अध्याय इक्कीस – भरत का वंश (9.21)
1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: चूँकि मरुतगणों ने भरद्वाज को लाकर दिया था इसलिए वह वितथ कहलाया। वितथ के पुत्र का नाम मन्यु था जिसके पाँच पुत्र हुए – बृहत्क्षत्र, जय, महावीर्य, नर, तथा गर्ग। इन पाँचों में से नर के पुत्र का नाम संकृति था।
2 हे महाराज परीक्षित, हे पाण्डु के वंशज, संकृति के दो पुत्र थे – गुरु तथा रन्तिदेव। रन्तिदेव इस लोक में तथा परलोक दोनों में ही विख्यात हैं क्योंकि उनकी महिमा का गान न केवल मानव समाज में अपितु देव समाज में भी होता है।
3-5 रन्तिदेव ने कभी कुछ भी कमाने का यत्न नहीं किया। उसे भाग्य से जो मिल जाता उसे ही भोगता, किन्तु जब अतिथि आ जाते तो वह हर वस्तु उन्हें दे देता था। इस तरह उसे तथा उसके साथ परिवार के सदस्यों को अति कष्ट सहना पड़ा। वह तथा उसके परिवार के लोग अन्न तथा जल के अभाव से गम्भीर रहते थे फिर भी रन्तिदेव धीर बना रहता। एक बार अड़तालीस दिनों तक उपवास करने के बाद रन्तिदेव को प्रातःकाल थोड़ा जल तथा घी और दूध से बने कुछ व्यंजन प्राप्त हुए, किन्तु जब वह तथा उसके परिवार वाले भोजन करने ही वाले थे तो एक ब्राह्मण अतिथि आ पहुँचा।
6 चूँकि रन्तिदेव को सर्वत्र एवं हर जीव में भगवान की उपस्थिति का आभास होता था अतएव वह बड़े ही श्रद्धा-सम्मान से अतिथि का स्वागत करता और उसे भोजन का एक अंश देता था। उस ब्राह्मण अतिथि ने अपना भाग खाया और फिर चला गया।
7 तत्पश्चात शेष भोजन को अपने परिवार वालों में बाँट देने के बाद रन्तिदेव अपना हिस्सा खाने जा ही रहे थे कि एक शूद्र अतिथि वहाँ आ गया। इस शूद्र को भगवान से सम्बन्धित देखकर राजा रन्तिदेव ने उसे भी भोजन में से एक अंश दिया।
8 जब शूद्र चला गया तो एक दूसरा मेहमान आया जिसके साथ कुत्ते थे। उसने कहा, “हे राजा, मैं तथा मेरे साथ के ये कुत्ते अत्यन्त भूखे हैं। कृपया हमें कुछ खाने को दें।
9 राजा रन्तिदेव ने अतिथि रूप में आये कुत्तों और कुत्तों के मालिक को अत्यन्त आदरपूर्वक बचा हुआ भोजन दे दिया। राजा ने उनका सभी प्रकार से आदर किया और नमस्कार किया।
10 तत्पश्चात केवल पीने का जल ही बच रहा था जो केवल एक व्यक्ति को संतुष्ट करने के लिए ही पर्याप्त था। किन्तु ज्योंही राजा जल पीने को हुआ कि एक चाण्डाल वहाँ आया और कहने लगा, “हे राजा, मैं निम्नकुल में उत्पन्न (नीच) हूँ। कृपा करके मुझे पीने के लिए थोड़ा जल दें।"
11 बेचारे थके चाण्डाल के दयनीय वचनों को सुनकर दुखित महाराज रन्तिदेव ने इस प्रकार के अमृततुल्य वचन कहे।
12 मैं ईश्वर से न तो योग की अष्ट-सिद्धियों के लिए प्रार्थना करता हूँ न जन्म-मृत्यु के चक्र से मोक्ष की कामना करता हूँ। मैं तो सारे जीवों के बीच निवास करके उनके लिए सारे कष्टों को भोगना चाहता हूँ जिससे वे कष्ट से मुक्त हो सकें।
13 जीवन के लिए संघर्ष करते हुए बेचारे चाण्डाल की जान बचाने के लिए अपना जल देकर मैं सारी भूख, प्यास, थकान, शरीर-कम्पन, खिन्नता, क्लेश, सन्ताप तथा मोह से मुक्त हो गया हूँ।
14 इस तरह कहकर प्यास के मारे मरते हुए राजा रन्तिदेव ने बिना किसी हिचक के अपने हिस्से का जल चाण्डाल को दे दिया क्योंकि राजा स्वभाव से अत्यन्त दयालु तथा गम्भीर था।
15 तत्पश्चात लोगों को इच्छित फल देकर उनकी सारी भौतिक इच्छाओं को पूरा करने वाले ब्रह्माजी तथा शिवजी जैसे देवताओं ने राजा रन्तिदेव के समक्ष अपना स्वरूप प्रकट किया क्योंकि वे ही ब्राह्मण, शूद्र, चाण्डाल इत्यादि के रूप में उनके पास आये थे।
16 राजा रन्तिदेव को देवताओं से किसी प्रकार का भौतिक लाभ प्राप्त करने की कोई आकांक्षा न थी। उसने उन्हें प्रणाम किया, किन्तु भगवान विष्णु अर्थात पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान वासुदेव में अनुरक्त होने के कारण उसने मन को भगवान विष्णु के चरणकमलों में स्थिर कर लिया।
17 हे महाराज परीक्षित, चूँकि राजा रन्तिदेव शुद्ध भक्त, सदैव कृष्णभावनाभावित तथा पूर्णरूपेण निष्काम था अतएव भगवान की माया उसके समक्ष प्रकट नहीं हो सकी। विपरीत इसके, माया स्वप्न के समान पूरी तरह नष्ट हो गई।
18 जिन लोगों ने राजा रन्तिदेव के सिद्धान्तों का पालन किया उन सबको उनकी कृपा प्राप्त हुई और वे भगवान नारायण के शुद्ध भक्त बन गये। इस तरह वे सभी श्रेष्ठ योगी बन गये।
19-20 गर्ग से शिनी नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका पुत्र गार्ग्य हुआ। यद्यपि गार्ग्य क्षत्रिय था, किन्तु उससे ब्राह्मण कुल की उत्पत्ति हुई। महावीर्य का पुत्र दुरितक्षय हुआ, जिसके तीन पुत्र थे – त्रय्यारुणि, कवि तथा पुष्करारुणि। यद्यपि दुरितक्षय के ये पुत्र क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए थे, किन्तु उन्हें भी ब्राह्मण पद प्राप्त हुआ। बृहत्क्षत्र का एक पुत्र हस्ती था जिसने हस्तिनापुर नामक नगर (आज की नई दिल्ली) की स्थापना की।
21 राजा हस्ती के तीन पुत्र हुए – अजमीढ, द्विमीढ तथा पुरुमीढ। अजमीढ के वंशजों में प्रियमेध प्रमुख था और उन सबों ने ब्राह्मण पद प्राप्त किया।
22 अजमीढ का पुत्र बृहदीषू था, बृहदीषू का पुत्र बृहध्दनु था, बृहध्दनु का पुत्र बृहत्काय था और बृहत्काय से जयद्रथ नामक पुत्र हुआ।
23 जयद्रथ का पुत्र विशद था और उसका पुत्र स्येनजीत था। स्येनजीत के पुत्रों के नाम थे रुचिराश्व, दृढहनु, काश्य तथा वत्स।
24 रुचिराश्व का पुत्र पार था और पार के पुत्र पृथुसेन तथा नीप थे। नीप के एक सौ पुत्र थे।
25 शुक की पुत्री अर्थात नीप की पत्नी कृत्वी के गर्भ से राजा नीप के ब्रह्मदत्त नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। ब्रह्मदत्त महान योगी था। उसकी पत्नी सरस्वती के गर्भ से विष्वक्सेन नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ।
26 जैगीषव्य ऋषि के उपदेशानुसार विष्वक्सेन ने योगपद्धति का विस्तृत वर्णन संकलित किया। विष्वक्सेन से उदक्सेन उत्पन्न हुआ और उदक्सेन से भल्लाट । ये सभी पुत्र बृहदीषू के वंशज थे।
27 द्विमीढ का पुत्र यवीनर था और उसका पुत्र कृतिमान था। कृतिमान का पुत्र सत्यधृति के नाम से विख्यात था। सत्यधृति से दृढनेमि नाम का पुत्र हुआ जो सुपार्श्व का पिता बना।
28-29 सुपार्श्व से सुमति नाम का पुत्र, सुमति से सन्नतिमान तथा सन्नतिमान से कृति उत्पन्न हुआ जिसने ब्रह्मा से योगशक्ति प्राप्त की और सामवेद के प्राच्यसाम नामक श्लोकों की छह संहिताएँ कही। कृति का पुत्र नीप था, नीप का पुत्र उदग्रायुध हुआ, उदग्रायुध का पुत्र क्षेम्य हुआ, क्षेम्य से सुवीर नामक पुत्र हुआ तथा सुवीर का पुत्र रिपुञ्जय था।
30 रिपुञ्जय का पुत्र बहुरथ हुआ। पुरुमीढ निःसन्तान था। अजमीढ को अपनी पत्नी नलिनी से नील नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। नील का पुत्र शान्ति था।
31-33 शान्ति का पुत्र सुशान्ति था, सुशान्ति का पुत्र पुरुज हुआ, पुरुज का अर्क और अर्क का पुत्र भम्यार्श्व था। भम्यार्श्व के पाँच पुत्र हुए – मुद्गल, यवीनर, बृहद्विश्व, काम्पिल्ल तथा संजय। भम्यार्श्व ने अपने बेटों से कहा: मेरे बेटो, तुम लोग मेरे पाँचों राज्यों का भार सँभालों क्योंकि तुम ऐसा करने के लिए पर्याप्त सक्षम हो। इस तरह उसके पाँचों पुत्र पंचाल कहलाये। मुद्गल से ब्राह्मणों का गोत्र चला जो मौद्गल्य कहलाया।
34 भम्यार्श्व के पुत्र मुद्गल के जुड़वाँ सन्तान हुई जिसमें एक पुत्र था और एक कन्या। पुत्र का नाम दिवोदास रखा गया और कन्या का नाम अहल्या। गौतम मुनि की पत्नी अहल्या के गर्भ से शतानन्द नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।
35 शतानन्द का पुत्र सत्यधृति था जो धनुर्विद्या में अत्यन्त पटु था। सत्यधृति का पुत्र शरद्वान हुआ। जब शरद्वान की भेंट उर्वशी से हुई तो शर नामक घास के गुच्छे पर उसका वीर्यपात हो गया जिससे से दो शुभ शिशु उत्पन्न हुए जिनमें से एक लड़का था और दूसरा लड़की।
36 जब महाराज शान्तनु शिकार करने गये तो उन्होंने जंगल में जुड़वाँ शिशुओं को पड़ा देखा। वे दयावश उन्हें अपने घर ले आये। फलस्वरूप, बालक क्रुप नाम से विख्यात हुआ और बालिका का नाम कृपी पड़ा। बाद में कृपी द्रोणाचार्य की पत्नी बनी।
( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )
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