jagdish chandra chouhan's Posts (549)

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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

मार्कन्डेय द्वारा स्तुति

श्रीमद भागवतम द्वादश स्कन्ध (अध्याय आठ)

35 ये दोनों मुनि नर तथा नारायण भगवान के साकार रूप थे। जब मार्कण्डेय ऋषि ने दोनों को देखा तो वे तुरंत उठ खड़े हुए और तब पृथ्वी पर डंडे की तरह गिरकर अतीव आदर के साथ उन्हें नमस्कार किया।

36 उन्हें देखने से उत्पन्न हुए आनंद ने मार्कण्डेय के शरीर, मन तथा इंद्रियों को पूरी तरह तुष्ट कर दिया और उनके शरीर में रोमांच ला दिया और उनके नेत्रों को आँसुओं से भर दिया। भावविह्वल होने से मार्कण्डेय उन्हें देख पाने में असमर्थ हो रहे थे।

37 सम्मान में हाथ जोड़े खड़े होकर तथा दीनतावश अपना सिर झुकाये मार्कण्डेय को इतनी उत्सुकता हुई कि उन्हें लगा कि वे दोनों विभुओं का आलिंगन कर रहे हैं। आनंद से रुद्ध हुई वाणी से उन्होंने बारंबार कहा "मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।"

38 उन्होंने उन दोनों को आसन प्रदान किये, उनके चरण पखारे और तब अर्ध्य, चन्दन-लेप, सुगंधित तेल, धूप तथा फूल-मालाओं की भेंट चढ़ाकर पूजा की।

39 मार्कण्डेय ऋषि ने पुनः इन दो पूज्य मुनियों के चरणकमलों पर शीश झुकाया जो सुखपूर्वक बैठे थे और उन पर कृपा करने के लिए उद्यत थे। तब उन्होंने उनसे इस प्रकार कहा। श्री मार्कण्डेय ने कहा।

40 “हे सर्वशक्तिमान प्रभु, भला मैं आपका वर्णन कैसे कर सकता हूँ?“ आप प्राणवायु को जागृत करते हैं, जो मन, इंद्रियों तथा वाकशक्ति को कार्य करने के लिए प्रेरित करती है। यह सारे सामान्य बद्धजीवों पर, यहाँ तक कि ब्रह्मा तथा शिव जैसे महान देवताओं पर भी लागू होता है। अतएव यह निस्संदेह, मेरे लिए भी सही है। तो भी, आप अपनी पूजा करनेवालों के घनिष्ठ मित्र बन जाते हैं।

41 हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, आपके ये दो साकार रूप तीनों जगतों को चरम लाभ प्रदान करने के लिए--भौतिक कष्ट की समाप्ति तथा मृत्यु पर विजय के लिए---प्रकट हुए हैं। हे प्रभु, यद्यपि आप इस ब्रह्मांड की सृष्टि करते हैं और इसकी रक्षा करने के लिए नाना प्रकार के दिव्य रूप धारण करते हैं, किन्तु आप इसे निगल भी लेते हैं जिस तरह मकड़ी पहले जाल बुनती है और बाद में उसे निगल जाती है।

42 चूंकि आप सारे चर तथा अचर प्राणियों के रक्षक तथा परम नियंता हैं, इसलिए जो भी आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करता है, उसे भौतिक कर्म, भौतिक गुण या काल के दूषण छु तक नहीं सकते। जिन महर्षियों ने वेदों के अर्थ को आत्मसात कर रखा है, वे आपकी स्तुति करते हैं। आपका सान्निध्य प्राप्त करने के लिए वे हर अवसर पर आपको नमस्कार करते हैं, निरंतर आपको पूजते हैं और आपका ध्यान करते हैं।

43 हे प्रभु, ब्रह्मा भी, जोकि ब्रह्मांड की पूरी अवधि तक अपने उच्च पद का भोग करता है, काल की गति से भयभीत रहता है। तो उन बद्धजीवों के बारे में क्या कहा जाय जिन्हें ब्रह्मा उत्पन्न करते हैं। वे अपने जीवन के पग-पग पर भयावने संकटों का सामना करते हैं। मैं इस भय से छुटकारा पाने के लिए आपके चरणकमलों की जोकि साक्षात मोक्ष स्वरूप हैं शरण ग्रहण करने के सिवाय और कोई साधन नहीं जानता।

44 इसलिए मैं भौतिक शरीर तथा उन सारी वस्तुओं से, जो मेरी असली आत्मा को प्रच्छन्न करती हैं, अपनी पहचान का परित्याग करके आपके चरणकमलों की पूजा करता हूँ। ये व्यर्थ, अयथार्थ तथा क्षणिक आवरण, आपसे जिनकी बुद्धि समस्त सत्य को समेटे हुये है, पृथक होने की मात्र कल्पनाएँ हैं। परमेश्र्वर तथा आत्मा के गुरु स्वरूप आपको प्राप्त करके मनुष्य प्रत्येक वांछित वस्तु प्राप्त कर लेता है।

45 हे प्रभु, हे बद्धजीव के परम मित्र, यद्यपि इस जगत की उत्पत्ति, पालन और संहार के लिए आप सतो, रजो तथा तमोगुणों को जो आपकी मायाशक्ति हैं, स्वीकार करते हैं? किन्तु बद्धजीवों को मुक्त करने के लिए आप सतोगुण का प्रयोग करते हैं। अन्य दो गुण उनके लिए मात्र कष्ट, मोह तथा भय लाने वाले हैं।

46 हे प्रभु, चूँकि निर्भीकता, आध्यात्मिक सुख तथा भगवदधाम---ये सभी सतोगुण के द्वारा ही प्राप्त किये जाते हैं इसलिए आपके भक्त इसी गुण को आपकी प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति मानते हैं, रजो तथा तमोगुण को नहीं। इस तरह बुद्धिमान व्यक्ति आपके प्रिय दिव्य रूप को, जोकि शुद्ध सत्त्व से बना होता है, आपके शुद्ध भक्तों के आध्यात्मिक स्वरूपों के साथ पूजा करते हैं।

47 मैं उन भगवान को सादर नमस्कार करता हूँ। वे ब्रह्मांड के सर्वव्यापक तथा सर्वस्व हैं और इसके गुरु भी हैं। मैं भगवान नारायण को नमस्कार करता हूँ जो ऋषि के रूप में प्रकट होनेवाले परम पूज्य देव हैं। मैं संत स्वभाव वाले नर को भी नमस्कार करता हूँ जो मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ हैं, जो पूर्ण सात्विक हैं, जिनकी वाणी संयमित है और जो वैदिक वाड्मय के प्रचारक हैं।

48 भौतिकतावादी की बुद्धि उसकी धोखेबाज इंद्रियों की क्रिया से विकृत रहती है, इसलिए वह आपको तनिक भी पहचान नहीं पाता यद्यपि आप उसकी इंद्रियों तथा हृदय में और उसकी अनुभूति की वस्तुओं में सदैव विद्यमान रहते हैं। मनुष्य का ज्ञान आपकी माया से आवृत होते हुए भी, यदि वह, सबों के गुरु आपसे, वैदिक ज्ञान प्राप्त करता है, तो वह आपको प्रत्यक्ष रूप से समझ सकता है।

49 हे प्रभु, केवल वैदिक ग्रंथ ही आपके परम स्वरूप का गुह्य ज्ञान प्रकट करने वाले हैं, अतएव भगवान ब्रह्मा जैसे महान विद्वान भी आगमन विधियों द्वारा आपको समझने के प्रयास में मोहित हो जाते हैं। हर दार्शनिक अपने विशेष चिंतनपरक निष्कर्ष के अनुसार आपको समझता है। मैं उन परम पुरुष की पूजा करता हूँ जिनका ज्ञान बद्धत्माओं के आध्यात्मिक स्वरूप को आवृत करने वाली शारीरिक उपाधियों से छिपा हुआ है।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

देवताओं द्वारा स्तुति

श्रीमद भागवतम एकादश स्कन्ध (अध्याय छह)

7 देवता कहने लगे: हे प्रभु, बड़े बड़े योगी कठिन कर्म-बंधन से मुक्ति पाने का प्रयास करते हुए अपने हृदयों में आपके चरणकमलों का ध्यान अतीव भक्तिपूर्वक करते हैं। हम देवतागण अपनी बुद्धि, इंद्रियाँ, प्राण, मन तथा वाणी आपको समर्पित करते हुए, आपके चरणकमल पर नत होते हैं।

8 हे अजित प्रभु, आप तीन गुणों से बनी अपनी मायाशक्ति को अपने ही भीतर अचिंत्य व्यक्त जगत के सृजन, पालन तथा संहार में लगाते हैं। आप माया के परम नियंता के रूप में प्रकृति के गुणों की अन्योन्य क्रिया में स्थित जान पड़ते हैं, किन्तु आप भौतिक कार्यों द्वारा कभी प्रभावित नहीं होते। आप अपने नित्य आध्यात्मिक आनंद में ही लगे रहते हैं, अतएव आप पर किसी भौतिक संदूषण का दोषारोपण नहीं किया जा सकता।

9 हे सर्वश्रेष्ठ, जिनकी चेतना मोह से कलुषित है, वे केवल सामान्य पूजा, वेदाध्ययन, दान, तप तथा अनुष्ठानों द्वारा अपने को शुद्ध नहीं कर सकते। हमारे स्वामी, जिन शुद्ध आत्माओं ने आपके यश के प्रति दिव्य प्रबल श्रद्धा उत्पन्न कर ली है, उन्हें ऐसा शुद्ध जन्म प्राप्त होता है, जो ऐसी श्रद्धा से रहित लोगों को कभी प्राप्त नहीं हो पाता।

10 जीवन में सर्वोच्च लाभ की कामना करनेवाले बड़े बड़े मुनि अपने उन हृदयों के भीतर सदैव आपके चरणकमलों का स्मरण करते हैं, जो आपके प्रेम में द्रवित हैं। इसी तरह आपके आत्मसंयमी भक्तगण, आपके ही समान ऐश्वर्य पाने के लिए स्वर्ग से परे जाने की इच्छा से, आपके चरणकमलों की पूजा प्रातः दोपहर तथा संध्या समय करते हैं। इस तरह वे आपके चतुर्व्यूह रूप का ध्यान करते हैं। आपके चरणकमल उस प्रज्ज्वलित अग्नि के तुल्य हैं, जो भौतिक इंद्रियतृप्ति विषयक समस्त अशुभ इच्छाओं को भस्म कर देती है।

11 याज्ञिक लोग ऋग, यजु: तथा सामवेद में दी गई विधि के अनुसार यज्ञ की अग्नि में आहुती देते समय, आपके चरणकमलों का ध्यान करते हैं। इसी प्रकार योगीजन आपकी दिव्य योगशक्ति का ज्ञान प्राप्त करने की आशा से आपके चरणकमलों का ध्यान करते हैं और जो पूर्ण महाभागवत हैं, वे आपकी मायाशक्ति को पार करने की इच्छा से, आपके चरणकमलों की अच्छी तरह से पूजा करते हैं।

12 हे सर्वशक्तिमान, आप अपने सेवकों के प्रति इतने दयालु हैं कि आपने उस मुरझाई हुई (बासी) फूलमाला को स्वीकार कर लिया है, जिसे हमने आपके वक्षस्थल पर चढ़ाया था। चूँकि लक्ष्मी देवी आपके दिव्य वक्षस्थल पर वास करती हैं, इसलिए निस्संदेह वे हमारी भेंटों को उसी स्थान पर अर्पित करते देखकर उसी तरह ईर्ष्या करेंगी, जिस तरह एक सौत करती है। फिर भी आप इतने दयालु हैं कि आप अपनी नित्य संगिनी लक्ष्मीदेवी की परवाह न करते हुए हमारी भेंट को सर्वोत्तम पूजा मानकर ग्रहण करते हैं। हे दयालु प्रभु, आपके चरणकमल हमारे हृदयों की अशुभ कामनाओं को भस्म करने के लिए प्रज्ज्व्लित अग्नि का कार्य करें।

13 हे सर्वशक्तिमान प्रभु, आपने अपने त्रिविक्रम अवतार में ब्रह्मांड के कवच को तोड़ने के लिए अपना पैर ध्वज-दंड की तरह उठाया और पवित्र गंगा को तीन शाखाओं में तीनों लोकों में से होकर विजय-ध्वजा की भाँति बहने दिया। आपने अपने चरणकमलों के तीन बलशाली पगों से बलि महाराज को उनके विश्वव्यापी साम्राज्य सहित वश में कर लिया। आपके चरण असुरों में भय उत्पन्न करके, उन्हें स्वर्ग-जीवन की सिद्धि प्रदान करते हैं। हे प्रभु, हम आपकी निष्ठापूर्वक पूजा करना चाह रहे हैं, इसलिए आपके चरणकमल कृपा करके हमारे सभी पापकर्मों से हमें मुक्त करें।

14 आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं, दिव्य आत्मा हैं, जो भौतिक प्रकृति तथा इसके भोक्ता दोनों से श्रेष्ठ हैं। आपके चरणकमल हमें दिव्य आनंद प्रदान करें। ब्रह्मा इत्यादि सारे बड़े बड़े देवता देहधारी जीव हैं। आपके काल के वश में एक-दूसरे से लड़ते-झगड़ते वे सब उन बैलों जैसे हैं, जिन्हें छिदे हुए उनकी नाक में पड़ी रस्सी (नथ) के द्वारा खींचा जाता है।

15 आप इस ब्रह्मांड के सृजन, पालन तथा संहार के कारण हैं। आप प्रकृति की स्थूल तथा सूक्ष्म दशाओं को नियमित करनेवाले तथा हर जीव को अपने वश में करनेवाले हैं। कालरूपी चक्र की तीन नाभियों के रूप में आप अपने गंभीर कार्यों द्वारा सारी वस्तुओं का ह्रास करनेवाले हैं और इस तरह आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं।

16 हे प्रभु, आदि पुरुष-अवतार महाविष्णु अपनी सर्जक शक्ति आपसे ही प्राप्त करते हैं। इस तरह अच्युत शक्ति से युक्त वे प्रकृति में दृष्टिपात करके महत तत्व उत्पन्न करते हैं। तब भगवान की शक्ति से समन्वित यह महत तत्त्व अपने में से ब्रह्मांड का आदि सुनहला अंडा उत्पन्न करता है, जो भौतिक तत्त्वो के कई आवरणों (परतों) से ढका होता है।

17 हे प्रभु, आप इस ब्रह्मांड के परम स्रष्टा हैं और समस्त चर तथा अचर जीवों के परम नियंता हैं। आप हृषीकेश अर्थात सभी इंद्रियविषयक कार्यों के परम नियंता हैं, और आप कभी भी इस भौतिक सृष्टि के भीतर अनंत इंद्रियविषय कार्यों के अधीक्षक के समय संदूषित या लिप्त नहीं होते। दूसरी ओर, अन्य जीव, यहाँ तक कि योगी तथा दार्शनिक भी उन भौतिक वस्तुओं का स्मरण करके विचलित तथा भयभीत रहते हैं।

18 हे प्रभु, आप सोलह हजार अत्यंत सुंदर राजसी पत्नियों के साथ रह रहे हैं। अपनी अत्यंत लजीली तथा मुस्कान-भरी चितवन तथा सुंदर धनुष-रूपी भौंहों से वे आपको उत्सुक प्रणय का संदेश भेजती हैं। किन्तु वे आपके मन तथा इंद्रियों को विचलित करने में पूरी तरह असमर्थ रहती हैं।

19 आपके विषय में वार्ता रूपी अमृतवाहिनी नदियाँ तथा आपके चरणकमलों के धोने से उत्पन्न पवित्र नदियाँ तीनों लोकों के सारे कल्मष को विनष्ट करने में समर्थ हैं। जो शुद्धि के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, वे अपने कानों से सुनी हुई आपकी महिमा की पवित्र कथाओं का सान्निध्य पाते हैं और आपके चरणकमलों से निकलने वाली पवित्र नदियों से उनमें स्नान करके, सान्निध्य प्राप्त करते हैं।

20 श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस तरह ब्रह्माजी शिव तथा अन्य देवताओं समेत भगवान गोविंद की स्तुति करने के बाद स्वयं आकाश में स्थित हो गये और उन्होंने भगवान को इस प्रकार से संबोधित किया।

21 ब्रह्मा ने कहा: हे प्रभु, इसके पूर्व हमने आपसे पृथ्वी का भार हटाने की प्रार्थना की थी। हे अनंत भगवान, हमारी वह प्रार्थना पूरी हुई है।

22 हे प्रभु, आपने उन पवित्र लोगों के बीच धर्म की पुनर्स्थापना की है, जो सत्य से सदैव दृढ़तापूर्वक बँधे हुए हैं। आपने अपनी कीर्ति का भी सारे विश्व में वितरण किया है। इस तरह सारा संसार आपके विषय में श्रवण करके शुद्ध किया जा सकता है।

23 आपने यदुवंश में अवतार लेकर अपना अद्वितीय दिव्य रूप प्रकट किया है और सम्पूर्ण ब्रह्मांड के कल्याण हेतु आपने उदार दिव्य कृत्य किये हैं।

24 हे प्रभु, कलियुग में पवित्र तथा संत पुरुष, जो आपके दिव्य कार्यों का श्रवण करते हैं और उनका यशोगान करते हैं, वे इस युग के अंधकार को सरलता से लाँघ जायेंगे।

25 हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, हे प्रभु, आप यदुकुल में अवतरित हुए हैं और अपने भक्तों के साथ आपने एक सौ पच्चीस शरद ऋतुएँ बिताई हैं।

26-27 हे प्रभु, इस समय देवताओं की ओर से,आपको करने के लिए कुछ भी शेष नहीं रहा। आपने पहले ही अपने वंश को ब्राह्मण के शाप से उबार लिया है। हे प्रभु, आप सारी वस्तुओं के आधार हैं और यदि आप चाहें, तो अब वैकुंठ में अपने धाम को लौट जाय। साथ ही, हमारी विनती है कि आप सदैव हमारी रक्षा करते रहें। हम आपके विनीत दास हैं और आपकी ओर से हम ब्रह्मांड का कार्यभार संभाले हुए हैं। हमें अपने लोकों तथा अनुयायियों समेत आपके सतत संरक्षण की आवश्यकता है।

28 भगवान ने कहा: हे देवताओं के अधीश ब्रह्मा, मैं तुम्हारी प्रार्थनाओं तथा अनुरोध को समझता हूँ। पृथ्वी का भार हटाकर मैं वह सारा कार्य सम्पन्न कर चुका, जिस कार्य की तुम लोगों से अपेक्षा थी।

29 वही यादव-कुल, जिसमें मैं प्रकट हुआ, ऐश्वर्य में, विशेष रूप से अपने शारीरिक बल तथा साहस में, इस हद तक बढ़ गया कि वे सारे जगत को ही निगल जाना चाहता था। इसलिए मैंने उन्हें रोक दिया है, जिस तरह तट महासागर को रोके रहता है।

30 यदि मुझे यदुवंश के इन अतिशय घमंड से चूर रहनेवाले सदस्यों को हटाये बिना यह संसार त्यागना पड़ा, तो इनके असीम विस्तार के उफान से सारा संसार विनष्ट हो जायेगा।

31 अब ब्राह्मणों के शाप के कारण मेरे परिवार का विनाश पहले ही शुरु हो चुका है। हे निष्पाप ब्रह्मा, जब यह विनाश पूरा हो चूकेगा और मैं वैकुंठ जा रहा होऊँगा, तो मैं थोड़े समय के लिए तुम्हारे वास-स्थान पर अवश्य आऊँगा।

32 श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा: ब्रह्मांड के स्वामी द्वारा ऐसा कहे जाने पर स्वयंभू ब्रह्मा उनके चरणकमलों पर गिर पड़े और उन्हें नमस्कार किया। तब सारे देवताओं से घिरे हुए ब्रह्माजी अपने निजी धाम लौट गये।

33 तत्पश्र्चात, भगवान ने देखा कि पवित्र नगरी द्वारका में भयंकर उत्पात हो रहे हैं। अतः एकत्रित वृद्ध यदुवंशियों से भगवान इस प्रकार बोले।

34-38 भगवान ने कहा: ब्राह्मणों ने हमारे वंश को शाप दिया है। ऐसे शाप का परिहार असंभव है, इसीलिए हमारे चारों ओर महान उत्पात हो रहे हैं। हे आदरणीय वरेषूजनों, यदि हम अपने प्राणों को अक्षत रखना चाहते हैं, तो अब और अधिक काल तक हमें इस स्थान पर नहीं रहना चाहिए। आज ही हम परम पवित्र स्थल प्रभास चलें। हमें तनिक भी विलंब नहीं करना चाहिए। एक बार दक्ष के शाप के कारण चंद्रमा यक्ष्मा से पीड़ित था, किन्तु प्रभास क्षेत्र में स्नान करने मात्र से चंद्रमा अपने सारे पापों से तुरंत विमुक्त हो गया और उसने अपनी कलाओं की अभिवृद्धि भी प्राप्त की। प्रभास क्षेत्र में स्नान करने, वहाँ पर पितरों तथा देवताओं को प्रसन्न करने के लिए बलि देने, पूज्य ब्राह्मणों को नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन खिलाने तथा उन्हें ही दान का योग्य पात्र मानकर पर्याप्त दान देने से, हम निश्चय ही इन भीषण संकटों को पार कर सकेंगे, जिस तरह मनुष्य किसी उपयुक्त नाव में चढ़कर महासागर को पार कर सकता है।

39-41 शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे कुरुनंदन, इस तरह भगवान द्वारा आदेश दिये जाने पर यादवों ने उस प्रभास क्षेत्र नामक पवित्र स्थान को जाने का निश्चय किया और उन्होंने अपने-अपने रथों में घोड़े जोत दिये। हे राजन, उद्धव भगवान कृष्ण के सदा से ही श्रद्धावान अनुयायी थे। यादवों के कूच को अत्यंत निकट देखकर, उनसे भगवान के आदेशों को सुनकर तथा भयावने अपशकुनों को ध्यान में रखते हुए, वे एकांत स्थान में भगवान के पास गये। उन्होंने ब्रह्मांड के परम नियंता के चरणकमलों पर अपना शीश झुकाया और हाथ जोड़कर उनसे इस प्रकार बोले।

42-49 श्री उद्धव ने कहा: हे प्रभु, हे देवों के परम ईश्र्वर, आपकी दिव्य महिमा का श्रवण और कीर्तन करने से ही जीव पवित्र होता है। हे प्रभु, ऐसा लगता है कि अब आप अपने वंश को समेट लेंगे और आप इस ब्रह्मांड में अपनी लीलाएँ भी बंद कर देंगे। आप समस्त माया-शक्ति के परम नियंता और स्वामी हैं। यद्यपि आप अपने वंश को दिये गये ब्राह्मणों के शाप को मिटाने में पूर्णतया समर्थ हैं, किन्तु आप ऐसा नहीं कर रहे हैं और आपका तिरोधान सन्निकट है। हे स्वामी, भगवान कृष्ण, मैं आधे क्षण के लिए भी आपके चरणकमलों का बिछोह सहन नहीं कर सकता। मेरी विनती है कि आप मुझे भी अपने साथ अपने धाम लेते चले। हे कृष्ण, आपकी लीलाएँ मनुष्य प्रजाति के लिए अतीव शुभ हैं और कानों के लिए मादक पेय तुल्य हैं। ऐसी लीलाओं का आस्वादन करने पर लोग अन्य वस्तुओं की इच्छाएँ भूल जाते हैं। हे प्रभु, आप परमात्मा हैं, इसलिए आप हमें सर्वाधिक प्रिय हैं। हम सभी आपके भक्त हैं, तो भला हम किस तरह आपको त्याग सकते हैं या आपके बिना क्षण भर भी रह सकते हैं? हम लेटते-बैठते, चलते, खड़े होते, नहाते, खेलते, खाते या अन्य कुछ करते आपकी ही सेवा में निरंतर लगे रहते हैं। आपके द्वारा उपभोग की गई मालाओं, सुगंधित तेलों, वस्त्रों तथा गहनों से अपने को सजाकर तथा आपका जूठन खाकर हम आपके दास निश्चय ही आपकी माया को जीत सकेंगे।

47-49 आध्यात्मिक अभ्यास में गंभीरता से प्रयास करनेवाले ऋषिगण, ऊर्ध्वरेता, शांत तथा निष्पाप संन्यासी आध्यात्मिक धाम को प्राप्त करते हैं, जो ब्रह्म कहलाता है। हे महायोगी, यद्यपि हम सकाम कर्म के मार्ग पर विचरण करनेवाले बद्धजीव हैं, किन्तु हम आपके भक्तों की संगति में आपके विषय में सुनकर ही इस भौतिक जगत के अंधकार को पार कर जायेंगे। इस तरह आप जो भी अद्भुत कार्य करते हैं और अद्भुत बातें करते हैं, उनको हम सदैव स्मरण करते हैं और उनका यशोगान करते हैं। हम अत्यंत भावपूर्ण होकर स्मरण करते हैं कि आप अपने विश्वस्त सुमाधुर्य दाम्पत्य का भक्तों के साथ श्रंगारिक लीलाओं तथा ऐसी यौवनपूर्ण लीलाओं में लगे हुए आप किस तरह निर्भीक होकर मुसकाते तथा विचरण करते हैं। हे प्रभु, आपकी प्रेममयी लीलाएँ इस भौतिक जगत के भीतर सामान्य लोगों के कार्यकलापों की तरह ही मोहित करनेवाली हैं।

50 शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा परीक्षित, इस तरह संबोधित किये जाने पर देवकी-पुत्र कृष्ण अपने प्रिय अनन्य दास उद्धव से गुह्य रूप में उत्तर देने लगे।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

साक्षात वेदों द्वारा स्तुति

श्रीमद भागवतम दशम स्कन्ध (अध्याय सतासी)

14 श्रुतियों ने कहा: हे अजित, आपकी जय हो, जय हो, अपने स्वभाव से आप समस्त ऐश्वर्य से परिपूर्ण हैं, अतएव आप माया की शाश्र्वत शक्ति को परास्त करें, जो बद्धजीवों के लिए कठिनाइयाँ उत्पन्न करने के लिए तीनों गुणों को अपने वश में कर लेती है। चर तथा अचर देहधारियों की समस्त शक्ति को जागृत करनेवाले, कभी-कभी जब आप अपनी भौतिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों के साथ क्रीड़ा करते हैं, तो वेद आपको पहचान लेते हैं।

15 इस दृश्य जगत की पहचान ब्रह्म से की जाती है, क्योंकि परब्रह्म समस्त जगत की अनन्तिम नींव है। यद्यपि समस्त उत्पन्न वस्तुएँ उनसे उद्भूत होती है और अंत में उसी में लीन होती हैं, तो भी ब्रह्म अपरिवर्तित रहता है, जिस तरह कि मिट्टी जिससे अनेक वस्तुएँ बनाई जाती हैं और वे वस्तुएँ फिर उसी में लीन हो जाती हैं, वह अपरिवर्तित रहती है। इसीलिए सारे वैदिक ऋषि अपने विचारों, अपने शब्दों तथा अपने कर्मों को आपको ही अर्पित करते हैं। भला ऐसा कैसे हो सकता है कि जिस पृथ्वी पर मनुष्य रहते हैं, उसे उनके पैर स्पर्श न कर सकें।

16 अतएव हे त्रिलोकपति, बुद्धिमान लोग आपकी कथाओं के अमृतमय सागर में गहरी डुबकी लगाकर समस्त क्लेशों से छुटकारा पा लेते हैं, क्योंकि आपकी कथाएँ ब्रह्मांड के सारे दूषण को धो डालती हैं। तो फिर उन लोगों के बारे में क्या कहा जाय, जिन्होंने आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा अपने मनों को बुरी आदतों से और स्वयं को काल से मुक्त कर लिया है और, हे परम पुरुष, आपके असली स्वभाव की, जिसके भीतर निर्बाध आनंद भरा है, पूजा करने में समर्थ हैं?

17 यदि वे आपके श्रद्धालु अनुयायी बन जाते हैं, तभी वे साँस लेते हुए वास्तव में जीवित हैं, अन्यथा उनका साँस लेना धौंकनी जैसा है। यह तो आपकी एकमात्र कृपा ही है कि महत तत्त्व तथा मिथ्या अहंकार से प्रारम्भ होने वाले तत्त्वों ने इस ब्रह्मांड रूपी अंडे को जन्म दिया। अन्नमय इत्यादि स्वरूपों में आप ही चरम हैं, जो जीव के साथ भौतिक आवरणों में प्रवेश करके उसके ही जैसे स्वरूप ग्रहण करते हैं। स्थूल तथा सूक्ष्म भौतिक स्वरूपों से भिन्न, आप उन सबों में निहित वास्तविकता हैं।

18 बड़े बड़े ऋषियों द्वारा निर्दिष्ट विधियों के अनुयायियों में से, जिनकी दृष्टि कुछ कम परिष्कृत होती है, वे ब्रह्म को उदर क्षेत्र में उपस्थित मानकर पूजा करते हैं, किन्तु आरुणिगण उसे हृदय में उपस्थित मानकर पूजा करते हैं, जो सूक्ष्म केंद्र है जहाँ से सारी प्राणिक शाखाएँ (नाड़ियाँ) निकलती है। हे अनंत, ये पूजक अपनी चेतना को वहाँ से ऊपर उठाकर सिर की चोटी तक ले जाते हैं, जहाँ वे आपको प्रत्यक्ष देख सकते हैं। तत्पश्र्चात सिर की चोटी से चरम गंतव्य की ओर बढ़ते हुए वे उस स्थान पर पहुँच जाते हैं, जहाँ से पुनः इस जगत में, जो मृत्यु के मुख स्वरूप हैं, नहीं गिरेंगे।

19 आपने जीवों की जो विविध योनियाँ उत्पन्न की हैं, उनमें प्रवेश करके, उनकी उच्च तथा निम्न अवस्थाओं के अनुसार आप अपने को प्रकट करते हैं और उन्हें कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं, जिस प्रकार अग्नि अपने द्वारा जलाये जाने वाली वस्तु के अनुसार अपने को विविध रूपों में प्रकट करती है। अतएव जो लोग भौतिक आसक्तियों से सर्वथा मुक्त हैं, ऐसे निर्मल बुद्धि वाले लोग आपके अभिन्न तथा अपरिवर्तनशील आत्मा को इन तमाम अस्थायी योनियों में स्थायी सत्य के रूप में साक्षात्कार करते हैं।

20 प्रत्येक जीव अपने कर्म द्वारा सृजित भौतिक शरीरों में निवास करते हुए, वास्तव में, स्थूल या सूक्ष्म पदार्थ से आच्छादित हुए बिना रहता है। जैसा कि वेदों में वर्णन हुआ है, ऐसा इसलिए है, क्योंकि वह समस्त शक्तियों के स्वामी, आपका ही भिन्नांश है। जीव की ऐसी स्थिति को निश्चित करके ही विद्वान मुनिजन श्रद्धा से पूरित होकर, आपके उन चरणकमलों की पूजा करते हैं, जो मुक्ति के स्रोत हैं और जिन पर इस संसार की सारी वैदिक भेंटें अर्पित की जाती हैं।

21 हे प्रभु, कुछ भाग्यशाली आत्माओं ने आपकी उन लीलाओं के विस्तृत अमृत सागर में गोता लगाकर भौतिक जीवन की थकान से मुक्ति पा ली है, जिन लीलाओं को आप अगाध आत्म-तत्त्व का प्रचार करने के लिए साकार रूप धारण करके सम्पन्न करते हैं। ये विरली आत्माएँ मुक्ति की भी परवाह न करके घर-बार के सुख का परित्याग कर देती हैं, क्योंकि उन्हें आपके चरणकमलों का आनंद लूटने वाले हंसों के समूह सदृश भक्तों की संगति प्राप्त हो जाती है।

22 जब यह मानवीय शरीर आपकी पूजा के निमित्त काम में लाया जाता है, तो यह आत्मा, मित्र तथा प्रेमी की तरह कार्य करता है। किन्तु दुर्भाग्यवश, यद्यपि आप बद्धजीवों के प्रति सदैव कृपा प्रदर्शित करते हैं और हर तरह से स्नेहपूर्वक सहायता करते हैं और यद्यपि आप उनके असली आत्मा हैं, किन्तु सामान्य लोग आप में आनंद नहीं लेते। उल्टे वे माया की पूजा करके आध्यात्मिक आत्महत्या करते हैं। हाय! असत्य के प्रति भक्ति करके,वे निरंतर सफलता की आशा करते हैं, किन्तु वे विविध निम्न शरीर धारण करके इस अत्यंत भयावह जगत में निरंतर इधर-उधर भटकते रहते हैं।

23 भगवान के शत्रुओं ने भी, निरंतर मात्र उनका चिंतन करते रहने से, उसी परम सत्य को प्राप्त किया, जिसे योगीजन अपने श्र्वास, अपने मन तथा इंद्रियों को वश में करके योग-पूजा में स्थिर कर लेते हैं। इसी तरह हम श्रुतियाँ, जो समान्यतः आपको सर्वव्यापी देखती हैं, आपके चरणकमलों से वही अमृत प्राप्त कर सकेंगी, जिसका आनंद आपकी प्रियतमाएँ, आपकी विशाल सर्प सदृश बाहुओं के प्रति अपने प्रेमाकर्षण के कारण लूटती हैं, क्योंकि आप हमें तथा अपनी प्रियतमाओं को एक ही तरह से देखते हैं।

24 इस जगत का हर व्यक्ति हाल ही में उत्पन्न हुआ है और शीघ्र ही मर जायेगा। अतएव यहाँ का कोई भी व्यक्ति, उसे कैसे जान सकता है, जो हर वस्तु के पूर्व से विद्यमान है और जिसने प्रथम विद्वान ऋषि ब्रह्मा को और उसके बाद के छोटे तथा बड़े देवताओं को जन्म दिया है? जब वह लेट जाता है और हर वस्तु को अपने भीतर समेट लेता है, तो कुछ भी नहीं बचता---न तो स्थूल या सूक्ष्म पदार्थ, न ही इनसे बने शरीर, न ही काल की शक्ति और न शास्त्र।

25 माने हुए विद्वान जो यह घोषित करते हैं कि पदार्थ ही जगत का उद्गम है, कि आत्मा के स्थायी गुणों को नष्ट किया जा सकता है, कि आत्मा तथा पदार्थ के पृथक पक्षों से मिलकर आत्मा बना है या कि भौतिक व्यापारों से सच्चाई बनी हुई है---ऐसे विद्वान उन भ्रांत विचारोंपर अपनी शिक्षाओं को आधारित करते हैं, जो सत्य को छिपाते हैं। यह द्वैत धारणा कि जीव प्रकृति के तीन गुणों से उत्पन्न है, अज्ञानजन्य मात्र है। ऐसी धारणा का आपमें कोई आधार नहीं है, क्योंकि आप समस्त भ्रम (मोह) से परे हैं और पूर्ण चेतना का भोग करने वाले हैं।

26 इस जगत में सारी वस्तुएँ---सरलतम घटना से लेकर जटिल मानव-शरीर तक---प्रकृति के तीन गुणों से बनी हैं। यद्यपि ये घटनाएँ सत्य प्रतीत होती है, किन्तु वे आध्यात्मिक सत्य की मिथ्या प्रतिबिंब होती हैं, वे आप पर मन के अध्यारोपण हैं। फिर भी जो लोग परमात्मा को जानते हैं, वे सम्पूर्ण भौतिक सृष्टि को सत्य तथा साथ ही साथ आपसे अभिन्न मानते हैं। जिस तरह स्वर्ण की बनी वस्तुओं को, इसलिए अस्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे असली सोने की बनी हैं, उसी तरह यह जगत उन भगवान से अभिन्न है, जिसने इसे बनाया और फिर वे उसमें प्रविष्ट हो गये।

27 जो भक्त आपको समस्त जीवों के आश्रय रूप में पूजते हैं, वे मृत्यु की परवाह नहीं करते और उनके सिर पर आप अपना चरण रखते हैं, लेकिन आप वेदों के शब्दों से अभक्तों को पशुओं की तरह बाँध लेते हैं, भले ही वे प्रकांड विद्वान क्यों न हों। आपके स्नेहिल भक्तगण ही अपने को तथा अन्यों को शुद्ध कर सकते हैं, आपके प्रति शत्रु-भाव रखने वाले नहीं।

28 यद्यपि आपकी भौतिक इंद्रियाँ नहीं हैं, किन्तु आप हर एक की इंद्रिय-शक्ति के आत्म-तेजवान धारणकर्ता हैं। देवता तथा प्रकृति स्वयं आपकी पूजा करते हैं, जबकि अपने पूजा करने वालों द्वारा अर्पित भेंट का भोग भी करते हैं, जिस तरह किसी राज्य के विविध जनपदों के अधीन शासक अपने स्वामी को, जो कि पृथ्वी का चरम स्वामी होता है, भेंटें प्रदान करते हैं और साथ ही स्वयं अपनी प्रजा द्वारा प्रदत्त भेंट का भोग भी करते हैं। इस तरह आपके भय से ब्रह्मांड के स्रष्टा अपने अपने नियत कार्यों को श्रद्धापूर्वक सम्पन्न करते हैं।

29 हे नित्यमुक्त दिव्य भगवान, आपकी भौतिक शक्ति विविध जड़ तथा चेतन जीव योनियों को उनकी भौतिक इच्छाएँ जगाकर प्रकट कराती है, लेकिन ऐसा तभी होता है, जब आप उस पर अल्प दृष्टि डालकर उसके साथ क्रीड़ा करते हैं। हे भगवान, आप किसी को न तो अपना घनिष्ठ मित्र मानते हैं, न ही पराया, ठीक उसी तरह जिस तरह आकाश का अनुभवगम्य गुणों से कोई संबंध नहीं होता। इस मामले में आप शून्य के समान हैं।

30 यदि ये असंख्य जीव सर्वव्यापी होते और अपरिवर्तनशील शरीरों से युक्त होते, तो हे निर्विकल्प, आप संभवतः उनके परम शासक न हुए होते। लेकिन चूँकि वे आपके स्थानिक अंश हैं और उनके स्वरूप परिवर्तनशील हैं, अतएव आप उनका नियंत्रण करते हैं। निस्संदेह, जो किसी वस्तु की उत्पत्ति के लिए अवयव की आपूर्ति करता है, वह अवश्यमेव उसका नियंता है, क्योंकि कोई भी उत्पाद अपने अवयव कारण से पृथक विद्यमान नहीं रहता। यदि कोई यह सोचे कि उसने भगवान को, जो अपने प्रत्येक अंश में समरूप से रहते हैं जान लिया है, तो यह मात्र उसका भ्रम है, क्योंकि मनुष्य जो भी ज्ञान भौतिक साधनों से अर्जित करता है, वह अपूर्ण होगा।

31 न तो प्रकृति, न ही उसका भोग करने के लिए प्रयत्नशील आत्मा कभी जन्म लेते हैं, फिर भी जब ये दोनों संयोग करते हैं, तो जीवों का जन्म होता है, जिस तरह जहाँ तहाँ जल से वायु मिलती है, वहाँ वहाँ बुलबुले बनते हैं। जिस तरह नदियाँ समुद्र में मिलती हैं या विभिन्न फूलों का रस शहद में मिल जाता है, उसी तरह ये सारे बद्धजीव अंततोगत्वा अपने विविध नामों तथा गुणों समेत आप ब्रह्म में पुनः लीन हो जाते हैं।

32 विद्वान आत्माएँ, जो यह समझते हैं कि आपकी माया, किस तरह सारे मनुष्यों को मोहती है, वे आपकी उत्कट प्रेमाभक्ति करते हैं, क्योंकि आप जन्म तथा मृत्यु से मुक्ति के स्रोत हैं। भला आपके श्रद्धावान सेवकों को भौतिक जीवन का भय कैसे सता सकता है? दूसरी ओर, आपकी कुटिल भौहें, जो कालचक्र की तिहरी-नेमि हैं बारंबार उन्हें भयभीत बनाती हैं, जो आपकी शरण ग्रहण करने से इनकार करते हैं।

33 मन ऐसे उच्छृंखल घोड़े की तरह है, जिसको अपनी इंद्रियों एवं श्र्वास को संयमित कर चुके व्यक्ति भी वश में नहीं कर सकते। इस संसार में वे लोग, जो अवश मन को वश में करना चाहते हैं, किन्तु अपने गुरु के चरणों का परित्याग कर देते हैं, उन्हें विविध दुखदायी विधियों के अनुशीलन में सैकड़ों बाधाओं का सामना करना पड़ता है। हे अजन्मा भगवान, वे समुद्र में नाव पर बैठे उन व्यापारियों के समान हैं, जो किसी नाविक को भाड़े पर नहीं लेते।

34 जो व्यक्ति आपकी शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें आप परमात्मा स्वरूप दिखते हैं, जो समस्त दिव्य-आनंद स्वरूप हैं। ऐसे भक्तों के लिए अपने सेवकों, बच्चों या शरीरों, अपनी पत्नियों, धन या घरों, अपनी भूमि या स्वास्थ्य या वाहनों का क्या उपयोग रह जाता है? जो आपके विषय में सच्चाई को समझने में असफल होते हैं तथा यौन-आनंद के पीछे भागते रहते हैं, उनके लिए इस सम्पूर्ण जगत में, जो सदैव विनाशशील है और महत्त्व से विहीन है, ऐसा क्या है, जो उन्हें असली सुख प्रदान कर सके?

35 ऋषिगण मिथ्या गर्व से रहित होकर पवित्र तीर्थस्थानों तथा जहाँ जहाँ भगवान ने अपनी लीलाएँ प्रदर्शित की हैं, उनका भ्रमण करते हुए इस पृथ्वी पर निवास करते हैं। चूँकि ऐसे भक्त आपके चरणकमलों को अपने हृदयों में रखते हैं, अतः उनके पाँवों को धोने वाला जल सारे पापों को नष्ट कर देता है। जो कोई अपने मन को एक बार भी समस्त जगत के नित्य आनन्दमय आत्मा आपकी ओर मोड़ता है, वह घर पर ऐसे पारिवारिक जीवन के अधीन नहीं रहता, जिससे मनुष्य के अच्छे गुण छीन लिये जाते हैं।

36 यह प्रतिपादित किया जा सकता है कि यह जगत स्थायी रूप से सत्य है, क्योंकि इसकी उत्पत्ति स्थायी सत्य से हुई है, किन्तु इसका तार्किक खंडन हो सकता है। निस्संदेह, कभी कभी कार्य-कारण का ऊपरी अभेद सत्य नहीं सिद्ध हो पाता और कभी तो सत्य वस्तु का फल भ्रामक होता है। यही नहीं, यह जगत स्थायी रूप से सत्य नहीं हो सकता, क्योंकि यह केवल परम सत्य के ही स्वभावों में भाग नहीं लेता, अपितु उस सत्य को छिपाने वाले भ्रम में भी लेता है। वस्तुतः इस दृश्य जगत के दृश्य रूप उन अज्ञानी पुरुषों की परंपरा द्वारा अपनाई गई काल्पनिक व्यवस्था है, जो अपने भौतिक मामलों को सुगम बनाना चाहते थे। आपके वेदों के बुद्धिमत्तापूर्ण शब्द अपने विविध अर्थों तथा अंतर्निहित व्यवहारों से उन सारे पुरुषों को मोहित कर लेते हैं, जिनके मन यज्ञों के मंत्रोच्चारों को सुनते सुनते जड़ हो चुके हैं।

37 चूँकि यह ब्रह्मांड अपनी सृष्टि के पूर्व विद्यमान नहीं था और अपने संहार के बाद विद्यमान नहीं रहेगा, अतः हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि मध्यावधि में यह आपके भीतर दृश्य रूप में कल्पित होता है, जिनका आध्यात्मिक आनंद कभी नहीं बदलता। हम इस ब्रह्मांड की तुलना विविध भौतिक वस्तुओं के विकारों से करते हैं। निश्र्चय ही, जो यह विश्वास करते हैं कि यह छोटी-सी कल्पना सत्य है, वे अल्पज्ञ है।

38 मोहिनी प्रकृति सूक्ष्म जीव को, उसका आलिंगन करने के लिए आकृष्ट करती है और फलस्वरूप जीव उसके गुणों से बने रूप धारण करता है। बाद में वह अपने सारे आध्यात्मिक गुण खो देता है और उसे बारंबार मृत्यु भोगनी पड़ती है। किन्तु आप भौतिक शक्ति से अपने को उसी तरह बचाते रहते हैं, जिस तरह सर्प पुरानी केंचुल त्यागता है। आप आठ योगसिद्धियों से महिमायुक्त स्वामी हैं और असीम ऐश्वर्य का भोग करते हैं।

39 संन्यास-आश्रम के जो सदस्य अपने हृदय से भौतिक इच्छा को समूल उखाड़ कर फेंक नहीं देते, वे अशुद्ध बने रहते हैं और इस तरह आप उन्हें अपने को समझने नहीं देते। यद्यपि आप उनके हृदयों में विद्यमान रहते हैं, किन्तु उनके लिए आप उस मणि की तरह हैं, जिसे मनुष्य गले में पहने हुए भी भूल जाता है कि वह गले में है। हे प्रभु, जो लोग केवल इंद्रिय-तृप्ति के लिए योगाभ्यास करते हैं, उन्हें इस जीवन में तथा अगले जीवन में भी उस मृत्यु से, जो उन्हें नहीं छोड़ेगी, दंड मिलना चाहिए और आपसे भी, जिनके धाम तक, वे नहीं पहुँच सकते।

40 जब मनुष्य आपका साक्षात्कार कर लेता है, तो वह अपने विगत पवित्र तथा पापमय कर्मों से उदित होने वाले अच्छे तथा बुरे भाग्य की परवाह नहीं करता, क्योंकि इस अच्छे तथा बुरे भाग्य को नियंत्रित करने वाले एकमात्र आप हैं। ऐसा स्वरूपसिद्ध भक्त इसकी भी परवाह नहीं करता कि सामान्य जन उसके विषय में क्या कह रहे है? वह प्रतिदिन अपने कानों को आपके यशों से भरता रहता है, जो हर युग में मनु के वंशजों की अविच्छिन्न परंपरा से गाये जाते हैं। इस तरह आप उसका चरम मोक्ष बन जाते हैं।

41 चूँकि आप असीम हैं, अतः न तो स्वर्ग के अधिपति, न ही स्वयं आप अपनी महिमा के छोर तक पहुँच सकते हैं। असंख्य ब्रह्मांड अपने अपने खोलों में लिपटे हुए कालचक्र के द्वारा आपके भीतर घूमने के लिए उसी तरह बाध्य हैं, जिस तरह कि आकाश में धूल के कण इधर-उधर उड़ते रहते हैं, श्रुतियाँ आपको अपने अंतिम निष्कर्ष के रूप में प्रकट करके सफल बनती हैं, क्योंकि वे आपसे पृथक हर वस्तु को अपनी निरसन विधि से विलुप्त कर देती हैं।

42 भगवान श्री नारायण ऋषि ने कहा: परमात्मा के विषय में ये आदेश सुनकर ब्रह्मा के पुत्रों को अपना चरम गंतव्य समझ में आ गया। वे पूरी तरह संतुष्ट हो गए और उन्होंने सनन्दन की पूजा करके उनका सम्मान किया।

43 इस तरह उच्चतर स्वर्गलोकों में विचरण करनेवाले प्राचीन संतों ने सारे वेदों तथा पुराणों के इस अमृतमय तथा गुह्य रस को निचोड़ लिया।

44 चूँकि तुम पृथ्वी पर इच्छानुसार विचरण करते हो, अतः हे ब्रह्मापुत्र, तुम्हें आत्मविज्ञान विषयक इन उपदेशों पर श्रद्धापूर्वक ध्यान करना चाहिए, क्योंकि ये सारे मनुष्यों की भौतिक इच्छाओं को भस्म कर देते हैं।

45 शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब श्री नारायण ऋषि ने उन्हें इस तरह आदेश दिया, तो आत्मवान नारद मुनि ने उस आदेश को दृढ़ निष्ठा के साथ स्वीकार कर लिया, क्योंकि उनका व्रत एक योद्धा जैसा वीत्वपूर्ण होता है। हे राजन, अब अपने सारे कार्यों में सफल होकर, उन्होंने जो कुछ सुना था, उस पर विचार किया और भगवान को इस प्रकार उत्तर दिया।

46 श्री नारद ने कहा: मैं उन निर्मल कीर्ति वाले भगवान कृष्ण को नमस्कार करता हूँ, जो अपने सर्व-आकर्षक साकार अंशों को इसलिए प्रकट करते हैं, जिससे सारे जीव मुक्ति प्राप्त कर सकें।

47 शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: यह कहने के बाद नारद ने ऋषियों में अग्रणी श्री नारायण ऋषि को तथा उनके संत सदृश शिष्यों को भी शीश झुकाया। तब वे मेरे पिता द्वैपायन व्यास की कुटिया में लौट आये।

48 भगवान के अवतार व्यासदेव ने नारदमुनि का सत्कार किया और उन्हें बैठने के लिए आसन दिया, जिसे उन्होंने स्वीकार किया। तब नारद ने व्यास से वह कह सुनाया, जो उन्होंने श्री नारायण ऋषि के मुख से सुना था।

49 हे राजन, इस प्रकार मैंने तुम्हारे उस प्रश्न का उत्तर दे दिया है, जो इस विषय में तुमने मुझसे पूछा था कि मन उस ब्रह्म तक कैसे पहुँचता है, जो भौतिक शब्दों द्वारा वर्णनीय नहीं है और भौतिक गुणों से रहित है।

50 वह ही स्वामी है, जो इस ब्रह्मांड की निरंतर निगरानी करता है, जो इसके प्रकट होने के पूर्व, उसके बीच में तथा उसके बाद विद्यमान रहता है। वह अव्यक्त भौतिक प्रकृति तथा आत्मा दोनों का स्वामी है। इस सृष्टि को उत्पन्न करके, वह इसके भीतर प्रवेश कर जाता है और प्रत्येक जीव के साथ रहता है। वहाँ पर वह भौतिक देहों की सृष्टि करता है और फिर उनके नियामक के रूप में रहने लगता है। उनकी शरण में जाकर मनुष्य माया के आलिंगन से बच सकता है, जिस तरह स्वप्न देख रहा व्यक्ति अपने शरीर को भूल जाता है। जो व्यक्ति भय से मुक्ति चाहता है, उसे चाहिए कि उस भगवान हरि का निरंतर ध्यान धरे, जो सदैव सिद्धावस्था में रहता है और कभी भी भौतिक जन्म नहीं लेता।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

शिवजी द्वारा स्तुति

श्रीमद भागवतम दशम स्कन्ध (अध्याय तिरसठ)

33 बाणासुर की भुजाएँ कटते देखकर शिवजी को अपने भक्त के प्रति दया आ गयी अतः वे भगवान चक्रायुध (कृष्ण) के पास पहुँचे और उनसे इस प्रकार बोले।

34 श्री रुद्र ने कहा: आप ही एकमात्र परम सत्य, परम ज्योति तथा ब्रह्म की शाब्दिक अभिव्यक्ति के भीतर के गुह्य रहस्य हैं। जिनके हृदय निर्मल हैं, वे आपका दर्शन कर सकते हैं क्योंकि आप आकाश की भाँति निर्मल हैं।

35-36 आकाश आपकी नाभि है, अग्नि आपका मुख है, जल आपका वीर्य है और स्वर्ग आपका सिर है। दिशाएँ आपकी श्रवणेंद्रिय (कान) हैं, औषधि-पौधे आपके शरीर के रोएँ हैं तथा जलधारक बादल आपके सिर के बाल हैं। पृथ्वी आपका पाँव है, चंद्रमा आपका मन है तथा सूर्य आपकी दृष्टि (नेत्र) है, जबकि मैं आपका अहंकार हूँ। समुद्र आपका उदर है, इंद्र आपकी भुजा है, ब्रह्मा आपकी बुद्धि है, प्रजापति आपकी जननेन्द्रिय है और धर्म आपका हृदय है। असल में आप आदि-पुरुष हैं, लोकों के स्रष्टा हैं।

37 हे असीम शक्ति के स्वामी, इस भौतिक जगत में आपका वर्तमान अवतार न्याय के सिद्धांतों की रक्षा करने तथा समग्र ब्रह्मांड को लाभ दिलाने के निमित्त है। हममें से प्रत्येक देवता आपकी कृपा तथा सत्ता पर आश्रित है और हम सभी देवता सात लोक मंडलों को उत्पन्न करते हैं।

38 आप अद्वितीय, दिव्य तथा स्वयं-प्रकाश आदि-पुरुष हैं। अहैतुक होकर भी आप सबों के कारण हैं और परम नियंता हैं। तिस पर भी आप पदार्थ के उन विकारों के रूप में अनुभव किये जाते हैं, जो आपकी माया द्वारा उत्पन्न हैं। आप इन विकारों की स्वीकृति इसलिए देते हैं जिससे विविध भौतिक गुण पूरी तरह प्रकट हो सकें।

39 हे सर्वशक्तिमान, जिस प्रकार सूर्य बादल से ढका होने पर भी बादल को तथा अन्य सारे दृश्य रूपों को भी प्रकाशित करता है उसी तरह आप भौतिक गुणों से ढके रहने पर भी स्वयं प्रकाशित बने रहते हैं और उन सारे गुणों को, उन गुणों से युक्त जीवों समेत, प्रकट करते हैं।

40 आपकी माया से मोहित बुद्धि वाले अपने बच्चों, पत्नी, घर इत्यादि में पूरी तरह से लिप्त और भौतिक दुख के सागर में निमग्न लोग कभी ऊपर उठते हैं, तो कभी नीचे डूब जाते हैं।

41 जिसने ईश्र्वर से यह मनुष्य जीवन उपहार के रूप में प्राप्त किया है किन्तु फिर भी जो अपनी इंद्रियों को वश में करने तथा आपके चरणों का आदर करने में विफल रहता है, वह सचमुच शोचनीय है क्योंकि वह अपने को ही धोखा देता है।

42 जो मर्त्य प्राणी अपने इंद्रियविषयों के लिए, जिनका कि स्वभाव सर्वथा विपरीत है, आपको, अर्थात उसकी असली आत्मा, सर्वप्रिय मित्र तथा स्वामी हैं, छोड़ देता है, वह अमृत छोड़कर उसके बदले में विषपान करता है।

43 मैंने, ब्रह्मा ने, अन्य देवता तथा शुद्ध मन वाले मुनिगण--सभी लोगों ने पूर्ण मनोयोग से आपकी शरण ग्रहण की है। आप हमारे प्रियतम आत्मा तथा प्रभु हैं।

44 हे भगवन, भौतिक जीवन से मुक्त होने के लिए हम आपकी पूजा करते हैं। आप ब्रह्मांड के पालनकर्ता और इसके सृजन तथा मृत्यु के कारण हैं। आप समभाव तथा पूर्ण शांत, असली मित्र, आत्मा तथा पूज्य स्वामी हैं। आप अद्वितीय हैं और समस्त जगतों तथा जीवों के आश्रय हैं।

45 यह बाणासुर मेरा अति प्रिय तथा आज्ञाकारी अनुचर है और इसे मैंने अभयदान दिया है। अतएव हे प्रभु, इसे आप उसी तरह अपनी कृपा प्रदान करें जिस तरह आपने असुर-राज प्रह्लाद पर कृपा दर्शाई थी।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

भूमिदेवी द्वारा स्तुति

श्रीमद भागवतम दशम स्कन्ध (अध्याय उनसठ)

23 तब भूमिदेवी भगवान कृष्ण के पास आई और भगवान को अदिति के कुंडल भेंट किये जो चमकीले सोने के बने थे और जिसमें चमकीले रत्न जड़े थे। उसने उन्हें एक वैजयंती माला, वरुण का छत्र तथा मन्दर पर्वत की चोटी भी दी।

24 हे राजन, उनको प्रणाम करके तथा उनके समक्ष हाथ जोड़े खड़ी वह देवी भक्ति-भाव से पूरित होकर ब्रह्मांड के उन स्वामी की स्तुति करने लगी जिनकी पूजा श्रेष्ठ देवतागण करते हैं।

25 भूमिदेवी ने कहा: हे देवदेव, हे शंख, चक्र तथा गदा के धारणकर्ता, आपको नमस्कार है। हे परमात्मा, आप अपने भक्तों की इच्छाओं को पूरा करने के लिए विविध रूप धारण करते हैं। आपको नमस्कार है।

26 हे प्रभु, आपको मेरा सादर नमस्कार है। आपके उदर में कमल के फूल जैसा गड्ढा अंकित है, आप सदैव कमल के फूल की मालाओं से सुसज्जित रहते है, आपकी चितवन कमल जैसी शीतल है और आपके चरणों में कमल अंकित हैं।

27 हे वसुदेव, हे विष्णु, हे आदि-पुरुष, हे आदि-बीज भगवान, आपको सादर नमस्कार है। हे सर्वज्ञ, आपको नमस्कार है।

28 अनंत शक्तियों वाले, इस ब्रह्मांड के अजन्मा जनक ब्रह्म, आपको नमस्कार है। हे वर तथा अवर के आत्मा, हे सृजित तत्त्वों के आत्मा, हे सर्वव्यापक परमात्मा, आपको नमस्कार है।

29 हे अजन्मा प्रभु, सृजन की इच्छा करके आप वृद्धि करते हैं और तब रजोगुण धारण करते हैं। इसी तरह जब आप ब्रह्मांड का संहार करना चाहते हैं, तो तमोगुण और जब इसका पालन करना चाहते हैं, तो सतोगुण धारण करते हैं। तो भी आप इन गुणों से अनाच्छादित रहते हैं। हे जगतपति! आप काल, प्रधान तथा पुरुष हैं फिर भी आप पृथक एवं भिन्न रहते हैं।

30 यह भ्रम है कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, इंद्रिय-विषय, देवता, मन, इंद्रियाँ, मिथ्या अहंकार तथा महत तत्त्व आपसे स्वतंत्र होकर विद्यमान हैं। वास्तव में वे सब आपके भीतर हैं क्योंकि हे प्रभु आप अद्वितीय हैं।

31 यह भौमासुर का पुत्र है। यह भयभीत है और आपके चरणकमलों के समीप आ रहा है क्योंकि आप उन सबों के कष्टों को हर लेते हैं, जो आपकी शरण में आते हैं। कृपया इसकी रक्षा कीजिये। आप इसके सिर पर अपना कर-कमल रखें जो समस्त पापों को दूर करने वाला है।

32 शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह विनीत भक्ति के शब्दों से भूमिदेवी द्वारा प्रार्थना किये जाने पर परमेश्र्वर ने उसके पोते को अभय प्रदान किया और तब भौमासुर के महल में प्रवेश किया जो सभी प्रकार के ऐश्वर्य से पूर्ण था।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

श्रीमद भागवतम दशम स्कन्ध (अध्याय चालीस)

1 श्री अक्रूर ने कहा: हे समस्त कारणों के कारण, आदि तथा अव्यय महापुरुष नारायण,मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आपकी नाभि से उत्पन्न कमल के कोष से ब्रह्मा प्रकट हुए हैं और उनसे यह ब्रह्मांड अस्तित्व में आया है।

2 पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश एवं इसका स्रोत तथा मिथ्या अहंकार, महत-तत्त्व, समस्त भौतिक प्रकृति और उसका उद्गम तथा भगवान का पुरुष अंश, मन, इंद्रियाँ, इंद्रिय विषय तथा इंद्रियों के अधिष्ठाता देवता---ये सब विराट जगत के कारण आपके दिव्य शरीर से उत्पन्न हैं।

3 सम्पूर्ण भौतिक प्रकृति तथा ये अन्य सृजन-तत्त्व निश्र्चय ही आपको यथारूप में नहीं जान सकते क्योंकि ये निर्जीव पदार्थ के परिमंडल में प्रकट होते हैं। चूँकि आप प्रकृति के गुणों से परे हैं,अतः इन गुणों से बद्ध ब्रह्माजी भी आपके असली रूप को नहीं जान पाते।

4 शुद्ध योगीजन आपकी अर्थात परमेश्र्वर की तीन रूपों में अनुभूति करते हुए पूजा करते हैं। ये तीन हैं--जीव, भौतिक तत्त्व जिनसे जीवों के शरीर बने हैं तथा इन तत्त्वों के नियंत्रक देवता (अधिदेव)

5 तीन पवित्र अग्नियों से सम्बद्ध नियमों का पालन करने वाले ब्राह्मण तीनों वेदों से मंत्रोचार करके तथा अनेक रूपों और नामों वाले विविध देवताओं के लिए व्यापक अग्नि यज्ञ करके पूजा करते हैं।

6 आध्यात्मिक ज्ञान की खोज में कुछ लोग सारे भौतिक कार्यों का परित्याग कर देते हैं और इस तरह शांत होकर समस्त ज्ञान के आदि रूप आपकी पूजा करने के लिए ज्ञान-यज्ञ करते हैं।

7 अन्य लोग जिनकी बुद्धि शुद्ध है वे आपके द्वारा लागू किये गये वैष्णव शास्त्रों के आदेशों का पालन करते हैं। वे आपके चिंतन में अपने मन को लीन करके आपकी पूजा परमेश्र्वर रूप में करते हैं, जो अनेक रूपों में प्रकट होता है।

8 कुछ अन्य लोग भी हैं, जो आपकी पूजा भगवान शिव के रूप में करते हैं। वे उनके द्वारा बताये गये तथा अनेक उपदेशकों द्वारा नाना प्रकार से व्याख्यायित मार्ग का अनुसरण करते हैं।

9 किन्तु हे प्रभु,ये सारे लोग, यहाँ तक कि जिन्होंने आपसे अपना ध्यान मोड़ रखा है और जो अन्य देवताओं की पूजा कर रहे हैं, वे वास्तव में, हे समस्त देवमय, आपकी ही पूजा कर रहे हैं।

10 हे प्रभो, जिस प्रकार पर्वतों से उत्पन्न तथा वर्षा से पूरित नदियाँ सभी ओर से समुद्र में आकर मिलती हैं उसी तरह ये सारे मार्ग अंत में आप तक पहुँचते हैं।

11 आपकी भौतिक प्रकृति के सतो, रजो तथा तमोगुण ब्रह्मा से लेकर अचर प्राणियों तक के समस्त बद्धजीवों को पाशबद्ध किये रहते हैं।

12 मैं आपको नमस्कार करता हूँ, जो समस्त जीवों के परमात्मा होकर निष्पक्ष दृष्टि से हरेक की चेतना के साक्षी हैं। अज्ञान से उत्पन्न आपके भौतिक गुणों का प्रवाह उन जीवों के बीच प्रबलता के साथ प्रवाहित होता है, जो देवताओं, मनुष्यों तथा पशुओं का रूप धारण करते हैं।

13-14 अग्नि आपका मुख कही जाती है, पृथ्वी आपके पाँव हैं, सूर्य आपकी आँख है और आकाश आपकी नाभि है। दिशाएँ आपकी श्रवणेंद्रिय हैं, प्रमुख देवता आपकी बाँहें हैं और समुद्र आपका उदर है। स्वर्ग आपका सिर समझा जाता है और वायु आपकी प्राणवायु तथा शारीरिक बल है। वृक्ष तथा जड़ी-बूटियाँ आपके शरीर के रोम हैं, बादल आपके सिर के बाल हैं तथा पर्वत आपकी अस्थियाँ तथा नाखून हैं। दिन तथा रात का गुजरना आपकी पलकों का झपकना है, प्रजापति आपकी जननेन्द्रिय है और वर्षा आपका वीर्य है।

15 अपने अपने अधिष्ठातृ देवताओं तथा असंख्य जीवों समेत सारे जगत आप परम अविनाशी से उद्भूत हैं। ये सारे जगत मन तथा इंद्रियों पर आधारित होकर आपके भीतर घूमते रहते हैं, जिस प्रकार समुद्र में जलचर तैरते हैं अथवा छोटे छोटे कीट गूलर फल के भीतर छेदते रहते हैं।

16 आप अपनी लीलाओं का आनंद लेने के लिए इस भौतिक जगत में नाना रूपों में अपने को प्रकट करते हैं और ये अवतार उन लोगों के सारे दुखों को धो डालते हैं, जो हर्षपूर्वक आपके यश का गान करते हैं।

17-18 मैं सृष्टि के कारण भगवान मत्स्य रूप आपको नमस्कार करता हूँ जो प्रलय के सागर में इधर उधर तैरते रहे। मैं मधु तथा कैटभ के संहारक हयग्रीव को, मन्दराचल को धारण करने वाले विशाल कच्छप (भगवान कूर्म) को तथा पृथ्वी को उठाने में आनंद का अनुभव करने वाले सूकर अवतार (भगवान वराह) रूप आपको नमस्कार करता हूँ।

19 अपने संत भक्तों के भय को भगाने वाले अद्भुत सिंह (भगवान नृसिंह) तथा तीनों जगत को अपने पगों से नापने वाले वामन मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

20 घमंडी राजाओं रूपी जंगल को काट डालने वाले भृगुपति तथा राक्षस रावण का अंत करने वाले रघुकुल शिरोमणि भगवान राम, मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

21 सात्वतों के स्वामी आपको नमस्कार है। आपके वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध रूपों को नमस्कार है।

22 आपके शुद्ध रूप भगवान बुद्ध को नमस्कार है, जो दैत्यों तथा दानवों को मोह लेगा। आपके कल्कि रूप को नमस्कार है, जो राजा बनने वाले मांस-भक्षकों का संहार करने वाला है।

23 हे परमेश्र्वर, इस जगत में सारे जीव आपकी शक्ति माया से भ्रमित हैं। वे 'मैं' तथा 'मेरा' की मिथ्या धारणाओं में फँसकर सकाम कर्मों के मार्गों पर भटकते रहने के लिए बाध्य होते रहते हैं।

24 हे शक्तिशाली विभो, मैं भी अपने शरीर, संतानों, घर, पत्नी, धन तथा अनुयायियों को मूर्खता से वास्तविक मानकर इस प्रकार से भ्रमित हो रहा हूँ यद्यपि ये सभी स्वप्न के समान असत्य हैं।

25 इस तरह नश्र्वर को नित्य, अपने शरीर को आत्मा तथा कष्ट के साधनों को सुख के साधन मानते हुए मैंने भौतिक द्वन्द्वों में आनंद उठाने का प्रयत्न किया है। इस तरह अज्ञान से आवृत होकर मैं यह नहीं पहचान सका कि आप ही मेरे प्रेम के असली लक्ष्य हैं।

26 जिस तरह कोई मूर्ख व्यक्ति जल के अंदर उगी हुई वनस्पति से ढके हुए जल की उपेक्षा करके मृगतृष्णा के पीछे दौड़ता है उसी तरह मैंने आपसे मुख मोड़ रखा है।

27 मेरी बुद्धि इतनी कुंठित है कि मैं अपने मन को रोक पाने की शक्ति नहीं जुटा पा रहा जो भौतिक इच्छाओं तथा कार्यों से विचलित होता रहता है और मेरी जिद्दी इंद्रियों द्वारा निरंतर इधर-उधर घसीटा जाता है।

28 हे प्रभु, इस तरह पतित हुआ मैं आपके चरणों में शरण लेने आया हूँ, क्योंकि, यद्यपि अशुद्ध लोग आपके चरणों को कभी भी प्राप्त नहीं कर पाते, मेरा विचार है कि आपकी कृपा से तो यह संभव हो सका है। हे कमलनाभ भगवान, जब किसी का भौतिक जीवन समाप्त हो जाता है तभी वह आपके शुद्ध भक्तों की सेवा करके आपके प्रति चेतना उत्पन्न कर सकता है।

29 असीम शक्तियों के स्वामी परम सत्य को नमस्कार है। वे शुद्ध दिव्य-ज्ञान स्वरूप हैं, समस्त चेतनाओं के स्रोत हैं और जीव पर शासन चलाने वाली प्रकृति की शक्तियों के अधिपति हैं।

30 हे वसुदेवपुत्र आपको नमस्कार है। आपमें सारे जीवों का निवास है। हे मन तथा इंद्रियों के स्वामी, मैं पुनः आपको नमस्कार करता हूँ। हे प्रभु, मैं आपकी शरण में आया हूँ। आप मेरी रक्षा करें।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

इन्द्रदेव तथा माता सुरभि द्वारा स्तुति

श्रीमद भागवतम दशम स्कन्ध (अध्याय सत्ताईस)

1 शुकदेव गोस्वामी ने कहा: कृष्ण के गोवर्धन पर्वत उठाने तथा भयंकर वर्षा से व्रजवासियों की रक्षा करने के बाद गौवों की माता सुरभि गोलोक से कृष्ण का दर्शन करने आई। इनके साथ इन्द्र था।

2 भगवान का अपमान करने के कारण इन्द्र अत्यंत लज्जित था। एकांत स्थान में उनके पास जाकर इन्द्र उनके चरणों पर गिर पड़ा और सूर्य के समान तेज वाले मुकुट को भगवान के चरणकमलों पर रख दिया।

3 अब तक इन्द्र सर्वशक्तिमान कृष्ण की दिव्य शक्ति को सुन तथा देख चुका था और इस तरह तीनों जगतों के स्वामी होने का उसका मिथ्या गर्व चूर हो चुका था। याचना के लिये दोनों हाथ जोड़कर उसने भगवान को इस प्रकार संबोधित किया।

4 राजा इन्द्र ने कहा: आपका दिव्य रूप शुद्ध सतोगुण का प्राकट्य है, यह परिवर्तन से विचलित नहीं होता, ज्ञान से चमकता रहता है और रजो तथा तमोगुणों से रहित है। आपके भीतर माया तथा अज्ञान पर आश्रित भौतिक गुणों का प्रबल प्रवाह नहीं पाया जाता।

5 तो भला आपमें अज्ञानी व्यक्ति के लक्षण---यथा लोभ, काम, क्रोध तथा ईर्ष्या किस तरह रह सकते हैं क्योंकि इनकी उत्पत्ति संसार में मनुष्य की पूर्व-लिप्तता के कारण होती है और ये मनुष्य को संसार में अधिकाधिक जकड़ते जाते हैं? फिर भी हे परमेश्र्वर, आप धर्म की रक्षा करने तथा दुष्टों का दमन करने के लिए उन्हें दण्ड देते है।

6 आप इस सम्पूर्ण जगत के पिता, आध्यात्मिक गुरु और परम नियंता भी हैं। आप दुर्लंघ्य काल हैं जो पापियों को उन्हीं के हित के लिए दण्ड देता है। निस्संदेह स्वेच्छा से लिए जानेवाले विविध अवतारों में आप उन लोगों का मिथ्या दर्प दूर करते हैं, जो अपने को इस जगत का स्वामी मान बैठते हैं।

7 मुझ जैसे मूर्खजन जो अपने को जगत का स्वामी मान बैठते हैं तुरंत ही अपने मिथ्या गर्व को त्याग देते हैं और जब वे आपको काल के समक्ष भी निडर देखते हैं, तो वे तुरंत आध्यात्मिक प्रगति करने वाले भक्तों का मार्ग ग्रहण कर लेते हैं। इस तरह आप दुष्टों को शिक्षा देने के लिये ही दण्ड देते हैं।

8 अपनी शासन शक्ति के मद में चूर एवं आपके दिव्य प्रभाव से अंजान मैंने आपका अपमान किया है। हे प्रभु, आप मुझे क्षमा करें। मेरी बुद्धि मोहग्रस्त हो चुकी थी किन्तु अब मेरी चेतना को कभी इतनी अशुद्ध न होने दें।

9 हे दिव्य प्रभु, आप इस जगत में उन सेनापतियों को विनष्ट करने के लिए अवतरित होते हैं, जो पृथ्वी का भार बढ़ाते हैं और अनेक भीषण उत्पात मचाते हैं। हे प्रभु, उसी के साथ साथ आप उन लोगों के कल्याण के लिये कर्म करते हैं, जो श्रद्धापूर्वक आपके चरणकमलों की सेवा करते हैं।

10 सर्वव्यापी तथा सबों के हृदयों में निवास करने वाले हे परमात्मा, आपको मेरा नमस्कार। हे यदुकुलश्रेष्ठ, आपको मेरा नमस्कार।

11 अपने भक्तों की इच्छा के अनुसार दिव्य शरीर धारण करने वाले, शुद्ध चेतना रूप, सर्वस्व, समस्त वस्तुओं के बीज तथा समस्त प्राणियों के आत्मा रूप आपको मैं नमस्कार करता हूँ।

12 हे प्रभु, जब मेरा यज्ञ भंग हो गया, तो मैं मिथ्या अहंकार के कारण बहुत क्रुद्ध हुआ। इस तरह मैंने घनघोर वर्षा तथा वायु के द्वारा आपके ग्वाल समुदाय को विनष्ट कर देना चाहा।

13 हे प्रभु, मेरे मिथ्या अहंकार को चकनाचूर करके तथा मेरे प्रयास (वृंदावन को दंडित करने का) को पराजित करके आपने मुझ पर दया दिखाई है। अब मैं, परमेश्र्वर, गुरु तथा परमात्मा रूप आपकी शरण में आया हूँ।

14 शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार इन्द्र द्वारा वंदित होकर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण हँसे और तब बादलों की गर्जना जैसी गंभीर वाणी में उससे इस प्रकार बोले।

15 भगवान ने कहा: हे इन्द्र, मैंने तो दयावश ही तुम्हारे निमित्त होने वाले यज्ञ को रोक दिया था। तुम स्वर्ग के राजा के अपने ऐश्वर्य से अत्यधिक उन्मत्त हो चुके थे और मैं चाहता था कि तुम सदैव मेरा स्मरण कर सको।

16 अपनी शक्ति तथा ऐश्वर्य के नशे में उन्मत्त मनुष्य मुझे अपने हाथ में दण्ड का डंडा लिये हुए अपने निकट नहीं देख पाता। यदि मैं उसका वास्तविक कल्याण चाहता हूँ तो मैं उसे भौतिक सौभाग्य के पद से नीचे घसीट देता हूँ।

17 हे इन्द्र, अब तुम जा सकते हो। मेरी आज्ञा का पालन करो और स्वर्ग के राज-पद पर बने रहो। किन्तु मिथ्या अभिमान से रहित होकर गंभीर बने रहना।

18 तब अपनी संतान गौवों समेत माता सुरभि ने भगवान कृष्ण को नमस्कार किया। उनसे ध्यान देने के लिये सादर प्रार्थना करते हुए उस भद्र नारी ने भगवान को, जो उसके समक्ष ग्वालबाल के रूप में उपस्थित थे,संबोधित किया।

19 माता सुरभि ने कहा: हे कृष्ण, हे कृष्ण, हे योगियों में श्रेष्ठ, हे विश्र्व की आत्मा तथा उद्गम आप विश्र्व के स्वामी हैं और हे अच्युत, आपकी ही कृपा से हम सबों को आप जैसा स्वामी मिला है।

20 आप हमारे आराध्य देव हैं। अतएव हे जगतपति, गौवों, ब्राह्मणों, देवताओं एवं सारे संत पुरुषों के लाभ हेतु आप हमारे इन्द्र बनें।

21 ब्रह्माजी के आदेशानुसार हम इन्द्र के रूप में आपका राज्याभिषेक करेंगी। हे विश्र्वात्मा, आप पृथ्वी का भार उतारने के लिए इस संसार में अवतरित होते हैं।

22 शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान कृष्ण से इस तरह याचना करने के बाद माता सुरभि ने अपने दूध से उनका अभिषेक किया और इन्द्र ने अदिति तथा देवताओं की अन्य माताओं से आदेश पाकर अपने हाथी ऐरावत की सूँड से आकाशगंगा के जल से भगवान का जलाभिषेक किया। इस तरह देवताओं तथा ऋषियों की संगति में इन्द्र ने दशार्ह वंशज भगवान कृष्ण का राज्याभिषेक किया और उनका नाम गोविंद रखा।

23 वहाँ पर तुम्बुरु, नारद तथा विद्याधरों, सिद्धों और चारणों समेत अन्य गंधर्वगण समस्त जगत को शुद्ध करने वाले भगवान हरि के यश के गुणगान करने आये और देवताओं की पत्नियाँ हर्ष से भरकर भगवान के सम्मान में एकसाथ नाचीं।

24 सर्वप्रमुख देवताओं ने भगवान की प्रशंसा की और उन पर चारों ओर से फूलों की अद्भुत वर्षा की। इससे तीनों लोकों को परम संतोष का अनुभव हुआ और गौवों ने अपने दूध से पृथ्वी के सतह भाग को सिक्त कर दिया।

25 नदियाँ विविध प्रकार के स्वादिष्ट द्रवों से युक्त होकर बहने लगी, वृक्षों ने मधु निकाल लिया, खाद्य पौधे बिना जोते ही परिपक्व हो उठे और पर्वतों ने अपने गर्भ में छिपी मणियों को बाहर निकाल दिया।

26 हे कुरुनंदन परीक्षित, भगवान श्रीकृष्ण को अभिषेक कराने के बाद सभी जीवित प्राणी यहाँ तक कि जो स्वभाव के क्रूर थे, सर्वथा शत्रुतारहित बन गये।

27 गौवों तथा ग्वाल-जाति के स्वामी भगवान गोविंद को अभिषेक करने के बाद इन्द्र ने भगवान की अनुमति लीं और देवताओं तथा उच्च प्राणियों से घिरकर वह अपने स्वर्ग-धाम को लौट गया।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

कालिय की पत्नियों एवं कालिय नाग द्वारा स्तुति

श्रीमद भागवतम दशम स्कन्ध (अध्याय सोलह)

33 कालिय सर्प की पत्नियों ने कहा: इस अपराधी को जो दंड मिला है, वह निस्संदेह उचित ही है। आपने इस जगत में ईर्ष्यालु तथा क्रूर पुरुषों का दमन करने के लिए ही अवतार लिया है आप इतने निष्पक्ष हैं कि आप शत्रुओं तथा अपने पुत्रों को समान भाव से देखते हैं क्योंकि जब आप किसी जीव को दंड देते हैं, तो आप यह जानते होते हैं कि अंततः यह उसके हित के लिए है।

34 आपने जो कुछ यहाँ किया है, वह वास्तव में हम पर अनुग्रह है क्योंकि आप दुष्टों को जो दंड देते हैं वह निश्र्चित रूप से उनके कल्मष को दूर कर देता है। चूँकि यह बद्धजीव हमारा पति इतना पापी है कि इसने सर्प का शरीर धारण किया है अतएव उसके प्रति आपका यह क्रोध उसके प्रति आपकी कृपा ही समझी जानी चाहिए।

35 क्या हमारे पति ने पूर्वजन्म में गर्वरहित होकर तथा अन्यों के प्रति आदरभाव से पूरित होकर सावधानी से तपस्या की थी? क्या इसीलिए आप उससे प्रसन्न हैं? अथवा क्या उसने किसी पूर्वजन्म में समस्त जीवों के प्रति दयापूर्वक धार्मिक कर्तव्य पूरा किया था और क्या इसीलिए समस्त जीवों के प्राणाधार आप अब उससे संतुष्ट हैं?

36 हे प्रभु, हम नहीं जानते कि इस कालिय नाग ने किस तरह आपके चरणकमलों की धूल को स्पर्श करने का सुअवसर प्राप्त किया। इसके लिए तो लक्ष्मीजी ने अन्य सारी इच्छाएँ त्यागकर कठोर व्रत धारण करके सैकड़ों वर्षों तक तपस्या की थी।

37 जिन्होंने आपके चरणकमलों की धूल प्राप्त कर ली है वे न तो स्वर्ग का राज्य, न असीम वर्चस्व, न ब्रह्मा का पद, न ही पृथ्वी का साम्राज्य चाहते हैं। उन्हें योग की सिद्धियों अथवा मोक्ष तक में कोई रुचि नहीं रहती।

38 हे प्रभु, यद्यपि इस सर्पराज कालिय का जन्म तमोगुण में हुआ है और यह क्रोध के वशीभूत है किन्तु इसने अन्यों के लिए जो दुष्प्राप्य है उसे भी प्राप्त कर लिया है। इच्छाओं से पूर्ण होकर जन्म-मृत्यु के चक्कर में भ्रमण करनेवाले देहधारी जीव आपके चरणकमलों की धूल प्राप्त करने से ही अपने समक्ष सारे आशीर्वादों को प्रकट होते देख सकते हैं।

39 हे भगवन, हम आपको सादर नमस्कार करती हैं। यद्यपि आप सभी जीवों के हृदयों में परमात्मा रूप में स्थित हैं, तो भी आप सर्वव्यापक हैं। यद्यपि आप सभी उत्पन्न भौतिक तत्त्वों के आदि आश्रय हैं किन्तु आप उनके सृजन के पूर्व से विद्यमान हैं। यद्यपि आप हर वस्तु के कारण हैं किन्तु परमात्मा होने से आप भौतिक कार्य-कारण से परे हैं।

40 हे परम सत्य, हम आपको नमस्कार करती हैं। आप समस्त दिव्य चेतना एवं शक्ति के आगार हैं और अनंत शक्तियों के स्वामी हैं। यद्यपि आप भौतिक गुणों एवं विकारों से पूर्णतया मुक्त हैं किन्तु आप भौतिक प्रकृति के आदि संचालक हैं।

41 हम आपको नमस्कार करती हैं। आप साक्षात काल, काल के आश्रय तथा काल की विभिन्न अवस्थाओं के साक्षी हैं। आप ब्रह्मांड हैं और इसके पृथक द्रष्टा भी हैं। आप इसके स्रष्टा हैं और इसके समस्त कारणों के कारण हैं।

42-43 आप भौतिक तत्त्वों के, अनुभूति के सूक्ष्म आधार के, इंद्रियों के, प्राणवायु के तथा मन, बुद्धि एवं चेतना के परमात्मा हैं। हम आपको नमस्कार करती हैं। आपकी ही व्यवस्था के फलस्वरूप सूक्ष्मतम चिन्मय आत्माएँ प्रकृति के तीनों गुणों के रूप में अपनी झूठी पहचान बनाती हैं। फलस्वरूप उनकी स्व की अनुभूति प्रच्छन्न हो जाती है। हे अनंत भगवान, हे परम सूक्ष्म एवं सर्वज्ञ भगवान, हम आपको प्रणाम करती हैं, जो सदैव स्थायी दिव्यता में विद्यमान रहते हैं, विभिन्न वादों के विरोधी विचारों को स्वीकृति देते हैं और व्यक्त विचारों तथा उनको व्यक्त करनेवाले शब्दों को प्रोत्साहन देने वाली शक्ति हैं।

44 समस्त प्रमाणों के आधार, शास्त्रों के प्रणेता तथा परम स्रोत, इंद्रिय तृप्ति को प्रोत्साहित करनेवाले (प्रवृत्ति मार्ग) तथा भौतिक जगत से विराग उत्पन्न करनेवाले वैदिक साहित्य में अपने को प्रकट करनेवाले आपको हम बारंबार नमस्कार करती हैं।

45 हम वसुदेव के पुत्र, भगवान कृष्ण तथा भगवान राम को और भगवान पद्युम्न तथा भगवान अनिरुद्ध को सादर नमस्कार करती हैं। हम विष्णु के समस्त संत सदृश भक्तों के स्वामी को सादर नमस्कार करती हैं।

46 नाना प्रकार के भौतिक तथा आध्यात्मिक गुणों को प्रकट करनेवाले, हे भगवन, आपको हमारा नमस्कार। आप अपने को भौतिक गुणों से छिपा लेते हैं किन्तु अंततः उन्हीं भौतिक गुणों के अंतर्गत हो रहे कार्य आपके अस्तित्व को प्रकट कर देते हैं। आप साक्षी रूप में भौतिक गुणों से पृथक रहते हैं और एकमात्र अपने भक्तों द्वारा भलीभाँति ज्ञेय हैं।

47 हे इंद्रियों के स्वामी, ऋषिकेश, हम आपको नमस्कार करती हैं क्योंकि आपकी लीलाएँ अचिंत्य रूप से महिमामयी हैं। आपके अस्तित्व को समस्त दृश्य जगत के लिए स्रष्टा तथा प्रकाशक की आवश्यकता से समझा जा सकता है। यद्यपि आपके भक्त आपको इस रूप में समझ सकते हैं किन्तु अभक्तों के लिए आप आत्मलीन रहकर मौन बने रहते हैं।

48 उत्तम तथा अधम समस्त वस्तुओं के गंतव्य को जाननेवाले तथा समस्त जगत के अध्यक्ष नियंता आपको हमारा नमस्कार। आप इस ब्रह्मांड की सृष्टि से पृथक हैं फिर भी आप वह मूलाधार हैं जिस पर भौतिक सृष्टि की माया का विकास होता है। आप इस माया के साक्षी भी हैं। निस्संदेह आप अखिल जगत के मूल कारण हैं।

49 हे सर्वशक्तिमान प्रभु, यद्यपि आपके भौतिक कर्म में फँसने का कोई कारण नहीं है, फिर भी आप इस ब्रह्मांड के सृजन, पालन तथा संहार की व्यवस्था करने के लिए अपनी शाश्र्वत कालशक्ति के माध्यम से कर्म करते हैं। इसे आप सृजन के पूर्व सुप्त पड़े प्रकृति के प्रत्येक गुण के विशिष्ट कार्य को जाग्रत करते हुए सम्पन्न करते हैं। ब्रह्मांड-नियंत्रण के इन सारे कार्यों को आप खेल खेल में केवल अपनी चितवन से पूर्णतया सम्पन्न कर देते हैं।

50 इसलिए तीनों लोकों भर में सारे भौतिक शरीर---जो सतोगुणी होने के कारण शांत हैं, जो रजोगुणी होने से विक्षुब्ध हैं तथा जो तमोगुणी होने से मूर्ख हैं---आपकी ही सृष्टियाँ हैं। तो भी जिनके शरीर सतोगुणी हैं, वे आपको विशेष रूप से प्रिय हैं और उन्हीं के पालन हेतु तथा उन्हीं के धर्म की रक्षा करने के लिए ही अब आप इस पृथ्वी पर विद्यमान हैं।

51 स्वामी को चाहिए कि अपनी संतान या प्रजा द्वारा किये गये अपराध को कम से कम एक बार तो सह ले। इसलिए हे परम शांत आत्मन, आप हमारे इस मूर्ख पति को क्षमा कर दें जो यह नहीं समझ पाया कि आप कौन हैं।

52 हे भगवन आप हम पर कृपालु हों। साधु पुरुष को हम-जैसी स्त्रियों पर दया करना उचित है। यह सर्प अपना प्राण त्यागने ही वाला है। कृपया हमारे जीवन तथा आत्मा रूप हमारे पति को हमें वापस कर दें।

53 अब कृपा करके अपनी दासियों को बतलायेँ कि हम क्या करें। यह निश्र्चित है कि जो भी आपकी आज्ञा को श्रद्धापूर्वक पूरा करता है, वह स्वतः सारे भय से मुक्त हो जाता है।

54 शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह नागपत्नियों द्वारा प्रशंसित भगवान ने उस कालिय सर्प को छोड़ दिया, जो मूर्छित होकर गिर चुका था और जिसके सिर भगवान के चरणकमलों के प्रहार से क्षत-विक्षत हो चुके थे।

55 धीरे-धीरे कालिय को अपनी जीवनी शक्ति तथा इंद्रियों की क्रियाशीलता प्राप्त हो गई। तब कष्टपूर्वक जोर-जोर से साँस लेते हुए बेचारे सर्प ने विनीत भाव से भगवान श्रीकृष्ण को संबोधित किया।

56 कालिय नाग ने कहा: सर्प के रूप में जन्म से ही हम ईर्ष्यालु, अज्ञानी तथा निरंतर क्रुद्ध बने हुए हैं। हे नाथ, मनुष्यों के लिए अपना बद्ध स्वभाव, जिससे वे असत्य से अपनी पहचान करते हैं, छोड़ पाना अत्यंत कठिन है।

57 हे परम विधाता, आप ही भौतिक गुणों की विविध व्यवस्था से निर्मित इस ब्रह्मांड के बनाने वाले हैं। इस प्रक्रिया में आप नाना प्रकार के व्यक्तित्व तथा योनियाँ, नाना प्रकार के ऐंद्रिय तथा शारीरिक शक्तियाँ तथा भाँति भाँति की मनोवृत्तियों एवं आकृतियों वाले माता-पिताओं को प्रकट करते हैं।

58 हे भगवन, आपकी भौतिक सृष्टि में जितनी भी योनियाँ है उनमें से हम सर्पगण स्वभाव से सदैव क्रोधी हैं। इस तरह आपकी दुस्त्यज मायाशक्ति से मुग्ध होकर भला हम उस स्वभाव को अपने आप कैसे त्याग सकते हैं?

59 हे ईश्र्वर, ब्रह्मांड के सर्वज्ञ भगवान होने के कारण आप मोह से छूटने के वास्तविक कारण हैं। कृपा करके आप जो भी उचित समझें, हमारे लिए व्यवस्था करें, चाहे हम पर कृपा करें या दंड दें।

60 शुकदेव गोस्वामी ने कहा: कालिय के शब्द सुनकर मनुष्य की भूमिका सम्पन्न कर रहे भगवान ने उत्तर दिया: हे सर्प, अब तुम और अधिक यहाँ मत रुको। तुरंत ही अपने बच्चों, पत्नियों, अन्य मित्रों तथा संबंधियों समेत समुद्र में लौट जाओ। अब इस नदी को गौवों तथा मनुष्यों द्वारा भोगी जाने दो।

61 यदि कोई व्यक्ति तुम्हें दिये गये मेरे इस आदेश का (वृंदावन छोड़कर समुद्र में जाने का) स्मरण करता है और प्रातः तथा संध्या समय इस कथा को बाँचता है, तो वह तुमसे कभी भयभीत नहीं होगा।

62 यदि कोई व्यक्ति मेरी क्रीड़ा के इस स्थल पर स्नान करता है और इस सरोवर का जल देवताओं तथा अन्य पूज्य पुरुषों को अर्पित करता है अथवा यदि कोई उपवास करता है, मेरी पूजा करता है और मेरा स्मरण करता है, तो वह समस्त पापों से अवश्य छूट जाएगा।

63 तुम गरुड़ के भय से रमणक द्वीप छोड़कर इस सरोवर में शरण लेने आये थे। किन्तु अब तुम्हारे ऊपर मेरे चरणचिन्ह अंकित होने से, गरुड़ तुम्हें खाने का प्रयास कभी नहीं करेगा।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

ब्रह्मा द्वारा स्तुति

श्रीमद भागवतम दशम स्कन्ध (अध्याय चौदह)

1 ब्रह्मा ने कहा: हे प्रभु, आप ही एकमात्र पूज्य भगवान हैं अतएव आपको प्रसन्न करने के लिए मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ और आपकी स्तुति करता हूँ। हे ग्वालनरेश पुत्र, आपका दिव्य शरीर नवीन बादलों के समान गहरा नीला है; आपके वस्त्र बिजली के समान देदीप्यमान हैं और आपके मुखमंडल का सौन्दर्य गुञ्जा के बने आपको कुंडलों से तथा सिर पर लगे मोरपंख से बढ़ जाता है। अनेक वन-फूलों तथा पत्तियों की माला पहने तथा चराने की छड़ी (लकुटी), शृंग और वंशी से सज्जित आप अपने हाथ में भोजन का कौर लिए हुए सुंदर रीति से खड़े हुए हैं।

2 हे प्रभु, न तो मैं, न ही अन्य कोई आपके इस दिव्य शरीर के सामर्थ्य का अनुमान लगा सकता है, जिसने मुझ पर इतनी कृपा दिखाई है। आपका शरीर आपके शुद्ध भक्तों की इच्छा पूरी करने के लिए प्रकट होता है। यद्यपि मेरा मन भौतिक कार्यकलापों से पूरी तरह विरत है, तो भी मैं आपके साकार रूप को नहीं समझ पाता। तो भला मैं आपके ही अंतर में आपके द्वारा अनुभूत सुख को कैसे समझ सकता हूँ?

3 जो लोग अपने प्रतिष्ठित सामाजिक पदों पर रहते हुए ज्ञान-विधि का तिरस्कार करते हैं और मन, वचन और कर्मों से आपके तथा आपके कार्यकलापों के गुणगान के प्रति सम्मान व्यक्त करते हैं और आप तथा आपके द्वारा गुंजित इन कथाओं में अपना जीवन न्योछावर कर देते हैं, वे निश्र्चित रूप से आपको जीत लेते हैं अन्यथा आप तीनों लोकों में किसी के द्वारा भी अजेय हैं।

4 हे प्रभु, आत्म-साक्षात्कार का सर्वोत्तम मार्ग तो आपकी ही भक्ति है। यदि कोई इस मार्ग को त्याग करके ज्ञान के अनुशीलन में प्रवृत्त होता है, तो उसे क्लेश उठाना होगा और वांछित फल भी नहीं मिल पाएगा। जिस तरह थोथी भूसी को पीटने से अन्न (गेहूँ) नहीं मिलता उसी तरह जो केवल चिंतन करता है उसे आत्म-साक्षात्कार नहीं हो पाता। उसके हाथ केवल क्लेश लगता है।

5 हे सर्वशक्तिमान, भूतकाल में इस संसार में अनेक योगीजनों ने अपने कर्तव्य निभाते हुए तथा अपने सारे प्रयासों को आपको अर्पित करते हुए भक्तिपद प्राप्त किया है। हे अच्युत, आपके श्रवण तथा कीर्तन द्वारा सम्पन्न ऐसी भक्ति से वे आपको जान पाये और आपकी शरण में जाकर आपके परमधाम को प्राप्त कर सके।

6 किन्तु अभक्तगण आपके पूर्ण साकार रूप में आपका अनुभव नहीं कर सकते। फिर भी हृदय के अंदर आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति द्वारा वे निर्विशेष ब्रह्म के रूप में आपका अनुभव कर सकते हैं। किन्तु वे ऐसा तभी कर सकते हैं जब वे अपने मन तथा इंद्रियों को सारी भौतिक उपाधियों तथा इंद्रिय-विषयों के प्रति आसक्ति से शुद्ध कर लें। केवल इस विधि से ही उन्हें आपका निर्वेशेष स्वरूप प्रकट हो सकेगा।

7 समय के साथ, विद्वान दार्शनिक या विज्ञानी, पृथ्वी के सारे परमाणु, हिम के कण या शायद सूर्य, नक्षत्र तथा ग्रहों से निकलने वाले ज्योति कणों की भी गणना करने में समर्थ हो सकते हैं किन्तु इन विद्वानो में ऐसा कौन है, जो आप में अर्थात पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्र्वर में निहित असीम दिव्य गुणों का आकलन कर सके। ऐसे भगवान समस्त जीवात्माओं के कल्याण के लिए इस धरती पर अवतरित हुए हैं।

8 हे प्रभु, जो व्यक्ति अपने विगत दुष्कर्मों के फलों को धैर्यपूर्वक सहते हुए तथा अपने मन, वाणी तथा शरीर से आपको नमस्कार करते हुए सत्यनिष्ठा से आपकी अहैतुकी कृपा पदत्त किए जाने की प्रतीक्षा करता है, वह अवश्य ही मोक्ष का भागी होता है क्योंकि यह उसका अधिकार बन जाता है।

9 हे प्रभु, मेरी अशिष्टता को जरा देखें! आपकी शक्ति की परीक्षा करने के लिए मैंने अपनी मायामयी शक्ति से आपको आच्छादित करने का प्रयत्न किया जबकि आप असीम तथा आदि परमात्मा हैं, जो मायापतियों को भी मोहित करनेवाले हैं। आपके सामने भला मैं क्या हूँ? विशाल अग्नि की उपस्थिति में, मैं छोटी चिंगारी की तरह हूँ।

10 अतएव हे अच्युत भगवान, मेरे अपराधों को क्षमा कर दें। मैं रजोगुण से उत्पन्न हुआ हूँ और स्वयं को आपसे पृथक (स्वतंत्र) नियंता मानने के कारण मैं निरा मूर्ख हूँ। अज्ञान के अंधकार से मेरी आँखें अंधी हो चुकी हैं जिसके कारण मैं अपने को ब्रह्मांड का अजन्मा स्रष्टा समझ रहा हूँ। किन्तु मुझे आप अपना सेवक मानें और अपनी दया का पात्र बना लें।

11 कहाँ मैं अपने हाथ के सात बालिश्तों के बराबर एक क्षुद्र प्राणी जो भौतिक प्रकृति, समग्र भौतिक शक्ति, मिथ्या अहंकार, आकाश, वायु, जल तथा पृथ्वी से बने घड़े-जैसे ब्रह्मांड से घिरा हुआ हूँ ! और कहाँ आपकी महिमा ! आपके शरीर के रोमकूपों से होकर असंख्य ब्रह्मांड उसी प्रकार आ-जा रहे हैं जिस तरह खिड़की की जाली के छेदों से धूल कण आते-जाते रहते हैं।

12 हे प्रभु अधोक्षज, क्या कोई माता अपने गर्भ के भीतर स्थित शिशु, द्वारा लात मारे जाने को अपराध समझती है? क्या आपके उदर के बाहर वास्तव में ऐसी किसी वस्तु का अस्तित्व है, जिसे दार्शनिक जन "है" या "नहीं है" की उपाधि प्रदान कर सकें?

13 हे प्रभु, ऐसा कहा जाता है की जब प्रलय के समय तीनों लोक जलमग्न हो जाते हैं, तो आपके अंश, नारायण, जल में लेट जाते हैं, उनकी नाभि से धीरे-धीरे एक कमल का फूल निकलता है और उस फूल से ब्रह्मा का जन्म होता है। अवश्य ही ये वचन झूठे नहीं हैं। तो क्या मैं आपसे उत्पन्न नहीं हूँ?

14 हे परम नियंता, प्रत्येक देहधारी जीव के आत्मा तथा समस्त लोकों के शाश्र्वत साक्षी होने के कारण क्या आप आदि नारायण नहीं है? निस्संदेह, भगवान नारायण आपके ही अंश हैं और वे नारायण इसलिए कहलाते हैं क्योंकि ब्रह्मांड के आदि जल के जनक हैं। वे सत्य हैं, आपकी माया से उत्पन्न नहीं हैं।

15 हे प्रभु, यदि सम्पूर्ण ब्रह्मांड को शरण देने वाला आपका यह दिव्य शरीर वास्तव में जल में शयन करता है, तो फिर आप मुझे तब क्यों नहीं दिखे जब मैं आपको खोज रहा था? और तब क्यों आप सहसा प्रकट नहीं हो गये थे यद्यपि मैं अपने हृदय में आपको ठीक से देख नहीं पाया था।

16 हे प्रभु, आपने इसी अवतार में यह सिद्ध कर दिया है कि आप माया के परम नियंत्रक हैं। यद्यपि आप अब इस ब्रह्मांड के भीतर हैं किन्तु सारा ब्रह्मांड आपके दिव्य शरीर के भीतर है---आपने इस तथ्य को माता यशोदा के समक्ष अपने उदर के भीतर ब्रह्मांड दिखलाकर प्रदर्शित कर दिया है। 17 जिस तरह आप समेत यह सारा ब्रह्मांड आपके उदर में प्रदर्शित किया गया था उसी तरह अब यह उसी रूप में यहाँ पर प्रकट हुआ है। आपकी अचिंत्य शक्ति की व्यवस्था के बिना भला ऐसा कैसे घटित हो सकता है?

18 क्या आपने आज मुझे यह नहीं दिखलाया कि आप स्वयं तथा इस सृष्टि की प्रत्येक वस्तु आपकी अचिंत्य शक्ति के ही प्राकट्य हैं? सर्वप्रथम आप अकेले प्रकट हुए, तत्पश्र्चात आप वृंदावन के बछड़ों तथा अपने मित्र ग्वालबालों के रूप में प्रकट हुए। इसके बाद आप उतने ही चतुर्भुजी विष्णु रूपों में प्रकट हुए जो मुझ समेत समस्त जीवों द्वारा पूजे जा रहे थे। तत्पश्र्चात आप उतने ही सम्पूर्ण ब्रह्मांडों के रूप में प्रकट हुए। तदनंतर आप अद्वितीय परम ब्रह्म के अपने अनंत रूप में वापस आ गये हैं।

19 आपकी वास्तविक दिव्य स्थिति से अपरिचित व्यक्तियों के लिए आप इस जगत के अंश रूप में अपने को अपनी अचिंत्य शक्ति के अंश द्वारा प्रकट करते हुए अवतरित होते हैं। इस तरह ब्रह्मांड के सृजन के लिए आप मेरे (ब्रह्मा) रूप में, इसके पालन के लिए अपने ही (विष्णु) रूप में तथा इसके संहार के लिए आप त्रिनेत्र (शिव) के रूप में प्रकट होते हैं।

20 हे प्रभु, हे परम स्रष्टा एवं स्वामी, यद्यपि आप अजन्मा हैं किन्तु श्रद्धाविहीन असुरों के मिथ्या गर्व को चूर करने तथा अपने संत-सदृश भक्तों पर दया दिखाने के लिए आप देवताओं, ऋषियों, मनुष्यों, पशुओं तथा जलचरों तक के बीच में जन्म लेते हैं।

21 हे भूमन, हे भगवान, हे परमात्मा, हे योगेश्र्वर, आपकी लीलाएँ इन तीनों लोकों में निरंतर चलती रहती हैं किन्तु इसका अनुमान कौन लगा सकता है कि आप कहाँ, कैसे और कब अपनी आध्यात्मिक शक्ति का प्रयोग कर रहे हैं और इन असंख्य लीलाओं को सम्पन्न कर रहे हैं? इस रहस्य को कोई नहीं समझ सकता कि आपकी आध्यात्मिक शक्ति किस प्रकार से कार्य करती है।

22 अतः यह सम्पूर्ण ब्रह्मांड जो कि स्वप्न के तुल्य है प्रकृति से असत है फिर भी असली (सत) प्रतीत होता है और इस तरह यह मनुष्य की चेतना को प्रच्छन्न कर लेता है और बारंबार दुख का कारण बनता है। यह ब्रह्मांड सत्य इसलिए लगता है क्योंकि यह आप से उद्भूत माया की शक्ति द्वारा प्रकट किया जाता है जिनके असंख्य दिव्य रूप, शाश्र्वत सुख तथा ज्ञान से पूर्ण हैं।

23 आप ही परमात्मा, आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, परम सत्य, स्वयंप्रकट, अनंत तथा अनादि हैं। आप शाश्र्वत तथा अच्युत, पूर्ण, अद्वितीय तथा समस्त भौतिक उपाधियों से मुक्त हैं। न तो आपके सुख को रोका जा सकता है, न ही आपका भौतिक कल्मष से कोई नाता है। आप विनाशरहित और अमृत हैं।

24 जिन्होंने सूर्य जैसे आध्यात्मिक गुरु से ज्ञान की स्पष्ट दृष्टि प्राप्त कर ली है वे आपको समस्त आत्माओं की आत्मा तथा हर एक के परमात्मा के रूप में देख सकते हैं। इस तरह आपको आदि पुरुषस्वरूप समझकर वे मायारूपी भवसागर को पार कर सकते हैं।

25 जिस व्यक्ति को रस्सी से सर्प का भ्रम हो जाता है, वह भयभीत हो उठता है किन्तु यह अनुभव करने पर कि तथाकथित सर्प तो था ही नहीं, वह अपना भय त्याग देता है। इसी प्रकार जो लोग आपको समस्त आत्माओं (जीवों) के परमात्मा के रूप में नहीं पहचान पाते उनके लिए विस्तृत मायामय संसार उत्पन्न होता है किन्तु आपका ज्ञान होने पर वह तुरंत दूर हो जाता है।

26 भवबंधन तथा मोक्ष दोनों ही अज्ञान की अभिव्यक्तियाँ हैं। सच्चे ज्ञान की सीमा के बाहर होने के कारण, इन दोनों का अस्तित्व मिट जाता है जब मनुष्य ठीक से यह समझ लेता है कि शुद्ध आत्मा, पदार्थ से भिन्न है और सदैव पूर्णतया चेतन है। उस समय बंधन तथा मोक्ष का कोई महत्व नहीं रहता जिस तरह सूर्य के परिप्रेक्ष्य में दिन तथा रात का कोई महत्व नहीं होता।

27 जरा उन अज्ञानी पुरुषों की मूर्खता तो देखिये जो आपको मोह की भिन्न अभिव्यक्ति मानते हैं और अपने (आत्मा) को, जो कि वास्तव में आप हैं, अन्य कुछ--भौतिक शरीर--मानते हैं। ऐसे मूर्खजन इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि परमात्मा की खोज परम पुरुष आप से बाहर अन्यत्र की जानी चाहिए।

28 हे अनंत भगवान, संतजन आपसे भिन्न हर वस्तु का तिरस्कार करते हुए अपने ही शरीर के भीतर आपको खोज निकालते हैं। निस्संदेह, विभेद करनेवाले व्यक्ति भला किस तरह अपने समक्ष पड़ी हुई रस्सी की असली प्रकृति को जान सकते हैं जब तक वे इस भ्रम का निराकरण नहीं कर लेते कि यह सर्प है?

29 हे प्रभु, यदि किसी पर आपके चरणकमलों की लेशमात्र भी कृपा हो जाती है, तो वह आपकी महानता को समझ सकता है। किन्तु जो लोग भगवान को समझने के लिए चिंतन करते हैं, वे अनेक वर्षों तक वेदों का अध्ययन करते रहने पर भी आपको जान नहीं पाते।

30 अतः हे प्रभु, मेरी प्रार्थना है कि मैं इतना भाग्यशाली बन सकूँ कि इसी जीवन में ब्रह्मा के रूप में या दूसरे जीवन में जहाँ कहीं भी जन्म लूँ, मेरी गणना आपके भक्तों में हो। मैं प्रार्थना करता हूँ कि चाहे पशु योनि में ही सही, मैं जहाँ कहीं भी होऊँ, आपके चरणकमलों की भक्ति में लग सकूँ।

31 हे सर्वशक्तिमान भगवान, वृंदावन की गौवें तथा स्त्रियाँ कितनी भाग्यशालिनी हैं जिनके बछड़े तथा पुत्र बनकर आपने परम प्रसन्नतापूर्वक एवं संतोषपूर्वक उनके स्तनपान का अमृत पिया है! अनंतकाल से अब तक सम्पन्न किये गये सारे वैदिक यज्ञों से भी आपको उतना संतोष नहीं हुआ होगा।

33 नन्द महाराज, सारे ग्वाले तथा व्रजभूमि के अन्य सारे निवासी कितने भाग्यशाली हैं! उनके सौभाग्य की कोई सीमा नहीं है क्योंकि दिव्य आनंद के स्रोत परम सत्य अर्थात सनातन परब्रह्म उनके मित्र बन चुके हैं। वृंदावन के इन वासियों की सौभाग्य सीमा का अनुमान नहीं लगाया जा सकता; फिर भी विविध इंद्रियों के ग्यारह अधिष्ठाता देवता हम, जिनमें शिवजी प्रमुख हैं, परम भाग्यशाली हैं क्योंकि वृंदावन के इन भक्तों की इंद्रियाँ वे प्याले हैं जिनसे हम आपके चरणकमलों का अमृत तुल्य मादक मधुपेय बारंबार पीते हैं।

34 मेरा संभावित परम सौभाग्य यह होगा कि मैं गोकुल के इस वन में जन्म ले सकूँ और इसके निवासियों में से किसी के भी चरणकमलों से गिरी हुई धूल से अपने सिर का अभिषेक करूँ। उनका सारा जीवनसार पूर्ण पुरषोत्तम भगवान मुकुन्द हैं जिनके चरणकमलों की धूल की खोज आज भी वैदिक मंत्रों में की जा रही है।

35 मेरा मन मोहग्रस्त हो जाता है जब मैं यह सोचने का प्रयास करता हूँ कि कहीं भी आपके अतिरिक्त अन्य कोई पुरस्कार (फल) क्या हो सकता है? आप समस्त वरदानों के साकार रूप हैं, जिन्हें आप वृंदावन के ग्वाल जाति के निवासियों को प्रदान करते हैं। आपने पहले ही उस पूतना द्वारा भक्त का वेश बनाने के बदले में उसे तथा उसके परिवारवालों को अपने आप को दे डाला है। अतएव वृंदावन के इन भक्तों को देने के लिए आपके पास बचा ही क्या है जिनके घर, धन, मित्रगण,प्रिय परिजन,शरीर,सन्तानें तथा प्राण और हृदय--सभी केवल आपको समर्पित हो चुके हैं?

36 हे भगवान कृष्ण, जब तक लोग आपके भक्त नहीं बन जाते तब तक उनकी भौतिक आसक्तियाँ तथा इच्छाएँ चोर बनी रहती हैं; उनके घर बंदीगृह बने रहते हैं और अपने परिजनों के प्रति उनकी स्नेहपूर्ण भावनाएँ पाँवों की बेड़ियाँ बनी रहती है।

37 हे स्वामी, यद्यपि भौतिक जगत से आपको कुछ भी लेना-देना नहीं रहता किन्तु आप इस धरा पर आकर अपने शरणागत भक्तों के लिए आनंद-भाव की विविधताओं को विस्तृत करने के लिए भौतिक जीवन का अनुकरण करते हैं।

38 ऐसे लोग भी है जो यह कहते हैं कि वे कृष्ण के विषय में सब कुछ जानते हैं---वे ऐसा सोचा करें। किन्तु जहाँ तक मेरा संबंध है, मैं इस विषय में कुछ अधिक नहीं कहना चाहता। हे प्रभु, मैं तो इतना ही कहूँगा कि जहाँ तक आपके ऐश्वर्यों की बात है वे मेरे मन, शरीर तथा शब्दों की पहुँच से बाहर है।

39 हे कृष्ण, अब मैं आपसे विदा लेने की अनुमति के लिए विनीत भाव से अनुरोध करता हूँ। वास्तव में आप सारी वस्तुओं के ज्ञाता तथा द्रष्टा हैं। आप समस्त ब्रह्मांडों के स्वामी हैं फिर भी मैं आपको यह एक ब्रह्मांड अर्पित करता हूँ।

40 हे कृष्ण, आप कमल तुल्य वृष्णि कुल को सुख प्रदान करनेवाले हैं और पृथ्वी, देवता, ब्राह्मण तथा गौवों से युक्त महासागर को बढ़ाने वाले हैं। आप अधर्म के गहन अंधकार को दूर करते हैं और इस पृथ्वी में प्रकट हुए असुरों का विरोध करते हैं। हे भगवन, जब तक यह ब्रह्मांड बना रहेगा जब तक सूर्य चमकेगा मैं आपको सादर नमस्कार करता रहूँगा।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

नलकूवर तथा मणिग्रीव द्वारा स्तुति

श्रीमद भागवतम दशम स्कन्ध (अध्याय दस)

24 सर्वोच्च भक्त नारद के वचनों को सत्य बनाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण धीरे धीरे उस स्थान पर गये जहाँ दोनों अर्जुन वृक्ष खड़े थे।

25 “यद्यपि ये दोनों युवक अत्यंत धनी कुबेर के पुत्र हैं और उनसे मेरा कोई संबंध नहीं है परंतु देवर्षि नारद मेरा अत्यंत प्रिय तथा वत्सल भक्त है और क्योंकि उसने चाहा था कि मैं इनके समक्ष आऊँ अतएव इनकी मुक्ति के लिए मुझे ऐसा करना चाहिए।"

26 इस तरह कहकर कृष्ण तुरंत ही दो अर्जुन वृक्षों के बीच प्रविष्ट हुए जिससे वह बड़ी ओखली जिससे वे बाँधे गये थे तिरछी हो गई और उनके बीच फँस गई।

27 अपने पेट से बँधी ओखली को बलपूर्वक अपने पीछे घसीटते हुए बालक कृष्ण ने दोनों वृक्षों को उखाड़ दिया। परम पुरुष की महान शक्ति से दोनों वृक्ष अपने तनों, पत्तों तथा टहनियों समेत बुरी तरह से हिले और तड़तड़ाते हुए भूमि पर गिर पड़े।

28 तत्पश्र्चात जिस स्थान पर दोनों अर्जुन वृक्ष गिरे थे वहीं पर दोनों वृक्षों से दो महान सिद्ध पुरुष, जो साक्षात अग्नि जैसे लग रहे थे, बाहर निकल आये। उनके सौन्दर्य का तेज चारों ओर प्रकाशित हो रहा था। उन्होंने नतमस्तक होकर कृष्ण को नमस्कार किया और हाथ जोड़कर निम्नलिखित शब्द कहे।

29 हे कृष्ण, हे कृष्ण, आपकी योगशक्ति अचिंत्य है। आप सर्वोच्च आदि-पुरुष हैं, आप समस्त कारणों के कारण हैं, आप पास रहकर भी दूर हैं और इस भौतिक सृष्टि से परे हैं। विद्वान ब्राह्मण जानते हैं (सर्व खल्विदं ब्रह्म---इस वैदिक कथन के आधार पर) कि आप सर्वेसर्वा हैं और यह विराट विश्र्व अपने स्थूल तथा सूक्ष्म रूपों में आपका ही स्वरूप है।

30-31 आप हर वस्तु के नियंता भगवान हैं। आप ही हर जीव का शरीर, प्राण, अहंकार इंद्रियाँ तथा काल हैं। आप परम पुरुष, अक्षय नियंता विष्णु हैं। आप तात्कालिक कारण और तीन गुणों---सतो, रजो तथा तमो गुणों--वाली भौतिक प्रकृति हैं। आप इस भौतिक जगत के आदि कारण हैं। आप परमात्मा हैं। अतएव आप हर एक जीव के हृदय की बात को जानने वाले हैं।

32 हे प्रभु, आप सृष्टि के पूर्व से विद्यमान हैं। अतः इस जगत में भौतिक गुणों वाले शरीर में बंदी रहने वाला ऐसा कौन है, जो आपको समझ सके?

33 अपनी ही शक्ति से आच्छादित महिमा वाले हे प्रभु, आप भगवान हैं। आप सृष्टि के उद्गम, संकर्षण, हैं और चतुर्व्युह के उद्गम, वासुदेव, हैं। आप सर्वस्व होने से परब्रह्म हैं अतएव हम आपको नमस्कार करते हैं।

34-35 आप मत्स्य, कूर्म, वराह जैसे शरीरों में प्रकट होकर ऐसे प्राणियों द्वारा सम्पन्न न हो सकने वाले कार्यकलाप-असामान्य, अतुलनीय, असीम शक्ति वाले दिव्य कार्य-प्रदर्शित करते है। अतएव आपके ये शरीर भौतिक तत्त्वों से नहीं बने होते अपितु आपके अवतार होते हैं। आप वही भगवान हैं, जो अब अपनी पूर्ण शक्ति के साथ इस जगत के सारे जीवों के लाभ के लिए प्रकट हुए हैं।

36 हे परम कल्याण, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं क्योंकि आप परम शुभ हैं। हे यदुवंश के प्रसिद्ध वंशज तथा नियंता, हे वसुदेव-पुत्र, हे परम शांत, हम आपके चरणकमलों में सादर नमस्कार करते हैं।

37 हे परम रूप, हम सदैव आपके दासों के, विशेष रूप से नारदमुनि के दास हैं। अब आप हमें अपने घर जाने की अनुमति दें। यह तो नारदमुनि की कृपा है कि हम आपका साक्षात दर्शन कर सके।

38 अब से हमारे सभी शब्द आपकी लीलाओं का वर्णन करें, हमारे कान आपकी महिमा का श्रवण करें, हमारे हाथ, पाँव तथा अन्य इंद्रियाँ आपको प्रसन्न करने के कार्यों में लगें तथा हमारे मन सदैव आपके चरणकमलों का चिंतन करें। हमारे सिर इस संसार की हर वस्तु को नमस्कार करें क्योंकि सारी वस्तुएँ आपके ही विभिन्न रूप हैं और हमारी आँखें आपसे अभिन्न वैष्णवों के रूपों का दर्शन करें।

39 शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस तरह दोनों देवताओं ने भगवान की स्तुति की। यद्यपि भगवान कृष्ण सबों के स्वामी हैं और गोकुलेश्र्वर थे किन्तु वे गोपियों की रस्सियों द्वारा लकड़ी की ओखली से बाँध दिये गये थे इसलिए उन्होंने हँसते हुए कुबेर के पुत्रों से ये शब्द कहे।

40 भगवान ने कहा: परम संत नारदमुनि अत्यंत कृपालु हैं। उन्होंने अपने शाप से तुम दोनों पर बहुत बड़ा अनुग्रह किया है क्योंकि तुम दोनों भौतिक ऐश्वर्य के पीछे उन्मत्त होकर अंधे बन चुके थे। यद्यपि तुम दोनों स्वर्गलोक से गिरकर वृक्ष बने थे किन्तु उन्होंने तुम दोनों पर सर्वाधिक कृपा की। मैं प्रारम्भ से ही इन घटनाओं को जानता था।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

वसुदेव तथा माता देवकी द्वारा स्तुति

श्रीमद भागवतम दशम स्कन्ध (अध्याय तीन)

13 वसुदेव ने कहा: हे भगवान, आप इस भौतिक जगत से परे परम पुरुष हैं और आप परमात्मा हैं। आपके स्वरूप का अनुभव उस दिव्य ज्ञान द्वारा हो सकता है, जिससे आप भगवान के रूप में समझे जा सकते हैं। अब आपकी स्थिति मेरी समझ में भलीभाँति आ गई है।

14 हे भगवन, आप वही पुरुष हैं जिसने प्रारम्भ में अपनी बहिरंगा शक्ति से इस भौतिक जगत की सृष्टि की। तीन गुणों (सत्त्व, रजस तथा तमस) वाले इस जगत की सृष्टि के बाद ऐसा लगता है कि आपने उसके भीतर प्रवेश किया है यद्यपि यथार्थ तो यह है कि आपने प्रवेश नहीं किया।

15-17 सम्पूर्ण भौतिक शक्ति (महत तत्त्व) अविभाज्य है, किन्तु भौतिक गुणों के कारण यह पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश में विलग होती सी प्रतीत होती है। ये विलग हुई शक्तियाँ जीवभूत के कारण मिलकर विराट जगत को दृश्य बनाती है, किन्तु तथ्य तो यह है कि विराट जगत की सृष्टि के पहले से ही महत तत्त्व विद्यमान रहता है। अतः महत तत्त्व का वास्तव में सृष्टि में प्रवेश नहीं होता है। इसी तरह यद्यपि आप अपनी उपस्थिति के कारण हमारी इंद्रियों द्वारा अनुभवगम्य हैं, किन्तु आप न तो हमारी इंद्रियों द्वारा अनुभवगम्य हो पाते हैं न ही हमारे मन या वचनों द्वारा अनुभव किए जाते हैं। हम अपनी इंद्रियों से कुछ ही वस्तुएँ देख पाते हैं, सारी वस्तुएँ नहीं। उदाहरणार्थ, हम अपनी आँखों का प्रयोग देखने के लिए कर सकते हैं, आस्वाद के लिए नहीं। फलस्वरूप आप इंद्रियों के परे हैं। यद्यपि आप प्रकृति के तीनों गुणों से सम्बद्ध हैं, आप उनसे अप्रभावित रहते हैं। आप हर वस्तु के मूल कारण हैं, सर्वव्यापी अविभाज्य परमात्मा हैं। अतएव आपके लिए कुछ भी बाहरी या भीतरी नहीं है। आपने कभी भी देवकी के गर्भ में प्रवेश नहीं किया प्रत्युत आप पहले से वहाँ उपस्थित थे।

18 जो व्यक्ति प्रकृति के तीन गुणों से बने अपने दृश्य शरीर को आत्मा से स्वतंत्र मानता है, वह अस्तित्व के आधार से ही अनजान होता है और इसलिए वह मूढ़ है। जो विद्वान हैं, वे इस निर्णय को नहीं मानते क्योंकि विवेचना द्वारा यह समझा जा सकता है कि आत्मा से निराश्रित दृश्य शरीर तथा इंद्रियाँ सारहीन हैं। यद्यपि इस निर्णय को अस्वीकार कर दिया गया है, किन्तु मूर्ख व्यक्ति इसे सत्य मानता है।

19 हे प्रभु, विद्वान वैदिक पंडित कहते हैं कि सम्पूर्ण विश्र्व का सृजन, पालन एवं संहार आपके द्वारा होता है तथा आप प्रयास से मुक्त, प्रकृति के गुणों से अप्रभावित तथा अपनी दिव्य स्थिति में अपरिवर्तित रहते हैं। आप परब्रह्म हैं और आप में कोई विरोध नहीं है। प्रकृति के तीनों गुण---सतो, रजो तथा तमोगुण आपके नियंत्रण में हैं अतः सारी घटनाएँ स्वतः घटित होती हैं।

20 हे भगवन, आपका स्वरूप तीनों भौतिक गुणों से परे है फिर भी तीनों लोकों के पालन हेतु आप सतोगुणी विष्णु का श्र्वेत रंग धारण करते हैं, सृजन के समय जो रजोगुण से आवृत होता है आप लाल प्रतीत होते हैं और अंत में अज्ञान से आवृत संहार के समय आप श्याम प्रतीत होते हैं।

21 हे परमेश्र्वर, हे समस्त सृष्टि के स्वामी, आप इस जगत की रक्षा करने की इच्छा से मेरे घर में प्रकट हुए हैं। मुझे विश्र्वास है कि आप क्षत्रियों का बाना धारण करने वाले राजनीतिज्ञों के नायकत्व में जो असुरों की सेनाएँ संसार भर में विचरण कर रही हैं उनका वध करेंगे। निर्दोष जनता की सुरक्षा के लिए आपके द्वारा इनका वध होना ही चाहिए।

22 हे परमेश्र्वर, हे देवताओं के स्वामी, यह भविष्यवाणी सुनकर कि आप हमारे घर में जन्म लेंगे और उसका वध करेंगे, इस असभ्य कंस ने आपके कई अग्रजों को मार डाला है। वह ज्योंही अपने सेनानायकों से सुनेगा कि आप प्रकट हुए हैं,वह आपको मारने के लिए हथियार समेत तुरंत ही आ धमकेगा।

23 शुकदेव गोस्वामी ने कहा:- तत्पश्र्चात यह देखकर कि उनके पुत्र में भगवान के सारे लक्षण हैं,कंस से अत्यधिक भयभीत तथा असामान्य रूप से विस्मित देवकी भगवान से प्रार्थना करने लगीं।

24 श्रीदेवकी ने कहा: हे भगवन, वेद अनेक हैं। उसमें से कुछ आपको शब्दों तथा मन द्वारा अव्यक्त बतलाते हैं फिर भी आप सम्पूर्ण विश्र्व के उद्गम हैं। आप ब्रह्म हैं, सभी वस्तुओं से बड़े और सूर्य के समान तेज से युक्त। आपका कोई भौतिक कारण नहीं, आप परिवर्तन तथा विचलन से मुक्त हैं और आपकी कोई भौतिक इच्छाएँ नहीं है। इस तरह वेदों का कथन है कि आप ही सार हैं। अतः हे प्रभु, आप समस्त वैदिक कथनों के उद्गम हैं और आपको समझ लेने पर मनुष्य हर वस्तु धीरे-धीरे समझ जाता है। आप ब्रह्मज्योति तथा परमात्मा से भिन्न हैं फिर भी आप उनसे भिन्न नहीं हैं। आपसे ही सब वस्तुएँ उद्भूत हैं। दरअसल आप ही समस्त कारणों के कारण हैं, आप समस्त दिव्य ज्ञान की ज्योति भगवान विष्णु हैं।

25 लाखों वर्षों बाद विश्र्व-संहार के समय जब सारी व्यक्त तथा अव्यक्त वस्तुएँ काल के वेग से नष्ट हो जाती हैं, तो पांचों स्थूल तत्त्व सूक्ष्म स्वरूप ग्रहण करते हैं और व्यक्त वस्तुएँ अव्यक्त बन जाती हैं। उस समय आप ही रहते हैं और आप अनंत शेषनाग कहलाते हैं।

26 हे भौतिक शक्ति के प्रारंभकर्ता, यह अद्भुत सृष्टि शक्तिशाली काल के नियंत्रण में कार्य करती है, जो सेकंड, मिनट, घंटा तथा वर्षों में विभाजित है। यह काल तत्त्व, जो लाखों वर्षों तक फैला हुआ है, भगवान विष्णु का ही अन्य रूप है। आप अपनी लीलाओं के लिए काल के नियंत्रक की भूमिका अदा करते हैं, किन्तु आप समस्त सौभाग्य के आगार हैं। मैं पूरी तरह आपकी शरणागत हूँ।

27 इस भौतिक जगत में कोई भी व्यक्ति जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा तथा रोग---इन चार नियमों से छूट नहीं पाया भले ही वह विविध लोकों में क्यों न भाग जाए। किन्तु हे प्रभु, अब चूँकि आप प्रकट हो चुके हैं अतः मृत्यु आपके भय से दूर भाग रही है और सारे जीव आपकी दया से आपके चरणकमलों की शरण प्राप्त करके पूर्ण मानसिक शांति की नींद सो रहे हैं।

28 हे प्रभु,आप अपने भक्तों के भय को दूर करने वाले हैं अतएव आपसे मेरी प्रार्थना है कि आप कंस के विकराल भय से हमें बचाइए और हमें संरक्षण प्रदान कीजिए। योगीजन आपके विष्णु रूप का ध्यान में अनुभव करते हैं। कृपया इस रूप को उनके लिए अदृश्य बना दीजिए जो केवल भौतिक आँखों से देख सकते हैं।

29 हे मधुसूदन, आपके प्रकट होने से मैं कंस के भय से अधिकाधिक अधीर हो रही हूँ। अतः कुछ ऐसा कीजिए कि वह पापी कंस यह न समझ पाए कि आपने मेरे गर्भ से जन्म लिया है।

30 हे प्रभु आप सर्वव्यापी भगवान हैं और आपका यह चतुर्भुज रूप, जिसमें आप शंख, चक्र, गदा तथा पद्म धारण किए हुए हैं, इस जगत के लिए अप्राकृत है। कृपया इस रूप को समेट लीजिए (और सामान्य मानवी बालक बन जाइए जिससे मैं आपको कहीं छिपाने का प्रयास कर सकूँ)

31 संहार के समय चर तथा अचर जीवों से युक्त सारी सृष्टियाँ आपके दिव्य शरीर में प्रवेश कर जाती हैं और बिना कठिनाई के वहीं ठहरी रहती हैं। किन्तु अब वही दिव्य रूप मेरे गर्भ से जन्म ले चुका है। लोग इस पर विश्र्वास नहीं करेंगे और मैं हँसी की पात्र बन जाऊँगी।

(समर्पित एवं सेवारत जगदीश चन्द्र चौहान)

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श्री गुरु गौरांग जयतः

 श्री गणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

देवताओं द्वारा गर्भस्थ कृष्ण की स्तुति

श्रीमद भागवतम दशम स्कन्ध (अध्याय दो)

26 देवताओं ने प्रार्थना की; हे प्रभो, आप अपने व्रत से कभी भी विचलित नहीं होते जो सदा ही पूर्ण रहता है क्योंकि आप जो भी निर्णय लेते हैं वह पूरी तरह सही होता है और किसी के द्वारा रोका नहीं जा सकता। सृष्टि, पालन तथा संहार---जगत की इन तीन अवस्थाओं में विद्यमान रहने से आप परम सत्य हैं। कोई तब तक आपकी कृपा का भाजन नहीं बन सकता जब तक वह पूरी तरह आज्ञाकारी न हो अतः इसे दिखावटी लोग प्राप्त नहीं कर सकते। आप सृष्टि के सारे अवयवों में असली सत्य हैं इसीलिए आप अंतर्यामी कहलाते हैं। आप सबों पर समभाव रखते हैं और आपके आदेश प्रत्येक काल में हर एक पर लागू होते हैं। आप आदि सत्य हैं अतः हम नमस्कार करते हैं और आपकी शरण में आए हैं। आप हमारी रक्षा करें।

27 शरीर को अलंकारिक रूप में "आदि वृक्ष" कहा जा सकता है। यह वृक्ष भौतिक प्रकृति की भूमि पर आश्रित होता है और उसमें दो प्रकार के ---सुख भोग के तथा दुख भोग के---फल लगते हैं। इसकी तीन जड़े तीन गुणों--सतो, रजो तथा तमो गुणों के साथ इस वृक्ष के कारणस्वरूप हैं। शारीरिक सुख रूपी फलों के स्वाद चार प्रकार के होते हैं---धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष जो पाँच ज्ञान इंद्रियों द्वारा छह प्रकार की परिस्थितियों---शोक, मोह, जरा, मृत्यु, भूख तथा प्यास के माध्यम से अनुभव किए जाते हैं। इस वृक्ष की छाल में सात परतें होती हैं---त्वचा, रक्त, पेशी, वसा, अस्थि, मज्जा तथा वीर्य।  इस वृक्ष की आठ शाखाएँ हैं जिनमें से पाँच स्थूल तत्त्व तथा तीन सूक्ष्म तत्त्व हैं---क्षिति, जल, पावक, समीर, गगन, मन, बुद्धि तथा अहंकार। शरीर रूपी वृक्ष में नौ छिद्र (कोठर) हैं---आँखें, कान, नथुने, मुँह, गुदा तथा जननेंद्रियाँ। इसमें दस पत्तियाँ हैं, जो शरीर से निकलने वाली दस वायु हैं। इस शरीरररूपी वृक्ष में दो पक्षी हैं---एक आत्मा तथा दूसरा परमात्मा।

28 हे प्रभु, आप ही कई रूपों में अभिव्यक्त इस भौतिक जगत रूपी मूल वृक्ष के प्रभावशाली कारणस्वरूप हैं। आप ही इस जगत के पालक भी हैं और संहार के बाद आप ही ऐसे हैं जिसमें सारी वस्तुएँ संरक्षण पाती हैं। जो लोग माया से आवृत हैं, वे इस जगत के पीछे आपका दर्शन नहीं कर पाते क्योंकि उनकी दृष्टि विद्वान भक्तों जैसी नहीं होती।

29 हे ईश्र्वर, आप सदैव ज्ञान से पूर्ण रहने वाले हैं और सारे जीवों का कल्याण करने के लिए आप विविध रूपों में अवतरित होते हैं, जो भौतिक सृष्टि के परे होते हैं। जब आप इन अवतारों के रूप में प्रकट होते हैं, तो आप पुण्यात्माओं तथा धार्मिक भक्तों के लिए मोहक लगते हैं किन्तु अभक्तों के लिए आप संहारकर्ता हैं।

30 हे कमलनयन प्रभु, सम्पूर्ण सृष्टि के आगार रूप आपके चरणकमलों में अपना ध्यान एकाग्र करके तथा उन्हीं चरणकमलों को संसार-सागर को पार करने वाली नाव मानकर मनुष्य महाजनों (महान संतों, मुनियों तथा भक्तों) के चरणचिन्हों का अनुसरण करता है। इस सरल सी विधि से वह अज्ञान सागर को इतनी आसानी से पार कर लेता है मानो कोई बछड़े के खुर का चिन्ह पार कर रहा हो।

31 हे द्युतिपूर्ण प्रभु, आप अपने भक्तों की इच्छा पूरी करने के लिए सदा तैयार रहते हैं इसीलिए आप वांछा-कल्पतरु कहलाते हैं। जब आचार्यगण अज्ञान के भयावह भवसागर को तरने के लिए आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करते हैं, तो वे अपने पीछे अपनी वह विधि छोड़े जाते हैं जिससे वे पार करते हैं। चूँकि आप अपने अन्य भक्तों पर अत्यंत कृपालु रहते हैं अतएव उनकी सहायता करने के लिए आप इस विधि को स्वीकार करते हैं।

32 (कोई कह सकता है कि भगवान के चरणकमलों की शरण खोजने वाले भक्तों के अतिरिक्त भी ऐसे लोग हैं, जो भक्त नहीं हैं किन्तु जिन्होंने मुक्ति प्राप्त करने के लिए भिन्न विधियाँ अपना रखी हैं। तो उनका क्या होता है? इसके उत्तर में ब्रह्माजी तथा अन्य देवता कहते हैं) हे कमलनयन भगवान, भले ही कठिन तपस्याओं से परम पद प्राप्त करने वाले अभक्तगण अपने को मुक्त हुआ मान लें किन्तु उनकी बुद्धि अशुद्ध रहती है। वे कल्पित श्रेष्ठता के अपने पद से नीचे गिर जाते हैं, क्योंकि उनके मन में आपके चरणकमलों के प्रति कोई श्रद्धाभाव नहीं होता।

33 हे माधव, पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्र्वर, हे लक्ष्मीपति भगवान, यदि आपके प्रेमी भक्तगण कभी भक्तिमार्ग से च्युत होते हैं, तो वे अभक्तों की तरह नहीं गिरते क्योंकि आप तब भी उनकी रक्षा करते हैं। इस तरह वे निर्भय होकर अपने प्रतिद्वंद्वियों के मस्तकों को झुका देते हैं और भक्ति में प्रगति करते रहते हैं।

34 हे परमेश्र्वर, पालन करते समय आप त्रिगुणातीत दिव्य शरीर वाले अनेक अवतारों को प्रकट करते हैं। जब आप इस तरह प्रकट होते हैं, तो जीवों को वैदिक कर्म-यथा अनुष्ठान, योग, तपस्या, समाधि आपके चिंतन में भावपूर्ण तल्लीनता--में युक्त होने की शिक्षा देकर उन्हें सौभाग्य प्रदान करते हैं। इस तरह आपकी पूजा वैदिक नियमों के अनुसार की जाती है।

35 हे कारणों के कारण ईश्र्वर, यदि आपका दिव्य शरीर गुणातीत न होता तो मनुष्य पदार्थ तथा अध्यात्म के अंतर को न समझ पाता। आपकी उपस्थिति से ही आपके दिव्य स्वभाव को जाना जा सकता है क्योंकि आप प्रकृति के नियंता हैं। आपके दिव्य स्वरूप की उपस्थिति से प्रभावित हुए बिना आपके दिव्य स्वभाव को समझना कठिन है।

36 हे परमेश्र्वर, आपके दिव्य नाम तथा स्वरूप का उन व्यक्तियों को पता नहीं लग पाता, मात्र जो केवल कल्पना के मार्ग पर चिंतन करते हैं। आपके नाम, रूप तथा गुणों का केवल भक्ति द्वारा ही पता लगाया जा सकता है।

37 विविध कार्यों में लगे रहने पर भी जिन भक्तों के मन आपके चरणकमलों में पूरी तरह लीन रहते हैं और जो निरंतर आपके दिव्य नामों तथा रूपों का श्रवण, कीर्तन, चिंतन करते हैं तथा अन्यों को स्मरण कराते हैं, वे सदैव दिव्य पद पर स्थित रहते हैं और इस प्रकार से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को समझ सकते हैं।

38 हे प्रभु, हम भाग्यशाली हैं कि आपके प्राकट्य से इस धरा पर असुरों के कारण जो भारी बोझ है, वह शीघ्र ही दूर हो जाता है। निस्संदेह हम अत्यंत भाग्यशाली हैं क्योंकि हम इस धरा में तथा स्वर्गलोक में भी आपके चरणकमलों को अलंकृत करने वाले शंख, चक्र, पद्म तथा गदा के चिन्हों को देख सकेंगे।

39 हे परमेश्र्वर आप कोई सामान्य जीव नहीं जो सकाम कर्मों के अधीन इस भौतिक जगत में उत्पन्न होता है। अतः इस जगत में आपका प्राकट्य या जन्म एकमात्र ह्लादिनी शक्ति के कारण होता है। इसी तरह आपके अंश रूप सारे जीवों के कष्टों---यथा जन्म, मृत्यु तथा जरा का कोई दूसरा कारण नहीं सिवाय इसके कि ये सभी आपकी बहिरंगा शक्ति द्वारा संचालित होते हैं।

40 हे परम नियंता, आप इसके पूर्व अपनी कृपा से सारे विश्र्व की रक्षा करने के लिए मत्स्य, अश्र्व, कच्छप, नृसिंहदेव, वराह, हंस, भगवान रामचन्द्र, परशुराम का तथा देवताओं में से वामन के रूप में अवतरित हुए हैं। अब आप इस संसार के उत्पातों को कम करके अपनी कृपा से पुनः हमारी रक्षा करें। हे यदुश्रेष्ठ कृष्ण, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं।

41 हे माता देवकी, आपके तथा हमारे सौभाग्य से भगवान अपने सभी स्वांशों यथा बलदेव समेत आपके गर्भ में हैं। अतएव आपको उस कंस से भयभीत नहीं होना है, जिसने भगवान के हाथों से मारे जाने की ठान ली है। आपका शाश्र्वत पुत्र कृष्ण सारे यदुवंश का रक्षक होगा।

42 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान विष्णु की इस तरह स्तुति करने के बाद सारे देवता ब्रह्माजी तथा शिवजी को आगे करके अपने अपने स्वर्ग-आवासों को लौट गये।

(समर्पित एवं सेवारत जगदीश चन्द्र चौहान)

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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

अंबरीष महाराज द्वारा स्तुति

श्रीमद भागवतम नवम स्कन्ध (अध्याय पाँच)

1 शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब भगवान विष्णु ने दुर्वासा मुनि को इस प्रकार सलाह दी तो सुदर्शन चक्र से अत्यधिक उत्पीड़ित मुनि तुरंत ही महाराज अम्बरीष के पास पहुँचे। अत्यंत दुखित होने के कारण वे राजा के समक्ष लौट गये और उन चरणकमलों को पकड़ लिया।

2 जब दुर्वासा मुनि ने महाराज अम्बरीष के पाँव छुए तो वे अत्यंत लज्जित हो उठे और जब उन्होंने यह देखा कि दुर्वासा उनकी स्तुति करने का प्रयास कर रहे हैं तो वे दयावश और भी अधिक संतप्त हो उठे। अतः उन्होंने तुरंत ही भगवान के महान अस्त्र की स्तुति करनी प्रारम्भ कर दी।

3 महाराज अम्बरीष ने कहा: हे सुदर्शन चक्र, तुम अग्नि हो, तुम परम शक्तिमान सूर्य हो तथा तुम सारे नक्षत्रों के स्वामी चंद्रमा हो। तुम जल, पृथ्वी तथा आकाश हो, तुम पांचों इंद्रियविषय (ध्वनि, स्पर्श, रूप, स्वाद तथा गंध) हो और तुम्हीं इंद्रियाँ भी हो।

4 हे भगवान अच्युत के परम प्रिय, तुम एक हजार अरों वाले हो। हे संसार के स्वामी, समस्त अस्त्रों के विनाशकर्ता, भगवान की आदि दृष्टि, मैं तुमको सादर नमस्कार करता हूँ। कृपा करके इस ब्राह्मण को शरण दो तथा इसका कल्याण करो।

5 हे सुदर्शन चक्र, तुम धर्म हो, तुम सत्य हो, तुम प्रेरणाप्रद कथन हो, तुम यज्ञ हो तथा तुम्हीं यज्ञ-फल के भोक्ता हो। तुम अखिल ब्रह्मांड के पालनकर्ता हो और तुम्हीं भगवान के हाथों में परम दिव्य तेज हो। तुम भगवान की मूल दृष्टि हो; अतएव तुम सुदर्शन कहलाते हो। सभी वस्तुएँ तुम्हारे कार्यकलापों से उत्पन्न की हुई हैं, अतएव तुम सर्वव्यापी हो।

6 हे सुदर्शन, तुम्हारी नाभि अत्यंत शुभ है, अतएव तुम धर्म की रक्षा करने वाले हो। तुम अधार्मिक असुरों के लिए अशुभ पुच्छल तारे के समान हो। निस्संदेह, तुम्हीं तीनों लोकों के पालक हो। तुम दिव्य तेज से पूर्ण हो, तुम मन के समान तीव्रगामी हो और अद्भुत कर्म करने वाले हो। मैं केवल नमः शब्द कहकर तुम्हें सादर नमस्कार करता हूँ।

7 हे वाणी के स्वामी, धार्मिक सिद्धांतों से पूर्ण तुम्हारे तेज से संसार का अंधकार दूर हो जाता है और विद्वान पुरुषों या महात्माओं का ज्ञान प्रकट होता है। निस्संदेह, कोई तुम्हारे तेज का पार नहीं पा सकता क्योंकि सारी वस्तुएँ, चाहे प्रकट अथवा अप्रकट हों, स्थूल अथवा सूक्ष्म हों, उच्च अथवा निम्न हों आपके तेज के द्वारा प्रकट होने वाले आपके विभिन्न रूप ही हैं।

8 हे अजित, जब तुम भगवान द्वारा दैत्यों तथा दानवों के सैनिकों के बीच घुसने के लिए भेजे जाते हो तो तुम युद्धस्थल पर डटे रहते हो और निरंतर उनके हाथों, पेट, जाँघों, पाँवों तथा सिर को विलग करते रहते हो।

9 हे विश्र्व के रक्षक, भगवान ईर्ष्यालु शत्रुओं को मारने के लिए तुमको अपने सर्वशक्तिशाली अस्त्र के रूप में प्रयोग करते हैं। हमारे सम्पूर्ण वंश के लाभ हेतु कृपया इस दीन ब्राह्मण पर दया कीजिये। निश्र्चय ही यह हम सब पर कृपा होगी।

10 यदि हमारे परिवार ने सुपात्रों को दान दिया है, यदि हमने कर्मकांड तथा यज्ञ सम्पन्न किये हैं, यदि हमने अपने-अपने वृत्तिपरक कर्तव्यों को ठीक से पूरा किया है और यदि हम विद्वान ब्राह्मणों द्वारा मार्गदर्शन पाते रहे हैं तो मैं चाहूँगा कि उनके बदले में यह ब्राह्मण सुदर्शन चक्र के द्वारा उत्पन्न ताप से मुक्त कर दिया जाय।

11 यदि समस्त दिव्य गुणों के आगार तथा समस्त जीवों के प्राण तथा आत्मा अद्वितीय परमेश्र्वर हम पर प्रसन्न हैं तो हम चाहेंगे कि यह ब्राह्मण दुर्वासा मुनि दहन की पीड़ा से मुक्त हो जाय।

12 शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: जब राजा ने सुदर्शन चक्र एवं भगवान विष्णु की स्तुति की तो स्तुतियों के कारण सुदर्शन चक्र शांत हुआ और उसने दुर्वासा मुनि नाम के इस ब्राह्मण को दहकाना बंद कर दिया।

13 सुदर्शन चक्र की अग्नि से मुक्त किये जाने पर अति शक्तिशाली योगी दुर्वासा मुनि प्रसन्न हुए। तब उन्होंने महाराज अम्बरीष के गुणों की प्रशंसा की और उन्हें उत्तमोत्तम आशीष दिये।

समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान

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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

सत्यव्रत द्वारा स्तुति

श्रीमद भागवतम अष्टम स्कन्ध (अध्याय चौबीस)

25 मत्स्यरूप भगवान से इन मधुर वचनों को सुनकर मोहित हुए राजा ने पूछा: आप कौन हैं? आप तो हम सबको मोहित कर रहे हैं।

26 हे प्रभु! एक ही दिन में आपने अपना विस्तार सैकड़ों मील तक करके नदी तथा समुद्र के जल को आच्छादित कर लिया है। इससे पहले मैंने न तो ऐसा जलचर पशु देखा था और न ही सुना था।

27 हे प्रभु! आप निश्र्चय ही अव्यय भगवान नारायण अर्थात श्री हरि हैं। आपने जीवों पर अपनी कृपा प्रदर्शित करने के लिए ही अब जलचर का स्वरूप धारण किया है।

28 हे प्रभु! हे सृष्टि, पालन तथा संहार के स्वामी! हे भोक्ताओं में श्रेष्ठ भगवान विष्णु! आप हम जैसे शरणागत भक्तों के पथप्रदर्शक तथा गंतव्य हैं। अतएव मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ।

29 आपकी सारी लीलाएँ तथा अवतार निश्र्चय ही समस्त जीवों के कल्याण के लिए होते हैं। अतएव हे प्रभु! मैं वह प्रयोजन जानना चाहता हूँ जिसके लिए आपने यह मत्स्य रूप धारण किया है।

30 हे कमल की पंखुड़ियों के समान नेत्र वाले प्रभु! देहात्मबुद्धि वाले देवताओं की पूजा सभी तरह से व्यर्थ है। चूँकि आप हरेक के परम मित्र तथा प्रियतम परमात्मा हैं अतएव आपके चरणकमलों की पूजा कभी व्यर्थ नहीं जाती। इसलिए आपने मछली का रूप दिखलाया है।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

ब्रह्मा द्वारा स्तुति

श्रीमद भागवतम अष्टम स्कन्ध

अध्याय पाँच एवं छह

24 श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे समस्त शत्रुओं का दमन करने वाले महाराज परीक्षित ! देवताओं से बातें करने के बाद ब्रह्माजी उन्हें भगवान के धाम ले गये जो इस भौतिक जगत से परे है। भगवान का धाम श्र्वेतद्वीप नामक टापू में है, जो क्षीरसागर में स्थित है।

25 वहाँ (श्र्वेतद्वीप में) ब्रह्माजी ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की स्तुति की, यद्यपि उन्होंने परमेश्वर को इसके पूर्व कभी नहीं देखा था चूँकि उन्होंने वैदिक वाड्मय से भगवान के विषय में सुना हुआ था अतएव उन्होंने स्थिरचित्त होकर भगवान की उसी तरह स्तुति की जिस प्रकार वैदिक साहित्य में लिखी हुई या मान्य है।

26 ब्रह्माजी ने कहा : हे परमेश्र्वर, हे अविकारी, असीम परम सत्य ! आप हर वस्तु के उद्गम हैं। सर्वव्यापी होने के कारण आप प्रत्येक के हृदय में और परमाणु में भी रहते हैं। आपमें कोई भौतिक गुण नहीं पाये जाते। निस्संदेह, आप अचिंत्य हैं। मन आपको कल्पना से नहीं ग्रहण कर सकता और शब्द आपका वर्णन करने में असमर्थ हैं। आप सबके परम स्वामी हैं, अतएव आप हर एक के आराध्य हैं। हम आपको नमस्कार करते हैं।

27 भगवान प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से जानते रहते हैं कि किस प्रकार प्राण, मन तथा बुद्धि समेत प्रत्येक वस्तु उनके नियंत्रण में कार्य करती है। वे हर वस्तु के प्रकाशक हैं और अज्ञान उन्हें छु तक नहीं गया है। उनका भौतिक शरीर नहीं होता जो पूर्वकर्मों के फलों से प्रभावित हो। वे पक्षपात तथा भौतिकतावादी विद्या के अज्ञान से मुक्त हैं। अतएव मैं उन भगवान के चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ जो नित्य, सर्वव्यापक तथा आकाश के समान विशाल हैं और तीनों युगों (सत्य, त्रेता तथा द्वापर) में अपने षडऐश्वर्यों समेत प्रकट होते हैं।

28 भौतिक कार्यों के चक्र में, भौतिक शरीर मानसिक रथ के पहिये जैसा होता है। दस इंद्रियाँ (पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा पाँच ज्ञानेंद्रियाँ) तथा शरीर के भीतर के पाँच प्राण मिलकर रथ के पहिये पंद्रह अरे (तीलियाँ) बनाते हैं। प्रकृति के तीन गुण (सत्त्व, रजस तथा तमस) कार्यकलापों के केंद्र बिन्दु हैं और प्रकृति के आठ अवयव (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा मिथ्या अहंकार) इस पहिये की बाहरी परिधि बनाते हैं। बहिरंगा भौतिक शक्ति इस पहिये को विद्युत शक्ति की भाँति घुमाती है। इस प्रकार यह पहिया बड़ी तेजी से अपनी धुरी पर या केंद्रीय आधार अर्थात भगवान के चारों ओर घूमता है, जो परमात्मा तथा चरम सत्य हैं। हम उन्हें सादर नमस्कार करते हैं।

29 भगवान शुद्ध सत्त्व में स्थित हैं, अतएव वे एकवर्ण---ॐकार (प्रणव) हैं। चूँकि भगवान अंधकार माने जाने वाले दृश्य जगत से परे हैं, अतएव वे भौतिक नेत्रों से नहीं दिखते। फिर भी वे दिक या काल द्वारा हमसे पृथक नहीं होते, अपितु वे सर्वत्र उपस्थित रहते हैं। अपने वाहन गरुड़ पर आसीन उनकी पूजा क्षोभ से मुक्ति पा चुके व्यक्तियों के द्वारा योगशक्ति से की जाती है। हम सभी उनको सादर नमस्कार करते हैं।

30 कोई भी व्यक्ति भगवान की माया का पार नहीं पा सकता जो इतनी प्रबल होती है कि हर व्यक्ति इससे भ्रमित होकर जीवन के लक्ष्य को समझने की बुद्धि गवाँ देता है। किन्तु वही माया उन भगवान के वश में रहती है, जो सब पर शासन करते हैं और सभी जीवों पर समान दृष्टि रखते हैं। हम उन्हें नमस्कार करते हैं।

31 चूँकि हमारे शरीर सत्त्वगुण से निर्मित हैं इसलिए हम देवगण भीतर तथा बाहर से सतोगुण में स्थित हैं। सारे संत पुरुष भी इसी प्रकार स्थित हैं। अतएव यदि हम भी भगवान को न समझ पायें तो उन नगण्य प्राणियों के विषय में क्या कहा जाये जो रजो तथा तमोगुणों में स्थित हैं? भला वे भगवान को कैसे समझ सकते हैं? हम उन भगवान को सादर नमस्कार करते हैं।

32 इस पृथ्वी पर चार प्रकार के जीव हैं (जरायुज - भ्रूण से उत्पन्न, अण्डज - अंडे से उत्पन्न, स्वेदज - पसीने से उत्पन्न और उदिभज - बीज से उत्पन्न) और ये सारे के सारे उन्हीं के द्वारा उत्पन्न किये गये हैं। यह भौतिक सृष्टि उनके चरणकमलों पर टिकी है। वे ऐश्वर्य तथा शक्ति से उत्कृष्ट परम पुरुष हैं। वे हम पर प्रसन्न हों।

33 `सारा विराट जगत जल से उद्भूत है और जल ही के कारण सारे जीव बने रहते हैं, जीवित रहते हैं तथा विकसित होते हैं। यह जल भगवान के वीर्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। अतएव इतनी महान शक्ति वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हम पर प्रसन्न हों।

34 सोम (चंद्रमा) समस्त देवताओं के लिए अन्न, बल तथा दीर्घायु का स्रोत है। वह सारी वनस्पतियों का स्वामी तथा सारे जीवों की उत्पत्ति का स्रोत भी है। जैसा कि विद्वानों ने कहा है, चंद्रमा भगवान का मन है। ऐसे समस्त ऐश्वर्यों के स्रोत भगवान हम पर प्रसन्न हों।

35 अनुष्ठानों की आहुतियाँ ग्रहण करने के लिए उत्पन्न अग्नि भगवान का मुख है। सागर की गहराइयों के भीतर भी संपदा उत्पन्न करने के लिए अग्नि रहती है और उदर में भोजन पचाने के लिए तथा शरीर पालन हेतु विभिन्न स्रावों को उत्पन्न करने के लिए भी अग्नि उपस्थित रहती है। ऐसे परम शक्तिमान भगवान हम पर प्रसन्न हों।

36 सूर्यदेव मुक्ति के मार्ग को चिन्हित करते हैं, जो अर्चिरादि वर्त्म कहलाता है। वे वेदों के ज्ञान के प्रमुख स्रोत हैं, वे ही ऐसे धाम हैं जहाँ पर परम सत्य को पूजा जा सकता है। वे मोक्ष के द्वार हैं, वे नित्य जीवन के स्रोत हैं, वे मृत्यु के भी कारण हैं। सूर्यदेव भगवान की आँख हैं। ऐसे परम ऐश्वर्यवान भगवान हम पर प्रसन्न हों।

37 सारे चर तथा अचर प्राणी अपनी जीवनी शक्ति (प्राण), अपनी शारीरिक शक्ति तथा अपना जीवन तक वायु से प्राप्त करते हैं। हम सभी अपने प्राण के लिए वायु का उसी तरह अनुसरण करते हैं जिस प्रकार राजा का अनुसरण नौकर करता है। वायु की जीवनी शक्ति भगवान की मूल जीवनी शक्ति से उत्पन्न होती है। ऐसे भगवान हम पर प्रसन्न हों।

38 परम शक्तिशाली भगवान हम पर प्रसन्न हों। विभिन्न दिशाएँ उनके कानों से उत्पन्न होती है, शरीर के छिद्र उनके हृदय से निकलते हैं एवं प्राण, इंद्रियाँ, मन, शरीर के भीतर की वायु तथा शरीर आश्रय रूपी शून्य (आकाश) उनकी नाभि से निकलते हैं।

39 स्वर्ग का राजा महेंद्र भगवान के बल से उत्पन्न हुआ था, देवतागण भगवान की कृपा से उत्पन्न हुए थे, शिवजी भगवान के क्रोध से उत्पन्न हुए थे और ब्रह्माजी उनकी गंभीर बुद्धि से उत्पन्न हुए थे। सारे वैदिक मंत्र भगवान के शरीर के छिद्रों से उत्पन्न हुए थे तथा ऋषि और प्रजापतिगण उनकी जननेन्द्रियों से उत्पन्न हुए थे। ऐसे परम शक्तिशाली भगवान हम पर प्रसन्न हों।

40 लक्ष्मी उनके वक्षस्थल से उत्पन्न हुई, पितृलोक के वासी उनकी छाया से, धर्म उनके स्तन से तथा अधर्म उनकी पीठ से उत्पन्न हुआ। स्वर्गलोक उनके सिर की चोटी से तथा अप्सराएँ उनके इंद्रिय भोग से उत्पन्न हुई। ऐसे परम शक्तिमान भगवान हम पर प्रसन्न हों।

41 ब्राह्मण तथा वैदिक ज्ञान भगवान के मुख से निकले, क्षत्रिय तथा शारीरिक शक्ति उनकी भुजाओं से, वैश्य तथा उत्पादकता एवं धन-संपदा संबंधी उनका दक्ष ज्ञान उनकी जाँघों से तथा वैदिक ज्ञान से विलग रहनेवाले शूद्र उनके चरणों से निकले। ऐसे भगवान, जो पराक्रम से पूर्ण है, हम पर प्रसन्न हों।

42 लोभ उनके निचले होंठ से, प्रीति उनके ऊपरी होंठ से, शारीरिक कान्ति उनकी नाक से, पाशविक वासनाएँ उनकी स्पर्शेंद्रियों से, यमराज उनकी भौंहों से तथा नित्यकाल उनकी पलकों से उत्पन्न होते हैं। वे भगवान हम सबों पर प्रसन्न हों।

43 सभी विद्वान लोग कहते हैं कि पाँचों तत्त्व, नित्यकाल, सकाम कर्म, प्रकृति के तीनों गुण तथा इन गुणों से उत्पन्न विभिन्न किस्में---ये सब योगमाया की सृष्टियाँ हैं। अतएव इस भौतिक जगत को समझ पाना अत्यंत कठिन है, किन्तु जो लोग अत्यंत विद्वान हैं उन्होंने इसका तिरस्कार कर दिया है। जो सभी वस्तुओं के नियंता हैं ऐसे भगवान हम सब पर प्रसन्न हों।

44 हम उन भगवान को सादर नमस्कार करते हैं, जो पूर्णतया शांत, प्रयास से मुक्त तथा अपनी उपलब्धियों से पूर्णतया संतुष्ट हैं। वे अपनी इंद्रियों द्वारा भौतिक जगत के कार्यों में लिप्त नहीं होते। निस्संदेह, इस भौतिक जगत में अपनी लीलाएँ सम्पन्न करते समय वे अनासक्त वायु की तरह रहते हैं।

45 हे भगवन ! हम आपके शरणागत हैं फिर भी हम आपका दर्शन करना चाहते हैं। कृपया अपने आदि रूप को तथा अपने मुस्काते मुख को हमारे नेत्रों को दिखलाइये और अन्य इंद्रियों द्वारा अनुभव करने दीजिये।

46 हे भगवन ! आप विभिन्न युगों में अपनी इच्छा से विभिन्न अवतारों में प्रकट होते हैं और ऐसे असामान्य कार्य आश्र्चर्यजनक ढंग से करते हैं, जिन्हें कर पाना हम सब के लिए दुष्कर है।

47 कर्मीजन अपनी इंद्रियतृप्ति के लिए सदैव धनसंग्रह करने के लिए लालायित रहते हैं, किन्तु इसके लिए उन्हें अत्यधिक श्रम करना पड़ता है। इतने कठोर श्रम के बावजूद भी उन्हें संतोषप्रद फल नहीं मिल पाता। निस्संदेह ही कभी-कभी तो उनके कर्मफल से निराशा ही उत्पन्न होती है। किन्तु जिन भक्तों ने भगवान की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर रखा है वे कठोर श्रम किये बिना ही पर्याप्त फल प्राप्त कर सकते हैं। ये फल भक्तों की आशा से बढ़कर होते हैं।

48 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को समर्पित कार्य, भले ही छोटे पैमाने पर क्यों न किये जाँए, कभी भी व्यर्थ नहीं जाते। अतएव स्वाभाविक है कि परम पिता होने के कारण स्वाभाविक रूप से भगवान अत्यंत प्रिय हैं और वे जीवों के कल्याण के लिए सदैव कर्म करने के लिए तैयार रहते हैं।

49 जब वृक्ष की जड़ में पानी डाला जाता है, तो वृक्ष का तना तथा शाखाएँ स्वतः तुष्ट हो जाती हैं। इसी प्रकार जब कोई भगवान विष्णु का भक्त बन जाता है, तो इससे हर एक की सेवा हो जाती है क्योंकि भगवान हर एक के परमात्मा हैं।

50 हे भगवन ! आपको नमस्कार है क्योंकि आप नित्य हैं, भूत, वर्तमान तथा भविष्य की काल सीमा से परे हैं। आप अपने कार्यकलापों में अचिंत्य हैं, आप भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों के स्वामी हैं और समस्त भौतिक गुणों से परे रहने के कारण आप भौतिक कल्मष से मुक्त हैं। आप प्रकृति के तीनों गुणों के नियंता हैं, किन्तु इस समय आप सतोगुण में स्थित हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

देवताओं तथा असुरों द्वारा संधि की घोषणा (अध्याय छह)  

1 श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा परीक्षित ! देवताओं तथा ब्रह्माजी द्वारा इस प्रकार स्तुतियों से पूजित भगवान हरि उन सबके समक्ष प्रकट हो गये। उनका शारीरिक तेज एकसाथ हजारों सूर्य के उदय होने के समान था।

2 भगवान के तेज से सारे देवताओं की दृष्टि चौंधिया गई। वे न तो आकाश, दिशाएँ, पृथ्वी को देख सके, न ही अपने आपको देख सके। अपने समक्ष उपस्थित भगवान को देखना तो दूर रहा।

3-7 शिवजी सहित ब्रह्माजी ने भगवान के निर्मल शारीरिक सौंदर्य को देखा जिनका श्यामल शरीर मरकत मणि के समान है, जिनकी आँखें कमल के फूल के भीतरी भाग जैसी लाल-लाल हैं, जो पिघले सोने जैसे पीले वस्त्र धारण किये हैं और जिनका समूचा शरीर आकर्षक ढंग से सज्जित है। उन्होंने उनके सुंदर मुस्काते कमल जैसे मुखमंडल को देखा जिसके ऊपर बहुमूल्य रत्नों से जड़ित मुकुट था। भगवान की भौंहें आकर्षक हैं और उनकी गालों पर कान के कुंडल शोभित रहते हैं। ब्रह्माजी तथा शिवजी ने भगवान की कमर में पेटी, उनकी बाहों में बाजूबंद, वक्षस्थल पर हार और पाँवों में पायल देखे। भगवान फूल की मालाओं से अलंकृत थे, उनकी गर्दन में कौस्तुभ मणि अलंकृत थी और उनके साथ लक्ष्मीजी थीं तथा वे चक्र, गदा इत्यादि निजी आयुध लिए हुए थे। जब ब्रह्माजी ने शिवजी तथा अन्य देवताओं के साथ भगवान के स्वरूप को इस तरह देखा तो सबने भूमि पर गिरकर उन्हें प्रणाम किया।

8 ब्रह्माजी ने कहा: यद्यपि आप अजन्मा हैं, किन्तु अवतार के रूप में आपका प्राकट्य तथा अन्तर्धान होना सदैव चलता रहता है। आप सदैव भौतिक गुणो से मुक्त रहते हैं और सागर के समान दिव्य आनंद के आश्रय हैं। अपने दिव्य स्वरूप में नित्य रहते हुए आप अत्यंत सूक्ष्म से भी सूक्ष्म हैं। अतएव हम आपको जिनका अस्तित्व अचिंत्य है, सादर नमस्कार करते हैं।

9 हे पुरुषश्रेष्ठ, हे परम नियंता ! जो लोग सचमुच परम सौभाग्य की कामना करते हैं, वे वैदिक तंत्रों के अनुसार आपके इसी रूप की पूजा करते हैं। हे प्रभु ! हम आपमें तीनों लोकों को देख सकते हैं।

10 सदैव पूर्ण स्वतंत्र रहने वाले मेरे प्रभु ! यह सारा दृश्य जगत आपसे उत्पन्न होता है, आप पर टिका रहता है और आपमें लीन हो जाता है। आप ही प्रत्येक वस्तु के आदि, मध्य तथा अंत हैं जिस तरह पृथ्वी मिट्टी के पात्र का कारण है, वह उस पात्र को आधार प्रदान करती है और जब पात्र टूट जाता है, तो अंततः उसे अपने में मिला लेती है।

11 हे परम पुरुष ! आप अपने में स्वतंत्र हैं और दूसरों से सहायता नहीं लेते। आप अपनी शक्ति से इस दृश्य जगत का सृजन करके इसमें प्रवेश कर जाते हैं। जो लोग कृष्णभावनामृत में बढ़े-चढ़े हैं, जो प्रामाणिक शास्त्रों से भलीभाँति परिचित हैं और जो भक्तियोग के अभ्यास से सारे भौतिक कल्मष से शुद्ध हो जाते हैं, वे शुद्ध मन से यह देख सकते हैं कि आप भौतिक गुणों के रूपांतरों के भीतर रहते हुए भी इन गुणों से अछूते रहते हैं।

12 जिस प्रकार काठ से अग्नि, गाय के थन से दूध, भूमि से अन्न तथा जल और औद्योगिक उद्यम से जीविका के लिए समृद्धि प्राप्त की जा सकती है उसी तरह इस भौतिक जगत में मनुष्य भक्तियोग के अभ्यास द्वारा आपकी कृपा प्राप्त कर सकता है या बुद्धि से आपके पास पहुँच सकता है। जो पुण्यात्मा हैं, वे इसकी पुष्टि करते हैं।

13 जंगल की अग्नि से पीड़ित हाथी गंगाजल प्राप्त होने पर अत्यंत प्रसन्न होते हैं। इसी प्रकार, हे कमलनाभ प्रभु ! चूँकि आप हमारे समक्ष अब प्रकट हुए हैं अतएव हम दिव्य सुख का अनुभव कर रहे हैं। हमें आपके दर्शन की दीर्घकाल से आकांक्षा थी अतएव आपका दर्शन पाकर हमने अपने जीवन के चरम लक्ष्य को पा लिया है।

14 हे भगवन ! हम विभिन्न देवता, इस ब्रह्मांड के निदेशक आपके चरणकमलों के निकट आये हैं। जिस प्रयोजन से हम आये हैं कृपया उसे पूरा करें। आप भीतर तथा बाहर से हर वस्तु के साक्षी हैं। आपसे कुछ भी अज्ञात नहीं है, अतएव आपको किसी बात के लिए पुनः सूचित करना व्यर्थ है।

15 मैं (ब्रह्मा), शिवजी तथा सारे देवताओं के साथ-साथ, दक्ष जैसे प्रजापति भी चिंगारियाँ मात्र हैं, जो मूल अग्नि स्वरूप आपके द्वारा प्रकाशित हैं। चूँकि हम आपके कण हैं अतएव हम अपनी कुशलता के विषय में समझ ही क्या सकते हैं? हे परमेश्र्वर ! हमें मोक्ष का वह साधन प्रदान करें जो ब्राह्मणों तथा देवताओं के लिए उपयुक्त हों।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

गजेन्द्र की समर्पण स्तुति

श्रीमद भागवतम अष्टम स्कन्ध अध्याय तीन  

1 श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : तत्पश्र्चात गजेन्द्र ने अपना मन पूर्ण बुद्धि के साथ अपने हृदय में स्थिर कर लिया और उस मंत्र का जप प्रारम्भ किया जिसे उसने इन्द्रद्युम्न के रूप में अपने पूर्वजन्म में सीखा था और जो कृष्ण की कृपा से उसे स्मरण था।

2 गजेन्द्र ने कहा : मैं परम पुरुष वासुदेव को सादर नमस्कार करता हूँ (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय)। उन्हीं के कारण यह शरीर आत्मा की उपस्थिति के फलस्वरूप कर्म करता है, अतएव वे प्रत्येक जीव के मूल कारण हैं। वे ब्रह्मा तथा शिव जैसे महापुरुषों के लिए पूजनीय हैं और वे प्रत्येक जीव के हृदय में प्रविष्ट हैं। मैं उनका ध्यान करता हूँ।

3 भगवान ही वह परम धरातल है, जिस पर प्रत्येक वस्तु टिकी हुई है, वे वह अवयव हैं जिससे प्रत्येक वस्तु उत्पन्न हुई है तथा वे वह पुरुष हैं जिसने सृष्टि की रचना की और जो इस विराट विश्र्व के एकमात्र कारण हैं। फिर भी वे कारण-कार्य से पृथक हैं। मैं उन भगवान की शरण ग्रहण करता हूँ जो सभी प्रकार से आत्म-निर्भर हैं।

4 भगवान अपनी शक्ति के विस्तार द्वारा कभी इस दृश्य जगत को व्यक्त बनाते हैं और कभी इसे अव्यक्त बना देते हैं। वे सभी परिस्थितियों में परम कारण तथा परम कार्य (फल), प्रेक्षक तथा साक्षी दोनों हैं। इस प्रकार वे सभी वस्तुओं से परे हैं। ऐसे भगवान मेरी रक्षा करें।

5 कालक्रम से जब लोकों तथा उनके निदेशकों एवं पालकों समेत ब्रह्मांड के सारे कार्य-कारणों का संहार हो जाता है, तो गहन अंधकार की स्थिति आती है। किन्तु इस अंधकार के ऊपर भगवान रहता है। मैं उनके चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ।

6 आकर्षक वेषभूषा से ढके रहने तथा विभिन्न प्रकार की गतियों से नाचने के कारण रंगमंच के कलाकार को श्रोता समझ नहीं पाते। इसी प्रकार परम कलाकार के कार्यों तथा स्वरूपों को बड़े-बड़े मुनि या देवतागण भी नहीं समझ पाते और बुद्धिहीन तो तनिक भी नहीं (जो पशुओं के तुल्य हैं)। न तो देवता तथा मुनि, न ही बुद्धिहीन मनुष्य भगवान के स्वरूप को समझ सकते हैं और न ही वे उनकी वास्तविक स्थिति को अभिव्यक्त कर सकते हैं। ऐसे भगवान मेरी रक्षा करें।

7 जो सभी जीवों को समभाव से देखते हैं, जो सबों के मित्रवत हैं तथा जो जंगल में ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ तथा संन्यास व्रत का बिना त्रुटि के अभ्यास करते हैं, ऐसे विमुक्त तथा मुनिगण भगवान के सर्वकल्याणप्रद चरणकमलों का दर्शन पाने के इच्छुक रहते हैं। वही भगवान मेरे गंतव्य हों।

8-9 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान भौतिक जन्म, कार्य, नाम, रूप, गुण या दोष से रहित हैं। यह भौतिक जगत जिस अभिप्राय से सृजित और विनष्ट होता रहता है उसकी पूर्ति के लिए वे अपनी मूल अंतरंगा शक्ति द्वारा रामचन्द्र या भगवान कृष्ण जैसे मानव सदृश रूप में आते हैं। उनकी शक्ति महान है और वे विभिन्न रूपों में भौतिक कल्मष से सर्वथा मुक्त होकर अद्भुत कर्म करते हैं। अतएव वे परब्रह्म हैं। मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ।

10 मैं उन आत्मप्रकाशित परमात्मा को नमस्कार करता हूँ जो प्रत्येक हृदय में साक्षी स्वरूप स्थित हैं, व्यष्टि जीवात्मा को प्रकाशित करते हैं और जिन तक मन, वाणी या चेतना के प्रयासों द्वारा नहीं पहुँचा जा सकता।

11 भगवान की अनुभूति उन शुद्ध भक्तों को होती है, जो भक्तियोग की दिव्य स्थिति में रहकर कर्म करते हैं। वे अकलुषित सुख के दाता हैं और दिव्यलोक के स्वामी हैं। अतएव मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ।

12 मैं सर्वव्यापी भगवान वासुदेव को, भगवान के भयानक रूप नृसिंह देव को, भगवान के पशुरूप (वराह देव) को, निर्विशेषवाद का उपदेश देनेवाले भगवान दत्तात्रेय को, भगवान बुद्ध को तथा अन्य सारे अवतारों को नमस्कार करता हूँ। मैं उन भगवान को सादर नमस्कार करता हूँ जो निर्गुण हैं, किन्तु भौतिक जगत में सतो, रजो तथा तमोगुणों को स्वीकार करते हैं। मैं निर्विशेष ब्रह्मतेज को भी सादर नमस्कार करता हूँ।

13 मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप परमात्मा, हर एक के अध्यक्ष तथा जो कुछ भी घटित होता है उसके साक्षी हैं। आप परम पुरुष, प्रकृति तथा समग्र भौतिक शक्ति के उद्गम हैं। आप भौतिक शरीर के भी स्वामी हैं। अतएव आप परम पूर्ण हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

14 हे भगवन ! आप समस्त इंद्रिय-विषयों के द्रष्टा हैं। आपकी कृपा के बिना संदेहों की समस्या के हल होने की कोई संभावना नहीं है। यह भौतिक जगत आपके अनुरूप छाया के समान है। निस्संदेह, मनुष्य इस भौतिक जगत को सत्य मानता है क्योंकि इससे आपके अस्तित्व की झलक मिलती है।

15 हे भगवन! आप समस्त कारणों के कारण हैं, किन्तु आपका अपना कोई कारण नहीं है। अतएव आप हर वस्तु के अद्भुत कारण हैं। मैं आपको अपना सादर नमस्कार अर्पित करता हूँ। आप पंचरात्र तथा वेदांतसूत्र जैसे शास्त्रों में निहित वैदिक ज्ञान के आश्रय हैं, जो आपके ही साक्षात स्वरूप हैं और परंपरा पद्धति के स्रोत हैं। चूँकि मोक्ष प्रदाता आप ही हैं अतएव आप ही अध्यात्मवादियों के एकमात्र आश्रय हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

16 हे प्रभु ! जिस प्रकार अरणि-काष्ठ में अग्नि ढकी रहती है उसी प्रकार आप तथा आपका असीम ज्ञान प्रकृति के भौतिक गुणों से ढका रहता है। किन्तु आपका मन प्रकृति के गुणों के कार्यकलापों पर ध्यान नहीं देता। जो लोग आध्यात्मिक ज्ञान में बढ़े-चढ़े हैं, वे वैदिक वाड्मय में निर्देशित विधि-विधानों के अधीन नहीं होते। चूँकि ऐसे उन्नत लोग दिव्य होते हैं अतएव आप स्वयं उनके शुद्ध मन में प्रकट होते हैं। इसलिए मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

17 चूँकि मुझ जैसे पशु ने परममुक्त आपकी शरण ग्रहण की है, अतएव आप निश्र्चय ही मुझे इस संकटमय स्थिति से उबार लेंगे। निस्संदेह, अत्यंत दयालु होने के कारण आप निरंतर मेरे उद्धार करने का प्रयास करते हैं। आप अपने परमात्मा-अंश से समस्त देहधारी जीवों के हृदय में स्थित हैं। आप प्रत्यक्ष दिव्य ज्ञान के रूप में विख्यात हैं और आप असीम हैं। हे भगवन! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

18 हे प्रभु! जो लोग भौतिक कल्मष से पूर्णतः मुक्त हैं, वे अपने अंतस्थल में सदैव आपका ध्यान करते हैं। आप मुझ जैसों के लिए दुष्प्राप्य हैं, जो मनोरथ, घर, संबंधियों, मित्रों, धन, नौकरों तथा सहायकों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं। आप प्रकृति के गुणों से निष्कलुषित भगवान हैं। आप सारे ज्ञान के आगार, परम नियंता हैं। अतएव मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

19 भगवान की पूजा करने पर जो लोग धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष--इन चारों में रुचि रखते हैं, वे उनसे अपनी इच्छानुसार इन्हें प्राप्त कर सकते हैं। तो फिर अन्य आशीर्वादों के विषय में क्या कहा जा सकता है? कभी-कभी भगवान ऐसे महत्वाकांक्षी पूजकों को आध्यात्मिक शरीर प्रदान करते हैं। जो भगवान असीम कृपालु हैं, वे मुझे वर्तमान संकट से तथा भौतिकतावादी जीवन शैली से मुक्ति का आशीर्वाद दें।

20-21 ऐसे अनन्य भक्त जिन्हें भगवान की सेवा करने के अतिरिक्त अन्य कोई चाह नहीं रहती, वे पूर्णतः शरणागत होकर उनकी पूजा करते हैं और उनके आश्र्चर्यजनक तथा शुभ कार्यकलापों के विषय में सदैव सुनते हैं तथा कीर्तन करते हैं। इस प्रकार वे सदैव दिव्य आनंद के सागर में मग्न रहते हैं। ऐसे भक्त भगवान से कोई वरदान नहीं माँगते, किन्तु मैं तो संकट में हूँ। अतएव मैं उन भगवान की स्तुति करता हूँ जो शाश्र्वत रूप में विद्यमान हैं, जो अदृश्य हैं, जो ब्रह्मा जैसे महापुरुषों के भी स्वामी हैं और जो केवल दिव्य भक्तियोग द्वारा ही प्राप्य हैं। अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण वे मेरी इंद्रियों की पहुँच से तथा समस्त बाह्य अनुभूति से परे हैं। वे असीम हैं, वे आदि कारण हैं और सभी तरह से पूर्ण हैं। मैं उनको नमस्कार करता हूँ।

22-24 भगवान अपने सूक्ष्म अंश जीव तत्त्व की सृष्टि करते हैं जिसमें ब्रह्मा, देवता तथा वैदिक ज्ञान के अंग (साम, ऋग, यजूर तथा अथर्व) से लेकर अपने-अपने नामों तथा गुणों सहित समस्त चर तथा अचर प्राणी सम्मिलित हैं। जिस प्रकार अग्नि के स्फुलिंग या सूर्य की चमकीली किरणें अपने स्रोत से निकलकर पुनः उसी में समा जाती हैं उसी प्रकार मन, बुद्धि, इंद्रियाँ, स्थूल भौतिक तथा सूक्ष्म भौतिक शरीर तथा प्रकृति के गुणों के सतत रूपांतर (विकार)---ये सभी भगवान से उद्भूत होकर पुनः उन्हीं में समा जाते हैं। वे न तो देव हैं न दानव, न मनुष्य न पक्षी या पशु हैं। वे न तो स्त्री या पुरुष या क्लीव हैं और न ही पशु हैं। न ही वे भौतिक गुण, सकाम कर्म, प्राकट्य या अप्राकट्य हैं। वे " नेति-नेति " का भेदभाव करने में अंतिम शब्द हैं और वे अनंत हैं। उन भगवान की जय हो।

25 घड़ियाल के आक्रमण से मुक्त किये जाने के बाद मैं और आगे जीवित रहना नहीं चाहता। हाथी के शरीर से क्या लाभ जो भीतर तथा बाहर से अज्ञान से आच्छादित हो? मैं तो अज्ञान के आवरण से केवल नित्य मोक्ष की कामना करता हूँ। यह आवरण काल के प्रभाव से विनष्ट नहीं होता।

26 भौतिक जीवन से मोक्ष की कामना करता हुआ अब मैं उस परम पुरुष को सादर नमस्कार करता हूँ जो इस ब्रह्मांड का स्रष्टा है, जो साक्षात विश्र्व का स्वरूप होते हुए भी इस विश्र्व से परे है। वह इस जगत में हर वस्तु का परम ज्ञाता है, ब्रह्मांड का परमात्मा है। वह अजन्मा है और परम पद पर स्थित भगवान है। उसे मैं सादर नमस्कार करता हूँ।

27 मैं उन ब्रह्म, परमात्मा, समस्त योग के स्वामी को सादर नमस्कार करता हूँ जो सिद्ध योगियों द्वारा अपने हृदयों में तब देखे जाते हैं जब उनके हृदय भक्तियोग के अभ्यास द्वारा सकाम कर्मों के फलों से पूर्णतया शुद्ध तथा मुक्त हो जाते हैं।

28 हे प्रभु ! आप तीन प्रकार की शक्तियों के दुस्तर वेग के नियामक हैं। आप समस्त इंद्रियसुख के आगार हैं और शरणागत जीवों के रक्षक हैं। आप असीम शक्ति के स्वामी हैं, किन्तु जो लोग अपनी इंद्रियों को वश में रखने मे अक्षम हैं, वे आप तक नहीं पहुँच पाते। मैं आपको बारंबार सादर नमस्कार करता हूँ।

29 मैं उन भगवान को सादर नमस्कार करता हूँ जिनकी माया से ईश्र्वर का अंश जीव देहात्मबुद्धि के कारण अपनी असली पहचान को भूल जाता है। मैं उन भगवान की शरण ग्रहण करता हूँ जिनकी महिमा को समझ पाना कठिन है।

30 श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : जब गजेन्द्र किसी व्यक्ति विशेष का नाम न लेकर परम पुरुष का वर्णन कर रहा था, तो उसने ब्रह्मा, शिव, इन्द्र, चंद्र इत्यादि देवताओं का आह्वान नहीं किया। अतएव इनमें से कोई भी उसके पास नहीं आए। किन्तु चूँकि भगवान हरि परमात्मा, पुरुषोत्तम हैं अतएव वे गजेन्द्र के समक्ष प्रकट हुए।

31 गजेन्द्र के प्रार्थना करने के कारण उसकी विकट स्थिति को समझने के पश्र्चात सर्वत्र निवास करने वाले भगवान हरि उन देवताओं समेत वहाँ प्रकट हुए जो उनकी स्तुति कर रहे थे। अपने हाथों में चक्र तथा अन्य आयुध लिए और अपने वाहन गरुड़ की पीठ पर सवार होकर वे तीव्र गति से अपनी इच्छानुसार गजेन्द्र के समक्ष प्रकट हुए।

32 घड़ियाल ने गजेन्द्र को जल में बलपूर्वक पकड़ रखा था जिससे वह अत्यधिक पीड़ा का अनुभव कर रहा था, किन्तु जब उसने देखा कि नारायण अपना चक्र घुमाते हुए गरुड़ की पीठ पर बैठकर आकाश में आ रहे हैं, तो उसने तुरंत ही अपनी सूँड में कमल का एक फूल ले लिया और अपनी वेदना के कारण अत्यंत कठिनाई से निम्नलिखित शब्द कहे "हे भगवान, नारायण, हे ब्रह्मांड के स्वामी! हे परमेश्र्वर! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।"

33 तत्पश्र्चात गजेन्द्र को ऐसी पीड़ित अवस्था में देखकर, अजन्मा भगवान हरि तुरंत अहैतुकी कृपावश गरुड़ की पीठ से नीचे उतरे और गजेन्द्र को घड़ियाल समेत जल के बाहर खींच लाये। तब समस्त देवताओं की उपस्थिति में जो सारा दृश्य देख रहे थे, भगवान ने अपने चक्र से घड़ियाल के मुख को उसके शरीर से पृथक कर दिया। इस प्रकार उन्होंने गजेन्द्र को बचा लिया

(समर्पित एवं सेवारत --- जगदीश चन्द्र चौहान)

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ॐ श्री गुरु गौरांग जयतः

अध्याय अठारह उपसंहार—संन्यास की सिद्धि 

https://youtu.be/VQSon4RQDcM

1 अर्जुन ने कहा— हे महाबाहु! मैं त्याग का उद्देश्य जानने का इच्छुक हूँ और हे केशिनिषूदन, हे हृषिकेश! मैं त्यागमय जीवन (संन्यास आश्रम) का भी उद्देश्य जानना चाहता हूँ।

2 श्रीभगवान ने कहा— भौतिक इच्छा पर आधारित कर्मों के परित्याग को विद्वान लोग संन्यास कहते हैं और समस्त कर्मों के फल-त्याग को बुद्धिमान लोग त्याग कहते हैं।

3 कुछ विद्वान घोषित करते हैं कि समस्त प्रकार के सकाम कर्मों को दोषपूर्ण समझ कर त्याग देना चाहिए। किन्तु अन्य विद्वान मानते हैं कि यज्ञ, दान तथा तपस्या के कर्मों को कभी नहीं त्यागना चाहिए।

4 हे भरतश्रेष्ठ! अब त्याग के विषय में मेरा निर्णय सुनो। हे नरशार्दूल! शास्त्रों में त्याग तीन तरह का बताया गया है।

5 यज्ञ, दान तथा तपस्या के कर्मों का कभी परित्याग नहीं करना चाहिए, उन्हें अवश्य सम्पन्न करना चाहिए। निस्सन्देह यज्ञ, दान तथा तपस्या महात्माओं को भी शुद्ध बनाते हैं।

6 इन सारे कार्यों को किसी प्रकार की आसक्ति या फल की आशा के बिना सम्पन्न करना चाहिए। हे पृथापुत्र! इन्हें कर्तव्य मानकर सम्पन्न किया जाना चाहिए। यही मेरा अन्तिम मत है।

7 निर्दिष्ट कर्तव्यों को कभी नहीं त्यागना चाहिए। यदि कोई मोहवश अपने नियत कर्मों का परित्याग कर देता है, तो ऐसे त्याग को तामसी कहा जाता है।

8 जो व्यक्ति नियत कर्मों को कष्टप्रद समझकर या शारीरिक क्लेश के भय से त्याग देता है, उसके लिए कहा जाता है कि उसने यह त्याग रजोगुण में किया है। ऐसा करने से कभी त्याग का उच्च फल प्राप्त नहीं होता।

9 हे अर्जुन! जब मनुष्य नियत कर्तव्य को करणीय मानकर करता है और समस्त भौतिक संगति तथा फल की आसक्ति को त्याग देता है, तो उसका त्याग सात्विक कहलाता है।

10 सतोगुण में स्थित बुद्धिमान त्यागी, जो न तो अशुभ कर्म से घृणा करता है, न शुभकर्म से लिप्त होता है, वह कर्म के विषय में कोई संशय नहीं रखता।

11 निस्सन्देह किसी भी देहधारी प्राणी के लिए समस्त कर्मों का परित्याग कर पाना असम्भव है। लेकिन जो कर्मफल का परित्याग करता है, वह वास्तव में त्यागी कहलाता है।

12 जो त्यागी नहीं है, उसके लिए इच्छित (इष्ट), अनिच्छित (अनिष्ट) तथा मिश्रित—ये तीन प्रकार के कर्मफल मृत्यु के बाद मिलते हैं। लेकिन जो संन्यासी हैं, उन्हें ऐसे फल का सुख-दुख नहीं भोगना पड़ता।

13 हे महाबाहु अर्जुन! वेदान्त के अनुसार समस्त कर्म की पूर्ति के लिए पाँच कारण हैं। अब तुम इन्हें मुझसे सुनो।

14 कर्म का स्थान (शरीर), कर्ता, विभिन्न इन्द्रियाँ, अनेक प्रकार की चेष्टाएँ तथा परमात्मा—ये पाँच कर्म के कारण हैं।

15 मनुष्य अपने शरीर, मन या वाणी से जो भी उचित या अनुचित कर्म करता है, वह इन पाँच कारणों के फलस्वरूप होता है।

16 अतएव जो इन पाँच कारणों को न मानकर अपने आपको ही एकमात्र कर्ता मानता है, वह निश्चय ही बहुत बुद्धिमान नहीं होता और वस्तुओं को सही रूप में नहीं देख सकता।

17 जो मिथ्या अहंकार से प्रेरित नहीं है, जिसकी बुद्धि बँधी नहीं है, वह इस संसार में मनुष्यों को मारता हुआ भी नहीं मारता। न ही वह अपने कर्मों से बँधा होता है।

18 ज्ञान, ज्ञेय तथा ज्ञाता—ये तीनों कर्म को प्रेरणा देने वाले कारण हैं। इन्द्रियाँ (करण), कर्म तथा कर्ता—ये तीन कर्म के संघटक हैं।

19 प्रकृति के तीन गुणों के अनुसार ही ज्ञान, कर्म तथा कर्ता के तीन-तीन भेद हैं। अब तुम मुझसे इन्हें सुनो।

20 जिस ज्ञान से अनन्त रूपों में विभक्त सारे जीवों में एक ही अविभक्त आध्यात्मिक प्रकृति देखी जाती है, उसे ही तुम सात्विक जानो।

21 जिस ज्ञान से कोई मनुष्य विभिन्न शरीरों में भिन्न-भिन्न प्रकार का जीव देखता है, उसे तुम राजसी जानो।

22 और वह ज्ञान, जिससे मनुष्य किसी एक प्रकार के कार्य को, जो अति तुच्छ है, सब कुछ मानकर, सत्य को जाने बिना उसमें लिप्त रहता है, वह तामसी कहा जाता है।

23 जो कर्म नियमित है और जो आसक्ति, राग या द्वेष से रहित कर्मफल की चाह के बिना किया जाता है, वह सात्विक कहलाता है।

24 लेकिन जो कार्य अपनी इच्छापूर्ति के निमित्त प्रयासपूर्वक एवं मिथ्या अहंकार के भाव से किया जाता है, वह रजोगुणी कहा जाता है।

25 जो कर्म मोहवश शास्त्रीय आदेशों की अवहेलना करके तथा भावी बन्धन की परवाह किये बिना या हिंसा अथवा अन्यों को दुख पहुँचाने के लिए किया जाता है, वह तामसी कहलाता है।

26 जो व्यक्ति भौतिक गुणों के संसर्ग के बिना अहंकाररहित, संकल्प तथा उत्साहपूर्वक अपना कर्म करता है और सफलता अथवा असफलता में अविचलित रहता है, वह सात्विक कर्ता कहलाता है।

27 जो कर्ता कर्म तथा कर्मफल के प्रति आसक्त होकर फलों का भोग करना चाहता है तथा जो लोभी, सदैव ईर्ष्यालु, अपवित्र और सुख-दुख से विचलित होने वाला है, वह राजसी कहा जाता है।

28 जो कर्ता सदा शास्त्रों के आदेशों के विरुद्ध कार्य करता रहता है, जो भौतिकवादी, हठी, कपटी तथा अन्यों का अपमान करने में पटु है तथा जो आलसी, सदैव खिन्न तथा काम करने में दीर्घसूत्री है, वह तमोगुणी कहलाता है।

29 हे धनञ्जय! अब मैं प्रकृति के तीनों गुणों के अनुसार तुम्हें विभिन्न प्रकार की बुद्धि तथा धृति के विषय में विस्तार से बताऊँगा । तुम इसे सुनो।

30 हे पृथापुत्र! वह बुद्धि सतोगुणी है, जिसके द्वारा मनुष्य यह जानता है कि क्या करणीय है और क्या नहीं है, किससे डरना चाहिए और किससे नहीं, क्या बाँधने वाला है और क्या मुक्ति देने वाला है।

31 हे पृथापुत्र! जो बुद्धि धर्म तथा अधर्म, करणीय तथा अकरणीय कर्म में भेद नहीं कर पाती, वह राजसी है।

32 जो बुद्धि मोह तथा अंधकार के वशीभूत होकर अधर्म को धर्म और धर्म को अधर्म मानती है और सदैव विपरीत दिशा में प्रयत्न करती है, हे पार्थ! वह तामसी है।

33 हे पृथापुत्र! जो अटूट है, जिसे योगाभ्यास द्वारा अचल रहकर धारण किया जाता है और जो इस प्रकार मन, प्राण तथा इन्द्रियों के कार्यकलापों को वश में रखती है, वह धृति सात्विक है।

34 लेकिन हे अर्जुन! जिस धृति से मनुष्य धर्म, अर्थ तथा काम के फलों में लिप्त बना रहता है, वह राजसी है।

35 हे पार्थ! जो धृति स्वप्न, भय, शोक, विषाद तथा मोह के परे नहीं जाती, ऐसी दुर्बुद्धिपूर्ण धृति तामसी है।

36 हे भरतश्रेष्ठ! अब मुझसे तीन प्रकार के सुखों के विषय में सुनो, जिनके द्वारा बद्धजीव भोग करता है और जिसके द्वारा कभी-कभी दुखों का अन्त हो जाता है।

37 जो प्रारम्भ में विष जैसा लगता है, लेकिन अन्त में अमृत के समान है और जो मनुष्य में आत्म-साक्षात्कार जगाता है, वह सात्विक सुख कहलाता है।

38 जो सुख इन्द्रियों द्वारा उनके विषयों के संसर्ग से प्राप्त होता है और जो प्रारम्भ में अमृततुल्य तथा अन्त में विषतुल्य लगता है, वह रजोगुणी कहलाता है।

39 तथा जो सुख आत्म-साक्षात्कार के प्रति अन्धा है, जो प्रारम्भ से लेकर अन्त तक मोहकारक है और जो निद्रा, आलस्य तथा मोह से उत्पन्न होता है, वह तामसी कहलाता है।

40 इस लोक में, स्वर्ग लोकों में या देवताओं के मध्य में कोई भी ऐसा व्यक्ति विद्यमान नहीं है, जो प्रकृति के तीन गुणों से मुक्त हो।

41 हे परन्तप! ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों तथा शूद्रों में प्रकृति के गुणों के अनुसार उनके स्वभाव द्वारा उत्पन्न गुणों के द्वारा भेद किया जाता है।

42 शान्तिप्रियता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहिष्णुता, सत्यनिष्ठा, ज्ञान, विज्ञान तथा धार्मिकता—ये सारे स्वाभाविक गुण हैं, जिनके द्वारा ब्राह्मण कर्म करते हैं।

43 वीरता, शक्ति, संकल्प, दक्षता, युद्ध में धैर्य, उदारता तथा नेतृत्व—ये क्षत्रियों के स्वाभाविक गुण हैं।

44 कृषि करना, गो-रक्षा तथा व्यापार वैश्यों के स्वाभाविक कर्म हैं और शूद्रों का कर्म श्रम तथा अन्यों की सेवा करना है।

45 अपने-अपने कर्म के गुणों का पालन करते हुए प्रत्येक व्यक्ति सिद्ध हो सकता है। अब तुम मुझसे सुनो कि यह किस प्रकार किया जा सकता है।

46 जो सभी प्राणियों का उद्गम है और सर्वव्यापी है, उस भगवान की उपासना करके मनुष्य अपना कर्म करते हुए पूर्णता प्राप्त कर सकता है।

47 अपने वृत्तिपरक कार्य को करना, चाहे वह कितना ही त्रुटिपूर्ण ढंग से क्यों न किया जाय, अन्य किसी के कार्य को स्वीकार करने और अच्छी प्रकार करने की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है। अपने स्वभाव के अनुसार निर्दिष्ट कर्म कभी भी पाप से प्रभावित नहीं होते।

48 प्रत्येक उद्योग (प्रयास) किसी न किसी दोष से आवृत होता है, जिस प्रकार अग्नि धुएँ से आवृत रहती है। अतएव हे कुन्तीपुत्र! मनुष्य को चाहिए कि स्वभाव से उत्पन्न कर्म को, भले ही वह दोषपूर्ण क्यों न हो, कभी त्यागे नहीं।

49 जो आत्मसंयमी तथा अनासक्त है एवं जो समस्त भौतिक भोगों की परवाह नहीं करता, वह संन्यास के अभ्यास द्वारा कर्मफल से मुक्ति की सर्वोच्च सिद्ध-अवस्था प्राप्त कर सकता है।

50 हे कुन्तीपुत्र! जिस तरह इस सिद्धि को प्राप्त हुआ व्यक्ति परम सिद्धावस्था अर्थात ब्रह्म को, जो सर्वोच्च ज्ञान की अवस्था है, प्राप्त करता है, उसका मैं संक्षेप में तुमसे वर्णन करूँगा, उसे तुम जानो।

51-53 अपनी बुद्धि से शुद्ध होकर तथा धैर्यपूर्वक मन को वश में करते हुए, इन्द्रियतृप्ति के विषयों का त्याग कर, राग तथा द्वेष से मुक्त होकर जो व्यक्ति एकान्त स्थान में वास करता है, जो थोड़ा खाता है, जो अपने शरीर, मन तथा वाणी को वश में रखता है, जो सदैव समाधि में रहता है तथा पूर्णतया विरक्त, मिथ्या अहंकार, मिथ्या शक्ति, मिथ्या गर्व, काम, क्रोध तथा भौतिक वस्तुओं के संग्रह से मुक्त है, जो मिथ्या स्वामित्व की भावना से रहित तथा शान्त है वह निश्चय ही आत्म-साक्षात्कार के पद को प्राप्त होता है।

54 इस प्रकार जो दिव्य पद पर स्थित है, वह तुरन्त परब्रह्म का अनुभव करता है और पूर्णतया प्रसन्न हो जाता है। वह न तो कभी शोक करता है, न किसी वस्तु की कामना करता है। वह प्रत्येक जीव पर समभाव रखता है। उस अवस्था में वह मेरी शुद्ध भक्ति को प्राप्त करता है।

55 केवल भक्ति से मुझ भगवान को यथारूप में जाना जा सकता है। जब मनुष्य ऐसी भक्ति से मेरे पूर्ण भावनामृत में होता है, तो वह वैकुण्ठ जगत में प्रवेश कर सकता है।

56 मेरा शुद्ध भक्त मेरे संरक्षण में, समस्त प्रकार के कार्यों में संलग्न रह कर भी मेरी कृपा से नित्य तथा अविनाशी धाम को प्राप्त होता है।

57 सारे कार्यों के लिए मुझ पर निर्भर रहो और मेरे संरक्षण में सदा कर्म करो। ऐसी भक्ति में मेरे प्रति पूर्णतया सचेत रहो।

58 यदि तुम मुझसे भावनाभावित होगे, तो मेरी कृपा से तुम बद्ध जीवन के सारे अवरोधों को लाँघ जाओगे। लेकिन यदि तुम मिथ्या अहंकारवश ऐसी चेतना में कर्म नहीं करोगे और मेरी बात नहीं सुनोगे, तो तुम विनष्ट हो जाओगे।

59 यदि तुम मेरे निर्देशानुसार कर्म नहीं करते और युद्ध में प्रवृत्त नहीं होते हो, तो तुम कुमार्ग पर जाओगे। तुम्हें अपने स्वभाववश युद्ध में लगना होगा।

60 इस समय तुम मोहवश मेरे निर्देशानुसार कर्म करने से मना कर रहे हो। लेकिन हे कुन्तीपुत्र! तुम अपने ही स्वभाव से उत्पन्न कर्म द्वारा बाध्य होकर वही सब करोगे।

61 हे अर्जुन! परमेश्वर प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित हैं और भौतिक शक्ति से निर्मित यंत्र में सवार की भाँति बैठे समस्त जीवों को अपनी माया से घुमा (भरमा) रहे हैं।

62 हे भारत! सब प्रकार से उसी की शरण में जाओ। उसकी कृपा से तुम परम शान्ति को तथा परम नित्यधाम को प्राप्त करोगे।

63 इस प्रकार मैंने तुम्हें गुह्यतर ज्ञान बतला दिया। इस पर पूरी तरह से मनन करो और तब जो चाहो सो करो।

64 चूँकि तुम मेरे अत्यन्त प्रिय मित्र हो, अतएव मैं तुम्हें अपना परम आदेश, जो सर्वाधिक गुह्यज्ञान है, बता रहा हूँ। इसे अपने हित के लिए सुनो।

65 सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो। इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे। मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रिय मित्र हो।

66 समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ। मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा। डरो मत ।

67 यह गुह्यज्ञान उनको कभी भी न बताया जाय जो न तो संयमी हैं, न एकनिष्ठ, न भक्ति में रत हैं, न ही उसे जो मुझसे द्वेष करता हो।

68 जो व्यक्ति भक्तों को यह परम रहस्य बताता है, वह शुद्धभक्ति को प्राप्त करेगा और अन्त में वह मेरे पास आएगा।

69 इस संसार में उसकी अपेक्षा कोई अन्य सेवक न तो मुझे अधिक प्रिय है और न कभी होगा।

70 और मैं घोषित करता हूँ कि जो हमारे इस पवित्र संवाद का अध्ययन करता है, वह अपनी बुद्धि से मेरी पूजा करता है।

71 और जो श्रद्धा समेत तथा द्वेषरहित होकर इसे सुनता है, वह सारे पापों से मुक्त हो जाता है और उन शुभ लोकों को प्राप्त होता है, जहाँ पुण्यात्माएँ निवास करती हैं।

72 हे पृथापुत्र! हे धनञ्जय! क्या तुमने इसे (इस शास्त्र को) एकाग्र चित्त होकर सुना? और क्या अब तुम्हारा अज्ञान तथा मोह दूर हो गया है?

73 अर्जुन ने कहा— हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया। आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई। अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ।

74 संजय ने कहा— इस प्रकार मैंने कृष्ण तथा अर्जुन इन दोनों महापुरुषों की वार्ता सुनी। और यह सन्देश इतना अद्भुत है कि मेरे शरीर में रोमाञ्च हो रहा है।

75 व्यास की कृपा से मैंने ये परम गुह्य बातें साक्षात योगेश्वर कृष्ण के मुख से अर्जुन के प्रति कही जाती हुई सुनीं।

76 हे राजन! जब मैं कृष्ण तथा अर्जुन के मध्य हुई इस आश्चर्यजनक तथा पवित्र वार्ता का बारम्बार स्मरण करता हूँ, तो प्रति क्षण आह्लाद से गदगद हो उठता हूँ।

77 हे राजन! भगवान कृष्ण के अद्भुत रूप का स्मरण करते ही मैं अधिकाधिक आश्चर्यचकित होता हूँ और पुनःपुनः हर्षित होता हूँ।

78 जहाँ योगेश्वर कृष्ण हैं और जहाँ परम धनुर्धर अर्जुन है, वहीं ऐश्वर्य, विजय, अलौकिक शक्ति तथा नीति भी निश्चित रूप से रहती है। ऐसा मेरा मत है।

इस प्रकार श्रीमद भगवद्गीता यथारूप के समस्त अध्यायों के भक्ति वेदान्त श्लोकार्थ पूर्ण हुए। 

:: हरि ॐ तत सत::

समर्पित एवं सेवारत-जगदीश चन्द्र माँगीलाल चौहान

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ॐ श्री गुरु गौरांग जयतः

श्रीमद भगवद्गीता यथारूप 

अध्याय सत्रह - श्रद्धा के विभाग

https://www.youtube.com/watch?v=JgcaQbH-afM

1 अर्जुन ने कहा— हे कृष्ण! जो लोग शास्त्र के नियमों का पालन न करके अपनी कल्पना के अनुसार पूजा करते हैं, उनकी स्थिति कौनसी है? वे सतोगुणी हैं, रजोगुणी हैं या तमोगुणी?

2 श्रीभगवान ने कहा— देहधारी जीव द्वारा अर्जित गुणों के अनुसार उसकी श्रद्धा तीन प्रकार की हो सकती है — सतोगुणी, रजोगुणी अथवा तमोगुणी। अब इसके विषय में मुझसे सुनो।

3 हे भरतपुत्र! विभिन्न गुणों के अन्तर्गत अपने अपने अस्तित्व के अनुसार मनुष्य एक विशेष प्रकार की श्रद्धा विकसित करता है। अपने द्वारा अर्जित गुणों के अनुसार ही जीव को विशेष श्रद्धा से युक्त कहा जाता है।

4 सतोगुणी व्यक्ति देवताओं को पूजते हैं, रजोगुणी यक्षों व राक्षसों की पूजा करते हैं और तमोगुणी व्यक्ति भूत-प्रेतों को पूजते हैं।

5-6 जो लोग दम्भ तथा अहंकार से अभिभूत होकर शास्त्र विरुद्ध कठोर तपस्या और व्रत करते हैं, जो काम तथा आसक्ति द्वारा प्रेरित होते हैं जो मूर्ख हैं तथा जो शरीर के भौतिक तत्वों को तथा शरीर के भीतर स्थित परमात्मा को कष्ट पहुँचाते हैं, वे असुर कहे जाते हैं।

7 यहाँ तक कि प्रत्येक व्यक्ति जो भोजन पसन्द करता है, वह भी प्रकृति के गुणों के अनुसार तीन प्रकार का होता है। यही बात यज्ञ, तपस्या तथा दान के लिए भी सत्य है। अब उनके भेदों के विषय में सुनो।

8 जो भोजन सात्विक व्यक्तियों को प्रिय होता है, वह आयु बढ़ाने वाला, जीवन को शुद्ध करने वाला तथा बल, स्वास्थ्य, सुख तथा तृप्ति प्रदान करने वाला होता है। ऐसा भोजन रसमय, स्निग्ध, स्वास्थ्यप्रद तथा हृदय को भाने वाला होता है।

9 अत्यधिक तिक्त, खट्टे, नमकीन, गरम, चटपटे, शुष्क तथा जलन उत्पन्न करने वाले भोजन रजोगुणी व्यक्तियों को प्रिय होते हैं। ऐसे भोजन दुख, शोक तथा रोग उत्पन्न करने वाले हैं।

10 खाने से तीन घण्टे पूर्व पकाया गया, स्वादहीन, वियोजित एवं सड़ा, जूठा तथा अस्पृश्य वस्तुओं से युक्त भोजन उन लोगों को प्रिय होता है, जो तामसी होते हैं।

11 यज्ञों में वही यज्ञ सात्विक होता है, जो शास्त्र के निर्देशानुसार कर्तव्य समझ कर उन लोगों के द्वारा किया जाता है, जो फल की इच्छा नहीं करते।

12 लेकिन हे भरतश्रेष्ठ! जो यज्ञ किसी भौतिक लाभ के लिए या गर्ववश किया जाता है, उसे तुम राजसी जानो।

13 जो यज्ञ शास्त्र के निर्देशों की अवहेलना करके, प्रसाद वितरण किए बिना, वैदिक मंत्रों का उच्चारण किये बिना, पुरोहितों को दक्षिणा दिये बिना तथा श्रद्धा के बिना सम्पन्न किया जाता है, वह तामसी माना जाता है।

14 परमेश्वर, ब्राह्मणों, गुरु, माता-पिता जैसे गुरुजनों की पूजा करना तथा पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा ही शारीरिक तपस्या है।

15 सच्चे, भाने वाले, हितकर तथा अन्यों को क्षुब्ध न करने वाले वाक्य बोलना और वैदिक साहित्य का नियमित पारायण करना—यही वाणी की तपस्या है।

16 तथा सन्तोष, सरलता, गम्भीरता, आत्म-संयम एवं जीवन की शुद्धि—ये मन की तपस्याएँ हैं।

17 भौतिक लाभ की इच्छा न करने वाले तथा केवल परमेश्वर में प्रवृत्त मनुष्यों द्वारा दिव्य श्रद्धा से सम्पन्न यह तीन प्रकार की तपस्या सात्विक कहलाती है।

18 जो तपस्या दम्भपूर्वक तथा सम्मान, सत्कार एवं पूजा करने के लिए सम्पन्न की जाती है, वह राजसी (रजोगुणी) कहलाती है। यह न तो स्थायी होती है न शाश्वत।

19 मूर्खतावश आत्म-उत्पीड़न के लिए या अन्यों को विनष्ट करने या हानि पहुँचाने के लिए जो तपस्या की जाती है, वह तामसी कहलाती है।

20 जो दान कर्तव्य समझकर, किसी प्रत्युपकार की आशा के बिना, समुचित काल तथा स्थान में और योग्य व्यक्ति को दिया जाता है, वह सात्विक माना जाता है।

21 किन्तु जो दान प्रत्युपकार की भावना से या कर्म फल की इच्छा से या अनिच्छापूर्वक किया जाता है, वह रजोगुणी (राजस) कहलाता है।

22 तथा जो दान किसी अपवित्र स्थान में, अनुचित समय में, किसी अयोग्य व्यक्ति को या बिना समुचित ध्यान तथा आदर से दिया जाता है, वह तामसी कहलाता है।

23 सृष्टि के आदिकाल से, ॐ तत सत ये तीन शब्द परब्रह्म को सूचित करने के लिए प्रयुक्त किये जाते रहे हैं। ये तीनों सांकेतिक अभिव्यक्तियाँ ब्राह्मणों द्वारा वैदिक मंत्रों का उच्चारण करते समय तथा ब्रह्म को संतुष्ट करने के लिए यज्ञों के समय प्रयुक्त होती थीं।

24 अतएव योगीजन ब्रह्म की प्राप्ति के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार यज्ञ, दान तथा तप की समस्त क्रियाओं का शुभारम्भ सदैव ओम से करते हैं।

25 मनुष्य को चाहिए कि कर्मफल की इच्छा किये बिना विविध प्रकार के यज्ञ, तप तथा दान को ‘तत’ शब्द कह कर सम्पन्न करे। ऐसी दैवी क्रियाओं का उद्देश्य भव-बन्धन से मुक्त होना है।

26-27 परमसत्य भक्तिमय यज्ञ का लक्ष्य है और उसे सत शब्द से अभिहित किया जाता है। हे पृथापुत्र! ऐसे यज्ञ का सम्पन्नकर्ता भी ‘सत’ कहलाता है जिस प्रकार यज्ञ, तप तथा दान के सारे कर्म भी जो परमपुरुष को प्रसन्न करने के लिए सम्पन्न किये जाते हैं, ‘सत’ हैं।

28 हे पार्थ! श्रद्धा के बिना यज्ञ, दान या तप के रूप में जो भी किया जाता है, वह नश्वर है। वह ‘असत’ कहलाता है और इस जन्म तथा अगले जन्म—दोनों में ही व्यर्थ जाता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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ॐ श्री गुरु गौरांग जयतः

श्रीमद भगवद्गीता यथारूप 

अध्याय सोलह - दैवी तथा आसुरी स्वभाव

https://www.youtube.com/watch?v=rRbu5iyv2dc

1-3 श्रीभगवान ने कहा— हे भरतपुत्र! निर्भयता, आत्मशुद्धि, आध्यात्मिक ज्ञान का अनुशीलन, दान, आत्म-संयम, यज्ञपरायणता, वेदाध्ययन, तपस्या, सरलता, अहिंसा, सत्यता, क्रोधविहीनता, त्याग, शान्ति, छिद्रान्वेषण में अरुचि, समस्त जीवों पर करुणा, लोभविहीनता, भद्रता, लज्जा, संकल्प, तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, ईर्ष्या तथा सम्मान की अभिलाषा से मुक्ति—ये सारे दिव्य गुण हैं, जो दैवी प्रकृति से सम्पन्न देवतुल्य पुरुषों में पाये जाते हैं।

4 हे पृथापुत्र! दम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोध, कठोरता तथा अज्ञान—ये आसुरी स्वभाव वालों के गुण हैं।

5 दिव्य गुण मोक्ष के लिए अनुकूल हैं और आसुरी गुण बन्धन दिलाने के लिए हैं। हे पाण्डुपुत्र! तुम चिन्ता मत करो, क्योंकि तुम दैवी गुणों से युक्त होकर जन्मे हो।

6 हे पृथापुत्र! इस संसार में सृजित प्राणी दो प्रकार के हैं—दैवी तथा आसुरी। मैं पहले ही विस्तार से तुम्हें दैवी गुण बतला चुका हूँ। अब मुझसे आसुरी गुणों के विषय में सुनो।

7 जो आसुरी हैं, वे यह नहीं जानते कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। उनमें न तो पवित्रता, न उचित आचरण और न ही सत्य पाया जाता है।

8 वे कहते हैं कि यह जगत मिथ्या है, इसका कोई आधार नहीं है और इसका नियमन किसी ईश्वर द्वारा नहीं होता। उनका कहना है कि यह कामेच्छा से उत्पन्न होता है और काम के अतिरिक्त कोई अन्य कारण नहीं है।

9 ऐसे निष्कर्षों का अनुगमन करते हुए आसुरी लोग, जिन्होंने आत्म-ज्ञान खो दिया है और जो बुद्धिहीन हैं, ऐसे अनुपयोगी एवं भयावह कार्यों में प्रवृत्त होते हैं जो संसार का विनाश करने के लिए होता है।

10 कभी न संतुष्ट होने वाले काम का आश्रय लेकर तथा गर्व के मद एवं मिथ्या प्रतिष्ठा में डूबे हुए आसुरी लोग इस तरह मोहग्रस्त होकर सदैव क्षणभंगुर वस्तुओं के द्वारा अपवित्र कर्म का व्रत लिए रहते हैं।

11-12 उनका विश्वास है कि इन्द्रियों की तुष्टि ही मानव सभ्यता की मूल आवश्यकता है। इस प्रकार मरणकाल तक उनको अपार चिन्ता होती रहती है। वे लाखों इच्छाओं के जाल में बँधकर तथा काम और क्रोध में लीन होकर इन्द्रियतृप्ति के लिए अवैध ढंग से धनसंग्रह करते हैं।

13-15 आसुरी व्यक्ति सोचता है, आज मेरे पास इतना धन है और अपनी योजनाओं से मैं और अधिक धन कमाऊँगा। इस समय मेरे पास इतना है किन्तु भविष्य में यह बढ़कर और अधिक हो जायेगा। वह मेरा शत्रु है और मैंने उसे मार दिया है और मेरे अन्य शत्रु भी मार दिए जाएँगे। मैं सभी वस्तुओं का स्वामी हूँ। मैं भोक्ता हूँ। मैं सिद्ध, शक्तिमान तथा सुखी हूँ। मैं सबसे धनी व्यक्ति हूँ और मेरे आसपास मेरे कुलीन सम्बन्धी हैं। कोई अन्य मेरे समान शक्तिमान तथा सुखी नहीं है। मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और इस तरह आनन्द मनाऊँगा। इस प्रकार ऐसे व्यक्ति अज्ञानवश मोहग्रस्त होते रहते हैं।

16 इस प्रकार अनेक चिन्ताओं से उद्विग्न होकर तथा मोहजाल में बँधकर वे इन्द्रियभोग में अत्यधिक आसक्त हो जाते हैं और नरक में गिरते हैं।

17 अपने को श्रेष्ठ मानने वाले तथा सदैव घमण्ड करने वाले, सम्पत्ति तथा मिथ्या प्रतिष्ठा से मोहग्रस्त लोग किसी विधि-विधान का पालन न करते हुए कभी-कभी नाममात्र के लिए बड़े ही गर्व के साथ यज्ञ करते हैं।

18 मिथ्या अहंकार, बल, दर्प, काम तथा क्रोध से मोहित होकर आसुरी व्यक्ति अपने शरीर में तथा अन्यों के शरीर में स्थित भगवान से ईर्ष्या और वास्तविक धर्म की निन्दा करने लगते हैं।

19 जो लोग ईर्ष्यालु तथा क्रूर हैं और नराधम हैं, उन्हें मैं निरन्तर विभिन्न आसुरी योनियों में, भवसागर में डालता रहता हूँ।

20 हे कुन्तीपुत्र! ऐसे व्यक्ति आसुरी योनि में बारम्बार जन्म ग्रहण करते हुए कभी भी मुझ तक पहुँच नहीं पाते। वे धीरे-धीरे अत्यन्त अधम गति को प्राप्त होते हैं।

21 इस नरक के तीन द्वार हैं—काम, क्रोध तथा लोभ । प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि इन्हें त्याग दे, क्योंकि इनसे आत्मा का पतन होता है।

22 हे कुन्तीपुत्र! जो व्यक्ति इन तीनों नरक-द्वारों से बच पाता है, वह आत्म-साक्षात्कार के लिए कल्याणकारी कार्य करता है और इस प्रकार क्रमशः परम गति को प्राप्त होता है।

23 जो शास्त्रों के आदेशों की अवहेलना करता है और मनमाने ढंग से कार्य करता है, उसे न तो सिद्धि, न सुख, न ही परमगति की प्राप्ति हो पाती है।

24 अतएव मनुष्य को यह जानना चाहिए कि शास्त्रों के विधान के अनुसार क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है। उसे ऐसे विधि – विधानों को जानकर कर्म करना चाहिए जिससे वह क्रमशः ऊपर उठ सके।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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  श्री गुरु गौरांग जयतः

श्रीमद भगवद्गीता यथारूप 

अध्याय पन्द्रह पुरुषोत्तम योग

https://www.youtube.com/watch?v=e33nvksOLbo&t=34s

1 श्रीभगवान ने कहा— कहा जाता है कि एक शाश्वत अश्वत्थ वृक्ष है, जिसकी जड़ें तो ऊपर की ओर हैं और शाखाएँ नीचे की ओर तथा पत्तियाँ वैदिक स्रोत हैं। जो इस वृक्ष को जानता है, वह वेदों का ज्ञाता है।

2 इस वृक्ष की शाखाएँ ऊपर तथा नीचे फैली हुई हैं और प्रकृति के तीन गुणों द्वारा पोषित हैं। इसकी टहनियाँ इन्द्रियविषय हैं। इस वृक्ष की जड़ें नीचे की ओर भी जाती है, जो मानवसमाज के सकाम कर्मों से बँधी हुई हैं।

3-4 इस वृक्ष के वास्तविक स्वरूप का अनुभव इस जगत में नहीं किया जा सकता। कोई भी नहीं समझ सकता कि इसका आदि कहाँ है, अन्त कहाँ है या इसका आधार कहाँ है? लेकिन मनुष्य को चाहिए कि इस दृढ़ मूल वाले वृक्ष को विरक्ति के शस्त्र से काट गिराए। तत्पश्चात उसे ऐसे स्थान की खोज करनी चाहिए जहाँ जाकर लौटना न पड़े और जहाँ उस भगवान की शरण ग्रहण कर ली जाये, जिससे अनादि काल से प्रत्येक वस्तु का सूत्रपात तथा विस्तार होता आया है।

5 जो झूठी प्रतिष्ठा, मोह तथा कुसंगति से मुक्त हैं, जो शाश्वत तत्व को समझते हैं, जिन्होंने भौतिक काम को नष्ट कर दिया है, जो सुख तथा दुख के द्वन्द्व से मुक्त हैं और जो मोहरहित होकर परम पुरुष के शरणागत होना जानते हैं, वे उस शाश्वत राज्य को प्राप्त होते हैं।

6 वह मेरा परमधाम न तो सूर्य या चन्द्रमा के द्वारा प्रकाशित होता है और न अग्नि या बिजली से। जो लोग वहाँ पहुँच जाते हैं, वे इस भौतिक जगत में फिर से लौट कर नहीं आते।

7 इस बद्ध जगत में सारे जीव मेरे शाश्वत अंश हैं। बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों से घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिनमें मन भी सम्मिलित है।

8 इस संसार में जीव अपनी देहात्म बुद्धि को एक शरीर से दूसरे शरीर में उसी तरह ले जाता है, जिस तरह वायु सुगन्धि को ले जाता है। इस प्रकार वह एक शरीर धारण करता है और फिर इसे त्याग कर दूसरा शरीर धारण करता है।

9 इस प्रकार दूसरा स्थूल शरीर धारण करके जीव विशेष प्रकार का कान, आँख, जीभ, नाक तथा स्पर्श इन्द्रिय (त्वचा) प्राप्त करता है, जो मन के चारों ओर सम्पुञ्जित (स्थित) हैं। इस प्रकार वह इन्द्रियविषयों के एक विशिष्ट समुच्चय का भोग करता है।

10 मूर्ख न तो समझ पाते हैं कि जीव किस प्रकार अपना शरीर त्याग सकता है, न ही वे यह समझ पाते हैं कि प्रकृति के गुणों के अधीन वह किस तरह के शरीर का भोग करता है। लेकिन जिसकी आँखें ज्ञान में प्रशिक्षित होती हैं, वह यह सब देख सकता है।

11 आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त प्रयत्नशील योगीजन यह सब स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। लेकिन जिनके मन विकसित नहीं हैं और जो आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त नहीं हैं, वे प्रयत्न करके भी यह नहीं देख पाते कि क्या हो रहा है?

12 सूर्य का तेज जो सारे विश्व के अंधकार को दूर करता है, मुझसे ही निकलता है। चन्द्रमा तथा अग्नि के तेज भी मुझसे उत्पन्न हैं।

13 मैं प्रत्येक लोक में प्रवेश करता हूँ और मेरी शक्ति से सारे लोक अपनी कक्षा में स्थित रहते हैं। मैं चन्द्रमा बनकर समस्त वनस्पतियों को जीवन-रस प्रदान करता हूँ।

14 मैं समस्त जीवों के शरीरों में पाचन-अग्नि (वैश्वानर) हूँ और मैं श्वास-प्रश्वास (प्राण-वायु) में रहकर चार प्रकार के अन्नों को पचाता हूँ।

15 मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझसे ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होते है। मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ। निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ।

16 जीव दो प्रकार के हैं—च्युत तथा अच्युत। भौतिक जगत में प्रत्येक जीव च्युत (क्षर) होता है और आध्यात्मिक जगत में प्रत्येक जीव अच्युत (अक्षर) कहलाता है।

17 इन दोनों के अतिरिक्त, एक परम पुरुष परमात्मा है, जो साक्षात अविनाशी भगवान है और जो तीनों लोकों में प्रवेश करके उनका पालन कर रहा है।

18 चूँकि मैं क्षर तथा अक्षर दोनों के परे हूँ और चूँकि मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ, अतएव मैं इस जगत में तथा वेदों में परम पुरुष के रूप में विख्यात हूँ।

19 जो कोई भी मुझे संशयरहित होकर पुरषोत्तम भगवान के रूप में जानता है, वह सब कुछ जानने वाला है। अतएव हे भरतपुत्र! वह व्यक्ति मेरी पूर्ण भक्ति में रत होता है।

20 हे अनघ! यह वैदिक शास्त्रों का सर्वाधिक गुप्त अंश है, जिसे मैंने अब प्रकट किया है। जो कोई इसे समझता है, वह बुद्धिमान हो जाएगा और उसके प्रयास पूर्ण होंगे।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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