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अध्याय उनचास – अक्रूर का हस्तिनापुर जाना (10.49) 

1-2 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अक्रूर पौरव शासकों की ख्याति से प्रसिद्ध नगरी हस्तिनापुर गये। वहाँ वे धृतराष्ट्र, भीष्म, विदुर तथा कुन्ती के साथ-साथ बाह्यिक तथा उसके पुत्र सोमदत्त से मिले। उन्होंने द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, अश्वत्थामा, पाण्डवगण तथा अन्य घनिष्ठ मित्रों से भी भेंट की।

3 जब गान्दिनीपुत्र अक्रूर अपने समस्त सम्बन्धियों तथा मित्रों से भलीभाँति मिल चुके तो उन लोगों ने अपने परिवार वालों के समाचार पूछे और प्रत्युत्तर में अक्रूर ने उनकी कुशलता पूछी।

4 वे हस्तिनापुर में दुर्बल इच्छा शक्ति वाले राजा के आचरण की छानबीन करने के लिए कई मास रहे जिसके पुत्र बुरे थे और जो अपने दुष्ट सलाहकारों की इच्छानुसार कार्य करता रहता था।

5-6 अक्रूर से कुन्ती तथा विदुर ने धृतराष्ट्र के पुत्रों की दुर्भावनाओं का विस्तार से वर्णन किया। वे कुन्ती के पुत्रों के महान गुणों यथा – उनके शक्तिशाली प्रभाव, सैन्य-कौशल, शारीरिक बल, बहादुरी तथा विनयशीलता या उनके प्रति नागरिकों के अगाध स्नेह को सहन नहीं कर सकते थे। कुन्ती तथा विदुर ने अक्रूर को यह भी बतलाया कि धृतराष्ट्र के पुत्रों ने किस तरह पाण्डवों को विष देने तथा ऐसे ही अन्य षडयंत्रों को रचने का प्रयास किया था।

7 अपने भाई अक्रूर के आने का लाभ उठाकर कुन्तीदेवी उनके पास चुपके से पहुँची। अपनी जन्मभूमि (मायका) का स्मरण करते हुए वे अपनी आँखों में आँसू भरकर बोलीं।

8 महारानी कुन्ती ने कहा: हे भद्र पुरुष, क्या मेरे माता-पिता, भाई, बहनें, भतीजे, परिवार की स्त्रियाँ तथा बचपन की सखियाँ अब भी हमें याद करती हैं?

9 क्या मेरा भतीजा कृष्ण, जो भगवान है और अपने भक्तों की कृपालु शरण रूप है, अब भी अपनी बुआ के पुत्रों को स्मरण करता है? क्या कमल जैसी आँखों वाला राम भी उन्हें स्मरण करता है?

10 इस समय जब मैं अपने शत्रुओं के बीच में उसी तरह कष्ट भोग रही हूँ जिस तरह एक हिरणी भेड़ियों के बीच में पाती है, तो क्या कृष्ण मुझे तथा पितृविहीन मेरे पुत्रों को अपनी वाणी से सान्त्वना देने आयेंगे ?

11 हे कृष्ण, हे कृष्ण! हे महान योगी! हे परमात्मा तथा ब्रह्माण्ड के रक्षक! हे गोविन्द! मेरी रक्षा कीजिये। मैं आपकी शरण में हूँ। मैं तथा मेरे पुत्र दुख से अभिभूत हैं।

12 जो लोग मृत्यु तथा पुनर्जन्म से भयभीत हैं, उनके लिए मैं आपके मोक्षदाता चरणकमलों के अतिरिक्त अन्य कोई शरण नहीं देखती, क्योंकि आप परमेश्वर हैं।

13 मैं परम शुद्ध, परम सत्य, परमात्मा, शुद्ध भक्ति के स्वामी तथा समस्त ज्ञान के उद्गम को नमस्कार करती हूँ। मैं आपकी शरण में आई हूँ।

14 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, इस तरह अपने परिवार वालों का तथा ब्रह्माण्ड के स्वामी कृष्ण का स्मरण करके आपकी परदादी कुन्तीदेवी शोक में रोने लगीं।

15 महारानी कुन्ती के सुख-दुख में हिस्सा बटाने वाले अक्रूर तथा सुविख्यात विदुर दोनों ने ही कुन्ती को इनके पुत्रों के जन्म की असाधारण घटना की याद दिलाते हुए सान्त्वना दी।

16 राजा धृतराष्ट्र के अपने पुत्रों के प्रति अत्यधिक स्नेह ने उसे पाण्डवों के प्रति अन्यायपूर्ण व्यवहार करने के लिए बाध्य किया था। प्रस्थान करने के पूर्व अक्रूर राजा के पास गए जो उस समय अपने मित्रों तथा समर्थकों के बीच बैठा था। अक्रूर ने उसे वह सन्देश दिया जो उनके सम्बन्धी कृष्ण तथा बलराम ने मैत्रीवश भेजा था।

17 अक्रूर ने कहा: हे प्रिय विचित्रवीर्य के पुत्र, हे कुरुओं की कीर्ति को बढ़ाने वाले, आपने अपने भाई पाण्डु के दिवंगत होने के बाद राजसिंहासन ग्रहण किया है।

18 धर्मपूर्वक पृथ्वी की रक्षा करते हुए, अपनी सच्चरित्रता से अपनी प्रजा को प्रसन्न रखते हुए तथा अपने सारे सम्बन्धियों के साथ एकसमान व्यवहार करते हुए आप अवश्य ही सफलता तथा कीर्ति प्राप्त करेंगे।

19 किन्तु यदि आप अन्यथा आचरण करेंगे तो लोग इसी लोक में आपकी निन्दा करेंगे और अगले जन्म में आपको नारकीय अंधकार में प्रवेश करना होगा। अतः आप पाण्डु के पुत्रों तथा अपने पुत्रों के प्रति एक सा बर्ताव करें।

20 हे राजन, इस जगत में किसी का किसी अन्य से कोई स्थायी सम्बन्धी नहीं है। हम अपने ही शरीर के साथ जब सदा के लिए नहीं रह सकते तो फिर हमारी पत्नी, सन्तान तथा अन्यों के लिए क्या कहा जा सकता है?

21 हर प्राणी अकेला उत्पन्न होता है और अकेला मरता है। अकेला ही वह अपने अच्छे और बुरे कर्मों के फलों का भी अनुभव करता है।

22 प्रिय आश्रितों के वेश में अनजाने लोग मूर्ख व्यक्ति द्वारा पाप से अर्जित सम्पत्ति को उसी तरह चुरा लेते हैं जिस तरह मछली की सन्तानें उस जल को पी जाती हैं, जो उनका पालन करनेवाला है।

23 मूर्ख व्यक्ति अपने जीवन, सम्पत्ति तथा सन्तान एवं अन्य सम्बन्धियों का भरण-पोषण करने के लिए पापकर्म में प्रवृत्त होता है क्योंकि वह सोचता है "ये वस्तुएँ मेरी हैं।" किन्तु अन्त में ये ही वस्तुएँ उसे कुण्ठित अवस्था में छोड़ जाती हैं।

24 अपने तथाकथित आश्रितों से परित्यक्त होकर, जीवन के वास्तविक लक्ष्य से अनजान, असली कर्तव्य से उदासीन तथा अपने उद्देश्यों को पूरा करने में असफल होकर, वह मूर्ख व्यक्ति पापकर्मों को अपने साथ लेकर नरक के अंधकार में प्रवेश करता है।

25 अतः हे राजन, इस संसार को स्वप्नवत, जादूगर का मायाजाल या मन की उड़ान समझकर, बुद्धि से अपने मन को वश में कीजिये और हे स्वामी! आप समभाव तथा शान्त बनिये।

26 धृतराष्ट्र ने कहा: हे दानपति, मैं आपके शुभ-वचनों को सुनते हुए कभी भी तृप्त नहीं हो सकता। निस्सन्देह, मैं उस मर्त्य प्राणी की तरह हूँ जिसे देवताओं का अमृत प्राप्त हो चुका है।

27 फिर भी हे भद्र अक्रूर, क्योंकि मेरा अस्थिर हृदय अपने पुत्रों के स्नेह से पक्षपातयुक्त है इसलिए आपके ये मोहक शब्द हृदय में स्थिर नहीं टिक पाते, जिस तरह बिजली बादल में स्थिर नहीं रह सकती।

28 भला उन भगवान के आदेशों का उल्लंघन कौन कर सकता है, जो पृथ्वी का भार कम करने के लिए अब यदुवंश में अवतार ले चुके हैं?

29 मैं उन भगवान को नमस्कार करता हूँ जो अपनी भौतिक शक्ति की अचिन्त्य क्रियाशीलता से इस ब्रह्माण्ड का सृजन करते हैं और फिर सृष्टि के भीतर प्रविष्ट होकर प्रकृति के विभिन्न गुणों को वितरित कर देते हैं। जिनकी लीलाओं का अर्थ अगाध है, उन्हीं से यह जन्म-मृत्यु का बन्धनकारी चक्र तथा उससे मोक्ष पाने की विधि उत्पन्न हुए हैं।

30 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह राजा के अभिप्राय को समझकर यदुवंशी अक्रूर ने अपने शुभचिन्तक सम्बन्धियों तथा मित्रों से अनुमति ली और यादवों की राजधानी लौट आये।

31 अक्रूर ने बलराम तथा कृष्ण को यह सूचित किया कि धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति कैसा बर्ताव है। इस तरह हे कुरुवंशी, उन्होंने उस अभिप्राय की पूर्ति कर दी जिसके लिए वे भेजे गये थे।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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Comments

  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
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