भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक
अध्याय 2 : गीता का सार
क्रोधाद् भवति सम्मोहः सम्मोहात् स्मृति-विभ्रमः ।
स्मृति-भ्रमसद् बुद्धि-नासो बुद्धि-नासत् प्रणस्यति ॥ 63॥
क्रोधात्-क्रोध से; भवति-होता है; सम्मोहः-पूर्ण भ्रम; सम्मोहत्-भ्रम से; स्मृति-स्मृति का; विभ्रमः-भ्रम; स्मृति-भ्रमसात्-स्मृति के भ्रमित होने के बाद ;बुद्धि-नाशः-बुद्धि का नाश; बुद्धि-नासत्-और बुद्धि के नाश से; प्रणश्यति-गिर जाती है।
भावार्थ : क्रोध से मोह उत्पन्न होता है और मोह से स्मरणशक्ति का विभ्रम हो जाता है। जब स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाती है, तो बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट होने पर मनुष्य भव-कूप में पुनः गिर जाता है ।
तात्पर्य : कृष्णभावनामृत के विकास से व्यक्ति जान सकता है कि भगवान की सेवा में हर वस्तु का उपयोग होता है। जो लोग कृष्णभावनामृत के ज्ञान से रहित हैं, वे कृत्रिम रूप से भौतिक वस्तुओं से बचने का प्रयास करते हैं, और परिणामस्वरूप, यद्यपि वे भवबन्धन से मुक्ति चाहते हैं, वे त्याग की पूर्ण अवस्था को प्राप्त नहीं कर पाते। दूसरी ओर, कृष्णभावनामृत में व्यक्ति जानता है कि भगवान की सेवा में हर वस्तु का उपयोग कैसे किया जाए; इसलिए वह भौतिक चेतना का शिकार नहीं बनता। उदाहरणार्थ, निर्विशेषवादी के अनुसार भगवान निराकार होने के कारण, भोजन नहीं कर सकते। अतः वह अच्छे खाद्य पदार्थों से बचता रहता है, किन्तु भक्त जानता है कि कृष्ण परम भोक्ता हैं और भक्तिपूर्वक उन पर जो भी भेंट चढ़ायी जाती है, उसे वे खाते हैं। अतः भगवान को अच्छा भोजन चढ़ाने के बाद भक्त प्रसाद ग्रहण करता है। इस प्रकार हर वस्तु प्राणवान हो जाती है और अध:पतन का कोई संकट नहीं रहता। भक्त कृष्णभावनामृत में रहकर प्रसाद ग्रहण करता है, जबकि अभक्त इसे पदार्थ के रूप में तिरस्कार कर देता है। अतः निर्विशेषवादी अपने कृत्रिम त्याग के कारण जीवन को भोग नहीं पाता और यही कारण है कि मन के थोड़े से विचलन से वह भव-कूप में पुनः आ गिरता है। कहा जाता है कि मुक्ति के स्तर तक पहुँच जाने पर भी ऐसा जीव नीचे गिर जाता है, क्योंकि उसे भक्ति का कोई आश्रय नही मिलता।
(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)
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