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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय 2 : गीता का सार


जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येSर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।27 ।।

जातस्य– जन्म लेने वाले की;हि– निश्चय ही;ध्रुवः– तथ्य है;मृत्युः– मृत्यु;ध्रुवम्– यह भी तथ्य है;जन्म– जन्म;मृतस्य– मृत प्राणी का;– भी;तस्मात्– अतः;अपरिहार्ये– जिससे बचा न जा सके, उसका;अर्थे– के विषय में;– नहीं;त्वम्– तुम;शोचितुम्– शोक करने के लिए;अर्हसि– योग्य हो।
भावार्थ: जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म भी निश्चित हैअतः अपने अपरिहार्य कर्तव्यपालन में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए।

तात्पर्य : मनुष्य को अपने कर्मों के अनुसार जन्म ग्रहण करना होता है और एक कर्म-अवधि समाप्त होने पर उसे मरना होता है, जिससे वह दूसरा जन्म ले सके। इस प्रकार मुक्ति प्राप्त किये बिना ही जन्म-मृत्यु का यह चक्र चलता रहता है। जन्म-मरण के इस चक्र से वृथा हत्या, वध या युद्ध का समर्थन नहीं होता। किन्तु मानव समाज में शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए हिंसा तथा युद्ध अपरिहार्य हैं। कुरुक्षेत्र का युद्ध भगवान् की इच्छा होने के कारण अपरिहार्य था और सत्य के लिए युद्ध करना क्षत्रिय का धर्म है। अतः अपने कर्तव्य का पालन करते हुए वह स्वजनों की मृत्यु से भयभीत या शोककुल क्यों था? वह विधि (कानून) को भंग नहीं करना चाहता था क्योंकि ऐसा करने पर उसे उन पापकर्मों के फल भोगने पड़ेंगे जिनसे वह अत्यन्त भयभीत था। अपने कर्तव्य का पालन करते हुए वह स्वजनों की मृत्यु को रोक नहीं सकता था और यदि वह अनुचित कर्तव्य-पथ का चुनाव करे, तो उसे नीचे गिरना होगा।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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Comments

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