भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक
अध्याय 2 : गीता का सार
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ।। 44 ।।
भोग– भौतिक भोग;ऐश्वर्य– तथा ऐश्वर्य के प्रति;प्रसक्तानाम्– आसक्तों के लिए;तया– ऐसी वस्तुओं से;अपहृत-चेत्साम्– मोह्ग्रसित चित्त वाले;व्यवसाय-आत्मिकाः– दृढ़ निश्चय वाली;बुद्धिः– भगवान् की भक्ति;समाधौ– नियन्त्रित मन में;न– कभी नहीं;विधीयते– घटित होती है।
भावार्थ: जो लोग इन्द्रियभोग तथा भौतिक ऐश्वर्य के प्रति अत्यधिक आसक्त होने से ऐसी वस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाते हैं, उनके मनों में भगवान् के प्रति भक्ति का दृढ़ निश्चय नहीं होता।
तात्पर्य: समाधि का अर्थ है “स्थिर मन।” वैदिक शब्दकोष निरुक्ति के अनुसार – सम्यग् आधीयतेSस्मिन्नात्मतत्त्वयाथात्म्यम् – जब मन आत्मा को समझने में स्थिर रहता है तो उसे समाधि कहते हैं। जो लोग इन्द्रियभोग में रूचि रखते हैं अथवा जो ऐसी क्षणिक वस्तुओं से मोहग्रस्त हैं उनके लिए समाधि कभी भी सम्भव नहीं है। माया के चक्कर में पड़कर वे न्यूनाधिक पतन को प्राप्त होते हैं।
(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)
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