10864396464?profile=RESIZE_584x

अध्याय सोलह – जम्बूद्वीप का वर्णन (5.16)

1 राजा परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से कहा: हे ब्राह्मण, आपने मुझे पहले ही बता दिया है कि भूमण्डल की त्रिज्या वहाँ तक विस्तृत है जहाँ तक सूर्य का प्रकाश और ऊष्मा पहुँचती है तथा चन्द्रमा और अन्य नक्षत्र दृष्टिगोचर होते हैं।

2 हे भगवन, महाराज प्रियव्रत के रथ के चक्रायमाण पहियों से सात गड्डे हुए, जिससे सात समुद्रों की उत्पत्ति हुई। इन सात समुद्रों के ही कारण भूमण्डल सात द्वीपों में विभक्त है। आपने इनकी माप, नाम तथा विशिष्टताओं का अत्यन्त सामान्य वर्णन मात्र किया है। मुझे विस्तार से इनके सम्बन्ध में जानने की इच्छा है। कृपया मेरी कामना पूर्ण करें।

3 जब मन प्रकृति के गुणों से निर्मित पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के बाह्यरूप – स्थूल विश्व रूप--पर स्थिर हो जाता है, तो उसे शुद्ध सत्त्व की स्थिति प्राप्त होती है। उस दिव्य स्थिति में ही भगवान वासुदेव को जाना जा सकता है जो अपने सूक्ष्मरूप में स्वतः प्रकाशित और गुणातीत हैं। हे प्रभो, विस्तार से वर्णन करें कि वह रूप जो सारे विश्व में व्याप्त है किस प्रकार देखा जाता है।

4 ऋषिश्रेष्ठ श्रील शुकदेव गोस्वामी बोले- हे राजन, श्रीभगवान की माया के विस्तार की कोई सीमा नहीं है। यह भौतिक जगत सत्त्व, रज तथा तम इन तीन गुणों का रूपान्तर है, फिर भी ब्रह्मा के समान दीर्घ आयु पाकर भी इसकी व्याख्या कर पाना सम्भव नहीं है। इस भौतिक जगत में कोई भी पूर्ण नहीं और अपूर्ण मनुष्य सतत चिन्तन के बाद भी इस भौतिक ब्रह्माण्ड का सही वर्णन नहीं कर सका। तो भी, हे राजन, मैं भूगोलक (भूलोक) जैसे प्रमुख भूखण्डों की उनके नामों, रूपों, प्रमापों तथा विविध लक्षणों सहित व्याख्या करने का प्रयत्न करूँगा।

5 भूमण्डल नाम से विख्यात ग्रह कमल पुष्प के अनुरूप है और इसके सातों द्वीप पुष्प-कोश के सदृश हैं। इस कोश के मध्य में स्थित जम्बूद्वीप की लम्बाई तथा चौड़ाई दस लाख योजन (अस्सी लाख मील) है। जम्बूद्वीप कमल-पत्र के समान गोल है।

6 जम्बूद्वीप में नौ वर्ष (खण्ड) हैं जिनमें से प्रत्येक की लम्बाई 9000 योजन (72000 मील) है। इन खण्डों की सीमा अंकित करने वाले आठ पर्वत हैं, जो उन्हें भलीभाँति विलग करते हैं।

7 इन खण्डों(वर्षों) में से इलावृत नाम का एक वर्ष है जो कमल-कोश के मध्य में स्थित है। इलावृत वर्ष में ही सुवर्ण का बना हुआ सुमेरु पर्वत है। यह कमल जैसे भूमण्डल के बाह्य-आवरण की तरह है। इस पर्वत की चौड़ाई जम्बूद्वीप की चौड़ाई के तुल्य, अर्थात एक लाख योजन या आठ लाख मील है, जिसमें से 16000 योजन (128000 मील) पृथ्वी के भीतर है, जिससे पृथ्वी के ऊपर पर्वत की ऊँचाई केवल 84000 योजन (672000 मील) ही है। शीर्ष पर इस पर्वत की चौड़ाई 32000 योजन (256000 मील) और पाद भाग पर 16000 योजन है।

8 इलावृत-वर्ष के सुदूर उत्तर में क्रमशः नील, श्वेत तथा शृंगवान नामक तीन पर्वत हैं। ये तीनों रम्यक, हिरण्मय तथा कुरु इन तीन वर्षों की सीमा-रेखा बनाने वाले हैं और इनको एक दूसरे से विभक्त करने वाले हैं। इन पर्वतों की कुल चौड़ाई 2000 योजन (16000 मील) है। लम्बाई में ये पूर्व से पश्चिम की ओर लवण सागर के तट तक विस्तृत हैं। दक्षिण से उत्तर की ओर बढ्ने पर प्रत्येक पर्वत की लम्बाई अपने पूर्ववर्ती पर्वत की दशमांश होती जाती है, किन्तु इन सबकी ऊँचाई एक सी रहती है।

9 इसी प्रकार, इलावृत-वर्ष के दक्षिण में तथा पूर्व से पश्चिम को फैले हुए तीन विशाल पर्वत हैं (उत्तर से दक्षिण को) जिनके नाम हैं--निषध, हेमकूट तथा हिमालय। इनमें से प्रत्येक 10000 योजन (80000 मील) ऊँचाई है। ये हरिवर्ष, किम्पुरुष-वर्ष तथा भारतवर्ष नामक तीन वर्षों की सीमाओं के सूचक हैं।

10 इसी प्रकार से इलावृत-वर्ष के पूर्व तथा पश्चिम क्रमशः माल्यवान और गन्धमादन नामक दो विशाल पर्वत हैं। ये दोनों 2000 योजन (16000 मील) ऊँचे हैं और उत्तर में नीलपर्वत तक तथा दक्षिण में निषध तक फैले हैं। ये इलावृत-वर्ष की ओर केतुमाल तथा भद्राश्व नामक वर्षों की सीमाओं के सूचक हैं।

11 सुमेरु पर्वत की चारों दिशाओं में मन्दर, मेरुमन्दर, सुपार्श्व तथा कुमुद नामक चार पर्वत हैं, जो इसकी मेखलाओं के सदृश हैं। ये पर्वत 10000 योजन (80000 मील) ऊँचे तथा इतने ही चौड़े हैं।

12 इन चारों पर्वतों की चोटियों पर ध्वजाओं के रूप में एक एक आम्र, जामुन, कदम्ब तथा वटवृक्ष हैं। इन वृक्षों का घेरा 100 योजन (800 मील) तथा ऊँचाई 1100 योजन (8800 मील) है। इनकी शाखाएँ 1100 योजन की त्रिज्या में फैली हैं।

13-14 भरतवंश में श्रेष्ठ, हे महाराज परीक्षित, इन चारों पर्वतों के मध्य में चार विशाल सरोवर हैं। इनमें से पहले का जल दुग्ध की तरह, दूसरे का मधु के सदृश और तीसरे का इक्षुरस की भाँति स्वादिष्ट है। चौथा सरोवर विशुद्ध जल से परिपूर्ण है। इन चारों सरोवरों की सुविधा का उपभोग सिद्ध, चारण तथा गन्धर्व जैसे अपार्थिव प्राणी, जिन्हें देवता भी कहा जाता है, करते हैं। फलस्वरूप उन्हें योग की सहज सिद्धियाँ--यथा, सूक्ष्मतम से सूक्ष्मतर रूप धारण करने की शक्तियाँ--प्राप्त हैं। इसके अतिरिक्त चार देव-उद्यान भी हैं, जिनके नाम हैं--नन्दन, चैत्ररथ, वैभ्राजक तथा सर्वतोभद्र दीर्घतर।

15 इन उद्यानों में श्रेष्ठतम देवगण अपनी-अपनी सुन्दर पत्नियों के सहित जो स्वर्गिक सौन्दर्य के आभूषणों जैसी हैं, एकत्र होकर आनन्द लेते हैं और गन्धर्व-जन उनका यशगान करते हैं।

16 मन्दर पर्वत की निचली ढलान पर एक आम्रवृक्ष है, जिसकी ऊँचाई 1100 योजन है। इस वृक्ष की चोटी से पर्वतशृंग जितने बड़े तथा अमृत तुल्य मधुर फल गिरते रहते हैं जिनका उपभोग दिव्य लोक के निवासी करते हैं।

17 इतनी ऊँचाई से गिरने के कारण वे सभी आम्रफल फट जाते हैं और उनका मधुर, सुगन्धित रस बाहर निकल आता है। यह रस अन्य सुगन्धियों से मिलकर अत्यधिक सुरभित हो जाता है। यही रस पर्वत से झरनों में जाता है और अरुणोदा नामक नदी का रूप धारण कर लेता है जो इलावृत की पूर्व दिशा से होकर बहती है।

18 यक्षों की पवित्र पत्नियाँ भगवान शंकर की अर्धांगिनी भवानी की अनुचरी हैं। अरुणोदा नदी के जल का पान करने के कारण उनके शरीर सुगन्धित हो जाते हैं। वायु उनके शरीर का स्पर्श करके उस सुगन्ध से अस्सी मील तक चारों ओर के वायुमण्डल को सुरभित कर देती है।

19 इसी प्रकार रस से भरे और अत्यन्त छोटी गुठली वाले जामुन के फल अत्यधिक ऊँचाई से गिरकर खण्ड-खण्ड हो जाते हैं। ये फल हाथी जैसे आकार वाले होते हैं और इनका रस बहकर जम्बूनदी का रूप धारण कर लेता है। यह नदी इलावृत के दक्षिण में मेरुमन्दर की चोटी से दस हजार योजन नीचे गिरकर समस्त इलावृत भूखण्ड को रस से आप्लावित करती है।

20-21 जम्बूनदी के दोनों तटों का कीचड़ जामुनफल के बहते हुए रस से सिक्त होकर और फिर वायु तथा सूर्य प्रकाश के कारण सूख कर जाम्बूनद नामक स्वर्ण की प्रचुर मात्रा उत्पन्न करता है। स्वर्ग के निवासी इस स्वर्ण का उपयोग विविध आभूषणों के लिए करते हैं। फलतः स्वर्गलोक के सभी निवासी उनकी तरुण पत्नियाँ स्वर्ण के मुकुटों, चूड़ियों तथा करधनियों से आभूषित रहती हैं। इस प्रकार वे सब जीवन का आनन्द लेते हैं।

22 सुपार्श्व पर्वत की बगल में महाकदम्ब नामक अत्यन्त प्रसिद्ध विशाल वृक्ष खड़ा है। इस वृक्ष के कोटर से मधु की पाँच नदियाँ निकलती हैं जिनमें से प्रत्येक लगभग पाँच "व्याम" (8 फुट की माप) चौड़ी है। यह प्रवाहमान मधु सुपार्श्व पर्वत की चोटी से सतत नीचे गिरता रहता है और इलावृत-वर्ष की पश्चिम दिशा से प्रारम्भ होकर उसके चारों ओर बहता रहता है। इस प्रकार सम्पूर्ण स्थल सुहावनी गन्ध से पूरित हैं।

23 इस मधु को पीने वालों के मुख से निकली वायु चारों ओर सौ योजन तक के भूभाग को सुगन्धित कर देती है।

24 इसी प्रकार कुमुद पर्वत के ऊपर एक विशाल वटवृक्ष है, जो एक सौ प्रमुख शाखाओं के कारण शतवल्श कहलाता है। इन शाखाओं से अनेक जड़े निकली हुई हैं, जिनमें से अनेक नदियाँ बहती हैं। ये नदियाँ इलावृत-वर्ष की उत्तर दिशा में स्थित पर्वत की चोटी से नीचे बहकर वहाँ के निवासियों को लाभ पहुँचाती है। इन नदियों के फलस्वरूप लोगों के पास दूध, दही, शहद, घी, राब, अन्न, वस्त्र, बिस्तर, आसन तथा आभूषण हैं, जिससे वे सभी अत्यन्त सुखी हैं।

25 इस भौतिक जगत के वासी जो इन बहती नदियों से प्राप्त पदार्थों का सेवन करते हैं, उनके शरीर में न तो झुर्रियां पड़ती है और न उनके केश सफेद होते हैं। न तो उन्हें थकान का अनुभव होता है और न पसीने से उनके शरीर से दुर्गन्ध ही आती है। उन्हें बुढ़ापा, रोग या आसामयिक मृत्यु नहीं सताती है न ही वे कड़ाके की सर्दी अथवा झुलसती गर्मी से दुखी होते हैं और न ही उनके शरीर की कान्ति लुप्त होती है। वे सभी चिन्ताओं से मुक्त मृत्युपर्यंत सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं।

26 मेरु पर्वत के तलहटी के चारों ओर अन्य पर्वत इस सुन्दर ढंग से व्यवस्थित हैं मानों कमल पुष्प की कर्णिका के चारों ओर केसर हों। इन पर्वतों के नाम हैं – कुरंग, कुरर, कुसुंभ, वैकंक, त्रिकुट, शिशिर, पतंग, रुचक, निषध, शिनीवास, कपिल, शंख, वैदूर्य, जारुधि, हंस, ऋषभ, नाग, कालंजर तथा नारद।

27 सुमेरु पर्वत के पूर्व में जठर तथा देवकूट नामक दो पर्वत हैं, जो उत्तर तथा दक्षिण की ओर 18000 योजन (144000 मील) तक फैले हुए हैं। इसी प्रकार सुमेरु पर्वत की पश्चिम दिशा में पवन तथा पारियात्र नामक दो पर्वत हैं, जो उतनी ही दूरी तक उत्तर तथा दक्षिण में भी फैले हैं। सुमेरु के दक्षिण में कैलास तथा करवीर पर्वत हैं, जो पूर्व और पश्चिम में 18000 योजन तक फैले हुए हैं और सुमेरु की उत्तरी दिशा में त्रिशृंग तथा मकर नामक दो पर्वत पूर्व और पश्चिम में इतनी ही दूरी में विस्तृत हैं। इन समस्त पर्वतों की चौड़ाई 2000 योजन (16000 मील) है। इन आठों पर्वतों से घिरा हुआ स्वर्णनिर्मित सुमेरु पर्वत अग्नि की तरह जाज्वल्यमान है।

28 मेरु की चोटी के मध्य भाग में ब्रह्माजी की पुरी स्थित है। इसके चारों कोने समान रूप से एक करोड़ योजन (आठ करोड़ मील) तक विस्तृत हैं। यह पूरे का पूरा स्वर्ण से निर्मित है, इसीलिए विद्वतजन तथा ऋषि-मुनि इसे शातकौम्भी नाम से पुकारते हैं।

29 ब्रह्मपूरी के चारों ओर सभी दिशाओं में लोकों के आठ प्रमुख लोकपालों के निवास-स्थल हैं, जिनमें से पहला राजा इन्द्र का है। ये निवास स्थल ब्रह्मपूरी के ही समान है, किन्तु वे आकार में एक चौथाई हैं।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

E-mail me when people leave their comments –

You need to be a member of ISKCON Desire Tree | IDT to add comments!

Join ISKCON Desire Tree | IDT

Comments

  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
This reply was deleted.