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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

ब्रह्मा द्वारा स्तुति

श्रीमद भागवतम अष्टम स्कन्ध

अध्याय पाँच एवं छह

24 श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे समस्त शत्रुओं का दमन करने वाले महाराज परीक्षित ! देवताओं से बातें करने के बाद ब्रह्माजी उन्हें भगवान के धाम ले गये जो इस भौतिक जगत से परे है। भगवान का धाम श्र्वेतद्वीप नामक टापू में है, जो क्षीरसागर में स्थित है।

25 वहाँ (श्र्वेतद्वीप में) ब्रह्माजी ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की स्तुति की, यद्यपि उन्होंने परमेश्वर को इसके पूर्व कभी नहीं देखा था चूँकि उन्होंने वैदिक वाड्मय से भगवान के विषय में सुना हुआ था अतएव उन्होंने स्थिरचित्त होकर भगवान की उसी तरह स्तुति की जिस प्रकार वैदिक साहित्य में लिखी हुई या मान्य है।

26 ब्रह्माजी ने कहा : हे परमेश्र्वर, हे अविकारी, असीम परम सत्य ! आप हर वस्तु के उद्गम हैं। सर्वव्यापी होने के कारण आप प्रत्येक के हृदय में और परमाणु में भी रहते हैं। आपमें कोई भौतिक गुण नहीं पाये जाते। निस्संदेह, आप अचिंत्य हैं। मन आपको कल्पना से नहीं ग्रहण कर सकता और शब्द आपका वर्णन करने में असमर्थ हैं। आप सबके परम स्वामी हैं, अतएव आप हर एक के आराध्य हैं। हम आपको नमस्कार करते हैं।

27 भगवान प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से जानते रहते हैं कि किस प्रकार प्राण, मन तथा बुद्धि समेत प्रत्येक वस्तु उनके नियंत्रण में कार्य करती है। वे हर वस्तु के प्रकाशक हैं और अज्ञान उन्हें छु तक नहीं गया है। उनका भौतिक शरीर नहीं होता जो पूर्वकर्मों के फलों से प्रभावित हो। वे पक्षपात तथा भौतिकतावादी विद्या के अज्ञान से मुक्त हैं। अतएव मैं उन भगवान के चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ जो नित्य, सर्वव्यापक तथा आकाश के समान विशाल हैं और तीनों युगों (सत्य, त्रेता तथा द्वापर) में अपने षडऐश्वर्यों समेत प्रकट होते हैं।

28 भौतिक कार्यों के चक्र में, भौतिक शरीर मानसिक रथ के पहिये जैसा होता है। दस इंद्रियाँ (पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा पाँच ज्ञानेंद्रियाँ) तथा शरीर के भीतर के पाँच प्राण मिलकर रथ के पहिये पंद्रह अरे (तीलियाँ) बनाते हैं। प्रकृति के तीन गुण (सत्त्व, रजस तथा तमस) कार्यकलापों के केंद्र बिन्दु हैं और प्रकृति के आठ अवयव (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा मिथ्या अहंकार) इस पहिये की बाहरी परिधि बनाते हैं। बहिरंगा भौतिक शक्ति इस पहिये को विद्युत शक्ति की भाँति घुमाती है। इस प्रकार यह पहिया बड़ी तेजी से अपनी धुरी पर या केंद्रीय आधार अर्थात भगवान के चारों ओर घूमता है, जो परमात्मा तथा चरम सत्य हैं। हम उन्हें सादर नमस्कार करते हैं।

29 भगवान शुद्ध सत्त्व में स्थित हैं, अतएव वे एकवर्ण---ॐकार (प्रणव) हैं। चूँकि भगवान अंधकार माने जाने वाले दृश्य जगत से परे हैं, अतएव वे भौतिक नेत्रों से नहीं दिखते। फिर भी वे दिक या काल द्वारा हमसे पृथक नहीं होते, अपितु वे सर्वत्र उपस्थित रहते हैं। अपने वाहन गरुड़ पर आसीन उनकी पूजा क्षोभ से मुक्ति पा चुके व्यक्तियों के द्वारा योगशक्ति से की जाती है। हम सभी उनको सादर नमस्कार करते हैं।

30 कोई भी व्यक्ति भगवान की माया का पार नहीं पा सकता जो इतनी प्रबल होती है कि हर व्यक्ति इससे भ्रमित होकर जीवन के लक्ष्य को समझने की बुद्धि गवाँ देता है। किन्तु वही माया उन भगवान के वश में रहती है, जो सब पर शासन करते हैं और सभी जीवों पर समान दृष्टि रखते हैं। हम उन्हें नमस्कार करते हैं।

31 चूँकि हमारे शरीर सत्त्वगुण से निर्मित हैं इसलिए हम देवगण भीतर तथा बाहर से सतोगुण में स्थित हैं। सारे संत पुरुष भी इसी प्रकार स्थित हैं। अतएव यदि हम भी भगवान को न समझ पायें तो उन नगण्य प्राणियों के विषय में क्या कहा जाये जो रजो तथा तमोगुणों में स्थित हैं? भला वे भगवान को कैसे समझ सकते हैं? हम उन भगवान को सादर नमस्कार करते हैं।

32 इस पृथ्वी पर चार प्रकार के जीव हैं (जरायुज - भ्रूण से उत्पन्न, अण्डज - अंडे से उत्पन्न, स्वेदज - पसीने से उत्पन्न और उदिभज - बीज से उत्पन्न) और ये सारे के सारे उन्हीं के द्वारा उत्पन्न किये गये हैं। यह भौतिक सृष्टि उनके चरणकमलों पर टिकी है। वे ऐश्वर्य तथा शक्ति से उत्कृष्ट परम पुरुष हैं। वे हम पर प्रसन्न हों।

33 `सारा विराट जगत जल से उद्भूत है और जल ही के कारण सारे जीव बने रहते हैं, जीवित रहते हैं तथा विकसित होते हैं। यह जल भगवान के वीर्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। अतएव इतनी महान शक्ति वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हम पर प्रसन्न हों।

34 सोम (चंद्रमा) समस्त देवताओं के लिए अन्न, बल तथा दीर्घायु का स्रोत है। वह सारी वनस्पतियों का स्वामी तथा सारे जीवों की उत्पत्ति का स्रोत भी है। जैसा कि विद्वानों ने कहा है, चंद्रमा भगवान का मन है। ऐसे समस्त ऐश्वर्यों के स्रोत भगवान हम पर प्रसन्न हों।

35 अनुष्ठानों की आहुतियाँ ग्रहण करने के लिए उत्पन्न अग्नि भगवान का मुख है। सागर की गहराइयों के भीतर भी संपदा उत्पन्न करने के लिए अग्नि रहती है और उदर में भोजन पचाने के लिए तथा शरीर पालन हेतु विभिन्न स्रावों को उत्पन्न करने के लिए भी अग्नि उपस्थित रहती है। ऐसे परम शक्तिमान भगवान हम पर प्रसन्न हों।

36 सूर्यदेव मुक्ति के मार्ग को चिन्हित करते हैं, जो अर्चिरादि वर्त्म कहलाता है। वे वेदों के ज्ञान के प्रमुख स्रोत हैं, वे ही ऐसे धाम हैं जहाँ पर परम सत्य को पूजा जा सकता है। वे मोक्ष के द्वार हैं, वे नित्य जीवन के स्रोत हैं, वे मृत्यु के भी कारण हैं। सूर्यदेव भगवान की आँख हैं। ऐसे परम ऐश्वर्यवान भगवान हम पर प्रसन्न हों।

37 सारे चर तथा अचर प्राणी अपनी जीवनी शक्ति (प्राण), अपनी शारीरिक शक्ति तथा अपना जीवन तक वायु से प्राप्त करते हैं। हम सभी अपने प्राण के लिए वायु का उसी तरह अनुसरण करते हैं जिस प्रकार राजा का अनुसरण नौकर करता है। वायु की जीवनी शक्ति भगवान की मूल जीवनी शक्ति से उत्पन्न होती है। ऐसे भगवान हम पर प्रसन्न हों।

38 परम शक्तिशाली भगवान हम पर प्रसन्न हों। विभिन्न दिशाएँ उनके कानों से उत्पन्न होती है, शरीर के छिद्र उनके हृदय से निकलते हैं एवं प्राण, इंद्रियाँ, मन, शरीर के भीतर की वायु तथा शरीर आश्रय रूपी शून्य (आकाश) उनकी नाभि से निकलते हैं।

39 स्वर्ग का राजा महेंद्र भगवान के बल से उत्पन्न हुआ था, देवतागण भगवान की कृपा से उत्पन्न हुए थे, शिवजी भगवान के क्रोध से उत्पन्न हुए थे और ब्रह्माजी उनकी गंभीर बुद्धि से उत्पन्न हुए थे। सारे वैदिक मंत्र भगवान के शरीर के छिद्रों से उत्पन्न हुए थे तथा ऋषि और प्रजापतिगण उनकी जननेन्द्रियों से उत्पन्न हुए थे। ऐसे परम शक्तिशाली भगवान हम पर प्रसन्न हों।

40 लक्ष्मी उनके वक्षस्थल से उत्पन्न हुई, पितृलोक के वासी उनकी छाया से, धर्म उनके स्तन से तथा अधर्म उनकी पीठ से उत्पन्न हुआ। स्वर्गलोक उनके सिर की चोटी से तथा अप्सराएँ उनके इंद्रिय भोग से उत्पन्न हुई। ऐसे परम शक्तिमान भगवान हम पर प्रसन्न हों।

41 ब्राह्मण तथा वैदिक ज्ञान भगवान के मुख से निकले, क्षत्रिय तथा शारीरिक शक्ति उनकी भुजाओं से, वैश्य तथा उत्पादकता एवं धन-संपदा संबंधी उनका दक्ष ज्ञान उनकी जाँघों से तथा वैदिक ज्ञान से विलग रहनेवाले शूद्र उनके चरणों से निकले। ऐसे भगवान, जो पराक्रम से पूर्ण है, हम पर प्रसन्न हों।

42 लोभ उनके निचले होंठ से, प्रीति उनके ऊपरी होंठ से, शारीरिक कान्ति उनकी नाक से, पाशविक वासनाएँ उनकी स्पर्शेंद्रियों से, यमराज उनकी भौंहों से तथा नित्यकाल उनकी पलकों से उत्पन्न होते हैं। वे भगवान हम सबों पर प्रसन्न हों।

43 सभी विद्वान लोग कहते हैं कि पाँचों तत्त्व, नित्यकाल, सकाम कर्म, प्रकृति के तीनों गुण तथा इन गुणों से उत्पन्न विभिन्न किस्में---ये सब योगमाया की सृष्टियाँ हैं। अतएव इस भौतिक जगत को समझ पाना अत्यंत कठिन है, किन्तु जो लोग अत्यंत विद्वान हैं उन्होंने इसका तिरस्कार कर दिया है। जो सभी वस्तुओं के नियंता हैं ऐसे भगवान हम सब पर प्रसन्न हों।

44 हम उन भगवान को सादर नमस्कार करते हैं, जो पूर्णतया शांत, प्रयास से मुक्त तथा अपनी उपलब्धियों से पूर्णतया संतुष्ट हैं। वे अपनी इंद्रियों द्वारा भौतिक जगत के कार्यों में लिप्त नहीं होते। निस्संदेह, इस भौतिक जगत में अपनी लीलाएँ सम्पन्न करते समय वे अनासक्त वायु की तरह रहते हैं।

45 हे भगवन ! हम आपके शरणागत हैं फिर भी हम आपका दर्शन करना चाहते हैं। कृपया अपने आदि रूप को तथा अपने मुस्काते मुख को हमारे नेत्रों को दिखलाइये और अन्य इंद्रियों द्वारा अनुभव करने दीजिये।

46 हे भगवन ! आप विभिन्न युगों में अपनी इच्छा से विभिन्न अवतारों में प्रकट होते हैं और ऐसे असामान्य कार्य आश्र्चर्यजनक ढंग से करते हैं, जिन्हें कर पाना हम सब के लिए दुष्कर है।

47 कर्मीजन अपनी इंद्रियतृप्ति के लिए सदैव धनसंग्रह करने के लिए लालायित रहते हैं, किन्तु इसके लिए उन्हें अत्यधिक श्रम करना पड़ता है। इतने कठोर श्रम के बावजूद भी उन्हें संतोषप्रद फल नहीं मिल पाता। निस्संदेह ही कभी-कभी तो उनके कर्मफल से निराशा ही उत्पन्न होती है। किन्तु जिन भक्तों ने भगवान की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर रखा है वे कठोर श्रम किये बिना ही पर्याप्त फल प्राप्त कर सकते हैं। ये फल भक्तों की आशा से बढ़कर होते हैं।

48 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को समर्पित कार्य, भले ही छोटे पैमाने पर क्यों न किये जाँए, कभी भी व्यर्थ नहीं जाते। अतएव स्वाभाविक है कि परम पिता होने के कारण स्वाभाविक रूप से भगवान अत्यंत प्रिय हैं और वे जीवों के कल्याण के लिए सदैव कर्म करने के लिए तैयार रहते हैं।

49 जब वृक्ष की जड़ में पानी डाला जाता है, तो वृक्ष का तना तथा शाखाएँ स्वतः तुष्ट हो जाती हैं। इसी प्रकार जब कोई भगवान विष्णु का भक्त बन जाता है, तो इससे हर एक की सेवा हो जाती है क्योंकि भगवान हर एक के परमात्मा हैं।

50 हे भगवन ! आपको नमस्कार है क्योंकि आप नित्य हैं, भूत, वर्तमान तथा भविष्य की काल सीमा से परे हैं। आप अपने कार्यकलापों में अचिंत्य हैं, आप भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों के स्वामी हैं और समस्त भौतिक गुणों से परे रहने के कारण आप भौतिक कल्मष से मुक्त हैं। आप प्रकृति के तीनों गुणों के नियंता हैं, किन्तु इस समय आप सतोगुण में स्थित हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

देवताओं तथा असुरों द्वारा संधि की घोषणा (अध्याय छह)  

1 श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा परीक्षित ! देवताओं तथा ब्रह्माजी द्वारा इस प्रकार स्तुतियों से पूजित भगवान हरि उन सबके समक्ष प्रकट हो गये। उनका शारीरिक तेज एकसाथ हजारों सूर्य के उदय होने के समान था।

2 भगवान के तेज से सारे देवताओं की दृष्टि चौंधिया गई। वे न तो आकाश, दिशाएँ, पृथ्वी को देख सके, न ही अपने आपको देख सके। अपने समक्ष उपस्थित भगवान को देखना तो दूर रहा।

3-7 शिवजी सहित ब्रह्माजी ने भगवान के निर्मल शारीरिक सौंदर्य को देखा जिनका श्यामल शरीर मरकत मणि के समान है, जिनकी आँखें कमल के फूल के भीतरी भाग जैसी लाल-लाल हैं, जो पिघले सोने जैसे पीले वस्त्र धारण किये हैं और जिनका समूचा शरीर आकर्षक ढंग से सज्जित है। उन्होंने उनके सुंदर मुस्काते कमल जैसे मुखमंडल को देखा जिसके ऊपर बहुमूल्य रत्नों से जड़ित मुकुट था। भगवान की भौंहें आकर्षक हैं और उनकी गालों पर कान के कुंडल शोभित रहते हैं। ब्रह्माजी तथा शिवजी ने भगवान की कमर में पेटी, उनकी बाहों में बाजूबंद, वक्षस्थल पर हार और पाँवों में पायल देखे। भगवान फूल की मालाओं से अलंकृत थे, उनकी गर्दन में कौस्तुभ मणि अलंकृत थी और उनके साथ लक्ष्मीजी थीं तथा वे चक्र, गदा इत्यादि निजी आयुध लिए हुए थे। जब ब्रह्माजी ने शिवजी तथा अन्य देवताओं के साथ भगवान के स्वरूप को इस तरह देखा तो सबने भूमि पर गिरकर उन्हें प्रणाम किया।

8 ब्रह्माजी ने कहा: यद्यपि आप अजन्मा हैं, किन्तु अवतार के रूप में आपका प्राकट्य तथा अन्तर्धान होना सदैव चलता रहता है। आप सदैव भौतिक गुणो से मुक्त रहते हैं और सागर के समान दिव्य आनंद के आश्रय हैं। अपने दिव्य स्वरूप में नित्य रहते हुए आप अत्यंत सूक्ष्म से भी सूक्ष्म हैं। अतएव हम आपको जिनका अस्तित्व अचिंत्य है, सादर नमस्कार करते हैं।

9 हे पुरुषश्रेष्ठ, हे परम नियंता ! जो लोग सचमुच परम सौभाग्य की कामना करते हैं, वे वैदिक तंत्रों के अनुसार आपके इसी रूप की पूजा करते हैं। हे प्रभु ! हम आपमें तीनों लोकों को देख सकते हैं।

10 सदैव पूर्ण स्वतंत्र रहने वाले मेरे प्रभु ! यह सारा दृश्य जगत आपसे उत्पन्न होता है, आप पर टिका रहता है और आपमें लीन हो जाता है। आप ही प्रत्येक वस्तु के आदि, मध्य तथा अंत हैं जिस तरह पृथ्वी मिट्टी के पात्र का कारण है, वह उस पात्र को आधार प्रदान करती है और जब पात्र टूट जाता है, तो अंततः उसे अपने में मिला लेती है।

11 हे परम पुरुष ! आप अपने में स्वतंत्र हैं और दूसरों से सहायता नहीं लेते। आप अपनी शक्ति से इस दृश्य जगत का सृजन करके इसमें प्रवेश कर जाते हैं। जो लोग कृष्णभावनामृत में बढ़े-चढ़े हैं, जो प्रामाणिक शास्त्रों से भलीभाँति परिचित हैं और जो भक्तियोग के अभ्यास से सारे भौतिक कल्मष से शुद्ध हो जाते हैं, वे शुद्ध मन से यह देख सकते हैं कि आप भौतिक गुणों के रूपांतरों के भीतर रहते हुए भी इन गुणों से अछूते रहते हैं।

12 जिस प्रकार काठ से अग्नि, गाय के थन से दूध, भूमि से अन्न तथा जल और औद्योगिक उद्यम से जीविका के लिए समृद्धि प्राप्त की जा सकती है उसी तरह इस भौतिक जगत में मनुष्य भक्तियोग के अभ्यास द्वारा आपकी कृपा प्राप्त कर सकता है या बुद्धि से आपके पास पहुँच सकता है। जो पुण्यात्मा हैं, वे इसकी पुष्टि करते हैं।

13 जंगल की अग्नि से पीड़ित हाथी गंगाजल प्राप्त होने पर अत्यंत प्रसन्न होते हैं। इसी प्रकार, हे कमलनाभ प्रभु ! चूँकि आप हमारे समक्ष अब प्रकट हुए हैं अतएव हम दिव्य सुख का अनुभव कर रहे हैं। हमें आपके दर्शन की दीर्घकाल से आकांक्षा थी अतएव आपका दर्शन पाकर हमने अपने जीवन के चरम लक्ष्य को पा लिया है।

14 हे भगवन ! हम विभिन्न देवता, इस ब्रह्मांड के निदेशक आपके चरणकमलों के निकट आये हैं। जिस प्रयोजन से हम आये हैं कृपया उसे पूरा करें। आप भीतर तथा बाहर से हर वस्तु के साक्षी हैं। आपसे कुछ भी अज्ञात नहीं है, अतएव आपको किसी बात के लिए पुनः सूचित करना व्यर्थ है।

15 मैं (ब्रह्मा), शिवजी तथा सारे देवताओं के साथ-साथ, दक्ष जैसे प्रजापति भी चिंगारियाँ मात्र हैं, जो मूल अग्नि स्वरूप आपके द्वारा प्रकाशित हैं। चूँकि हम आपके कण हैं अतएव हम अपनी कुशलता के विषय में समझ ही क्या सकते हैं? हे परमेश्र्वर ! हमें मोक्ष का वह साधन प्रदान करें जो ब्राह्मणों तथा देवताओं के लिए उपयुक्त हों।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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