10863814480?profile=RESIZE_584x

अध्याय तेरह - राजा रहूगण तथा जड़ भरत के बीच और आगे वार्ता (5.13)

1 ब्रह्म-साक्षात्कार प्राप्त जड़ भरत ने आगे कहा: हे राजा रहूगण, जीवात्मा इस संसार के दुर्लंघ्य पथ पर घूमता रहता है और बारम्बार जन्म तथा मृत्यु स्वीकार करता है। प्रकृति के तीन गुणों (सत्त्व, रज तथा तम) के प्रभाव से इस संसार के प्रति आकृष्ट होकर जीवात्मा प्रकृति के जादू से केवल तीन प्रकार के फल जो शुभ, अशुभ तथा शुभाशुभ होते हैं देख पाता है। इस प्रकार वह धर्म, आर्थिक विकास, इन्द्रियतृप्ति तथा मुक्ति की अद्वैत भावना (परमात्मा में तादात्म्य) के प्रति आसक्त हो जाता है। वह उस वणिक के समान अहर्निश कठोर श्रम करता है जो कुछ सामग्री प्राप्त करने और उससे लाभ उठाने के उद्देश्य से जंगल में प्रवेश करता है। किन्तु उसे इस संसार में वास्तविक सुख उपलब्ध नहीं हो पाता।

2 हे राजा रहूगण, इस संसार रूपी जंगल (भवाटवी) में छह अत्यन्त प्रबल लुटेरें हैं। जब बद्धजीव कुछ भौतिक लाभ के हेतु इस जंगल में प्रवेश करता है, तो ये छहों लुटेरे उसे गुमराह कर देते हैं। इस प्रकार से बद्ध वणिक (व्यापारी), यह नहीं समझ पाता कि वह अपने धन को किस प्रकार खर्चे और यह धन इन लुटेरों द्वारा छीन लिया जाता है। जिस प्रकार चौकसी में पाले मेमने को उठा ले जाने के लिए जंगल में भेड़िए, सियार तथा अन्य हिंस्र पशु रहते हैं उसी प्रकार पत्नी तथा सन्तान उस वणिक के हृदय में प्रवेश करके अनेक प्रकार से लूटते रहते हैं।

3 इस जंगल में झाड़ियों, घास तथा लताओं के झाड़-झंखाड़ से बने सघन कुन्जों में बुरी तरह से काटने वाले मच्छरों (ईर्ष्यालु पुरुषों) के होने से बद्धजीव निरन्तर परेशान रहता है। कभी कभी उसे जंगल में काल्पनिक महल (गन्धर्वपुर) दिखता है, तो कभी कभी आसमान से टूटते उल्का के समान प्रेत को देखकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है।

4 हे राजन, इस संसार रूपी जंगल के मार्ग में घर, सम्पत्ति, कुटुम्बी इत्यादि से भ्रमित बुद्धि वाला वणिक सफलता की खोज में एक स्थान से दूसरे स्थान को दौड़ता रहता है। कभी-कभी उसकी आँखें बवंडर की धूल से ढक जाती हैं, अर्थात कामवश वह अपनी स्त्री की सुन्दरता के प्रति, मुग्ध हो जाता है। इस प्रकार अन्धा होने से उसे यह नहीं दिखाई पड़ता कि उसे कहाँ जाना है, अथवा वह क्या कर रहा है।

5 संसार रूपी जंगल में घूमते हुए बद्धजीव को कभी-कभी अदृश्य झींगुरों की तीक्ष्ण ध्वनि सुनाई पड़ती है जो उसके कानों को अत्यन्त दुखदायी लगती है। कभी-कभी उसका हृदय अपने शत्रुओं के कटु वचनों जैसी प्रतीत होने वाली उल्लुओं की ध्वनि से व्यथित (विचलित) हो उठता है। कभी वह बिना फल फूल वाले वृक्षों का आश्रय ग्रहण करता है क्योंकि वह भूखा होता है, किन्तु उसे कुछ न मिलने से कष्ट भोगना पड़ता है। उसे जल की इच्छा होती है किन्तु वह केवल मृगतृष्णा से मोहित हो जाने के कारण उसके पीछे दौड़ता है।

6 कभी-कभी बद्धजीव उथली नदी में कूद पड़ता है अथवा खाद्यान्न न होने पर ऐसे लोगों से अन्न माँगता है जो दानी नहीं, हैं ही नहीं। कभी-कभी वह गृहस्थ जीवन की अग्नि से जलने लगता है जो दावाग्नि जैसी होती है और कभी-कभी वह उस सम्पत्ति के लिए दुखी हो उठता है जो उसे प्राणों से भी प्रिय है और जिसका अपहरण राजा लोग भारी आयकर के नाम पर करते हैं।

7 कभी-कभी अपने से बड़े तथा बलवान व्यक्ति द्वारा पराजित होने अथवा लूटे जाने पर जीवात्मा की सारी सम्पत्ति चली जाती है। इससे वह दुखी हो जाता है, क्षति पर पश्चाताप करता है यहाँ तक कि कभी-कभी अचेत भी हो जाता है। कभी-कभी वह ऐसे विशाल प्रासाद की कल्पना करने लगता है, जिसमें वह अपने परिवार तथा अपने धन समेत सुखपूर्वक रह सके। यदि ऐसा हो सके तो वह अपने को अत्यन्त संतुष्ट समझता है, किन्तु ऐसा तथाकथित सुख क्षणिक होता है।

8 कभी-कभी जंगल का व्यापारी पर्वतों तथा पहाड़ियों के ऊपर चढ़ना चाहता है, किन्तु अपर्याप्त पदत्राण के कारण उसके पैरों में कंकड़ तथा काँटे गड़ जाते हैं जिससे वह अत्यन्त उदास हो जाता है। कोई व्यक्ति जो अपने परिवार के प्रति आसक्त होता है, वह कभी-कभी जब अत्यधिक भूख के मारे त्रस्त हो जाता है, तो वह अपनी दयनीय स्थिति के कारण अपने कुटुम्बियों पर विफर उठता है।

9 कभी-कभी इस भौतिक जंगल में बद्धजीवों को अजगर निगल लेते हैं या मरोड़ डालते हैं। ऐसी अवस्था में वह चेतना तथा ज्ञान शून्य होकर (मृत व्यक्ति तुल्य) जंगल में पड़ा रहता है। कभी-कभी अन्य विषैले सर्प भी आकर काट लेते हैं। अचेतन होने के कारण वह नारकीय जीवन के अन्धे कूप में गिर जाता है जहाँ से बचकर निकल पाने की कोई आशा नहीं रहती।

10 कभी-कभी थोड़े से रति-सुख के लिए मनुष्य स्त्री की खोज करता रहता है। इस प्रयास में उस स्त्री के सम्बन्धियों द्वारा उसका अपमान एवं प्रताड़न होता है। यह वैसा ही है जैसा कि मधुमक्खी के छत्ते से शहद (मधु) निकालते समय मक्खियाँ आक्रमण कर दें। कभी-कभी प्रचुर धन व्यय करने पर उसे कुछ अतिरिक्त इन्द्रिय भोग के लिए दूसरी स्त्री प्राप्त हो सकती है। किन्तु दुर्भाग्यवश इन्द्रिय सुख की सामग्री रूप वह स्त्री चली जाती है, अथवा किसी अन्य कामी द्वारा अपहरण कर ली जाती है।

11 कभी-कभी जीवात्मा बर्फीली ठण्ड, कड़ी गर्मी, तेज हवा, अति-वृष्टि इत्यादि प्राकृतिक उत्पातों का सामना करने में लगा रहता है। किन्तु जब वह ऐसा नहीं कर पाता तो अत्यन्त दुखी हो जाता है। कभी-कभी वह एक के बाद एक व्यावसायिक लेन-देन में ठगा जाता है। इस प्रकार ठगे जाने पर जीवात्माएँ एक दूसरे से शत्रुता ठान लेती है।

12 संसार के जंगली मार्ग में कभी-कभी व्यक्ति धनहीन हो जाता है, जिसके कारण उसके पास न समुचित घर न बिस्तर या बैठने का स्थान होता है, न ही समुचित पारिवारिक सुख ही उपलब्ध हो पाता है। अतः वह अन्यों से धन माँगता है, किन्तु जब माँगने पर भी उसकी इच्छाएँ अपूर्ण रहती हैं, तो वह या तो उधार लेना चाहता है या फिर अन्यों की सम्पत्ति चुराना चाहता है। इस तरह वह समाज में अपमानित होता है।

13 आर्थिक लेन-देन के कारण सम्बन्धों में कटुता उत्पन्न होती है, जिसका अन्त शत्रुता में होता है। कभी पति-पत्नी भौतिक उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होते हैं और अपने सम्बन्ध बनाये रखने के लिए वे कठोर श्रम करते हैं, तो कभी धनाभाव अथवा रुग्ण दशा के कारण वे अत्यधिक चिन्तित रहकर मरणासन्न हो जाते हैं।

14 हे राजन, भौतिक जीवन रूपी जंगल के मार्ग में मनुष्य पहले अपने पिता तथा माता को खोता है और उनकी मृत्यु के बाद वह नवजात बच्चों में आसक्त हो जाता है। इस तरह वह भौतिक प्रगति के मार्ग में घूमता रहता है और अन्त में अत्यन्त व्यथित हो जाता है। किसी को मृत्यु के क्षण तक यह पता नहीं चल पाता कि वह उससे किस प्रकार निकले।

15 ऐसे अनेक राजनैतिक तथा सामाजिक वीर पुरुष हैं और थे जिन्होंने सम-शक्ति वाले शत्रुओं पर विजय प्राप्त की है, तो भी वे अज्ञानवश यह विश्वास करके कि यह भूमि उनकी है परस्पर लड़ते हैं और युद्धभूमि में अपने प्राण गँवाते हैं। वे संन्यासियों के द्वारा स्वीकृत आध्यात्मिक पथ को ग्रहण कर सकने में अक्षम रहते हैं। वीर पुरुष तथा राजनैतिक नेता होते हुए भी वे आत्म-साक्षात्कार का पथ नहीं अपना सकते हैं।

16 कभी-कभी जीवात्मा संसार रूपी जंगल में लताओं का आश्रय लेता है और उन लताओं पर बैठे पक्षियों की चहचहाहट सुनना चाहता है। जंगल के सिंहों की दहाड़ से भयभीत होकर वह बगुलों, सारसों तथा गिद्धों से मैत्री स्थापित करता है।

17 संसार रूपी जंगल में तथाकथित योगियों, स्वामियों तथा अवतारों से ठगा जाकर जीवात्मा उनकी संगति छोड़कर असली भक्तों की संगति में आने का प्रयत्न करता है, किन्तु दुर्भाग्यवश वह सद्गुरु या परम भक्त के उपदेशों का पालन नहीं कर पाता, अतः वह उनकी संगति छोड़कर पुनः बन्दरों की संगति में वापस आ जाता है जो मात्र इन्द्रिय-तृप्ति तथा स्त्रियों में रुचि रखते हैं। वह इन विषयीजनों की संगति में काम और मद्यपान में लगा रहकर तुष्ट हो लेता है। इस तरह वह काम और मद्यसेवन से अपना जीवन नष्ट कर देता है। वह अन्य विषयीजनों के मुखों को देख-देख कर भूला रहता है और मृत्यु निकट आ जाती है।

18 जब जीवात्मा एक शाखा से दूसरी शाखा पर कूदने वाले बन्दर के सदृश बन जाता है, तो गृहस्थ जीवन के वृक्ष में मात्र विषय सुख के लिए रहता है। इस प्रकार वह अपनी पत्नी से वैसे ही पाद-प्रहार पाता है जैसे कि गधा गधी से। मुक्ति का साधन न पाने के कारण वह असहाय बनकर उसी अवस्था में रहता है। कभी-कभी उसे असाध्य रोग हो जाता है जो पर्वत की गुफा में गिरने जैसा है। वह इस गुफा के पीछे रहने वाले मृत्यु रूपी हाथी से भयभीत हो उठता है और लताओं की टहनियाँ पकड़े रहकर लटका रहता है।

19 हे शत्रुओं के संहारक, महाराज रहूगण, यदि बद्धजीव किसी प्रकार से इस भयानक स्थिति से उबर आता है, तो वह पुनः विषयी जीवन बिताने के लिए अपने घर को लौट जाता है, क्योंकि वही आसक्ति का मार्ग है। इस प्रकार ईश्वर की माया से वशीभूत वह संसार रूपी जंगल में घूमता रहता है। मृत्यु के निकट पहुँच कर भी उसे अपने वास्तविक हित का पता नहीं चल पाता।

20 हे राजा रहूगण, तुम भी भौतिक सुख के प्रति आकर्षण-मार्ग में स्थित होकर माया के शिकार हो। मैं तुम्हें राज पद तथा उस दण्ड का जिससे अपराधियों को दण्डित करते हो परित्याग करने की सलाह देता हूँ जिससे तुम समस्त जीवात्माओं के सुहृद (मित्र) बन सको। विषयभोगों को त्याग कर अपने हाथ में भक्ति के द्वारा धार लगायी गयी ज्ञान की तलवार को धारण करो। तब तुम माया की कठिन ग्रंथि को काट सकोगे और अज्ञानता के सागर को पार करके दूसरे छोर पर जा सकोगे।

21 राजा रहूगण ने कहा: यह मनुष्य जन्म समस्त योनियों में श्रेष्ठ है। यहाँ तक कि स्वर्ग में देवताओं के बीच जन्म लेना उतना यशपूर्ण नहीं जितना कि इस पृथ्वी पर मनुष्य के रूप में जन्म लेना। तो फिर देवता जैसे उच्च पद का क्या लाभ? स्वर्गलोक में अथाह भोग-सामग्री के कारण देवताओं को भक्तों की संगति का अवसर ही नहीं मिलता।

22 यह कोई विचित्र बात नहीं है कि केवल आपके चरणकमलों की धूलि से धूसरित होने से मनुष्य तुरन्त विशुद्ध भक्ति के अधोक्षज पद को प्राप्त होता है जो ब्रह्मा जैसे महान देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। आपके क्षणमात्र के समागम से अब मैं समस्त तर्कों, अहंकार तथा अविवेक से मुक्त हो गया हूँ जो इस भौतिक जगत में बन्धन के मूल कारण हैं। मैं अब इन समस्त झंझटों से मुक्त हूँ।

23 मैं उन महापुरुषों को नमस्कार करता हूँ जो इस धरातल पर शिशु, तरुण बालक, अवधूत या महान ब्राह्मण के रूप में विचरण करते हैं। यदि वे विभिन्न वेशों में छिपे हुए हैं, तो भी मैं उन सबको नमस्कार करता हूँ। उनके अनुग्रह से उनका अपमान करने वाले राजवंशों का कल्याण हो।

24 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजन, हे उत्तरा-पुत्र, राजा रहूगण द्वारा अपनी पालकी ढोये जाने के लिए बाध्य किये जाने से अपमानित होकर जड़ भरत के मन में असन्तोष की कुछ-कुछ लहरें थीं, किन्तु उन्होंने इनकी उपेक्षा की और उनका हृदय पुनः सागर के समान शान्त हो गया। यद्यपि राजा रहूगण ने उनका अपमान किया, किन्तु वे महान परमहंस थे। वैष्णव होने के नाते वे परम दयालु थे, अतः उन्होंने राजा को आत्मा की वास्तविक स्वाभाविक स्थिति बतलाई। तब उन्हें अपमान भूल गया, क्योंकि राजा रहूगण ने विनीत भाव से उनके चरणकमलों पर क्षमा माँग ली थी। इसके बाद वे पुनः पूर्ववत सारे विश्व का भ्रमण करने लगे।

25 परम भक्त जड़ भरत से उपदेश ग्रहण करने के पश्चात सौवीर का राजा रहूगण आत्मा की स्वाभाविक स्थिति से पूर्णतया परिचित हो गया। उसने देहात्मबुद्धि का सर्वश: परित्याग कर दिया। हे राजन, जो भी ईश्वर के भक्त के दास की शरण ग्रहण करता है, वह धन्य है, क्योंकि वह बिना कठिनाई के देहात्मबुद्धि त्याग सकता है। 

26 तब राजा परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से कहा: हे स्वामी, हे परम भक्त साधु, आप सर्वज्ञाता हैं। आपने जंगल के वणिक के रूप में बद्धजीव की स्थिति का अत्यन्त मनोहर वर्णन किया है। इन उपदेशों से कोई भी बुद्धिमान मनुष्य समझ सकता है कि देहात्मबुद्धि वाले पुरुष की इन्द्रियाँ उस जंगल में चोर-उचक्कों सी हैं और उसकी पत्नी तथा बच्चे सियार तथा अन्य हिंस्र पशुओं के तुल्य हैं। किन्तु अल्पज्ञानियों के लिए इस आख्यान को समझ पाना सरल नहीं है क्योंकि इस रूपक का सही-सही अर्थ निकाल पाना कठिन है। अतः मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि इसका अर्थ स्पष्ट करके बताएँ।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

E-mail me when people leave their comments –

You need to be a member of ISKCON Desire Tree | IDT to add comments!

Join ISKCON Desire Tree | IDT

Comments

  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
This reply was deleted.