भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक
अध्याय दस श्रीभगवान का ऐश्वर्य
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंSशसम्भवम् ।। 41 ।।
यत् – यत्– जो जो;विभूति– ऐश्वर्य ;मत्– युक्त;सत्त्वम्– अस्तित्व;श्री-मत्– सुन्दर;उर्जिवम्– तेजस्वी;एव– निश्चय ही;वा– अथवा;तत्-तत्– वे वे;एव– निश्चय ही;अवगच्छ– जानो;तवम्– तुम;मम– मेरे;तेजः– तेज का;अंश– भाग, अंश से;सम्भवम्– उत्पन्न।
भावार्थ : तुम जान लो कि सारा ऐश्वर्य, सौन्दर्य तथा तेजस्वी सृष्टियाँ मेरे तेज के एक स्फुलिंग मात्र से उद्भूत हैं।
तात्पर्य : किसी भी तेजस्वी या सुन्दर सृष्टि को, चाहे वह अध्यात्म जगत में हो या इस जगत में, कृष्ण की विभूति का अंश रूप ही मानना चाहिए। किसी भी अलौकिक तेजयुक्त वस्तु को कृष्ण की विभूति समझना चाहिए ।
(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)
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