jagdish chandra chouhan's Posts (549)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय तीन कर्मयोग

प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः ।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥ 27

प्रकृतेः– प्रकृति का;क्रियमाणानि– किये जाकर;गुणैः– गुणों के द्वारा;कर्माणि– कर्म;सर्वशः– सभी प्रकार के;अहङ्कार-विमूढ– अहंकार से मोहित;आत्मा–आत्मा;कर्ता– करने वाला;अहम्– मैं हूँ;इति– इस प्रकार;मन्यते– सोचता है।

भावार्थ : जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं।

तात्पर्य : दो व्यक्ति जिनमें से एक कृष्णभावनाभावित है और दूसरा भौतिक चेतना वाला है, समान स्तर पर कार्य करते हुए समान पद पर प्रतीत हो सकते हैं, किन्तु उनके पदों में आकाश-पाताल का अन्तर रहता है। भौतिक चेतना वाला व्यक्ति अहंकार के कार आश्वस्त रहता है कि वही सभी वस्तुओं का कर्ता है। वह यह नहीं जानता कि शरीर की रचना प्रकृति द्वारा हुई है, जो परमेश्वर की अध्यक्षता में कार्य करती है। भौतिकतावादी व्यक्ति यह नहीं जानता कि अन्ततोगत्वा वह कृष्ण के अधीन है। अहंकारवश ऐसा व्यक्ति हर कार्य को स्वतन्त्र रूप से करने का श्रेय लेना चाहता है और यही है उसके अज्ञान का लक्षण। उसे यह ज्ञा नहीं कि उसके इस स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर की रचना प्रकृति द्वारा भगवान् की अध्यक्षता में की गई है, अतः उसके सारे शारीरिक तथा मानसिक कार्य कृष्णभावनामृत में रहकर कृष्ण की सेवा में तत्पर होने चाहिए। अज्ञानी व्यक्ति यह भूल जाता है कि भगवान् हृषीकेश कहलाते हैं अर्थात् वे शरीर की इन्द्रियों के स्वामी हैं। इन्द्रियतृप्ति के लिए इन्द्रियों का निरन्तर उपयोग करते रहने से वह अहंकार के कारण वस्तुतः मोहग्रस्त रहता है, जिससे वह कृष्ण के साथ अपने शाश्वत सम्बन्ध को भूल जाता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय तीन कर्मयोग

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते 21

यत् यत् –जो-जो;आचरति– करता है;श्रेष्ठः– आदरणीय नेता;तत्– वही;तत्– तथा केवल वही;एव– निश्चय ही;इतरः– सामान्य;जनः– व्यक्ति;सः– वह;यत्– जो कुछ;प्रमाणम्– उदाहरण, आदर्श;कुरुते– करता है;लोकः– सारा संसार;तत्– उसके;अनुवर्तते– पदचिन्हों का अनुसरण करता है।
भावार्थ : महापुरुष जो जो आचरण करता है, सामान्य व्यक्ति उसी का अनुसरण करते हैं। वह अपने अनुसरणीय कार्यों से जो आदर्श प्रस्तुत करता है, सम्पूर्ण विश्व उसका अनुसरण करता है।

तात्पर्य: सामान्य लोगों को सदैव एक ऐसे नेता की आवश्यकता होती है, जो व्यावहारिक आचरण द्वारा जनता को शिक्षा दे सके। यदि नेता स्वयं धूम्रपान करता है तो वह जनता को धूम्रपान बंद करने की शिक्षा नहीं दे सकता। चैतन्य महाप्रभु ने कहा है कि शिक्षा देने से पूर्व शिक्षक को ठीक-ठीक आचरण करना चाहिए। जो इस प्रकार शिक्षा देता है वह आचार्य या आदर्श शिक्षक कहलाता है। अतः शिक्षक को चाहिए कि सामान्यजन को शिक्षा देने के लिए स्वयं शास्त्रीय सिद्धान्तों का पालन करे। कोई भी शिक्षक प्राचीन प्रामाणिक ग्रंथों के नियमों के विपरीत कोई नियम नहीं बना सकता। मनु-संहिता जैसे प्रामाणिक ग्रंथ मानव समाज के लिए अनुसरणीय आदर्श ग्रंथ हैं, अतः नेता का उपदेश ऐसे आदर्श शास्त्रों के नियमों पर आधारित होना चाहिए। जो व्यक्ति अपनी उन्नति चाहता है उसे महान शिक्षकों द्वारा अभ्यास किये जाने वाले आदर्श नियमों का पालन करना चाहिए। श्रीमद्भागवत भी इसकी पुष्टि करता है कि मनुष्य को महान भक्तों के पदचिन्हों का अनुसरण करना चाहिए और आध्यात्मिक बोध के पथ में प्रगति का यही साधन है। चाहे राजा हो या राज्य का प्रशासनाधिकारी, चाहे पिता हो या शिक्षक-ये सब अबोध जनता के स्वाभाविक नेता माने जाते हैं। इन सबका अपने आश्रितों के प्रति महान उत्तरदायित्व रहता है, अतः इन्हें नैतिक तथा आध्यात्मिक संहिता सम्बन्धी आदर्श ग्रंथों से सुपरिचित होना चाहिए।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय तीन कर्मयोग

अन्नाद्भवति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥ 14
अन्नात्– अन्न से;भवन्ति– उत्पन्न होते हैं;भूतानि– भौतिक शरीर;पर्जन्यात्– वर्षा से;अन्न– अन्न का;सम्भवः– उत्पादन;यज्ञात्– यज्ञ सम्पन्न करने से;भवति– सम्भव होती है;पर्जन्यः– वर्षा;यज्ञः– यज्ञ का सम्पन्न होबा;कर्म– नियत कर्तव्य से;समुद्भवः– उत्पन्न होता है।
भावार्थ: सारे प्राणी अन्न पर आश्रित हैं, जो वर्षा से उत्पन्न होता है। वर्षा यज्ञ सम्पन्न करने से होती है और यज्ञ नियत कर्मों से उत्पन्न होता है।

तात्पर्य: भगवद्गीता के महान टीकाकार श्रील बलदेव विद्याभूषण इस प्रकार लिखते हैं –

ये इन्द्राद्यङ्गतयावस्थितं यज्ञं सर्वेश्वरं विष्णुमभ्यर्च्य तच्छेषमश्नन्ति तेन तद्देहयात्रां सम्पादयन्ति ते सन्तः सर्वेश्वरस्य यज्ञपुरुषस्य भक्ताः सर्वकिल्बिषैर् अनादिकालविवृध्दैर् आत्मानुभवप्रतिबन्धकैर्निखिलैः पापैर्विमुच्यन्ते।

परमेश्वर, जो यज्ञपुरुष अथवा समस्त यज्ञों के भोक्ता कहलाते हैं, सभी देवताओं के स्वामी हैं और जिस प्रकार शरीर के अंग पूरे शरीर की सेवा करते हैं, उसी तरह सारे देवता उनकी सेवा करते हैं। इन्द्र, चन्द्र तथा वरुण जैसे देवता भगवान् द्वारा नियुक्त अधिकारी हैं, जो सांसारिक कार्यों की देखरेख करते हैं। सारे वेद इन देवताओं को प्रसन्न करने के लिए यज्ञों का निर्देश करते हैं, जिससे वे अन्न उत्पादन के लिए प्रचुर वायु, प्रकाश तथा जल प्रदान करें। जब कृष्ण की पूजा की जाती है तो उनके अंगस्वरूप देवताओं की भी स्वतः पूजा हो जाती है, अतः देवताओं की अलग से पूजा करने की आवश्यकता नहीं होती। इसी हेतु कृष्णभावनाभावित भगवद्भक्त सर्वप्रथम कृष्ण को भोजन अर्पित करते हैं और तब खाते हैं – यह ऐसी विधि है जिससे शरीर का आध्यात्मिक पोषण होता है। ऐसा करने से न केवल शरीर के विगत पापमय कर्मफल नष्ट होते हैं, अपितु शरीर प्रकृति के समस्त कल्मषों से निरापद हो जाता है। जब कोई छूत का रोग फैलता है तो इसके आक्रमण से बचने के लिए रोगाणुरोधी टीका लगाया जाता है। इसी प्रकार भगवान् विष्णु को अर्पित करके ग्रहण किया जाने वाला भोजन हमें भौतिक संदूषण से निरापद बनाता है और जो इस विधि का अभ्यस्त है वह भगवद्भक्त कहलाता है। अतः कृष्णभावनाभावित व्यक्ति, जो केवल कृष्ण को अर्पित किया भोजन करता है, वह उन समस्त विगत भौतिक दूषणों के फलों का सामना करने में समर्थ होता है, जो आत्म-साक्षात्कार के मार्ग में बाधक बनते हैं। इसके विपरीत जो ऐसा नहीं करता वह अपने पापपूर्ण कर्म को बढ़ाता रहता है जिससे उसे सारे पापफलों को भोगने के लिए अगला शरीर कुकरों-सुकरों के समान मिलता है। यह भौतिक जगत् नाना कल्मषों से पूर्ण है और जो भी भगवान् के प्रसाद को ग्रहण करके उनसे निरापद हो लेता है वह उनके आक्रमण से बच जाता है, किन्तु जो ऐसा नहीं करता वह कल्मष का लक्ष्य बनता है।

अन्न अथवा शाक वास्तव में खाद्य हैं। मनुष्य विभिन्न प्रकार के अन्न, शाक, फल आदि खाते हैं, जबकि पशु इन पदार्थों के च्छिष्ट को खाते हैं। जो मनुष्य मांस खाने के अभ्यस्त हैं उन्हें भी शाक के उत्पादन पर निर्भर रहना पड़ता है, क्योंकि पशु शाक ही खाते हैं। अतएव हमें अन्ततोगत्वा खेतों के उत्पादन पर ही आश्रित रहना है, बड़ी-बड़ी फैक्टरियों के उत्पादन पर नहीं। खेतों का य उत्पादन आकाश से होने वाली प्रचुर वर्षा पर निर्भर करता है और ऐसी वर्षा इन्द्र, सूर्य, चन्द्र आदि देवताओं के द्वारा नियन्त्रित होती है। ये देवता भगवान् के दास हैं। भगवान् को यज्ञों के द्वारा सन्तुष्ट रखा जा सकता है, अतः जो इन यज्ञों को सम्पन्न नहीं करता, उसे अभाव का सामना करना होगा – यही प्रकृति का नियम है। अतः भोजन के अभाव से बचने के लिए यज्ञ और विशेष रूप से इस युग के लिए संस्तुत संकीर्तन-यज्ञ, सम्पन्न करना चाहिए।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय तीन कर्मयोग

यज्ञार्थात्कर्मणोSन्यत्र लोकोSयं कर्मबन्धनः ।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर ॥ 9
यज्ञ-अर्थात्– एकमात्र यज्ञ या विष्णु के लिए किया गया;कर्मणः– कर्म की अपेक्षा;अन्यत्र– अन्यथा;लोकः– संसार;अयम्– यह;कर्म-बन्धनः– कर्म के कारण बन्धन;तत्– उस;अर्थम्– के लिए;कर्म– कर्म;कौन्तेय– हे कुन्तीपुत्र;मुक्त-सङ्गः– सङ्ग (फलाकांक्षा) से मुक्त;समाचर– भलीभाँति आचरण करो।
भावार्थ: श्रीविष्णु के लिए यज्ञ रूप में कर्म करना चाहिए, अन्यथा कर्म के द्वारा इस भौतिक जगत् में बन्धन उत्पन्न होता है। अतः हे कुन्तीपुत्र! उनकी प्रसन्नता के लिए अपने नियत कर्म करो।   इस तरह तुम बन्धन से सदा मुक्त रहोगे।

तात्पर्य : चूँकि मनुष्य को शरीर के निर्वाह के लिए कर्म करना होता है, अतः विशिष्ट सामाजिक स्थिति तथा गुण को ध्यान में रखकर नियत कर्म इस तरह बनाये गए हैं कि उस उद्देश्य की पूर्ति हो सके। यज्ञ का अर्थ भगवान् विष्णु है। सारे यज्ञ भगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिए हैं। वेदों का आदेश है – यज्ञो वै विष्णुः। दुसरे शब्दों में, चाहे कोई निर्दिष्ट यज्ञ सम्पन्न करे या प्रत्यक्ष रूप से भगवान विष्णु की सेवा करे, दोनों से एक ही प्रयोजन सिद्ध होता है, अतः जैसा कि इस श्लोक में संस्तुत किया गया है, कृष्णभावनामृत यज्ञ ही है। वर्णाश्रम-धर्म का भी उद्देश्य भगवान् विष्णु को प्रसन्न करना है

वर्णाश्रमाचारवता पुरुषेण परः पुमान् ।

विष्णुराराध्यते (विष्णु पुराण ३..)

अतः भगवान् विष्णु की प्रसन्नता की लिए कर्म करना चाहिए। इस जगत् में किया जाने वाला अन्य कोई कर्म बन्धन का कारण होगा, क्योंकि अच्छे तथा बुरे कर्मों के फल होते हैं और कोई भी फल कर्म करने वाले को बाँध लेता है। अतः कृष्ण (विष्णु) को प्रसन्न करने के लिए कृष्णभावनाभावित होना होगा और जब कोई ऐसा कर्म करता है तो वह मुक्त दशा को प्राप्त रहता है। यही महान कर्म कौशल है और प्रारम्भ में इस विधि में अत्यन्त कुशल मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। अतः भगवद्भक्त के निर्देशन में या साक्षात् भगवान् कृष्ण के प्रत्यक्ष आदेश के अन्तर्गत (जिनके अधीन अर्जुन को कर्म करने का अवसर मिला था) मनुष्य को परिश्रमपूर्वक कर्म करना चाहिएइन्द्रियतृप्ति के लिए कुछ भी नहीं किया जाना चाहिए, अपितु हर कार्य कृष्ण की प्रसन्नता (तुष्टि) के लिए होना चाहिए। इस विधि से न केवल बन्धन से बचा जा सकता है, अपितु इससे मनुष्य को क्रमशः भगवान् की वह प्रेमाभक्ति प्राप्त हो सकेगी, जो भगवद्धाम को ले जाने वाली है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय 2 : गीता का सार

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जा ग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ।। 69 ।।

या– जो;निशा– रात्रि है;सर्व– समस्त;भूतानाम्– जीवों की;तस्याम्– उसमें;जागर्ति– जागता रहता है;संयमी– आत्मसंयमी व्यक्ति;यस्याम्– जिसमें;जाग्रति– जागते हैं;भूतानि– सभी प्राणी;सा– वह;निशा– रात्रि;पश्यतः– आत्मनिरीक्षण करने वाले;मुनेः– मुनि के लिए।
भावार्थ: जो सब जीवों के लिए रात्रि है, वह आत्मसंयमी के जागने का समय है और जो समस्त जीवों के जागने का समय है वह आत्मनिरीक्षक मुनि के लिए रात्रि है।

तात्पर्य : बुद्धिमान् मनुष्यों की दो श्रेणियाँ हैं। एक श्रेणी के मनुष्य इन्द्रियतृप्ति के लिए भौतिक कार्य करने में निपुण होते हैं और दूसरी श्रेणी के मनुष्य आत्मनिरीक्षक हैं, जो आत्म-साक्षात्कार के अनुशीलन के लिए जागते हैं। विचारवान पुरुषों या आत्मनिरीक्षक मुनि के कार्य भौतिकता में लीन पुरुषों के लिए रात्रि के समान हैं। भौतिकतावादी व्यक्ति ऐसी रात्रि में अनभिज्ञता के कारण आत्म-साक्षात्कार के प्रति सोये रहते हैं। आत्मनिरीक्षक मुनि भौतिकतावादी पुरुषों की रात्रि में जागे रहते हैं। मुनि को आध्यात्मिक अनुशीलन की क्रमिक उन्नति में दिव्य आनन्द का अनुभव होता है, किन्तु भौतिकतावादी कार्यों में लगा व्यक्ति, आत्म-साक्षात्कार के प्रति सोया रहकर अनेक प्रकार के इन्द्रियसुखों का स्वप्न देखता है और उसी सुप्तावस्था में कभी सुख तो कभी दुख का अनुभव करता है। आत्मनिरीक्षक मनुष्य भौतिक सुख तथा दुख के प्रति अन्यमनस्क रहता है। वह भौतिक घातों से अविचलित रहकर आत्म-साक्षात्कार के कार्यों में लगा रहता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय 2 : गीता का सार

रागद्वेषविमुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चचरन् ।
आत्मवश्यैर्वि धेयात्माप्रसादधिगच्छति ।। 64 ।।

राग– आसक्ति;द्वेष– तथा वैराग्य से;विमुक्तैः– मुक्त रहने वाले से;तु– लेकिन;विषयान्– इन्द्रियविषयों को;इन्द्रियैः– इन्द्रियों के द्वारा;चरन्– भोगता हुआ;आत्म-वश्यैः– अपने वश में;विधेय-आत्मा– नियमित स्वाधीनता पालक;प्रसादम्– भगवत्कृपा को;अधिगच्छति– प्राप्त करता है।
भावार्थ: किन्तु समस्त राग तथा द्वेष से मुक्त एवं अपनी इन्द्रियों को संयम द्वारा वश में करने में समर्थ व्यक्ति भगवान् की पूर्ण कृपा प्राप्त कर सकता है।

तात्पर्य : यह पहले ही बताया जा चुका है कि कृत्रिम इन्द्रियों पर बाह्यरूप से नियन्त्रण किया जा सकता है, किन्तु जब तक इन्द्रियाँ भगवान् की दिव्य सेवा में नहीं लगाई जातीं तब तक नीचे गिरने की सम्भावना बनी रहती है। यद्यपि पूर्णतया कृष्णभावनाभावित व्यक्ति ऊपर से विषयी-स्तर पर क्यों न दिखे, किन्तु कृष्णभावनाभावित होने से वह विषय-कर्मों में आसक्त नहीं होता। उसका एकमात्र उद्देश्य तो कृष्ण को प्रसन्न करना रहता है, अन्य कुछ नहीं। अतः वह समस्त आसक्ति तथा विरक्ति से मुक्त होता है। कृष्ण की इच्छा होने पर भक्त सामान्यतया अवांछित कार्य भी कर सकता है, किन्तु यदि कृष्ण की इच्छा नहीं है तो वह उस कार्य को भी नहीं करेगा जिसे वह सामान्य रूप से अपने लिए करता हो। अतः कर्म करना या न करना उसके वश में रहता है क्योंकि वह केवल कृष्ण के निर्देश के अनुसार ही कार्य करता है। यही चेतना भगवान् की अहैतुकी कृपा है, जिसकी प्राप्ति भक्त को इन्द्रियों में आसक्त होते हुए भी हो सकती है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय 2 : गीता का सार

क्रोधाद् भवति सम्मोहः सम्मोहात् स्मृति-विभ्रमः
स्मृति-भ्रमसद् बुद्धि-नासो बुद्धि-नासत् प्रणस्यति ॥ 63

 क्रोधात्-क्रोध से; भवति-होता है; सम्मोहः-पूर्ण भ्रम; सम्मोहत्-भ्रम से; स्मृति-स्मृति का; विभ्रमः-भ्रम; स्मृति-भ्रमसात्-स्मृति के भ्रमित होने के बाद ;बुद्धि-नाशः-बुद्धि का नाश; बुद्धि-नासत्-और बुद्धि के नाश से; प्रणश्यति-गिर जाती है।

भावार्थ : क्रोध से मोह उत्पन्न होता है और मोह से स्मरणशक्ति का विभ्रम हो जाता है। जब स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाती है, तो बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट होने पर मनुष्य भव-कूप में पुनः गिर जाता है ।

तात्पर्य : कृष्णभावनामृत के विकास से व्यक्ति जान सकता है कि भगवान की सेवा में हर वस्तु का उपयोग होता है। जो लोग कृष्णभावनामृत के ज्ञान से रहित हैं, वे कृत्रिम रूप से भौतिक वस्तुओं से बचने का प्रयास करते हैं, और परिणामस्वरूप, यद्यपि वे भवबन्धन से मुक्ति चाहते हैं, वे त्याग की पूर्ण अवस्था को प्राप्त नहीं कर पाते। दूसरी ओर, कृष्णभावनामृत में व्यक्ति जानता है कि भगवान की सेवा में हर वस्तु का उपयोग कैसे किया जाए; इसलिए वह भौतिक चेतना का शिकार नहीं बनता। उदाहरणार्थ, निर्विशेषवादी के अनुसार भगवान निराकार होने के कारण, भोजन नहीं कर सकते। अतः वह अच्छे खाद्य पदार्थों से बचता रहता है, किन्तु भक्त जानता है कि कृष्ण परम भोक्ता हैं और भक्तिपूर्वक उन पर जो भी भेंट चढ़ायी जाती है, उसे वे खाते हैं। अतः भगवान को अच्छा भोजन चढ़ाने के बाद भक्त प्रसाद ग्रहण करता है इस प्रकार हर वस्तु प्राणवान हो जाती है और अध:पतन का कोई संकट नहीं रहता। भक्त कृष्णभावनामृत में रहकर प्रसाद ग्रहण करता है, जबकि अभक्त इसे पदार्थ के रूप में तिरस्कार कर देता है। अतः निर्विशेषवादी अपने कृत्रिम त्याग के कारण जीवन को भोग नहीं पाता और यही कारण है कि मन के थोड़े से विचलन से वह भव-कूप में पुनः आ गिरता है। कहा जाता है कि मुक्ति के स्तर तक पहुँच जाने पर भी ऐसा जीव नीचे गिर जाता है, क्योंकि उसे भक्ति का कोई आश्रय नही मिलता।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय 2 : गीता का सार

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोSभिजायते ।। 62।।
ध्यायतः– चिन्तन करते हुए;विषयान्– इन्द्रिय विषयों को;पुंसः– मनुष्य की;सङ्गः– आसक्ति;तेषु– उन इन्द्रिय विषयों में;उपजायते– विकसित होती है;सङ्गात्– आसक्ति से;सञ्जायते– विकसित होती है;कामः– इच्छा;कामात्– काम से;क्रोधः– क्रोध;अभिजायते– प्रकट होता है।
भावार्थ: इन्द्रियविषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाती है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है।

तात्पर्य : जो मनुष्य कृष्णभावनाभावित नहीं है उसमें इन्द्रियविषयों के चिन्तन से भौतिक इच्छाएँ उत्पन्न होती है। इन्द्रियों को किसी कार्य में लगे रहना चाहिए और यदि वे भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में नहीं लगी रहेंगी तो वे निश्चय ही भौतिकतावाद में लगना चाहेंगी। इस भौतिक जगत् में हर एक प्राणी इन्द्रियविषयों के अधीन है, यहाँ तक कि ब्रह्मा तथा शिवजी भी। तो स्वर्ग के अन्य देवताओं के विषय में क्या कहा जा सकता है? इस संसार के जंजाल से निकलने का एकमात्र उपाय है--कृष्णभावनाभावित होना। शिव ध्यानमग्न थे, किन्तु जब पार्वती ने विषयभोग के लिए उन्हें उत्तेजित किया, तो वे सहमत हो गये जिसके फलस्वरूप कार्तिकेय का जन्म हुआ। इसी प्रकार तरुण भगवद्भक्त हरिदास ठाकुर को माया देवी के अवतार ने मोहित करने का प्रयास किया, किन्तु विशुद्ध कृष्ण भक्ति के कारण वे इस कसौटी में खरे उतरे। जैसा कि यामुनाचार्य के उपर्युक्त श्लोक में बताया जा चूका है, भगवान् का एकनिष्ठ भक्त भगवान् की संगति के आध्यात्मिक सुख का आस्वादन करने के कारण समस्त भौतिक इन्द्रियसुख को त्याग देता है। अतः जो कृष्णभावनाभावित नहीं है वह कृत्रिम दमन के द्वारा अपनी इन्द्रियों को वश में करने में कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, अन्त में अवश्य असफल होगा, क्योंकि विषय सुख का रंचमात्र विचार भी उसे इन्द्रियतृप्ति के लिए उत्तेजित कर देगा।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय 2 : गीता का सार

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोSप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ।। 59
विषयाः– इन्द्रियभोग की वस्तुएँ;विनिवर्तन्ते– दूर रहने के लिए अभ्यास की जाति हैं;निराहारस्य– निषेधात्मक प्रतिबन्धों से;देहिनः– देहवान जीव के लिए;रस-वर्जम्– स्वाद का त्याग करता है;रसः– भोगेच्छा;अपि– यद्यपि है;अस्य– उसका;परम्– अत्यन्त उत्कृष्ट वस्तुएँ;दृष्ट्वा– अनुभव होने पर;निवर्तते– वह समाप्त हो जाता है।
भावार्थ : देहधारी जीव इन्द्रियभोग से भले ही निवृत्त हो जाय पर उसमें इन्द्रियभोगों की इच्छा बनी रहती है। लेकिन उत्तम रस के अनुभव होने से ऐसे कार्यों को बन्द करने पर वह भक्ति में स्थिर हो जाता है।

तात्पर्य : जब तक कोई अध्यात्म को प्राप्त न हो तब तक इन्द्रियभोग से विरत होना असम्भव है। विधि-विधानों द्वारा इन्द्रियभोग को संयमित करने की विधि वैसी ही है जैसे किसी रोगी के किसी भोज्य पदार्थ खाने पर प्रतिबन्ध लगाना। किन्तु इससे रोगी की न तो भोजन के प्रति रूचि समाप्त होती है और न वह ऐसा प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहता है। इसी प्रकार अल्पज्ञानी व्यक्तियों के लिए इन्द्रिय संयमन के लिए अष्टांग-योग जैसी विधि की संस्तुति की जाती है जिसमें य, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान आदि सम्मिलित हैं। किन्तु जिसने कृष्णभावनामृत के पथ पर प्रगति के क्रम में परमेश्वर कृष्ण के सौन्दर्य का रसास्वादन कर लिया है, उसे जड़ भौतिक वस्तुओं में कोई रूचि नहीं रह जाती। ऐसे प्रतिबन्ध तभी तक ठीक हैं जब तक कृष्णभावनामृत में रूचि जागृत नहीं हो जाती। और जब वास्तव में रूचि जागृत हो जाती है, तो मनुष्य में स्वतः ऐसी वस्तुओं के प्रति अरुचि उत्पन्न हो जाती है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय 2 : गीता का सार

यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके ।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ।। 46
यावान्– जितना सारा;अर्थः– प्रयोजन होता है;उद-पाने– जलकूप में;सर्वतः– सभी प्रकार से;सम्लुप्त-उदके– विशाल जलाशय में;तावान्– उसी तरह;सर्वेषु– समस्त;वेदेषु– वेदों में;ब्राह्मणस्य– परब्रह्म को जानने वाले का;विजानतः– पूर्ण ज्ञानी का।
भावार्थ: एक छोटे से कूप का सारा कार्य एक विशाल जलाशय से तुरन्त पूरा हो जाता है। इसी प्रकार वेदों के आन्तरिक तात्पर्य जानने वाले को उनके सारे प्रयोजन सिद्ध हो जाते हैं।

तात्पर्य : वेदों के कर्मकाण्ड विभाग में वर्णित अनुष्ठानों एवं यज्ञों का ध्येय आत्म-साक्षात्कार के क्रमिक विकास को प्रोत्साहित करना है। और आत्म-साक्षात्कार का ध्येय भगवद्गीता के पन्द्रहवें अध्याय में (१५.१५) इस प्रकार स्पष्ट किया गया है – वेद अध्ययन का ध्येय जगत् के आदि कारण भगवान् कृष्ण को जानना है। अतः आत्म-साक्षात्कार का अर्थ है – कृष्ण को तथा उके साथ अपने शाश्वत सम्बन्ध को समझना। कृष्ण के साथ जीवों के सम्बन्ध का भी उल्लेख भगवद्गीता के पन्द्रहवेंअध्याय में (१५.) ही हुआ है। जीवात्माएँ भगवान् के अंश स्वरूप हैं, अतः प्रत्येक जीव द्वारा कृष्णभावनामृत को जागृत करना वैदिक ज्ञान की सर्वोच्च पूर्णावस्था है। श्रीमद्भागवत में (.३३.) इसकी पुष्टि इस प्रकार हुई है –

अहो बात श्वपचोSतो गरीयान् यज्जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम् ।
तेपुस्तपस्ते जुहुवः सस्नुरार्या ब्रह्मानूचूर्नाम गृणन्ति ये ते ।

हे प्रभो, आपके पवित्र नाम का जाप करने वाला भले ही चाण्डाल जैसे निम्न परिवार में क्यों न उत्पन्न हुआ हो, किन्तु वह आत्म-साक्षात्कार के सर्वोच्च पद पर स्थित होता है। ऐसा व्यक्ति अवश्य ही वैदिक अनुष्ठानों के अनुसार सारी तपस्याएँ सम्पन्न किये होता है और अनेकानेक बार तीर्थस्थानों में स्नान करके वेदों का अध्ययन किये होता है। ऐसा व्यक्ति आर्य कुल में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

अतः मनुष्य को इतना बुद्धिमान तो होना ही चाहिए कि केवल अनुष्ठानों के प्रति आसक्त न रहकर वेदों के उद्देश्य को समझे और अधिकाधिक इन्द्रियतृप्ति के लिए ही स्वर्गलोक जाने की कामना न करे। इस युग में सामान्य व्यक्ति के लिए न तो वैदिक अनुष्ठानों के समस्त विधि-विधानों का पालन करना सम्भव है और न सारे वेदान्त तथा उपनिषदों का सर्वांग अध्ययन कर पाना सहज है। वेदों के उद्देश्य को सम्पन्न करने के लिए प्रचुर समय, शक्ति, ज्ञान तथा साधन की आवश्यकता होती है। इस युग में ऐसा कर पाना सम्भव नहीं है, किन्तु वैदिक संस्कृति का परम लक्ष्य भगवन्नाम कीर्तन द्वारा प्राप्त हो जाता है जिसकी संस्तुति पतितात्माओं के उद्धारक भगवान् चैतन्य द्वारा हुई है। जब चैतन्य से महान वैदिक पण्डित प्रकाशानन्द सरस्वती ने पूछा कि आप वेदान्त दर्शन का अध्ययन न करके एक भावुक की भाँति पवित्र नाम का कीर्तन क्यों करते हैं तो उन्होंने उत्तर दिया कि मेरे गुरु ने मुझे बड़ा मूर्ख समझकर भगवान् कृष्ण के नाम का कीर्तन करने की आज्ञा दी। अतः उन्होंने ऐसा ही किया और वे पागल की भाँति भावोन्मक्त हो गए। इस कलियुग में अधिकांश जनता मूर्ख है और वेदान्त दर्शन समझ पाने के लिए पर्याप्त शिक्षित नहीं है। वेदान्त दर्शन के परम उद्देश्य की पूर्ति भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन करने से हो जाती है। वेदान्त वैदिक ज्ञान की पराकाष्ठा है और वेदान्त दर्शन के प्रणेता तथा ज्ञाता भगवान् कृष्ण हैं। सबसे बड़ा वेदान्ती तो वह महात्मा है जो भगवान् के पवित्र नाम का जप करने में आनन्द लेता है। सम्पूर्ण वैदिक रहस्यवाद का यही चरम उद्देश्य है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय 2 : गीता का सार

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ।। 45 ।।
त्रै-गुण्य– प्राकृतिक तीनों गुणों से सम्बन्धित;विषयाः– विषयों में;वेदाः– वैदिक साहित्य;निस्त्रै-गुण्यः– प्रकृति के तीनों गुणों से परे;भव– होओ;अर्जुन– हे अर्जुन ;निर्द्वन्द्वः– द्वैतभाव से मुक्त;नित्य-सत्त्व-स्थः– नित्य शुद्धसत्त्व में स्थित;निर्योग-क्षेमः– लाभ तथा रक्षा के भावों से मुक्त;आत्म-वान्– आत्मा में स्थित।
भावार्थ: वेदों में मुख्यतया प्रकृति के तीनों गुणों का वर्णन हुआ है। हे अर्जुन! इन तीनों गुणों से ऊपर उठो। समस्त द्वैतों और लाभ तथा सुरक्षा की सारी चिन्ताओं से मुक्त होकर आत्म-परायण बनो।

तात्पर्य: सारे भौतिक कार्यों में प्रकृति के तीनों गुणों की क्रियाएँ तथा प्रतिक्रियाएँ निहित होती हैं। इनका उद्देश्य कर्म-फल होता है जो भौतिक जगत् में बन्धन का कारण है। वेदों में मुख्यतया सकाम कर्मों का वर्णन है जिससे सामान्य जन क्रमशः इन्द्रियतृप्ति के क्षेत्र से उठकर आध्यात्मिक धरातल तक पहुँच सकें। कृष्ण अपने शिष्य तथा मित्र के रूप में अर्जुन को सलाह देते हैं कि वह वेदान्त दर्शन के आध्यात्मिक पद तक ऊपर उठे जिसका प्रारम्भ ब्रह्म-जिज्ञासा अथवा परम आध्यात्मिकता पद पर प्रश्नों से होता है। इस भौतिक जगत् के सारे प्राणी अपने अस्तित्व के लिए कठिन संघर्ष करते रहते हैं। उनके लिए भगवान् ने इस भौतिक जगत् की सृष्टि करने के पश्चात् वैदिक ज्ञान प्रदान किया जो जीवन-यापन तथा भवबन्धन से छूटने का उपदेश देता है। जब इन्द्रियतृप्ति के कार्य यथा कर्मकाण्ड समाप्त हो जाते हैं तो उपनिषदों के रूप में भगवत् साक्षात्कार का अवसर प्रदान किया जाता है। ये उपनिषद् विभिन्न वेदों के अंश हैं उसी प्रकार जैसे भगवद्गीता पंचम वेद महाभारत का एक अंग है। उपनिषदों से आध्यात्मिक जीवन का शुभारम्भ होता है। जब तक भौतिक शरीर का अस्तित्व है तब तक भौतिक गुणों की क्रियाएँ-प्रतिक्रियाएँ होती रहती हैं। मनुष्य को चाहिए कि सुख-दुख या शीत-ग्रीष्म जैसी द्वैतताओं को सहन करना सीखे और इस प्रकार हानि तथा लाभ की चिन्ता से मुक्त हो जाय। जब मनुष्य कृष्ण की इच्छा पर पूर्णतया आश्रित रहता है तो यह दिव्य अवस्था प्राप्त होती है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय 2 : गीता का सार

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ।44
भोग– भौतिक भोग;ऐश्वर्य– तथा ऐश्वर्य के प्रति;प्रसक्तानाम्– आसक्तों के लिए;तया– ऐसी वस्तुओं से;अपहृत-चेत्साम्– मोह्ग्रसित चित्त वाले;व्यवसाय-आत्मिकाः– दृढ़ निश्चय वाली;बुद्धिः– भगवान् की भक्ति;समाधौ– नियन्त्रित मन में;– कभी नहीं;विधीयते– घटित होती है।
भावार्थ: जो लोग इन्द्रियभोग तथा भौतिक ऐश्वर्य के प्रति अत्यधिक आसक्त होने से ऐसी वस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाते हैं, उनके मनों में भगवान् के प्रति भक्ति का दृढ़ निश्चय नहीं होता।

तात्पर्य: समाधि का अर्थ है “स्थिर मन।वैदिक शब्दकोष निरुक्ति के अनुसार – सम्यग् आधीयतेSस्मिन्नात्मतत्त्वयाथात्म्यम् – जब मन आत्मा को समझने में स्थिर रहता है तो उसे समाधि कहते हैं। जो लोग इन्द्रियभोग में रूचि रखते हैं अथवा जो ऐसी क्षणिक वस्तुओं से मोहग्रस्त हैं उनके लिए समाधि कभी भी सम्भव नहीं है। माया के चक्कर में पड़कर वे न्यूनाधिक पतन को प्राप्त होते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय 2 : गीता का सार

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्चच बुद्धयो स व्यवसायिनाम् ।। 41 ।।
व्यवसाय-आत्मिका– कृष्णभावनामृत में स्थिर;बुद्धिः– बुद्धि;एका– एकमात्र;इह– इस संसार में;कुरु-नन्दन– हे कुरुओं के प्रिय;बहु-शाखाः– अनेक शाखाओं में विभक्त;हि– निस्सन्देह;अनन्ताः– असीम;– भी;बुद्धयः– बुद्धि;अव्यवसायिनाम्– जो कृष्णभावनामृत में नहीं हैं उनकी।
भावार्थ : जो इस मार्ग पर (चलते) हैं वे प्रयोजन में दृढ़ रहते हैं और उनका लक्ष्य भी एक होता है। हे कुरुनन्दन! जो दृढ़प्रतिज्ञ नहीं है उनकी बुद्धि अनेक शाखाओं में विभक्त रहती है।

तात्पर्य : यह दृढ़ श्रद्धा कि कृष्णभावनामृत द्वारा मनुष्य जीवन की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त कर सकेगा, व्यवसायात्मिका बुद्धि कहलाती है। चैतन्य-चरितामृत में (मध्य २२.६२) कहा गया है –

श्रद्धा’-शब्दे – विश्चवास कहे सुदृढ़ निश्चचय ।
कृष्णे भक्ति कैले सर्वकर्म कृत हय ।।

श्रद्धा का अर्थ है किसी अलौकिक वस्तु में अटूट विश्चवास। जब कोई कृष्णभावनामृत के कार्यों में लगा होता है तो उसे परिवार, मानवता या राष्ट्रीयता से बँध कर कार्य करने की आवश्यकता नहीं होती। पूर्व में किये गये शुभ-अशुभ कर्मों के फल ही उसे सकाम कर्मों में लगाते हैं। जब कोई कृष्णभावनामृत में संलग्न हो तो उसे अपने कार्यों के शुभ-फल के लिए प्रयत्नशील नहीं रहना चाहिए। जब कोई कृष्णभावनामृत में लीन होता है तो उसके सारे कार्य आध्यात्मिक धरातल पर होते हैं क्योंकि उनमें अच्छे तथा बुरे का द्वैत नहीं रह जाता। कृष्णभावनामृत की सर्वोच्च सिद्धि देहात्मबुद्धि का त्याग है। कृष्णभावनामृत की प्रगति के साथ क्रमशः यह अवस्था स्वतः प्राप्त हो जाती है।

कृष्णभावनाभावित व्यक्ति का दृढ़ निश्चय ज्ञान पर आधारित है। वासुदेवः सर्वम् इति स महात्मा सुदुर्लभः - कृष्णभावनाभावित व्यक्ति अत्यन्त दुर्लभ जीव है जो भलीभाँति जानता है कि वासुदेव या कृष्ण समस्त प्रकट कारणों के मूल कारण हैं। जिस प्रकार वृक्ष की जड़ सींचने पर स्वतः ही पत्तियों तथा टहनियों में जल पहुँच जाता है उसी प्रकार कृष्णभावनाभावित होने पर मनुष्य प्रत्येक प्राणी की अर्थात् अपनी, परिवार की, समाज की, मानवता की सर्वोच्च सेवा कर सकता है। यदि मनुष्य के कर्मों से कृष्ण प्रसन्न हो जाएँ तो प्रत्येक व्यक्ति सन्तुष्ट होगा।

किन्तु कृष्णभावनामृत में सेवा गुरु के समर्थ निर्देशन में ही ठीक से हो पाती है क्योंकि गुरु कृष्ण का प्रामाणिक प्रतिनिधि होता है जो शिष्य के स्वभाव से परिचित होता है और उसे कृष्णभावनामृत की दिशा में कार्य करने के लिए मार्ग दिखा सकता है। अतः कृष्णभावनामृत में दक्ष होने के लिए मनुष्य को दृढ़ता से कर्म करना होगा और कृष्ण के प्रतिनिधि की आज्ञा का पालन करना होगा। उसे गुरु के उपदेशों को जीवन का लक्ष्य मान लेना होगा। श्रील विश्वनाथ चक्रवती ठाकुर ने गुरु की प्रसिद्ध प्रार्थना में उपदेश दिया है –

यस्य प्रसादाद् भगवत्प्रसादो यस्याप्रसादान्न गतिः कुतोSपि ।
ध्यायन्स्तुवंस्तस्य यशस्त्रिसंधयं वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम् ।।

गुरु की तुष्टि से भगवान् भी प्रसन्न होते हैं। गुरु को प्रसन्न किये बिना कृष्णभावनामृत के स्तर तक पहुँच पाने की कोई सम्भावना नहीं रहती। अतः मुझे उनका चिन्तन करना चाहिए और दिन में तीन बार उनकी कृपा की याचना करनी चाहिए और अपने गुरु को सादर नमस्कार करना चाहिए।

किन्तु यह सम्पूर्ण पद्धति देहात्मबुद्धि से परे सैद्धान्तिक रूप में नहीं वरन् व्यावहारिक रूप में पूर्ण आत्म-ज्ञान पर निर्भर करती है, जब सकाम कर्मों से इन्द्रियतृप्ति की कोई सम्भावना नहीं रहती। जिसका मन दृढ़ नहीं है वही विभिन्न सकाम कर्मों की ओर आकर्षित होता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय 2 : गीता का सार
नेहाभिक्रमनाशोSस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ।40

– नहीं;इह– इस योग में;अभिक्रम– प्रयत्न करने में;नाशः– हानि;अस्ति– है;प्रत्यवायः– ह्रास;– कभी नहीं;विद्यते– है;सु-अल्पम्– थोडा;अपि– यद्यपि;धर्मस्य– धर्म का;त्रायते– मुक्त करना है;महतः– महान;भयात्– भय से।

भावार्थ : इस प्रयास में न तो हानि होती है न ही ह्रास अपितु इस पथ पर की गई अल्प प्रगति भी महान भय से रक्षा कर सकती है।

तात्पर्य: कर्म का सर्वोच्च दिव्य गुण है, कृष्णभावनामृत में कर्म या इन्द्रियतृप्ति की आशा न करके कृष्ण के हित में कर्म करना। ऐसे कर्म का लघु आरम्भ होने पर भी कोई बाधा नहीं आती है, न कभी इस आरम्भ का विनाश होता है। भौतिक स्तर पर प्रारम्भ किये जाने वाले किसी भी कार्य को पूरा करना होता है अन्यथा सारा प्रयास निष्फल हो जाता है। किन्तु कृष्णभावनामृत में प्रारम्भ किया जाने वाला कोई भी कार्य अधूरा रह कर भी स्थायी प्रभाव डालता है। अतः ऐसे कर्म करने वाले को कोई हानि नहीं होती, चाहे यह कर्म अधूरा ही क्यों न रह जाय। यदि कृष्णभावनामृत का एक प्रतिशत भी कार्य पूरा हुआ हो तो उसका स्थायी फल होता है, अतः अगली बार दो प्रतिशत से शुभारम्भ होगा, किन्तु भौतिक कर्म में जब तक शत प्रतिशत सफलता प्राप्त न हो तब तक कोई लाभ नहीं होता। अजामिल ने कृष्णभावनामृत में अपने कर्तव्य का कुछ ही प्रतिशत पूरा किया था, किन्तु भगवान् की कृपा से उसे शत प्रतिशत लाभ मिला। इस सम्बन्ध में श्रीमद्भागवत में (..१७) एक अत्यन्त सुन्दर श्लोक आया है –

त्यक्त्वा स्वधर्मं चरणाम्बुजं हरेर्भजन्नपक्कोSथ पतेत्ततो यदि ।
यत्र क्क वाभद्रमभूदमुष्यं किं को वार्थ आप्तोSभजतां स्वधर्मतः ।।

"यदि कोई अपना धर्म छोड़कर कृष्णभावनामृत में काम करता है और फिर काम पूरा न होने के कारण नीचे गिर जाता है तो इसमें उसको क्या हानि? और यदि कोई अपने भौतिक कार्यों को पूरा करता है तो इससे उसको क्या लाभ होगा? अथवा जैसा कि ईसाई कहते हैं “यदि कोई अपनी शाश्वत आत्मा को खोकर सम्पूर्ण जगत् को पा ले तो मनुष्य को इससे क्या लाभ होगा?”

भौतिक कार्य तथा उनके फल शरीर के साथ ही समाप्त हो जाते हैं, किन्तु कृष्णभावनामृत में किया गया कार्य मनुष्य को इस शरीर के विनष्ट होने पर भी पुनः कृष्णभावनामृत तक ले जाता है। कम से कम इतना तो निश्चित है कि अगले जन्म में उसे सुसंस्कृत ब्राह्मण परिवार में या धनीमानी कुल में मनुष्य का शरीर प्राप्त हो सकेगा जिससे उसे भविष्य में ऊपर उठने का अवसर प्राप्त हो सकेगा। कृष्णभावनामृत में सम्पन्न कार्य का यही अनुपम गुण है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय 2 : गीता का सार


देही नित्यमवध्योSयं देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ।30

देही- भौतिक शरीर का स्वामी;नित्यम्- शाश्वत;अवध्यः- मारा नहीं जा सकता;अयम्- यह आत्मा;देहे- शरीर में;सर्वस्य- हर एक के भारत - हे भारतवंशी;तस्मात्- अतः;सर्वाणि- समस्त;भूतानि- जीवों (जन्म लेने वालों) को ;- कभी नहीं;त्वम्- तुम;शोचितुम्- शोक करने के लिए;अर्हसि- योग्य हो।

भावार्थ : हे भरतवंशी! शरीर में रहने वाले (देही) का कभी भी वध नहीं किया जा सकता। अतः तुम्हें किसी भी जीव के लिए शोक करने की आवश्यकता नहीं है।

तात्पर्य : अब भगवान् अविकारी आत्मा विषयक अपना उपदेश समाप्त कर रहे हैं। अमर आत्मा का अनेक प्रकार से वर्णन करते हुए भगवान् कृष्ण ने आत्मा को अमर तथा शरीर को नाशवान सिद्ध किया है। अतः क्षत्रिय होने के नाते अर्जुन को इस भय से कि युद्ध में उसके पितामह भीष्म तथा गुरु द्रोण मर जायेंगे अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होना चाहिए। कृष्ण को प्रमाण मानकर भौतिक देह से भिन्न आत्मा का पृथक् अस्तित्व स्वीकार करना होगा, यह नहीं कि आत्मा जैसी कोई वस्तु नहीं है या कि जीवन के लक्षण रसायनों की अन्तःक्रिया के फलस्वरूप एक विशेष अवस्था में प्रकट होते हैं। यद्यपि आत्मा अमर है, किन्तु इससे हिंसा को प्रोत्साहित नहीं किया जाता। फिर भी युद्ध के समय हिंसा का निषेध नहीं किया जाता क्योंकि तब इसकी आवश्यकता रहती है। ऐसी आवश्यकता को भगवान् की आज्ञा के आधार पर उचित ठहराया जा सकता है, स्वेच्छा से नहीं।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय 2 : गीता का सार


जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येSर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।27 ।।

जातस्य– जन्म लेने वाले की;हि– निश्चय ही;ध्रुवः– तथ्य है;मृत्युः– मृत्यु;ध्रुवम्– यह भी तथ्य है;जन्म– जन्म;मृतस्य– मृत प्राणी का;– भी;तस्मात्– अतः;अपरिहार्ये– जिससे बचा न जा सके, उसका;अर्थे– के विषय में;– नहीं;त्वम्– तुम;शोचितुम्– शोक करने के लिए;अर्हसि– योग्य हो।
भावार्थ: जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म भी निश्चित हैअतः अपने अपरिहार्य कर्तव्यपालन में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए।

तात्पर्य : मनुष्य को अपने कर्मों के अनुसार जन्म ग्रहण करना होता है और एक कर्म-अवधि समाप्त होने पर उसे मरना होता है, जिससे वह दूसरा जन्म ले सके। इस प्रकार मुक्ति प्राप्त किये बिना ही जन्म-मृत्यु का यह चक्र चलता रहता है। जन्म-मरण के इस चक्र से वृथा हत्या, वध या युद्ध का समर्थन नहीं होता। किन्तु मानव समाज में शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए हिंसा तथा युद्ध अपरिहार्य हैं। कुरुक्षेत्र का युद्ध भगवान् की इच्छा होने के कारण अपरिहार्य था और सत्य के लिए युद्ध करना क्षत्रिय का धर्म है। अतः अपने कर्तव्य का पालन करते हुए वह स्वजनों की मृत्यु से भयभीत या शोककुल क्यों था? वह विधि (कानून) को भंग नहीं करना चाहता था क्योंकि ऐसा करने पर उसे उन पापकर्मों के फल भोगने पड़ेंगे जिनसे वह अत्यन्त भयभीत था। अपने कर्तव्य का पालन करते हुए वह स्वजनों की मृत्यु को रोक नहीं सकता था और यदि वह अनुचित कर्तव्य-पथ का चुनाव करे, तो उसे नीचे गिरना होगा।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्वपूर्ण श्लोक

अध्याय 2 : गीता का सार

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।। 23 ।।

– कभी नहीं;एनम्– इस आत्मा को;छिन्दन्ति– खण्ड-खण्ड कर सकते हैं;शस्त्राणि– हथियार;– कभी नहीं;एनम्– इस आत्मा को;दहति– जला सकता है;पावकः– अग्नि;– कभी नहीं;– भी;एनम्– इस आत्मा को;क्लेदयन्ति– भिगो सकता है;आपः– जल;– कभी नहीं;शोषयति– सुखा सकता है;मारुतः– वायु ।
भावार्थ : यह आत्मा न तो कभी किसी शस्त्र द्वारा खण्ड-खण्ड किया जा सकता है, न अग्नि द्वारा जलाया जा सकता है, न जल द्वारा भिगोया या वायु द्वारा सुखाया जा सकता है

तात्पर्य : सारे हथियार – तलवार, आग्नेयास्त्र, वर्षा के अस्त्र, चक्रवात आदि आत्मा को मारने में असमर्थ हैं ऐसा प्रतीत होता है कि आधुनिक आग्नेयास्त्रों के अतिरिक्त मिट्टी, जल, वायु, आकाश आदि के भी अनेक प्रकार के हथियार होते थे यहाँ तक कि आधुनिक युग के नाभिकीय हथियारों की गणना भी आग्नेयास्त्रों में की जाती है, किन्तु पूर्वकाल में विभिन्न पार्थिव तत्त्वों से बने हुए हथियार होते थे आग्नेयास्त्रों का सामना जल के (वरुण) हथियारों से किया जाता था, जो आधुनिक विज्ञान के लिए अज्ञात हैं आधुनिक विज्ञान को चक्रवात हथियारों का भी पता नहीं है जो भी हो, आत्मा को न तो कभी खण्ड-खण्ड किया जा सकता है, न किन्हीं वैज्ञानिक हथियारों से उसका संहार किया जा सकता है, चाहे उनकी संख्या कितनी ही क्यों न हो

मायावादी इसकी व्याख्या नहीं कर सकते कि जीव किस प्रकार अपने अज्ञान के कारण उत्पन्न हुआ और तत्पश्चात् माया की शक्ति से आवृत हो गया न ही आदि परमात्मा से जीवों को विलग कर पाना संभव था, प्रत्युत सारे जीव परमात्मा से विलग हुए अंश हैं चूँकि वे सनातन अणु-आत्मा हैं, अतः माया द्वारा आवृत होने की उनकी प्रवृत्ति स्वाभाविक है और इस तरह वे भगवान् की संगति से पृथक् हो जाते हैं, जिस प्रकार अग्नि के स्फुलिंग अग्नि से विलग होते ही बुझ जाते हैं, यद्यपि इन दोनों के गुण समान होते हैं वराह पुराण में जीवों को परमात्मा का भिन्न अंश कहा गया है भगवद्गीता के अनुसार भी वे शाश्वतरूप से ऐसे ही हैं अतः मोह से मुक्त होकर भी जीव पृथक् अस्तित्व रखता है, जैसा कि कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिये गये उपदेशों से स्पष्ट है अर्जुन कृष्ण के उपदेश के कारण मुक्त तो हो गया, किन्तु कभी भी कृष्ण से एकाकार नहीं हुआ
(
समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय 2 : गीता का सार

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।। 23।।

– कभी नहीं;एनम्– इस आत्मा को;छिन्दन्ति– खण्ड-खण्ड कर सकते हैं;शस्त्राणि– हथियार;– कभी नहीं;एनम्– इस आत्मा को;दहति– जला सकता है;पावकः– अग्नि;– कभी नहीं;– भी;एनम्– इस आत्मा को;क्लेदयन्ति– भिगो सकता है;आपः– जल;– कभी नहीं;शोषयति– सुखा सकता है;मारुतः– वायु।
भावार्थ : यह आत्मा न तो कभी किसी शस्त्र द्वारा खण्ड-खण्ड किया जा सकता है, न अग्नि द्वारा जलाया जा सकता है, न जल द्वारा भिगोया या वायु द्वारा सुखाया जा सकता है।

तात्पर्य : सारे हथियार – तलवार, आग्नेयास्त्र, वर्षा के अस्त्र, चक्रवात आदि आत्मा को मारने में असमर्थ हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि आधुनिक आग्नेयास्त्रों के अतिरिक्त मिट्टी, जल, वायु, आकाश आदि के भी अनेक प्रकार के हथियार होते थे। यहाँ तक कि आधुनिक युग के नाभिकीय हथियारों की गणना भी आग्नेयास्त्रों में की जाती है, किन्तु पूर्वकाल में विभिन्न पार्थिव तत्त्वों से बने हुए हथियार होते थे। आग्नेयास्त्रों का सामना जल के (वरुण) हथियारों से किया जाता था, जो आधुनिक विज्ञान के लिए अज्ञात हैं। आधुनिक विज्ञान को चक्रवात हथियारों का भी पता नहीं है। जो भी हो, आत्मा को न तो कभी खण्ड-खण्ड किया जा सकता है, न किन्हीं वैज्ञानिक हथियारों से उसका संहार किया जा सकता है, चाहे उनकी संख्या कितनी ही क्यों न हो।

मायावादी इसकी व्याख्या नहीं कर सकते कि जीव किस प्रकार अपने अज्ञान के कारण उत्पन्न हुआ और तत्पश्चात् माया की शक्ति से आवृत हो गया। न ही आदि परमात्मा से जीवों को विलग कर पाना सम्भव था, प्रत्युत सारे जीव परमात्मा से विलग हुए अंश हैं। चूँकि वे सनातन अणु-आत्मा हैं, अतः माया द्वारा आवृत होने की उनकी प्रवृत्ति स्वाभाविक है और इस तरह वे भगवान् की संगति से पृथक् हो जाते हैं, जिस प्रकार अग्नि के स्फुलिंग अग्नि से विलग होते ही बुझ जाते हैं, यद्यपि इन दोनों के गुण समान होते हैं। वराह पुराण में जीवों को परमात्मा का भिन्न अंश कहा गया है। भगवद्गीता के अनुसार भी वे शाश्वत रूप से ऐसे ही हैं। अतः मोह से मुक्त होकर भी जीव पृथक् अस्तित्व रखता है, जैसा कि कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिये गये उपदेशों से स्पष्ट है। अर्जुन कृष्ण के उपदेश के कारण मुक्त तो हो गया, किन्तु कभी भी कृष्ण से एकाकार नहीं हुआ।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय 2 : गीता का सार

वांसासि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोSपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा - न्यन्यानि संयाति नवानि देहि ।। 22।।

वासांसि– वस्त्रों को;जीर्णानि– पुराने तथा फटे;यथा– जिस प्रकार;विहाय– त्याग कर;नवानि– नए वस्त्र;गृह्णाति– ग्रहण करता है;नरः– मनुष्य;अपराणि– अन्य;तथा– उसी प्रकार;शरीराणि– शरीरों को;विहाय– त्याग कर;जीर्णानि– वृद्ध तथा व्यर्थ;अन्यानि– भिन्न;संयाति– स्वीकार करता है;नवानि– नये;देही– देहधारी आत्मा।
भावार्थ : जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा व्यर्थ के शरीरों को त्याग कर नवीन भौतिक शरीर धारण करता है।

तात्पर्य : अणु-आत्मा द्वारा शरीर का परिवर्तन एक स्वीकृत तथ्य है। आधुनिक विज्ञानीजन तक, जो आत्मा के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करते, पर साथ ही हृदय से शक्ति-साधन की व्याख्या भी नहीं कर पाते, उन परिवर्तनों को स्वीकार करने को बाध्य हैं, जो बाल्यकाल से कौमारावस्था औए फिर तरुणावस्था तथा वृद्धावस्था में होते रहते हैं। वृद्धावस्था से यही परिवर्तन दूसरे शरीर में स्थानान्तरित हो जाता है। इसकी व्याख्या एक पिछले श्लोक में (.१३) की जा चुकी है।

अणु-आत्मा का दूसरे शरीर में स्थानान्तरण परमात्मा की कृपा से सम्भव हो पाता है। परमात्मा अणु-आत्मा की इच्छाओं की पूर्ति उसी तरह करते हैं जिस प्रकार एक मित्र दूसरे की इच्छापूर्ति करता है। मुण्डक तथा श्वेताश्वतर उपनिषदों में आत्मा तथा परमात्मा की उपमा दो मित्र पक्षियों से दी गयी है और जो एक ही वृक्ष पर बैठे हैं। इनमें से एक पक्षी (अणु-आत्मा) वृक्ष के फल खा रहा है और दूसरा पक्षी (कृष्ण) अपने मित्र को देख रहा है। यद्यपि दोनों पक्षी समान गुण वाले हैं, किन्तु इनमें से एक भौतिक वृक्ष के फलों पर मोहित है, किन्तु दूसरा अपने मित्र के कार्यकलापों का साक्षी मात्र हैकृष्ण साक्षी पक्षी हैं, और अर्जुन फल-भोक्ता पक्षी। यद्यपि दोनों मित्र (सखा) हैं, किन्तु फिर भी एक स्वामी है और दूसरा सेवक है। अणु-आत्मा द्वारा इस सम्बन्ध की विस्मृति ही उसके एक वृक्ष से दूसरे पर जाने या एक शरीर से दूसरे शरीर में जाने का कारण है। जीव आत्मा प्राकृत शरीर रूपी वृक्ष पर अत्याधिक संघर्षशील है, किन्तु ज्योंही वह दूसरे पक्षी को परम गुरु के रूप में स्वीकार करता है – जिस प्रकार अर्जुन कृष्ण का उपदेश ग्रहण करने के लिए स्वेच्छा से उनकी शरण में जाता है – त्योंही परतन्त्र पक्षी तुरन्त सारे शोकों से विमुक्त हो जाता है। मुण्डक-उपनिषद् (..) तथा श्वेताश्वतर-उपनिषद् (.) समान रूप से इसकी पुष्टि करते हैं–

समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोSनीशया शोचति मुह्यमानः।
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः।।

यद्यपि दोनों पक्षी एक ही वृक्ष पर बैठे हैं, किन्तु फल खाने वाला पक्षी वृक्ष के फल के भोक्ता रूप में चिन्ता तथा विषाद में निमग्न है। यदि किसी तरह वह अपने मित्र भगवान् की ओर न्मुख होता है और उनकी महिमा को जान लेता है तो वह कष्ट भोगने वाला पक्षी तुरन्त समस्त चिन्ताओं से मुक्त हो जाता है।अब अर्जुन ने अपना मुख अपने शाश्वत मित्र कृष्ण की ओर फेरा है और उनसे भगवद्गीता समझ रहा है। इस प्रकार वह कृष्ण से श्रवण करके भगवान् की परम महिमा को समझ कर शोक से मुक्त हो जाता है।

यहाँ भगवान् ने अर्जुन को उपदेश दिया है कि वह अपने पितामह तथा गुरु से देहान्तरण पर शोक प्रकट न करे अपितु उसे इस धर्मयुद्ध में उनके शरीरों का वध करने में प्रसन्न होना चाहिए, जिससे वे सब विभिन्न शारीरिक कर्म-फलों से तुरन्त मुक्त हो जायें। बलिवेदी पर या धर्मयुद्ध में प्राणों को अर्पित करने वाला व्यक्ति तुरन्त शारीरिक पापों से मुक्त हो जाता है और उच्च लोक को प्राप्त होता है। अतः अर्जुन का शोक करना युक्तिसंगत नहीं है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय 2 : गीता का सार

न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोSयं पुराणोन हन्यते हन्यमाने शरीरे ।। 20।।
– कभी नहीं;जायते– जन्मता है;म्रियते– मरता है;कदाचित्– कभी भी (भूत, वर्तमान या भविष्य);– कभी नहीं;अयम्– यह;भूत्वा– होकर;भविता– होने वाला;वा– अथवा;– नहीं;भूयः– अथवा,पुनःहोने वाला है;अजः– अजन्मा;नित्य– नित्य;शाश्वत– स्थायी;अयम्– यह;पुराणः– सबसे प्राचीन;– नहीं;हन्यते– मारा जाता है;हन्यमाने– मारा जाकर;शरीरे– शरीर में;
भावार्थ : आत्मा के लिए किसी भी काल में न तो जन्म है न मृत्यु। वह न तो कभी जन्मा है, न जन्म लेता है और न जन्म लेगा। वह अजन्मा, नित्य, शाश्वततथा पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर वह मारा नहीं जाता।

तात्पर्य : गुणात्मक दृष्टि से, परमात्मा का अणु-अंश परम से अभिन्न है। वह शरीर की भाँति विकारी नहीं है। कभी-कभी आत्मा को स्थायी या कूटस्थ कहा जाता है। शरीर में छह प्रकार के रूपान्तर होते हैं। वह माता के गर्भ से जन्म लेता है, कुछ काल तक रहता है, बढ़ता है, कुछ परिणाम उत्पन्न करता है, धीरे-धीरे क्षीण होता है और अन्त में समाप्त हो जाता है। किन्तु आत्मा में ऐसे परिवर्तन नहीं होते। आत्मा अजन्मा है, किन्तु चूँकि ह भौतिक शरीर धारण करता है, अतः शरीर जन्म लेता है। आत्मा न तो जन्म लेता है, न मरता है। जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु भी होती है। और चूँकि आत्मा जन्म नहीं लेता, अतः उसका न तो भूत है, न वर्तमान या भविष्य। वह नित्य, शाश्वत तथा सनातन है – अर्थात् उसके जन्म लेने का कोई इतिहास नहीं है। हम शरीर के प्रभाव में आकर आत्मा के जन्म, मरण आदि का इतिहास खोजते हैं। आत्मा शरीर की तरह कभी भी वृद्ध नहीं होता, अतः तथाकथित वृद्ध पुरुष भी अपने में बाल्यकाल या युवावस्था जैसी अनुभूति पाता है। शरीर के परिवर्तनों का आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं होता। शरीर की उपसृष्टि सन्तानें हैं और वे भी व्यष्टि आत्माएँ है और शरीर के कारण वे किसी न किसी की सन्तानें प्रतीत होते हैं। शरीर की वृद्धि आत्मा की उपस्थिति के कारण होती है, किन्तु आत्मा के न तो कोई उपवृद्धि है न ही उसमें कोई परिवर्तन होता है। अतः आत्मा शरीर के छः प्रकार के परिवर्तन से मुक्त है। कठोपनिषद् में (..१८) इसी तरह का एक श्लोक आया है –

न जायते म्रियते वा विपश्चचिन्न बभूव कश्चचित् ।
अजो नित्यः शाश्वतोSयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।

इस श्लोक का अर्थ तथा तात्पर्य भगवद्गीता के श्लोक जैसा ही है, किन्तु इस श्लोक में एक विशिष्ट शब्द विपश्चचित् का प्रयोग हुआ है जिसका अर्थ है विद्वान या ज्ञानमय। आत्मा ज्ञान से या चेतना से सदैव पूर्ण रहता है। अतः चेतना ही आत्मा का लक्षण है। यदि कोई हृदयस्थ आत्मा को नहीं खोज पाता तब भी वह आत्मा की उपस्थिति को चेतना की उपस्थिति से जान सकता है। कभी-कभी हम बादलों या अन्य कारणों से आकाश में सूर्य को नहीं देख पाते, किन्तु सूर्य का प्रकाश सदैव विद्यमान रहता है, अतः हमें विश्चवास हो जाता है कि यह दिन का समय है। प्रातःकाल ज्योंही आकाश में थोड़ा सा सूर्यप्रकाश दिखता है तो हम समझ जाते हैं कि सूर्य आकाश में है। इसी प्रकार चूँकि शरीरों में, चाहे पशु के हों या पुरुषों के, कुछ न कुछ चेतना रहती है, अतः हम आत्मा की उपस्थिति को जान लेते हैं। किन्तु जीव की यह चेतना परमेश्वर की चेतना से भिन्न है क्योंकि परम चेतना तो सर्वज्ञ है – भूत, वर्तमान तथा भविष्य के ज्ञान से पूर्ण। व्यष्टि जीव की चेतना विस्मरणशील है। जब वह अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाता है, तो उसे कृष्ण के उपदेशों से शिक्षा तथा प्रकाश और बोध प्राप्त होता है। किन्तु कृष्ण विस्मरणशील जीव नहीं हैं। यदि वे ऐसे होते तो उनके द्वारा दिये गये भगवद्गीता के उपदेश व्यर्थ होते। आत्मा के दो प्रकार है – एक तो अणु-आत्मा और दूसरा विभु-आत्मा। कठोपनिषद् में (..२०) इसकी पुष्टि इस प्रकार हुई है –

अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम् ।
तमक्रतुः पश्यति वीतशोको धातुः प्रसादान्महिमानमात्मनः ।।

परमात्मा तथा अणु-आत्मा दोनों शरीर रूपी उसी वृक्ष में जीव के हृदय में विद्यमान हैं और इनमें से जो समस्त इच्छाओं तथा शोकों से मुक्त हो चूका है वही भगवत्कृपा से आत्मा की महिमा को समझ सकता है।कृष्ण परमात्मा के भी उद्गम हैं जैसा कि अगले अध्यायों में बताया जायेगा और अर्जुन अणु-आत्मा के सामान है जो अपने वास्तविक स्वरूप को भूल गया है। अतः उसे कृष्ण द्वारा या उनके प्रामाणिक प्रतिनिधि गुरु द्वारा प्रबुद्ध किये जाने की आवश्यकता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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