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अध्याय पैंतालीस - कृष्ण द्वारा अपने गुरु पुत्र की रक्षा (10.45)  

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: यह जानकर कि कृष्ण के माता-पिता उनके दिव्य ऐश्वर्य से अवगत हो चुके हैं, भगवान ने यह सोचा कि ऐसा नहीं होने दिया जाना चाहिए। अतः उन्होंने भक्तों को मोहने वाली अपनी योगमाया का विस्तार किया।

2 सात्वतों में महानतम भगवान कृष्ण अपने बड़े भाई सहित अपने माता-पिता के पास पहुँचे। वे उन्हें विनयपूर्वक शीश झुकाकर और आदरपूर्वक “हे माते“ तथा "हे पिताश्री“ सम्बोधित करके प्रसन्न करते हुए इस प्रकार बोले।

3 भगवान कृष्ण ने कहा: हे पिताश्री, हम दो पुत्रों के कारण आप तथा माता देवकी सदैव चिन्ताग्रस्त रहते रहे और कभी भी हमारे बाल्यकाल, पौगण्ड तथा किशोर अवस्थाओं का आनन्द भोग नहीं पाये।

4 भाग्य द्वारा वंचित हम दोनों न तो आपके साथ रह पाये, न ही अधिकांश बालकों को उनके माता-पिता के घर में मिलने वाले लाड़-प्यार के सुख को हम भोग सके।

5 मनुष्य अपने शरीर से जीवन के सारे लक्ष्य प्राप्त कर सकता है और उसके माता-पिता ही हैं जो इस शरीर को जन्म देते और उसका पोषण करते हैं। अतः कोई भी मर्त्यप्राणी, एक सौ वर्ष के पूरे जीवनकाल तक उनकी सेवा करके भी, मातृ-पितृ ऋण से उऋण नहीं हो सकता ।

6 जो पुत्र समर्थ होते हुए भी अपने माता-पिता को अपने शारीरिक साधन तथा सम्पत्ति दिलाने में विफल रहता है, उसे मृत्यु के बाद अपना ही मांस खाने के लिए बाध्य होना पड़ता है।

7 जो व्यक्ति समर्थ होकर भी अपने बूढ़े माता-पिता, साध्वी पत्नी, छोटे पुत्र या गुरु का भरण पोषण करने से चूकता है या किसी ब्राह्मण या शरण में आये हुए की उपेक्षा करता है, वह जीवित होते हुए भी मरा हुआ माना जाता है।

8 इस तरह हमने इतने सारे दिन आपका समुचित सम्मान करने में असमर्थ होने के कारण व्यर्थ में ही गँवा दिये, क्योंकि हमारे मन सदैव कंस के भय से विचलित थे।

9 हे पिता तथा माता, आप हम दोनों को आपकी सेवा न कर पाने के लिए क्षमा कर दें। हम स्वतंत्र नहीं थे और क्रूर कंस द्वारा अत्यधिक त्रस्त कर दिये गये थे।

10 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार ब्रह्माण्ड के परमात्मा एवं अपनी अन्तरंगा भ्रामक शक्ति से मनुष्य रूप में प्रकट होनेवाले भगवान हरि के वचनों से मोहित होकर उनके माता-पिता ने हर्षपूर्वक उन्हें अपनी गोद में उठाकर उनका आलिंगन किया।

11 भगवान के ऊपर अश्रुओं की धारा ढुलकाते हुए, स्नेह की रस्सी से बँधे उनके माता-पिता बोल न पाये। हे राजन, वे भावविभोर थे और उनके गले अश्रुओं से अवरुद्ध हो चले थे।

12 अपने माता-पिता को इस तरह सान्त्वना देकर तथा देवकीपुत्र के रूप में प्रकट हुए, भगवान ने अपने नाना उग्रसेन को यदुओं का राजा बना दिया।

13 भगवान ने उनसे कहा: हे महाराज, हम आपकी प्रजा हैं, अतः आप हमें आदेश दें। दरअसल, ययाति के शाप के कारण कोई भी यदुवंशी राज-सिंहासन पर नहीं बैठ सकता।

14 चूँकि मैं आपके निजी सेवक के रूप में आपके पार्षदों के बीच उपस्थित हूँ अतः सारे देवता तथा अन्य प्रतिष्ठित व्यक्ति आपको अभिवादन करने के लिए सिर झुकाते हुए आयेंगे। तो फिर मनुष्यों के शासकों के लिए क्या कहा जाय?

15-16 तत्पश्चात भगवान अपने सारे नजदीकी परिवार वालों तथा अन्य सम्बन्धियों को उन विविध स्थानों से वापस लाये जहाँ वे कंस के भय से भाग कर गये थे। उन्होंने यदुओं, वृष्णियों, अन्धकों, मधुओं, दाशार्हों, कुकुरों इत्यादि जाति-पक्ष वालों को सम्मानपूर्वक बुलवाया और उन्हें सान्त्वना भी दी क्योंकि वे विदेशी स्थानों में रहते-रहते थक चुके थे। तत्पश्चात ब्रह्माण्ड के स्रष्टा भगवान कृष्ण ने उन्हें उनके अपने घरों में फिर से बसाया और बहुमूल्य भेंटों से उनका सत्कार किया।

17-18 इन वंशों के लोगों ने भगवान कृष्ण तथा संकर्षण की बाहुओं का संरक्षण पाकर यह अनुभव किया कि उनकी सारी इच्छाएँ पूरी हो गई। इस तरह वे अपने परिवारों के साथ अपने घरों में रहते हुए पूर्ण सुख का भोग करने लगे। कृष्ण तथा बलराम की उपस्थिति से अब उन्हें सांसारिक ज्वर नहीं सताता था। ये प्रेमी भक्त प्रतिदिन मुकुन्द के कमल सदृश नित्य प्रफुल्लित मुख को देख सकते थे, जो सुन्दर दयामय मन्दहास युक्त चितवनों से विभूषित था।

19 यहाँ तक कि उस नगरी के अत्यन्त वृद्धजन भी शक्ति तथा ओज से पूर्ण युवा लगने लगे क्योंकि वे अपनी आँखों से निरन्तर भगवान मुकुन्द के कमल-मुख का अमृत-पान करते थे।

20 तत्पश्चात, हे महान राजा परीक्षित, देवकीपुत्र भगवान कृष्ण भगवान बलराम के साथ नन्द महाराज के पास पहुँचे। दोनों विभुओं ने उनका आलिंगन किया और उनसे इस प्रकार बोले।

21 कृष्ण और बलराम ने कहा: हे पिताश्री, आप तथा माता यशोदा ने हम दोनों को बड़े स्नेह से पाला-पोसा है और हमारी इतनी अधिक परवाह की है। निस्सन्देह माता-पिता अपनी सन्तानों को अपने प्राणों से भी अधिक प्यार करते हैं।

22 वे ही असली माता-पिता हैं, जो पालन-पोषण और देख-रेख करने में असमर्थ सम्बन्धियों द्वारा परित्यक्त बालकों की देखभाल अपने ही पुत्रों की तरह करते हैं।

23 हे पिताश्री, अब आप सब व्रज लौट जाँय। हम आपके शुभचिन्तक मित्रों को कुछ सुख दे लेने के बाद तुरन्त ही आपको तथा अपने उन प्रिय सम्बन्धियों को देखने के लिए आयेंगे जो हमारे वियोग से दुखी हैं।

24 इस प्रकार नन्द महाराज तथा व्रज के अन्य लोगों को सान्त्वना देकर अच्युत भगवान ने उन सबों का वस्त्र, आभूषण, घरेलू-पात्र इत्यादि उपहारों से आदर समेत सत्कार किया।

25 कृष्ण के शब्द सुनकर नन्द महाराज भावविह्वल हो गये और अश्रुपूरित नेत्रों से उन्होंने दोनों भाइयों को गले लगाया। तत्पश्चात वे ग्वालजनों के साथ व्रज लौट गये।

26 हे राजन, तब शूरसेन पुत्र वसुदेव ने अपने दोनों पुत्रों का द्विज संस्कार कराने के लिए एक पुरोहित तथा अन्य ब्राह्मणों की व्यवस्था की।

27 वसुदेव ने इन ब्राह्मणों की पूजा करते हुए तथा उन्हें सुन्दर आभूषण और सुन्दर आभूषणों से सजी बछड़ों युक्त गौवें भेंट करके सम्मानित किया। ये सभी गौवें सुनहरे हार तथा रेशमी मालाएँ धारण किये थीं।

28 तब महात्मा वसुदेव को कृष्ण तथा बलराम के जन्म के अवसर पर मन ही मन दान की गई गौवों का स्मरण हो आया। कृष्ण आविर्भाव के समय वसुदेव कंस द्वारा बन्दी बना लिए गये थे और कंस ने उनकी गौवें चुरा ली थीं। कंस की मृत्यु हो जाने पर वसुदेव ने वे सारी गौवें फिर से प्राप्त कर लीं और उन्हें सुपात्र ब्राह्मणों को दान में दे दिया।

29 दीक्षा द्वारा द्विजत्व प्राप्त कर लेने के बाद व्रतनिष्ठ दोनों भाइयों ने यदुवंश के गुरु गर्ग मुनि से ब्रह्मचर्य का व्रत ग्रहण किया।

30-31 अपने मनुष्य जैसे कार्यों से अपने पूर्णज्ञान को भीतर ही भीतर रखते हुए, ब्रह्माण्ड के इन दो सर्वज्ञ भगवानों ने, ज्ञान की समस्त शाखाओं के उद्गम होते हुए भी, गुरुकुल में जाकर रहने की इच्छा व्यक्त की। इस तरह वे काशीवासी सांदीपनी मुनि के पास पहुँचे जो अवन्ती नगरी में रह रहे थे।

32 सांदीपनी इन दोनों आत्म-संयमी शिष्यों के प्रति बहुत ही उच्च विचार रखते थे जिन्हें उन्होंने अकस्मात प्राप्त किया था। दोनों ने गुरु की साक्षात भगवान जैसी ही भक्तिपूर्वक सेवा करते हुए अन्यों के समक्ष अनिंद्य उदाहरण प्रस्तुत किया कि किस तरह आध्यात्मिक गुरु की पूजा की जाती है।

33 ब्राह्मणश्रेष्ठ गुरु सांदीपनी उनके विनीत आचरण से संतुष्ट थे अतः उन्होंने दोनों को सारे वेद छह वेदांगों सहित तथा उपनिषद पढ़ाये।

34 उन दोनों को रहस्यों सहित धनुर्वेद की शिक्षा दी। साथ ही मानक विधि ग्रंथ, तर्क तथा दर्शन विषयक वाद-विवाद की विधियाँ और राजनीति शास्त्र के छह भेदों की भी शिक्षा दी।

35-36 हे राजन पुरुषश्रेष्ठ कृष्ण तथा बलराम स्वयं ही सभी प्रकार की विद्याओं के आदि प्रवर्तक होने के कारण किसी भी विषय की व्याख्या को एक ही बार में सुनकर तुरन्त आत्मसात कर सकते थे। इस तरह उन्होंने एकाग्र चित्त से चौंसठ कलाओं तथा चातुरियों को उतने ही दिनों तथा रातों में सीख लिया। तत्पश्चात हे राजन, उन्होंने गुरु-दक्षिणा देकर अपने गुरु को प्रसन्न किया।

37 हे राजन, विद्वान ब्राह्मण सांदीपनी ने दोनों विभुओं के यशस्वी तथा अद्भुत गुणों एवं उनकी अति मानवीय बुद्धि के बारे में ध्यानपूर्वक विचार किया। तत्पश्चात अपनी पत्नी से परामर्श करके उन्होंने गुरु-दक्षिणा के रूप में अपने नन्हें पुत्र की वापसी को चुना जो प्रभास क्षेत्र के समुद्र में मर चुका था।

38 असीम पराक्रम वाले दोनों महारथियों ने उत्तर दिया, “बहुत अच्छा" और तुरन्त ही अपने रथ पर सवार होकर प्रभास के लिए रवाना हो गये। जब वे उस स्थान पर पहुँचे तो वे समुद्र तट तक पैदल गये और वहाँ बैठ गये। क्षणभर में समुद्र का देवता उन्हें भगवान के रूप में पहचान कर श्रद्धा-रूप भेंट लेकर उनके निकट आया।

39 भगवान कृष्ण ने समुद्र के स्वामी से कहा,मेरे गुरु के पुत्र को तुरन्त उपस्थित किया जाये जिसे तुमने अपनी बलशाली लहरों से यहाँ जकड़ रखा है।"

40 समुद्र ने उत्तर दिया,हे भगवान कृष्ण, उसका हरण मैंने नहीं अपितु दिति के वंशज पंचजन नामक एक दैत्य ने किया है, जो शंख के रूप में जल में विचरण करता रहता है।"

41 सागर ने कहा, निस्सन्देह उसी दैत्य ने उस बालक को चुरा लिया है। यह सुनकर भगवान कृष्ण ने समुद्र में से पंचजन को बाहर निकाला और उसे मार दिया। किन्तु भगवान को उस दैत्य के पेट के भीतर वह बालक नहीं मिला।

42-44 भगवान जनार्दन ने वह शंख ले लिया जो उस दैत्य के शरीर के चारों ओर उगा हुआ था और रथ पर वापस चले गये। इसके पश्चात वे यमराज की प्रिय राजधानी संयमनी गये। भगवान बलराम के साथ वहाँ पहुँचकर उन्होंने तेजी से अपना शंख बजाया और उस गूँजती हुई आवाज को सुनते ही बद्धजीवों को नियंत्रण में रखने वाला यमराज वहाँ पहुँचा। यमराज ने दोनों विभुओं की अत्यन्त भक्तिपूर्वक पूजा की और तब प्रत्येक हृदय में वास करने वाले भगवान कृष्ण से कहा, “ हे भगवान विष्णु, मैं आपके लिए तथा भगवान बलराम के लिए जो सामान्य मनुष्यों की भूमिका अदा कर रहे हैं, क्या करूँ?“

45 भगवान ने कहा, “अपने विगत कर्मबन्धन का भोग करने से मेरे गुरु का पुत्र आपके पास यहाँ लाया गया है। हे महान राजा, मेरे आदेश का पालन करो और अविलम्ब उस बालक को मेरे पास ले आओ।"

46 यमराज ने कहा,जो आज्ञा" और गुरु-पुत्र को सामने ला दिया। तत्पश्चात यदुओं में श्रेष्ठ उन दोनों ने उस बालक को लाकर अपने गुरु को भेंट करते हुए उनसे कहा, “कृपया दूसरा वर माँगिये।"

47 गुरु ने कहा: मेरे प्रिय बालकों, तुम दोनों ने अपने गुरु को दक्षिणा देने के शिष्य-दायित्व को पूरा कर लिया है। निस्सन्देह, तुम जैसे शिष्यों से गुरु को और क्या इच्छाएँ हो सकती हैं?

48 हे वीरों, अब तुम अपने घर लौट जाओ। तुम्हारा यश संसार को पवित्र बनाये और इस जन्म में तथा अगले जन्म में वैदिक स्तुतियाँ तुम्हारे मन में सदैव ताजी बनीं रहें।

49 इस तरह अपने गुरु से विदा होने की अनुमति पाकर दोनों भाई अपने रथ पर बैठ अपनी नगरी लौट आये। यह रथ वायु की तेजी से चल रहा था और बादल की तरह गूँज रहा था।

50 सारे नागरिक, जिन्होंने अनेक दिनों से कृष्ण तथा बलराम को नहीं देखा था, उन्हें देखकर परम प्रसन्न हुए। लोगों को वैसा ही लगा, जिस तरह धन खोये हुओं को उनका धन वापस मिल जाय।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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Comments

  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
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