Glorification of Lord Krishna by Satyavrat

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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

सत्यव्रत द्वारा स्तुति

श्रीमद भागवतम अष्टम स्कन्ध (अध्याय चौबीस)

25 मत्स्यरूप भगवान से इन मधुर वचनों को सुनकर मोहित हुए राजा ने पूछा: आप कौन हैं? आप तो हम सबको मोहित कर रहे हैं।

26 हे प्रभु! एक ही दिन में आपने अपना विस्तार सैकड़ों मील तक करके नदी तथा समुद्र के जल को आच्छादित कर लिया है। इससे पहले मैंने न तो ऐसा जलचर पशु देखा था और न ही सुना था।

27 हे प्रभु! आप निश्र्चय ही अव्यय भगवान नारायण अर्थात श्री हरि हैं। आपने जीवों पर अपनी कृपा प्रदर्शित करने के लिए ही अब जलचर का स्वरूप धारण किया है।

28 हे प्रभु! हे सृष्टि, पालन तथा संहार के स्वामी! हे भोक्ताओं में श्रेष्ठ भगवान विष्णु! आप हम जैसे शरणागत भक्तों के पथप्रदर्शक तथा गंतव्य हैं। अतएव मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ।

29 आपकी सारी लीलाएँ तथा अवतार निश्र्चय ही समस्त जीवों के कल्याण के लिए होते हैं। अतएव हे प्रभु! मैं वह प्रयोजन जानना चाहता हूँ जिसके लिए आपने यह मत्स्य रूप धारण किया है।

30 हे कमल की पंखुड़ियों के समान नेत्र वाले प्रभु! देहात्मबुद्धि वाले देवताओं की पूजा सभी तरह से व्यर्थ है। चूँकि आप हरेक के परम मित्र तथा प्रियतम परमात्मा हैं अतएव आपके चरणकमलों की पूजा कभी व्यर्थ नहीं जाती। इसलिए आपने मछली का रूप दिखलाया है।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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