चिन्ह रूप में उसे स्यमन्तक नामक मणि प्रदान की।

4 सत्राजित उस मणि को गले में पहनकर द्वारका में प्रविष्ट हुआ। हे राजन, वह साक्षात सूर्य के समान चमक रहा था और मणि के तेज से पहचाना नहीं जा रहा था।

5 जब लोगों ने सत्राजित को दूर से आते देखा तो उसकी चमक से वे चौंधिया गये। उन्होंने मान लिया कि वह सूर्यदेव है और भगवान कृष्ण को बताने गये जो उस समय पाँसा खेल रहे थे।

6 द्वारकावासियों ने कहा: हे नारायण, हे शंख, चक्र, गदा धारण करने वाले, हे कमलनेत्र दामोदर, हे गोविन्द, हे यदुवंशी, आपको नमस्कार है।

7 हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, सवितादेव आपको मिलने आये हैं। वे अपनी प्रखर तेजोमय किरणों से सबों की आँखों को चौंधिया रहे हैं।

8 हे प्रभु, अब तीनों लोकों के परम श्रेष्ठ देवता आपको खोज निकालने के लिए उत्सुक हैं क्योंकि आपने अपने को यदुवंशियों के बीच छिपा रखा है। अतः अजन्मा सूर्यदेव आपका दर्शन करने यहाँ आये हैं।

9 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे बताया: ये भोलेभाले वचन सुनकर कमलनयन जोर से हँसे और बोले, यह सूर्यदेव, रवि नहीं, अपितु सत्राजित है, जो अपनी मणि के कारण चमक रहा है।

10 राजा सत्राजित समारोह के साथ शुभ अनुष्ठान सम्पन्न करके अपने ऐश्वर्यशाली घर में प्रविष्ट हुआ। उसने योग्य ब्राह्मणों से अपने घर के मन्दिर कक्ष में स्यमन्तक मणि की स्थापना करा दी।

11 हे प्रभु, वह मणि प्रतिदिन आठ भार सोना उत्पन्न करता था, जिस स्थान में वह रखा और पूजा जाता था वह स्थान आपदाओं, अकाल, असामयिक मृत्यु, सर्पदंश, मानसिक तथा भौतिक रोगों और ठगों से मुक्त रहता था।

12 एक अवसर पर भगवान कृष्ण ने सत्राजित से अनुरोध किया कि वह इसे यदुराज उग्रसेन को दे दे किन्तु सत्राजीत ने देने से इनकार कर दिया। उसने भगवान की याचना को ठुकराने से होने वाले अपराध की गम्भीरता पर विचार नहीं किया।

13 एक बार सत्राजित का भाई प्रसेन उस चमकीली मणि को गले में पहनकर घोड़े पर सवार हुआ और जंगल में शिकार खेलने चला गया।

14 प्रसेन तथा उसके घोड़े को एक सिंह ने मारकर वह मणि ले ली। किन्तु जब वह सिंह पर्वत की गुफा में घुसा तो उस मणि के इच्छुक जाम्बवान ने उसे मार डाला।

15 गुफा के भीतर जाम्बवान ने उस मणि को अपने पुत्र को खिलौने के तौर पर खेलने के लिए दे दी। सत्राजित अपने भाई को वापस आता न देखकर अत्यन्त व्याकुल हो गया ।

16 उसने कहा: सम्भवतया कृष्ण ने मेरे भाई को मार डाला है क्योंकि वह अपने गले में मणि पहनकर जंगल गया था। जब लोगों ने यह दोषारोपण सुना तो वे एक-दूसरे से कानाफूसी करने लगे।

17 जब भगवान कृष्ण ने यह अफवाह सुनी तो उन्होंने अपने यश में लगे कलंक को मिटाना चाहा। अतः द्वारका के कुछ नागरिकों को अपने साथ लेकर वे प्रसेन को ढूँढने के लिए रवाना हो गये।

18 जंगल में उन्होंने प्रसेन तथा उसके घोड़े दोनों को ही सिंह द्वारा मारा गया पाया। इसके आगे उन्होंने पर्वत की बगल में सिंह को ऋक्ष (जाम्बवान) द्वारा मारा गया पाया।

19 भगवान ने ऋक्षराज की भयावनी घनान्धकारमय गुफा के बाहर नागरिकों को बैठा दिया और अकेले ही गुफा में प्रविष्ट हो गये।

20 वहाँ भगवान कृष्ण ने देखा कि वह बहुमूल्य मणि बच्चे का खिलौना बना हुआ है। उसे लेने का संकल्प करके वे उस बालक के निकट गये।

21 उस असाधारण व्यक्ति को अपने समक्ष खड़ा देखकर बालक की धाय भयवश चिल्ला उठी। उसकी चीख सुनकर बलवानों में सर्वाधिक बलवान जाम्बवान क्रुद्ध होकर भगवान की ओर दौड़ा।

22 उनके असली पद से अनजान तथा उन्हें सामान्य व्यक्ति समझते हुए जाम्बवान अपने स्वामी भगवान से क्रुद्ध होकर लड़ने लगे।

23 दोनों जीतने के लिए कृतसंकल्प होकर घमासान द्वन्द्व युद्ध करने लगे। पहले विविध हथियारों से और तब पत्थरों, वृक्षों के तनों और अन्त में निःशस्त्र बाहुओं से एक-दूसरे से भिड़कर, वे मांस के टुकड़े के लिए झपट रहे दो बाजों की तरह लड़ रहे थे।

24 यह युद्ध बिना विश्राम के अट्ठाईस दिनों तक चलता रहा। दोनों एक-दूसरे पर मुक्कों से प्रहार कर रहे थे, जो टूक-टूक करने वाले बिजली के प्रहारों जैसे गिरते थे।

25 भगवान कृष्ण के मुक्कों से जाम्बवान की उभरी मांस-पेशियाँ कुचलती गईं, उसका बल घटने लगा और अंग पसीने से तर हो गये, तो वह अत्यन्त चकित होकर भगवान से बोला।

26 जाम्बवान ने कहा: मैं जानता हूँ आप समस्त जीवों के प्राण हैं और ऐन्द्रिय, मानसिक तथा शारीरिक बल हैं। आप आदि-पुरुष, परम पुरुष, सर्व शक्तिमान नियन्ता भगवान विष्णु हैं।

27 आप ब्रह्माण्ड के समस्त स्रष्टाओं के परम स्रष्टा तथा समस्त सृजित वस्तुओं में निहित वस्तु (सत) हैं। आप समस्त दमनकारियों के दमनकर्ता, परमेश्वर तथा समस्त आत्माओं के परमात्मा हैं।

28 आप वही हैं जिनके क्रोध को तनिक प्रकट करने वाली चितवन ने अथाह जल के भीतर घड़ियालों तथा तिमिंगिल मछलियों को क्षुब्ध बना दिया था, जिससे सागर मार्ग देने के लिए बाध्य हुआ था। आप वही हैं जिन्होंने अपना यश स्थापित करने के लिए एक महान पुल बनाया, लंका नगरी को जला दिया और जिनके बाणों ने रावण के सिरों को छिन्न कर दिया, जो पृथ्वी पर जा गिरे।

29-30 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजन, तब भगवान कृष्ण ने ऋक्षराज को सम्बोधित किया जो सच्चाई जान गया था। समस्त आशीर्वादों के दाता देवकी-पुत्र कमलनेत्र भगवान ने, अपने कर-कमल से जाम्बवान का स्पर्श किया और अपने भक्त से अत्यन्त कृपापूर्वक मेघ की गर्जना जैसी गम्भीर वाणी में बोले।

31 भगवान कृष्ण ने कहा: हे ऋक्षराज, हम इसी मणि के लिए आपकी गुफा में आये हैं। मैं इस मणि का उपयोग अपने विरुद्ध लगाये गये आरोपों को झूठा सिद्ध करने के लिए करना चाहता हूँ।

32 इस प्रकार कहे जाने पर जाम्बवान ने प्रसन्नतापूर्वक अपनी कुमारी पुत्री जाम्बवती के साथ-साथ मणि को भेंट अर्पित करते हुए भगवान कृष्ण का सम्मान किया।

33 भगवान शौरी के गुफा में प्रविष्ट होने के बाद उनके साथ आये द्वारका के लोग बारह दिनों तक उनकी प्रतीक्षा करते रहे किन्तु वे बाहर नहीं आये। अन्त में वे सब निराश होकर अत्यन्त दुखी मन से अपने नगर लौट गये थे।

34 जब देवकी, रुक्मिणी देवी, वसुदेव तथा भगवान के अन्य सम्बन्धियों ने सुना कि वे गुफा से बाहर नहीं निकले तो वे सभी दुखी होने लगे।

35 सत्राजित को कोसते हुए व्याकुल द्वारकावासी चन्द्रभागा नामक दुर्गा अर्चाविग्रह के समीप गये और कृष्ण की वापसी के लिए उनसे प्रार्थना करने लगे।

36 जब नगर निवासी देवी की पूजा कर चुके तो वे उनसे बोलीं कि तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार की जाती है। तभी अपने लक्ष्य की पूर्ति करके भगवान कृष्ण अपनी नई पत्नी के साथ उनके समक्ष प्रकट हुए और उन्हें हर्ष से सराबोर कर दिया।

37 भगवान हृषिकेश को उनकी नवीन पत्नी के साथ तथा उनके गले में स्यमन्तक मणि पड़ी देखकर सारे लोगों में अत्यधिक प्रसन्नता छा गई, मानों कृष्ण मृत्यु से वापस लौटे हों।

38 भगवान कृष्ण ने सत्राजित को राजसभा में बुलवाया। वहाँ राजा उग्रसेन की उपस्थिति में कृष्ण ने मणि पाये जाने की घोषणा की और तब उसे औपचारिक रीति से सत्राजित को भेंट कर दिया।

39 अत्यधिक लज्जा से मुँह लटकाये सत्राजित ने वह मणि ले ली और घर लौट गया किन्तु सारे समय वह अपने पापपूर्ण आचरण पर पश्चाताप का अनुभव करता रहा।

40-42 अपने घोर अपराध के बारे में सोच-विचार करते और भगवान के शक्तिशाली भक्तों से संघर्ष की सम्भावना के बारे में चिन्तित राजा सत्राजित ने सोचा, “मैं किस तरह अपने कल्मष को धो सकता हूँ और किस तरह भगवान अच्युत मुझ पर प्रसन्न हों? मैं अपने सौभाग्य की पुनः प्राप्ति के लिए क्या कर सकता हूँ? दूरदृष्टि न होने, कंजूस, मूर्ख तथा लालची होने से मैं जनता से शापित होने से कैसे बचूँ? मैं अपनी पुत्री, जो कि सभी स्त्रियों में रत्न है, स्यमन्तक मणि के साथ ही भगवान को भेंट कर दूँगा। निस्सन्देह उन्हें शान्त करने का यही एकमात्र उचित उपाय है।

43 इस तरह बुद्धिमानी के साथ मन को दृढ़ करके राजा सत्राजित ने स्वयं अपनी गौर-वर्ण वाली पुत्री के साथ-साथ स्यमन्तक मणि भी भगवान कृष्ण को भेंट करने की व्यवस्था की।

44 भगवान ने उचित धार्मिक रीति से सत्यभामा के साथ विवाह कर लिया। उत्तम आचरण, सौन्दर्य, उदारता तथा अन्य सद्गुणों से सम्पन्न होने के कारण अनेक लोगों ने उसे लेना चाहा था।

45 भगवान ने सत्राजित से कहा: हे राजन, हमें इस मणि को वापस लेने की इच्छा नहीं है। तुम सूर्यदेव के भक्त हो अतः इसे अपने पास ही रखो। इस प्रकार हम भी इससे लाभ उठा सकेंगे।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय पचपन – प्रद्युम्न कथा (10.55) 

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: वासुदेव का अंश कामदेव पहले ही रुद्र के क्रोध से जल कर राख हो चुका था। अब नवीन शरीर प्राप्त करने के लिए वह भगवान वासुदेव के शरीर में पुनः लीन हो गया।

2 उसका जन्म वैदर्भी की कोख से हुआ और उसका नाम प्रद्युम्न पड़ा। वह अपने पिता से किसी भी तरह कम नहीं था।

3 इच्छानुसार कोई भी रूप धारण कर लेने वाला असुर शम्बर, शिशु को जो अभी दस दिन का भी नहीं हुआ था, उठा ले गया। प्रद्युम्न को अपना शत्रु समझ कर शम्बर ने उसे समुद्र में फेंक दिया और फिर अपने घर लौट आया।

4 प्रद्युम्न को एक बलशाली मछली निगल गई और यह मछली अन्य मछलियों के साथ मछुआरों द्वारा एक बड़े से जाल में फँसा कर पकड़ी गई।

5 मछुआरों ने वह असामान्य मछली शम्बर को भेंट कर दी। शम्बर के रसोइये मछ्ली को रसोई-घर में ले आये और कसाई के चाकू से काटने लगे।

6 मछली के पेट में बालक पाकर रसोइयों ने यह बालक मायावती को दे दिया, जो चकित रह गई। तब नारदमुनि प्रकट हुए और उन्होंने उससे बालक के जन्म तथा मछली के पेट में उसके प्रवेश की सारी बातें कह सुनाईं।

7-8 वस्तुतः मायावती कामदेव की सुप्रसिद्ध पत्नी रति थी। वह अपने पति द्वारा नवीन शरीर प्राप्त करने की प्रतीक्षा में थी क्योंकि उसके पति का पिछला शरीर भस्म कर दिया गया था। मायावती को शम्बर द्वारा तरकारियाँ तथा चावल पकाने का काम सौंपा गया था। मायावती समझ गई थी कि यह शिशु वास्तव में कामदेव है, अतएव वह उससे प्रेम करने लगी थीं।

9 कुछ काल बाद कृष्ण के इस पुत्र, प्रद्युम्न ने पूर्ण यौवन प्राप्त कर लिया। वह उन सारी स्त्रियों को मोहने लगा जो उसे देखती थीं।

10 हे राजन, सलज्ज हास तथा भौंहें ताने मायावती जब प्रेमपूर्वक अपने पति के पास पहुँची तो उसने दाम्पत्य आकर्षण के विविध संकेत प्रकट किए। उसके पति की आँखें कमल की पंखड़ियों की तरह फैली हुई थीं, उसकी भुजाएँ काफी लम्बी थीं और मनुष्यों में वह सर्वाधिक मनोहर था।

11 भगवान प्रद्युम्न ने उससे कहा: "हे माता, तुम्हारे मनोभाव बदल गये हैं। तुम मातोचित भावों का अतिक्रमण कर रही हो और एक प्रेयसी की भाँति आचरण कर रही हो।"

12 रति ने कहा: आप भगवान नारायण के पुत्र हैं और शम्बर द्वारा अपने माता-पिता के घर से हर लिए गये थे। हे प्रभु, मैं आपकी वैध पत्नी रति हूँ, क्योंकि आप कामदेव हैं।

13 उस शम्बर असुर ने जबकि आप अभी दस दिन के भी नहीं थे आपको समुद्र में फेंक दिया और एक मछली आपको निगल गई। तत्पश्चात हे प्रभु, हमने इसी स्थान पर आपको मछली के पेट से प्राप्त किया।

14 आप अपने इस अत्यन्त दुर्धर्ष तथा भयानक शत्रु का वध कर दें। यद्यपि यह सैकड़ों प्रकार के जादू जानता है किन्तु आप उसे जादू तथा अन्य विधियों से मोहित करके हरा सकते हैं।

15 अपना पुत्र खो जाने से बेचारी तुम्हारी माता तुम्हारे लिए कुररी पक्षी की भाँति विलख है। वह अपने पुत्र के प्रेम से उसी तरह अभिभूत है, जिस तरह अपने बछड़े से विलग हुई गाय।

16 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे बताया: इस प्रकार कहते हुए मायावती ने महात्मा प्रद्युम्न को महामाया नामक योग-विद्या प्रदान की, जो अन्य समस्त मोहिनी शक्तियों को विनष्ट कर देती है।

17 प्रद्युम्न शम्बर के पास गया और विवाद बढ़ाने के लिए उसे असह्य अपमानजनक बातें कहकर युद्ध करने के लिए ललकारा।

18 इन कटु वचनों से अपमानित होकर शम्बर पाँव से कुचले गये सर्प की भाँति विक्षुब्ध हो उठा। वह हाथ में गदा लेकर बाहर निकल आया। उसकी आँखें क्रोध से लाल थीं।

19 शम्बर ने तेजी से अपनी गदा घुमाई और इसे चतुर प्रद्युम्न पर फेंक दिया जिससे बिजली कड़कने जैसी तीव्र आवाज उत्पन्न हुई।

20 जैसे ही शम्बर की गदा उड़ती हुई भगवान प्रद्युम्न की ओर आई उन्होंने अपनी गदा से उसे दूर छिटका दिया। तब हे राजन, प्रद्युम्न ने क्रुद्ध होकर शत्रु पर अपनी गदा फेंकी।

21 मय दानव द्वारा सिखलाए गये दैत्यों के काले जादू का प्रयोग करते हुए शम्बर सहसा आकाश में प्रकट हुआ और उसने कृष्ण के पुत्र पर हथियारों की झड़ी लगा दी।

22 हथियारों की इस झड़ी से तंग आकर महाबलशाली योद्धा रौक्मिणेय ने महामाया नामक योगविद्या का प्रयोग किया जो सतोगुण से उत्पन्न थी और अन्य समस्त योगशक्तियों को परास्त करने वाली थी।

23 तब उस असुर ने गुह्यकों, गन्धर्वों,, पिशाचों, उरगों तथा राक्षसों से सम्बन्धित सैकड़ों हथियार छोड़े किन्तु भगवान कार्ष्णि अर्थात प्रद्युम्न ने उन सबको विनष्ट कर दिया।

24 अपनी तेज धार वाली तलवार खींच कर प्रद्युम्न ने बड़े ही वेग से शम्बर का सिर काट कर अलग कर दिया।

25 जब उच्चलोकों के वासी प्रद्युम्न पर फूलों की वर्षा करके उनकी प्रशंसा के गीत गा रहे थे तो उनकी पत्नी आकाश में प्रकट हुई और उन्हें आकाश-मार्ग से होते हुए द्वारकापुरी वापस ले गई।

26 हे राजन, जब प्रद्युम्न अपनी पत्नी समेत कृष्ण के सर्वोत्कृष्ट महल के भीतरी कक्षों में आकाश से उतरे। वे बिजली से युक्त बादल जैसे प्रतीत हो रहे थे।

27-28 जब उस महल की स्त्रियों ने उनके, वर्षा के बादल जैसे साँवले रंग, पीले रेशमी वस्त्रों, लम्बी भुजाओं, मनोहर हँसी से युक्त आकर्षक कमल मुख, सुन्दर आभूषण तथा उनके घुँघराले श्यामल बालों को देखा तो उन्होंने सोचा कि वे कृष्ण हैं। इस तरह सारी स्त्रियाँ सकुचाकर इधर उधर छिप गईं।

29 धीरे-धीरे उनके तथा कृष्ण के वेश में कुछ-कुछ अन्तरों से स्त्रियों को लगा कि वे भगवान कृष्ण नहीं हैं। वे अत्यन्त प्रफुल्लित एवं चकित होकर प्रद्युम्न तथा उनकी प्रेयसी स्त्रीरत्न के पास आईं।

30 प्रद्युम्न को देखकर स्नेहवश मधुर वाणी एवं श्याम नेत्रों वाली रुक्मिणी ने अपने खोये हुए पुत्र का स्मरण किया।

31 श्रीमती रुक्मिणीदेवी ने कहा: पुरुषों में रत्न यह कमल नेत्रों वाला कौन है? यह किस पुरुष का पुत्र है और किस स्त्री ने इसे अपने गर्भ में धारण किया? और यह स्त्री कौन है, जिसे उसने अपनी पत्नी बनाया है।

32 यदि मेरा खोया हुआ पुत्र, जो प्रसुतिगृह से हर लिया गया था, जीवित होता तो वह इसी नवयुवक की आयु तथा रूप का होता।

33 किन्तु यह कैसे है कि यह नवयुवक अपने शारीरिक रूप, अंगों, चाल, स्वर और अपनी हँसी युक्त दृष्टि में मेरे स्वामी, शार्ङ्गधर कृष्ण से इतनी समानता रखता है?

34 हाँ, यह वही बालक हो सकता है, जिसे मैंने अपने गर्भ में धारण किया था क्योंकि इसके प्रति मुझे अतीव स्नेह का अनुभव हो रहा है और मेरी बाईं भुजा भी फड़क रही है।

35 जब रानी रुक्मिणी इस तरह सोच-विचार में पड़ी थीं तब देवकी-पुत्र कृष्ण, वसुदेव तथा देवकी सहित, घटनास्थल पर आ गये।

36 यद्यपि भगवान जनार्दन यह भलीभाँति जानते थे कि क्या हुआ है किन्तु वे मौन रहे। तथापि नारदमुनि ने शम्बर द्वारा बालक के अपहरण से लेकर अब तक की सारी बातें कह सुनाई।

37 जब भगवान कृष्ण के महल की स्त्रियों ने इस अत्यन्त आश्चर्यमय विवरण को सुना तो उन्होंने बड़े ही हर्ष के साथ प्रद्युम्न का अभिनन्दन किया जो वर्षों से खोये हुए थे किन्तु अब इस तरह लौटे थे मानो मृत्यु से लौट आये हों।

38 देवकी, वसुदेव, कृष्ण, बलराम तथा महल की सारी स्त्रियों, विशेषतया रानी रुक्मिणी ने, तरुण दम्पत्ति को गले लगाया और आनन्द मनाया।

39 यह सुनकर कि खोया हुआ प्रद्युम्न घर आ गया है, द्वारकावासी चिल्ला उठे, "ओह! विधाता ने इस बालक को मानो मृत्यु से वापस आने दिया है।"

40 प्रद्युम्न लक्ष्मी के आश्रय भगवान कृष्ण के सौन्दर्य के पूर्ण प्रतिबिम्ब थे, अतः उनकी माता जैसे पद को प्राप्त स्त्रियों को भी उनके प्रति प्रेमाकर्षण का अनुभव हुआ तो फिर इस विषय में क्या कहा जा सकता है कि उन्हें देखकर अन्य स्त्रियों ने क्या अनुभव किया होगा?

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय चौवन – कृष्ण रुक्मिणी विवाह (10.54)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: सारे क्रुद्ध राजाओं ने अपने कवच पहने और धनुष धारण कर सेना सहित भगवान कृष्ण का पीछा करने लगे।

2 जब यादव सेना के सेनापतियों ने देखा कि शत्रुगण उन पर आक्रमण करने के लिये आ रहे हैं, तो हे राजन, वे सब उनका सामना करने के लिए मुड़े और दृढ़तापूर्वक अड़ गये।

3 घोड़ों, हाथियों तथा रथों पर सवार शत्रु राजाओं ने यदुओं पर बाणों की ऐसी वर्षा की जैसी कि बादल पर्वतों पर वर्षा करते हैं।

4 रुक्मिणी ने अपने स्वामी की सेना को बाणों की धुँआधार वर्षा से आच्छादित देखकर भयभीत आँखों से लजाते हुए कृष्ण के मुख की ओर निहारा।

5 भगवान ने हँसते हुए उसे विश्वास दिलाया, “हे रुक्मिणी डरो मत! यह शत्रु सेना तुम्हारे सैनिकों द्वारा विनष्ट होने ही वाली है।"

6 भगवान की सेना में गद, संकर्षण इत्यादि वीर लोहे के बाणों से शत्रुओं के घोड़ों, हाथियों तथा रथों पर प्रहार करने लगे।

7-9 कुण्डल, मुकुट एवं पगड़ी से युक्त सैनिकों के सिर करोड़ों की संख्या में गिरने लगे। चारों ओर मृत सैनिकों के छिन्न-भिन्न अंग तथा घोड़ों, गधों, हाथियों, ऊँटों, जंगली गधों के सिर भी पड़े हुए थे। विजय के लिए उत्सुक वृष्णियों द्वारा अपनी सेनाओं को मारे जाते देखकर जरासन्ध इत्यादि राजा हतोत्साहित हुए और युद्धभूमि छोड़कर भाग गये।

10 सारे राजा शिशुपाल के पास गये जो उस व्यक्ति के समान उद्विग्न था जिसकी पत्नी छिन चुकी हो। उसके शरीर का रंग उतर गया, उसका उत्साह जाता रहा और उसका मुख सूखा हुआ प्रतीत होने लगा। राजाओं ने उससे इस प्रकार कहा।

11 जरासन्ध ने कहा-- हे पुरुषों में व्याघ्र शिशुपाल, सुनो। तुम अपनी उदासी छोड़ दो। हे राजन, सारे देहधारियों का सुख तथा दुख कभी भी स्थायी नहीं देखे गये हैं।

12 जिस तरह स्त्री के वेश में एक कठपुतली अपने नचाने वाले की इच्छानुसार नाचती है उसी तरह भगवान द्वारा नियंत्रित यह जगत सुख तथा दुख दोनों से भिड़ता रहता है।

13 मैं कृष्ण के साथ युद्ध में अपनी तेईस सेनाओं सहित सत्रह बार हारा - केवल एक बार उन्हें पराजित कर सका।

14 तो भी मैं न तो कभी शोक करता हूँ, न हर्षित होता हूँ, क्योंकि मैं जानता हूँ कि यह संसार काल तथा भाग्य द्वारा संचालित है।

15 अब हम सभी, सेनानायकों के बड़े बड़े सेनापति, यदुओं तथा उनकी छोटी सेना के द्वारा हराये जा चुके हैं क्योंकि वे सभी कृष्ण द्वारा संरक्षित हैं।

16 अभी हमारे शत्रुओं ने हमें जीत लिया है क्योंकि समय ने उनका साथ दिया, किन्तु भविष्य में जब समय हमारे लिए शुभ होगा तो हम जीतेंगे।

17 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह अपने मित्रों द्वारा समझाने-बुझाने पर शिशुपाल अपने अनुयायियों सहित अपनी राजधानी लौट गया। जो योद्धा बच रहे थे वे भी अपने नगरों को लौट गये।

18 किन्तु बलवान रुक्मी कृष्ण से विशेष रूप से द्वेष रखता था। उससे यह बात सहन नहीं हो सकी कि कृष्ण बलपूर्वक उसकी बहिन को ले जाकर उससे राक्षस-विधि से विवाह कर ले। अतः उसने सेना की एक पूरी टुकड़ी लेकर भगवान का पीछा किया।

19-20 उद्विग्न एवं क्रुद्ध महाबाहु रुक्मी ने कवच पहने तथा धनुष धारण किये सभी राजाओं के समक्ष यह शपथ ली थी, यदि मैं युद्ध में कृष्ण को मारकर रुक्मिणी को अपने साथ वापस नहीं ले आता तो मैं फिर कुण्डिन नगर में प्रवेश नहीं करूँगा। यह मैं आप लोगों के समक्ष शपथ लेता हूँ।

21 यह कहकर वह अपने रथ पर चढ़ गया और अपने सारथी से कहा, “तुम घोड़ों को जल्दी से हाँक कर वहीं ले चलो जहाँ कृष्ण है, उससे मुझे युद्ध करना है।“

22 इस दुष्टबुद्धि ग्वालबाल ने अपने बल के घमण्ड में चूर होकर मेरी बहन का बलपूर्वक अपहरण किया है। किन्तु आज मैं उसके घमण्ड को अपने तीखे बाणों से चूर कर दूँगा।

23 इस प्रकार डींग हाँकता, भगवान के पराक्रम के असली विस्तार से अपरिचित मूर्ख रुक्मी, अपने एकाकी रथ में भगवान गोविन्द के पास पहुँचा और उन्हें ललकारा, “जरा ठहरो और लड़ो।"

24 रुक्मी ने भारी जोर लगाकर अपना धनुष खींचा और कृष्ण पर तीन बाण चलाये। तब उसने कहा, “रे यदुवंश को दूषित करने वाले! जरा एक क्षण ठहर तो!”

25 तुम यज्ञ के घृत चुराने वाले कौवे की भाँति मेरी बहन को जहाँ-जहाँ ले जाओगे वहाँ-वहाँ मैं तुम्हारा पीछा करूँगा। अरे धोखेबाज, अरे युद्ध में ठगने वाले! मैं आज ही तुम्हारे मिथ्या गर्व को चूर-चूर कर दूँगा।

26 इसके पूर्व की तुम मेरे बाणों के प्रहार से मरो और लोटपोट हो जाओ तुम इस लड़की को छोड़ दो। इसके उत्तर में भगवान कृष्ण मुसकरा दिये और अपने छह बाणों से रुक्मी पर प्रहार करके उसके धनुष को तोड़ डाला।

27 भगवान ने रुक्मी के चारों घोड़ों को आठ बाणों से, उसके सारथी को दो बाणों से तथा रथ की ध्वजा को तीन बाणों से नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। रुक्मी ने दूसरा धनुष उठाया और कृष्ण पर पाँच बाणों से प्रहार किया।

28 यद्यपि भगवान अच्युत पर इन अनेक बाणों से प्रहार हुआ किन्तु उन्होंने पुनः रुक्मी के धनुष को तोड़ दिया। रुक्मी ने दूसरा धनुष उठाया किन्तु अविनाशी भगवान ने उसे भी खण्ड-खण्ड कर डाला।

29 रुक्मी ने जो भी हथियार-परिघ, पट्टिश, त्रिशूल, ढाल तथा तलवार, शक्ति और तोमर-उठाया, उन्हें भगवान हरि ने छिन्न-भिन्न कर डाला।

30 तब रुक्मी अपने रथ से नीचे कूद पड़ा और अपने हाथ में तलवार लेकर कृष्ण को मारने के लिए उनकी ओर अत्यन्त क्रुद्ध होकर दौड़ा जिस तरह कोई पक्षी वायु में उड़े।

31 ज्योंही रुक्मी ने उन पर आक्रमण किया, भगवान ने तीर चलाये जिससे रुक्मी की तलवार तथा ढाल के खण्ड खण्ड हो गये। तब कृष्ण ने अपनी तेज तलवार धारण की और रुक्मी को मारने की तैयारी की।

32 अपने भाई को मार डालने के लिए उद्यत भगवान कृष्ण को देखकर साध्वी सदृश रुक्मिणी अत्यन्त भयभीत हो उठीं। वे अपने पति के पैरों पर गिर पड़ीं और बड़े ही करुण-स्वर में बोलीं।

33 श्री रुक्मिणी ने कहा: ये योग्श्वर, हे अप्रमेय, हे देवताओं के देव, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी! हे मंगलमय एवं बाहुबली! कृपया मेरे भाई का वध न करें।

34 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा:रुक्मिणी के अत्यधिक भयभीत होने से उसके अंग-अंग काँपने लगे, मुँह सूखने लगा तथा त्रास के मारे उसका गला रुँध गया। उद्वेलित होने से उसका सोने का हार (माला) बिखर गया। उसने कृष्ण के पैर पकड़ लिये। तब भगवान ने दया दिखलाकर उसे छोड़ दिया।

35 भगवान कृष्ण ने उस दुकृत्य करने वाले को कपड़े की पट्टी (दुपट्टे) से बाँध दिया। इसके बाद उन्होंने उसकी कुछ-कुछ मूँछें तथा बाल छोड़कर शेष सारे बाल हास्यजनक रूप से मुँड़कर उसको विरूप बना दिया। तब तक यदुवीरों ने अपने विपक्षियों की अद्भुत सेना को कुचल दिया था जिस तरह हाथी कमल के फूल को कुचल देता है।

36 जब यदुगण भगवान कृष्ण के पास पहुँचे तो उन्होंने रुक्मी को इस शोचनीय अवस्था में प्रायः शर्म से मरते देखा। जब सर्वशक्तिमान बलराम ने रुक्मी को देखा तो दयावश उन्होंने उसे छुड़ा दिया और वे भगवान कृष्ण से इस तरह बोले।

37 बलराम ने कहा: हे कृष्ण, तुमने अनुचित कार्य किया है। इस कार्य से हमको लज्जित होना पड़ेगा, क्योंकि किसी निकट सम्बन्धी के मूँछ तथा बाल मुँड़कर उसे विरूपित करना उसका वध करने के ही समान है।

38 हे साध्वी, तुम अपने भाई के विरूप होने की चिन्ता से हम पर रुष्ट न होओ। किसी के सुख तथा दुख का उत्तरदायी उसके अपने सिवा कोई दूसरा नहीं होता है, क्योंकि मनुष्य अपने ही कर्मों का फल पाता है।

39 अब कृष्ण को सम्बोधित करते हुए बलराम ने कहा: यदि सम्बन्धी के दोष मृत्यु दण्ड देने योग्य हों तब भी उसका वध नहीं किया जाना चाहिए। प्रत्युत उसे परिवार से निकाल देना चाहिए। चूँकि वह अपने पाप से पहले ही मारा जा चुका है, तो उसे फिर से क्यों मारा जाये?

40 रुक्मिणी की ओर मुड़कर बलराम ने कहा: ब्रह्मा द्वारा स्थापित योद्धाओं के लिए पवित्र कर्तव्य की संहिता का आदेश है कि उसे अपने सगे भाई तक का वध करना पड़ सकता है। निस्सन्देह यह सबसे अथावह नियम है।

41 पुनः बलराम ने कृष्ण से कहा: अपने ऐश्वर्य के मद से अन्धे हुए दम्भी लोग राज्य, भूमि, सम्पत्ति, स्त्री, सम्मान तथा अधिकार जैसी वस्तुओं के लिए अन्यों का तिरस्कार कर सकते हैं।

42 बलराम ने रुक्मिणी से कहा: तुम्हारी मनोवृत्ति सही नहीं है क्योंकि तुम अज्ञानी व्यक्ति की भाँति उनका मंगल चाहती हो जो सारे जीवों के प्रति शत्रुतापूर्ण हैं और जिन्होंने तुम्हारे असली शुभचिन्तकों के साथ दुष्कृत्य किया है।

43 भगवान की माया लोगों को उनके असली स्वरूपों को भुलवा देती है और इस तरह शरीर को आत्मा मानकर वे अन्यों को मित्र, शत्रु या तटस्थ मानते हैं।

44 जो लोग मोहग्रस्त हैं, वे समस्त जीवधारियों के भीतर निवास करने वाले एक परमात्मा को अनेक करके मानते हैं जिस तरह से कोई आकाश में प्रकाश को, या आकाश को ही, अनेक रूपों में अनुभव करता हो।

45 यह भौतिक शरीर, जिसका आदि तथा अन्त है, भौतिक तत्त्वों, इन्द्रियों तथा प्रकृति के गुणों से बना हुआ होता है। यह शरीर भौतिक अज्ञान द्वारा आत्मा पर लादे जाने से मनुष्य को जन्म तथा मृत्यु के चक्र का अनुभव कराता है।

46 हे बुद्धिमान देवी, आत्मा न तो कभी असत भौतिक पदार्थों के सम्पर्क में आता है न उससे वियुक्त होता है क्योंकि आत्मा ही उनका उद्गम एवं प्रकाशक है। इस तरह आत्मा सूर्य के समान है, जो न तो कभी दृश्य-इन्द्रिय (नेत्र) तथा दृश्य-रूप के सम्पर्क में आता है, न ही उससे विलग होता है।

47 जन्म तथा अन्य विकार शरीर में ही होते हैं, आत्मा में नहीं। जिस प्रकार चन्द्रमा की कलाएँ बदलती हैं, चन्द्रमा नहीं यद्यपि नव-चान्द्र दिवस को चन्द्रमा की "मृत्यु" कहा जा सकता है।

48 जिस प्रकार सोया हुआ व्यक्ति स्वप्न के भ्रम के अन्तर्गत, इन्द्रिय भोग के विषयों का तथा अपने कर्मफलों का अनुभव करता है, उसी तरह अज्ञानी व्यक्ति इस संसार को प्राप्त होता है।

49 अतः दिव्य ज्ञान से उस शोक को दूर करो जो तुम्हारे मन को दुर्बल तथा भ्रमित कर रहा है। हे आदि हँसी वाली राजकुमारी, तुम अपने सहज भाव को फिर से प्राप्त करो।

50 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार बलराम द्वारा समझाये जाने पर रुक्मिणी अपनी उदासी भूल गईं और आध्यात्मिक बुद्धि से उन्होंने अपना मन स्थिर किया।

51 अपने शत्रुओं द्वारा निष्कासित तथा बल और शारीरिक कान्ति से विहीन अपने प्राण बचाया हुआ रुक्मी यह नहीं भूल पाया कि उसको किस तरह विरूपित किया गया था। हताश हो जाने के कारण उसने अपने रहने के लिए एक विशाल नगरी बनवाई जिसका नाम उसने भोजकट रखा।

52 चूँकि उसने प्रतिज्ञा की थी कि "मैं तब तक कुण्डिन में प्रवेश नहीं करूँगा जब तक दुष्ट कृष्ण को मारकर अपनी छोटी बहन को वापस नहीं ले आता" अतः रुक्मी हताश होकर उसी स्थान पर रहने लगा।

53 हे कुरुओं के रक्षक, इस तरह भगवान सारे विरोधी राजाओं को हराकर भीष्मक की पुत्री को अपनी राजधानी ले आए और वैदिक आदेशों के अनुसार उससे विवाह कर लिया।

54 हे राजन, उस समय यदुपुरी के सारे घरों में महान उत्साह था क्योंकि उसके नागरिक यदुओं के एकमात्र प्रधान कृष्ण से प्रेम करते थे।

55 प्रसन्नता से पूरित होकर एवं चमकीली मणियों तथा कुण्डलों से अलंकृत सारे स्त्री-पुरुष विवाह के उपहार ले आये जिन्हें उन्होंने अति सुन्दर वस्त्र पहने वर-वधू को आदरपूर्वक भेंट किया।

56 वृष्णियों की नगरी अत्यन्त सुन्दर लग रही थी, ऊँचे ऊँचे मांगलिक खम्भे तथा फूल-मालाओं, कपड़े के झण्डों और बहुमूल्य रत्नों से अलंकृत तोरण भी थे। प्रत्येक दरवाजे पर भरे हुए मंगल घट, अगुरु से सुगन्धित धूप तथा दीपक सजे थे।

57 नगरी की सड़कों का छिड़काव उन उन्मुक्त हाथियों द्वारा हुआ था, जो विवाह के अवसर पर अतिथि बनकर आये प्रिय राजाओं के थे। इन हाथियों ने सारे द्वारों पर केले के तने तथा सुपारी के वृक्ष रखकर नगरी की शोभा और भी बढ़ा दी थी।

58 कुरु, सृञ्जय, कैकय, विदर्भ, यदु तथा कुन्ति वंश वाले लोग, उत्तेजना में इधर-उधर दौड़ते लोगों की भीड़ में, एक-दूसरे से उल्लासपूर्वक मिल रहे थे।

59 सारे राजा तथा उनकी पुत्रियाँ रुक्मिणी-हरण के उस वृतान्त को सुनकर अत्यन्त चकित थे, जो सर्वत्र गीत के रूप में गाया जा रहा था।

60 द्वारका के निवासी समस्त ऐश्वर्य के स्वामी कृष्ण को लक्ष्मी स्वरूप रुक्मिणी से संयुक्त देखकर अत्यधिक प्रमुदित थे।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय तिरपन – कृष्ण द्वारा रुक्मिणी का हरण (10.53)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह कुमारी वैदर्भी का गुप्त सन्देश सुनकर यदुनन्दन ने ब्राह्मण का हाथ अपने हाथ में ले लिया और मुसकाते हुए उससे इस प्रकार बोले।

2 भगवान ने कहा: जिस तरह रुक्मिणी का मन मुझ पर लगा है उसी तरह मेरा मन उस पर लगा है। मैं रात्रि में निद्रा लाभ नहीं ले पा रहा हूँ। मैं जानता हूँ कि द्वेषवश रुक्मी ने हमारा विवाह रोक दिया है।

3 वह अपने आपको एकमात्र मेरे प्रति समर्पित कर चुकी है और उसका सौन्दर्य निष्कलंक है। मैं उसे, उन अयोग्य राजाओं को युद्ध में मथकर उसी तरह यहाँ लाऊँगा जिस तरह काठ से प्रज्ज्वलित अग्नि उत्पन्न की जाती है।

4 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान मधुसूदन रुक्मिणी के विवाह के लग्न का सही सही समय भी जान गये। अतः उन्होंने अपने सारथी से कहा, “हे दारुक, मेरा रथ तुरन्त तैयार करो।

5 “ दारुक भगवान का रथ ले आया जिसमें शैब्य, सुग्रीव, मेघपुष्प तथा बलाहक नामक घोड़े जुते थे। फिर वह अपने हाथ जोड़कर भगवान कृष्ण के सामने खड़ा हो गया।

6 भगवान शौरी अपने रथ में सवार हुए, फिर ब्राह्मण को चढ़ाया और शीघ्रगामी घोड़ों द्वारा एक रात में ही आनर्त जिले से विदर्भ पहुँच गये।

7 कुण्डिन के स्वामी राजा भीष्मक ने अपने पुत्र-स्नेह के वशीभूत होकर अपनी कन्या का विवाह शिशुपाल से कराने हेतु समस्त आवश्यक तैयारियाँ पूरी कर ली।

8-9 राजा ने मुख्य मार्गों, व्यापारिक सड़कों तथा चौराहों को ठीक से साफ करवाकर, जल छिड़कवाया। उसने विजय तोरणों तथा खम्भों पर रंगबिरंगी झण्डियों से नगर को सजवाया। नगर के स्त्री पुरुषों ने साफ-सुथरे वस्त्र पहने, सुगन्धित चन्दन-लेप लगाया, बहुमूल्य हार, फूल की मालाएँ तथा रत्नजटित आभूषण धारण किये। उनके घर अगुरु की सुगन्ध से भर गये।

10 हे राजन, महाराज भीष्मक ने पितरों, देवताओं तथा ब्राह्मणों को भलीभाँति भोजन कराकर उनकी विधिवत पूजा की और परम्परागत मंत्रों का उच्चारण करवाया।

11 सुशोभित दाँतोंवाली परम सुन्दरी रुक्मिणीजी को स्नान करवाया। तत्पश्चात उन्हें उत्तम कोटि के नये वस्त्रों की जोड़ी पहनाई गई और अत्यन्त सुन्दर रत्नजटित गहनों से सजाया गया।

12 उत्तमोत्तम ब्राह्मणजनों ने वधू की रक्षा के लिए ऋग, साम तथा यजुर्वेदों के मंत्रों का उच्चारण किया और अथर्ववेद में पटु पुरोहित ने नियन्ता ग्रहों को शान्त करने के लिए आहुतियाँ दीं।

13 राजा ने विधि-विधानों के ज्ञान में दक्ष व अद्वितीय ब्राह्मणों को सोना, चाँदी, वस्त्र, गौवें तथा गुड़-मिश्रित तिलों की दक्षिणा दी।

14 चेदि नरेश राजा दमघोष ने भी अपने पुत्र की समृद्धि सुनिश्चित करने के लिए समस्त कृत्यों को सम्पन्न करने के लिए मंत्रोच्चार में पटु ब्राह्मणों को लगाया था।

15 राजा दमघोष ने मद टपकाते हाथियों, लटकती सुनहरी साँकलों वाले रथों तथा असंख्य घुड़सवार और पैदल सैनिकों के साथ कुण्डिन की यात्रा की।

16 विदर्भराज भीष्मक नगर से बाहर गये और राजा दमघोष से विशेष सत्कार-प्रतिकों के साथ मिले। फिर भीष्मक ने दमघोष को इस अवसर के लिए विशेष रूप से निर्मित आवास-गृह में ठहराया।

17 शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्र तथा विदूरथ जो शिशुपाल के समर्थक थे, वे सभी पौन्ड्रक तथा हजारों अन्य राजाओं के साथ आये।

18-19 कृष्ण तथा बलराम से ईर्ष्या करने वाले राजाओं ने परस्पर यह निश्चय किया कि कृष्ण यदि बलराम तथा अन्य यदुओं के साथ राजकुमारी का अपहरण करने यहाँ आता है, तो हम सब मिलकर उससे युद्ध करेंगे। अतः वे ईर्ष्यालु राजा अपनी चतुरंगी सेनाएँ लेकर विवाह में गये।

20-21 जब बलराम ने विपक्षी राजाओं की इन तैयारियों तथा कृष्ण द्वारा रुक्मिणी का हरण करने के लिए अकेले ही प्रस्थान किये जाने के बारे में सुना तो उन्हें शंका होने लगी कि कहीं युद्ध न ठन जाय। अतः वे अपने भाई के स्नेह में निमग्न होकर विशाल सेना के साथ तेजी से कुण्डिन के लिए कूच कर गये। उनकी सेना में पैदल तथा हाथी, घोड़े और रथ पर सवार सैनिक थे।

22 भीष्मक की सुप्रिया पुत्री कृष्ण के आगमन की प्रतीक्षा उत्सुकता-पूर्वक कर रही थी किन्तु जब उसने ब्राह्मण को वापस आए हुए नहीं देखा तो इस प्रकार सोचा।

23 राजकुमारी रुक्मिणी ने सोचा: हाय! रात बीत जाने पर मेरा विवाह होना है! मैं कितनी अभागिनी हूँ! कमलनेत्र कृष्ण अभी भी नहीं आये। मैं नहीं जानती क्यों? यहाँ तक कि ब्राह्मण-दूत भी अभी तक नहीं लौटा।

24 लगता है कि निर्दोष प्रभु ने यहाँ आने के लिए तैयार होते समय मुझमें कुछ घृणित बात देखी हो, जिससे वे मेरा पाणिग्रहण करने नहीं आये।

25 मैं घोर अभागिनी हूँ क्योंकि न तो स्रष्टा विधाता मेरे अनुकूल है, न ही महेश्वर (शिवजी) अथवा शायद शिव-पत्नी देवी जो गौरी, रुद्राणी, गिरिजा तथा सती नाम से विख्यात हैं, मेरे विपरीत हो गई हैं।

26 इस तरह से सोच रही तरुण बाला ने, जिसका मन कृष्ण ने चुरा लिया था, यह सोचकर कि अब भी समय है, अपने अश्रुपूरित नेत्र बन्द कर लिये।

27 हे राजन, जब रुक्मिणी गोविन्द के आगमन की इस तरह प्रतीक्षा कर रही थी तो उसे लगा कि उसकी बाँईं जाँघ, भुजा तथा आँख फड़क रही है। यह इसका संकेत था कि कुछ प्रिय घटना होने वाली है।

28 तभी वह शुद्धतम विद्वान ब्राह्मण, कृष्ण के आदेशानुसार दिव्य राजकुमारी रुक्मिणी से भेंट करने राजमहल के अन्तःपुर में आया।

29 ब्राह्मण के प्रसन्न मुख तथा शान्त चाल को देखकर ऐसे लक्षणों की दक्ष-व्याख्या करने वाली रुक्मिणी ने शुद्ध मन्द-हास के साथ उन ब्राह्मण से पूछा।

30 ब्राह्मण ने उनसे यदुनन्दन के आगमन की सूचना सुनाई और उनके साथ विवाह करने के भगवान के वचन को कह सुनाया।

31 राजकुमारी वैदर्भी कृष्ण का आगमन सुनकर अत्यधिक प्रसन्न हुई। पास में देने योग्य कोई उपयुक्त वस्तु न पाकर उसने ब्राह्मण को केवल नमस्कार किया।

32 जब राजा ने सुना कि कृष्ण तथा बलराम आये हैं और वह उसकी पुत्री का विवाह देखने के लिए उत्सुक हैं, तो वह बाजे-गाजे के साथ उनका सत्कार करने के लिए पर्याप्त भेंटे लेकर आगे बढ़ा।

33 उन्हें मधुपर्क, नये वस्त्र तथा अन्य वांछित भेंटें देकर उसने निर्धारित विधियों के अनुसार उनकी पूजा की।

34 उदार राजा ने दोनों प्रभुओं के लिए तथा उनकी सेना एवं उनके संगियों के लिए भव्य आवासों की व्यवस्था की। इस तरह उनको समुचित आतिथ्य प्रदान किया।

35 इस तरह भीष्मक ने इस अवसर पर एकत्र हुए राजाओं को सारी वांछित वस्तुएँ प्रदान कीं और उनकी राजनैतिक शक्ति, आयु, शारीरिक बल तथा सम्पत्ति के अनुसार उनका सम्मान किया।

36 जब विदर्भवासियों ने सुना कि भगवान कृष्ण आए हैं, तो वे सब उनका दर्शन करने गये। अपनी आँखों की अंजुली से उन्होंने भगवान के कमलमुख के मधु का पान किया।

37 नगरवासियों ने कहा - एकमात्र रुक्मिणी उनकी पत्नी बनने के योग्य हैं और वे भी दोषरहित सौन्दर्यवान होने से राजकुमारी भैष्मी के लिए एकमात्र उपयुक्त पति हैं।

38 हम लोगों ने जो भी पुण्य कर्म किये हों उनसे त्रिलोक विधाता भगवान हम पर प्रसन्न हों और ऐसी कृपा करें कि श्यामसुन्दर कृष्ण ही राजकुमारी रुक्मिणी का पाणिग्रहण करें।

39 अपने उमड़ते प्रेम से बँधकर नगर के निवासी इस तरह की बातें कर रहे थे, तभी अंगरक्षकों से संरक्षित रुक्मिणीजी देवी अम्बिका के मन्दिर जाने के लिए अन्तःपुर से बाहर आई।

40-41 रुक्मिणी मौन होकर देवी भवानी के चरणकमलों का दर्शन करने पैदल ही चल पड़ी। उनके साथ माताएँ तथा सखियाँ थीं और वे राजा के बहादुर सैनिकों द्वारा संरक्षित थीं जो अपने हथियार ऊपर उठाये हुए सन्नद्ध थे। रुक्मिणी केवल कृष्ण के चरणकमलों में अपने मन को ध्यानस्थ किये थीं। मार्ग-भर में मृदंग, शंख, पणव, तुरही तथा अन्य बाजे बजाये जा रहे थे।

42-43 राजकुमारी के पीछे पीछे हजारों प्रमुख गणिकाएँ थीं जो नाना प्रकार की भेंटें लिये थीं। उनके साथ ब्राह्मणों की सजी-धजी पत्नियाँ गीत गा रही थीं और स्तुतियाँ कर रही थीं। वे माला, सुगन्ध, वस्त्र तथा आभूषण की भेंटें लिये थीं। साथ ही पेशेवर गवैये, संगीतज्ञ, सूत, मागध तथा वन्दीजन थे।

44 देवी के मन्दिर में पहुँचकर रुक्मिणी ने सबसे पहले अपने कमल सदृश हाथ-पैर धोये और तब शुद्धि के लिए आचमन किया। इस प्रकार पवित्र एवं शान्त भाव से वे माता अम्बिका के समक्ष पधारीं।

45 ब्राह्मणों की बड़ी बूढ़ी पत्नियाँ जो विधि-विधान में पटु थीं, रुक्मिणी को भवानी को नमस्कार कराने ले गईं जो अपने प्रियतम भगवान भव (शिवजी) के साथ प्रकट हुईं।

46 राजकुमारी रुक्मिणी ने प्रार्थना की: हे शिवपत्नी माता अम्बिका! मैं बारम्बार आपको तथा आपकी सन्तान को नमस्कार करती हूँ। कृपया यह वर दें कि भगवान कृष्ण मेरे पति होएँ।

47-48 रुक्मिणी ने जल, सुगन्धि, अन्न, धूप, वस्त्र, माला, हार, आभूषण तथा अन्य संस्तुत उपहारों से और दीपकों की पंक्तियों से देवी की पूजा की। तदनन्तर रुक्मिणी ने उन्हीं वस्तुओं से और नमकीन, पूए, पान-सुपारी, जनेऊ, फल तथा ईख से सुहागिन ब्राह्मणियों की भी पूजा की। ब्राह्मणियों ने रुक्मिणी को प्रसाद दिया और आशीर्वाद प्रदान किया।

49 रुक्मिणी ने उन्हें तथा देवी को नमस्कार किया और प्रसाद ग्रहण किया।

50 तब राजकुमारी ने अपना मौन-व्रत तोड़ दिया और रत्नजटित अँगूठी से सुशोभित करकमल के द्वारा दासी का हाथ पकड़कर वे अम्बिका मन्दिर से बाहर आई।

51-55 रुक्मिणी भगवान की उस मायाशक्ति की तरह मोहने वाली प्रतीत हो रही थीं जो बड़े बड़े धीर-गम्भीर पुरुषों को भी मोह लेती हैं। राजागण उनके सुकुमार सौन्दर्य तथा कुण्डलों से सुशोभित मुख को निहारने लगे। उनके कूल्हे पर रत्नजटित करधनी शोभा पा रही थी, उनकी आँखें लटकती केशराशि से चंचल लग रही थीं, वे मधुर हँसी से युक्त थीं और उनके चमेली की कली जैसे दाँतों से बिम्ब जैसे लाल लाल होंठों की चमक प्रतिबिम्बित हो रही थी। जब वे राजहंस जैसी चाल से चलने लगीं तो रुनझुन करते पायलों के तेज से उनके चरणों की शोभा बढ़ गई। उन्हें देखकर एकत्रित वीरजन पूर्णतया मोहित हो गये। जब राजाओं ने उनकी विस्तृत मुसकान तथा लजीली चितवन देखी तो वे सम्मोहित हो गये, उन्होंने अपने हथियार डाल दिये और मूर्छित होकर हाथियों, रथों तथा घोड़ों पर से जमीन पर गिर पड़े। जुलूस के बहाने रुक्मिणी ने अकेले कृष्ण के लिए ही अपना सौन्दर्य प्रदर्शित किया। उन्होंने भगवान के आगमन की प्रतीक्षा करते हुए धीरे-धीरे चलायमान कमलकोश रूपी दो चरणों को आगे बढ़ाया। उन्होंने अपने बाएँ हाथ के नाखुनों से अपने मुख पर लटकते केशगुच्छों को हटाया और अपने समक्ष खड़े राजाओं की ओर कनखियों से देखा। सहसा रुक्मिणी को श्यामसुन्दर भगवान कृष्ण के दर्शन हुए। रुक्मिणी जो भगवान कृष्ण के रथ पर चढ़ने को आतुर थी, भगवान ने शत्रुओं के देखते-देखते राजकुमारी को अपने रथ पर बिठा लिया।

56 राजकुमारी को उठाकर अपने गरुड़ध्वज वाले रथ में बैठाकर माधव ने राजाओं के घेरे को पीछे धकेल दिया। वे बलराम को आगे करके धीरे से उसी तरह बाहर निकल गये जिस तरह सियारों के बीच से अपना शिकार उठाकर सिंह चला जाता है।

57 भगवान के जरासन्ध जैसे शत्रु राजा इस अपमानजनक हार को सहन नहीं कर सके। वे चीख पड़े, “ओह! हमें धिक्कार है। यद्यपि हम बलशाली धनुर्धर हैं, किन्तु इन ग्वालों मात्र ने हमसे हमारा सम्मान उसी तरह छीन लिया है, जिस तरह छोटे छोटे पशु सिंहों का सम्मान हर लें।"

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय बावन – भगवान कृष्ण के लिए रुक्मिणी सन्देश (10.52)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा, इस प्रकार कृष्ण द्वारा दया दिखाये गए मुचुकुन्द ने उनकी प्रदक्षिणा की और उन्हें नमस्कार किया। तब इक्ष्वाकुवंशी प्रिय मुचुकुन्द गुफा के मुँह से बाहर आये।

2 यह देखकर कि सभी मनुष्यों, पशुओं, लताओं तथा वृक्षों के आकार अत्यधिक छोटे हो गये हैं और इस तरह यह अनुभव करते हुए कि कलियुग सन्निकट है, मुचुकुन्द उत्तर दिशा की ओर चल पड़े।

3 भौतिक संगति से परे तथा सन्देह से मुक्त सौम्य राजा तपस्या के महत्व के प्रति विश्वस्त था। अपने मन को कृष्ण में लीन करते हुए वह गंधमादन पर्वत पर आया।

4 वहाँ वह नर-नारायण के धाम बदरिकाश्रम आया जहाँ पर समस्त द्वन्द्वों के सहते हुए उसने कठोर तपस्या करके भगवान हरि की शान्ति – पूर्वक पूजा की।

5 भगवान मथुरा नगरी लौट आये जो अब भी यवनों से घिरी थी। तत्पश्चात उन्होंने बर्बर यवनों की सेना नष्ट की और उन यवनों की बहुमूल्य वस्तुएँ द्वारका ले गये ।

6 जब यह सम्पदा भगवान कृष्ण के आदेशानुसार बैलों तथा मनुष्यों द्वारा ले जाई जा रही थी तो जरासन्ध तेईस सैन्य टुकड़ियों के प्रधान के रूप में वहाँ प्रकट हुआ।

7 हे राजन, शत्रु सेना की भयंकर हलचल को देखकर माधव-बन्धु मनुष्य का-सा व्यवहार करते हुए तेजी से भाग गये।

8 प्रचुर सम्पत्ति को छोड़कर निर्भय किन्तु भय का स्वाँग करते हुए वे अपने कमलवत चरणों से पैदल अनेक योजन चलते गये।

9 उन दोनों को भागते देखकर शक्तिशाली जरासन्ध अट्टहास करने लगा और सारथियों तथा पैदल सैनिकों को साथ लेकर उनका पीछा करने लगा। वह दोनों प्रभुओं के उच्च पद को समझ नहीं सका।

10 काफी दूरी तक भागने से थककर चूर-चूर दिखते हुए दोनों प्रभु प्रवर्षण नामक ऊँचे पर्वत पर चढ़ गये जिस पर इन्द्र निरन्तर वर्षा करता है।

11 यद्यपि जरासन्ध जानता था कि वे दोनों ही पर्वत में छिपे हैं किन्तु उसे उनका कोई पता नहीं चल सका। अतः हे राजा, उसने सभी ओर लकड़ियाँ रखकर पर्वत में आग लगा दी।

12 तब वे दोनों सहसा उस जलते हुए ग्यारह योजन ऊँचे पर्वत से नीचे कूदकर जमीन पर आ गिरे।

13 अपने प्रतिपक्षी या उसके अनुचरों द्वारा न दिखने पर, हे राजन, वे दोनों यदुश्रेष्ठ अपनी द्वारकापुरी लौट गये जिसकी सुरक्षा-खाई समुद्र थी।

14 यही नहीं जरासन्ध ने गलती से सोचा कि बलराम तथा कृष्ण अग्नि में जलकर मर गये हैं। अतः उसने अपनी विशाल सेना पीछे हटा ली और मगध राज्य को लौट गया।

15 ब्रह्मा के आदेश से आनर्त के वैभवशाली राजा रैवत ने अपनी पुत्री रैवती का विवाह बलराम से कर दिया। इसका उल्लेख पहले ही हो चुका है।

16-17 हे कुरुवीर, भगवान गोविन्द ने भीष्मक की पुत्री वैदर्भी (रुक्मिणी) से विवाह किया जो साक्षात लक्ष्मी की अंश थी। भगवान ने उसकी इच्छा से ही ऐसा किया और इस कार्य के लिए उन्होंने शाल्व तथा शिशुपाल के पक्षधर अन्य राजाओं को परास्त किया। दरअसल सबके देखते-देखते श्रीकृष्ण रुक्मिणी को उसी तरह उठा ले गये जिस तरह निःशंक गरुड़ देवताओं से अमृत चुराकर ले आया था।

18 राजा परीक्षित ने कहा: मैंने सुना है कि भगवान ने भीष्मक की सुमुखी पुत्री रुक्मिणी से राक्षस-विधि से विवाह किया।

19 हे प्रभु, मैं यह सुनने का इच्छुक हूँ कि असीम बलशाली भगवान कृष्ण किस तरह मागध तथा शाल्व जैसे राजाओं को हराकर रुक्मिणी को हर ले गये।

20 हे ब्राह्मण, ऐसा कौनसा अनुभवी श्रोता होगा जो श्रीकृष्ण की पवित्र, मनोहर तथा नित्य नवीन कथाओं को, जो संसार के कल्मष को धो देने वाली हैं, सुनकर कभी तृप्त हो सकेगा?

21 श्री बादरायणी ने कहा: भीष्मक नामक एक राजा था, जो विदर्भ का शक्तिशाली शासक था। उसके पाँच पुत्र तथा एक सुमुखी पुत्री थी।

22 रुक्मी सबसे बड़ा पुत्र था, उसके बाद रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेश तथा रुक्ममाली थे। उनकी बहिन सती रुक्मिणी थी।

23 महल में आने वालों के मुख से जो प्रायः मुकुन्द के बारे में गुणगान करते थे, मुकुन्द के सौन्दर्य, पराक्रम, दिव्य चरित्र तथा ऐश्वर्य के बारे में सुनकर, रुक्मिणी ने निश्चय किया कि वे ही उनके उपयुक्त पति होंगे।

24 भगवान कृष्ण जानते थे कि रुक्मिणी बुद्धि, शुभ शारीरिक चिन्ह, सौन्दर्य, उचित व्यवहार तथा अन्य उत्तम गुणों से युक्त है। यह निष्कर्ष निकाल करके कि वह उनके योग्य एक आदर्श पत्नी होगी, कृष्ण ने उससे विवाह करने का निश्चय किया।

25 हे राजन, चूँकि रुक्मी भगवान से द्वेष रखता था अतएव उसने अपने परिवार वालों को, उनकी इच्छा के विपरीत, अपनी बहन कृष्ण को दिये जाने से रोका। उल्टे रुक्मी ने रुक्मिणी को शिशुपाल को देने का निश्चय किया।

26 श्याम नेत्रों वाली वैदर्भी इस योजना से अवगत थी अतः वह इससे अत्यधिक उदास थी। उसने सारी परिस्थिति पर विचार करते हुए तुरन्त ही कृष्ण के पास एक विश्वासपात्र ब्राह्मण को भेजा।

27 द्वारका पहुँचने पर उस ब्राह्मण को द्वारपाल भीतर ले गये जहाँ उसने आदि भगवान को सोने के सिंहासन पर आसीन देखा।

28 ब्राह्मण को देखकर, ब्राह्मणों के प्रभु श्रीकृष्ण अपने सिंहासन से नीचे उतर आये और उसे बैठाया। तत्पश्चात भगवान ने उसकी पूजा उसी तरह की, जिस तरह वे स्वयं देवताओं द्वारा पूजित होते हैं।

29 जब वह ब्राह्मण खा-पीकर आराम कर चुका तो साधु-भक्तों के ध्येय श्रीकृष्ण उसके पास आये और अपने हाथों से उस ब्राह्मण के पाँवों को दबाते हुए बड़े ही धैर्य के साथ इस प्रकार पूछा।

30 भगवान ने कहा: हे ब्राह्मणश्रेष्ठ आपके गुरुजनों द्वारा अनुमोदित धार्मिक अनुष्ठान बिना किसी बड़ी कठिनाई के चल तो रहे हैं न ? आपका मन सदैव संतुष्ट तो रहता है न ?

31 जो कुछ भी मिल जाय उससे संतुष्ट हो जाना और अपने धार्मिक कर्तव्य से च्युत नहीं होना ये धार्मिक सिद्धान्त ब्राह्मण की सारी इच्छाओं को पूरी करने वाली कामधेनु बन जाते हैं।

32 असंतुष्ट ब्राह्मण स्वर्ग का राजा बन जाने पर भी एक लोक से दूसरे लोक में बेचैन होकर भटकता रहता है। किन्तु संतुष्ट ब्राह्मण, अपने पास कुछ न होने पर भी शान्तिपूर्वक विश्राम करता है और उसके सारे अंग कष्ट से मुक्त रहते हैं।

33 मैं उन ब्राह्मणों को बारम्बार अपना शीश नवाता हूँ जो अपने भाग्य से संतुष्ट हैं। साधु, अहंकारशून्य तथा शान्त होने से वे समस्त जीवों के सर्वोत्तम शुभचिन्तक हैं।

34 हे ब्राह्मण, आपका राजा आप लोगों के कुशल-मंगल का ध्यान तो रखता है? निस्सन्देह, जिस राजा के देश में प्रजा सुखी तथा सुरक्षित है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।

35 दुर्लंघ्य समुद्र पार करके आप कहाँ से और किस कार्य से यहाँ आये हैं? यदि यह गुप्त न हो तो हमें बतलाइये और यह कहिये कि आपके लिए हम क्या कर सकते हैं?

36 अपनी लीला सम्पन्न करने के लिए अवतार लेने वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान द्वारा इस तरह पूछे जाने पर ब्राह्मण ने उन्हें सारी बात बता दी।

37 ब्राह्मण द्वारा पढ़े जा रहे अपने पत्र में श्री रुक्मिणी ने कहा: हे जगतों के सौन्दर्य, आपके गुणों के विषय में सुनकर जो कि सुनने वाले के कानों में प्रवेश करके उनके शारीरिक ताप को दूर कर देते हैं और आपके सौन्दर्य के बारे में सुनकर कि वह देखने वाले की सारी दृष्टि सम्बन्धी इच्छाओं को पूरा करता है, हे कृष्ण, मैंने अपना निर्लज्ज मन आप पर स्थिर कर दिया है।

38 हे मुकुन्द, आप वंश, चरित्र, सौन्दर्य, ज्ञान, युवावस्था, सम्पदा तथा प्रभाव में केवल अपने समान है। हे पुरुषों में सिंह, आप सारी मानवता के मन को आनन्दित करते हैं। उपयुक्त समय आ जाने पर ऐसी कौन-सी राजकुल की धीर तथा विवाह योग्य कन्या होगी जो आपको पति रूप में नहीं चुनेगी?

39 अतएव हे प्रभु, मैंने आपको अपने पति-रूप में चुना है और मैं आपकी शरण में आई हूँ। हे सर्वशक्तिमान, तुरन्त आइये और मुझे अपनी पत्नी बना लीजिये। हे मेरे कमल-नेत्र स्वामी, किसी सिंह की सम्पत्ति को चुराने वाले सियार जैसे शिशुपाल को एक वीर के अंश को कभी छूने न दीजिये।

40 यदि मैंने पुण्य कर्म, यज्ञ, दान, अनुष्ठान व्रत के साथ साथ देवताओं, ब्राह्मणों तथा गुरुओं की पूजा द्वारा भगवान की पर्याप्त रूप से उपासना की हो तो हे गदाग्रज, आप आकर मेरा हाथ ग्रहण करें और दमघोष का पुत्र या कोई अन्य ग्रहण न करने पाये।

41 हे अजित, कल जब मेरा विवाहोत्सव प्रारम्भ हो तो आप विदर्भ में अपनी सेना के नायकों से घिर कर गुप्त रूप से आयें। तत्पश्चात चैद्य (शिशुपाल) तथा मगधेन्द्र की सेनाओं को कुचलकर, अपने पराक्रम से मुझे जीतकर राक्षस विधि से मेरे साथ विवाह कर लें।

42 चूँकि मैं रनिवास के भीतर रहूँगी अतः आप आश्चर्य करेंगे और सोचेंगे कि “मैं तुम्हारे कुछ सम्बन्धियों को मारे बिना तुम्हें कैसे ले जा सकता हूँ?” किन्तु मैं आपको एक विधि बतलाऊँगी--विवाह के एक दिन पूर्व राजकुल के देवता के सम्मान में एक विशाल जुलूस निकलेगा जिसमें दुल्हन नगर के बाहर देवी गिरिजा का दर्शन करने जाती है।

43 हे कमलनयन, शिवजी जैसे महात्मा आपके चरणकमलों की धूलि में स्नान करके अपने अज्ञान को नष्ट करना चाहते हैं। यदि मुझे आपकी कृपा प्राप्त नहीं होती तो मैं अपने उस प्राण को त्याग दूँगी जो मेरे द्वारा की जानेवाली कठिन तपस्या के कारण क्षीण हो चुका होगा। तब कहीं सैकड़ों जन्मों तक परिश्रम करने के बाद शायद आपकी कृपा प्राप्त हो सके।”

44 ब्राह्मण ने कहा, हे यदु-देव, मैं यह गोपनीय सन्देश अपने साथ लाया हूँ। कृपया सोचें-विचारें कि इन परिस्थितियों में क्या किया जाना चाहिये और उसे तुरन्त ही कीजिये।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय इक्यावन – मुचुकुन्द का उद्धार (10.51)

1-6 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: कालयवन ने उदित होते चन्द्रमा की भाँति भगवान को मथुरा से आते देखा। देखने में भगवान अतीव सुन्दर थे, वर्ण श्याम था और वे रेशमी पीताम्बर धारण किये थे, वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह था और उनके गले में कौस्तुभमणि सुशोभित थी, चारों भुजाएँ बलिष्ठ तथा लम्बी थीं, मुख कमल सदृश सदैव प्रसन्न रहने वाला था, आँखें गुलाबी कमलों जैसी थीं, गाल सुन्दर तेजवान थे, हँसी स्वच्छ थी तथा उनके कान की चमकीली बालियाँ मछली की आकृति की थीं। उस म्लेच्छ ने सोचा यह व्यक्ति अवश्य ही वासुदेव होगा क्योंकि इसमें वे ही लक्षण दिख रहे हैं, जिनका उल्लेख नारद ने किया था – वह और कोई नहीं हो सकता। चूँकि वह पैदल चल रहा है और कोई हथियार नहीं लिए है, अतएव मैं भी बिना हथियार के उससे युद्ध करूँगा।" यह सोचकर वह भगवान के पीछे पीछे दौड़ने लगा और भगवान उसके आगे भागते गये। कालयवन को आशा थी कि वह कृष्ण को पकड़ लेगा यद्यपि बड़े बड़े योगी भी उन्हें प्राप्त नहीं कर पाते।

7 प्रतिक्षण कालयवन के हाथों की पहुँच में प्रतीत होते हुए भगवान हरि उस यवनराज को दूर एक पर्वत--कन्दरा तक ले गये।

8 भगवान का पीछा करते हुए वह यवन उनका यह कहकर अपमान कर रहा था, “तुमने यदुवंश में जन्म ले रखा है, तुम्हारे लिए इस तरह भागना उचित नहीं है।" तो भी कालयवन भगवान कृष्ण के पास तक नहीं पहुँच पाया क्योंकि उसके पाप कर्मफल अभी धुले नहीं थे।

9 यद्यपि भगवान इस तरह से अपमानित हो रहे थे किन्तु वे पर्वत की गुफा में प्रविष्ट हो गये। उनके पीछे-पीछे कालयवन भी पहुँचा और उसने वहाँ एक अन्य पुरुष को सोये हुए देखा।“

10 यह तो मुझे इतनी दूर लाकर अब किसी साधु पुरुष की तरह यहाँ लेट गया है।" इस तरह सोते हुए उस व्यक्ति को भगवान कृष्ण समझ कर, उस ठगे हुए मूर्ख ने पूरे बल से उस पर पाद-प्रहार किया।

11 वह पुरुष दीर्घकाल तक सोने के बाद जागा था और धीरे-धीरे उसने अपनी आँखें खोलीं। चारों ओर देखने पर उसे अपने पास ही कालयवन खड़ा हुआ दिखाई दिया।

12 वह जगाया हुआ पुरुष अत्यन्त क्रुद्ध था। उसने अपनी दृष्टि कालयवन पर डाली तो उसके शरीर से लपटें निकलने लगीं। हे राजा परीक्षित, कालयवन क्षणभर में जलकर राख हो गया।

13 राजा परीक्षित ने कहा: हे ब्राह्मण, वह पुरुष कौन था? वह किस वंश का था और उसकी शक्तियाँ क्या थीं? म्लेच्छ का संहार करने वाला वह व्यक्ति गुफा में क्यों सोया हुआ था और वह किसका पुत्र था?

14 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: उस महापुरुष का नाम मुचुकुन्द था और वह इक्ष्वाकु वंश में मान्धाता के पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ था। वह ब्राह्मण संस्कृति का उपासक था और युद्ध में अपने व्रत का पक्का था।

15 जब इन्द्र तथा अन्य देवताओं को असुरों द्वारा त्रास दिये जा रहे थे तो उनके द्वारा अपनी रक्षा के लिए सहायता की याचना किये जाने पर मुचुकुन्द ने दीर्घकाल तक उनकी रक्षा की।

16 जब देवताओं को सेनापति के रूप में कार्तिकेय प्राप्त हो गये तो उन्होंने मुचुकुन्द से कहा, “हे राजन, अब आप हमारी रक्षा का कष्टप्रद कार्य छोड़ सकते हैं।"

17 हे वीर पुरुष, नरलोक में अपने निष्कंटक राज्य को छोड़कर आपने हमारी रक्षा करते हुए अपनी निजी आकांक्षाओं की परवाह नहीं की।

18 बच्चे, रानियाँ, सम्बन्धी, मंत्री, सलाहकार तथा आपकी समकालीन प्रजा – इनमें से कोई अब जीवित नहीं रहे। वे सभी काल के द्वारा बहा ले जाये गये हैं।

19 “अनन्त काल समस्त बलवानों से भी बलवान है और वही साक्षात परमेश्वर है। जिस तरह पशु-पालक (ग्वाला) अपने पशुओं को हाँकता रहता है उसी तरह परमेश्वर मर्त्य प्राणियों को अपनी लीला के रूप में हाँकते रहते हैं।“

20 “आपका कल्याण हो, अब आप मोक्ष के सिवाय कोई भी वर चुन सकते हैं क्योंकि मोक्ष को तो एकमात्र अविनाशी भगवान विष्णु ही प्रदान कर सकते हैं।“

21 ऐसा कहे जाने पर राजा मुचुकुन्द ने देवताओं से ससम्मान विदा ली और एक गुफा में गये जहाँ वे देवताओं द्वारा दी गई नींद का आनन्द लेने के लिए लेट गये।

22 जब यवन जलकर राख हो गया तो सात्वतों के प्रमुख भगवान ने उस बुद्धिमान मुचुकुन्द के समक्ष अपने को प्रकट किया।

23-26 जब राजा मुचुकुन्द ने भगवान की ओर निहारा तो देखा कि वे बादल के समान गहरे नीले रंग के थे, उनकी चार भुजाएँ थीं और वे रेशमी पीताम्बर पहने थे। उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह था और गले में चमचमाती कौस्तुभ मणि थी। वैजयन्ती माला से सज्जित भगवान ने उसे अपना मनोहर शान्त मुख दिखलाया जो मछली की आकृति के कुण्डलों तथा स्नेहपूर्ण मन्द-हास से युक्त चितवन से सारे मनुष्यों की आँखों को आकृष्ट कर लेता है। उनके तरुण स्वरूप का सौन्दर्य अद्वितीय था और वे सिंह की भव्य चाल से चल रहे थे। अत्यन्त बुद्धिमान राजा भगवान के तेज से अभिभूत हो गया। यह तेज उसे दुर्धर्ष जान पड़ा। अपनी अनिश्चयता व्यक्त करते हुए मुचुकुन्द ने झिझकते हुए भगवान कृष्ण से इस प्रकार पूछा।

27 श्री मुचुकुन्द ने कहा, "आप कौन हैं, जो जंगल में इस पर्वत गुफा में अपने कमल की पंखड़ियों जैसे कोमल पाँवों से कंटीली भूमि पर चलकर आये हैं?”

28 शायद आप समस्त शक्तिशाली जीवों की शक्ति हैं या फिर आप शक्तिशाली अग्निदेव या सूर्यदेव, चन्द्रदेव, स्वर्ग के राजा इन्द्र या अन्य किसी लोक के शासन करनेवाले देवता तो नहीं हैं?

29 मेरे विचार से आप तीन प्रमुख देवताओं में भगवान हैं क्योंकि आप इस गुफा के अँधेरे को उसी तरह भगा रहे हैं जिस तरह दीपक अपने प्रकाश से अंधकार को दूर कर देता है।

30 हे पुरुषोत्तम यदि आपको ठीक लगे तो आप अपने जन्म, कर्म तथा गोत्र के विषय में हमसे सही सही (स्पष्ट) बतलायें क्योंकि हम सुनने के इच्छुक हैं।

31 हे पुरुष-व्याघ्र, जहाँ तक हमारी बात है, हम तो पतित क्षत्रियों के वंश से सम्बन्धित हैं और राजा इक्ष्वाकु के वंशज हैं। हे प्रभु, मेरा नाम मुचुकुन्द है और मैं युवनाश्व का पुत्र हूँ।

32 दीर्घकाल तक जागे रहने के कारण मैं थक गया था, नींद से मेरी इन्द्रियाँ वशीभूत थीं और तब से इस निर्जन स्थान में सुखपूर्वक सोता रहा हूँ किन्तु अब जाकर किसी ने मुझे जगा दिया है।

33 जिस व्यक्ति ने मुझे जगाया था वह अपने पापों के फल से जलकर राख हो गया, तभी मैंने यशस्वी स्वरूप वाले एवं अपने शत्रुओं को दण्ड देने की शक्ति से सामर्थ्यवान – आपको देखा।

34 आपके असह्य तेज से हमारी शक्ति दबी जाती है और हम आप पर अपनी दृष्टि स्थिर नहीं कर पाते। हे माननीय आप समस्त देहधारियों द्वारा आदर किये जाने योग्य हैं।

35 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: राजा द्वारा इस तरह कहे जाने पर समस्त सृष्टि के उद्गम भगवान मुसकराने लगे और तब उन्होंने बादलों की गर्जना के सदृश गम्भीर वाणी में उसे उत्तर दिया।

36 भगवान ने कहा: हे मित्र, मैं हजारों जन्म ले चुका हूँ, हजारों जीवन जी चुका हूँ और हजारों नाम धारण कर चुका हूँ। वस्तुतः मेरे जन्म, कर्म तथा नाम अनन्त हैं, यहाँ तक कि मैं भी उनकी गणना नहीं कर सकता।

37 यह सम्भव है कि कोई व्यक्ति पृथ्वी पर धूलकणों की गणना कई जन्मों में कर ले किन्तु मेरे गुणों, कर्मों, नामों तथा जन्मों की गणना कोई भी कभी पूरी नहीं कर सकता।

38 हे राजन, बड़े से बड़े ऋषि मेरे उन जन्मों तथा कर्मों की गणना करते रहते हैं, जो काल की तीनों अवस्थाओं में घटित होते हैं किन्तु वे कभी उसका अन्त नहीं पाते।

39-40 तो भी हे मित्र, मैं अपने इस (वर्तमान) जन्म, नाम तथा कर्म के विषय में तुम्हें बतलाऊँगा। कृपया सुनो। कुछ काल पूर्व ब्रह्मा ने मुझसे धर्म की रक्षा करने तथा पृथ्वी के भारस्वरूप असुरों का संहार करने की प्रार्थना की थी। इस तरह मैंने यदुवंश में आनकदुन्दुभी के घर अवतार लिया। चूँकि मैं वसुदेव का पुत्र हूँ इसलिए लोग मुझे वासुदेव कहते हैं।

41 मैंने कालनेमि का वध किया है, जो कंस रूप में फिर से जन्मा था। साथ ही मैंने प्रलम्ब तथा पुण्यात्मा लोगों के अन्य शत्रुओं का भी संहार किया है और अब हे राजन, यह बर्बर तुम्हारी तीक्ष्ण चितवन से जलकर भस्म हो गया है।

42 चूँकि भूतकाल में तुमने मुझसे बारम्बार प्रार्थना की थी इसलिए मैं स्वयं तुम पर अनुग्रह करने के लिए इस गुफा में आया हूँ, क्योंकि मैं अपने भक्तों के प्रति वत्सल रहता हूँ।

43 हे राजर्षि, अब मुझसे कुछ वर ले लो। मैं तुम्हारी समस्त इच्छाएँ पूरी कर दूँगा। जो मुझे प्रसन्न कर लेता है, उसे फिर कभी शोक नहीं करना पड़ता।

44 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: यह सुनकर मुचुकुन्द ने भगवान को प्रणाम किया। गर्ग मुनि के वचनों का स्मरण करते हुए उसने कृष्ण को भगवान नारायण रूप में हर्षपूर्वक पहचान लिया। फिर राजा ने उनसे इस प्रकार कहा।

45 श्री मुचुकुन्द ने कहा: हे प्रभु, इस जगत के सभी स्त्री पुरुष आपकी मायाशक्ति के द्वारा मोहग्रस्त हैं। वे अपने असली लाभ से अनजान रहते हुए आपको न पूजकर अपने को कष्टों के मूल स्रोत अर्थात पारिवारिक मामलों में फँसकर सुख की तलाश करते हैं।

46 उस मनुष्य का मन अशुद्ध होता है, जो अत्यन्त दुर्लभ एवं अत्यन्त विकसित मनुष्य-जीवन के येन-केन प्रकारेण स्वतः प्राप्त होने पर भी आपके चरणकमलों की पूजा नहीं करता। ऐसा व्यक्ति अन्धे कुएँ में गिरे हुए पशु के समान, भौतिक घरबार रूपी अंधकार में गिर जाता है।

47 हे अजित, मैंने पृथ्वी के राजा के रूप में अपने राज्य तथा वैभव के मद में अधिकाधिक उन्मक्त होकर सारा समय गँवा दिया है। मर्त्य शरीर को आत्मा मानते हुए तथा सन्तानों, पत्नियों, खजाना तथा भूमि में आसक्त होकर मैंने अनन्त क्लेश भोगा है।

48 अत्यन्त गर्वित होकर मैंने अपने को शरीर मान लिया था, जो घड़े या दीवाल जैसी एक भौतिक वस्तु है। अपने को मनुष्यों में देवता समझकर मैंने अपने सारथियों, हाथियों, अश्वारोहियों, पैदल सैनिकों तथा सेनापतियों से घिरकर और अपने प्रवंचित गर्व के कारण आपकी अवमानना करते हुए पृथ्वी भर में विचरण किया।

49 करणीय के विचारों में लीन, अत्यन्त लोभी तथा इन्द्रिय-भोग से प्रसन्न रहने वाले मनुष्य का सदा सतर्क रहनेवाले, आपसे अचानक सामना होता है। जैसे भूखा साँप चूहे के आगे अपने विषैले दाँतों को चाटता है उसी तरह आप उसके समक्ष मृत्यु के रूप में प्रकट होते हैं।

50 जो शरीर पहले भयानक हाथियों या सोने से सजाये हुए रथों पर सवार होता है और 'राजा' के नाम से जाना जाता है, वही बाद में आपकी अजेय काल-शक्ति से मल, कृमि या भस्म कहलाता है।

51 समस्त दिग-दिगान्तरों को जीतकर और इस तरह लड़ाई से मुक्त होकर मनुष्य भव्य राज सिंहासन पर आसीन होता है और अपने उन नायकों से प्रशंसित होता है, जो किसी समय उसके बराबर थे। किन्तु जब वह स्त्रियों के कक्ष में प्रवेश करता है जहाँ विषय-सुख पाया जाता है तो हे प्रभु, वह पालतू पशु की तरह हाँका जाता है।

52 जो राजा पहले से प्राप्त शक्ति से भी और अधिक शक्ति (अधिकार) की कामना करता है, वह तपस्या करके तथा इन्द्रिय-भोग का परित्याग करके कठोरता से अपने कर्तव्य पूरा करता है। किन्तु जिसके वेग (तृष्णाएँ) यह सोचते हुए इतने प्रबल हैं कि – "मैं स्वतंत्र तथा सर्वोच्च हूँ,“ – वह कभी सुख प्राप्त नहीं कर सकता।

53 हे अच्युत, जब भ्रमणशील आत्मा (जीव) का भौतिक जीवन समाप्त हो जाता है, तो वह आपके भक्तों की संगति प्राप्त कर सकता है और जब वह उनकी संगति करता है, तो भक्तों के लक्ष्य और समस्त कारणों तथा उनके प्रभावों के स्वामी--आपके प्रति उसमें भक्ति उत्पन्न होती है।

54 हे प्रभु, मैं सोचता हूँ कि आपने मुझ पर कृपा की है क्योंकि अपने साम्राज्य के प्रति मेरी आसक्ति अपने आप समाप्त हो गई है। ऐसी मुक्ति (स्वतन्त्रता) के लिए विशाल साम्राज्य के साधु शासकों द्वारा प्रार्थना की जाती है, जो एकान्त जीवन बिताने के लिए जंगल में जाना चाहते हैं।

55 हे सर्वशक्तिमान, मैं आपके चरणकमलों की सेवा के अतिरिक्त और किसी वर की कामना नहीं करता क्योंकि यह वर उन लोगों के द्वारा उत्सुकतापूर्वक चाहा जाता है, जो भौतिक कामनाओं से मुक्त हैं। हे हरि! ऐसा कौन प्रबुद्ध व्यक्ति होगा जो मुक्तिदाता अर्थात आपकी पूजा करते हुए ऐसा वर चुनेगा जो उसका ही बन्धन बने?

56 इसलिए हे प्रभु, उन समस्त भौतिक इच्छाओं को त्यागकर जो रजो, तमो तथा सतोगुणों से बद्ध हैं, मैं शरण लेने के लिए आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान से प्रार्थना कर रहा हूँ। आप संसारी उपाधियों से प्रच्छन्न नहीं हैं, प्रत्युत आप शुद्ध ज्ञान से पूर्ण तथा भौतिक गुणों से परे परम सत्य हैं।

57 इतने दीर्घकाल से मैं इस जगत में कष्टों से पीड़ित होता रहा हूँ और शोक से जलता रहा हूँ। मेरे छह शत्रु कभी भी तृप्त नहीं होते और मुझे शान्ति नहीं मिल पाती। अतः हे शरणदाता, हे परमात्मा! मेरी रक्षा करें। हे प्रभु, सौभाग्य से इतने संकट के बीच में आपके चरणकमलों तक पहुँचा हूँ, जो सत्य रूप हैं और जो निर्भय तथा शोकरहित बनाने वाले हैं।

58 भगवान ने कहा: हे सम्राट, महान राजा, तुम्हारा मन शुद्ध तथा सामर्थ्यवान है। यद्यपि मैंने वरों के द्वारा तुम्हें प्रलोभित करना चाहा किन्तु तुम्हारा मन भौतिक इच्छाओं के वशीभूत नहीं हुआ।

59 यह जान लो कि मैं यह सिद्ध करने के लिए तुम्हें वरों से प्रलोभन दे रहा था कि तुम धोखा नहीं खा सकते। मेरे शुद्ध भक्त की बुद्धि कभी भी भौतिक आशीर्वादों से विपथ नहीं होती।

60 ऐसे अभक्तगण जो प्राणायाम जैसे अभ्यासों में लगते हैं उनके मन भौतिक इच्छाओं से कभी विमल नहीं होते। इस तरह हे राजन, उनके मन में भौतिक इच्छाएँ पुनः उठती हुई देखी गई हैं।

61 अपना मन मुझमें स्थिर करके तुम इच्छानुसार इस पृथ्वी पर विचरण करो। मुझमें तुम्हारी ऐसी अविचल भक्ति सदैव बनी रहे।

62 चूँकि तुमने क्षत्रिय के सिद्धान्तों का पालन किया है, अतः शिकार करते तथा अन्य कार्य सम्पन्न करते समय तुमने जीवों का वध किया है। तुम्हें चाहिए कि सावधानी के साथ तपस्या करते हुए तथा मेरे शरणागत रहते हुए इस तरह से किए हुए पापों को मिटा डालो।

63 हे राजन, तुम अगले जीवन में श्रेष्ठ ब्राह्मण, समस्त जीवों के सर्वोत्तम शुभचिन्तक बनोगे और अवश्य ही मेरे पास आओगे।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय पचास – कृष्ण द्वारा द्वारकापुरी की स्थापना (10.50)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब कंस मार डाला गया तो हे भरतर्षभ, उसकी दो पटरानियाँ अस्ति तथा प्राप्ति अत्यन्त दुखी होकर अपने पिता के घर चली गई।

2 दुखी रानियों ने अपने पिता मगध के राजा जरासन्ध से सारा हाल कह सुनाया कि वे किस तरह विधवा हुईं।

3 हे राजन, यह अप्रिय समाचार सुनकर जरासन्ध शोक तथा क्रोध से भर गया और पृथ्वी को यादवों से विहीन करने के यथासम्भव प्रयास में जुट गया।

4 उसने तेईस अक्षौहिणी सेना लेकर यदुओं की राजधानी मथुरा के चारों ओर घेरा डाल दिया।

5-6 यद्यपि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण इस संसार के आदि-कारण हैं किन्तु जब वे इस पृथ्वी पर अवतरित हुए तो उन्होंने मनुष्य की भूमिका निबाही। अतः जब उन्होंने देखा कि जरासन्ध की सेना ने उनकी नगरी को उसी तरह घेर लिया है, जिस तरह महासागर अपने किनारों को तोड़कर बहने लगता है और सेना उनकी प्रजा में भय उत्पन्न कर रही है। भगवान ने विचार किया कि देश, काल तथा उनके वर्तमान अवतार के विशिष्ट प्रयोजन के अनुकूल उनकी उपयुक्त प्रतिक्रिया क्या होनी चाहिए।

7-8 भगवान ने सोचा: चूँकि पृथ्वी पर इतना भार है, अतः मैं जरासन्ध की इस सेना को विनष्ट कर दूँगा जिसमें अक्षौहिणियों पैदल सैनिक, घोड़े, रथ तथा हाथी हैं, जिसे मगध के राजा ने अपने अधीनस्थ राजाओं से बटोरकर यहाँ ला खड़ा किया है। किन्तु मुझे जरासन्ध को नहीं मारना चाहिए क्योंकि भविष्य में वह निश्चितरूप से दूसरी सेना जोड़ लेगा।

9 मेरे इस अवतार का यही प्रयोजन है – पृथ्वी के भार को दूर करना, साधुओं की रक्षा करना और असाधुओं का वध करना।

10 मैं धर्म की रक्षा करने तथा जब-जब समय के साथ अधर्म की प्रधानता होती है, तो उसका अन्त करने के लिए भी अन्य शरीर धारण करता हूँ।

11 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब भगवान गोविन्द इस तरह सोच रहे थे तो सूर्य के समान तेज वाले दो रथ आकाश से सहसा नीचे उतरे। वे सारथियों तथा साज-सज्जा से युक्त थे।

12 उसी समय भगवान के दिव्य हथियार भी स्वतः उनके समक्ष प्रकट हो गये। उन्हें देखकर इन्द्रियों के स्वामी श्रीकृष्ण ने भगवान संकर्षण से कहा।

13-14 भगवान ने कहा: हे पूज्य ज्येष्ठ भ्राता, आप अपने आश्रित यदुओं पर आये हुए इस संकट को तो देखिये! और हे प्रभु, यह भी देखिये कि आपका निजी रथ तथा आपकी पसन्द के हथियार आपके समक्ष आ चुके हैं। हे प्रभु! हमने जिस उद्देश्य से जन्म लिया है, वह अपने भक्तों के कल्याण को सुरक्षित करना है। कृपया अब इन तेईस सैन्य-टुकड़ियों के भार को पृथ्वी से हटा दीजिये।

15 भगवान कृष्ण द्वारा अपने भाई को इस तरह आमंत्रित करने के बाद, दोनों दशार्ह कृष्ण तथा बलराम कवच पहन कर और अपने चमचमाते हथियारों को प्रदर्शित करते हुए, रथों पर चढ़कर नगरी के बाहर चले गये। उनके साथ सैनिकों की छोटी-सी टुकड़ी ही थी।

16 जब भगवान कृष्ण दारुक द्वारा हाँके जा रहे अपने रथ पर चढ़कर नगरी से बाहर आ गये तो उन्होंने अपना शंख बजाया। इससे शत्रु-सैनिकों के हृदय भय से काँपने लगे।

17 जरासन्ध ने दोनों की ओर देखा और कहा: अरे पुरुषों में अधम कृष्ण मैं तुझसे अकेले नहीं लड़ना चाहता क्योंकि एक बालक से युद्ध करना लज्जा की बात होगी। अरे अपने को गुप्त रखने वाले और अपने सम्बन्धियों की हत्या करने वाले, तू भाग जा! मैं तुझसे युद्ध नहीं करूँगा।

18 रे बलराम, तू धैर्य सँजो करके मुझसे लड़, यदि तू सोचता है कि तू ऐसा कर सकता है। या तो तू मेरे बाणों के द्वारा खण्ड खण्ड होने से अपना शरीर त्याग और इस तरह स्वर्ग प्राप्त कर या फिर तू मुझे जान से मार।

19 भगवान ने कहा: असली वीर केवल डींग नहीं मारते अपितु अपने कार्य के द्वारा पराक्रम का प्रदर्शन करते हैं। जो चिन्ता से पूर्ण हो और मरना चाहता हो उसके शब्दों को हम गम्भीरता से नहीं ले सकते।

20 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जिस तरह वायु बादलों से सूर्य को या धूल से अग्नि को ढक लेती है उसी तरह जरा का पुत्र, मधु के दो वंशजों की ओर चल पड़ा और उसने अपनी विशाल सेनाओं से उन्हें तथा उनके सैनिकों, रथों, पताकाओं, घोड़ों तथा सारथियों को घेर लिया।

21 स्त्रियाँ अटारियों, महलों तथा नगर के ऊँचे द्वारों पर खड़ी हुई थीं। जब उन्हें कृष्ण तथा बलराम के रथ नहीं दिखाई पड़े, जिनकी पहचान गरुड तथा ताड़-वृक्ष के प्रतिकों से चिन्हित पताकाओं से होती थी, तो वे शोकाकुल होकर मूर्छित हो गईं।

22 अपने चारों ओर बादलों जैसी विशाल शत्रु सेनाओं के बाणों की भयानक तथा निर्मम वर्षा से अपनी सेना को पीड़ित देखकर भगवान हरि ने अपने उस उत्तम धनुष शार्ङ्ग पर टनकार की जो देवताओं तथा असुरों दोनों के द्वारा पूजित है।

23 भगवान कृष्ण ने अपने तरकस से तीर निकाले उन्हें प्रत्यंचा (धनु की डोरी) पर स्थित किया (चढ़ाया), डोरी खींची और तीक्ष्ण बाणों की झड़ी लगा दी जिसने शत्रु के रथों, हाथियों, घोड़ों तथा पैदल सिपाहियों पर वार किया। भगवान अपने तीरों को अलात-चक्र की तरह छोड़ रहे थे।

24 हाथी धराशायी हो गये, उनके माथे फट गये, कटी गर्दनों वाले सेना के घोड़े गिर गये, रथ घोड़ों, झण्डों, सारथियों तथा स्वामियों समेत टूट-फुटकर गिर गये और कटी हुई भुजाओं, जाँघों तथा कंधों वाले पैदल सिपाहियों ने दम तोड़ दिए।

25-28 युद्धभूमि में मनुष्यों, हाथियों तथा घोड़ों के खण्ड खण्ड हो जाने से रक्त की सैकड़ों नदियाँ बह चलीं। इन नदियों में बाँहें सर्पों के तुल्य, मनुष्यों के सिर कछुवों की तरह, मृत हाथी द्वीपों की तरह तथा मृत घोड़े घड़ियालों की तरह प्रतीत हो रहे थे। उनके हाथ तथा जाँघें मछली की तरह, मनुष्यों के बाल सिवार की तरह, बाण लहरों की तरह तथा विविध हथियार झड़ियों के कुन्ज जैसे लग रहे थे। रक्त की नदियाँ इन सारी वस्तुओं से भरी पड़ी थीं। रथ के पहिये भयावनी भँवरों जैसे और बहुमूल्य मोती तथा आभूषण तेजी से बहती लाल रंग की नदियों में पत्थरों तथा रेत की तरह लग रहे थे, जो कायरों में भय और बुद्धिमानों में हर्ष उत्पन्न करनेवाले थे। अपने हलायुध के प्रहारों से अत्यधिक शक्तिशाली बलराम ने मगधेन्द्र की सैनिक शक्ति विनष्ट कर दी। यद्यपि यह सेना दुर्लंघ्य सागर की भाँति अथाह एवं भयावनी थी किन्तु वसुदेव के दोनों पुत्रों के लिए, जो कि ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं, यह युद्ध खिलवाड़ से अधिक नहीं था।

29 जो तीनों लोकों के सृजन, पालन और संहार को एकसाथ सम्पन्न करने वाले हैं तथा जो असीम दिव्य गुणों वाले हैं उनके लिए विरोधी दल का दमन कर देना आश्चर्यजनक नहीं है। फिर भी जब भगवान मानव आचरण का अनुकरण करते हुए ऐसा करते हैं, तो साधुगण उनके कार्यों का गुणगान करते हैं।

30 रथविहीन होने तथा सारे सैनिक मारे जाने से जरासन्ध के पास केवल श्वास शेष थी। उस समय बलराम ने उस बलशाली योद्धा को उसी तरह पकड़ लिया जिस तरह एक सिंह दूसरे सिंह को पकड़ लेता है।

31 अनेक शत्रुओं का वध करनेवाले बलराम, जरासन्ध को वरुण के दैवीपाश से तथा अन्य लौकिक रस्सियों से बाँधने लगे। किन्तु गोविन्द को अभी जरासन्ध के माध्यम से कुछ कार्य करना शेष था अतः उन्होंने बलराम से रुक जाने के लिए कहा।

32-33 जरासन्ध जिसको योद्धा अत्यधिक सम्मान देते थे, जब ब्रह्माण्ड के दोनों स्वामियों ने उसे छोड़ दिया तो वह अत्यन्त लज्जित हुआ और उसने तपस्या करने का निश्चय किया। किन्तु मार्ग में कई राजाओं ने आध्यात्मिक ज्ञान तथा संसारी तर्कों के द्वारा उसे आश्वस्त किया कि उसे आत्मोत्सर्ग का विचार त्याग देना चाहिए। उन्होंने उससे कहा, “यदुओं द्वारा आपको हराया जाना तो आपके गत कर्मों का परिहार्य फल है।"

34 अपनी सारी सेना मारी जाने तथा स्वयं भी भगवान द्वारा उपेक्षित होने से बृहद्रथ पुत्र राजा जरासन्ध उदास मन से अपने राज्य मगध को लौट गया।

35-36 भगवान मुकुन्द ने अपनी अक्षत पूर्णतः सेना के द्वारा अपने शत्रु की सेनाओं के समुद्र को पार कर लिया था। स्वर्ग के निवासियों ने उन पर फूलों की वर्षा करते हुए उन्हें बधाइयाँ दीं। मथुरा के निवासी अपनी ज्वरयुक्त चिन्ता से मुक्त होकर तथा हर्ष से पूरित होकर उनसे मिलने के लिए बाहर निकल आये। सूतों, मागधों तथा वन्दीजनों ने उनकी विजय की प्रशंसा में गीत गाये।

37-38 ज्योंही भगवान ने नगरी में प्रवेश किया, शंख तथा दुन्दुभियाँ बजने लगीं और अनेक ढोल, तुरहियाँ, वीणा, वंशी तथा मृदंग एकसाथ बजने लगे। रास्तों पर जल छिड़का गया था, सर्वत्र पताकाएँ लगी थीं तथा प्रवेशद्वारों को समारोह के लिए सजाया गया था। उसके नागरिक उत्साहित थे और नगरी वैदिक स्तोत्रों के उच्चारण से गूँज रही थी।

39 ज्योंही नगरी की स्त्रियों ने भगवान पर स्नेहयुक्त दृष्टि डाली, उनके नेत्र प्रेमवश खुले के खुले रह गये। उन्होंने भगवान पर फूल मालाएँ, दही, अक्षत तथा नवांकुरों की वर्षा की।

40 तत्पश्चात भगवान कृष्ण ने यदुराज को वह सारी सम्पत्ति लाकर भेंट की जो युद्धभूमि में गिरी थी अर्थात जो मृत योद्धाओं के अनगिनत आभूषणों के रूप में थी।

41 मगध का राजा इसी तरह से सत्रह बार पराजित होता रहा। फिर भी इन पराजयों में वह अपनी कई अक्षौहिणी सेनाओं से यदुवंश की उन सेनाओं के विरुद्ध लड़ता रहा जो श्रीकृष्ण द्वारा संरक्षित थीं।

42 भगवान कृष्ण की शक्ति से, वृष्णिजन जरासन्ध की सारी सेना को नष्ट करते रहे और जब उसके सारे सैनिक मार डाले जाते तो राजा जरासन्ध अपने शत्रुओं द्वारा छोड़ दिये जाने पर पुनः वहाँ से चला जाता।

43 जब अठारहवाँ युद्ध होने ही वाला था, तो कालयवन नामक एक बर्बर यौद्धा, जिसे नारद ने भेजा था, युद्ध-क्षेत्र में प्रकट हुआ।

44 मथुरा आकर इस यवन ने तीन करोड़ बर्बर (म्लेच्छ) सैनिकों समेत इस नगरी में घेरा डाल दिया। उसे कभी अपने से लड़ने योग्य प्रतिद्वन्द्वी व्यक्ति नहीं मिला था किन्तु उसने सुना था कि वृष्णिजन उसकी जोड़ के हैं।

45 जब भगवान कृष्ण तथा भगवान संकर्षण ने कालयवन को देखा तो कृष्ण ने स्थिति पर विचार किया और कहा, “ओह! अब तो यदुओं पर दो ओर से संकट आ पड़ा है।"

46 “हमें यह यवन पहले से घेरे हुए है और शीघ्र ही यदि आज नहीं, तो कल या परसों तक मगध का बलशाली राजा यहाँ आ पहुँचेगा।"

47 “यदि हमारे दोनों के कालयवन से युद्ध करने में संलग्न रहते समय, बलशाली जरासन्ध आता है, तो वह या तो हमारे सम्बन्धियों को मार सकता है या फिर उन्हें पकड़कर अपनी राजधानी ले जा सकता है।"

48 “अतः हम तुरन्त ऐसा किला बनायेंगे जिसमें मानवी सेना प्रवेश न कर पाये। अपने पारिवारिक जनों को उसमें वसा देने के पश्चात हम म्लेच्छराज का वध करेंगे।"

49 इस तरह बलराम से सलाह करने के बाद भगवान ने समुद्र के भीतर बारह योजन परिधि वाला एक किला बनवाया। इस किले के भीतर उन्होंने एक ऐसा नगर बनवाया जिसमें एक से एक बढ़कर अद्भुत वस्तुएँ उपलब्ध थीं।

50-53 उस नगर के निर्माण में विश्वकर्मा के पूर्ण विज्ञान तथा शिल्पकला को देखा जा सकता था। उसमें चौड़े मार्ग, व्यावसायिक सड़कें तथा चौराहे थे, जो विस्तृत भूखण्ड में बनाये गये थे। उसमें भव्य उपवन थे और स्वर्गलोक से लाये गये वृक्षों तथा लताओं से युक्त बगीचे भी थे। उसके गोपुर के मीनारों के ऊपर सोने के बुर्ज थे, जो आकाश को चूम रहे थे। उनकी अटारियाँ स्फटिक मणियों से बनी थीं। सोने से आच्छादित घरों के सामने का भाग सुनहरे घड़ों से सजाया गया था और उनकी छतें रत्नजटित थीं तथा फर्श में बहुमूल्य मरकत मणि जड़े थे। घरों के पास ही कोषागार, भण्डार तथा घोड़ों के आकर्षक अस्तबल थे, जो चाँदी तथा पीतल के बने हुए थे। प्रत्येक आवास में एक चौकसी बुर्जी थी और घरेलू अर्चाविग्रह के लिए मन्दिर था। यह नगर चारों वर्णों के लोगों से पूरित था और यदुओं के स्वामी श्रीकृष्ण के महलों के कारण विशेष रूप से अलंकृत था।

54 इन्द्र ने श्रीकृष्ण के लिए सुधर्मा सभागार ला दिया जिसके भीतर खड़ा मनुष्य मृत्यु के नियमों से प्रभावित नहीं होता। इन्द्र ने पारिजात वृक्ष भी लाकर दिया।

55 वरुण ने मन के समान वेग वाले घोड़े दिये जिनमें से कुछ शुद्ध श्याम रंग के थे और कुछ सफेद थे। देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर ने अपनी आठों निधियाँ दीं और विभिन्न लोकपालों ने अपने-अपने ऐश्वर्य प्रदान किये।

56 हे राजन, जब भगवान पृथ्वी पर आ गये तो इन देवताओं ने उन सभी सिद्धियों को उन्हें अर्पित कर दिया जो उन्हें अपने विशेष अधिकार के निष्पादन के लिए पहले प्राप्त हुई थीं।

57 जब भगवान कृष्ण ने अपनी योगमाया शक्ति के बल पर सारी प्रजा को नये नगर में पहुँचा दिया तो उन्होंने बलराम से सलाह की, जो मथुरा में उसकी रक्षा करने के लिए रह गये थे। तब गले में कमल के फूलों की माला पहने और बिना हथियार के भगवान कृष्ण मुख्य दरवाजे से होकर मथुरा से बाहर चले गये।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय उनचास – अक्रूर का हस्तिनापुर जाना (10.49) 

1-2 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अक्रूर पौरव शासकों की ख्याति से प्रसिद्ध नगरी हस्तिनापुर गये। वहाँ वे धृतराष्ट्र, भीष्म, विदुर तथा कुन्ती के साथ-साथ बाह्यिक तथा उसके पुत्र सोमदत्त से मिले। उन्होंने द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, अश्वत्थामा, पाण्डवगण तथा अन्य घनिष्ठ मित्रों से भी भेंट की।

3 जब गान्दिनीपुत्र अक्रूर अपने समस्त सम्बन्धियों तथा मित्रों से भलीभाँति मिल चुके तो उन लोगों ने अपने परिवार वालों के समाचार पूछे और प्रत्युत्तर में अक्रूर ने उनकी कुशलता पूछी।

4 वे हस्तिनापुर में दुर्बल इच्छा शक्ति वाले राजा के आचरण की छानबीन करने के लिए कई मास रहे जिसके पुत्र बुरे थे और जो अपने दुष्ट सलाहकारों की इच्छानुसार कार्य करता रहता था।

5-6 अक्रूर से कुन्ती तथा विदुर ने धृतराष्ट्र के पुत्रों की दुर्भावनाओं का विस्तार से वर्णन किया। वे कुन्ती के पुत्रों के महान गुणों यथा – उनके शक्तिशाली प्रभाव, सैन्य-कौशल, शारीरिक बल, बहादुरी तथा विनयशीलता या उनके प्रति नागरिकों के अगाध स्नेह को सहन नहीं कर सकते थे। कुन्ती तथा विदुर ने अक्रूर को यह भी बतलाया कि धृतराष्ट्र के पुत्रों ने किस तरह पाण्डवों को विष देने तथा ऐसे ही अन्य षडयंत्रों को रचने का प्रयास किया था।

7 अपने भाई अक्रूर के आने का लाभ उठाकर कुन्तीदेवी उनके पास चुपके से पहुँची। अपनी जन्मभूमि (मायका) का स्मरण करते हुए वे अपनी आँखों में आँसू भरकर बोलीं।

8 महारानी कुन्ती ने कहा: हे भद्र पुरुष, क्या मेरे माता-पिता, भाई, बहनें, भतीजे, परिवार की स्त्रियाँ तथा बचपन की सखियाँ अब भी हमें याद करती हैं?

9 क्या मेरा भतीजा कृष्ण, जो भगवान है और अपने भक्तों की कृपालु शरण रूप है, अब भी अपनी बुआ के पुत्रों को स्मरण करता है? क्या कमल जैसी आँखों वाला राम भी उन्हें स्मरण करता है?

10 इस समय जब मैं अपने शत्रुओं के बीच में उसी तरह कष्ट भोग रही हूँ जिस तरह एक हिरणी भेड़ियों के बीच में पाती है, तो क्या कृष्ण मुझे तथा पितृविहीन मेरे पुत्रों को अपनी वाणी से सान्त्वना देने आयेंगे ?

11 हे कृष्ण, हे कृष्ण! हे महान योगी! हे परमात्मा तथा ब्रह्माण्ड के रक्षक! हे गोविन्द! मेरी रक्षा कीजिये। मैं आपकी शरण में हूँ। मैं तथा मेरे पुत्र दुख से अभिभूत हैं।

12 जो लोग मृत्यु तथा पुनर्जन्म से भयभीत हैं, उनके लिए मैं आपके मोक्षदाता चरणकमलों के अतिरिक्त अन्य कोई शरण नहीं देखती, क्योंकि आप परमेश्वर हैं।

13 मैं परम शुद्ध, परम सत्य, परमात्मा, शुद्ध भक्ति के स्वामी तथा समस्त ज्ञान के उद्गम को नमस्कार करती हूँ। मैं आपकी शरण में आई हूँ।

14 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, इस तरह अपने परिवार वालों का तथा ब्रह्माण्ड के स्वामी कृष्ण का स्मरण करके आपकी परदादी कुन्तीदेवी शोक में रोने लगीं।

15 महारानी कुन्ती के सुख-दुख में हिस्सा बटाने वाले अक्रूर तथा सुविख्यात विदुर दोनों ने ही कुन्ती को इनके पुत्रों के जन्म की असाधारण घटना की याद दिलाते हुए सान्त्वना दी।

16 राजा धृतराष्ट्र के अपने पुत्रों के प्रति अत्यधिक स्नेह ने उसे पाण्डवों के प्रति अन्यायपूर्ण व्यवहार करने के लिए बाध्य किया था। प्रस्थान करने के पूर्व अक्रूर राजा के पास गए जो उस समय अपने मित्रों तथा समर्थकों के बीच बैठा था। अक्रूर ने उसे वह सन्देश दिया जो उनके सम्बन्धी कृष्ण तथा बलराम ने मैत्रीवश भेजा था।

17 अक्रूर ने कहा: हे प्रिय विचित्रवीर्य के पुत्र, हे कुरुओं की कीर्ति को बढ़ाने वाले, आपने अपने भाई पाण्डु के दिवंगत होने के बाद राजसिंहासन ग्रहण किया है।

18 धर्मपूर्वक पृथ्वी की रक्षा करते हुए, अपनी सच्चरित्रता से अपनी प्रजा को प्रसन्न रखते हुए तथा अपने सारे सम्बन्धियों के साथ एकसमान व्यवहार करते हुए आप अवश्य ही सफलता तथा कीर्ति प्राप्त करेंगे।

19 किन्तु यदि आप अन्यथा आचरण करेंगे तो लोग इसी लोक में आपकी निन्दा करेंगे और अगले जन्म में आपको नारकीय अंधकार में प्रवेश करना होगा। अतः आप पाण्डु के पुत्रों तथा अपने पुत्रों के प्रति एक सा बर्ताव करें।

20 हे राजन, इस जगत में किसी का किसी अन्य से कोई स्थायी सम्बन्धी नहीं है। हम अपने ही शरीर के साथ जब सदा के लिए नहीं रह सकते तो फिर हमारी पत्नी, सन्तान तथा अन्यों के लिए क्या कहा जा सकता है?

21 हर प्राणी अकेला उत्पन्न होता है और अकेला मरता है। अकेला ही वह अपने अच्छे और बुरे कर्मों के फलों का भी अनुभव करता है।

22 प्रिय आश्रितों के वेश में अनजाने लोग मूर्ख व्यक्ति द्वारा पाप से अर्जित सम्पत्ति को उसी तरह चुरा लेते हैं जिस तरह मछली की सन्तानें उस जल को पी जाती हैं, जो उनका पालन करनेवाला है।

23 मूर्ख व्यक्ति अपने जीवन, सम्पत्ति तथा सन्तान एवं अन्य सम्बन्धियों का भरण-पोषण करने के लिए पापकर्म में प्रवृत्त होता है क्योंकि वह सोचता है "ये वस्तुएँ मेरी हैं।" किन्तु अन्त में ये ही वस्तुएँ उसे कुण्ठित अवस्था में छोड़ जाती हैं।

24 अपने तथाकथित आश्रितों से परित्यक्त होकर, जीवन के वास्तविक लक्ष्य से अनजान, असली कर्तव्य से उदासीन तथा अपने उद्देश्यों को पूरा करने में असफल होकर, वह मूर्ख व्यक्ति पापकर्मों को अपने साथ लेकर नरक के अंधकार में प्रवेश करता है।

25 अतः हे राजन, इस संसार को स्वप्नवत, जादूगर का मायाजाल या मन की उड़ान समझकर, बुद्धि से अपने मन को वश में कीजिये और हे स्वामी! आप समभाव तथा शान्त बनिये।

26 धृतराष्ट्र ने कहा: हे दानपति, मैं आपके शुभ-वचनों को सुनते हुए कभी भी तृप्त नहीं हो सकता। निस्सन्देह, मैं उस मर्त्य प्राणी की तरह हूँ जिसे देवताओं का अमृत प्राप्त हो चुका है।

27 फिर भी हे भद्र अक्रूर, क्योंकि मेरा अस्थिर हृदय अपने पुत्रों के स्नेह से पक्षपातयुक्त है इसलिए आपके ये मोहक शब्द हृदय में स्थिर नहीं टिक पाते, जिस तरह बिजली बादल में स्थिर नहीं रह सकती।

28 भला उन भगवान के आदेशों का उल्लंघन कौन कर सकता है, जो पृथ्वी का भार कम करने के लिए अब यदुवंश में अवतार ले चुके हैं?

29 मैं उन भगवान को नमस्कार करता हूँ जो अपनी भौतिक शक्ति की अचिन्त्य क्रियाशीलता से इस ब्रह्माण्ड का सृजन करते हैं और फिर सृष्टि के भीतर प्रविष्ट होकर प्रकृति के विभिन्न गुणों को वितरित कर देते हैं। जिनकी लीलाओं का अर्थ अगाध है, उन्हीं से यह जन्म-मृत्यु का बन्धनकारी चक्र तथा उससे मोक्ष पाने की विधि उत्पन्न हुए हैं।

30 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह राजा के अभिप्राय को समझकर यदुवंशी अक्रूर ने अपने शुभचिन्तक सम्बन्धियों तथा मित्रों से अनुमति ली और यादवों की राजधानी लौट आये।

31 अक्रूर ने बलराम तथा कृष्ण को यह सूचित किया कि धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति कैसा बर्ताव है। इस तरह हे कुरुवंशी, उन्होंने उस अभिप्राय की पूर्ति कर दी जिसके लिए वे भेजे गये थे।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय अड़तालीस - कृष्ण द्वारा अपने भक्तों की तुष्टि (10.48)

1-2 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: तदनन्तर सबके स्वामी भगवान कृष्ण ने सेवा करने वाली त्रिवक्रा को तुष्ट करना चाहा, अतः वे उसके घर गये। त्रिवक्रा का घर ऐश्वर्ययुक्त साज-सामान से बड़ी शान से सजाया हुआ था । उसमें झण्डियाँ, मोती की लड़ें, चँदोवा, सुन्दर शय्या (पलंग) तथा बैठने के आसन थे और सुगन्धित अगुरु, दीपक, फूल-मालाएँ तथा सुगन्धित चन्दन-लेप भी था। जब त्रिवक्रा ने उन्हें अपने घर की ओर आते देखा तो वह हड़बड़ाकर तुरन्त ही अपने आसन से उठ खड़ी हुई।

3-5 अपनी सखियों समेत आगे आकर उसने भगवान अच्युत को उत्तम आसन तथा पूजा की अन्य सामग्रियाँ अर्पित करते हुए उनका सत्कार किया। उद्धव को भी सम्मान-युक्त आसन प्राप्त हुआ। चूँकि वे साधु सदृश पुरुष थे अतः कृष्ण के बराबर न बैठते हुए फर्श पर बैठ गये। तब भगवान कृष्ण मानव समाज के आचारों (लोकाचार) का अनुकरण करते हुए ऐश्वर्यशाली पलंग पर बैठ गये। त्रिवक्रा सुन्दर वस्त्र, आभूषण और मालाएँ पहनकर, सुगन्ध लगाने के बाद पान-सुपारी चबाकर और सुगन्धित पेय पीकर तैयार हुई। तब वह लजीली, लीलामयी हँसी तथा लुभाने वाली चितवनों से माधव के पास पहुँची।

6-7 इस नवीन सम्पर्क की प्रत्याशा से सशंकित तथा लजीली प्रेमिका को आगे आने के लिए बुलाते हुए भगवान ने कंगन से सुशोभित उसके हाथों को पकड़कर अपने पास बिठा लिया। त्रिवका की एकमात्र पवित्रता केवल इतनी ही थी कि उसने भगवान को लेप अर्पित किया था, जिसके फलस्वरूप उसे ऐसा अनुपम अवसर मिला। उसने श्रीकृष्ण का आलिंगन किया, जो आनन्द की मूर्ति हैं और इस तरह उसने अपनी दीर्घकालीन व्यथा को त्याग दिया।

8 केवल शरीर का लेप प्रदान करने से ही अलभ्य भगवान को इस प्रकार पाकर उस अभागी त्रिवक्रा ने स्वतंत्रता (मोक्ष) के उन स्वामी से याचना की।

9-10 त्रिवक्रा ने कहा: हे प्रियतम! आप यहाँ पर मेरे साथ कुछ दिन ठहरें। हे कमलनेत्र! मैं आपका साथ छोड़कर नहीं रह सकती। सबका मान रखने वाले कृष्ण ने त्रिवक्रा का अभिवादन किया और तब उद्धव समेत अपने अत्यन्त समृद्धिशाली धाम को लौट आये।

11 सामान्यतया समस्त ईश्वरों के परम ईश्वर भगवान विष्णु तक पहुँच पाना कठिन है। अतः जो व्यक्ति उनकी समुचित पूजा करने के बाद उनसे इन्द्रियतृप्ति का वर माँगता है, वह निश्चित रूप से कम बुद्धि वाला (दुर्बुद्धि) है क्योंकि वह तुच्छ फल से तुष्ट हो जाता है।

12 तत्पश्चात भगवान कृष्ण कुछ कार्य कराने की इच्छा से अक्रूर के घर बलराम और उद्धव के साथ गये। भगवान अक्रूर को भी तुष्ट करना चाहते थे।

13-14 जब अक्रूर ने अपने सम्बन्धियों एवं पुरुष शिरोमणियों को दूर से आते देखा तो वे हर्षपूर्वक उठकर खड़े हो गये। उनको गले मिलने, आलिंगन और स्वागत करने के बाद अक्रूर ने कृष्ण और बलराम को नमस्कार किया और बदले में उन दोनों ने उनका अभिवादन किया। जब उनके अतिथि आसन ग्रहण कर चुके थे तो उन्होंने शास्त्रीय नियमों के अनुसार उनकी पूजा की।

15-16 हे राजन, अक्रूर ने भगवान कृष्ण तथा बलराम के चरण पखारे और तब उस चरणोदक को अपने सिर पर छिड़का। उन्होंने उन दोनों को उत्तम वस्त्र, सुगन्धित चन्दन लेप, फुल मालाएँ तथा उत्तम आभूषण भेंट में दिये। इस तरह दोनों विभुओं की पूजा करने के बाद उन्होंने सिर से फर्श को स्पर्श करके नमस्कार किया। फिर वे कृष्ण के चरणों को अपनी गोद में लेकर दबाने लगे और नम्रभाव से अपना सिर नीचे किये कृष्ण तथा बलराम से इस प्रकार बोले।

17 अक्रूर ने कहा: यह तो हमारा सौभाग्य है कि आप दोनों ने दुष्ट कंस तथा उसके अनुचरों का वध कर दिया है। इस तरह आपने अपने वंश को अन्तहीन कष्ट से उबारकर उसे समृद्ध बनाया है।

18 आप दोनों आदि परम पुरुष, ब्रह्माण्ड के कारण तथा इसके सार हैं। जरा सा भी सूक्ष्म कारण या सृष्टि की कोई भी अभिव्यक्ति आपसे पृथक नहीं रह सकती।

19 हे परम सत्य आप अपनी निजी शक्तियों से इस ब्रह्माण्ड का सृजन करते हैं और तब उसमें प्रवेश करते हैं। इस तरह महाजनों से सुनकर तथा प्रत्यक्ष अनुभव करके मनुष्य आपको अनेक विभिन्न रूपों में अनुभव कर सकता है।

20 जिस प्रकार जड़ तथा चेतन जीव-योनियों में मूलभूत तत्त्व अपने को पृथ्वी इत्यादि अनेकानेक क़िस्मों के रूप में प्रकट करते हैं उसी तरह आप एक स्वतंत्र परमात्मा के रूप में अपनी सृष्टि के विविधतापूर्ण पदार्थों में अनेक रूपों में प्रकट होते हैं।

21 आप अपनी निजी शक्तियों (सत, रज तथा तम गुणों) से इस ब्रह्माण्ड का सृजन, पालन और संहार करते हैं, फिर भी आप इन गुणों द्वारा या इनसे उत्पन्न कर्मों द्वारा बाँधे नहीं जाते। चूँकि आप समस्त ज्ञान के आदि स्रोत हैं, तो फिर भौतिक कार्यकलापों द्वारा आपके बन्धन का कारण क्या हो सकता है?

22 चूँकि यह कभी प्रदर्शित नहीं हुआ है कि आप भौतिक शारीरिक उपाधियों से प्रच्छन्न हैं अतः निष्कर्ष रूप में यह समझना होगा कि शाब्दिक अर्थ में न तो आपका जन्म होता है न ही कोई द्वैत है। इसलिए आपको बन्धन या मोक्ष का सामना नहीं करना होता और यदि आप ऐसा करते प्रतीत होते हैं, तो यह आपकी इच्छा के कारण ही है कि हम आपको इस रूप में देखते हैं या कि हममें विवेक का अभाव है इसलिए ऐसा है।

23 आपने समस्त विश्व के लाभ के लिए प्रारम्भ में वेदों के प्राचीन धार्मिक पथ की व्याख्या की थी। जब भी दुष्ट व्यक्तियों द्वारा नास्तिकता का मार्ग ग्रहण करने के फलस्वरूप यह पथ अवरुद्ध होता है, तो आप दिव्य सतोगुण से युक्त कोई न कोई रूप में अवतरित होते हैं।

24 हे प्रभु, आप ही वह परम पुरुष हैं और आप अपने अंश समेत वसुदेव के घर में प्रकट हुए हैं। आपने देवताओं के शत्रुओं के अंश रूप राजाओं के नेतृत्व वाली हजारों सेनाओं का वध करके पृथ्वी का भार हटाने तथा हमारे कुल की ख्याति का विस्तार करने के लिए ऐसा किया है।

25 हे प्रभु, आज मेरा घर अत्यन्त भाग्यशाली बन गया है क्योंकि आपने इसमें प्रवेश किया है। परम सत्य के रूप में आप पितरों, सामान्य प्राणियों, मनुष्यों एवं देवताओं की मूर्ति हैं और जिस जल से आपके पाँवों को प्रक्षालित किया गया है, वह तीनों लोकों को पवित्र बनाता है। निस्सन्देह हे इन्द्रियातीत, आप ब्रह्माण्ड के आध्यात्मिक गुरु हैं।

26 जब आप अपने भक्तों के प्रति इतने स्नेहिल, कृतज्ञ तथा सच्चे शुभचिन्तक हैं, तो फिर कौन ऐसा विद्वान होगा जो आपको छोड़कर किसी दूसरे के पास जायेगा? जो लोग सच्चे साख्यभाव से आपकी पूजा करते हैं उन्हें आप मुँह माँगा वरदान, यहाँ तक कि अपने आपको भी, दे देते हैं फिर भी आपमें न तो वृद्धि होती है न ह्रास।

27 हे जनार्दन, हमारे बड़े भाग्य हैं कि हमें आपके दर्शन हो रहे हैं क्योंकि बड़े बड़े योगेश्वर तथा अग्रणी देवता भी इस लक्ष्य को बड़ी मुश्किल से प्राप्त कर पाते हैं। कृपया शीघ्र ही सन्तान, पत्नी, धन, समृद्ध मित्र, घर तथा शरीर के प्रति हमारी मायामयी आसक्ति की रस्सियों को काट दें। ऐसी सारी आसक्ति आपकी भ्रामक एवं भौतिक माया का ही प्रभाव है।

28 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अपने भक्त द्वारा इस तरह पूजित तथा संस्तुत होकर भगवान हरि ने हँसते हुए अपनी वाणी से अक्रूर को पूर्णतया मोहित करके सम्बोधित किया।

29 भगवान ने कहा: आप हमारे गुरु, चाचा तथा श्लाघ्य मित्र हैं और हम आपके पुत्रवत हैं, अतः हम सदैव आपकी रक्षा, पालन तथा दया पर आश्रित हैं।

30 आप जैसे महात्मा ही सेवा के असली पात्र हैं और जीवन में सर्वोच्च मंगल के इच्छुक लोगों के लिए अत्यन्त पूज्य महाजन हैं। देवतागण सामान्यतया अपने स्वार्थो में लगे रहते हैं किन्तु साधु भक्त ऐसे नहीं होते।

31 इससे कोई इनकार नहीं करेगा कि अनेक तीर्थस्थानों में पवित्र नदियाँ होती हैं या कि देवताओं के अर्चाविग्रह मिट्टी तथा पत्थर से बने होते हैं। किन्तु ये सब दीर्घकाल के बाद ही आत्मा को पवित्र करते हैं जबकि सन्त पुरुषों के दर्शनमात्र से आत्मा पवित्र हो जाती है।

32 दरअसल आप हमारे सर्वश्रेष्ठ मित्र हैं अतः आप हस्तिनापुर जाँय और पाण्डवों के शुभचिन्तक के रूप में पता लगायें कि वे कैसे हैं।

33 हमने सुना है कि अपने पिता के दिवंगत हो जाने के बाद बालक पाण्डवों को उनकी दुखी माता समेत राजा धृतराष्ट्र द्वारा राजधानी में लाये गए थे और अब वे वहीं रह रहे हैं।

34 असल में अम्बिका का दुर्बल चित्त वाला पुत्र धृतराष्ट्र अपने दुष्ट पुत्रों के वश में आ चुका है अतएव वह अन्धा राजा अपने भाई के पुत्रों के साथ ठीक व्यवहार नहीं कर रहा है।

35 जाइये और देखिये कि धृतराष्ट्र ठीक से कार्य कर रहा है या नहीं। पता लग जाने पर हम अपने प्रिय मित्रों की सहायता करने की आवश्यक व्यवस्था करेंगे।

36 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस प्रकार से अक्रूर को पूरी तरह आदेश देकर संकर्षण एवं उद्धव के साथ भगवान हरि अपने घर लौट आये।

(समर्पित एवं सेवारत -  जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय सैंतालीस --  भ्रमर गीत (10.47)

1-2 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: व्रज की ललनाएँ कृष्ण के अनुचर को देखकर चकित हो गई। उनके हाथ लम्बे थे और आँखें नये खिले कमल जैसी थीं। वह पीत वस्त्र धारण किये था, गले में कमल की माला थी तथा अत्यन्त परिष्कृत किये हुए कुण्डलों से चमकता उसका मुखमण्डल कमल जैसा था। गोपियों ने पूछा, “यह सुन्दर पुरुष कौन है? यह कहाँ से आया है? यह किसकी सेवा करता है? यह तो कृष्ण के वस्त्र और आभूषण पहने हैं! “यह कहकर गोपियाँ उद्धव के चारों ओर उत्सुकता से एकत्र हो गई जिनका आश्रय भगवान उत्तमश्लोक श्रीकृष्ण के चरणकमल थे।

3 विनयपूर्वक अपना शीश झुकाते हुए गोपियों ने अपनी लजीली मुसकरातीं चितवनों तथा मधुर शब्दों से उद्धव का उचित रीति से सम्मान किया। वे उन्हें एकान्त स्थान में ले गई, उन्हें आराम से बैठाया और तब उन्हें लक्ष्मीपति कृष्ण का सन्देशवाहक मानकर उनसे प्रश्न करने लगीं।

4 गोपियों ने कहा: हम जानती हैं कि आप यदुश्रेष्ठ कृष्ण के निजी पार्षद हैं और अपने उस श्रेष्ठ स्वामी के आदेश से यहाँ आये हैं, जो अपने माता-पिता को सुख प्रदान करने के इच्छुक हैं।

5 अन्यथा हमें और कुछ भी ऐसा नहीं दिखता जिसे वे व्रज के इन चारागाहों में स्मरणीय समझते होंगे। निस्सन्देह एक मुनि के लिए भी अपने पारिवारिक जनों का स्नेह-बन्धन तोड़ पाना कठिन होता है।

6 किसी अन्य के प्रति, जो पारिवारिक सदस्य नहीं है, दिखलाई जाने वाली मित्रता स्वार्थ से प्रेरित होती है। अतः यह तो एक बहाना होता है, जो तब तक चलता है जब तक किसी का उद्देश्य पूरा नहीं हो जाता। ऐसी मित्रता वैसी ही है, जिस तरह कि स्त्रियों के प्रति पुरुषों की या फूलों के प्रति भौंरों की रुचि।

7 गणिकाएँ निर्धन व्यक्ति को, प्रजा अयोग्य राजा को, शिक्षा पूरी होने पर विद्यार्थी अपने शिक्षक को तथा पुरोहितगण दक्षिणा पाने के बाद यज्ञ करने वाले व्यक्ति को छोड़ जाते हैं।

8-10 फल न रहने पर पक्षी वृक्ष को, भोजन करने के बाद अतिथि घर को, जंगल जल जाने पर पशु जंगल को तथा प्रेमी के प्रति आकृष्ट रहने के बावजूद भी स्त्री का भोग कर लेने पर प्रेमी उसका परित्याग कर देते हैं। इस तरह बोलती हुई गोपियों ने जिनके वचन, शरीर तथा मन भगवान गोविन्द के प्रति पूर्णतया समर्पित थे, अपना नैत्यिक कार्य करना छोड़ दिया क्योंकि अब कृष्णदूत श्री उद्धव उनके बीच आया था। वे अपने प्रिय कृष्ण के बाल्यकाल तथा किशोरावस्था की लीलाओं को अविरत स्मरण करके उनका गुणगान करने लगीं और लाज छोड़कर फूट-फूटकर रोने लगीं।

11 कोई एक गोपी जब कृष्ण के साथ अपने पूर्व सानिध्य का ध्यान कर रही थीं, तो उसने अपने समक्ष एक भौंरा देखा। इस भौंरे को कृष्ण का दूत समझ कर उसने कहा " जिस तरह भौंरे विभिन्न फूलों के बीच मँडराते रहते हैं उसी तरह कृष्ण ने व्रज की तरुणियों को छोड़ दिया है और अन्य स्त्रियों से स्नेह उत्पन्न कर लिया है।"

12 हे भौंरे, हे छलिये के मित्र, मेरे पाँवों को छूकर, झूठे अनुनय विनय मत कर। जो व्यक्ति तुम जैसे दूत को भेजेगा वह यदुओं की सभा में निश्चित रूप से उपहास का पात्र बनेगा। कृष्ण अब मथुरा की स्त्रियों को तुष्ट करें।

13 केवल एक बार अपने होठों का मोहक अमृत पिलाकर कृष्ण ने सहसा उसी तरह हमारा परित्याग कर दिया है, जिस तरह तुम किसी फूल को तुरन्त छोड़ देते हो। तो फिर यह कैसे सम्भव है कि देवी पद्मा स्वेच्छा से उनके चरणकमलों की सेवा करती हैं? हाय! इसका उत्तर यही हो सकता है कि उनका चित्त उनके छलपूर्ण शब्दों द्वारा चुरा लिया गया है।

14 हे भौंरे, तुम घर-बार से रहित हम लोगों के समक्ष यदुओं के स्वामी के विषय में इतना अधिक क्यों गाये जा रहे हो? ये कथाएँ हमारे लिए अब पुरानी हो चुकी हैं। अच्छा हो कि तुम अर्जुन के उस मित्र के विषय में उसकी उन नई सखियों के समक्ष जाकर गाओ। वे स्त्रियाँ अवश्य ही तुम्हें मनवांछित फल प्रदान करेंगी।

15 उन्हें स्वर्ग, पृथ्वी या पाताल में कौन-सी स्त्रियाँ अनुपलब्ध हैं? वे केवल अपनी बाँकी चितवन करके छलपूर्ण आकर्षण से हँसते हैं, तो वे सब उनकी हो जाती हैं। लक्ष्मीजी तक उनके चरण-रज की पूजा करती हैं, तो उनकी तुलना में हमारी क्या बिसात है? किन्तु जो दीन-दुखियारी हैं, वे कम से कम उनका उत्तमश्लोक नाम तो ले ही सकती हैं!

16 तुम अपने सिर को मेरे पैरों से दूर ही रखो। मुझे पता है कि तुम क्या कर रहे हो। तुमने बहुत ही दक्षतापूर्वक मुकुन्द से कूटनीति सीखी है और अब चापलूसी भरे शब्द लेकर उनके दूत बनकर आये हो। किन्तु उन्होंने तो उन बेचारियों को ही छोड़ दिया है जिन्होंने उनके लिए अपने बच्चों, पतियों तथा अन्य सम्बन्धियों का परित्याग किया है। वे निपट कृतघ्न हैं। तो मैं अब उनसे समझौता क्यों करूँ?

17 शिकारी की तरह उन्होंने कपिराज को बाणों से निर्दयतापूर्वक बींध दिया। चूँकि वे एक स्त्री द्वारा जीते जा चुके थे इसलिए उन्होंने एक दूसरी स्त्री को, जो उनके पास कामेच्छा से आई थी कुरूप कर दिया। यही नहीं, बलि महाराज की बलि खाकर भी उन्होंने उन्हें रस्सियों से बाँध दिया मानो वे कोई कौवा हों। अतः हमें इस श्यामवर्ण वाले लड़के से सारी मित्रता छोड़ देनी चाहिए भले ही हम उसके विषय में बातें करना बन्द न कर पायें।

18 कृष्ण द्वारा नियमित रूप से की जाने वाली लीलाओं के विषय में सुनना कानों के लिए अमृत के समान है। जो लोग इस अमृत की एक बूँद का एक बार भी आस्वादन करते हैं, उनकी भौतिक द्वैत के प्रति अनुरक्ति विनष्ट हो जाती है। ऐसे अनेक लोगों ने एकाएक अपने भाग्यहीन घरों तथा परिवारों को त्याग दिया है और स्वयं दीन बनकर पक्षियों की तरह इधर-उधर घूमते-फिरते हुए जीवन निर्वाह के लिए भीख माँग-माँग कर वृन्दावन आये हैं।

19 उनके छलपूर्ण शब्दों को सच मानकर हम उस काले हिरण की मूर्ख पत्नियों के समान बन गई जो निष्ठुर शिकारी के गीत में भरोसा कर बैठती हैं। इस तरह हम उनके नाखुनों के स्पर्श से उत्पन्न कामव्याधि का बारम्बार अनुभव करती रहीं। हे दूत, अब कृष्ण के अतिरिक्त अन्य कोई बात कहो।

20 हे मेरे प्रियतम के मित्र, क्या मेरे प्रेमी ने फिर से तुम्हें यहाँ भेजा है? हे मित्र, मुझे तुम्हारा सम्मान करना चाहिए, अतः जो चाहो वर माँग सकते हो। किन्तु तुम हमें उसके पास फिर से ले जाने के लिए यहाँ क्यों आये हो जिसके मधुर प्रेम को छोड़ पाना इतना कठिन है? कुछ भी हो, हे भद्र भौंरे, उनकी प्रेयसी तो लक्ष्मीजी हैं और वे उनके साथ सदैव ही उनके वक्षस्थल पर विराजमान रहती हैं ।

21 हे उद्धव, दरअसल यह बहुत ही खेदजनक है कि कृष्ण मथुरा में वास करते हैं। क्या वे अपने पिता के गृहकार्यों तथा अपने ग्वालबाल मित्रों की याद करते हैं? हे महात्मना, क्या वे कभी अपनी इन दासियों की भी बात चलाते हैं? वे कब अपने अगुरु-सुगन्धित हाथ को हमारे सिरों पर रखेंगे?

22 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: यह सुनकर उद्धव ने गोपियों को ढाढ़स बँधाने का प्रयत्न किया जो कृष्ण का दर्शन पाने के लिए अत्यन्त लालायित थीं। इस तरह वे उनके प्रेमी का सन्देश उनसे बताने लगे।

23 श्री उद्धव ने कहा: निश्चय ही तुम सारी गोपियाँ सभी प्रकार से सफल हो और विश्वभर में पूजित हो क्योंकि तुमने इस तरह से भगवान वासुदेव में अपने मन को समर्पित कर रखा है।

24 दान, कठिन व्रत, तपस्या, अग्नि यज्ञ, जप, वैदिक ग्रन्थों का अध्ययन, विधि-विधानों का पालन तथा अन्य अनेक शुभ साधनों द्वारा भगवान कृष्ण की भक्ति प्राप्त की जाती है।

25 अपने सौभाग्य से तुम सबों ने भगवान उत्तमश्लोक के प्रति शुद्ध भक्ति का अद्वितीय मानदण्ड स्थापित किया है– यह मानदण्ड ऐसा है, जिसे बड़े बड़े मुनियों के लिए भी प्राप्त करना कठिन है।

26 सौभाग्य से तुम लोगों ने अपने पुत्रों, पतियों, शारीरिक सुविधाओं, सम्बन्धियों तथा घरों का परित्याग उस परम पुरुष के लिए किया है, जो कृष्ण नाम से जाना जाता है।

27 हे परम भाग्यशालिनी गोपियों, तुम लोगों ने दिव्य स्वामी के लिए अनन्य प्रेम का अधिकार ठीक ही प्राप्त किया है। निस्सन्देह, कृष्ण के विरह में उनके प्रति अपना प्रेम प्रदर्शित करके तुम लोगों ने मुझ पर महती कृपा दिखलाई है।

28 हे भद्र देवियों, अब तुम सब अपने प्रेमी का सन्देश सुनो जिसे अपने स्वामी का विश्वसनीय दास होने से मैं तुम लोगों के पास लेकर आया हूँ।

29 भगवान ने कहा है,तुम वास्तव में कभी भी मुझसे विलग नहीं हो क्योंकि मैं सारी सृष्टि का आत्मा हूँ। जिस तरह प्रकृति के तत्त्व – आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी–प्रत्येक सृजित वस्तु में उपस्थित रहते हैं उसी तरह मैं हर एक के मन, प्राण तथा इन्द्रियों में और भौतिक तत्त्वों के भीतर तथा प्रकृति के गुणों में उपस्थित रहता हूँ।

30 मैं ही अपनी निजी शक्ति के द्वारा भौतिक तत्त्वों, इन्द्रियों तथा प्रकृति के गुणों का सृजन करता हूँ, उन्हें बनाये रखता हूँ और फिर अपने भीतर समेट लेता हूँ।

31 शुद्ध चेतना या ज्ञान से युक्त होने से आत्मा प्रत्येक भौतिक वस्तु से पृथक है और प्रकृति के गुणों के पाश से अलिप्त है। आत्मा का अनुभव भौतिक प्रकृति के तीन कार्यों के माध्यम से किया जा सकता है – ये हैं जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्ति।

32 जिस प्रकार नींद से जागा हुआ व्यक्ति स्वप्न के विषय में सोचता रह सकता है (यद्यपि वह भ्रामक होता है) उसी प्रकार इस जगत के विषयों को स्वप्निक मानकर मनुष्य को पूर्णतया सतर्क रहना चाहिए और मन को वश में लाना चाहिए।

33 बुद्धिमान अधिकारी जनों के अनुसार यही सारे वेदों तथा योगाभ्यास, सांख्य, त्याग, तपस्या, इन्द्रिय-संयम तथा सच्चाई का चरम निष्कर्ष है, जिस तरह कि सारी नदियों का चरम गन्तव्य समुद्र है।

34 किन्तु जिस असली कारण से तुम सबों की आँखों की प्रिय वस्तुरूप मैं, तुम लोगों से अति दूर रह रहा हूँ, वह यह है कि मैं अपने प्रति तुम सबके चिन्तन को प्रगाढ़ करना चाहता था और इस तरह तुम्हारे मनों को अपने अधिक निकट लाना चाहता था।

35 जब प्रेमी दूर होता है, तो स्त्री उसके विषय में अधिक सोचती है बजाय इसके कि जब वह उसके समक्ष उपस्थित होता है।

36 चूँकि तुम्हारे मन पूर्णतया मुझमें लीन रहते हैं और अन्य सारे कार्यों से मुक्त रहते हैं, तुम सदैव मेरा स्मरण करती हो और इसीलिए तुम लोग शीघ्र ही मुझे पुनः अपने सामने पा सकोगी।

37 यद्यपि कुछ गोपियों को ग्वाल ग्राम में ही रह जाना पड़ा था जिससे वे रात में जंगल में रचाए गये रास नृत्य में मेरे साथ क्रीड़ा नहीं कर पाई, तो भी वे परम भाग्यशालिनी थीं। दरअसल वे मेरी शक्तिशाली लीलाओं का ध्यान करके ही मुझे प्राप्त कर सकीं।

38 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: व्रज की गोपियाँ अपने प्रियतम कृष्ण का यह सन्देश सुनकर प्रसन्न हुई। उनके शब्दों से उनकी स्मृतियाँ ताजी हो गई अतः उन्होंने उद्धव से इस प्रकार कहा।

39 गोपियों ने कहा: यह अच्छी बात है कि यदुओं का शत्रु एवं उन्हें सताने वाला कंस अब अपने अनुयायियों सहित मारा जा चुका है और यह भी अच्छी बात है कि भगवान अच्युत अपने शुभैषी मित्रों तथा सम्बन्धियों के साथ सुखपूर्वक रह रहे हैं जिनकी हर इच्छा अब पूरी हो रही है।

40 हे भद्र उद्धव, क्या गद का बड़ा भाई नगर की स्त्रियों को वह आनन्द प्रदान कर रहा है, जो वास्तव में हमारा है? हम ऐसा समझती हैं कि वे स्त्रियाँ उदार चितवनों तथा प्यारी लजीली मुसकानों से उनकी पूजा करती होंगी।

41 श्रीकृष्ण नगर की स्त्रियों के प्रिय हैं और सभी प्रकार के माधुर्य व्यवहार में दक्ष हैं। चूँकि अब वे उनके मोहक शब्दों तथा इशारों से निरन्तर पूजित हैं, तो भला फिर वे उनके पाश में क्योंकर नहीं बँधेंगे?

42 हे साधु पुरुष नगर की स्त्रियों से बातचीत के दौरान क्या गोविन्द कभी हमारी याद करते हैं? क्या वे उनसे खुलकर वार्ता करते समय कभी हम ग्रामीण बालाओं का भी स्मरण करते हैं?

43 क्या वे वृन्दावन के जंगल में उन रातों का स्मरण करते हैं, जो कमल, चमेली तथा प्रकाशमान चन्द्रमा से सुन्दर लगती थीं? जब हम उनकी मनमोहिनी लीलाओं का गुणगान करतीं तो वे रास-नृत्य के घेरे में जो कि घुँघरुओं के संगीत से गुंजायमान होता था, हम प्रेयसियों के साथ आनन्द विहार करते थे।

44 क्या वह दाशार्ह वंशज यहाँ फिर से आयेगा और अपने अंगों के स्पर्श से उन सबको फिर से जिलायेगा जो अब उन्हीं के द्वारा उत्पन्न किए गए शोक से जल रहे हैं? क्या वह हमें उसी प्रकार बचा लेगा जिस तरह भगवान इन्द्र जलधारी बादलों से जंगल को पुनः जीवनदान देते हैं?

45 भला राज्य जीत लेने, अपने शत्रुओं का वध कर लेने और राजाओं की पौत्रियों के साथ विवाह कर लेने के बाद कृष्ण यहाँ क्यों आने लगे? वे वहाँ अपने सारे मित्रों तथा शुभचिन्तकों से घिरे रहकर प्रसन्न हैं।

46 महापुरुष कृष्ण लक्ष्मी के स्वामी हैं और वे जो भी चाहते हैं वह स्वतः पा लेते हैं। जब वे अपने में पहले से पूर्ण हैं, तो हम वनवासिनियाँ या अन्य स्त्रियाँ उनके प्रयोजन को कैसे पूरा कर सकती हैं?

47 दरअसल सर्वोच्च सुख तो समस्त इच्छाओं का परित्याग करने में है जैसा कि पिंगला नामक गणिका ने भी कहा है। यह जानते हुए भी हम कृष्ण को पाने की अपनी आशाएँ नहीं छोड़ सकतीं।

48 भला भगवान कृष्ण से घुल-मिल कर बातें करने को छोड़ पाना कौन सहन कर सकता है? यद्यपि वे श्रीदेवी में तनिक भी रुचि नहीं दर्शाते किन्तु वे उनके वक्षस्थल पर बने स्थान से कभी इधर-उधर नहीं होती।

49 हे उद्धव प्रभु, जब यहाँ कृष्ण बलराम के साथ थे तो वे इन सारी नदियों, पर्वतों, जंगलों, गौवों तथा वंशी की ध्वनियों का आनन्द लिया करते थे।

50 ये सब हमें नन्द के पुत्र की सदैव याद दिलाते हैं। निस्सन्देह चूँकि हम दैवी चिन्हों से अंकित कृष्ण के चरण-चिन्हों को देखती हैं अतः हम उन्हें कभी भी भुला नहीं सकतीं।

51 हे उद्धव, हम उन्हें कैसे भुला सकती हैं जब उनकी मनोहर चाल, उदार हँसी, चपल चितवनों एवं मधुर शब्दों से हमारे चित्त चुराये जा चुके हैं?

52 हे नाथ, हे रमानाथ, हे व्रजनाथ! हे समस्त कष्टों के विनाशक गोविन्द! कृपया अपने गोकुल को व्यथा के उस सागर से उबार लें, जिसमें वह डूबा जा रहा है।

53 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा:कृष्ण के संदेशों से विरह का ज्वर हट जाने पर गोपियों ने उद्धव को अपने प्रभु कृष्ण से अभिन्न जानकर, उनकी पूजा की।

54 उद्धव वहाँ पर कृष्ण की लीलाओं की कथाएँ कहकर गोपियों का दुख दूर करते हुए कई महीनों तक रहे। इस तरह वे सभी गोकुलवासियों के लिए आनन्द ले आये।

55 उद्धव जितने दिनों तक नन्द के व्रज ग्राम में रहे वे सारे दिन व्रजवासियों को एक क्षण के तुल्य प्रतीत हुए क्योंकि उद्धव सदा कृष्ण की वार्ताएँ करते रहते थे।

56 हरि के दास उद्धव ने व्रज की नदियों, जंगलों, पर्वतों, घाटियों तथा पुष्पित वृक्षों को देख-देखकर और भगवान कृष्ण के विषय में स्मरण करा-कराकर वृन्दावनवासियों को प्रेरणा देने में आनन्द का अनुभव किया।

57 इस तरह यह देखकर कि गोपियाँ किस तरह कृष्ण में पूर्णतया तल्लीन रहने से सदैव विक्षुब्ध रहती हैं, उद्धव अत्यधिक प्रसन्न थे। उन्हें नमस्कार करने की इच्छा से उन्होंने यह गीत गाया।

58 उद्धव ने गाया : पृथ्वी के समस्त व्यक्तियों में ये गोपियाँ ही वास्तव में अपने देहधारी जीवन को सफल बना पाई हैं क्योंकि इन्होंने भगवान गोविन्द के लिए शुद्ध प्रेम की पूर्णता प्राप्त कर ली है। इस संसार से डरने वालों, बड़े-बड़े मुनियों तथा हम सबको इनके शुद्ध प्रेम की लालसा बनी रहती है। जिसने अनन्त भगवान की कथाओं का आस्वाद कर लिया है उसके लिए उच्च ब्राह्मण के रूप में या साक्षात ब्रह्मा के रूप में भी जन्म लेने से क्या लाभ?

59 यह कितना आश्चर्यजनक है कि जंगल में विचरण करने वाली एवं अनुपयुक्त आचरण के कारण दूषित सी प्रतीत होने वाली इन सीधी-सादी गोपियों ने परमात्मा कृष्ण के लिए शुद्ध प्रेम की पूर्णता प्राप्त कर ली है। तो भी यह सच है कि भगवान एक अज्ञानी पूजक को भी अपना आशीर्वाद देते हैं जिस प्रकार कि अज्ञानी व्यक्ति द्वारा किसी उत्तम औषधि के अवयवों से अनजान होते हुए पी लेने पर भी वह अपना प्रभाव दिखलाती है।

60 जब श्रीकृष्ण रासलीला में गोपियों के साथ नाच रहे थे तो भगवान की भुजाएँ गोपियों का आलिंगन कर रही थीं। यह दिव्य अनुग्रह न तो कभी लक्ष्मीजी को प्राप्त हुआ न वैकुण्ठ की ललनाओं को। निस्सन्देह कमल के फूल जैसी शारीरिक कान्ति तथा सुगन्ध से युक्त स्वर्गलोक की सबसे सुन्दर बालाओं ने भी कभी इस तरह की कल्पना तक नहीं की थी। तो फिर उन संसारी स्त्रियों के विषय में क्या कहा जाय जो भौतिक दृष्टि से अतीव सुन्दर हैं?

61 वृन्दावन की गोपियों ने अपने पतियों, पुत्रों तथा अन्य परिवार वालों का साथ त्याग दिया है जिनको त्याग पाना अतीव कठिन होता है। उन्होंने मुकुन्द कृष्ण के चरणकमलों की शरण पाने के लिए सतीत्व मार्ग का परित्याग कर दिया है, जिसे वैदिक ज्ञान द्वारा खोजा जाता है। ओह! मैं वृन्दावन की इन झाड़ियों, लताओं तथा जड़ी-बूटियों में से कोई एक भी होने का सौभाग्य प्राप्त करूँ क्योंकि गोपियाँ उन्हें अपने चरणों से रौंदती हैं और अपने चरणकमलों की धूल से उन्हें आशीर्वाद देती हैं।

62 स्वयं लक्ष्मीजी तथा ब्रह्मा एवं अन्य सारे देवता जो योग सिद्धि के स्वामी हैं, भगवान कृष्ण के चरणकमलों की पूजा अपने मन के भीतर ही कर सकते हैं। किन्तु रास-नृत्य के समय कृष्ण ने तो इन गोपियों के वक्षस्थल पर अपने चरण रखे और गोपियों ने उन्हीं चरणों का आलिंगन करके सारी व्यथाएँ त्याग दीं।

63 मैं नन्द महाराज के गोप ग्राम की स्त्रियों की चरण-रज की बारम्बार वन्दना करता हूँ। जब ये गोपियाँ श्रीकृष्ण के यश का जोर जोर से कीर्तन करती हैं, तो वह ध्वनि तीनों लोकों को पवित्र कर देती है।

64 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: तत्पश्चात दशार्हवंशी उद्धव ने गोपियों, माता यशोदा एवं नन्द महाराज से विदा होने की अनुमति ली। उन्होंने सारे ग्वालों से विदा ली और प्रस्थान करने के लिए वे अपने रथ पर सवार हो गये।

65 जब उद्धव प्रस्थान करने वाले थे तो नन्द तथा अन्य लोग पूजा की विविध वस्तुएँ लेकर उनके पास पहुँचे। उन लोगों ने अश्रुपूरित नेत्रों से उन्हें इस प्रकार सम्बोधित किया।

66 नन्द तथा अन्य ग्वालों ने कहा: हमारे मानसिक कार्य सदैव कृष्ण के चरणकमलों की शरण ग्रहण करें, हमारे शब्द सदैव उन्हीं के नामों का कीर्तन करें और हमारे शरीर सदैव उन्हीं को नमस्कार करें तथा उनकी ही सेवा करें।

67 भगवान की इच्छा से हमें अपने सकाम कर्मों के फलस्वरूप इस संसार में जहाँ भी घूमना पड़े हमारे सत्कर्म तथा दान हमें सदा भगवान कृष्ण का प्रेम प्रदान करें।

68 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे नृपति, इस तरह कृष्ण के प्रति भक्ति की अभिव्यक्ति द्वारा ग्वालों से सम्मानित होकर उद्धव मथुरा नगरी वापस चले गये जो कृष्ण के संरक्षण में थी।

69 साष्टांग प्रणाम करने के बाद उद्धव ने कृष्ण से व्रजवासियों की महती भक्ति का वर्णन किया। उद्धव ने इसका वर्णन वसुदेव, बलराम तथा राजा उग्रसेन से भी किया और उन्हें वे वस्तुएँ भेंट कीं जिन्हें वे अपने साथ लाये थे।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय छियालीस – उद्धव की वृन्दावन यात्रा (10.46)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अत्यन्त बुद्धिमान उद्धव वृष्णि वंश के सर्वश्रेष्ठ सलाहकार, भगवान कृष्ण के प्रिय मित्र तथा बृहस्पति के प्रत्यक्ष शिष्य थे।

2 भगवान हरि ने जो अपने शरणागतों के सारे कष्टों को हरने वाले हैं, एक बार अपने भक्त एवं प्रियतम मित्र उद्धव का हाथ अपने हाथ में लेकर उससे इस प्रकार कहा।

3 भगवान कृष्ण ने कहा: हे भद्र उद्धव, तुम व्रज जाओ और हमारे माता-पिता को आनन्द प्रदान करो। यही नहीं, मेरा सन्देश देकर उन गोपियों को भी क्लेश-मुक्त करो जो मेरे वियोग के कारण कष्ट पा रही हैं।

4 उन गोपियों के मन सदैव मुझमें लीन रहते हैं और उनके प्राण सदैव मुझी में अनुरक्त रहते हैं। उन्होंने मेरे लिए ही अपने शरीर से सम्बन्धित सारी वस्तुओं को त्याग दिया है, यहाँ तक इस जीवन के सामान्य सुख के साथ-साथ अगले जीवन में सुख-प्राप्ति के लिए जो धार्मिक कृत्य आवश्यक हैं, उन तक का परित्याग कर दिया है। मैं उनका एकमात्र परम प्रियतम हूँ, यहाँ तक कि उनकी आत्मा हूँ। अतः मैं सभी परिस्थितियों में उनका भरण-पोषण करने का दायित्व अपने ऊपर लेता हूँ।

5 हे उद्धव, गोकुल की उन स्त्रियों के लिए मैं सर्वाधिक स्नेहयोग्य प्रेमपात्र हूँ। इस तरह जब वे दूर स्थित मुझको स्मरण करती हैं, तो वे वियोग की उद्विग्नता से विह्वल हो उठती हैं।

6 चूँकि मैंने उनसे वापस आने का वादा किया है इसीलिए मुझमें पूर्णतः अनुरक्त मेरी गोपियाँ किसी तरह से अपने प्राणों को बनाये रखने के लिए संघर्ष कर रही हैं।

7 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, इस तरह कहे जाने पर उद्धव ने आदरपूर्वक अपने स्वामी के सन्देश को स्वीकार किया। वे अपने रथ पर सवार होकर नन्द गोकुल के लिए चल पड़े।

8 भाग्यशाली उद्धव नन्द महाराज के चरागाहों में उस समय पहुँचे जब सूर्य अस्त होने वाला था और चूँकि लौटती हुई गौवें तथा अन्य पशु अपने खुरों से धूल उड़ा रहे थे अतः उनका रथ अनदेखे ही निकल गया ।

9-13 ऋतुमती गौवों के लिए परस्पर लड़ रहे साँड़ों की ध्वनि से, अपने बछड़ों का पीछा कर रही अपने थनों के भार से रँभाती गौवों से, दुहने की तथा इधर-उधर कूद-फाँद कर रहे श्वेत बछड़ों की आवाज से, वंशी बजने की ऊँची गूँज से, उन गोपों तथा गोपिनों द्वारा, जो गाँव को अपनी अद्भुत रीति से अलंकृत वेषभूषा से सुशोभित कर रहे थे। कृष्ण तथा बलराम के शुभ कार्यों के गुणगान से गोकुलग्राम सभी दिशाओं में गुंजायमान था। गोकुल में ग्वालों के घर यज्ञाग्नि, सूर्य, अचानक आए अतिथियों, गौवों, ब्राह्मणों, पितरों तथा देवताओं की पूजा के लिए प्रचुर सामग्रियों से युक्त होने से अतीव आकर्षक प्रतीत हो रहे थे। सभी दिशाओं में पुष्पित वन फैले थे, जो पक्षियों तथा मधुमक्खियों के झुण्डों से गुंजायमान हो रहे थे और हंस, कारण्डव तथा कमल-कुन्जों से भरे-पूरे सरोवरों से सुशोभित थे।

14 ज्योंही उद्धव नन्द महाराज के घर पहुँचे, नन्द उनसे मिलने के लिए आगे आ गये। गोपों के राजा ने अत्यन्त सुखपूर्वक उनका आलिंगन किया और वासुदेव की ही तरह उनकी पूजा की।

15 जब उद्धव उत्तम भोजन कर चुके और उन्हें सुखपूर्वक बिस्तर पर बिठा दिया गया तथा पाँवों की मालिश तथा अन्य साधनों से उनकी थकान दूर कर दी गई तो नन्द ने उनसे इस प्रकार पूछा।

16 नन्द महाराज ने कहा: हे परम भाग्यशाली, अब शूर का पुत्र मुक्त हो चुकने और अपने बच्चों तथा अन्य सम्बन्धियों से पुनः मिल जाने के बाद कुशल से है न?

17 सौभाग्यवश, अपने ही पापों के कारण पापात्मा कंस अपने समस्त भाइयों सहित मारा जा चुका है। वह सदैव सन्त तथा धर्मात्मा यदुओं से घृणा करता था।

18 क्या कृष्ण हमारी याद करता है? क्या वह अपनी माता तथा अपने मित्रों एवं शुभचिन्तकों की याद करता है? क्या वह ग्वालों तथा उनके गाँव व्रज को, जिसका वह स्वामी है, स्मरण करता है? क्या वह गौवों, वृन्दावन के जंगल तथा गोवर्धन पर्वत की याद करता है?

19 क्या गोविन्द अपने परिवार को देखने एक बार भी वापस आयेगा? यदि वह कभी आयेगा तो हम उसके सुन्दर नेत्र, नाक तथा मुसकाते सुन्दर मुख को देख सकेंगे।

20 उस महान आत्मा कृष्ण द्वारा हम जंगल की आग, तेज हवा तथा वर्षा, साँड तथा सर्प रूपी असुरों जैसे दुर्लंघ्य घटक संकटों से बचा लिये गये थे।

21 जब हम कृष्ण द्वारा सम्पन्न किये गये अद्भुत कार्यों, उसकी चपल चितवन, हँसी तथा उसकी वाणी का स्मरण करते हैं, तो हे उद्धव, हम अपने सारे भौतिक कार्यों को भूल जाते हैं।

22 जब हम उन स्थानों को यथा – नदियों, पर्वतों तथा जंगलों को – देखते हैं, जिन्हें उसने अपने पैरों से सुशोभित किया और जहाँ उसने क्रीड़ाएँ तथा लीलाएँ कीं तो हमारे मन उसमें पूर्णतया लीन हो जाते हैं।

23 मेरे विचार से कृष्ण तथा बलराम अवश्य ही दो श्रेष्ठ देवता हैं, जो इस लोक में देवताओं का कोई महान उद्देश्य पूरा करने आये हैं। गर्ग ऋषि ने ऐसी ही भविष्यवाणी की थी।

24 अन्ततः कृष्ण तथा बलराम ने दस हजार हाथियों जितने बलशाली कंस को और साथ ही साथ चाणुर और मुष्टिक पहलवानों एवं कुवलयापीड हाथी को मार दिया। उन्होंने इन सबको उसी तरह खेल खेल में आसानी से मार दिया जिस तरह सिंह छोटे पशुओं का सफाया कर देता है।

25 जिस आसानी से कोई तेजस्वी हाथी किसी छड़ी को तोड़ देता है उसी तरह से कृष्ण ने तीन ताल जितने लम्बे एवं सुदृढ़ धनुष को तोड़ डाला। वे सात दिनों तक पर्वत को केवल एक हाथ से ऊपर उठाये रहे।

26 इसी वृन्दावन में कृष्ण तथा बलराम ने बड़ी ही आसानी से प्रलम्ब, धेनुक, अरिष्ट, तृणावर्त तथा बक जैसे उन असुरों का वध किया जो स्वयं देवताओं तथा अन्य असुरों को पराजित कर चुके थे।

27 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह बारम्बार कृष्ण को उत्कटता से स्मरण करते हुए, भगवान में पूर्णतया अनुरक्त मन वाले नन्द महाराज को अत्यधिक उद्विग्नता का अनुभव हुआ और वे अपने प्रेम के वेग से अभिभूत होकर मौन हो गये।

28 ज्योंही माता यशोदा ने अपने पुत्र के कार्यकलापों का वर्णन सुना त्योंही उनके आँखों से आँसू बहने लगे और प्रेम के कारण उनके स्तनों से दूध बहने लगा।

29 तब भगवान कृष्ण के प्रति नन्द तथा यशोदा के परम अनुराग को स्पष्ट देखकर उद्धव ने हर्षपूर्वक नन्द से कहा।

30 श्री उद्धव ने कहा: हे माननीय नन्द, सम्पूर्ण जगत में निश्चय ही आप तथा माता यशोदा सर्वाधिक प्रशंसनीय हैं क्योंकि आपने समस्त जीवों के गुरु भगवान नारायण के प्रति ऐसा प्रेम-भाव उत्पन्न कर रखा है।

31 मुकुन्द तथा बलराम – ये दोनों विभु ब्रह्माण्ड की बीज तथा योनि, स्रष्टा तथा उनकी सृजन शक्ति हैं। ये जीवों के हृदयों में प्रवेश करके उनकी बद्ध जागरुकता को नियंत्रित करते हैं। ये आदि परम पुरुष हैं।

32-33 कोई भी व्यक्ति, चाहे वह अशुद्ध अवस्था में ही क्यों न हो, यदि मृत्यु के समय क्षण-भर के लिए भी अपने मन को उन भगवान में लीन कर देता है, तो उसके सारे पापमय कर्मों के फल भस्म हो जाते हैं जिससे उनका नाम-निशान भी नहीं रह जाता और वह सूर्य के समान तेजस्वी शुद्ध आध्यात्मिक स्वरूप में परम दिव्य गन्तव्य को प्राप्त करता है। आप दोनों ने उन मनुष्य-रूप भगवान नारायण की अद्वितीय प्रेमाभक्ति की है, जो सबों के परमात्मा हैं और सारे प्राणियों के कारण-स्वरूप हैं और जो सबों के मूल कारण हैं। भला अब भी आपको कौनसे शुभकर्म करने की आवश्यकता है?

34 भक्तों के स्वामी अच्युत कृष्ण शीघ्र ही अपने माता-पिता को तुष्टि प्रदान करने के लिए व्रज लौटेंगे।

35 रंगभूमि में समस्त यदुओं के शत्रु कंस का वध कर चुकने के बाद अब कृष्ण वापस आकर आपको दिये गये वचन को अवश्य ही पूरा करेंगे।

36 हे परम भाग्यशाली, आप शोक नहीं करें। आप शीघ्र ही कृष्ण को देख सकेंगे। वे समस्त जीवों के हृदयों में उसी तरह विद्यमान हैं जिस तरह काष्ठ में अग्नि सुप्त रहती है।

37 उनके लिए कोई न तो विशेष प्रिय है, न अप्रिय, न तो श्रेष्ठ है न निम्न है, फिर भी वे किसी से अन्यमनस्क नहीं हैं। वे सम्मान पाने की सारी इच्छा से रहित हैं फिर भी वे सबों का सम्मान करते हैं।

38 न तो उनके माता है, न पिता, न पत्नी, न पुत्र या अन्य कोई सम्बन्धी। उनसे किसी का सम्बन्ध नहीं है फिर भी उनका कोई पराया नहीं है। न तो उनका भौतिक शरीर है, न कोई जन्म।

39 उन्हें इस जगत में ऐसा कोई कर्म करना शेष नहीं जो उन्हें शुद्ध, अशुद्ध या मिश्रित योनियों में जन्म लेने के लिए बाध्य कर सके। फिर भी अपनी लीलाओं का आनन्द लेने और अपने साधु भक्तों का उद्धार करने के लिए वे स्वयं प्रकट होते हैं।

40 यद्यपि दिव्य भगवान भौतिक प्रकृति के तीन गुणों से परे हैं फिर भी क्रीड़ा के रूप में वे इनकी संगति स्वीकार करते हैं। इस तरह अजन्मा भगवान इन भौतिक गुणों का उपयोग सृजन, पालन तथा संहार के लिए करते हैं।

41 जिस तरह चक्री में घूमने वाला व्यक्ति धरती को घूमता देखता है उसी तरह जो व्यक्ति मिथ्या अहंकार के वशीभूत होता है, वह अपने को कर्ता मानता है, जबकि वास्तव में उसका मन कार्य कर रहा होता है।

42 निश्चय ही भगवान हरि एकमात्र आपके पुत्र नहीं हैं, प्रत्युत भगवान होने के कारण वे हरेक के पुत्र, आत्मा, पिता तथा माता हैं।

43 भगवान अच्युत से किसी भी वस्तु का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है – चाहे वह भूत या वर्तमान अथवा भविष्य से सम्बन्धित हो, वह देखी हो या सुनी हो, चर हो या अचर हो, विशाल हो या क्षुद्र। दरअसल वे ही सर्वस्व हैं क्योंकि वे परमात्मा हैं।

44 हे राजन, जब कृष्ण के दूत उद्धव नन्द महाराज से बातें किये जा रहे थे तो रात बीत गई। गोकुल की स्त्रियाँ तब नींद से जग गई और उन्होंने दीपक जलाकर अपने-अपने घरों के अर्चाविग्रहों की पूजा की। इसके बाद वे दही मथने लगी।

45 जब व्रज की स्त्रियाँ कंगन पहने हुए हाथों से मथानी की रस्सियाँ खींच रही थीं तो वे दीपक के प्रकाश से प्रतिबिम्बित मणियों की चमक से दीपित हो रही थीं। उनके गले के हार हिल-डुल रहे थे और लाल कुमकुम से पुते उनके मुखमण्डल, गालों पर पड़ी कान की बालियों की चमक से चमचमा रहे थे।

46 जब व्रज की स्त्रियाँ कमलनेत्र कृष्ण की महिमा का गायन जोर-जोर से करने लगीं तो उनके गीत दही मथने की ध्वनि से मिल कर आकाश तक उठ गये और उन्होंने सारी दिशाओं के अमंगल को दूर कर दिया।

47 जब सूर्यदेव उदित हो चुके तो व्रजवासियों ने नन्द महाराज के दरवाजे के सामने एक सुनहरा रथ देखा। अतः उन्होंने पूछा, “यह किसका रथ है?”

48 शायद अक्रूर लौट आया है - वही जिसने कमलनेत्र कृष्ण को मथुरा ले जाकर कंस की इच्छा पूरी की थी।

49 जब स्त्रियाँ इस तरह बोल ही रही थी कि, “क्या वह अपनी सेवाओं से प्रसन्न हुए अपने स्वामी के पिण्डदान के लिए हमारे मांस को अर्पित करने जा रहा है?“ तभी प्रातःकालीन कृत्यों से निवृत्त हुए उद्धव दिखलाई पड़े।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय पैंतालीस - कृष्ण द्वारा अपने गुरु पुत्र की रक्षा (10.45)  

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: यह जानकर कि कृष्ण के माता-पिता उनके दिव्य ऐश्वर्य से अवगत हो चुके हैं, भगवान ने यह सोचा कि ऐसा नहीं होने दिया जाना चाहिए। अतः उन्होंने भक्तों को मोहने वाली अपनी योगमाया का विस्तार किया।

2 सात्वतों में महानतम भगवान कृष्ण अपने बड़े भाई सहित अपने माता-पिता के पास पहुँचे। वे उन्हें विनयपूर्वक शीश झुकाकर और आदरपूर्वक “हे माते“ तथा "हे पिताश्री“ सम्बोधित करके प्रसन्न करते हुए इस प्रकार बोले।

3 भगवान कृष्ण ने कहा: हे पिताश्री, हम दो पुत्रों के कारण आप तथा माता देवकी सदैव चिन्ताग्रस्त रहते रहे और कभी भी हमारे बाल्यकाल, पौगण्ड तथा किशोर अवस्थाओं का आनन्द भोग नहीं पाये।

4 भाग्य द्वारा वंचित हम दोनों न तो आपके साथ रह पाये, न ही अधिकांश बालकों को उनके माता-पिता के घर में मिलने वाले लाड़-प्यार के सुख को हम भोग सके।

5 मनुष्य अपने शरीर से जीवन के सारे लक्ष्य प्राप्त कर सकता है और उसके माता-पिता ही हैं जो इस शरीर को जन्म देते और उसका पोषण करते हैं। अतः कोई भी मर्त्यप्राणी, एक सौ वर्ष के पूरे जीवनकाल तक उनकी सेवा करके भी, मातृ-पितृ ऋण से उऋण नहीं हो सकता ।

6 जो पुत्र समर्थ होते हुए भी अपने माता-पिता को अपने शारीरिक साधन तथा सम्पत्ति दिलाने में विफल रहता है, उसे मृत्यु के बाद अपना ही मांस खाने के लिए बाध्य होना पड़ता है।

7 जो व्यक्ति समर्थ होकर भी अपने बूढ़े माता-पिता, साध्वी पत्नी, छोटे पुत्र या गुरु का भरण पोषण करने से चूकता है या किसी ब्राह्मण या शरण में आये हुए की उपेक्षा करता है, वह जीवित होते हुए भी मरा हुआ माना जाता है।

8 इस तरह हमने इतने सारे दिन आपका समुचित सम्मान करने में असमर्थ होने के कारण व्यर्थ में ही गँवा दिये, क्योंकि हमारे मन सदैव कंस के भय से विचलित थे।

9 हे पिता तथा माता, आप हम दोनों को आपकी सेवा न कर पाने के लिए क्षमा कर दें। हम स्वतंत्र नहीं थे और क्रूर कंस द्वारा अत्यधिक त्रस्त कर दिये गये थे।

10 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार ब्रह्माण्ड के परमात्मा एवं अपनी अन्तरंगा भ्रामक शक्ति से मनुष्य रूप में प्रकट होनेवाले भगवान हरि के वचनों से मोहित होकर उनके माता-पिता ने हर्षपूर्वक उन्हें अपनी गोद में उठाकर उनका आलिंगन किया।

11 भगवान के ऊपर अश्रुओं की धारा ढुलकाते हुए, स्नेह की रस्सी से बँधे उनके माता-पिता बोल न पाये। हे राजन, वे भावविभोर थे और उनके गले अश्रुओं से अवरुद्ध हो चले थे।

12 अपने माता-पिता को इस तरह सान्त्वना देकर तथा देवकीपुत्र के रूप में प्रकट हुए, भगवान ने अपने नाना उग्रसेन को यदुओं का राजा बना दिया।

13 भगवान ने उनसे कहा: हे महाराज, हम आपकी प्रजा हैं, अतः आप हमें आदेश दें। दरअसल, ययाति के शाप के कारण कोई भी यदुवंशी राज-सिंहासन पर नहीं बैठ सकता।

14 चूँकि मैं आपके निजी सेवक के रूप में आपके पार्षदों के बीच उपस्थित हूँ अतः सारे देवता तथा अन्य प्रतिष्ठित व्यक्ति आपको अभिवादन करने के लिए सिर झुकाते हुए आयेंगे। तो फिर मनुष्यों के शासकों के लिए क्या कहा जाय?

15-16 तत्पश्चात भगवान अपने सारे नजदीकी परिवार वालों तथा अन्य सम्बन्धियों को उन विविध स्थानों से वापस लाये जहाँ वे कंस के भय से भाग कर गये थे। उन्होंने यदुओं, वृष्णियों, अन्धकों, मधुओं, दाशार्हों, कुकुरों इत्यादि जाति-पक्ष वालों को सम्मानपूर्वक बुलवाया और उन्हें सान्त्वना भी दी क्योंकि वे विदेशी स्थानों में रहते-रहते थक चुके थे। तत्पश्चात ब्रह्माण्ड के स्रष्टा भगवान कृष्ण ने उन्हें उनके अपने घरों में फिर से बसाया और बहुमूल्य भेंटों से उनका सत्कार किया।

17-18 इन वंशों के लोगों ने भगवान कृष्ण तथा संकर्षण की बाहुओं का संरक्षण पाकर यह अनुभव किया कि उनकी सारी इच्छाएँ पूरी हो गई। इस तरह वे अपने परिवारों के साथ अपने घरों में रहते हुए पूर्ण सुख का भोग करने लगे। कृष्ण तथा बलराम की उपस्थिति से अब उन्हें सांसारिक ज्वर नहीं सताता था। ये प्रेमी भक्त प्रतिदिन मुकुन्द के कमल सदृश नित्य प्रफुल्लित मुख को देख सकते थे, जो सुन्दर दयामय मन्दहास युक्त चितवनों से विभूषित था।

19 यहाँ तक कि उस नगरी के अत्यन्त वृद्धजन भी शक्ति तथा ओज से पूर्ण युवा लगने लगे क्योंकि वे अपनी आँखों से निरन्तर भगवान मुकुन्द के कमल-मुख का अमृत-पान करते थे।

20 तत्पश्चात, हे महान राजा परीक्षित, देवकीपुत्र भगवान कृष्ण भगवान बलराम के साथ नन्द महाराज के पास पहुँचे। दोनों विभुओं ने उनका आलिंगन किया और उनसे इस प्रकार बोले।

21 कृष्ण और बलराम ने कहा: हे पिताश्री, आप तथा माता यशोदा ने हम दोनों को बड़े स्नेह से पाला-पोसा है और हमारी इतनी अधिक परवाह की है। निस्सन्देह माता-पिता अपनी सन्तानों को अपने प्राणों से भी अधिक प्यार करते हैं।

22 वे ही असली माता-पिता हैं, जो पालन-पोषण और देख-रेख करने में असमर्थ सम्बन्धियों द्वारा परित्यक्त बालकों की देखभाल अपने ही पुत्रों की तरह करते हैं।

23 हे पिताश्री, अब आप सब व्रज लौट जाँय। हम आपके शुभचिन्तक मित्रों को कुछ सुख दे लेने के बाद तुरन्त ही आपको तथा अपने उन प्रिय सम्बन्धियों को देखने के लिए आयेंगे जो हमारे वियोग से दुखी हैं।

24 इस प्रकार नन्द महाराज तथा व्रज के अन्य लोगों को सान्त्वना देकर अच्युत भगवान ने उन सबों का वस्त्र, आभूषण, घरेलू-पात्र इत्यादि उपहारों से आदर समेत सत्कार किया।

25 कृष्ण के शब्द सुनकर नन्द महाराज भावविह्वल हो गये और अश्रुपूरित नेत्रों से उन्होंने दोनों भाइयों को गले लगाया। तत्पश्चात वे ग्वालजनों के साथ व्रज लौट गये।

26 हे राजन, तब शूरसेन पुत्र वसुदेव ने अपने दोनों पुत्रों का द्विज संस्कार कराने के लिए एक पुरोहित तथा अन्य ब्राह्मणों की व्यवस्था की।

27 वसुदेव ने इन ब्राह्मणों की पूजा करते हुए तथा उन्हें सुन्दर आभूषण और सुन्दर आभूषणों से सजी बछड़ों युक्त गौवें भेंट करके सम्मानित किया। ये सभी गौवें सुनहरे हार तथा रेशमी मालाएँ धारण किये थीं।

28 तब महात्मा वसुदेव को कृष्ण तथा बलराम के जन्म के अवसर पर मन ही मन दान की गई गौवों का स्मरण हो आया। कृष्ण आविर्भाव के समय वसुदेव कंस द्वारा बन्दी बना लिए गये थे और कंस ने उनकी गौवें चुरा ली थीं। कंस की मृत्यु हो जाने पर वसुदेव ने वे सारी गौवें फिर से प्राप्त कर लीं और उन्हें सुपात्र ब्राह्मणों को दान में दे दिया।

29 दीक्षा द्वारा द्विजत्व प्राप्त कर लेने के बाद व्रतनिष्ठ दोनों भाइयों ने यदुवंश के गुरु गर्ग मुनि से ब्रह्मचर्य का व्रत ग्रहण किया।

30-31 अपने मनुष्य जैसे कार्यों से अपने पूर्णज्ञान को भीतर ही भीतर रखते हुए, ब्रह्माण्ड के इन दो सर्वज्ञ भगवानों ने, ज्ञान की समस्त शाखाओं के उद्गम होते हुए भी, गुरुकुल में जाकर रहने की इच्छा व्यक्त की। इस तरह वे काशीवासी सांदीपनी मुनि के पास पहुँचे जो अवन्ती नगरी में रह रहे थे।

32 सांदीपनी इन दोनों आत्म-संयमी शिष्यों के प्रति बहुत ही उच्च विचार रखते थे जिन्हें उन्होंने अकस्मात प्राप्त किया था। दोनों ने गुरु की साक्षात भगवान जैसी ही भक्तिपूर्वक सेवा करते हुए अन्यों के समक्ष अनिंद्य उदाहरण प्रस्तुत किया कि किस तरह आध्यात्मिक गुरु की पूजा की जाती है।

33 ब्राह्मणश्रेष्ठ गुरु सांदीपनी उनके विनीत आचरण से संतुष्ट थे अतः उन्होंने दोनों को सारे वेद छह वेदांगों सहित तथा उपनिषद पढ़ाये।

34 उन दोनों को रहस्यों सहित धनुर्वेद की शिक्षा दी। साथ ही मानक विधि ग्रंथ, तर्क तथा दर्शन विषयक वाद-विवाद की विधियाँ और राजनीति शास्त्र के छह भेदों की भी शिक्षा दी।

35-36 हे राजन पुरुषश्रेष्ठ कृष्ण तथा बलराम स्वयं ही सभी प्रकार की विद्याओं के आदि प्रवर्तक होने के कारण किसी भी विषय की व्याख्या को एक ही बार में सुनकर तुरन्त आत्मसात कर सकते थे। इस तरह उन्होंने एकाग्र चित्त से चौंसठ कलाओं तथा चातुरियों को उतने ही दिनों तथा रातों में सीख लिया। तत्पश्चात हे राजन, उन्होंने गुरु-दक्षिणा देकर अपने गुरु को प्रसन्न किया।

37 हे राजन, विद्वान ब्राह्मण सांदीपनी ने दोनों विभुओं के यशस्वी तथा अद्भुत गुणों एवं उनकी अति मानवीय बुद्धि के बारे में ध्यानपूर्वक विचार किया। तत्पश्चात अपनी पत्नी से परामर्श करके उन्होंने गुरु-दक्षिणा के रूप में अपने नन्हें पुत्र की वापसी को चुना जो प्रभास क्षेत्र के समुद्र में मर चुका था।

38 असीम पराक्रम वाले दोनों महारथियों ने उत्तर दिया, “बहुत अच्छा" और तुरन्त ही अपने रथ पर सवार होकर प्रभास के लिए रवाना हो गये। जब वे उस स्थान पर पहुँचे तो वे समुद्र तट तक पैदल गये और वहाँ बैठ गये। क्षणभर में समुद्र का देवता उन्हें भगवान के रूप में पहचान कर श्रद्धा-रूप भेंट लेकर उनके निकट आया।

39 भगवान कृष्ण ने समुद्र के स्वामी से कहा,मेरे गुरु के पुत्र को तुरन्त उपस्थित किया जाये जिसे तुमने अपनी बलशाली लहरों से यहाँ जकड़ रखा है।"

40 समुद्र ने उत्तर दिया,हे भगवान कृष्ण, उसका हरण मैंने नहीं अपितु दिति के वंशज पंचजन नामक एक दैत्य ने किया है, जो शंख के रूप में जल में विचरण करता रहता है।"

41 सागर ने कहा, निस्सन्देह उसी दैत्य ने उस बालक को चुरा लिया है। यह सुनकर भगवान कृष्ण ने समुद्र में से पंचजन को बाहर निकाला और उसे मार दिया। किन्तु भगवान को उस दैत्य के पेट के भीतर वह बालक नहीं मिला।

42-44 भगवान जनार्दन ने वह शंख ले लिया जो उस दैत्य के शरीर के चारों ओर उगा हुआ था और रथ पर वापस चले गये। इसके पश्चात वे यमराज की प्रिय राजधानी संयमनी गये। भगवान बलराम के साथ वहाँ पहुँचकर उन्होंने तेजी से अपना शंख बजाया और उस गूँजती हुई आवाज को सुनते ही बद्धजीवों को नियंत्रण में रखने वाला यमराज वहाँ पहुँचा। यमराज ने दोनों विभुओं की अत्यन्त भक्तिपूर्वक पूजा की और तब प्रत्येक हृदय में वास करने वाले भगवान कृष्ण से कहा, “ हे भगवान विष्णु, मैं आपके लिए तथा भगवान बलराम के लिए जो सामान्य मनुष्यों की भूमिका अदा कर रहे हैं, क्या करूँ?“

45 भगवान ने कहा, “अपने विगत कर्मबन्धन का भोग करने से मेरे गुरु का पुत्र आपके पास यहाँ लाया गया है। हे महान राजा, मेरे आदेश का पालन करो और अविलम्ब उस बालक को मेरे पास ले आओ।"

46 यमराज ने कहा,जो आज्ञा" और गुरु-पुत्र को सामने ला दिया। तत्पश्चात यदुओं में श्रेष्ठ उन दोनों ने उस बालक को लाकर अपने गुरु को भेंट करते हुए उनसे कहा, “कृपया दूसरा वर माँगिये।"

47 गुरु ने कहा: मेरे प्रिय बालकों, तुम दोनों ने अपने गुरु को दक्षिणा देने के शिष्य-दायित्व को पूरा कर लिया है। निस्सन्देह, तुम जैसे शिष्यों से गुरु को और क्या इच्छाएँ हो सकती हैं?

48 हे वीरों, अब तुम अपने घर लौट जाओ। तुम्हारा यश संसार को पवित्र बनाये और इस जन्म में तथा अगले जन्म में वैदिक स्तुतियाँ तुम्हारे मन में सदैव ताजी बनीं रहें।

49 इस तरह अपने गुरु से विदा होने की अनुमति पाकर दोनों भाई अपने रथ पर बैठ अपनी नगरी लौट आये। यह रथ वायु की तेजी से चल रहा था और बादल की तरह गूँज रहा था।

50 सारे नागरिक, जिन्होंने अनेक दिनों से कृष्ण तथा बलराम को नहीं देखा था, उन्हें देखकर परम प्रसन्न हुए। लोगों को वैसा ही लगा, जिस तरह धन खोये हुओं को उनका धन वापस मिल जाय।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय – चवालीस कंस वध (10.44)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह सम्बोधित किये जाने पर कृष्ण ने इस चुनौती को स्वीकार करने का मन बना लिया। उन्होंने चाणुर को और भगवान बलराम ने मुष्टिक को अपना प्रतिद्वन्द्वी चुना।

2 एक दूसरे के हाथों को पकड़कर और एक दूसरे के पाँवों को फँसाकर ये प्रतिद्वन्द्वी विजय की अभिलाषा से बलपूर्वक संघर्ष करने लगे।

3 वे एक दूसरे से मुट्ठियों से मुट्ठियाँ, घुटनों से घुटनें, सिर से सिर तथा छाती से छाती भिड़ाकर प्रहार करने लगे।

4 प्रत्येक कुश्ती लड़ने वाला अपने विपक्षी को खींचकर चक्कर लगवाता, धक्के देकर उसे नीचे गिरा देता (पटक देता) और उसके आगे तथा पीछे दौड़ता।

5 एक दूसरे को बलपूर्वक उठाकर, ले जाकर, धकेलकर तथा पकड़कर, कुश्ती लड़ने वाले विजय की महती आकांक्षा से अपने शरीरों को चोट पहुँचा बैठते।

6 हे राजन, वहाँ पर उपस्थित सारी स्त्रियों ने बलवान तथा निर्बल के बीच होनेवाली इस अनुचित लड़ाई पर विचार करते हुए दया के कारण अत्यधिक चिन्ता का अनुभव किया। वे अखाड़े के चारों ओर झुण्ड की झुण्ड एकत्र हो गई और परस्पर इस तरह बातें करने लगीं।

7 स्त्रियों ने कहा: हाय! इस राजसभा के सदस्य यह कितना बड़ा अधर्म कर रहे हैं, जिस तरह राजा बलवान तथा निर्बल के मध्य इस युद्ध को देख रहा है, वे भी उसी तरह इसे देखना चाहते हैं।

8 कहाँ ये वज्र जैसे पुष्ट अंगों वाले तथा शक्तिशाली पर्वतों जैसे शरीर वाले दोनों पेशेवर पहलवान और कहाँ ये सुकुमार अंगों वाले किशोर अल्प-वयस्क बालक?

9 इस सभा में धर्म का निश्चय ही अतिक्रमण हो चुका है। जहाँ अधर्म पल रहा हो उस स्थान में एक पल भी नहीं रुकना चाहिए।

10 बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि यदि वह जान ले कि किसी सभा के सभासद अनुचित कार्य कर रहे हैं, तो वह उस सभा में प्रवेश न करे और यदि ऐसी सभा में प्रवेश कर लेने पर वह सत्यभाषण करने से चूक जाता है, या मिथ्या भाषण करता है या अज्ञानता की दुहाई देता है, तो वह निश्चित ही पाप का भागी बनता है।

11 अपने शत्रु के चारों ओर उछलते-कूदते कृष्ण के कमलमुख को तो जरा देखो! भीषण लड़ाई लड़ने से आये हुए पसीने की बूँदों से ढका यह मुख ओस से आच्छादित कमल जैसा लग रहा है।

12 क्या तुम भगवान बलराम के मुख को नहीं देख रही हो जो मुष्टिक के प्रति उनके क्रोध के कारण ताम्बे जैसी लाल लाल आँखों से युक्त है और जिसकी शोभा उनकी हँसी तथा युद्ध में उनकी तल्लीनता के कारण बढ़ी हुई है?

13 व्रज के भूमि खण्ड कितने पवित्र हैं जहाँ आदि भगवान मनुष्य के वेश में विचरण करते हुए अनेक लीलाएँ करते हैं। जो नाना प्रकार की वनमलाओं से अद्भुत ढंग से विभूषित हैं एवं जिनके चरण शिवजी तथा देवी रमा द्वारा पूजित हैं, वे बलराम के साथ गौवें चराते हुए अपनी वंशी बजाते हैं।

14 आखिर गोपियों ने कौन-सी तपस्याएँ की होंगी? वे निरन्तर अपनी आँखों से कृष्ण के उस रूप का अमृत-पान करती हैं, जो लावण्य का सार है और जिसकी न तो बराबरी हो सकती है न ही जिससे बढ़कर और कुछ है। वही लावण्य सौन्दर्य, यश तथा ऐश्वर्य का एकमात्र धाम है। यह स्वयंसिद्ध, नित्य नवीन तथा अत्यन्त दुर्लभ है।

15 व्रज की स्त्रियाँ परम भाग्यशाली हैं क्योंकि कृष्ण के प्रति पूर्णतया अनुरक्त चित्तों से तथा अश्रुओं से सदैव अवरुद्ध कण्ठों से वे गौवें दुहते, अनाज कूटते, मक्खन मथते, ईंधन के लिए गोबर एकत्र करते, झूलों पर झूलते, अपने रोते बालकों की देखरेख करते, फर्श पर जल छिड़कते, अपने घरों को बुहारते इत्यादि के समय निरन्तर उनके गुणों का गान करती हैं। अपनी उच्च कृष्ण-चेतना के कारण वे समस्त वांछित वस्तुएँ स्वतः प्राप्त कर लेती हैं।

16 प्रातःकाल कृष्ण को अपनी गौवों के साथ व्रज से बाहर जाते या संध्या समय उनके साथ लौटते हुए और अपनी बाँसुरी को बजाते हुए जब गोपियाँ सुनती हैं, तो उन्हें देखने के लिए वे अपने अपने घरों से तुरन्त बाहर निकल आती हैं। मार्ग पर चलते समय, उन पर दयापूर्ण दृष्टि डालते हुए उनके हँसी से पूर्ण मुख को देखने में सक्षम होने के लिए, उन सबने अवश्य ही अनेक पुण्य कर्म किये होंगे।

17 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे भरतश्रेष्ठ जब स्त्रियाँ इस तरह बोल रही थीं तो समस्त योगशक्ति के स्वामी भगवान कृष्ण ने अपने शत्रु को मारने का निश्चय कर लिया।

18 दोनों भगवानों पर स्नेह होने के कारण उनके माता-पिता (देवकी तथा वसुदेव) ने जब स्त्रियों के भयपूर्ण वचन सुने तो वे शोक से विह्वल हो उठे। वे अपने पुत्रों के बल को न जानने के कारण सन्तप्त हो गए।

19 भगवान बलराम तथा मुष्टिक ने मल्लयुद्ध की अनेक शैलियों का कुशलतापूर्वक प्रदर्शन करते हुए एक दूसरे से उसी तरह युद्ध किया जिस तरह कृष्ण तथा उनके प्रतिपक्षी ने किया।

20 भगवान के अंगों से होनेवाले कठोर वार चाणुर पर वज्रपात सदृश लग रहे थे जिससे उसके शरीर के अंग-प्रत्यंग चूर हो रहे थे और उसे अधिकाधिक पीड़ा तथा थकान उत्पन्न हो रही थी।

21 क्रुद्ध चाणुर ने बाज की गति से भगवान वासुदेव पर आक्रमण किया और उनकी छाती पर अपनी दोनों मुट्ठियों (घूँसों) से प्रहार किया।

22-23 जिस तरह फूल की माला के मारने से हाथी को कुछ भी नहीं होता उसी तरह असुर के बलशाली वारों से विचलित न होते हुए भगवान कृष्ण ने चाणुर की भुजाओं को पकड़कर कई बार चारों ओर घुमाया और उसे बड़े वेग से पृथ्वी पर पटक दिया। उसके वस्त्र, केश तथा माला बिखर गए और वह पहलवान पृथ्वी पर गिरकर मर गया मानो कोई विशाल उत्सव-स्तम्भ गिर पड़ा हो।

24-25 इसी प्रकार मुष्टिक पर भगवान बलभद्र ने अपने मुक्के से प्रहार किया और उसका वध कर दिया। बलशाली भगवान बलभद्र के हाथ का करारा थप्पड़ खाकर वह असुर भारी पीड़ा से काँपने लगा और रक्त वमन करने लगा। तत्पश्चात निष्प्राण होकर जमीन पर उसी तरह गिर पड़ा जिस तरह हवा के झोंके से कोई वृक्ष धराशायी होता है।

26 इसके बाद कूट नामक पहलवान से योद्धाओं में श्रेष्ठ बलराम का सामना हुआ जिसे हे राजन, उन्होंने अपनी बाई मुट्ठी से खेल खेल में यों ही मार दिया।

27 तत्पश्चात कृष्ण ने अपने पाँव के अँगूठों से शल पहलवान के सिर पर प्रहार करके उसे दो फाड़ कर दिया। भगवान ने तोशल के साथ भी इसी तरह किया और वे दोनों मल्ल धराशायी हो गए।

28 चाणुर, मुष्टिक, कूट, शल तथा तोशल के मारे जाने के बाद बचे हुए पहलवान अपनी जान बचाकर भाग लिये।

29 तब कृष्ण तथा बलराम ने अपने समवयस्क ग्वालबाल सखाओं को अपने पास बुलाया और उनके साथ दोनों भगवानों ने खूब नाच किया और खेला। उनके घुँघरू वाद्य-यंत्रों की भाँति ध्वनि करने लगे।

30 कंस के अतिरिक्त सभी व्यक्तियों ने कृष्ण तथा बलराम द्वारा सम्पन्न इस अद्भुत कृत्य पर हर्ष प्रकट किया। पूज्य ब्राह्मणों तथा महान सन्तपुरुषों ने “बहुत अच्छा, बहुत अच्छा,” कहा।

31 जब भोजराज ने देखा कि उसके सर्वश्रेष्ठ पहलवान या तो मारे जा चुके हैं अथवा भाग गये हैं, तो उसने वाद्य-यंत्रों को बजाना रुकवा दिया जो मूलतः उसके मनोविनोद के लिए बजाये जा रहे थे और इस प्रकार के शब्द कहे।

32 कंस ने कहा: वसुदेव के दोनों दुष्ट पुत्रों को नगरी से बाहर निकाल दो। ग्वालों की सम्पत्ति छीन लो और उस मूर्ख नन्द को बन्दी बना लो।

33 उस अत्यन्त दुर्बुद्धि वसुदेव को मार डालो और मेरे पिता उग्रसेन को भी उसके अनुयायियों सहित मार डालो क्योंकि उन सबने हमारे शत्रुओं का पक्ष लिया है।

34 जब कंस इस तरह दम्भ से गरज रहा था, तो अच्युत भगवान कृष्ण अत्यन्त क्रुद्ध होकर तेजी के साथ सरलता से उछलकर ऊँचे राजमंच पर जा पहुँचे।

35 भगवान कृष्ण को साक्षात मृत्यु के समान आते देखकर प्रखर बुद्धिवाला कंस तुरन्त अपने आसन से उठ खड़ा हुआ और उसने अपनी तलवार तथा ढाल उठा ली।

36 हाथ में तलवार लिए कंस एक ओर से दूसरी ओर तेजी से भाग रहा था जिस तरह आकाश में बाज हो। किन्तु दुस्सह शक्ति वाले भगवान कृष्ण ने उस असुर को बलपूर्वक उसी तरह पकड़ लिया जिस तरह ताक्षर्यपुत्र (गरुड़) किसी साँप को पकड़ लेता है।

37 कंस के बालों को पकड़कर तथा उसके मुकुट को ठोकर मारते हुए कमलनाभ भगवान ने उसे ऊँचे मंच से अखाड़े के फर्श पर फेंक दिया। तत्पश्चात समस्त ब्रह्माण्ड के आश्रय, स्वतंत्र भगवान उस राजा के ऊपर कूद पड़े।

38 जिस तरह सिंह मृत हाथी को घसीटता है उसी तरह भगवान ने वहाँ पर उपस्थित सारे लोगों के समक्ष जमीन पर कंस के मृत शरीर को घसीटा। हे राजन, अखाड़े के सारे लोग तुमुल स्वर में “ हाय हाय “ चिल्ला उठे।

39 कंस इस विचार से सदैव विचलित रहता था कि भगवान द्वारा उसका वध होने वाला है। अतः वह खाते, पीते, चलते, सोते, यहाँ तक कि साँस लेते समय भी भगवान को अपने समक्ष हाथ में चक्र धारण किये देखा करता था। इस तरह कंस ने भगवान जैसा रूप (सारूप्य) प्राप्त करने का दुर्लभ वर प्राप्त किया।

40 तत्पश्चात कंक, न्यग्रोधक इत्यादि कंस के आठ भाइयों ने क्रोध में आकर अपने भाई का बदला लेने के लिए उन दोनों भगवानों पर आक्रमण कर दिया।

41 ज्योंही आक्रमण करने के लिए तैयार होकर वे सभी उन दोनों भगवानों की ओर तेजी से दौड़े तो रोहिणी-पुत्र ने अपनी गदा से उन सबको उसी तरह मार दिया जिस तरह सिंह अन्य पशुओं को आसानी से मार डालता है।

42 जिस समय ब्रह्मा, शिव तथा भगवान के अंशरूप अन्य देवताओं ने हर्षित होकर उन पर फूलों की वर्षा की उस समय आकाश में दुन्दुभियाँ बज उठीं। वे सभी उनका यशगान करने लगे और उनकी पत्नियाँ नाचने लगीं।

43 हे राजन, कंस तथा उसके भाइयों की पत्नियाँ अपने अपने शुभचिन्तक पतियों की मृत्यु से शोकाकुल होकर अपने सिर पीटती हुई तथा आँखों में आँसू भरे वहाँ पर आई।

44 वीरों की मृत्यु शय्या पर लेटे अपने पतियों का आलिंगन करते हुए शोकमग्न स्त्रियाँ आँखों से निरन्तर अश्रु गिराती हुई जोर जोर से विलाप करने लगीं।

45 स्त्रियाँ विलाप करने लगी: हाय! हे नाथ, हे प्रिय, हे धर्मज्ञ, हे आश्रयहीनों के दयालु रक्षक, तुम्हारा वध हो जाने से हम भी तुम्हारे घर तथा सन्तानों समेत मारी जा चुकी हैं।

46 हे पुरुषों में श्रेष्ठ वीर, यह नगरी अपने स्वामी से बिछुड़कर अपना सौन्दर्य उसी प्रकार खो चुकी है, जिस तरह हम खो चुकी हैं और इसके भीतर के सारे हर्षोल्लास तथा सौभाग्य का अन्त हो चुका है।

47 हे प्रिय, तुम्हारी यह दशा इसलिए हुई है क्योंकि तुमने निर्दोष प्राणियों के प्रति घोर हिंसा की है। भला दूसरों को क्षति पहुँचाने वाला कैसे सुख पा सकता है?

48 भगवान कृष्ण इस जगत में सारे जीवों को प्रकट करते और उनका संहार करने वाले हैं। साथ ही वे उनके पालनकर्ता भी हैं। जो उनका अनादर करता है, वह कभी भी सुखपूर्वक नहीं रह सकता।

49 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: रानियों को सान्त्वना देने के बाद समस्त लोकों के पालनकर्ता भगवान कृष्ण ने मृतकों के दाह-संस्कार सम्पन्न किये जाने की व्यवस्था की।

50 तत्पश्चात कृष्ण तथा बलराम ने अपने माता-पिता को बन्धन से छुड़ाया और अपने सिर से उनके पैरों को छूकर उन्हें नमस्कार किया।

51 अब कृष्ण तथा बलराम को ब्रह्माण्ड के विभुओं के रूप में जानकर देवकी तथा वसुदेव केवल हाथ जोड़े खड़े रहे। शंकित होने के कारण उन्होंने अपने पुत्रों का आलिंगन नहीं किया।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)  

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अध्याय तैंतालीस  - कृष्ण द्वारा कुवलयापीड हाथी का वध (10.43)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे परन्तप, नित्य शौच कर्मों से निवृत्त होकर जब कृष्ण तथा बलराम ने अखाड़े (रंगशाला) में बजने वाली ध्वनि सुनी तो वे वहाँ यह देखने गये कि क्या हो रहा है।

2 जब भगवान कृष्ण अखाड़े के प्रवेशद्वार पर पहुँचे तो उन्होंने देखा कि कुवलयापीड नामक हाथी अपने महावत की उत्प्रेरणा से उनका रास्ता रोक रहा है।

3 भगवान कृष्ण ने अपना फेंटा कसकर तथा अपने घुँघराले बालों को पीछे बाँधकर महावत से बादलों जैसी गम्भीर गर्जना में ये शब्द कहे।

4 कृष्ण ने कहा: महावत ओ महावत, तुरन्त एक ओर हो जा और हमें निकलने दे। यदि तू ऐसा नहीं करता तो आज ही मैं तुम्हारे हाथी समेत तुम्हें यमराज के धाम भेज दूँगा।

5 इस प्रकार धमकाये जाने पर महावत क्रुद्ध हो उठा और उसने अपने काल, मृत्यु तथा यमराज के समान प्रतीत होने वाले उग्र हाथी को अंकुश की मार से क्रुद्ध करके श्रीकृष्ण की ओर बढ़ाया।

6 उस हस्तिराज ने कृष्ण पर आक्रमण कर दिया और अपनी सूँड से तेजी से उन्हें पकड़ लिया। किन्तु कृष्ण सरक गये, उस पर एक घूँसा जमाया और उसके पैरों के बीच जाकर उसकी दृष्टि से ओझल हो गये।

7 भगवान केशव को न देख पाने से क्रुद्ध हुए उस हाथी ने अपनी घ्राण-इन्द्रिय से उन्हें खोज निकाला। कुवलयापीड ने एक बार फिर भगवान को अपनी सूँड के अग्र भाग से पकड़ा किन्तु उन्होंने बलपूर्वक अपने को छुड़ा लिया।

8 तब भगवान कृष्ण ने बलशाली कुवलयापीड को पूँछ से पकड़ा और खेल खेल में वे उसे पच्चीस धनुष-दूरी तक वैसे ही घसीट ले गये जिस तरह गरुड़ किसी साँप को घसीटता है।

9 जब भगवान अच्युत ने हाथी की पूँछ पकड़ी तो वह बाएँ और फिर दाएँ घूमने का प्रयास करने लगा, जिससे भगवान उल्टी दिशा में घूमने लगे जिस तरह कि कोई बालक किसी बछड़े की पूँछ खींचने पर घूमता है।

10 तब कृष्ण उस हाथी के सामने आये और उसे चपत लगाकर भाग गये। कुवलयापीड उनका पीछा करने लगा, वह उन्हें प्रत्येक पग पर बारम्बार छूने का इस तरह का प्रयास करता किन्तु कृष्ण बचकर निकल जाते। उन्होंने उसे झाँसा देकर गिरा दिया।

11 कृष्ण झुठलाते हुए खेल खेल में पृथ्वी पर गिर पड़ते और पुनः तेजी से उठ जाते। क्रुद्ध हाथी ने कृष्ण को गिरा समझकर उन पर अपने दाँत चुभोने चाहे किन्तु उल्टे वे दाँत धरती से जा टकराये।

12 जब हस्तिराज कुवलयापीड का पराक्रम व्यर्थ गया तो वह निराशाजनित क्रोध से जलभुन उठा। किन्तु महावत ने उसे अंकुश मारा और उसने पुनः एक बार कृष्ण पर क्रुद्ध होकर आक्रमण कर दिया।

13 भगवान मधुसूदन ने अपने ऊपर आक्रमण करते हुए हाथी का सामना किया। एक हाथ से उसकी सूँड पकड़कर कृष्ण ने उसे धरती पर पटक दिया।

14 तब भगवान हरि शक्तिशाली सिंह के समान आसानी से हाथी के ऊपर चढ़ गये, उसका एक दाँत उखाड़ लिया और उसी से हाथी तथा उसके महावतों को मार डाला।

15 मरे हुए हाथी को वहीं छोड़कर भगवान कृष्ण हाथी का दाँत लिये अखाड़े में प्रविष्ट हुए। कंधे पर हाथी का दाँत रखे, हाथी के रक्त के छींटे पड़े हुए शरीर और अपने ही पसीने की छोटी छोटी बूँदों से आच्छादित कमलमुख भगवान परम सुशोभित लग रहे थे।

16 हे राजन, भगवान बलदेव तथा भगवान जनार्दन दोनों ही उस हाथी के एक-एक दाँत को अपने चुने हुए हथियार के रूप में लिये हुए अनेक ग्वालबालों के साथ अखाड़े में प्रविष्ट हुए।

17 जब कृष्ण अपने बड़े भाई के साथ अखाड़े में प्रविष्ट हुए तो विभिन्न वर्गों के लोगों ने कृष्ण को भिन्न भिन्न रूपों में देखा। पहलवानों ने कृष्ण को वज्र के समान देखा – मथुरावासियों ने श्रेष्ठ पुरुष के, स्त्रियों ने साक्षात कामदेव के, ग्वालों ने अपने सम्बन्धी के, दुष्ट शासकों ने दण्ड देने वाले के, उनके माता-पिता ने अपने शिशु के, भोजराज ने मृत्यु के, मूर्खों ने भगवान के विराट रूप में, योगियों ने परम ब्रह्म के तथा वृष्णियों ने अपने परम आराध्य देव के रूप में देखा।

18 जब कंस ने देखा कि कुवलयापीड मारा गया है और दोनों भाई अजेय हैं, तो हे राजन, वह चिन्ता से उद्विग्न हो उठा।

19-20 नाना प्रकार के गहनों, मालाओं तथा वस्त्रों से सुसज्जित विशाल भुजाओं वाले वे दोनों भगवान उत्तम वेश धारण किये अभिनेताओं की तरह अखाड़े में शोभायमान हो रहे थे। निस्सन्देह उन्होंने अपने तेज से समस्त देखने वालों के मन को अभिभूत कर लिया। हे राजन, जब नगरवासियों तथा पास पड़ोस के जिलों से आये लोगों ने दीर्घाओं में बैठे अपने अपने स्थानों से दोनों परम पुरुषों को देखा तो प्रसन्नता रूपी शक्ति से उनकी आँखें खुली की खुली रह गई और उनके मुखमण्डल खिल उठे। वे अतृप्त होकर उनके मुखों के दर्शन का पान करते रहे।

21-22 ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो लोग अपनी आँखों से कृष्ण तथा बलराम का पान कर रहे हों, अपनी जीभों से उन्हें चाट रहे हों, अपने नथुनों से उन्हें ही सूँघ रहे हों तथा अपनी बाहों से उनका आलिंगन कर रहे हों। भगवान के सौन्दर्य, चरित्र, माधुर्य तथा बहादुरी का स्मरण करके दर्शकगण देखे तथा सुने गये इन लक्षणों का वर्णन एक दूसरे से करने लगे।

23 लोगों ने कहा -- ये दोनों बालक निश्चय ही भगवान नारायण के अंश हैं, जो इस जगत में वसुदेव के घर में अवतरित हुए हैं।

24 उन्होंने (कृष्ण ने) माता देवकी से जन्म लिया और गोकुल ले जाये गए जहाँ वे इतने समय तक राजा नन्द के घर में छिपकर बढ़ते रहे।

25 इन्होंने पूतना तथा चक्रवात असुर का प्राणान्त कर दिया, यमलार्जुन वृक्षों को गिरा दिया और शंखचूड़, केशी, धेनुक तथा ऐसे ही अन्य असुरों का वध कर दिया।

26-27 इन्होंने गौवों तथा ग्वालों को जंगल की आग से बचाया और कालीय सर्प का दमन किया। इन्होंने अपने एक हाथ में सर्वश्रेष्ठ पर्वत को एक सप्ताह तक धारण किये रखकर इन्द्र देव के मिथ्या गर्व को चूर किया और इस तरह वर्षा, हवा तथा ओलों से गोकुलवासियों की रक्षा की।

28 निरन्तर हँसीली चितवन से प्रसन्न तथा थकान से मुक्त इनके मुखमण्डल को निहार-निहार कर गोपियों ने समस्त प्रकार के कष्टों को पार कर लिया और परम सुख का अनुभव किया।

29 कहा जाता है कि इनके संरक्षण में यदुकुल अत्यधिक विख्यात होगा और सम्पदा, यश तथा शक्ति अर्जित करेगा।

30 ये कमलनेत्रों वाले उनके ज्येष्ठ भाई भगवान बलराम समस्त दिव्य ऐश्वर्यों के स्वामी हैं। इन्होंने प्रलम्ब, वत्सक, बक तथा अन्य असुरों का वध किया है।

31 जिस समय लोग इस तरह बातें कर रहे थे और तुरहियाँ गूँजने लगीं थी तो पहलवान चाणुर ने कृष्ण तथा बलराम से ये शब्द कहे।

32 चाणुर ने कहा: हे नन्दपुत्र, हे राम, तुम दोनों ही साहसी पुरुषों द्वारा समादरित हो और दोनों ही कुश्ती लड़ने में दक्ष हो। तुम्हारे पराक्रम को सुनकर राजा ने स्वतः देखने के उद्देश्य से तुम दोनों को यहाँ बुलाया है।

33 जो प्रजा राजा को अपने विचारों, कर्मों तथा शब्दों से प्रसन्न रखने का प्रयास करती है उसे अवश्य ही सौभाग्य प्राप्त होता है किन्तु जो लोग ऐसा नहीं कर पाते उन्हें विपरीत भाग्य का सामना करना पड़ता है।

34 यह सर्वविदित है कि ग्वालों के बालक अपने बछड़ों को चराते हुए सदैव प्रमुदित रहते हैं और विविध जंगलों में अपने पशुओं को चराते हुए खेल खेल में कुश्ती लड़ते रहते हैं।

35 अतः जो राजा चाहता है हम वही करें। इससे हमारे साथ सारे लोग प्रसन्न होंगे, क्योंकि राजा प्रजा का समन्वित रूप होता है।

36 यह सुनकर भगवान कृष्ण ने, जो कि कुश्ती लड़ना चाहते थे और इस चुनौती का स्वागत कर रहे थे, समय तथा स्थान के अनुसार यह बात कही।

37 भगवान कृष्ण ने कहा: यद्यपि हम वनवासी हैं किन्तु हम भी भोजराज की प्रजा हैं। हमें उनकी इच्छा पूरी करनी चाहिए, क्योंकि ऐसे व्यवहार से हमें अत्यधिक लाभ होगा।

38 हम तो निरे बालक ठहरें और हमें समान बल वालों के साथ खेलना चाहिए। इस कुश्ती प्रतियोगिता को उचित ढंग से चलना चाहिए जिससे सम्माननीय वर्ग को किसी प्रकार से अधर्म का कलंक न लगे।

39 चाणुर ने कहा: बलशालियों में सर्वश्रेष्ठ बलराम, तुम न तो बालक हो, न ही किशोर हो। तुमने खेल-खेल में एक हाथी को मारा है, जिसमें एक हजार अन्य हाथियों का बल था।

40 अतः तुम दोनों को बलशाली पहलवानों से लड़ना चाहिए। इसमें निश्चय ही कुछ भी अनीति नहीं है। हे वृष्णिवंशी, तुम अपना पराक्रम मुझ पर आजमा सकते हो और बलराम मुष्टिक के साथ लड़ सकता है।  

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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10891538452?profile=RESIZE_400xअध्याय बयालीस - यज्ञ के धनुष का टूटना (10-42)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब भगवान माधव राजमार्ग पर जा रहे थे तो उन्होंने एक युवा कुबड़ी स्त्री को देखा जिसका मुख आकर्षक था और वह सुगन्धित लेपों का थाल लिए हुए जा रही थी। प्रेमानन्द दाता ने हँसकर उससे इस प्रकार पूछा।

2 भगवान कृष्ण ने कहा: हे सुन्दरी तुम कौन हो? ओह, लेप! हे सुन्दरी, यह किसके लिए है? हमें सच-सच बता दो। हम दोनों को अपना कोई उत्तम लेप दो तो तुम्हें शीघ्र ही महान वर प्राप्त होगा।

3 दासी ने उत्तर दिया: हे सुन्दर, मैं राजा कंस की दासी हूँ। वे मेरे द्वारा तैयार किये गये लेपों का अतीव सम्मान करते हैं। मेरा नाम त्रिवक्रा है। जिन लेपों को भोजराज इतना अधिक चाहता है, भला उनका पात्र आप दोनों के अतिरिक्त कौन हो सकता है?

4 कृष्ण के सौन्दर्य, आकर्षण, मिठास, हँसी, वाणी तथा चितवनों से अभिभूत मन वाली त्रिवक्रा ने कृष्ण तथा बलराम को पर्याप्त मात्रा में लेप दे दिया।

5 इन सर्वोत्तम अंगरागों का लेप करके, जिनसे उनके शरीर अपने रंगों के विपरीत रंगों से सज गए, दोनों भगवान अत्यधिक सुन्दर लगने लगे।

6 भगवान कृष्ण त्रिवक्रा से प्रसन्न हो गये अतः उन्होंने उस सुन्दर मुखड़े वाली कुबड़ी लड़की को अपने दर्शन का फल दिखलाने मात्र के लिए उसे सीधा करने का निश्चय किया।

7 उसके पैरों के अँगूठों को अपने दोनों पाँवों से दबाते हुए भगवान अच्युत ने उसकी ठुड्डी के नीचे अपने दोनों हाथों की ऊपर उठी एक एक अँगुली रखी और उसके शरीर को सीधा कर दिया।

8 भगवान मुकुन्द के स्पर्श मात्र से त्रिवक्रा सहसा एक अतीव सुन्दर स्त्री में बदल गई जिसके अंग सधे हुए तथा सम-अनुपात वाले थे।

9 अब सौन्दर्य, आचरण तथा उदारता से युक्त त्रिवक्रा को भगवान केशव के प्रति कामेच्छाओं का अनुभव होने लगा। वह उनके अंगवस्त्र के छोर को पकड़कर हँसने लगी और उनसे इस प्रकार बोली।

10 त्रिवक्रा ने कहा: हे वीर आओ, मेरे घर चलो। मैं आपको यहाँ छोड़कर जा नहीं सकती। हे नरश्रेष्ठ, मुझ पर तरस खाओ क्योंकि आपने मेरे चित्त को उद्वेलित कर दिया है।

11 स्त्री द्वारा इस प्रकार अनुनय-विनय किये जाने पर भगवान कृष्ण ने सर्वप्रथम बलराम के मुख की ओर देखा, जो इस घटना को देख रहे थे और तब ग्वालमित्रों के मुखों पर दृष्टि डाली। तब हँसते हुए कृष्ण ने उसे इस प्रकार उत्तर दिया।

12 भगवान कृष्ण ने कहा: हे सुन्दर भौंहों वाली स्त्री, अपना कार्य पूरा करते ही मैं अवश्य तुम्हारे घर आऊँगा जहाँ लोगों को चिन्ता से मुक्ति मिल सकती है। निस्सन्देह तुम हम जैसे बेघर पथिकों के लिए सर्वोत्तम आश्रय हो।

13 इस प्रकार मीठी बातें करके उससे विदा लेकर भगवान कृष्ण मार्ग पर आगे बढ़े। रास्ते-भर व्यापारियों ने पान, मालाएँ तथा सुगन्धित द्रव्य से युक्त नाना प्रकार की भेंटें सादर अर्पित करके उनकी तथा उनके बड़े भाई की पूजा की।

14 कृष्ण के दर्शन से नगर की नारियों के हृदय में प्रेम के आवेगवश, मिलन की आकांक्षा जाग उठी और वे विचलित होकर सुध-बुध खो बैठी। उनके परिधान, लट तथा उनके कंगन ढीले पड़ गए और वे चित्राकृति समान खड़ी रह गईं।

15 कृष्ण ने स्थानीय लोगों से धनुष-यज्ञ का स्थान पूछा। वे वहाँ गये और वह विस्मयकारी धनुष देखा जो इन्द्र के धनुष के समान था।

16-17 उस धनुष की, विशाल टोली द्वारा निगरानी की जा रही थी और वे उसकी आदर भाव से पूजा कर रहे थे। कृष्ण आगे बढ़ते गये और रक्षकों के मना करने के बाद भी उन्होंने उस धनुष को आसानी से अपने बाएँ हाथ से उठाकर उनके (रक्षकों के) देखते-देखते एक क्षण से भी कम समय में डोरी चढ़ा दी और बलपूर्वक डोरी खींचकर धनुष को बीच से उसी तरह तोड़ डाला जिस तरह मतवाला हाथी गन्ने को तोड़ देता है।

18 धनुष के टूटने की ध्वनि पृथ्वी तथा आकाश की सारी दिशाओं में भर गई। इसे सुनकर कंस भयभीत हो उठा।

19 तब क्रुद्ध रक्षकों ने अपने हथियार उठा लिये और कृष्ण तथा उनके संगियों को घेर लिया और “पकड़ लो, मार डालो“ कहकर चिल्लाने लगे।

20 रक्षकों को अपनी ओर दुर्भावना से आते देखकर बलराम तथा कृष्ण ने धनुष के दोनों खण्डों को अपने हाथों में ले लिया और वे उन सबको इन्हीं से मारने लगे।

21 कंस द्वारा भेजी गई सैन्य टुकड़ी को भी मारकर कृष्ण तथा बलराम यज्ञशाला के मुख्य द्वार से निकल आए और सुखपूर्वक ऐश्वर्यमय दृश्य देखते हुए नगर में घूमते रहे।

22 कृष्ण तथा बलराम द्वारा किये गये अद्भुत कार्य तथा उनके बल, साहस एवं सौन्दर्य को देखकर नगरवासियों ने सोचा कि वे अवश्य ही दो मुख्य देवता हैं।

23 जब वे इच्छानुसार विचरण कर रहे थे तब सूर्य अस्त होने लगा था अतः वे ग्वालबालों के साथ नगर को छोड़कर ग्वालों के बैलगाड़ी वाले खेमे में लौट आये।

24 वृन्दावन से मुकुन्द (कृष्ण) के विदा होते समय गोपियों ने भविष्यवाणी की थी कि मथुरावासी अनेक वरों का भोग करेंगे और अब उन गोपियों की भविष्यवाणी सत्य हो रही थी क्योंकि मथुरा के वासी पुरुष-रत्न कृष्ण के सौन्दर्य को एकटक देख रहे थे। निस्सन्देह लक्ष्मीजी उस सौन्दर्य का आश्रय इतना चाहती थीं कि उन्होंने अनेक अन्य लोगों का परित्याग कर दिया, यद्यपि वे उनकी पूजा करते थे।

25 कृष्ण तथा बलराम के पाँव धोये जाने के बाद दोनों भाइयों ने खीर खाई। तत्पश्चात यह जानते हुए कि कंस क्या करना चाहता है, उन दोनों ने वहाँ सुखपूर्वक रात बिताई।

26-27 दूसरी ओर दुर्मति राजा कंस ने जब यह सुना कि किस तरह खेल की भाँति कृष्ण तथा बलराम ने धनुष तोड़ डाला है और उसके रक्षकों तथा सैनिकों को मार डाला है, तो वह अत्यधिक भयभीत हो उठा। वह काफी समय तक जागता रहा और जागते तथा सोते हुए उसने मृत्यु के दूतों वाले कई अपशकुन देखे।

28-31 जब उसने अपनी परछाई देखी तो उसमें उसे अपना सिर नहीं दिखा, अकारण ही चन्द्रमा तथा तारे दो-दो लगने लगे; उसे अपनी छाया में छेद दिखा, उसे अपनी प्राणवायु की ध्वनि सुनाई नहीं पड़ी, वृक्ष सुनहली आभा से प्रच्छन्न लगने लगे और वह अपने पदचिन्हों को न देख सका। उसने स्वप्न में देखा कि भूत-प्रेत उसका आलिंगन कर रहे हैं, वह गधे पर सवार है और विष पी रहा है। ऐसे अन्य अपशकुनों को स्वप्न में तथा जागते हुए देखकर कंस अपनी मृत्यु की सम्भावना से भयभीत था और चिन्ता के कारण वह सो न सका।

32 जब अन्ततः रात बीत गई और सूर्य पुनः जल से ऊपर निकला तो कंस विशाल कुश्ती उत्सव (दंगल) का आयोजन करने लगा।

33 राजा के लोगों ने मल्लस्थल (दंगल) की विधिवत पूजा की, अपने ढोल तथा अन्य वाद्य बजाये और दर्शकदीर्घाओं को मालाओं, झण्डियों, फीतों तथा बन्दनवारों से खूब सजाया गया।

34 नगरनिवासी तथा पड़ोसी जिलों के निवासी ब्राह्मण तथा क्षत्रियों इत्यादि के साथ आए और दीर्घाओं में सुखपूर्वक बैठ गये। राजसी अतिथियों को विशिष्ट स्थान दिये गये।

35 अपने मंत्रियों से घिरा हुआ कंस अपने राजमंच पर आसीन हुआ। किन्तु अपने विविध मंडलेश्वरों के बीच में बैठे हुए भी उसका हृदय काँप रहा था।

36 जब कुश्ती के उपयुक्त ताल पर वाद्य यंत्र जोर जोर से बजने लगे तो खूब सजे गर्वीले पहलवान अपने अपने प्रशिक्षकों समेत अखाड़े में प्रविष्ट हुए और बैठ गये।

37 आनन्ददायक संगीत से उल्लासित होकर चाणुर, मुष्टिक, कूट, शल तथा तोशल अखाड़े की चटाई पर बैठ गये।

38 भोजराज कंस द्वारा बुलाये जाने पर नन्द महाराज तथा अन्य ग्वालों ने उसे अपनी-अपनी भेंटें पेश कीं और तब वे एक दीर्घा में जाकर बैठ गये।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान) 

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अध्याय इकतालीस - कृष्ण तथा बलराम का मथुरा में प्रवेश (10.41)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अभी अक्रूर स्तुति कर ही रहे थे कि भगवान कृष्ण ने अपना वह रूप जिसे उन्होंने जल के भीतर प्रकट किया था, उसी तरह छिपा लिया जिस तरह कोई नट अपना खेल समाप्त कर देता है।

2 जब अक्रूर ने उस दृश्य को अन्तर्धान होते देखा तो वे जल के बाहर आ गये और उन्होंने जल्दी जल्दी अपने विविध अनुष्ठान-कर्म सम्पन्न किये। तत्पश्चात वे विस्मित होकर अपने रथ पर लौट आये।

3 भगवान कृष्ण ने अक्रूर से पूछा: क्या आपने पृथ्वी पर, या आकाश में या जल में कोई अद्भुत वस्तु देखी है? आपकी सूरत से हमें लगता है कि आपने देखी है।

4 श्री अक्रूर ने कहा: पृथ्वी, आकाश या जल में जो भी अद्भुत वस्तुएँ हैं, वे सभी आपमें विद्यमान हैं। चूँकि आप हर वस्तु से ओतप्रोत हैं अतः जब मैं आपका दर्शन कर रहा हूँ तो फिर वह कौन सी वस्तु है, जिसे मैंने नहीं देखा है?

5 अब जबकि हे परम सत्य, मैं आपको देख रहा हूँ जिनमें पृथ्वी, आकाश तथा जल की सारी अद्भुत वस्तुएँ निवास करती हैं, तो फिर भला मैं इस जगत में और कौन सी अद्भुत वस्तुएँ देख सकता था?

6 इन शब्दों के साथ गान्दिनीपुत्र अक्रूर ने रथ आगे हाँकना शुरु कर दिया। दिन ढलते ढलते वे भगवान बलराम तथा भगवान कृष्ण को लेकर मथुरा जा पहुँचे।

7 हे राजन, वे मार्ग में जहाँ जहाँ से गुजरते, गाँव के लोग पास आकर वसुदेव के इन दोनों पुत्रों को बड़े ही हर्ष से निहारते। वस्तुतः ग्रामीणजन उनसे अपनी दृष्टि हटा नहीं पाते थे।

8 नन्द महाराज तथा वृन्दावन के अन्य वासी रथ से पहले ही मथुरा पहुँच गये थे और कृष्ण तथा बलराम की प्रतीक्षा करने के लिए नगर के बाहरी उद्यान में रुके हुए थे।

9 नन्द तथा अन्य लोगों से मिलने के बाद ब्रह्माण्ड के नियन्ता भगवान कृष्ण ने विनीत अक्रूर के हाथ को अपने हाथ में लेकर हँसते हुए इस प्रकार कहा।

10 भगवान कृष्ण ने कहा: आप रथ लेकर हमसे पहले नगरी में प्रवेश करें। तत्पश्चात आप अपने घर जाँय। हम यहाँ पर कुछ समय तक ठहर कर बाद में नगरी देखने जायेंगे।

11 श्री अक्रूर ने कहा: हे प्रभु, मैं आप दोनों के बिना मथुरा में प्रवेश नहीं करूँगा। हे नाथ, मैं आपका भक्त हूँ अतः यह उचित नहीं होगा कि आप मेरा परित्याग कर दें क्योंकि आप अपने भक्तों के प्रति सदैव वत्सल रहते है।

12 हे मित्रश्रेष्ठ, हे दिव्य प्रभु, आप अपने बड़े भाई, ग्वालों तथा अपने संगियों समेत मेरे घर चलिये और मुझे कृतार्थ कीजिये।

13 मैं विधिवत यज्ञों का पालन करने वाला सामान्य गृहस्थ हूँ, आप अपने चरणकमलों की धूलि से मेरे घर को पवित्र कीजिये। आपके इस शुद्धि कर्म से मेरे पितर, यज्ञ-अग्नियाँ तथा सारे देवता तुष्ट हो जायेंगे।

14 आपके चरणों को पखार कर यशस्वी बलि महाराज ने यश, अनुपम शक्ति और शुद्धभक्तों की तरह अन्तिम गति प्राप्त की।

15 इसी कर्म से दिव्य होकर गंगा नदी के जल ने तीनों लोकों को पवित्र बना दिया है। शिवजी ने उसी जल को अपने शीश पर धारण किया और उसी जल की कृपा से राजा सगर के पुत्र स्वर्ग गये।

16 हे देवों के देव, हे जगन्नाथ, हे यदुश्रेष्ठ, हे पुण्यश्लोक, हे परम भगवान नारायण, आपके यश को सुनना और गायन करना अत्यन्त पवित्र है! मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

17 परमेश्वर ने कहा: मैं अपने बड़े भाई के साथ आपके घर आऊँगा किन्तु पहले मुझे यदु जाति के शत्रु को मारकर अपने मित्रों तथा शुभचिन्तकों को तुष्ट करना है।

18 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान द्वारा ऐसे सम्बोधित किये जाने पर अक्रूर भारी मन से नगर में प्रविष्ट हुए। उन्होंने राजा कंस को अपने ध्येय की सफलता से सूचित किया और तब वे अपने घर चले गये।

19 भगवान कृष्ण मथुरा देखना चाहते थे अतः संध्या समय अपने साथ बलराम तथा ग्वालबालों को लेकर उन्होंने नगर में प्रवेश किया।

20-23 भगवान ने देखा मथुरा के ऊँचे ऊँचे दरवाजे तथा घरों के प्रवेशद्वार स्फटिक के बने हैं, इसके विशाल तोरण तथा मुख्य द्वार सोने के हैं, इसके अन्न गोदाम तथा अन्य भण्डार ताम्बे तथा पीतल के बने हैं और इसकी परिखा (खाई) अप्रवेश्य है। मनोहर उद्यान तथा उपवन इस शहर की शोभा बढ़ा रहे थे। मुख्य चौराहे सोने से बनाए गये थे और इसके भवनों के साथ निजी विश्राम-उद्यान थे, साथ ही व्यापारिकों के सभाभवन तथा अन्य अनेक भवन थे। मथुरा उन मोर तथा पालतू कबूतरों की बोलियों से गूँज रहा था, जो जालीदार खिड़कियों के छेदों पर, रत्नजटित फ़र्शों पर, खम्भेदार छज्जों और घरों के सामने बैठे थे। ये छज्जे वैदूर्य मणियों, हीरों, स्फटिकों, नीलमों, मूँगों, मोतियों तथा हरित मणियों से सजाये गये थे। समस्त राजमार्गों तथा व्यापारिक गलियों में जल का छिड़काव हुआ था। इसी तरह पार्श्वगलियों तथा चबूतरों को भी सींचा गया था। सर्वत्र फूल मालाएँ, नव अंकुरित जौ, लावा तथा अक्षत बिखेरे हुए थे। घरों के दरवाजों के प्रवेशमार्ग पर जल से भरे सुसज्जित घड़े शोभा दे रहे थे जिन्हें आम की पत्तियों से अलंकृत किया गया था और दही तथा चन्दनलेप से पोता गया था। उनके चारों ओर फूल की पंखड़ियाँ तथा फीते लपेटे हुए थे। इन घड़ों के पास झण्डियाँ, दीपों की पंक्ति, फूलों के गुच्छे, केलों तथा सुपारी के वृक्षों के तने थे।

24 मथुरा की स्त्रियाँ जल्दी-जल्दी एकत्र हुई और ज्योंही वसुदेव के दोनों पुत्र अपने ग्वालबाल मित्रों से घिरे हुए राजमार्ग द्वारा नगर में प्रविष्ट हुए वे उन्हें देखने निकल आई। हे राजन, कुछ स्त्रियाँ उन्हें देखने की उत्सुकता से अपने घरों की छतों पर चढ़ गई।

25 कुछ स्त्रियों ने अपने वस्त्र तथा गहने उल्टे पहन लिये, कुछ अपना एक कुण्डल या पायल पहनना भूल गई और अन्यों ने केवल एक आँख में अंजन लगाया, दूसरी में लगा ही न पाईं।

26 जो भोजन कर रही थीं उन्होंने भोजन करना छोड़ दिया, अन्य स्त्रियाँ अधनहाई या उबटन पूरी तरह लगाये बिना ही चली आई। जो स्त्रियाँ सो रही थीं वो शोर सुनकर तुरन्त उठ गईं और माताओं ने दूध पीते बच्चों को अपनी गोद से उतार दिया।

27 अपनी साहसिक लीलाओं का स्मरण करके मुसकाते हुए कमलनेत्रों वाले भगवान ने अपनी चितवनों से स्त्रियों के मनों को मोह लिया। वे शाही हाथी की तरह मतवाली चाल से अपने दिव्य शरीर से उन स्त्रियों के नेत्रों के लिए उत्सव उत्पन्न करते हुए चल रहे थे। उनका यह शरीर दिव्य देवी लक्ष्मी के लिए आनन्द का स्रोत है।

28 मथुरा की स्त्रियों ने कृष्ण के विषय में बारम्बार सुन रखा था अतः उनका दर्शन पाते ही उनके हृदय द्रवित हो उठे। वे अपने को सम्मानित अनुभव कर रही थीं कि कृष्ण ने उन पर अपनी चितवन तथा हँसी रूप अमृत का छिड़काव किया है। अपने नेत्रों के द्वारा उन्हें अपने हृदयों में ग्रहण करके उन सबों ने समस्त आनन्द की मूर्ति का आलिंगन किया और हे अरिन्दम! ज्योंही उन्हें रोमांच हो आया, वे उनकी अनुपस्थिति से उत्पन्न असीम कष्ट को भूल गई।

29 स्नेह से प्रफुल्लित कमल सदृश मुखों वाली स्त्रियों ने जो अपने महलों की छतों पर चढ़ी हुई थीं, भगवान बलराम तथा भगवान कृष्ण पर फूलों की वर्षा की।

30 रास्ते के किनारे खड़े ब्राह्मणों ने दही, अक्षत (चाँवल), जौ, जल-भरे कलशों, फूल-मालाओं, सुगन्धित द्रव्यों यथा चन्दन के लेप तथा पूजा की अन्य वस्तुओं की भेंटों से दोनों भाइयों का सम्मान किया।

31 मथुरा की स्त्रियाँ चिल्ला पड़ीं: अहा! समस्त मानव जाति को अत्यन्त आनन्द प्रदान करने वाले कृष्ण तथा बलराम को निरन्तर देखते रहने के लिए गोपियों ने कौन-सी कठोर तपस्याएँ की होंगी?

32 कपड़ा रंगने वाले एक धोबी को अपनी ओर आते देखकर कृष्ण ने उससे उत्तमोत्तम धुले वस्त्र माँगे।

33 भगवान कृष्ण ने कहा: कृपया हम दोनों को उपयुक्त वस्त्र दे दीजिये क्योंकि हम इनके योग्य हैं। यदि आप यह दान देंगे तो इसमें सन्देह नहीं कि आपको सबसे बड़ा लाभ प्राप्त होगा।

34 सभी प्रकार से परिपूर्ण भगवान द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर राजा का वह घमण्डी नौकर क्रुद्ध हो उठा और अपमान भरे वचनों में बोला।

35 धोबी ने कहा: अरे उद्दण्ड बालकों! तुम पर्वतों तथा जंगलों में घूमने के आदि हो फिर भी तुम इस तरह के वस्त्रों को पहनने का साहस कर रहे हो। तुम जिन्हें माँग रहे हो वे राजा की सम्पत्ति हैं।

36 यदि तुम जीवित रहना चाहते हो तो इस तरह मत माँगो और यहाँ से तुरन्त निकल जाओ। जब कोई अत्यधिक उच्छ्रंखल हो जाता है, तो राजा के कर्मचारी उसे बन्दी बना लेते हैं और जान से मार डालते हैं और उसकी सारी सम्पत्ति छीन लेते हैं।

37 जब वह धोबी इस तरह बहकी-बहकी बातें बोला तो देवकीपुत्र क्रुद्ध हो उठे और उन्होंने अँगुलियों के अग्रभाग से ही उसका सिर अलग कर दिया।

38 धोबी के नौकरों ने वस्त्रों के गट्ठर गिरा दिये और मार्ग से भागकर चारों ओर तितर-बितर हो गये। तब भगवान कृष्ण ने उन वस्त्रों को ले लिया।

39 कृष्ण तथा बलराम ने अपनी मनपसंद वस्त्रों की जोड़ी पहन ली और तब कृष्ण ने शेष वस्त्रों को ग्वालबालों में वितरित करते हुए कुछ को भूमि पर बिखेर दिया।

40 तत्पश्चात एक बुनकर आया और दोनों विभूतियों के प्रति स्नेह से वशीभूत होकर विविध रंगों वाले वस्त्र-आभूषणों से उनकी पोशाकें सजा दीं।

41 कृष्ण तथा बलराम – अद्भुत रीति से सजाई गई विशिष्ट पोशाक में शोभायमान दिखने लगे। वे उत्सव के समय सजाये गये श्वेत तथा श्याम हाथी के बच्चों की जोड़ी के समान लग रहे थे।

42 उस बुनकर से प्रसन्न होकर भगवान कृष्ण ने उसे आशीर्वाद दिया कि वह मृत्यु के बाद भगवान जैसा स्वरूप प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त करे और जब तक इस लोक में रहे तब तक वह परम ऐश्वर्य, शारीरिक बल, प्रभाव, स्मृति तथा एन्द्रिय शक्ति का भोग करे।

43 तत्पश्चात दोनों भाई सुदामा माली के घर गये। जब सुदामा ने उन्हें देखा तो वह तुरन्त खड़ा हो गया और भूमि पर मस्तक नवाकर उसने उन्हें प्रणाम किया।

44 उन्हें आसन प्रदान करके तथा उनके पाँव पखारकर सुदामा ने उनकी तथा उनके साथियों की अर्ध्य, माला, पान, चन्दन-लेप तथा अन्य उपहारों के साथ पूजा की।

45 सुदामा ने कहा: हे प्रभु, अब मेरा जन्म पवित्र हो गया और मेरा परिवार निष्कलुष हो गया। चूँकि अब आप दोनों मेरे यहाँ आये हैं अतः मेरे पितर, देवता तथा ऋषिगण सभी मुझसे निश्चय ही संतुष्ट हुये हैं।

46 आप दोनों भगवान इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के परम कारण हैं। इस जगत को भरण-पोषण तथा समृद्धि प्रदान करने के लिए आप अपने अंशों समेत अवतरित हुए हैं।

47 चूँकि आप शुभचिन्तक मित्र तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के परमात्मा हैं अतः आप सबों को निष्पक्ष दृष्टि से देखते हैं। यद्यपि आप अपने भक्तों से प्रेमपूर्ण पूजा का आदान-प्रदान करते हैं फिर भी आप सभी प्राणियों पर सदा समभाव रखते हैं।

48 कृपया अपने इस दास को आप जो चाहते हों वह करने का आदेश दें। आपके द्वारा किसी सेवा में लगाया जाना किसी के लिए भी महान वरदान है।

49 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजाओं में श्रेष्ठ, ये शब्द कहकर सुदामा ने यह जान लिया कि कृष्ण तथा बलराम क्या चाह रहे थे। इस तरह उसने अतीव प्रसन्नता-पूर्वक उन्हें ताजे सुगन्धित फूलों की मालाएँ अर्पित कीं।

50 इन मालाओं से सुसज्जित होकर कृष्ण तथा बलराम अतीव प्रसन्न हुए और उसी तरह उनके संगी भी। तब दोनों विभूतियों ने अपने समक्ष शरणागत सुदामा को उसके मनवांछित वर प्रदान किये।

51 सुदामा ने समस्त जगत के परमात्मा कृष्ण की अचल भक्ति, उनके भक्तों के साथ मित्रता तथा समस्त जीवों के प्रति दिव्य दया को चुना।

52 भगवान कृष्ण ने सुदामा को न केवल ये वर दिये अपितु उन्होंने उसे बल, दीर्घायु, यश, कान्ति तथा उसके परिवार की सतत बढ़ती हुई समृद्धि भी प्रदान की। तत्पश्चात कृष्ण तथा उनके बड़े भाई ने उससे विदा ली।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय चालीस - अक्रूर द्वारा स्तुति (10.40)

1 श्री अक्रूर ने कहा: हे समस्त कारणों के कारण, आदि तथा अव्यय महापुरुष नारायण, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आपकी नाभि से उत्पन्न कमल के कोष से ब्रह्मा प्रकट हुए हैं और उनसे यह ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आया है।

2 पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश एवं इसका स्रोत तथा मिथ्या अहंकार, महत-तत्त्व, समस्त भौतिक प्रकृति और उसका उद्गम तथा भगवान का पुरुष अंश, मन, इन्द्रियाँ, इन्द्रिय विषय तथा इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता ( ये सब विराट जगत के कारण ) आपके दिव्य शरीर से उत्पन्न हैं।

3 सम्पूर्ण भौतिक प्रकृति तथा ये अन्य सृजन-तत्त्व निश्चय ही आपको यथारूप में नहीं जान सकते क्योंकि ये निर्जीव पदार्थ के परिमण्डल में प्रकट होते हैं। चूँकि आप प्रकृति के गुणों से परे हैं, अतः इन गुणों से बद्ध ब्रह्माजी भी आपके असली रूप को नहीं जान पाते।

4 शुद्ध योगीजन आपकी अर्थात परमेश्वर की तीन रूपों में अनुभूति करते हुए पूजा करते हैं। ये तीन हैं--जीव, भौतिक तत्त्व जिनसे जीवों के शरीर बने हैं तथा इन तत्त्वों के नियंत्रक देवता (अधिदेव)

5 तीन पवित्र अग्नियों से सम्बद्ध नियमों का पालन करने वाले ब्राह्मण, तीनों वेदों से मंत्रोचार करके तथा अनेक रूपों और नामों वाले विविध देवताओं के लिए व्यापक अग्नि यज्ञ करके पूजा करते हैं।

6 आध्यात्मिक ज्ञान की खोज में कुछ लोग सारे भौतिक कार्यों का परित्याग कर देते हैं और इस तरह शान्त होकर समस्त ज्ञान के आदि रूप आपकी पूजा करने के लिए ज्ञान-यज्ञ करते हैं।

7 अन्य लोग जिनकी बुद्धि शुद्ध है वे आपके द्वारा लागू किये गये वैष्णव शास्त्रों के आदेशों का पालन करते हैं। वे आपके चिन्तन में अपने मन को लीन करके आपकी पूजा परमेश्वर रूप में करते हैं, जो अनेक रूपों में प्रकट होता है।

8 कुछ अन्य लोग भी हैं, जो आपकी पूजा भगवान शिव के रूप में करते हैं। वे उनके द्वारा बताये गये तथा अनेक उपदेशकों द्वारा नाना प्रकार से व्याख्यायित मार्ग का अनुसरण करते हैं।

9 किन्तु हे प्रभु, ये सारे लोग, यहाँ तक कि जिन्होंने आपसे अपना ध्यान मोड़ रखा है और जो अन्य देवताओं की पूजा कर रहे हैं, वे वास्तव में, हे समस्त देवमय, आपकी ही पूजा कर रहे हैं।

10 हे प्रभो, जिस प्रकार पर्वतों से उत्पन्न तथा वर्षा से पूरित नदियाँ सभी ओर से समुद्र में आकर मिलती हैं उसी तरह ये सारे मार्ग अन्त में आप तक पहुँचते हैं।

11 आपकी भौतिक प्रकृति के सतो, रजो तथा तमोगुण ब्रह्मा से लेकर अचर प्राणियों तक के समस्त बद्धजीवों को पाशबद्ध किये रहते हैं।

12 मैं आपको नमस्कार करता हूँ, जो समस्त जीवों के परमात्मा होकर निष्पक्ष दृष्टि से हरेक की चेतना के साक्षी हैं। अज्ञान से उत्पन्न आपके भौतिक गुणों का प्रवाह उन जीवों के बीच प्रबलता के साथ प्रवाहित होता है, जो देवताओं, मनुष्यों तथा पशुओं का रूप धारण करते हैं।

13-14 अग्नि आपका मुख कही जाती है, पृथ्वी आपके पाँव हैं, सूर्य आपकी आँख है और आकाश आपकी नाभि है। दिशाएँ आपकी श्रवणेन्द्रिय हैं, प्रमुख देवता आपकी बाँहें हैं और समुद्र आपका उदर है। स्वर्ग आपका सिर समझा जाता है और वायु आपकी प्राणवायु तथा शारीरिक बल है। वृक्ष तथा जड़ी-बूटियाँ आपके शरीर के रोम हैं, बादल आपके सिर के बाल हैं तथा पर्वत आपकी अस्थियाँ तथा नाखून हैं। दिन तथा रात का गुजरना आपकी पलकों का झपकना है, प्रजापति आपकी जननेन्द्रिय है और वर्षा आपका वीर्य है।

15 अपने-अपने अधिष्ठात्र देवताओं तथा असंख्य जीवों समेत सारे जगत आप परम अविनाशी से उद्भूत हैं। ये सारे जगत मन तथा इन्द्रियों पर आधारित होकर आपके भीतर घूमते रहते हैं, जिस प्रकार समुद्र में जलचर तैरते हैं अथवा छोटे छोटे कीट गूलर (उदुम्बर) फल के भीतर छेदते रहते हैं।

16 आप अपनी लीलाओं का आनन्द लेने के लिए इस भौतिक जगत में नाना रूपों में अपने को प्रकट करते हैं और ये अवतार उन लोगों के सारे दुखों को धो डालते हैं, जो हर्षपूर्वक आपके यश का गान करते हैं।

17-18 मैं सृष्टि के कारण भगवान मत्स्य रूप आपको नमस्कार करता हूँ जो प्रलय के सागर में इधर उधर तैरते रहे। मैं मधु तथा कैटभ के संहारक हयग्रीव को, मन्दराचल को धारण करने वाले विशाल कच्छप (भगवान कूर्म) को तथा पृथ्वी को उठाने में आनन्द का अनुभव करने वाले भगवान वराह रूप आपको नमस्कार करता हूँ।

19 अपने सन्त भक्तों के भय को भगाने वाले अद्भुत सिंह (भगवान नृसिंह) तथा तीनों जगत को अपने पगों से नापने वाले भगवान वामन मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

20 घमण्डी राजाओं रूपी जंगल को काट डालने वाले भृगुपति तथा राक्षस रावण का अन्त करने वाले रघुकुल शिरोमणि भगवान राम, मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

21 सात्वतों के स्वामी आपको नमस्कार है। आपके वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध रूपों को नमस्कार है।

22 आपके शुद्ध रूप भगवान बुद्ध को नमस्कार है, जो दैत्यों तथा दानवों को मोह लेगा। आपके कल्कि रूप को नमस्कार है, जो राजा बनने वाले मांस-भक्षकों का संहार करने वाला है।

23 हे परमेश्वर, इस जगत में सारे जीव आपकी शक्ति माया से भ्रमित हैं। वे 'मैं' तथा 'मेरा' की मिथ्या धारणाओं में फँसकर सकाम कर्मों के मार्गों पर भटकते रहने के लिए बाध्य होते रहते हैं।

34 हे शक्तिशाली विभो, मैं भी अपने शरीर, सन्तानों, घर, पत्नी, धन तथा अनुयायियों को मूर्खता से वास्तविक मानकर इस प्रकार से भ्रमित हो रहा हूँ यद्यपि ये सभी स्वप्न के समान असत्य हैं।

25 इस तरह नश्वर को नित्य, अपने शरीर को आत्मा तथा कष्ट के साधनों को सुख के साधन मानते हुए मैंने भौतिक द्वन्द्वों में आनन्द उठाने का प्रयत्न किया है। इस तरह अज्ञान से आवृत होकर मैं यह नहीं पहचान सका कि आप ही मेरे प्रेम के असली लक्ष्य हैं।

26 जिस तरह कोई मूर्ख व्यक्ति जल के अन्दर उगी हुई वनस्पति से ढके हुए जल की उपेक्षा करके मृगतृष्णा के पीछे दौड़ता है उसी तरह मैंने आपसे मुख मोड़ रखा है।

27 मेरी बुद्धि इतनी कुण्ठित है कि मैं अपने मन को रोक पाने की शक्ति नहीं जुटा पा रहा जो भौतिक इच्छाओं तथा कार्यों से विचलित होता रहता है और मेरी जिद्दी इन्द्रियों द्वारा निरन्तर इधर-उधर घसीटा जाता है।

28 हे प्रभु, इस तरह पतित हुआ मैं आपके चरणों में शरण लेने आया हूँ, क्योंकि, यद्यपि अशुद्ध लोग आपके चरणों को कभी भी प्राप्त नहीं कर पाते, तथापि मेरा विचार है कि आपकी कृपा से ही यह सम्भव हो सका है। हे कमलनाभ भगवान, जब किसी का भौतिक जीवन समाप्त हो जाता है तभी वह आपके शुद्ध भक्तों की सेवा करके आपके प्रति चेतना उत्पन्न कर सकता है।

29 असीम शक्तियों के स्वामी परम सत्य को नमस्कार है। वे शुद्ध दिव्य-ज्ञान स्वरूप हैं, समस्त चेतनाओं के स्रोत हैं और जीव पर शासन चलाने वाली प्रकृति की शक्तियों के अधिपति हैं।

30 हे वसुदेवपुत्र आपको नमस्कार है। आपमें सारे जीवों का निवास है। हे मन तथा इन्द्रियों के स्वामी, मैं पुनः आपको नमस्कार करता हूँ। हे प्रभु, मैं आपकी शरण में आया हूँ। आप मेरी रक्षा करें।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय उनतालीस - अक्रूर द्वारा दर्शन (10.39) 

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान बलराम तथा भगवान कृष्ण द्वारा इतना अधिक सम्मानित किये जाने पर पलंग में सुखपूर्वक बैठे अक्रूर को लगा कि उन्होंने रास्ते में जितनी इच्छाएँ की थीं वे सभी अब पूरी हो गई हैं।

2 हे राजन, जिसने लक्ष्मी के आश्रय पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को संतुष्ट कर लिया हो भला उसके लिए क्या अलभ्य है? ऐसा होने पर भी जो उनकी भक्ति में समर्पित हैं, वे कभी भी उनसे कुछ नहीं चाहते।

3 शाम के भोजन के बाद देवकीपुत्र भगवान कृष्ण ने अक्रूर से पूछा कि कंस अपने प्रिय सम्बन्धियों तथा मित्रों के साथ कैसा बर्ताव कर रहा है और वह क्या करने की योजना बना रहा है।

4 भगवान ने कहा: हे भद्र पुरुष, प्रिय चाचा अक्रूर, यहाँ की आपकी यात्रा सुखद तो रही? आपका कल्याण हो। हमारे शुभचिन्तक मित्र तथा हमारे निकट और दूर के सम्बन्धी सुखी तथा स्वस्थ तो हैं?

5 किन्तु हे अक्रूर, जब तक मामा कहलाने वाला तथा हमारे परिवार के लिए रोगस्वरूप राजा कंस समृद्ध हो रहे हैं, तब तक मैं अपने परिवार वालों तथा उसकी अन्य प्रजा के विषय में पूछने की झंझट में पड़ूँ ही क्यों?

6 जरा देखिये न, कि मैंने अपने निरपराध माता-पिता के लिए कितना कष्ट उत्पन्न कर दिया है! मेरे ही कारण उनके कई पुत्र मारे गये और वे स्वयं बन्दी हैं।

7 हे प्रिय स्वजन, सौभाग्यवश आपको देखने की हमारी इच्छा आज पूरी हुई है। हे सदय चाचा, कृपा करके यह बतलाये कि आप क्यों आये हैं?

8 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान के पूछे जाने पर मधुवंशी अक्रूर ने सारी परिस्थिति कह सुनाई जिसमें यदुओं के प्रति कंस की शत्रुता तथा उसके द्वारा वसुदेव के वध का प्रयास भी सम्मिलित था।

9 अक्रूर को जिस सन्देश को देने के लिए भेजा गया था उसे उन्होंने कह सुनाया। उसने कंस के असली इरादे भी बतला दिये और यह भी बतला दिया कि नारद ने किस तरह कंस को सूचित किया कि कृष्ण ने वसुदेव के पुत्र रूप में जन्म लिया है।

10 अक्रूर के वचनों को सुनकर वीर प्रतिद्वन्द्वियों का विनाश करने वाले भगवान कृष्ण तथा भगवान बलराम हँस पड़े। तब उन्होंने अपने पिता नन्द महाराज को राजा कंस का आदेश बतलाया।

11-12 तब नन्द महाराज ने गाँव के मुखिया को बुलाकर नन्द के व्रज मण्डल में ग्वालों के लिए निम्नलिखित घोषणा करने के लिए आदेश दिया, “जाओ और जितना दूध-दही उपलब्ध हो सके एकत्र करो।" बहुमूल्य उपहार ले लो और अपने-अपने छकड़े जोत लो। कल हम लोग मथुरा जायेंगे और राजा को अपना दूध-दही भेंट करेंगे तथा महान उत्सव देखेंगे। समस्त पड़ोसी जिलों के निवासी भी इसमें जा रहे हैं।

13 जब गोपियों ने सुना कि अक्रूर कृष्ण तथा बलराम को नगर ले जाने के लिए व्रज में आये हैं, तो वे अत्यन्त खिन्न हो उठीं।

14 कुछ गोपियों ने अपने हृदय में इतनी पीड़ा का अनुभव किया कि सिसकियाँ ले लेकर उनके मुख पीले पड़ गये। अन्य गोपियाँ इतनी अधिक पीड़ित थीं कि उनके वस्त्र, बाजूबन्द तथा जूड़े शिथिल पड़ गये।

15 अन्य गोपियों की चित्तवृत्तियाँ पूरी तरह रुक गई और वे कृष्ण के ध्यान में स्थिर हो गई। उन्हें आत्म-साक्षात्कार-पद प्राप्त करने वालों की भाँति बाह्य-जगत की सारी सुधि-बुधि भूल गई।

16 कुछ तरुणियाँ भगवान शौरी (कृष्ण) के शब्दों का स्मरण करके ही अचेत हो गई। ये शब्द विचित्र पदों से अलंकृत तथा स्नेहमयी मुसकान से व्यक्त होने से उन तरुणियों के हृदयों का गम्भीरता से स्पर्श करने वाले होते थे।

17-18 गोपियाँ भगवान मुकुन्द के क्षणमात्र वियोग की आशंका से भी भयातुर थीं अतः जब उन्हें उनकी ललित चाल, उनकी लीलाओं, उनकी स्नेहित हँसीली चितवन, उनके वीरतापूर्ण कार्यों तथा दुख हरने वाली ठिठोलियों का स्मरण हो आया तो वे सम्भाव्य परम विरह के विचार से उत्पन्न चिन्ता में अपने आपे के बाहर हो गईं। वे झुण्ड की झुण्ड एकत्र होकर एक-दूसरे से बातें करने लगीं। उनके मुख आँसुओं से पूरित थे तथा उनके मन अच्युत में पूर्णतया लीन थे।

19 गोपियों ने कहा: हे विधाता, आपमें तनिक भी दया नहीं है। आप देहधारी प्राणियों को मैत्री तथा प्रेम द्वारा एक-दूसरे के पास लाते हैं और तब उनकी इच्छाओं के पूरा होने के पूर्व ही व्यर्थ में उन्हें विलग कर देते हैं। आपका यह भ्रमपूर्ण खिलवाड़ बच्चों की चेष्टा के समान है।

20 श्याम घुँघराले बालों से घिरा तथा सुन्दर गालों से सुशोभित, उठी हुई नाक तथा समस्त कष्टों को हरने वाली मृदु हँसी से युक्त, मुकुन्द के मुख को दिखलाने के बाद अब आप उस मुख को हमसे ओझल करने जा रहे हैं। आपका यह बर्ताव तनिक भी अच्छा नहीं है।

21 हे विधाता, यद्यपि आप यहाँ अक्रूर के नाम से आये हैं किन्तु हैं आप क्रूर क्योंकि आप मूर्खों के समान हमसे उन्हें ही छीने ले रहे हैं, जिन्हें कभी आपने हमें दिया था–हमारी वे आँखें जिनसे हमने भगवान मधुद्विष के रूप के उस एक में भी आपकी सम्पूर्ण सृष्टि की पूर्णता देखी है।

22 हाय! क्षणभर में प्रेमपूर्ण मैत्री को भंग करने वाला नन्द का बेटा अब हमको सीधे एकटक देख भी नहीं सकेगा। उसके वशीभूत होकर उसकी सेवा करने के लिए हमने अपने घरों, सम्बन्धियों, बच्चों तथा पतियों तक का परित्याग कर दिया किन्तु वह सदैव नित नये प्रेमियों की खोज में रहता है।

23 इस रात्रि के बाद का प्रातःकाल निश्चित रूप से मथुरा की स्त्रियों के लिए मंगलमय होगा। अब उनकी सारी आशाएँ पूरी हो जायेंगी क्योंकि जैसे ही व्रजपति उनके नगर में प्रवेश करेंगे वे उनके मुख की तिरछी चितवन से निकलने वाली हँसी के अमृत का पान कर सकेंगी।

24 हे गोपियों, यद्यपि हमारा मुकुन्द बुद्धिमान तथा अपने माता-पिता का अत्यन्त आज्ञाकारी है किन्तु एक बार मथुरा की स्त्रियों के मधु सदृश मीठे शब्दों के जादू में आ जाने और उनकी आकर्षक लजीली मुसकानों से मुग्ध हो जाने पर भला वह हम गँवार देहाती अबलाओं के पास फिर कभी क्यों लौटने लगा ?

25 जब दाशार्ह, भोज, अंधक, वृष्णि तथा सात्वत लोग मथुरा में देवकी के पुत्र को देखेंगे तो उनके नेत्रों के लिए महान उत्सव तो होगा ही, साथ ही साथ नगर के मार्ग में यात्रा करते हुए जो लोग उन्हें देखेंगे उनके लिए भी महान उत्सव होगा। आखिर, वे श्री लक्ष्मीजी के प्रियतम और समस्त दिव्य गुणों के आगार जो हैं।

26 जो ऐसा निर्दय कार्य कर रहा हो उसे अक्रूर नहीं कहलाया जाना चाहिए। वह इतना क्रूर है कि व्रज के दुखी निवासियों को धीरज धराने का प्रयास किए बिना ही उस कृष्ण को लिये जा रहा है, जो हमें हमारे प्राणों से भी अधिक प्रिय है।

27 निष्ठुर कृष्ण पहले ही रथ पर चढ़ चुके हैं और अब ये मूर्ख ग्वाले अपनी बैलगाड़ियों में उनके पीछे-पीछे जाने की जल्दी मचा रहे हैं। यहाँ तक कि बड़े-बूढ़े भी उन्हें रोकने के लिए कुछ भी नहीं कह रहे। आज भाग्य हमारे विपरीत कार्य कर रहा है।

28 चलो हम सीधे माधव के पास चलें और उन्हें जाने से रोकें। हमारे परिवार के बड़े-बूढ़े तथा अन्य सम्बन्धीजन हमारा क्या बिगाड़ सकते हैं? अब जबकि भाग्य हमें मुकुन्द से विलग कर रहा है, हमारे हृदय पहले से ही दुखित हैं क्योंकि हम एक पल के एक अंश के लिए भी उनके संग के त्याग को सहन नहीं कर सकतीं।

29 जब वे हमें रासनृत्य की गोष्ठी में ले आये जहाँ हमने उनकी स्नेहपूर्ण तथा मनोहर मुसकानों का, उनकी आह्लादकारी बातों, उनकी लीलापूर्ण चितवनों तथा उनके आलिंगनों का आनन्द प्राप्त किया, तब हमने अनेक रात्रियाँ बितायी जो मात्र एक क्षण के तुल्य लगी। तो हे गोपियों, भला हम उनकी अनुपस्थिति के दुर्लंघ्य अंधकार को कैसे पार कर सकती हैं?

30 हम अनन्त के मित्र कृष्ण के बिना भला कैसे जीवित रह सकती हैं? वे शाम को ग्वालबालों के साथ व्रज लौटा करते थे तो उनके बाल तथा उनकी माला गौवों के खुरों से उठती धूल से धूसरित हो जाते थे। जब वे बाँसुरी बजाते तो वे अपनी हँसीली बाँकी चितवन से हमारे मन को मोह लेते थे।

31 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इन शब्दों को कहने के बाद व्रज की स्त्रियाँ, जो कृष्ण के प्रति इतनी अनुरक्त थीं, उनके आसन्न वियोग से अत्यन्त क्षुब्ध हो उठीं। वे सारी लाज-हया भूल गईं और जोरों से "हे गोविन्द, हे दामोदर, हे माधव,“ चिल्ला उठीं।

32 किन्तु गोपियों द्वारा इस प्रकार क्रंदन करते रहने पर भी अक्रूर प्रातःकालीन पूजा तथा अन्य कार्य समाप्त करके अपना रथ हाँकने लगे।

33 नन्द महाराज को आगे करके ग्वाले अपने-अपने छकड़ों में भगवान कृष्ण के पीछे हो लिये। ये लोग अपने साथ राजा के लिए अनेक भेंटें लिये हुए थे जिनमें घी तथा अन्य दुग्ध उत्पादों से भरे हुए मिट्टी के घड़े सम्मिलित थे।

34 भगवान कृष्ण ने अपनी चितवन से गोपियों को कुछ कुछ ढाढ़स बँधाया और वे भी कुछ देर तक उनके पीछे पीछे चलीं। फिर इस आशा से वे बिना हिले-डुले खड़ी रहीं कि वे उन्हें कुछ आदेश देंगे।

35 जब वे विदा होने लगे तो उन यदुश्रेष्ठ ने देखा कि गोपियाँ किस तरह विलाप कर रही थीं। अतः उन्होंने एक दूत भेजकर यह प्रेमपूर्ण वादा भेजा कि "मैं वापस आऊँगा" इस प्रकार उन्हें सान्त्वना प्रदान की।

36 गोपियाँ अपने मन को कृष्ण के साथ भेजकर, किसी चित्र में बनी आकृतियों की भाँति निश्चेष्ट खड़ी रहीं। वे वहाँ तब तक खड़ी रहीं जब तक रथ के ऊपर की पताका दिखती रही और जब तक रथ के पहियों से उठी हुई धूल उन्हें दिखलाई पड़ती रही।

37 तब गोपियाँ निराश होकर लौट गईं। उन्हें इसकी आशा नहीं रही कि गोविन्द उनके पास कभी लौटेंगे भी। वे शोकाकुल होकर कृष्ण की लीलाओं का कीर्तन करती हुई, अपने दिन-रात बिताने लगीं।

38 हे राजन, भगवान कृष्ण भगवान बलराम तथा अक्रूर समेत उस रथ में वायु जैसी तेजी से यात्रा करते हुए सारे पापों को विनष्ट करने वाली कालिन्दी नदी पर पहुँचे।

39 नदी का मधुर जल चमकीली मणियों से भी अधिक तेजवान था। भगवान कृष्ण ने शुद्धि के लिए जल से मार्जन किया और हाथ में लेकर आचमन किया। तत्पश्चात एक वृक्ष-कुन्ज के पास वे बलराम सहित अपने रथ पर पुनः सवार हो गये।

40 अक्रूर ने दोनों भाइयों को रथ पर बैठने के लिये कहा। तत्पश्चात उनसे अनुमति लेकर वे यमुना कुण्ड में गये और शास्त्रों में निर्दिष्ट विधि के अनुसार स्नान किया।

41 जल में प्रविष्ट होकर वेदों से नित्य मंत्रों का जप करते हुए अक्रूर ने सहसा बलराम तथा कृष्ण को अपने सम्मुख देखा।

42-43 अक्रूर ने सोचा:आनकदुन्दुभी के दोनों पुत्र, जो कि रथ पर बैठे हैं यहाँ जल में किस तरह खड़े हो सकते हैं? अवश्य ही उन्होंने रथ छोड़ दिया होगा।" किन्तु जब वे नदी से निकलकर बाहर आये तो वे दोनों पहले की तरह रथ पर थे। अपने आप यह प्रश्न करते हुए कि "क्या जल में मैंने उनका जो दर्शन किया वह भ्रम था?” अक्रूर पुनः कुण्ड में प्रविष्ट हो गये।

44-45 अब अक्रूर ने वहाँ सर्पराज अनन्त शेष को देखा जिनकी प्रशंसा सिद्ध, चारण, गन्धर्व तथा असुरगण अपना शीश झुकाकर कर रहे थे। अक्रूर ने जिन भगवान को देखा उनके हजारों सिर, हजारों फन तथा हजारों मुकुट थे। उनका नीला वस्त्र तथा कमल-नाल के तन्तुओं-सा श्वेत गौर वर्ण ऐसा लग रहा था मानो अनेक चोटियों वाला श्वेत कैलाश पर्वत हो।

46-48 तब अक्रूर ने भगवान को अनन्त शेष की गोद में शान्तिपूर्वक शयन करते देखा। उस परम पुरुष का रंग गहरे नीले बादल के समान था। वे पीताम्बर पहने थे, उनकी चार भुजाएँ थीं और उनकी आँखें लाल कमल की पंखुड़ियों जैसी थीं। उनका मुख आकर्षक एवं हँसी से युक्त होने से प्रसन्न लग रहा था। उनकी चितवन मोहक थी, भौंहें सुन्दर थीं, नाक उठी हुई, कान सुडौल तथा गाल सुन्दर और होंठ लाल लाल थे। भगवान के चौड़े कंधे तथा विशाल वक्षस्थल सुन्दर लग रहे थे और उनकी भुजाएँ लम्बी तथा बलिष्ठ थीं। उनकी गर्दन शंख जैसी, नाभि गहरी तथा उनके पेट में वटवृक्ष के पत्तों जैसी रेखाएँ थीं।

49-50 उनकी कमर तथा कूल्हे विशाल थे, जांघें हाथी की सूँड जैसी तथा घुटने और रानें सुगठित थे। उनके उठे हुए टखनों से, उनके फूलों पंखड़ियों जैसी पाँव की उँगलियों के नाखूनों से निकलने वाला चमकीला तेज परावर्तित होकर उनके चरणकमलों को सुन्दर बना रहा था।

51-52 अनेक बहुमूल्य मणियों से युक्त मुकुट, कड़े तथा बाजूबन्दों से सुशोभित तथा करधनी, जनेऊ, गले का हार, नूपुर तथा कुण्डल धारण किये भगवान चमचमाते तेज से युक्त थे। वे एक हाथ में कमल का फूल लिये थे और अन्यों में शंख, चक्र तथा गदा धारण किये थे। उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स चिन्ह, देदीप्यमान कौस्तुभ मणि तथा फूलों की माला शोभायमान थी।

53-55 भगवान के चारों ओर घेरा बनाकर पूजा करने वालों में नन्द, सुनन्द तथा उनके निजी पार्षद, सनक तथा अन्य कुमारगण, ब्रह्मा, रुद्र तथा अन्य प्रमुख देवता, नौ मुखी ब्राह्मण तथा प्रह्लाद, नारद, उपरिचर वसु इत्यादि महाभागवत थे। इनमें से प्रत्येक महापुरुष अपने अपने विशिष्टभाव में भगवान की प्रशंसा में पवित्र शब्दोच्चार करके पूजा कर रहा था। यही नहीं, भगवान की सेवा में उनकी मुख्य अन्तरंगा शक्तियों – श्री, पुष्टि, गीर, कान्ति, कीर्ति, तुष्टि, इला तथा ऊर्जा--के साथ साथ भौतिक शक्तियाँ विद्या, अविद्या, माया तथा उनकी अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति जुटी हुई थीं।

56-57 ज्योंही महाभागवत अक्रूर ने यह दृश्य देखा, वे अत्यन्त प्रसन्न हो उठे और उनमें दिव्य शक्ति जाग उठी। तीव्र आनन्द से उन्हें रोमांच हो आया और नेत्रों से अश्रु बह चले जिससे उनका सारा शरीर भीग गया। किसी तरह अपने को सँभालते हुए अक्रूर ने पृथ्वी पर अपना सिर झुका दिया। तत्पश्चात सम्मान में अपने हाथ जोड़े और भावविभोर वाणी से अत्यन्त धीमे धीमे तथा ध्यानपूर्वक भगवान की स्तुति करने लगे।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय अड़तीस - वृन्दावन में अक्रूर का आगमन (10.38) 

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: महामति अक्रूर ने वह रात मथुरा में बिताई और तब अपने रथ पर सवार होकर नन्द महाराज के ग्वाल-ग्राम के लिए रवाना हुए।

2 मार्ग में यात्रा करते हुए महात्मा अक्रूर को कमलनेत्र भगवान के प्रति अपार भक्ति का अनुभव हुआ अतः वे इस प्रकार सोचने लगे। श्री अक्रूर ने सोचा: मैंने ऐसे कौन-से शुभ कर्म किये हैं, ऐसी कौन-सी कठिन तपस्या की है, ऐसी कौन-सी पूजा की है या ऐसा कौन-सा दान दिया है, जिससे आज मैं भगवान केशव का दर्शन करूँगा।

4 चूँकि मैं विषयभोगों में लीन रहने वाला भौतिकतावादी व्यक्ति हूँ अतः उत्तम श्लोक में स्तुति किए जाने वाले भगवान का दर्शन करने का यह अवसर प्राप्त कर पाना उसी तरह कठिन है, जिस तरह शूद्र के रूप में जन्मे व्यक्ति के लिए वैदिक मंत्रों के उच्चारण करने की अनुमति प्राप्त करना होता है।

5 किन्तु बहुत हुआ, छोड़ो इन विचारों को, आखिर मुझ जैसे पतितात्मा को भी अच्युत भगवान के दर्शन का अवसर प्राप्त हो सकता है क्योंकि काल रूपी नदी के प्रवाह में बह रहे बद्ध-आत्माओं में से कोई एक आत्मा तो कभी-कभी किनारे तक पहुँच ही सकता है।

6 मेरा जन्म सफल हो गया है और आज मेरे समस्त पापकर्मों का उन्मूलन हो चुका है – क्योंकि मैं भगवान के उन चरणकमलों को नमस्कार करूँगा जिनका ध्यान बड़े बड़े योगी करते हैं।

7 निस्सन्देह, आज कंस ने मुझे उन भगवान हरि के चरणकमलों का दर्शन करने के लिए भेजकर मेरे ऊपर महती कृपा की है, जिन्होंने अब इस संसार में अवतार लिया है। भूतकाल में उनके चरण-नखों के तेज से ही इस भौतिक संसार के दुर्लंघ्य अंधकार को अनेक आत्माओं ने पार करके मुक्ति प्राप्त की है।

8 उन्हीं चरणकमलों की ब्रह्मा, शिव तथा अन्य सारे देवता, लक्ष्मीजी तथा बड़े बड़े मुनि और वैष्णव पूजा करते हैं। उन्हीं चरणकमलों से भगवान अपने संगियों सहित गौवें चराते समय जंगल में विचरण करते हैं।

9 अवश्य ही मैं भगवान मुकुन्द के मुख को देखूँगा क्योंकि अब हिरण मेरी दाई ओर से निकल रहे हैं। वह मुख घुँघराले बालों से घिरा है और उनके आकर्षक गालों तथा नाक, उनकी मन्द हासयुक्त चितवन तथा लाल कमल जैसी आँखों से शोभायमान है।

10 मुझे समस्त सौन्दर्य के आगार उन भगवान विष्णु के दर्शन होंगे जिन्होंने पृथ्वी का भार उतारने के लिए स्वेच्छा से मनुष्य जैसा स्वरूप धारण किया है। इस तरह इसमें कोई सन्देह नहीं कि मेरी आँखों को उनके अस्तित्व का फल प्राप्त हो जायेगा।

11 वे भौतिक कार्य-कारण के साक्षी हैं फिर भी वे उनकी झूठी पहचान से अपने को सदैव पृथक रखते हैं। वे अपनी अन्तरंगा शक्ति के द्वारा पृथकत्व तथा भ्रम के अंधकार को दूर करते हैं। जब वे अपनी दृष्टि भौतिक सृजन-शक्ति पर डालते हैं, तो इस जगत में जीव प्रकट होते हैं और ये जीव उन्हें अपनी प्राण-वायु, इन्द्रियों तथा बुद्धि कार्यों में अप्रत्यक्ष रूप से अनुभव करते हैं।

12 भगवान के गुणों, कर्मों तथा अवतारों से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं तथा समस्त सौभाग्य उत्पन्न करने वाले – इन तीनों का वर्णन करने वाले शब्द संसार को जीवनदान देते हैं, उसे सुशोभित बनाते हैं और शुद्ध करते हैं। दूसरी ओर, उनकी महिमा से विहीन शब्द शव की सजावट करने जैसे होते हैं।

13 वे ही भगवान सात्वत वंश में प्रमुख देवताओं को प्रसन्न करने के लिए अवतरित हुए हैं, जो उनके द्वारा निर्मित धर्म के नियमों को धारण करने वाले हैं। वे वृन्दावन में रहते हुए अपने यश का विस्तार करते हैं जिसकी महिमा का गायन देवतागण करते हैं, जो सबों को सौभाग्य प्रदान करने वाला है।

14 आज मैं उनका दर्शन करूँगा, जो महात्माओं के गन्तव्य तथा आध्यात्मिक गुरु हैं। सभी नेत्रवानों को उनके दर्शन से हर्ष होता है क्योंकि वे ब्रह्माण्ड के असली सौन्दर्य हैं। निस्सन्देह उनका साकार रूप लक्ष्मीजी द्वारा अभीप्सित (अभिलाषित/इच्छित) आश्रय है। अब मेरे जीवन के समस्त प्रभात शुभ बन चुके हैं।

15 तब मैं तुरन्त अपने रथ से नीचे उतर आऊँगा और भगवान कृष्ण तथा भगवान बलराम के उन चरणकमलों को नमस्कार करूँगा, जिन्हें आत्मसाक्षात्कार के लिए प्रयत्नशील बड़े बड़े योगी अपने मन के भीतर धारण करते हैं। मैं दोनों के बालमित्रों तथा वृन्दावन के अन्य समस्त वासियों को भी अपना नमस्कार निवेदित करूँगा।

16 जब मैं उनके चरणों पर गिर पड़ूँगा तो सर्वशक्तिमान प्रभु मेरे सिर पर अपना करकमल रख देंगे। जो लोग काल रूपी शक्तिशाली सर्प से भयभीत होकर उनकी शरण में जाते हैं, उन्हें ये करकमल – उनके सारे भय को दूर कर देते हैं।

17 उस कमल सदृश हाथ में दान देकर पुरन्दर तथा बलि ने स्वर्ग के राजा इन्द्र के पद को प्राप्त किया और रासनृत्य की आनन्द लीलाओं के समय भगवान के दिव्य सुगन्धित करकमलों के स्पर्श ने गोपियों की सारी थकान मिटा दी।

18 यद्यपि कंस ने मुझे यहाँ अपना दूत बनाकर भेजा है किन्तु अच्युत भगवान मुझे अपना शत्रु नहीं मानेंगे। आखिर, सर्वज्ञ प्रभु इस भौतिक शरीर रूपी क्षेत्र के वास्तविक ज्ञाता (क्षेत्रज्ञ) हैं और वे अपनी दिव्य दृष्टि से बद्धजीवों के हृदय के सारे प्रयासों को जानते हैं।

19 जब मैं हाथ जोड़कर उनके चरणकमलों को प्रणाम करने के लिए दण्डवत भूमि पर पड़ा रहूँगा और वे अपनी हँसीयुक्त स्नेहमयी चितवन मुझ पर डालेंगे, तब मेरा सारा कल्मष छूमंतर हो जायेगा, मेरे सारे संशय दूर हो जाएँगे और मैं गहन आनन्द का अनुभव करूँगा।

20 अपने घनिष्ठ मित्र तथा सम्बन्धी के रूप में पहचान कर जब कृष्ण मुझे अपने गले लगा लेंगे, उसी क्षण मेरा शरीर पवित्र हो जायेगा और सकाम कर्मों से जनित मेरे भौतिक बन्धन शून्य हो जायेंगे।

21 सर्व-सुविख्यात कृष्ण द्वारा गले लगाये जाने के बाद मैं उनके समक्ष विनम्र भाव से सिर झुकाकर तथा हाथ जोड़कर खड़ा रहूँगा और वे मुझसे कहेंगे, “मेरे प्रिय अक्रूर,” उसी क्षण मेरे जीवन का उद्देश्य सफल हो जायेगा। दरअसल जिस व्यक्ति को भगवान मान्यता नहीं देते उसका जीवन दयनीय है।

22 भगवान का न तो कोई अप्रिय है, न प्रिय, न ही वे किसी को अवांछनीय, घृणित या उपेक्षणीय मानते हैं। साथ ही साथ अपने भक्तों से, जिस भाव से वे पूजा करते हैं उसी भाव से प्रेम का आदान-प्रदान करते हैं, जिस तरह कल्प-वृक्ष अपने पास आने वालों की इच्छाएँ पूरी करते हैं।

23 जब मैं अपना सिर झुकाये हाथ जोड़कर खड़ा होऊँगा तब कृष्ण के बड़े भाई, यदुश्रेष्ठ बलराम मेरे हाथों को थाम लेंगे और फिर मेरा आलिंगन करके वे मुझे अपने घर ले जायेंगे। वहाँ वे सभी प्रकार की अनुष्ठान-सामग्री से मेरा सत्कार करेंगे और मुझसे पूछेंगे कि कंस उनके परिवार वालों के साथ कैसा व्यवहार कर रहा है।

24 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजन, मार्ग पर जाते हुए श्वफल्क पुत्र अक्रूर कृष्ण के विषय में इस तरह गम्भीरतापूर्वक ध्यान करते करते जब गोकुल पहुँचे तो सूर्य अस्त होने को था।

25 चरागाह में अक्रूर ने उन पैरों के चिन्ह देखे जिनकी शुद्ध धूल को समस्त ब्रह्माण्डों के लोकपाल अपने मुकुटों में धारण करते हैं। भगवान के वे चरणचिन्ह जो कमल, जौ की बाली तथा अंकुश जैसे चिन्हों से पहचाने जा सकते थे, पृथ्वी की शोभा को बढ़ा रहे थे।

26 भगवान के चरणचिन्हों को देखने से उत्पन्न आनन्द से अधिकाधिक विह्वल होने से शुद्ध प्रेम के कारण अक्रूर के शरीर के रोंगटे खड़े हो गए और आँखें आँसुओं से भर आई। वे अपने रथ से नीचे कूद पड़े और उन चरणचिन्हों पर यह चीखकर लौटने लगे, “ओह, यह तो मेरे प्रभु के चरणों की धूल है।"

27 समस्त देहधारी जीवों का जीवन-लक्ष्य – यही आनन्द है, जिसे अक्रूर ने कंस का आदेश पाकर अपना सारा गर्व, भय तथा शोक त्यागकर अनुभव किया तथा अपने आपको भगवान कृष्ण का स्मरण दिलाने वाली वस्तुओं को देखने, सुनने एवं वर्णन करने में लीन कर दिया।

28-33 तत्पश्चात अक्रूर ने व्रज ग्राम में कृष्ण तथा बलराम को गौवें दुहने के लिए जाते देखा। कृष्ण पीले वस्त्र पहने थे और बलराम नीले वस्त्र पहने थे। उनकी आँखें शरदकालीन कमलों के समान थीं। इन दोनों बलशाली भुजाओं वाले, लक्ष्मी के आश्रयों में से एक का रंग गहरा नीला था और दूसरे का श्वेत था। ये दोनों ही समस्त व्यक्तियों में सर्वाधिक सुन्दर थे। जब ये युवक हाथियों की-सी चाल से अपनी दयामय मुस्कानों से निहारते चलते तो ये दोनों महापुरुष अपने पदचिन्हों से चरागाह को सुशोभित बनाते जाते। ये पदचिन्ह पताका, वज्र, अंकुश तथा कमल चिन्हों से युक्त थे। ये अत्यन्त उदार तथा आकर्षक लीलाओं वाले दोनों प्रभु मणिजटित हार तथा फूल-मालाएँ पहने थे, इनके अंग शुभ सुगन्धित द्रव्यों से लेपित थे। ये अभी अभी स्नान करके आये थे और निर्मल वस्त्र पहने हुए थे। इन आदि महापुरुषों तथा ब्रह्माण्डों के आदि कारणों ने पृथ्वी के कल्याण हेतु अब केशव तथा बलराम के रूप में अवतार लिया था। हे राजा परीक्षित, वे दोनों दो स्वर्ण-आभूषित पर्वतों के समान लग रहे थे जिनमें से एक पर्वत मरकत मणि का था और दूसरा चाँदी का था क्योंकि वे अपने तेज से सारी दिशाओं में आकाश के अंधकार को दूर कर रहे थे।

34 स्नेह से अभिभूत होकर अक्रूर तुरन्त अपने रथ से नीचे कूदकर बलराम तथा कृष्ण के चरणों पर डंडे के समान (दण्डवत) गिर पड़े।

35 भगवान के दर्शन की प्रसन्नता से अक्रूर की आँखों में आँसू आ गये और अंगों में आनन्द का उभाड़ हो आया। उन्हें ऐसी उत्कण्ठा हुई कि हे राजन, वे अपने आपको वाणी द्वारा व्यक्त नहीं कर सके।

36 भक्त वत्सल भगवान कृष्ण अपने शरणागत भक्तों के प्रति सदैव स्नेहित रहते हैं। उन्होंने अक्रूर को अपने चक्रान्कित हाथों से खींचकर, प्रसन्नता-पूर्वक उनका आलिंगन किया।

37-38 जब अक्रूर अपना सिर झुकाये हाथ जोड़कर खड़े थे तो भगवान संकर्षण (बलराम) ने उनके हाथ पकड़ लिये और तब वे कृष्ण सहित उन्हें अपने घर ले गये। अक्रूर से यह पूछने के बाद कि उनकी यात्रा सुखद तो रही, बलराम ने उन्हें बैठने के लिए श्रेष्ठ आसन दिया, शास्त्रोचित विधि से उनके पाँव पखारे और आदरपूर्वक मधुमिश्रित दूध दिया।

39 सर्वशक्तिमान भगवान बलराम ने अक्रूर को एक गाय भेंट की, उनकी थकान दूर करने के लिए उनके पाँव दबाये और तब परम आदर तथा श्रद्धा के साथ भाँति-भाँति के उत्तम स्वादों से युक्त और उचित विधि से तैयार किया गया भोजन खिलाया।

40 जब अक्रूर भरपेट खा चुके तो धार्मिक कर्तव्यों के परम ज्ञाता भगवान बलराम ने उन्हें मुख को मीठा करने वाले सुगन्धित द्रव्य दिये और साथ ही सुगन्धियाँ तथा फूल-मालाएँ भेंट कीं। इस प्रकार अक्रूर ने पुनः परम आनन्द प्राप्त किया।

41 नन्द महाराज ने अक्रूर से पूछा: हे दशार्ह वंशज, उस निर्दयी कंस के जीवित होते हुए आप सभी किस तरह अपना पालन करते हैं? आप तो कसाई के संरक्षण में भेड़ जैसे हैं।

42 उस क्रूर स्वार्थी कंस ने अपनी बिलखती हुई दुखित बहन की उपस्थिति में ही उसके बच्चों को मार डाला। तो फिर हम तुमसे, जो कि उनकी प्रजा हो, कुशलता के विषय में पूछ ही क्या सकते हैं?

43 नन्द महाराज के इन सत्य तथा मधुर वचनों द्वारा सम्मानित होकर अक्रूर अपनी यात्रा की सारी थकान भूल गये।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय सैंतीस -- केशी तथा व्योम असुरों का वध (10.37)

1-2 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: कंस द्वारा भेजा गया केशी असुर व्रज में विशाल घोड़े के रूप में प्रकट हुआ। मन जैसे तेज वेग से दौड़ते हुए वह अपने खुरों से पृथ्वी को विदीर्ण करने लगा। उसकी गर्दन के बालों से सारे आकाश के बादल तथा देवताओं के विमान तितर-बितर हो गये। अपनी भारी हिनहिनाहट से उसने वहाँ पर उपस्थित सबको भयभीत कर दिया।

3 भगवान को अपने सामने खड़ा देखकर केशी अत्यन्त क्रुद्ध होकर उनकी ओर दौड़ा मानो वह आकाश को निगल जायेगा। प्रचण्ड वेग से दौड़ते हुए उस अजेय तथा दुर्धर्ष घोड़ा-असुर ने अपने अगले दो पाँवों से कमलनयन भगवान पर प्रहार करने का प्रयत्न किया।

4 किन्तु दिव्य भगवान ने केशी के प्रहार से अपने को बचा लिया और तब क्रुद्ध होकर अपनी भुजाओं से असुर के पैरों को पकड़कर उसे आकाश में चारों ओर घुमाया और एक सौ धनुष-दूरी पर घृणापूर्वक उसी तरह फेंक दिया जिस प्रकार गरुड़ किसी सर्प को फेंक दे। तब भगवान कृष्ण वहीं खड़े हो गये।

5 पुनः चेतना लौट आने पर केशी क्रोधपूर्वक उठा। उसने अपना मुख पूरा खोल दिया और वह पुनः कृष्ण पर आक्रमण करने दौड़ा। किन्तु कृष्ण हँस दिये और अपनी बाईं भुजा उस घोड़े के मुँह में उसी सुगमता से डाल दी जिस तरह कोई साँप भूमि में बने छेद में घुस जाता है।

6 भगवान के बाहु का स्पर्श होते ही केशी के सारे दाँत गिर पड़े क्योंकि उनका बाहु उस असुर को पिघले लोहे के समान गर्म लग रहा था। तत्पश्चात केशी के शरीर में भगवान का बाहु अत्यधिक फेल गया जिस तरह उपेक्षा करने से जलोदर रोग बढ़ जाता है।

7 ज्योंही कृष्ण की फैलती भुजा ने केशी के श्वास को पूरी तरह अवरुद्ध कर दिया, वह अपने पैर पटकने लगा, उसका शरीर पसीने से लथपथ हो गया और उसकी आँखें उलट गई। तब उस असुर ने मल त्याग दिया और भूमि पर गिरकर निष्प्राण हो गया।

8 महाबाहु कृष्ण ने अपनी बाँह केशी के उस शरीर से निकाल ली जो अब एक लम्बी ककड़ी जैसा प्रतीत हो रहा था। अपने शत्रु को बिना प्रयास के ही मारने के बाद किसी प्रकार का गर्व दिखलाए बिना भगवान ने ऊपर से फूलों की वर्षा के रूप में की गई देवताओं की पूजा स्वीकार की।

9 हे राजन, तत्पश्चात देवर्षि नारद भगवान कृष्ण के पास एकान्त स्थान में गये। इन महाभागवत ने बिना किसी प्रयास के लीला करने वाले भगवान से इस प्रकार कहा ।

10-11 नारदमुनि ने कहा: हे कृष्ण, हे कृष्ण, हे अच्युत, हे अनन्त प्रभु, हे समस्त योगशक्तियों के स्रोत, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, हे समस्त जीवों के आश्रय तथा यदुश्रेष्ठ, वासुदेव, हे प्रभु, आप समस्त जीवों के परमात्मा हैं और हृदय की गुफा में उसी तरह अदृश्य होकर बैठे हुए हैं जिस तरह सुलगती हुई लकड़ी के भीतर अग्नि सुप्त रहती है। आप सबों के भीतर साक्षी स्वरूप, परम पुरुष तथा सर्वनियन्ता देव हैं।

12 आप समस्त जीवों के आश्रय हैं और परम नियन्ता होने के कारण अपनी इच्छाशक्ति से अपनी सारी इच्छाएँ पूरी करते हैं। अपनी निजी सृजन-शक्ति से आपने प्रारम्भ में प्रकृति के आदि गुणों को प्रकट किया और आप उन्हीं के माध्यम से इस ब्रह्माण्ड का सृजन, पालन तथा विनाश करते हैं।

13 आप ही वह स्रष्टा हैं, जो अपने को राजा मानने वाले दैत्यों, प्रमथों तथा राक्षसों का विनाश करने के लिए तथा सन्त पुरुषों की रक्षा करने के लिए, अब इस धरा पर अवतीर्ण हुए हैं।

14 यह घोड़े की आकृति वाला असुर इतना आतंक मचाये हुए था कि उसकी हिनहिनाहट से देवताओं ने भयभीत होकर अपने स्वर्ग के राज्य को छोड़ दिया था। किन्तु हमारे सौभाग्य से आपने खेल-खेल में ही उसे मार दिया है।

15-20 हे सर्वशक्तिमान विभो, दो ही दिनों में मैं आपके हाथों चाणूर, मुष्टिक तथा अन्य पहलवानों के साथ-साथ कुवलयापीड, तथा राजा कंस की भी मृत्यु होते देखूँगा। इसके बाद में कालयवन, मुर, नरक तथा शंख असुर को आपके द्वारा मारा जाते देखूँगा। मैं आपको पारिजात पुष्प चुराते और इन्द्र को पराजित करते देखूँगा। तत्पश्चात अपने पराक्रम से मूल्य चुकाते हुए वीर राजाओं की अनेक कन्याओं के साथ आपको विवाह करते देखूँगा। तब हे ब्रह्माण्डपति, आप द्वारका में राजा नृग का शाप से उद्धार करेंगे और एक अन्य पत्नी के साथ-साथ आप अपने लिए स्यमन्तक मणि भी लेंगे। आप ब्राह्मण के मृत पुत्र को अपने दास यमराज के धाम से वापस लायेंगे और उसके बाद आप पौण्ड्रक का वध करेंगे तथा काशी नगरी को जला देंगे और राजसूय यज्ञ के समय दन्तवक्र तथा चेदिराज का संहार करेंगे। मैं इन सब वीरतापूर्ण लीलाओं को तो देखूँगा ही, साथ ही द्वारका में अपने वास-काल में आप जो अन्य अनेक लीलाएँ करेंगे उन्हें भी देखूँगा। ये सारी लीलाएँ दिव्य कवियों के गीतों में इस धरा पर गाई जाती हैं।

21 तत्पश्चात मैं आपको साक्षात काल के रूप में प्रकट होते, अर्जुन के सारथी के रूप में सेवा करते तथा धरती का भार उतारने के लिए सैनिकों की समस्त सेनाओं का विनाश करते देखूँगा।

22 हे भगवान हमें अपनी शरण में आने दें। आप शुद्ध आध्यात्मिक भिज्ञता से परिपूर्ण हैं और अपने मूल स्वरूप में सदैव स्थित रहते हैं। चूँकि आपकी इच्छा को कभी नकारा नहीं जा सकता, आपने पहले ही यथासम्भव इच्छित वस्तुएँ प्राप्त कर ली हैं और अपनी आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा आप माया के गुण प्रवाह से सतत पृथक रहते हैं।

23 हे आत्म-निर्भर परमनियन्ता, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आपने अपनी शक्ति से इस ब्रह्माण्ड की असीम विशिष्ट व्यवस्था की रचना की है। अब आप यदुओं, वृष्णियों तथा सात्वतों के बीच महानतम वीर के रूप में प्रकट हुए हैं और आपने मानवीय युद्ध में भाग लेने का निर्णय किया है।

24 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार यदुवंश के प्रधान भगवान कृष्ण को सम्बोधित करने के बाद नारद ने झुककर सादर प्रणाम किया। तत्पश्चात मुनियों में महान तथा भक्तों में विख्यात नारद ने भगवान से विदा ली और उनका साक्षात दर्शन करने से उत्पन्न परम हर्ष का अनुभव करते हुए चले गये।

25 युद्ध में असुर केशी को मारने के बाद भगवान कृष्ण अपने प्रमुदित ग्वालमित्रों के साथ गौवों तथा अन्य पशुओं को चराते रहे। इस तरह उन्होंने वृन्दावन के समस्त वासियों को हर्ष-उल्लास पहुँचाया।

26 एक दिन पर्वत की ढलानों पर अपने पशु चराते हुए ग्वालबालों ने आपस में प्रतिद्वन्द्वी चोरों तथा मवेशी-पालकों (गडेरियों) का अभिनय करते हुए लुकाछिपी का खेल खेला।

27 हे राजन, उस खेल में कुछ ग्वाले चोर बने, कुछ गडरिये तथा अन्य भेड़ बने। वे किसी संकट के भय के बिना सुखचैन से अपना खेल, खेल रहे थे।

28 तब व्योम नामक एक शक्तिशाली जादूगर, जो असुर मय का पुत्र था, एक ग्वालबाल के वेश में वहाँ प्रकट हुआ। वह चोर के रूप में खेल में सम्मिलित होने का बहाना करते हुए, भेड़ बनने वाले अधिकांश ग्वालबालों को चुराने के लिए आगे बढ़ा।

29 उस महा असुर ने धीरे धीरे अधिकाधिक ग्वालों का अपहरण कर लिया और उन्हें एक पर्वत-गुफा में ले जाकर फेंक दिया तथा उसके द्वार को एक बड़े पत्थर से बन्द कर दिया। अन्त में केवल चार-पाँच बालक बचे जो खेल में भेड़ बने थे।

30 समस्त सन्त भक्तों को शरण देने वाले भगवान कृष्ण अच्छी तरह जान गये कि व्योमासुर कर क्या रहा है। जिस तरह कोई सिंह भेड़िये को दबोच लेता है उसी तरह कृष्ण ने उस असुर को जब वह अन्य ग्वालबालों को लिये जा रहा था बलपूर्वक धर दबोचा।

31 वह असुर अपने मूल रूप में परिणत होकर विशाल पर्वत के समान बड़ा तथा बली बन गया। किन्तु वह कठोर प्रयास के बावजूद अपने को छुड़ा न पाया क्योंकि भगवान की मजबूत पकड़ में होने से वह अपनी शक्ति खो चुका था।

32 भगवान अच्युत ने व्योमासुर को अपनी बाहों के बीच में पकड़कर पृथ्वी पर पटक दिया। तब स्वर्ग से देवताओं के देखते-देखते कृष्ण ने उसे उसी तरह मार दिया, जिस तरह कोई बलि-पशु का वध करता है।

33 तत्पश्चात कृष्ण ने गुफा के दरवाजे को अवरुद्ध करने वाले शिलाखण्ड को चूर चूर कर दिया और बन्दी बनाये गये ग्वालबालों को वे सुरक्षित स्थान पर ले आये। इसके बाद देवताओं तथा ग्वालों द्वारा उनका यशोगान होने लगा और वे अपने ग्वाल-ग्राम गोकुल, लौट गये।

 

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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