भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक
अध्याय 2 : गीता का सार
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोSप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ।। 59 ।।
विषयाः– इन्द्रियभोग की वस्तुएँ;विनिवर्तन्ते– दूर रहने के लिए अभ्यास की जाति हैं;निराहारस्य– निषेधात्मक प्रतिबन्धों से;देहिनः– देहवान जीव के लिए;रस-वर्जम्– स्वाद का त्याग करता है;रसः– भोगेच्छा;अपि– यद्यपि है;अस्य– उसका;परम्– अत्यन्त उत्कृष्ट वस्तुएँ;दृष्ट्वा– अनुभव होने पर;निवर्तते– वह समाप्त हो जाता है।
भावार्थ : देहधारी जीव इन्द्रियभोग से भले ही निवृत्त हो जाय पर उसमें इन्द्रियभोगों की इच्छा बनी रहती है। लेकिन उत्तम रस के अनुभव होने से ऐसे कार्यों को बन्द करने पर वह भक्ति में स्थिर हो जाता है।
तात्पर्य : जब तक कोई अध्यात्म को प्राप्त न हो तब तक इन्द्रियभोग से विरत होना असम्भव है। विधि-विधानों द्वारा इन्द्रियभोग को संयमित करने की विधि वैसी ही है जैसे किसी रोगी के किसी भोज्य पदार्थ खाने पर प्रतिबन्ध लगाना। किन्तु इससे रोगी की न तो भोजन के प्रति रूचि समाप्त होती है और न वह ऐसा प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहता है। इसी प्रकार अल्पज्ञानी व्यक्तियों के लिए इन्द्रिय संयमन के लिए अष्टांग-योग जैसी विधि की संस्तुति की जाती है जिसमें यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान आदि सम्मिलित हैं। किन्तु जिसने कृष्णभावनामृत के पथ पर प्रगति के क्रम में परमेश्वर कृष्ण के सौन्दर्य का रसास्वादन कर लिया है, उसे जड़ भौतिक वस्तुओं में कोई रूचि नहीं रह जाती। ऐसे प्रतिबन्ध तभी तक ठीक हैं जब तक कृष्णभावनामृत में रूचि जागृत नहीं हो जाती। और जब वास्तव में रूचि जागृत हो जाती है, तो मनुष्य में स्वतः ऐसी वस्तुओं के प्रति अरुचि उत्पन्न हो जाती है।
(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)
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