jagdish chandra chouhan's Posts (549)

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अध्याय नौ – सृजन–शक्ति के लिए ब्रह्मा द्वारा स्तुति (3.9)

1 ब्रह्माजी ने कहा: हे प्रभु, आज अनेकानेक वर्षों की तपस्या के बाद मैं आपके विषय में जान पाया हूँ। ओह! देहधारी जीव कितने अभागे हैं कि वे आपके स्वरूप को जान पाने में असमर्थ हैं। हे स्वामी, आप एकमात्र ज्ञेय तत्त्व हैं, क्योंकि आपसे परे कुछ भी सर्वोच्च नहीं है। यदि कोई वस्तु आपसे श्रेष्ठ प्रतीत होती भी है, तो वह परम पूर्ण नहीं है। आप पदार्थ की सृजन शक्ति को प्रकट करके ब्रह्म रूप में विद्यमान हैं।

2 मैं जिस रूप को देख रहा हूँ वह भौतिक कल्मष से सर्वथा मुक्त है और अन्तरंगा शक्ति की अभिव्यक्ति के रूप में भक्तों पर कृपा दिखाने के लिए अवतरित हुआ है। यह अवतार अन्य अनेक अवतारों का उद्गम है और मैं स्वयं आपके नाभि रूपी घर से उगे कमल के फूल से उत्पन्न हुआ हूँ।

3 हे प्रभु, मैं आपके इस सच्चिदानन्द रूप से श्रेष्ठ अन्य कोई रूप नहीं देखता। वैकुण्ठ में आपकी निर्विशेष ब्रह्मज्योति में न तो यदाकदा परिवर्तन होता है और न अन्तरंगा शक्ति में कोई ह्रास आता है। मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ, क्योंकि जहाँ मैं अपने भौतिक शरीर तथा इन्द्रियों पर गर्वित हूँ वहीं आप विराट जगत का कारण होते हुए भी पदार्थ द्वारा अस्पृश्य हैं।

4 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण का यह वर्तमान रूप या उनके द्वारा विस्तार किया हुआ कोई भी दिव्य रूप सारे ब्रह्माण्डों के लिए समान रूप से मंगलमय है। चूँकि आपने यह नित्य साकार रूप प्रकट किया है, जिसका ध्यान आपके भक्त करते हैं, इसलिए मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। जिन्हें नरकगामी होना बदा है वे आपके साकार रूप की उपेक्षा करते हैं, क्योंकि वे लोग भौतिक विषयों की ही कल्पना करते रहते हैं।

5 हे प्रभु, जो लोग वैदिक ध्वनि की वायु द्वारा ले जाई गई आपके चरणकमलों की सुगन्ध को अपने कानों के द्वारा सूँघते हैं, वे आपकी भक्तिमय सेवा को स्वीकार करते हैं। उनके लिए आप उनके हृदय रूपी कमल से कभी भी विलग नहीं होते।

6 हे प्रभु, संसार के लोग समस्त भौतिक चिन्ताओं से उद्विग्न रहते हैं – वे सदैव भयभीत रहते हैं। वे सदैव धन, शरीर तथा मित्रों की रक्षा करने का प्रयास करते हैं, वे शोक तथा अवैध इच्छाओं एवं साज-सामग्री से पूरित रहते हैं तथा लोभवश "मैं" तथा "मेरे" की नश्वरधारणाओं पर अपने दुराग्रह को आधारित करते हैं। जब तक वे आपके सुरक्षित चरणकमलों की शरण ग्रहण नहीं करते तब तक वे ऐसी चिन्ताओं से भरे रहते हैं।

7 हे प्रभु, वे व्यक्ति जो आपके दिव्य कार्यकलापों के विषय में सर्वमंगलकारी कीर्तन तथा श्रवण करने से वंचित हैं निश्चित रूप से वे अभागे हैं और सद्-बुद्धि से विहीन हैं। वे तनिक देर के लिए इन्द्रियतृप्ति का भोग करने हेतु अशुभ कार्यों में लग जाते हैं।

8 हे महान कर्ता, मेरे प्रभु, ये सभी दीन प्राणी निरन्तर भूख, प्यास, शीत, कफ तथा पित्त से व्यग्र रहते हैं, इन पर कफ युक्त शीतऋतु, भीषण गर्मी, वर्षा तथा अन्य अनेक क्षुब्ध करने वाले तत्त्व आक्रमण करते रहते हैं और ये प्रबल कामेच्छाओं तथा दुःसह क्रोध से अभिभूत होते रहते हैं। मुझे इन पर दया आती है और मैं इनके लिए अत्यन्त सन्तप्त रहता हूँ।

9 हे प्रभु, आत्मा के लिए भौतिक दुखों का कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं होता। फिर भी जब तक बद्धात्मा शरीर को इन्द्रियभोग के निमित्त देखता है तब तक वह आपकी बहिरंगा शक्ति द्वारा प्रभावित होने से भौतिक कष्टों के पाश से बाहर नहीं निकल पाता।

10 ऐसे अभक्तगण अपनी इन्द्रियों को अत्यन्त कष्टप्रद तथा विस्तृत कार्य में लगाते हैं और रात में अनिद्रा रोग से पीड़ित रहते हैं, क्योंकि उनकी बुद्धि विविध मानसिक चिन्ताओं के कारण उनकी नींद को लगातार भंग करती रहती है। वे अतिमानवीय शक्ति द्वारा अपनी विविध योजनाओं में हताश कर दिए जाते हैं। यहाँ तक कि बड़े-बड़े ऋषि-मुनि यदि आपकी दिव्य कथाओं से विमुख रहते हैं, तो वे भी इस भौतिक जगत में ही चक्कर लगाते रहते हैं।

11 हे प्रभु आपके भक्तगण प्रामाणिक श्रवण विधि द्वारा कानों के माध्यम से आपको देख सकते हैं और इस तरह उनके हृदय विमल हो जाते हैं तथा आप वहाँ पर अपना स्थान ग्रहण कर लेते हैं। आप अपने भक्तों पर इतने दयालु हैं कि आप अपने को उस अध्यात्म के विशेष नित्य रूप में प्रकट करते हैं जिसमें वे सदैव आपका चिन्तन करते हैं।

12 हे प्रभु, आप उन देवताओं की पूजा से बहुत अधिक तुष्ट नहीं होते जो आपकी पूजा अत्यन्त ठाठ-बाट से तथा विविध साज-सामग्री के साथ करते तो हैं, किन्तु भौतिक लालसाओं से पूर्ण होते हैं। आप हर एक के हृदय में परमात्मा के रूप में अपनी अहैतुकी कृपा दर्शाने के लिए स्थित रहते हैं। आप नित्य शुभचिन्तक हैं, किन्तु आप अभक्तों के लिए अनुपलब्ध हैं।

13 वैदिक अनुष्ठान, दान, कठोर तपस्या तथा दिव्य सेवा जैसे पुण्य कार्य भी, जो लोगों द्वारा सकाम फलों को आपको अर्पित करके आपकी पूजा करने तथा आपको तुष्ट करने के उद्देश्य से किये जाते हैं, लाभप्रद होते हैं। धर्म के ऐसे कार्य व्यर्थ नहीं जाते।

14 मैं उन परब्रह्म को नमस्कार करता हूँ जो अपनी अन्तरंगा शक्ति के द्वारा शाश्वत विशिष्ट अवस्था में रहते हैं। उनका विभेदित न किया जा सकने वाला निर्विशेष स्वरूप आत्म-साक्षात्कार हेतु बुद्धि द्वारा पहचाना जाता है। मैं उनको नमस्कार करता हूँ जो अपनी लीलाओं के द्वारा विराट जगत के सृजन, पालन तथा संहार का आनन्द लेते हैं।

15 मैं उनके चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ जिनके अवतार, गुण तथा कर्म सांसारिक मामलों के रहस्यमय अनुकरण हैं। जो व्यक्ति इस जीवन को छोड़ते समय अनजाने में भी उनके दिव्य नाम का आवाहन करता है उसके जन्म-जन्म के पाप तुरन्त धुल जाते हैं और वह उन भगवान को निश्चित रूप से प्राप्त करता है।

16 आप लोक रूपी वृक्ष की जड़ हैं। यह वृक्ष सर्वप्रथम भौतिक प्रकृति को तीन तनों के रूप में – मुझ, शिव तथा सर्वशक्तिमान आपके रूप में – सृजन, पालन तथा संहार के लिए भेदकर निकला है और हम तीनों से अनेक शाखाएँ निकल आई हैं। इसलिए हे विराट जगत रूपी वृक्ष, मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

17 सामान्य लोग मूर्खतापूर्ण कार्यों में लगे रहते हैं। वे अपने मार्गदर्शन हेतु आपके द्वारा प्रत्यक्ष घोषित लाभप्रद कार्यों में अपने को नहीं लगाते। जब तक उनकी मूर्खतापूर्ण कार्यों की प्रवृत्ति बलवती बनी रहती है तब तक जीवन-संघर्ष में उनकी सारी योजनाएँ छिन्न-भिन्न होती रहेंगी। अतएव मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ जो नित्यकाल स्वरूप हैं।

18 हे प्रभु, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ जो अथक काल तथा समस्त यज्ञों के भोक्ता हैं। यद्यपि मैं ऐसे स्थान में स्थित हूँ जो दो परार्धों की अवधि तक विद्यमान रहेगा, और यद्यपि मैं ब्रह्माण्ड के अन्य सभी लोकों का अगुआ हूँ, और यद्यपि मैंने आत्म-साक्षात्कार हेतु अनेकानेक वर्षों तक तपस्या की है, तथापि मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

19 हे प्रभु,आप अपनी दिव्य लीलाएँ सम्पन्न करने हेतु स्वेच्छा से विविध जीवयोनियों में, मनुष्येतर पशुओं में तथा देवताओं में प्रकट होते हैं। आप भौतिक कल्मष से तनिक भी प्रभावित नहीं होते। आप धर्म के अपने सिद्धान्तों के दायित्व को पूरा करने के लिए ही आते हैं, अतः हे परमेश्वर ऐसे विभिन्न रूपों को प्रकट करने के लिए मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

20 हे प्रभु, आप उस प्रलयकालीन जल में शयन करने का आनन्द लेते हैं जहाँ प्रचण्ड लहरें उठती रहती हैं और बुद्धिमान लोगों को अपनी नींद का सुख दिखाने के लिए आप सर्पों की शय्या का आनन्द भोगते हैं। उस काल में ब्रह्माण्ड के सारे लोक आपके उदर में स्थित रहते हैं।

21 हे मेरी पूजा के लक्ष्य, मैं आपकी कृपा से ब्रह्माण्ड की रचना करने हेतु आपके कमल- नाभि रूपी घर से उत्पन्न हुआ हूँ। जब आप नींद का आनन्द ले रहे थे, तब ब्रह्माण्ड के ये सारे लोक आपके दिव्य उदर के भीतर स्थित थे। अब आपकी नींद टूटी है, तो आपके नेत्र प्रातःकाल में खिलते हुए कमलों की तरह खुले हुए हैं।

22 परमेश्वर मुझ पर कृपालु हों। वे इस जगत में सारे जीवों के एकमात्र मित्र तथा आत्मा हैं और वे अपने छः ऐश्वर्यों द्वारा जीवों के चरम सुख हेतु इन सबों का पालन-पोषण करते हैं। वे मुझ पर कृपालु हों, जिससे मैं पहले की तरह सृजन करने की आत्मपरीक्षण शक्ति से युक्त हो सकूँ, क्योंकि मैं भी उन शरणागत जीवों में से हूँ जो भगवान को प्रिय हैं।

23 भगवान सदा ही शरणागतों को वर देने वाले हैं। उनके सारे कार्य उनकी अन्तरंगा शक्ति रमा या लक्ष्मी के माध्यम से सम्पन्न होते हैं। मेरी उनसे यही विनती है कि भौतिक जगत के सृजन में वे मुझे अपनी सेवा में लगा लें और मेरी यही प्रार्थना है कि मैं अपने कर्मों द्वारा भौतिक रूप से प्रभावित न होऊँ, क्योंकि इस तरह मैं स्रष्टा होने की मिथ्या-प्रतिष्ठा त्यागने में सक्षम हो सकूँ गा।

24 भगवान की शक्तियाँ असंख्य हैं। जब वे प्रलय-जल में लेटे रहते हैं, तो उस नाभिरूपी झील से, जिसमें कमल खिलता है, मैं समग्र विश्वशक्ति के रूप में उत्पन्न होता हूँ। इस समय मैं विराट जगत के रूप में उनकी विविध शक्तियों को उद्धाटित करने में लगा हुआ हूँ। इसलिए मैं प्रार्थना करता हूँ कि अपने भौतिक कार्यों को करते समय मैं वैदिक स्तुतियों की ध्वनि से कहीं विचलित न हो जाऊँ।

25 भगवान जो कि परम हैं और सबसे प्राचीन हैं, अपार कृपालु हैं। मैं चाहता हूँ कि वे अपने कमलनेत्रों को खोल कर मुसकाते हुए मुझे वर दें। वे सम्पूर्ण विराट सृष्टि का उत्थान कर सकते हैं और अपने कृपापूर्ण आदेशों के द्वारा हमारा विषाद दूर कर सकते हैं।

26 मैत्रेय मुनि ने कहा: हे विदुर, अपने प्राकट्य के स्रोत अर्थात भगवान को देखकर ब्रह्मा ने अपने मन तथा वाणी की क्षमता के अनुसार उनकी कृपा हेतु यथासम्भव स्तुति की। इस प्रकार स्तुति करने के बाद वे मौन हो गये मानो अपनी तपस्या, ज्ञान तथा मानसिक एकाग्रता के कारण वे थक गये हों।

27-28 भगवान ने देखा कि ब्रह्माजी विभिन्न लोकों की योजना बनाने तथा उनके निर्माण को लेकर अतीव चिन्तित हैं और प्रलयंकारी जल को देखकर खिन्न हैं। वे ब्रह्मा के मनोभाव को समझ गये, अतः उन्होंने उत्पन्न मोह को दूर करते हुए गम्भीर एवं विचारपूर्ण शब्द कहे।

29 तब पुरुषोत्तम भगवान ने कहा:हे ब्रह्मा, हे वेदगर्भ, तुम सृष्टि करने के लिए न तो निराश होओ, न ही चिन्तित। तुम जो मुझसे माँग रहे हो वह तुम्हें पहले ही दिया जा चुका है ।"

30 हे ब्रह्मा, तुम अपने को तपस्या तथा ध्यान में स्थित करो और मेरी कृपा पाने के लिए ज्ञान के सिद्धान्तों का पालन करो। इन कार्यों से तुम अपने हृदय के भीतर से हर बात को समझ सकोगे।

31 हे ब्रह्मा, जब तुम अपने सृजनात्मक कार्यकलाप के दौरान भक्ति में निमग्न रहोगे तो तुम मुझको अपने में तथा ब्रह्माण्ड भर में देखोगे और तुम देखोगे कि मुझमें – स्वयं तुम, ब्रह्माण्ड तथा सारे जीव हैं।

32 तुम मुझको सारे जीवों में तथा ब्रह्माण्ड में सर्वत्र उसी प्रकार देखोगे जिस तरह काठ में अग्नि स्थित रहती है। केवल उस दिव्य दृष्टि की अवस्था में तुम सभी प्रकार के मोह से अपने को मुक्त कर सकोगे।

33 जब तुम स्थूल और सूक्ष्म शरीरों के विचार से मुक्त होगे तथा तुम्हारी इन्द्रियाँ प्रकृति के सारे प्रभावों से मुक्त होंगी तब तुम मेरी संगति में अपने शुद्ध रूप की अनुभूति कर सकोगे। उस समय तुम शुद्ध भावनामृत में स्थित होगे।

34 चूँकि तुमने जनसंख्या को असंख्य रूप में बढ़ाने तथा अपनी सेवा के प्रकारों को विस्तार देने की इच्छा प्रकट की है, अतः तुम इस विषय से कभी भी वंचित नहीं होगे क्योंकि सभी कालों में तुम पर मेरी अहैतुकी कृपा बढ़ती ही जायेगी।

35 तुम आदि ऋषि हो और तुम्हारा मन सदैव मुझमें स्थिर रहता है इसीलिए विभिन्न सन्ततियाँ उत्पन्न करने के कार्य में लगे रहने पर भी तुम्हारे पास पापमय रजोगुण फटक भी नहीं सकेगा।

36 यद्यपि मैं बद्ध आत्मा द्वारा सरलता से ज्ञेय नहीं हूँ, किन्तु आज तुमने मुझे जान लिया है, क्योंकि तुम जानते हो कि मैं किसी भौतिक वस्तु से विशेष रूप से पाँच स्थूल तथा तीन सूक्ष्म तत्त्वों से नहीं बना हूँ।

37 जब तुम यह सोच-विचार कर रहे थे कि तुम्हारे जन्म के कमल-नाल के डंठल का कोई स्रोत है कि नहीं और तुम उस डंठल के भीतर प्रविष्ट भी हो गये थे, तब तुम कुछ भी पता नहीं लगा सके थे। किन्तु उस समय मैंने भीतर से अपना रूप प्रकट किया था।

38 हे ब्रह्मा, तुमने मेरे दिव्य कार्यों की महिमा की प्रशंसा करते हुए जो स्तुतियाँ की हैं, मुझे समझने के लिए तुमने जो तपस्याएँ की हैं तथा मुझमें तुम्हारी जो दृढ़ आस्था है – इन सबों को तुम मेरी अहैतुकी की कृपा ही समझो।

39 मेरे दिव्य गुण जो कि संसारी लोगों को सांसारिक प्रतीत होते हैं, उनका जो वर्णन तुम्हारे द्वारा प्रस्तुत किया गया है उससे मैं अतीव प्रसन्न हूँ। अपने कार्यों से समस्त लोकों को महिमामय करने की जो तुम्हारी इच्छा है उसके लिए मैं तुम्हें वर देता हूँ।

40 जो भी मनुष्य ब्रह्मा की तरह प्रार्थना करता है और इस तरह जो मेरी पूजा करता है, उसे शीघ्र ही यह वर मिलेगा कि उसकी सारी इच्छाएँ पूरी हों, क्योंकि मैं समस्त वरों का स्वामी हूँ।

41 दक्ष अध्यात्मवादियों का यह मत है कि परम्परागत सत्कर्म, तपस्या, यज्ञ, दान, योग कर्म, समाधि आदि सम्पन्न करने का चरम लक्ष्य मेरी तुष्टि का आवाहन करना है।

42 मैं प्रत्येक जीव का परमात्मा हूँ। मैं परम निदेशक तथा परम प्रिय हूँ। लोग स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों के प्रति झूठे ही अनुरक्त रहते हैं; उन्हें तो एकमात्र मेरे प्रति अनुरक्त होना चाहिए।

43 मेरे आदेशों का पालन करके तुम पहले की तरह अपने पूर्ण वैदिक ज्ञान से तथा सर्वकारण-के-कारण-रूप मुझसे प्राप्त अपने शरीर द्वारा जीवों को उत्पन्न कर सकते हो।

44 मैत्रेय मुनि ने कहा: ब्रह्माण्ड के स्रष्टा ब्रह्मा को विस्तार करने का आदेश देकर आदि भगवान अपने साकार नारायण रूप में अन्तर्धान हो गये।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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तीन सौ खरब वर्षों से अधिक तपस्या करने पर ब्रह्माजी को परमेश्वर का ज्ञान हुआ, जिससे वे अपने हृदय में उनका दर्शन कर सके।  (3.8.22-24)-श्रील प्रभुपाद!

अध्याय आठ – गर्भोदकशायी विष्णु से ब्रह्मा का प्राकट्य (3.8)

1 महा-मुनि मैत्रेय ने विदुर से कहा: राजा पुरू का राजवंश शुद्ध भक्तों की सेवा करने के लिए योग्य है, क्योंकि उस वंश के सारे उत्तराधिकारी भगवान के प्रति अनुरक्त हैं। तुम भी उसी कुल में उत्पन्न हो और यह आश्चर्य की बात है कि तुम्हारे प्रयास से भगवान की दिव्य लीलाएँ प्रतिक्षण नूतन से नूतनतर होती जा रही है।

2 अब मैं भागवत पुराण से प्रारम्भ करता हूँ जिसे भगवान ने प्रत्यक्ष रूप से महान ऋषियों से उन लोगों के लाभार्थ कहा था, जो अत्यल्प आनन्द के लिए अत्यधिक कष्ट में फँसे हुए हैं।

3 कुछ काल पूर्व तुम्हारी ही तरह कुमार सन्तों में प्रमुख सनत कुमार ने अन्य महर्षियों के साथ जिज्ञासावश ब्रह्माण्ड की तली में स्थित भगवान संकर्षण से भगवान वासुदेव विषयक सत्यों के बारे में पूछा था।

4 उस समय भगवान संकर्षण अपने परमेश्वर का ध्यान कर रहे थे जिन्हें विद्वद्ज्जन भगवान वासुदेव के रूप में सम्मान देते हैं। किन्तु महान पण्डित मुनियों की उन्नति के लिए उन्होंने अपने कमलवत नेत्रों को कुछ-कुछ खोला और बोलना शुरू किया ।

5 चूँकि मुनिगण गंगानदी के माध्यम से उच्चतर लोकों से निम्नतर भाग में आये थे, फलस्वरूप उनके सिर के बाल भीगे हुए थे। उन्होंने भगवान के उन चरणकमलों का स्पर्श किया जिनकी पूजा नागराज की कन्याओं द्वारा अच्छे पति की कामना से विविध सामग्री द्वारा की जाती है।

6 सनत कुमार आदि चारों कुमारों ने जो भगवान की दिव्य लीलाओं के विषय में सब कुछ जानते थे, स्नेह तथा प्रेम से भरे चुने हुए शब्दों से लय सहित भगवान का गुणगान किया। उस समय भगवान संकर्षण अपने हजार फणों को उठाये हुए अपने सिर की चमचमाती मणियों से तेज बिखेरने लगे।

7 इस तरह भगवान संकर्षण ने उन महर्षि सनत्कुमार से श्रीमदभागवत का भावार्थ कहा जिन्होंने पहले से वैराग्य का व्रत ले रखा था। सनत्कुमार ने भी अपनी पारी में सांख्यायन मुनि द्वारा पूछे जाने पर श्रीमदभागवत को उसी रूप में बतलाया जिस रूप में उन्होंने संकर्षण से सुना था।

8 सांख्यायन मुनि अध्यात्मवादियों में प्रमुख थे और जब वे श्रीमदभागवत के शब्दों में भगवान की महिमाओं का वर्णन कर रहे थे तो ऐसा हुआ कि मेरे गुरु पराशर तथा बृहस्पति दोनों ने उनको सुना।

9 जैसा कि पहले कहा जा चुका है महर्षि पराशर ने महर्षि पुलस्त्य के द्वारा कहे जाने पर मुझे अग्रगण्य पुराण (भागवत) सुनाया। हे पुत्र, जिस रूप में उसे मैंने सुना है उसी रूप में मैं तुम्हारे सम्मुख उसका वर्णन करूँगा, क्योंकि तुम सदा ही मेरे श्रद्धालु अनुयायी रहे हो।

10 उस समय जब तीनों जगत जल में निमग्न थे तो गर्भोदकशायी विष्णु महान सर्प अनन्त की अपनी शय्या में अकेले लेटे थे। यद्यपि वे अपनी निजी अन्तरंगा शक्ति में सोये हुए लग रहे थे और बहिरंगा शक्ति के प्रभाव से मुक्त थे, किन्तु उनकी आँखें पूर्णतया बन्द नहीं थीं।

11 जिस तरह ईंधन के भीतर अग्नि की शक्ति छिपी रहती है उसी तरह भगवान समस्त जीवों को उनके सूक्ष्म शरीरों में लीन करते हुए प्रलय के जल के भीतर काल नामक स्वतः अर्जित शक्ति से लेटे रहे।

12 भगवान अपनी अन्तरंगा शक्ति में चार हजार युगचक्रों तक लेटे रहे और अपनी बहिरंगा शक्ति से जल के भीतर सोते हुए प्रतीत होते रहे। जब सारे जीव कालशक्ति द्वारा प्रेरित होकर अपने सकाम कर्मों के विकास के लिए बाहर आ रहे थे तो उन्होंने अपने दिव्य शरीर को नीले रंग का देखा।

13 सृष्टि का सूक्ष्म विषय-तत्त्व, जिस पर भगवान का ध्यान टिका था, भौतिक रजोगुण द्वारा विक्षुब्ध हुआ। इस तरह से सृष्टि का सूक्ष्म रूप उनके उदर (नाभि) से बाहर निकल आया।

14 जीवों के सकाम कर्म के इस समग्र रूप ने भगवान विष्णु के शरीर से प्रस्फुटित होते हुए कमल की कली का स्वरूप धारण कर लिया। फिर उनकी परम इच्छा से इसने सूर्य की तरह हर वस्तु को आलोकित किया और प्रलय के अपार जल को सूखा डाला।

15 उस ब्रह्माण्डमय कमल पुष्प के भीतर भगवान विष्णु परमात्मा रूप में स्वयं प्रविष्ट हो गए और जब यह इस तरह भौतिक प्रकृति के समस्त गुणों से गर्भित हो गया तो साक्षात वैदिक ज्ञान उत्पन्न हुआ जिसे हम स्वयम्भुव (ब्रह्मा) कहते हैं।

16 कमल के फूल से उत्पन्न हुए ब्रह्मा जगत को नहीं देख सके यद्यपि वे कोश में स्थित थे। अतः उन्होंने सारे अन्तरिक्ष की परिक्रमा की और सभी दिशाओं में अपनी आँखें घुमाते समय उन्होंने चार दिशाओं के रूप में चार सिर प्राप्त किये।

17 उस कमल पर स्थित ब्रह्मा न तो सृष्टि को, न कमल को, न ही अपने आपको भलीभाँति समझ सके। युग के अन्त में प्रलय वायु जल तथा कमल को बड़ी-बड़ी भँवरों में हिलाने लगी।

18 ब्रह्माजी ने अपनी अनभिज्ञता से विचार किया: इस कमल के ऊपर स्थित मैं कौन हूँ? यह (कमल) कहाँ से फूटकर निकला है? इसके नीचे कुछ अवश्य होना चाहिए और जिससे यह कमल निकला है उसे जल के भीतर होना चाहिए।

19 इस तरह विचार करते हुए ब्रह्माजी कमल नाल के रन्ध्रों (छिद्रों) से होकर जल के भीतर प्रविष्ट हुए। किन्तु नाल में प्रविष्ट होकर तथा विष्णु की नाभि के निकटतम जाकर भी वे जड़ (मूल) का पता नहीं लगा पाये।

20 हे विदुर, अपने अस्तित्व के विषय में इस तरह खोज करते हुए ब्रह्मा अपने चरमकाल में पहुँच गये, जो विष्णु के हाथों में शाश्वत चक्र है और जो जीव के मन में मृत्यु-भय की भ्रान्ति, भय उत्पन्न करता है।

21 तत्पश्चात वांछित लक्ष्य प्राप्त करने में असमर्थ होकर वे ऐसी खोज से विमुख हो गये और पुनः कमल के ऊपर आ गये। इस तरह इन्द्रियविषयों को नियंत्रित करते हुए उन्होंने अपना मन परमेश्वर पर एकाग्र किया।

22 अपने सौ वर्षों के बाद जब ब्रह्मा का ध्यान पूरा हुआ तो उन्होंने वांछित ज्ञान विकसित किया जिसके फलस्वरूप वे अपने हृदय में परम पुरुष को देख सके जिन्हें वे इसके पूर्व महानतम प्रयास करने पर भी नहीं देख सके थे।

23 ब्रह्मा यह देख सके कि जल में शेषनाग का शरीर विशाल कमल जैसी श्वेत शय्या था जिस पर भगवान अकेले लेटे थे। सारा वायुमण्डल शेषनाग के फन को विभूषित करने वाले रत्नों की किरणों से प्रदीप्त था और इस प्रकाश से उस क्षेत्र का समस्त अंधकार मिट गया था।

24 भगवान के दिव्य शरीर की कान्ति मूँगे के पर्वत की शोभा का उपहास कर रही थी। मूँगे का पर्वत संध्याकालीन आकाश द्वारा सुन्दर ढंग से वस्त्राभूषित होता है, किन्तु भगवान का पीतवस्त्र उसकी शोभा का उपहास कर रहा था। इस पर्वत की चोटी पर स्वर्ण है, किन्तु रत्नजटित भगवान का मुकुट इसकी हँसी उड़ा रहा था। पर्वत के झरने, जड़ी-बूटियाँ आदि फूलों के दृश्य के साथ मालाओं जैसे लगते हैं, किन्तु भगवान का विराट शरीर तथा उनके हाथ-पाँव रत्नों, मोतियों, तुलसीदल तथा फूलमालाओं से अलंकृत होकर उस पर्वत के दृश्य का उपहास कर रहे थे।

25 उनके दिव्य शरीर की लम्बाई तथा चौड़ाई असीम थी और वह तीनों लोकों (उच्च, मध्य तथा निम्न) में फैली हुई थी। उनका शरीर अद्वितीय वेश तथा विविधता से स्वतःप्रकाशित था और भलीभाँति अलंकृत था।

26 भगवान ने अपने चरणकमलों को उठाकर दिखलाया। उनके चरणकमल समस्त भौतिक कल्मष से रहित भक्तिमय सेवा द्वारा प्राप्त होने वाले समस्त वरों के स्रोत हैं। ऐसे वर उन लोगों के लिए होते हैं, जो उनकी पूजा शुद्ध भक्तिभाव में करते हैं। उनके पाँव तथा हाथ के चन्द्रमा सदृश नाखूनों से निकलने वाली किरणों की प्रभा (छटा) फूल की पंखुड़ियों जैसी प्रतीत हो रही थी।

27 उन्होंने भक्तों की सेवा भी स्वीकार की और अपनी सुन्दर हँसी से उनका कष्ट मिटा दिया। कुण्डलों से सज्जित उनके मुख का प्रतिबिम्ब अत्यन्त मनोहारी था, क्योंकि यह उनके होंठों की किरणों तथा उनकी नाक एवं भौंहों की सुन्दरता से जगमगा रहा था।

28 हे विदुर, भगवान की कमर पीले वस्त्र से ढकी थी जो कदम्ब फूल की केसरिया धूल जैसा प्रतीत हो रहा था और इसको अतीव सज्जित करधनी घेरे हुए थी। उनकी छाती श्रीवत्स चिन्ह से तथा असीम मूल्य वाले हार से शोभित थी।

29 जिस तरह चन्दन वृक्ष सुगन्धित फूलों तथा शाखाओं से सुशोभित रहता है उसी तरह भगवान का शरीर मूल्यवान मणियों तथा मोतियों से अलंकृत था। वे आत्म-स्थित (अव्यक्त मूल) वृक्ष और विश्व के अन्य सभी के स्वामी थे। जिस तरह चन्दन वृक्ष अनेक सर्पों से आच्छादित रहता है उसी तरह भगवान का शरीर भी अनन्त के फणों से ढका था।

30 विशाल पर्वत की भाँति भगवान समस्त जड़ तथा चेतन जीवों के लिए आवास की तरह खड़े हैं। वे सर्पों के मित्र हैं, क्योंकि अनन्त देव उनके मित्र हैं। जिस तरह पर्वत में हजारों सुनहरी चोटियाँ होती हैं उसी तरह अनन्त नाग के सुनहरे मुकुटों वाले हजारों फनों से युक्त भगवान दीख रहे थे। जिस तरह पर्वत कभी-कभी रत्नों से पूरित रहता है उसी तरह उनका शरीर मूल्यवान रत्नों से पूर्णतया सुशोभित था। जिस तरह कभी-कभी पर्वत समुद्र जल में डूबा रहता है उसी तरह भगवान कभी-कभी प्रलय-जल में डूबे रहते हैं।

31 इस तरह पर्वताकार भगवान पर दृष्टि डालते हुए, ब्रह्मा ने यह निष्कर्ष निकाला कि वे भगवान हरि ही हैं। उन्होंने देखा कि उनके वक्षस्थल पर पड़ी फूलों की माला वैदिक ज्ञान के मधुर गीतों से उनका महिमागान कर रही थी और अतीव सुन्दर लग रही थी। वे युद्ध के लिए सुदर्शन चक्र द्वारा सुरक्षित थे और सूर्य, चन्द्र, वायु, अग्नि इत्यादि तक उनके पास फटक नहीं सकते थे।

32 जब ब्रह्माण्ड के भाग्य विधाता ब्रह्मा ने भगवान को इस प्रकार देखा तो उसी समय उन्होंने सृष्टि पर नजर दौड़ाई। ब्रह्मा ने विष्णु की नाभि में झील (नाभि सरोवर) तथा कमल देखा और उसी के साथ प्रलयकारी जल, सुखाने वाली वायु तथा आकाश को भी देखा। उन्हें सब कुछ दृष्टिगोचर हो गया।

33 इस तरह रजोगुण से प्रेरित ब्रह्मा सृजन करने के लिए उन्मुख हुए और भगवान द्वारा सुझाये गए सृष्टि के पाँच कारणों को देखकर वे सृजनशील मनोवृत्ति के मार्ग पर सादर स्तुति करने लगे।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

 

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प्रथम पुरुष कारणोदकशायी, द्वितीय पुरुष गर्भोदकशायी तथा तृतीय पुरुष क्षीरोदकशायी विष्णु हैं, जिनमें विराट पुरुष की कल्पना की जाती है, जिसमें सारे लोक अपने विभिन्न विस्तीर्णताओं तथा निवासियों समेत तैरते रहते हैं।    तात्पर्य - 3.7.22  श्रील प्रभुपाद

अध्याय सात – विदुर द्वारा अन्य प्रश्न (3.7)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, जब महर्षि मैत्रेय इस प्रकार से बोल रहे थे तो द्वैपायन व्यास के विद्वान पुत्र विदुर ने यह प्रश्न पूछते हुए मधुर ढंग से एक अनुरोध व्यक्त किया।

2 श्री विदुर ने कहा : हे महान ब्राह्मण, चूँकि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान सम्पूर्ण आध्यात्मिक समष्टि हैं और अविकारी हैं, तो फिर वे प्रकृति के गुणों तथा उनके कार्यकलापों से किस तरह सम्बन्धित हैं? यदि यह उनकी लीला है, तो फिर अविकारी के कार्यकलाप किस तरह घटित होते हैं और प्रकृति के गुणों के बिना गुणों को किस तरह प्रदर्शित करते हैं?

3 बालक अन्य बालकों के साथ या विविध क्रीड़ाओं में खेलने के लिए उत्सुक रहते हैं, क्योंकि वे इच्छा द्वारा प्रोत्साहित किये जाते हैं। किन्तु भगवान में ऐसी इच्छा की कोई सम्भावना नहीं होती, क्योंकि वे आत्म-तुष्ट हैं और सदैव हर वस्तु से विरक्त रहते हैं।

4 भगवान ने प्रकृति के तीन गुणों की स्वरक्षित शक्ति द्वारा इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि कराई। वे उसी के द्वारा सृष्टि का पालन करते हैं और उल्टे पुनः पुनः उसका विलय भी करते हैं।

5 शुद्ध आत्मा विशुद्ध चेतना है और वह परिस्थितियों, काल, स्थितियों, स्वप्नों अथवा अन्य कारणों से कभी भी चेतना से बाहर नहीं होता। तो फिर वह अविद्या में लिप्त क्यों होता है ?

6 भगवान परमात्मा के रूप में हर जीव के हृदय में स्थित रहते हैं। तो फिर जीवों के कर्मों से दुर्भाग्य तथा कष्ट क्यों प्रतिफलित होते हैं?

7 हे महान एवं विद्वान पुरुष, मेरा मन इस अज्ञान के संकट द्वारा अत्यधिक मोहग्रस्त है, इसलिए मैं आप से प्रार्थना करता हूँ कि आप इसको स्पष्ट करें ।

8 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन इस तरह जिज्ञासु विदुर द्वारा विक्षुब्ध किये गये मैत्रेय सर्वप्रथम आश्चर्यचकित प्रतीत हुए, किन्तु इसके बाद उन्होंने बिना किसी हिचक के उन्हें उत्तर दिया, क्योंकि वे पूर्णरूपेण ईशभावनाभावित थे।

9 श्री मैत्रेय ने कहा: कुछ बद्धजीव यह सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं कि परब्रह्म या भगवान को माया द्वारा जीता जा सकता है, किन्तु साथ ही उनका यह भी मानना है कि वे अबद्ध हैं। यह समस्त तर्क के विपरीत है।

10 जीव अपनी आत्म-पहचान के विषय में संकट में रहता है। उसके पास वास्तविक पृष्ठभूमि नहीं होती, ठीक उसी तरह जैसे स्वप्न देखने वाला व्यक्ति यह देखे कि उसका सिर काट लिया गया है।

11 जिस तरह जल में प्रतिबिम्बित चन्द्रमा जल के गुण से सम्बद्ध होने के कारण देखने वाले को हिलता हुआ प्रतीत होता है उसी तरह पदार्थ से सम्बद्ध आत्मा पदार्थ के ही समान प्रतीत होता है।

12 किन्तु आत्म-पहचान की उस भ्रान्ति को भगवान वासुदेव की कृपा से विरक्त भाव से भगवान की भक्तिमय सेवा की विधि के माध्यम से धीरे-धीरे कम किया जा सकता है।

13 जब इन्द्रियाँ दृष्टा-परमात्मा अर्थात भगवान में तुष्ट हो जाती है और उनमें विलीन हो जाती है, तो सारे कष्ट उसी तरह पूर्णतया दूर हो जाते हैं जिस तरह ये गहरी नींद के बाद दूर हो जाते हैं।

14 भगवान श्रीकृष्ण के दिव्य नाम, रूप इत्यादि के कीर्तन तथा श्रवण मात्र से मनुष्य की असीम कष्टप्रद अवस्थाएँ शमित हो सकती है। अतएव उनके विषय में क्या कहा जाये, जिन्होंने भगवान के चरणकमलों की धूल की सुगन्ध की सेवा करने के लिए आकर्षण प्राप्त कर लिया हो?

15 विदुर ने कहा: हे शक्तिशाली मुनि, मेरे प्रभु, आपके विश्वसनीय शब्दों से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान तथा जीवों से सम्बन्धित मेरे सारे संशय अब दूर हो गये हैं। अब मेरा मन पूरी तरह से उनमें प्रवेश कर रहा है।

16 हे विद्वान महर्षि, आपकी व्याख्याएँ अति उत्तम हैं जैसी कि उन्हें होना चाहिए। बद्धजीव के विक्षोभों का आधार भगवान की बहिरंगा शक्ति की गतिविधि के अलावा कुछ भी नहीं हैं।

17 निकृष्टतम मूर्ख तथा समस्त बुद्धि के परे रहने वाले दोनों ही सुख भोगते हैं, जबकि उनके बीच के व्यक्ति भौतिक क्लेश पाते हैं।

18 किन्तु हे महोदय, मैं आपका कृतज्ञ हूँ, क्योंकि अब मैं समझ सकता हूँ कि यह भौतिक जगत साररहित है यद्यपि यह वास्तविक प्रतीत होता है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपके चरणों की सेवा करने से मेरे लिए इस मिथ्या विचार को त्याग सकना सम्भव हो सकेगा।

19 गुरु के चरणों की सेवा करने से मनुष्य उन भगवान की सेवा में दिव्य भावानुभूति उत्पन्न करने में समर्थ होता है, जो मधु असुर के कूटस्थ (अपरिवर्तनीय) शत्रु हैं और जिनकी सेवा से मनुष्य के भौतिक क्लेश दूर हो जाते हैं।

20 जिन लोगों की तपस्या अत्यल्प है वे उन शुद्ध भक्तों की सेवा नहीं कर पाते हैं जो भगवद्धाम अर्थात वैकुण्ठ के मार्ग पर अग्रसर हो रहे होते हैं। शुद्धभक्त शत प्रतिशत उन परम प्रभु की महिमा के गायन में लगे रहते हैं, जो देवताओं के स्वामी तथा समस्त जीवों के नियन्ता हैं।

21 सम्पूर्ण भौतिक शक्ति अर्थात महत तत्त्व की सृष्टि कर लेने के बाद तथा इन्द्रियों और इन्द्रिय विषयों समेत विराट रूप को प्रकट कर लेने पर परमेश्वर उसके भीतर प्रविष्ट हो गये।

22 कारणार्णव में शयन करता पुरुष अवतार भौतिक सृष्टियों में आदि पुरुष कहलाता है और उनके विराट रूप में जिसमें सारे लोक तथा उनके निवासी रहते हैं, उस पुरुष के कई-कई हजार हाथ-पाँव होते हैं।

23 हे महान ब्राह्मण, आपने मुझे बताया कि विराट रूप तथा उनकी इन्द्रियाँ, इन्द्रिय विषय तथा दस प्रकार के प्राण तीन प्रकार की जीवनीशक्ति के साथ विद्यमान रहते हैं। अब, यदि आप चाहें तो कृपा करके मुझे विशिष्ट विभागों (वर्णों) की विभिन्न शक्तियों का वर्णन करें।

24 हे प्रभु, मेरे विचार से पुत्रों, पौत्रों तथा परिजनों के रूप में प्रकट शक्ति (बल) सारे ब्रह्माण्ड में विभिन्न रूपों तथा योनियों में फैल गयी है।

25 हे विद्वान ब्राह्मण, कृपा करके बतायें कि किस तरह समस्त देवताओं के मुखिया प्रजापति अर्थात ब्रह्मा ने विभिन्न युगों के अध्यक्ष विभिन्न मनुओं को स्थापित करने का निश्चय किया। कृपा करके मनुओं का भी वर्णन करें तथा उन मनुओं की सन्तानों का भी वर्णन करें।

26 हे मित्रा के पुत्र, कृपा करके इस बात का वर्णन करें कि किस तरह पृथ्वी के ऊपर के तथा उसके नीचे के लोक स्थित हैं और उनकी तथा पृथ्वी लोकों की प्रमाप का भी उल्लेख करें।

27 कृपया जीवों का विभिन्न विभागों के अन्तर्गत यथा मानवेतर, मानव, भ्रूण से उत्पन्न, पसीने से उत्पन्न, द्विजन्मा (पक्षी) तथा पौधों एवं शाकों का भी वर्णन करें। कृपया उनकी पीढ़ियों तथा उपविभाजनों का भी वर्णन करें।

28 कृपया प्रकृति के गुणावतारों – ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश – का भी वर्णन करें। कृपया पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के अवतार तथा उनके उदार कार्यकलापों का भी वर्णन करें।

29 हे महर्षि, कृपया मानव समाज के वर्णों तथा आश्रमों के विभाजनों का वर्णन उनके लक्षणों, स्वभाव तथा मानसिक संतुलन एवं इन्द्रिय नियंत्रण – के स्वरूपों के अनुसार करें। कृपया महर्षियों के जन्म तथा वेदों के कोटि-विभाजनों का भी वर्णन करें।

30 कृपया विभिन्न यज्ञों के विस्तारों तथा योग शक्तियों के मार्गों, ज्ञान के वैश्लेषिक अध्ययन (सांख्य) तथा भक्ति-मय सेवा का उनके विधि-विधानों सहित वर्णन करें।

31 कृपया श्रद्धाविहीन नास्तिकों की अपूर्णताओं तथा विरोधों का, वर्णसंकरों की स्थिति तथा विभिन्न जीवों के प्राकृतिक गुणों तथा कर्म के अनुसार विभिन्न जीव-योनियों की गतिविधियों का भी वर्णन करें।

32 आप धर्म, आर्थिक विकास, इन्द्रियतृप्ति तथा मोक्ष के परस्पर विरोधी कारणों का और उसी के साथ जीविका के विभिन्न साधनों, विधि की विभिन्न विधियों तथा शास्त्रों में उल्लिखित व्यवस्था का भी वर्णन करें।

33 कृपया करके पूर्वजों के श्राद्ध के विधि-विधानों, पितृलोक की सृष्टि, ग्रहों, नक्षत्रों तथा तारकों के काल-विधान तथा उनकी अपनी-अपनी स्थितियों के विषय में भी बतलाएँ।

34 कृपया दान तथा तपस्या का एवं जलाशय खुदवाने के सकाम फलों का भी वर्णन करें। कृपया घर से दूर रहने वालों की स्थिति का तथा आपद्ग्रस्त मनुष्य के कर्तव्य का भी वर्णन करें।

35 हे निष्पाप पुरुष, चूँकि समस्त जीवों के नियन्ता भगवान – समस्त धर्मों के तथा धार्मिक कर्म करने वाले समस्त लोगों के पिता हैं, अतएव कृपा करके इसका वर्णन कीजिये कि उन्हें किस प्रकार पूरी तरह से तुष्ट किया जा सकता है।

36 हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, जो गुरुजन हैं, वे दीनों पर अत्यन्त कृपालु रहते हैं। वे अपने अनुयायियों, शिष्यों तथा पुत्रों के प्रति सदैव कृपालु होते हैं और उनके द्वारा बिना पूछे ही सारा ज्ञान प्रदान करते हैं।

37 कृपया इसका वर्णन करें कि भौतिक प्रकृति के तत्त्वों का कितनी बार प्रलय होता है और इन प्रलयों के बाद जब भगवान सोये रहते हैं उनकी सेवा करने के लिए कौन जीवित रहता है?

38 जीवों तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के विषय में क्या क्या सच्चाईयाँ हैं? उनके स्वरूप क्या क्या हैं? वेदों में ज्ञान के क्या विशिष्ट मूल्य हैं और गुरु तथा उसके शिष्यों की अनिवार्यताएँ क्या हैं?

39 भगवान के निष्कलुष भक्तों ने ऐसे ज्ञान के स्रोत का उल्लेख किया है। ऐसे भक्तों की सहायता के बिना कोई व्यक्ति भला किस तरह भक्ति तथा वैराग्य के ज्ञान को पा सकता है?

40 हे मुनि, मैंने आपके समक्ष इन सारे प्रश्नों को अर्थात पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हरि की लीलाओं को जानने के उद्देश्य से ही रखा है। आप सबों के मित्र हैं, अतएव कृपा करके उन सबों के लाभार्थ जिनकी दृष्टि नष्ट हो चुकी है उनका वर्णन करें।

41 हे अनघ, इन सारे प्रश्नों के आपके द्वारा दिए जाने वाले उत्तर समस्त भौतिक कष्टों से मुक्ति दिला सकेंगे। ऐसा दान समस्त वैदिक दानों, यज्ञों, तपस्याओं इत्यादि से बढ़कर है।

42 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह वे मुनियों में – प्रधान, जो भगवान विषयक कथाओं का वर्णन करने के लिए सदैव उत्साहित रहते थे, विदुर द्वारा इस तरह प्रेरित किये जाने पर पुराणों की विवरणात्मक व्याख्या का बखान करने लगे। वे भगवान के दिव्य कार्यकलापों के विषय में बोलने के लिए अत्यधिक उत्साहित थे।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

 

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अध्याय छह विश्वरूप की सृष्टि (3.6)

1 मैत्रेय ऋषि ने कहा : इस तरह भगवान ने महत-तत्त्व जैसी अपनी शक्तियों के संयोग न होने के कारण विश्व के प्रगतिशील सृजनात्मक कार्यकलापों के निलम्बन के विषय में सुना।

2 तब परम शक्तिशाली भगवान ने अपनी बहिरंगा शक्ति, देवी काली सहित तेईस तत्त्वों के भीतर प्रवेश किया, क्योंकि वे ही विभिन्न प्रकार के तत्त्वों को सम्मेलित करती हैं।

3 इस तरह जब भगवान अपनी शक्ति से तत्त्वों के भीतर प्रविष्ट हो गए तो सारे जीव प्रबुद्ध होकर विभिन्न कार्यों में उसी तरह लग गये जिस तरह कोई व्यक्ति निद्रा से जागकर अपने कार्य में लग जाता है।

4 जब परम पुरुष की इच्छा से तेईस प्रमुख तत्त्वों को सक्रिय बना दिया गया तो भगवान का विराट विश्वरूप शरीर प्रकट हुआ।

5 ज्योंही भगवान ने अपने स्वांश रूप में विश्व के सारे तत्त्वों में प्रवेश किया, त्योंही वे विराट रूप में रूपान्तरित हो गये जिसमें सारे लोक और समस्त जड़ तथा चेतन सृष्टियाँ टिकी हुई हैं।

6 विराट पुरुष जो हिरण्मय कहलाता है, ब्रह्माण्ड के जल में एक हजार दैवी वर्षों तक रहता रहा और सारे जीव उसके साथ शयन करते रहे।

7 विराट रूप में महत तत्त्व की समग्र शक्ति ने स्वतः अपने को जीवों की चेतना, जीवन की क्रियाशीलता तथा आत्म-पहचान के रूप में विभाजित कर लिया जो एक, दस तथा तीन में क्रमशः उपविभाजित हो गए हैं।

8 भगवान का विश्वरूप प्रथम अवतार तथा परमात्मा का स्वांश होता है। वे असंख्य जीवों के आत्मा हैं और उनमें समुच्चित सृष्टि (भूतग्राम) टिकी रहती है, जो इस तरह फलती-फूलती है।

9 विश्वरूप तीन, दस तथा एक के द्वारा इस अर्थ में प्रस्तुत होता है कि वे (भगवान) शरीर तथा मन और इन्द्रियाँ हैं। वे ही दस प्रकार की जीवन शक्ति द्वारा समस्त गतियों की गत्यात्मक शक्ति हैं और वे ही एक हृदय हैं जहाँ जीवन-शक्ति सृजित होती है।

10 परम प्रभु इस विराट जगत की रचना का कार्यभार सँभालने वाले समस्त देवताओं के परमात्मा हैं। इस तरह (देवताओं द्वारा) प्रार्थना किये जाने पर उन्होंने मन में विचार किया और तब उनको समझाने के लिए अपना विराट रूप प्रकट किया।

11 मैत्रेय ने कहा: अब तुम मुझसे यह सुनो कि परमेश्वर ने अपना विराट रूप प्रकट करने के बाद किस तरह से अपने को देवताओं के विविध रूपों में विलग किया।

12 उनके मुख से अग्नि अथवा ऊष्मा विलग हो गई और भौतिक कार्य सँभालने वाले सारे निदेशक अपने-अपने पदों के अनुसार इसमें प्रविष्ट हो गये। जीव उसी शक्ति से शब्दों के द्वारा अपने को अभिव्यक्त करता है।

13 जब विराट रूप का तालू पृथक प्रकट हुआ तो लोकों में वायु का निदेशक वरुण उसमें प्रविष्ट हुआ जिससे जीव को अपनी जीभ से हर वस्तु का स्वाद लेने की सुविधा प्राप्त है।

14 जब भगवान के दो नथुने पृथक प्रकट हुए तो दोनों अश्विनीकुमार उनके भीतर अपने-अपने पदों पर प्रवेश कर गये। इसके फलस्वरूप जीव हर वस्तु की गन्ध सूँघ सकते हैं।

15 तत्पश्चात भगवान के विराट रूप की दो आँखें पृथक हो गई। प्रकाश का निदेशक सूर्य दृष्टि के आंशिक प्रतिनिधित्व के साथ उनमें प्रविष्ट हुआ जिससे जीव रूपों को देख सकते हैं।

16 जब विराट रूप से त्वचा पृथक हुई तो वायु का निदेशक देव अनिल आंशिक स्पर्श से प्रविष्ट हुआ जिससे जीव स्पर्श का अनुभव कर सकते हैं।

17 जब विराट रूप के कान प्रकट हुए तो सभी दिशाओं के नियंत्रक देव श्रवण तत्त्वों समेत उनमें प्रविष्ट हो गये जिससे सारे जीव सुनते हैं और ध्वनि का लाभ उठाते हैं।

18 जब चमड़ी की पृथक अभिव्यक्ति हुई तो अपने विविध अंशों समेत संस्पर्श नियंत्रक देव उसमें प्रविष्ट हो गये। इस तरह जीवों को स्पर्श के कारण खुजलाहट तथा प्रसन्नता का अनुभव होता है।

19 जब विराट रूप के जननांग पृथक हो गये तो आदि प्राणी प्रजापति अपने आंशिक तेज समेत उनमें प्रविष्ट हो गये और इस तरह जीव यौन आनन्द का अनुभव कर सकते हैं।

20 फिर विसर्जन मार्ग पृथक हुआ और मित्र नामक निदेशक विसर्जन के आंशिक अंगों समेत उसमें प्रविष्ट हो गया। इस प्रकार जीव अपना मल-मूत्र विसर्जित करने में सक्षम हैं।

21 तत्पश्चात जब विराट रूप के हाथ पृथक हुए तो स्वर्गलोक का शासक इन्द्र उनमें प्रविष्ट हुआ और इस तरह से जीव अपनी जीविका हेतु व्यापार चलाने में समर्थ हैं।

22 तत्पश्चात विराट रूप के पाँव पृथक रुप से प्रकट हुए और विष्णु नामक देवता (भगवान नहीं) ने उनमें आंशिक गति के साथ प्रवेश किया। इससे जीव को अपने गन्तव्य तक जाने में सहायता मिलती है।

23 जब विराट रूप की बुद्धि पृथक रूप से प्रकट हुई तो वेदों के स्वामी ब्रह्मा बुद्धि की आंशिक शक्ति के साथ उसमें प्रविष्ट हुए और इस तरह जीवों द्वारा बुद्धि के ध्येय का अनुभव किया जाता है।

24 इसके बाद विराट रूप का हृदय पृथक रूप से प्रकट हुआ और इसमें चन्द्र देवता अपनी आंशिक मानसिक क्रिया समेत प्रवेश कर गया। इस तरह जीव मानसिक चिन्तन कर सकता है।

25 तत्पश्चात विराट रूप का भौतिकतावादी अहंकार पृथक से प्रकट हुआ और इसमें मिथ्या अहंकार के नियंत्रक रुद्र ने अपनी निजी आंशिक क्रियाओं समेत प्रवेश किया जिससे जीव अपना लक्षित कर्तव्य पूरा करता है।

26 तत्पश्चात जब विराट रूप से उसकी चेतना पृथक होकर प्रकट हुई तो समग्र शक्ति अर्थात महततत्त्व अपने चेतन अंश समेत प्रविष्ट हुआ। इस तरह जीव विशिष्ट ज्ञान को अवधारण करने में समर्थ होता है।

27 तत्पश्चात विराट रूप के सिर से स्वर्गलोक, उसके पैरों से पृथ्वीलोक तथा उसकी नाभि से आकाश पृथक-पृथक प्रकट हुए। इनके भीतर भौतिक प्रकृति के तीन गुणों के रूप में देवता इत्यादि भी प्रकट हुए।

28 देवतागण, अति उत्तम गुण, सतोगुण के द्वारा योग्य बनकर, स्वर्गलोक में अवस्थित रहते हैं, जबकि मनुष्य अपने रजोगुणी स्वभाव के कारण अपने अधीनस्थों की संगति में पृथ्वी पर रहते हैं।

29 जो जीव रुद्र के संगी हैं, वे प्रकृति के तीसरे गुण अर्थात तमोगुण में विकास करते हैं। वे पृथ्वीलोकों तथा स्वर्गलोकों के बीच आकाश में स्थित होते हैं।

30 हे कुरुवंश के प्रधान, विराट अर्थात विश्वरूप के मुख से वैदिक ज्ञान प्रकट हुआ। जो लोग इस वैदिक ज्ञान के प्रति उन्मुख होते हैं, वे ब्राह्मण कहलाते हैं और वे समाज के सभी वर्णों के स्वाभाविक शिक्षक तथा गुरु हैं।

31 तत्पश्चात विराट रूप की बाहुओं से संरक्षण शक्ति उत्पन्न हुई और ऐसी शक्ति के प्रसंग में समाज का चोर-उचक्कों के उत्पातों से रक्षा करने के सिद्धान्त का पालन करने से क्षत्रिय भी अस्तित्व में आए।

32 समस्त पुरुषों की जीविका का साधन, अर्थात अन्न का उत्पादन तथा समस्त प्रजा में उसका वितरण भगवान के विराट रूप की जाँघों से उत्पन्न किया गया। वे व्यापारी जन जो ऐसे कार्य को सँभालते हैं वैश्य कहलाते हैं।

33 तत्पश्चात धार्मिक कार्य पूरा करने के लिए भगवान के पैरों से सेवा प्रकट हुई। पैरों पर शूद्र स्थित होते हैं, जो सेवा द्वारा भगवान को तुष्ट करते हैं।

34 ये भिन्न-भिन्न समस्त सामाजिक विभाग, अपने-अपने वृत्तिपरक कर्तव्यों तथा जीवन परिस्थितियों के साथ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान से उत्पन्न होते हैं। इस तरह अबद्धजीवन तथा आत्म-साक्षात्कार के लिए मनुष्य को गुरु के निर्देशानुसार परम प्रभु की पूजा करनी होती है।

35 हे विदुर, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की अन्तरंगा शक्ति द्वारा प्रकट किये गये विराट रूप के दिव्य काल, कर्म तथा शक्ति को भला कौन माप सकता है या उसका आकलन कर सकता है ?

36 अपनी असमर्थता के बावजूद मैं (अपने गुरु से) जो कुछ सुन सका हूँ तथा जितना आत्मसात कर सका हूँ उसे अब शुद्ध वाणी द्वारा भगवान की महिमा के वर्णन में लगा रहा हूँ, अन्यथा मेरी वाकशक्ति अपवित्र बनी रहेगी।

37 मानवता का सर्वोच्च सिद्धिप्रद लाभ पवित्रकर्ता के कार्यकलापों तथा महिमा की चर्चा में प्रवृत्त होना है। ऐसे कार्यकलाप महान विद्वान ऋषियों द्वारा इतनी सुन्दरता से लिपिबद्ध हुए हैं कि कान का असली प्रयोजन उनके निकट रहने से ही पूरा हो जाता है।

38 हे पुत्र, आदि कवि ब्रह्मा एक हजार दैवी वर्षों तक परिपक्व ध्यान के बाद केवल इतना जान पाये कि भगवान की महिमा अचिंत्य है।

39 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की आश्चर्यजनक शक्ति जादूगरों को भी मोहग्रस्त करने वाली है। यह निहित शक्ति आत्माराम भगवान तक को अज्ञात है। अतः अन्यों के लिए यह निश्चय ही अज्ञात है।

40 अपने-अपने नियंत्रक देवों सहित शब्द, मन तथा अहंकार पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को जानने में असफल रहे हैं। अतएव हमें विवेकपूर्वक उन्हें सादर नमस्कार करना होता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भगवान कृष्ण – भक्त के हृदय में से अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करने का भार अपने ऊपर ले लेते हैं।   (भगवद्गीता 10.10)   (तात्पर्य भागवतम 3.5.40) ~श्रील प्रभुपाद~

अध्याय पाँच मैत्रेय से विदुर की वार्ता (3.5)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह कुरुवंशियों में सर्वश्रेष्ठ विदुर, जो भगवद्भक्ति में परिपूर्ण थे, स्वर्ग लोक की नदी गंगा के उद्गम (हरद्वार) पहुँचे जहाँ विश्व के अगाध विद्वान महामुनि मैत्रेय आसीन थे। भद्रता (सुशीलता) से पूर्ण तथा अध्यात्म में तुष्ट विदुर ने उनसे पूछा।

2 विदुर ने कहा: हे महर्षि, इस संसार का हर व्यक्ति सुख प्राप्त करने के लिए सकाम कर्मों में प्रवृत्त होता है,किन्तु उसे न तो तृप्ति मिलती है न ही उसके दुख में कोई कमी आती है। विपरीत इसके ऐसे कार्यों से उसके दुख में वृद्धि होती है। इसलिए कृपा करके इसके विषय में हमारा मार्गदर्शन करें कि असली सुख के लिए कोई कैसे रहे?

3 हे प्रभु, महान परोपकारी आत्माएँ पूर्ण पुरषोत्तम भगवान की ओर से पृथ्वी पर उन पतित आत्माओं पर अनुकम्पा दिखाने के लिए विचरण करती है, जो भगवान की अधीनता के विचार मात्र से ही विमुख रहते हैं।

4 इसलिए हे महर्षि, आप मुझे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की दिव्य भक्ति के विषय में उपदेश दें जिससे हर एक के हृदय में स्थित भगवान भीतर से परम सत्य विषयक वह ज्ञान प्रदान करने के लिए प्रसन्न हों जो कि प्राचीन वैदिक सिद्धान्तों के रूप में उन लोगों को ही प्रदान किया जाता है, जो भक्तियोग द्वारा शुद्ध हो चुके हैं।

5 हे महर्षि कृपा करके बतलाएँ कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान जो तीनों लोकों के इच्छारहित स्वतंत्र स्वामी तथा समस्त शक्तियों के नियन्ता हैं, किस तरह अवतारों को स्वीकार करते हैं और किस तरह विराट जगत को उत्पन्न करते हैं, जिसके परिपालन के लिए नियामक सिद्धान्त पूर्ण रुप से व्यवस्थित हैं।

6 वे आकाश के रूप में फैले अपने ही हृदय में लेट जाते हैं और उस आकाश में सम्पूर्ण सृष्टि को रखकर वे अपना विस्तार अनेक जीवों में करते हैं, जो विभिन्न योनियों के रूप में प्रकट होते हैं। उन्हें अपने निर्वाह के लिए कोई प्रयास नहीं करना पड़ता क्योंकि वे समस्त यौगिक शक्तियों के स्वामी और प्रत्येक वस्तु के मालिक हैं। इस प्रकार वे जीवों से भिन्न है।

7 आप द्विजों, गौवों तथा देवताओं के कल्याण हेतु भगवान के विभिन्न अवतारों के शुभ लक्षणों के विषय में भी वर्णन करें। यद्यपि हम निरन्तर उनके दिव्य कार्यकलापों के विषय में सुनते हैं, किन्तु हमारे मन कभी भी पूर्णतया तुष्ट नहीं हो पाते।

8 समस्त राजाओं के परम राजा ने विभिन्न लोकों की तथा आवास स्थलों की सृष्टि की जहाँ प्रकृति के गुणों और कर्म के अनुसार सारे जीव स्थित है और उन्होंने उनके विभिन्न राजाओं तथा शासकों का भी सृजन किया।

9 हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, आप यह भी बतलाएँ कि ब्रह्माण्ड के स्रष्टा तथा आत्मनिर्भर प्रभु नारायण ने किस तरह विभिन्न जीवों के स्वभावों, कार्यों, रूपों, लक्षणों तथा नामों की पृथक-पृथक रचना की है।

10 हे प्रभु, मैं व्यासदेव के मुख से मानव समाज के इन उच्चतर तथा निम्नतर पदों के विषय में बारम्बार सुन चुका हूँ और मैं इन कम महत्व वाले विषयों तथा उनके सुखों से पूर्णतया तृप्त हूँ। पर वे विषय बिना कृष्ण विषयक कथाओं के अमृत से मुझे तुष्ट नहीं कर सके।

11 जिनके चरणकमल समस्त तीर्थों के सार रूप हैं तथा जिनकी आराधना महर्षियों तथा भक्तों द्वारा की जाती है, ऐसे भगवान के विषय में पर्याप्त श्रवण किये बिना मानव समाज में ऐसा कौन होगा जो तुष्ट होता हो? मनुष्य के कानों के छेदों में ऐसी कथाएँ प्रविष्ट होकर उसके पारिवारिक मोह के बन्धन को काट देती हैं।

12 आपके मित्र महर्षि कृष्णद्वैपायन व्यास पहले ही अपने महान ग्रन्थ महाभारत में भगवान के दिव्य गुणों का वर्णन कर चुके हैं। किन्तु इसका सारा उद्देश्य सामान्य जन का ध्यान लौकिक कथाओं को सुनने के प्रति उनके प्रबल आकर्षण के माध्यम से कृष्णकथा (भगवद्गीता) की ओर आकृष्ट करना है।

13 जो व्यक्ति ऐसी कथाओं का निरन्तर श्रवण करते रहने के लिए आतुर रहता है, उसके लिए कृष्णकथा क्रमशः अन्य सभी बातों के प्रति उसकी उदासीनता को बढ़ा देती है। वह भक्त जिसने दिव्य आनन्द प्राप्त कर लिया हो उसके द्वारा भगवान के चरणकमलों का ऐसा निरन्तर स्मरण तुरन्त ही उसके सारे कष्टों को दूर कर देता है।

14 हे मुनि, जो व्यक्ति अपने पाप कर्मों के कारण दिव्य कथा-प्रसंगों से विमुख रहते हैं और फलस्वरूप महाभारत (भगवद्गीता) के उद्देश्य से वंचित रह जाते हैं, वे दयनीय द्वारा भी दया के पात्र होते हैं। मुझे भी उन पर तरस आती है, क्योंकि मैं देख रहा हूँ कि किस तरह नित्यकाल द्वारा उनकी आयु नष्ट की जा रही है। वे दार्शनिक चिन्तन, जीवन के सैद्धान्तिक चरम लक्ष्यों तथा विभिन कर्मकाण्डों की विधियों को प्रस्तुत करने में स्वयं को लगाये रहते हैं।

15 हे मैत्रेय, हे दुखियारों के मित्र, एकमात्र भगवान की महिमा सारे जगत के लोगों का कल्याण करने वाली है। अतएव जिस तरह मधुमक्खियाँ फूलों से मधु एकत्र करती हैं, उसी तरह कृपया समस्त कथाओं के सार-कृष्णकथा-का वर्णन कीजिये ।

16 कृपया उन परम नियन्ता भगवान के समस्त अतिमानवीय दिव्य कर्मों का कीर्तन करें जिन्होंने विराट सृष्टि के प्राकट्य तथा पालन के लिए समस्त शक्ति से समन्वित होकर अवतार लेना स्वीकार किया।

17 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: विदुर का अत्यधिक सम्मान करने के बाद विदुर के अनुरोध पर समस्त लोगों के महानतम कल्याण हेतु महर्षि मैत्रेय मुनि बोले।

18 श्रीमैत्रेय ने कहा: हे विदुर, तुम्हारी जय हो। तुमने मुझसे सबसे अच्छी बात पूछी है। इस तरह तुमने संसार पर तथा मुझ पर अपनी कृपा प्रदर्शित की है, क्योंकि तुम्हारा मन सदैव ब्रह्म के विचारों में लीन रहता है।

19 हे विदुर, यह तनिक भी आश्चर्यप्रद नहीं है कि तुमने अनन्य भाव से भगवान को इस तरह स्वीकार कर लिया है, क्योंकि तुम व्यासदेव से उत्पन्न हो।

20 मैं जानता हूँ कि तुम माण्डव्य मुनि के शाप के कारण विदुर बने हो और इसके पूर्व तुम जीवों की मृत्यु के पश्चात उनके महान नियंत्रक राजा यमराज थे। तुम सत्यवती के पुत्र व्यासदेव द्वारा उनके भाई की दासी से उत्पन्न हुए थे।

21 आप भगवान के नित्य संगियों में से एक हैं जिनके लिए भगवान अपने धाम वापस जाते समय मेरे पास उपदेश छोड़ गए हैं।

22 अतएव मैं आपसे उन लीलाओं का वर्णन करूँगा जिनके द्वारा भगवान विराट जगत के क्रमबद्ध सृजन भरण-पोषण तथा संहार के लिए अपनी दिव्य शक्ति का विस्तार करते हैं।

23 समस्त जीवों के स्वामी, भगवान सृष्टि के पूर्व अद्वय रूप में विद्यमान थे। केवल उनकी इच्छा से ही यह सृष्टि सम्भव होती है और सारी वस्तुएँ पुनः उनमें लीन हो जाती हैं। इस परम पुरुष को विभिन्न नामों से उपलक्षित किया जाता है।

24 हर वस्तु के निर्विवाद स्वामी भगवान ही एकमात्र दृष्टा थे। उस समय विराट जगत का अस्तित्व न था, अतः अपने स्वांशों तथा भिन्नाशों के बिना वे अपने को अपूर्ण अनुभव कर रहे थे। तब भौतिक शक्ति सुसुप्त थी जबकि अन्तरंगा शक्ति व्यक्त थी।

25 भगवान दृष्टा हैं और बहिरंगा शक्ति, जो दृष्टिगोचर है, विराट जगत में कार्य तथा कारण दोनों रूप में कार्य करती है। हे महाभाग विदुर, यह बहिरंगा शक्ति माया कहलाती है और केवल इसी माध्यम से सम्पूर्ण भौतिक जगत सम्भव होता है।

26 अपने स्वांश दिव्य पुरुष अवतार के रूप में परम पुरुष प्रकृति के तीन गुणों में बीज संस्थापित करता है और इस तरह नित्य काल के प्रभाव से सारे जीव प्रकट होते हैं।

27 तत्पश्चात नित्यकाल की अन्तःक्रियाओं से प्रभावित पदार्थ का परम सार, जो कि महत तत्त्व कहलाता है, प्रकट हुआ और इस महत तत्त्व में शुद्ध सत्त्व अर्थात भगवान ने अपने शरीर से ब्रह्माण्ड अभिव्यक्ति के बीज बोये।

28 तत्पश्चात महत तत्त्व अनेक भिन्न-भिन्न भावी जीवों के आगार रूपों में विभेदित हो गया। यह महत तत्त्व मुख्यतया तमोगुणी होता है और यह मिथ्या अहंकार को जन्म देता है। यह भगवान का स्वांश है, जो सृजनात्मक सिद्धान्तों की पूर्ण चेतना तथा फलनकाल से युक्त होता है।

29 महत तत्त्व या महान कारण रूप सत्य मिथ्या अहंकार में परिणत होता है, जो तीन अवस्थाओं में -- कारण, कार्य तथा कर्ता के रूप में प्रकट होता है। ऐसे सारे कार्य मानसिक धरातल पर होते हैं और वे भौतिक तत्त्वों, स्थूल इन्द्रियों तथा मानसिक चिन्तन पर आधारित होते हैं। मिथ्या अहंकार तीन विभिन्न गुणों-सतो, रजो तथा तमो में प्रदर्शित होता है।

30 मिथ्या अहंकार सतोगुण से अन्तःक्रिया करके मन में रूपान्तरित हो जाता है। सारे देवता भी जो घटनाप्रधान जगत को नियंत्रित करते हैं, उसी सिद्धान्त (तत्त्व), अर्थात मिथ्या अहंकार तथा सतोगुण की अन्तःक्रिया के परिणाम है।

31 इन्द्रियाँ निश्चय ही मिथ्या अहंकारजन्य रजोगुण की परिणाम है, अतएव दार्शनिक चिन्तनपरक ज्ञान तथा सकाम कर्म रजोगुण के प्रधान उत्पाद हैं।

32 आकाश ध्वनि का परिणाम है और ध्वनि अहंकारात्मक काम का रूपान्तर (विकार) है। दूसरे शब्दों में आकाश परमात्मा का प्रतिकात्मक प्रतिनिधित्व है।

33 तत्पश्चात भगवान ने आकाश पर नित्यकाल तथा बहिरंगा शक्ति से अंशतः मिश्रित दृष्टिपात किया और इस तरह स्पर्श की अनुभूति विकसित हुई जिससे आकाश में वायु उत्पन्न हुई।

34 तत्पश्चात अतीव शक्तिशाली वायु ने आकाश से अन्तःक्रिया करके इन्द्रिय अनुभूति (तन्मात्रा) का रूप उत्पन्न किया और रूप की अनुभूति बिजली में रूपान्तरित हो गई जो संसार को देखने के लिए प्रकाश है।

35 जब वायु में बिजली की क्रिया हुई और उस पर ब्रह्म ने दृष्टिपात किया उस समय नित्यकाल तथा बहिरंगा शक्ति के मिश्रण से जल तथा स्वाद की उत्पत्ति हुई।

36 तत्पश्चात बिजली से उत्पन्न जल पर भगवान ने दृष्टिपात किया और फिर उसमें नित्यकाल तथा बहिरंगा शक्ति का मिश्रण हुआ। इस तरह वह पृथ्वी में रूपान्तरित हुआ जो मुख्यतः गन्ध के गुण से युक्त है।

37 हे भद्र पुरुष, आकाश से लेकर पृथ्वी तक के सारे भौतिक तत्त्वों में जितने सारे निम्न तथा श्रेष्ठ गुण पाये जाते हैं, वे भगवान के दृष्टिपात के अन्तिम स्पर्श के कारण होते हैं।

38 उपर्युक्त समस्त भौतिक तत्त्वों के नियंत्रक देव भगवान विष्णु के शक्त्याविष्ट अंश हैं। वे बहिरंगा शक्ति के अन्तर्गत नित्यकाल द्वारा देह धारण करते हैं और वे भगवान के अंश हैं। चूँकि उन्हें ब्रह्माण्डीय दायित्वों के विभिन्न कार्य सौंपे गये थे और चूँकि वे उन्हें सम्पन्न करने में असमर्थ थे, अतएव उन्होंने भगवान की मनोहारी स्तुतियाँ निम्नलिखित प्रकार से कीं।

39 देवताओं ने कहा: हे प्रभु, आपके चरणकमल शरणागतों के लिए छाते के समान हैं, जो संसार के समस्त कष्टों से उनकी रक्षा करते हैं। सारे मुनिगण उस आश्रय के अन्तर्गत समस्त कष्टों को निकाल फेंकते हैं। अतएव हम आपके चरणकमलों को सादर नमस्कार करते हैं।

40 हे पिता, हे प्रभु, हे भगवान, इस भौतिक संसार में जीवों को कभी कोई सुख प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि वे तीन प्रकार के कष्टों से अभिभूत रहते हैं। अतएव वे आपके उन चरणकमलों की छाया की शरण ग्रहण करते हैं, जो ज्ञान से पूर्ण है और इसलिए हम भी उन्हीं की शरण लेते हैं।

41 भगवान के चरणकमल स्वयं ही समस्त तीर्थस्थलों के आश्रय हैं। निर्मल मनवाले महर्षिगण वेदों रूपी पंखों के सहारे उड़कर सदैव आपके कमल सदृश मुख रूपी घोंसले की खोज करते हैं। उनमें से कुछ सर्वश्रेष्ठ नदी (गंगा) में शरण लेकर पद-पद पर आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करते हैं, जो सारे पापफलों से मनुष्य का उद्धार कर सकते हैं।

42 आपके चरणकमलों के विषय में केवल उत्सुकता तथा भक्तिपूर्वक श्रवण करने से तथा उनके विषय में हृदय में ध्यान करने से मनुष्य तुरन्त ही ज्ञान से प्रकाशित और वैराग्य के बल पर शान्त हो जाता है। अतएव हमें आपके चरणकमल रूपी पुण्यालय की शरण ग्रहण करनी चाहिए।

43 हे प्रभु, आप विराट जगत के सृजन, पालन तथा संहार के लिए अवतरित होते हैं इसलिए हम सभी आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करते हैं, क्योंकि ये चरण आपके भक्तों को सदैव स्मृति तथा साहस प्रदान करने वाले हैं।

44 हे प्रभु, जो लोग नश्वर शरीर तथा बन्धु-बान्धवों के प्रति अवांछित उत्सुकता के द्वारा पाशबद्ध हैं और जो लोग "मेरा" तथा "मैं" के विचारों से बँधे हुए हैं, वे आपके चरणकमलों का दर्शन नहीं कर पाते यद्यपि आपके चरणकमल उनके अपने ही शरीरों में स्थित होते हैं। किन्तु हम आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करें।

45 हे महान परमेश्वर, वे अपराधी व्यक्ति, जिनकी अन्त:दृष्टि बाह्य भौतिकतावादी कार्यकलापों से अत्यधिक प्रभावित हो चुकी होती है वे आपके चरणकमलों का दर्शन नहीं कर सकते, किन्तु आपके शुद्ध भक्त दर्शन कर पाते हैं, क्योंकि उनका एकमात्र उद्देश्य आपके कार्यकलापों का दिव्य भाव से आस्वादन करना है ।

46 हे प्रभु, जो लोग अपनी गम्भीर मनोवृत्ति के कारण प्रबुद्ध भक्ति-मय सेवा की अवस्था प्राप्त करते हैं, वे वैराग्य तथा ज्ञान के सम्पूर्ण अर्थ को समझ लेते हैं और आपकी कथाओं के अमृत को पीकर ही आध्यात्मिक आकाश में वैकुण्ठलोक को प्राप्त करते हैं।

47 अन्य लोग भी जो कि दिव्य आत्म-साक्षात्कार द्वारा शान्त हो जाते हैं तथा जिन्होंने प्रबल शक्ति एवं ज्ञान के द्वारा प्रकृति के गुणों पर विजय पा ली है, आप में प्रवेश करते हैं, किन्तु उन्हें काफी कष्ट उठाना पड़ता है, जबकि भक्त केवल भक्ति-मय सेवा सम्पन्न करता है और उसे ऐसा कोई कष्ट नहीं होता।

48 हे आदि पुरुष, इसलिए हम एकमात्र आपके हैं। यद्यपि हम आपके द्वारा उत्पन्न प्राणी हैं, किन्तु हम प्रकृति के तीन गुणों के प्रभाव के अन्तर्गत एक के बाद एक जन्म लेते हैं, इसीलिए हम अपने कर्म में पृथक-पृथक होते हैं। अतएव सृष्टि के बाद हम आपके दिव्य आनन्द के हेतु सम्मिलित रूप में कार्य नहीं कर सके।

49 हे अजन्मा, आप हमें वे मार्ग तथा साधन बतायें जिनके द्वारा हम आपको समस्त भोग्य अन्न तथा वस्तुएँ अर्पित कर सकें जिससे हम तथा इस जगत के अन्य समस्त जीव बिना किसी उत्पात के अपना पालन-पोषण कर सकें तथा आपके लिए और अपने लिए आवश्यक वस्तुओं का संग्रह कर सकें।

50 आप समस्त देवताओं तथा उनकी विभिन्न कोटियों के आदि साकार संस्थापक हैं फिर भी आप सबसे प्राचीन हैं और अपरिवर्तित रहते हैं। हे प्रभु, आपका न तो कोई उद्गम है, न ही कोई आपसे श्रेष्ठ है। आपने दृष्टिपात करके बहिरंगा शक्ति को गर्भित किया है, फिर भी आप स्वयं अजन्मा हैं।

51 हे परम प्रभु, महत-तत्त्व से प्रारम्भ में उत्पन्न हुए हम सबों को अपना कृपापूर्ण निर्देश दें कि हम किस तरह से कर्म करें। कृपया हमें अपना पूर्ण ज्ञान तथा शक्ति प्रदान करें जिससे हम परवर्ती सृष्टि के विभिन्न विभागों में आपकी सेवा कर सकें।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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यदुकुल का नाश निकट आया जानकर इस लोक से प्रयाण करते समय भगवान श्रीकृष्ण का उद्धव तथा मैत्रेय को उपदेश।   

3.4.3-13 - श्रील प्रभुपाद-

अध्याय चार विदुर का मैत्रेय के पास जाना (3.4)

1 तत्पश्चात उन सबों ने (वृष्णि तथा भोज वंशियों ने) ब्राह्मणों की अनुमति से प्रसाद का उच्छिष्ट खाया और चावल की बनी मदिरा भी पी। पीने से वे सभी संज्ञाशून्य हो गये और ज्ञान से रहित होकर एक दूसरे को वे मर्मभेदी कर्कश वचन कहने लगे।

2 जिस तरह बाँसों के आपसी घर्षण से विनाश होता है उसी तरह सूर्यास्त के समय नशे के दोषों की अन्तःक्रिया से उनके मन असंतुलित हो गये और उनका विनाश हो गया।

3 भगवान श्रीकृष्ण अपनी अन्तरंगा शक्ति से अपने परिवार का भावी अन्त देखकर सरस्वती नदी के तट पर गये, जल का आचमन किया और एक वृक्ष के नीचे बैठ गये।

4 भगवान उनके कष्टों का विनाश करते हैं, जो उनके शरणागत हैं। अतएव जब उन्होंने अपने परिवार का विनाश करने की इच्छा की तो उन्होंने पहले ही बदरिकाश्रम जाने के लिए मुझसे कह दिया था।

5 हे अरिन्दम (विदुर), (वंश का विनाश करने की) उनकी इच्छा जानते हुए भी मैं उनका अनुसरण करता रहा, क्योंकि अपने स्वामी के चरणकमलों के बिछोह को सह पाना मेरे लिए सम्भव न था।

6 इस तरह उनका पीछा करते हुए मैंने अपने संरक्षक तथा स्वामी (भगवान श्रीकृष्ण) को सरस्वती नदी के तट पर आश्रय लेकर अकेले बैठे और गहन चिन्तन करते देखा, यद्यपि वे देवी लक्ष्मी के आश्रय हैं।

7 भगवान का शरीर श्यामल है, किन्तु वह सच्चिदानन्दमय है और अतीव सुन्दर है। उनके नेत्र सदैव शान्त रहते हैं और वे प्रातःकालीन उदय होते हुए सूर्य के समान लाल हैं। मैं उनके चार हाथों, विभिन्न प्रतीकों तथा पीले रेशमी वस्त्रों से तुरन्त पहचान गया कि वे भगवान हैं।

8 भगवान अपना दाहिना चरण-कमल अपनी बाई जाँघ पर रखे एक छोटे से बरगद वृक्ष का सहारा लिए हुए बैठे थे। यद्यपि उन्होंने सारे घरेलू सुपास (आराम) त्याग दिये थे, तथापि वे उस मुद्रा में पूर्ण रुपेण प्रसन्न दिख रहे थे।

9 उसी समय संसार के अनेक भागों की यात्रा करके महान भगवद्भक्त तथा महर्षि कृष्णद्वैपायन व्यास के मित्र एवं हितैषी मैत्रेय अपनी इच्छा से उस स्थान पर आ पहुँचे।

10 मैत्रेय मुनि उनमें (भगवान में) अत्यधिक अनुरक्त थे और वे अपना कंधा नीचे किये प्रसन्न मुद्रा में सुन रहे थे। मुझे विश्राम करने का समय देकर, भगवान मुसकुराते हुए तथा विशेष चितवन से मुझसे इस प्रकार बोले।

11 हे वसु, मैं तुम्हारे मन के भीतर से वह जानता हूँ, जिसे पाने की तुमने प्राचीन काल में इच्छा की थी जब विश्व के कार्यकलापों का विस्तार करने वाले वसुओं तथा देवताओं ने यज्ञ किये थे। तुमने विषेशरूप से मेरी संगति प्राप्त करने की इच्छा की थी। अन्य लोगों के लिए इसे प्राप्त कर पाना दुर्लभ है, किन्तु मैं तुम्हें यह प्रदान कर रहा हूँ।

12 हे साधु तुम्हारा वर्तमान जीवन अन्तिम तथा सर्वोपरि है, क्योंकि तुम्हें इस जीवन में मेरी चरम कृपा प्राप्त हुई है। अब तुम बद्धजीवों के इस ब्रह्माण्ड को त्याग कर मेरे दिव्य धाम वैकुण्ठ जा सकते हो। तुम्हारी शुद्ध तथा अविचल भक्ति के कारण इस एकान्त स्थान में मेरे पास तुम्हारा आना तुम्हारे लिए महान वरदान है।

13 हे उद्धव, प्राचीन काल में कमल कल्प में, सृष्टि के प्रारम्भ में मैंने अपनी नाभि से उगे हुए कमल पर स्थित ब्रह्मा से अपनी उन दिव्य महिमाओं के विषय में बतलाया था, जिसे बड़े-बड़े मुनि श्रीमदभागवत कहते हैं।

14 उद्धव ने कहा: हे विदुर, जब मैं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान द्वारा इस प्रकार से प्रतिक्षण कृपाभाजन बना हुआ था और उनके द्वारा अतीव स्नेहपूर्वक सम्बोधित किया जा रहा था, तो मेरी वाणी रुक कर आँसुओं के रूप में बह निकली और मेरे शरीर के रोम खड़े हो गये। अपने आँसू पोंछ कर और दोनों हाथ जोड़ कर मैं इस प्रकार बोला।

15 हे प्रभु, जो भक्तगण आपके चरणकमलों की दिव्य प्रेमाभक्ति में लगे हुए हैं उन्हें धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष--इन चार पुरुषार्थों के क्षेत्र में कुछ भी प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं होती। किन्तु हे भूमन, जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है मैंने आपके चरणकमलों की प्रेमाभक्ति में ही अपने को लगाना श्रेयस्कर माना है।

16 हे प्रभु, विद्वान मुनियों की बुद्धि भी विचलित हो उठती है जब वे देखते हैं कि आप समस्त इच्छाओं से मुक्त होते हुए भी सकाम कर्म में लगे रहते हैं; अजन्मा होकर भी जन्म लेते हैं; अजेय काल के नियन्ता होते हुए भी शत्रुभय से पलायन करके दुर्ग में शरण लेते हैं तथा अपनी आत्मा में रमण करते हुए भी आप अनेक स्त्रियों से घिरे रहकर गृहस्थ जीवन का आनन्द लेते हैं।

17 हे प्रभु, आपकी नित्य आत्मा कभी भी काल के प्रभाव से विभाजित नहीं होती और आपके पूर्णज्ञान की कोई सीमा नहीं है। इस तरह आप अपने आप से परामर्श लेने में पर्याप्त सक्षम थे, किन्तु फिर भी आपने परामर्श के लिए मुझे बुलाया मानो आप मोहग्रस्त हो गए हैं, यद्यपि आप कभी मोहग्रस्त नहीं होते। आपका यह कार्य मुझे मोहग्रस्त कर रहा है।

18 हे प्रभु, यदि आप हमें समझ सकने के लिए सक्षम समझते हों तो आप हमें वह दिव्य ज्ञान बतलाएँ जो आपके विषय में प्रकाश डालता हो और जिसे आपने इसके पूर्व ब्रह्माजी को बतलाया है।

19 जब मैंने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान से अपनी यह हार्दिक इच्छा व्यक्त की तो कमलनेत्र भगवान ने मुझे अपनी दिव्य स्थिति के विषय में उपदेश दिया।

20 मैंने अपने आध्यात्मिक गुरु भगवान से आत्मज्ञान के मार्ग का अध्ययन किया है, अतएव उनकी प्रदक्षिणा करके मैं उनके विरह-शोक से पीड़ित होकर इस स्थान पर आया हूँ।

21 हे विदुर, अब मैं उनके दर्शन से मिलने वाले आनन्द के अभाव में पागल हो रहा हूँ और इसे कम करने के लिए ही अब मैं संगति के लिए हिमालय स्थित बदरिकाश्रम जा रहा हूँ जैसा कि उन्होंने मुझे आदेश दिया है।

22 वहाँ बदरिकाश्रम में नर तथा नारायण ऋषियों के रूप में अपने अवतार में भगवान अनादिकाल से समस्त मिलनसार जीवों के कल्याण हेतु महान तपस्या कर रहे हैं।

23 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: उद्धव से अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों के संहार के विषय में सुनकर विद्वान विदुर ने स्वयं के दिव्य ज्ञान के बल पर अपने असह्य शोक को प्रशमित किया।

24 भगवान के प्रमुख तथा अत्यन्त विश्वस्त भक्त उद्धव जब जाने लगे तो विदुर ने स्नेह तथा विश्वास के साथ उनसे प्रश्न किया।

25 विदुर ने कहा: हे उद्धव, चूँकि भगवान विष्णु के सेवक अन्यों की सेवा के लिए विचरण करते हैं, अतः यह उचित ही है आप उस आत्मज्ञान का वर्णन करें जिससे स्वयं भगवान ने आपको प्रबुद्ध किया है।

26 श्री उद्धव ने कहा: आप महान विद्वान ऋषि मैत्रेय से शिक्षा ले सकते हैं, जो पास ही में हैं और जो दिव्य ज्ञान की प्राप्ति के लिए पूजनीय हैं। जब भगवान इस मर्त्यलोक को छोड़ने वाले थे तब उन्होंने मैत्रेय को प्रत्यक्ष रूप से शिक्षा दी थी।

27 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, इस तरह यमुना नदी के तट पर विदुर से (भगवान के) दिव्य नाम, यश, गुण इत्यादि की चर्चा करने के बाद उद्धव अत्यधिक शोक से अभिभूत हो गये। उन्होंने सारी रात एक क्षण की तरह बिताई। तत्पश्चात वे वहाँ से चले गये।

28 राजा ने पूछा: तीनों लोकों के स्वामी श्रीकृष्ण की लीलाओं के अन्त में तथा उन वृष्णि एवं भोज वंशों के सदस्यों के अन्तर्धान होने पर, जो महान सेनानायकों में सर्वश्रेष्ठ थे, अकेले उद्धव क्यों बचे रहे?

29 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया: हे प्रिय राजन, ब्राह्मण का शाप तो केवल एक बहाना था, किन्तु वास्तविक तथ्य तो भगवान की परम इच्छा थी। वे अपने असंख्य पारिवारिक सदस्यों को भेज देने के बाद पृथ्वी के धरातल से अन्तर्धान हो जाना चाहते थे। उन्होंने अपने आप इस तरह सोचा।

30 अब मैं इस लौकिक जगत की दृष्टि से ओझल हो जाऊँगा और मैं समझता हूँ कि मेरे भक्तों में अग्रणी उद्धव ही एकमात्र ऐसा है, जिसे मेरे विषय का ज्ञान प्रत्यक्ष रूप से सौंपा जा सकता है।

31 उद्धव किसी भी तरह मुझसे घटकर नहीं है, क्योंकि वह प्रकृति के गुणों द्वारा कभी भी प्रभावित नहीं हुआ है। अतएव भगवान के विशिष्ट ज्ञान का प्रसार करने के लिए वह इस जगत में रहता रहे।

32 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने राजा को सूचित किया कि इस तरह समस्त वैदिक ज्ञान के स्रोत और तीनों लोकों के गुरु पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान द्वारा उपदेश दिये जाने पर उद्धव बदरिकाश्रम तीर्थस्थल पहुँचे और भगवान को तुष्ट करने के लिए उन्होंने अपने को समाधि में लगा दिया।

33 विदुर ने उद्धव से इस मर्त्यलोक में परमात्मा अर्थात भगवान कृष्ण के आविर्भाव तथा तिरोभाव के विषय में भी सुना जिसे महर्षिगण बड़ी ही लगन से जानना चाहते हैं।

34 भगवान के यशस्वी कर्मों तथा मर्त्यलोक में असाधारण लीलाओं को सम्पन्न करने के लिए उनके द्वारा धारण किए जाने वाले विविध दिव्य रूपों को समझ पाना उनके भक्तों के अतिरिक्त अन्य किसी के लिए अत्यन्त कठिन है और पशुओं के लिए तो वे मानसिक विक्षोभ मात्र हैं।

35 यह सुनकर कि (इस जगत को छोड़ते समय) भगवान कृष्ण ने उनका स्मरण किया था, विदुर प्रेमभाव से अभिभूत होकर जोर-जोर से रो पड़े।

36 यमुना नदी के तट पर कुछ दिन बिताने के बाद स्वरूपसिद्ध आत्मा विदुर गंगा नदी के तट पर पहुँचे जहाँ मैत्रेय मुनि स्थित थे।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

 

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कालयवन द्वारा मथुरा पर आक्रमण  3.3.10 - श्रील प्रभुपाद !

अध्याय तीन – वृन्दावन से बाहर भगवान की लीलाएँ (3.3)

1 श्री उद्धव ने कहा: तत्पश्चात भगवान कृष्ण श्री बलदेव के साथ मथुरा नगरी आये और अपने माता पिता को प्रसन्न करने के लिए जनता के शत्रुओं के अगुवा कंस को उसके सिंहासन से खींच कर अत्यन्त बलपूर्वक भूमि पर घसीटते हुए वध कर दिया।

2 भगवान ने अपने शिक्षक सांदीपनी मुनि से केवल एक बार सुनकर सारे वेदों को उनकी विभिन्न शाखाओं समेत सीखा और गुरुदक्षिणा के रूप में अपने शिक्षक के मृत पुत्र को यमलोक से वापस लाकर दे दिया।

3 राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मिणी के सौन्दर्य तथा सम्पत्ति से आकृष्ट होकर अनेक बड़े-बड़े राजकुमार तथा राजा उससे ब्याह करने के लिए एकत्र हुए। किन्तु भगवान कृष्ण अन्य आशावान अभ्यर्थियों को पछाड़ते हुए उसी तरह उसे उठा ले गये जिस तरह गरुड़ अमृत ले गया था।

4 बिना नथ वाले सात बैलों का दमन करके भगवान ने स्वयंवर की खुली स्पर्धा में राजकुमारी नाग्नजिती का हाथ प्राप्त किया। यद्यपि भगवान विजयी हुए, किन्तु उनके प्रत्याशियों ने राजकुमारी का हाथ चाहा, अतः युद्ध हुआ। अतः शस्त्रों से अच्छी तरह लैस, भगवान ने उन सबों को मार डाला या घायल कर दिया, परन्तु स्वयं उन्हें कोई चोट नहीं आई।

5 अपनी प्रिय पत्नी को प्रसन्न करने के लिए भगवान स्वर्ग से पारिजात वृक्ष ले आये जिस तरह कि एक सामान्य पति करता है। किन्तु स्वर्ग के राजा इन्द्र ने अपनी पत्नियों के उकसाने पर (क्योंकि वह स्त्रीवश था) लड़ने के लिए दलबल सहित भगवान का पीछा किया।

6 धरित्री अर्थात पृथ्वी के पुत्र नरकासुर ने सम्पूर्ण आकाश को निगलना चाहा जिसके कारण युद्ध में वह भगवान द्वारा मार दिया गया। तब उसकी माता ने भगवान से प्रार्थना की। इससे नरकासुर के पुत्र को राज्य लौटा दिया गया और भगवान उस असुर के घर में प्रविष्ट हुए।

7 उस असुर के घर में नरकासुर द्वारा हरण की गई सारी राजकुमारियाँ दुखियारों के मित्र भगवान को देखते ही चौकन्नी हो उठीं। उन्होंने अतीव उत्सुकता, हर्ष तथा लज्जा से भगवान की ओर देखा और अपने को उनकी पत्नियों के रूप में अर्पित कर दिया।

8 वे सभी राजकुमारियाँ अलग-अलग भवनों में रखी गई थीं और भगवान ने एकसाथ प्रत्येक राजकुमारी के लिए उपयुक्तयुग्म के रूप में विभिन्न शारीरिक अंश धारण कर लिये। उन्होंने अपनी अन्तरंगा शक्ति द्वारा विधिवत उनके साथ पाणिग्रहण कर लिया।

9 अपने दिव्य स्वरूपों के अनुसार ही अपना विस्तार करने के लिए भगवान ने उनमें से हर एक से ठीक अपने ही गुणों वाली दस-दस सन्तानें उत्पन्न कीं।

10 कालयवन, मगध के राजा तथा शाल्व ने मथुरा नगरी पर आक्रमण किया, किन्तु जब नगरी उनके सैनिकों से घिर गई तो भगवान ने अपने जनों की शक्ति प्रदर्शित करने के उद्देश्य से उन सबों को स्वयं नहीं मारा।

11 शम्बर, द्विविद, बाण, मुर, बल्वल जैसे राजाओं तथा दन्तवक्र इत्यादि बहुत से असुरों में से कुछ को उन्होंने स्वयं मारा और कुछ को अन्यों के (यथा बलदेव इत्यादि) द्वारा वध करवाया ।

12 तत्पश्चात, हे विदुर, भगवान ने शत्रुओं को तथा लड़ रहे तुम्हारे भतीजों के पक्ष के समस्त राजाओं को कुरुक्षेत्र के युद्ध में मरवा दिया। वे सारे राजा इतने विराट तथा बलवान थे कि जब वे युद्धभूमि में विचरण करते तो पृथ्वी हिलती प्रतीत होती।

13 कर्ण, दु:शासन तथा सौबल की कुमंत्रणा के कपट-योग के कारण दुर्योधन अपनी सम्पत्ति तथा आयु से विहीन हो गया। यद्यपि वह शक्तिशाली था, किन्तु जब वह अपने अनुयायियों समेत भूमि पर लेटा हुआ था और उसकी जाँघें टूटी थीं। भगवान इस दृश्य को देखकर प्रसन्न नहीं थे।

14 [कुरुक्षेत्र युद्ध की समाप्ति पर भगवान ने कहा] अब द्रोण, भीष्म, अर्जुन तथा भीम की सहायता से अठारह अक्षौहिणी सेना का पृथ्वी का भारी बोझ कम हुआ है। किन्तु यह क्या है? अब भी मुझी से उत्पन्न यदुवंश की विशाल शक्ति शेष है, जो और भी अधिक असह्य बोझ बन सकती है।

15 जब वे नशे में चूर होकर, मधु-पान के कारण ताम्बे जैसी लाल-लाल आँखें किये, परस्पर लड़ेंगे-झगड़ेंगे तभी वे विलुप्त होंगे अन्यथा यह सम्भव नहीं है। मेरे अन्तर्धान होने पर यह घटना घटेगी।

16 इस तरह अपने आप सोचते हुए भगवान कृष्ण के पुण्य मार्ग में प्रशासन का आदर्श प्रदर्शित करने के लिए संसार के परम नियन्ता के पद पर महाराज युधिष्ठिर को स्थापित किया।

17 महान वीर अभिमन्यु द्वारा अपनी पत्नी उत्तरा के गर्भ में स्थापित पुरु के वंशज का भ्रूण द्रोण के पुत्र के अस्त्र द्वारा भस्म कर दिया गया था, किन्तु बाद में भगवान ने उसकी पुनः रक्षा की।

18 भगवान ने धर्म के पुत्र महाराज युधिष्ठिर को तीन अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न करने के लिए प्रेरित किया और उन्होंने भगवान कृष्ण का निरन्तर अनुगमन करते हुए अपने छोटे भाइयों की सहायता से पृथ्वी की रक्षा की और उसका भोग किया।

19 उसी के साथ-साथ भगवान ने समाज के वैदिक रीति-रिवाजों का दृढ़ता से पालन करते हुए द्वारकापुरी में जीवन का भोग किया। वे सांख्य दर्शन प्रणाली के द्वारा प्रतिपादित वैराग्य तथा ज्ञान में स्थित थे।

20 वे वहाँ पर लक्ष्मी देवी के निवास, अपने दिव्य शरीर, में सदा की तरह के अपने सौम्य तथा मधुर मुसकान युक्त मुख, अपने अमृतमय वचनों तथा अपने निष्कलंक चरित्र से युक्त रह रहे थे।

21 भगवान ने इस लोक में तथा अन्य लोकों में (उच्च लोकों में), विशेष रूप से यदुवंश की संगति में अपनी लीलाओं का आनन्द लिया। रात्रि में विश्राम के समय उन्होंने अपनी पत्नियों के साथ दाम्पत्य प्रेम की मैत्री का आनन्द लिया।

22 इस तरह भगवान अनेकानेक वर्षों तक गृहस्थ जीवन में लगे रहे, किन्तु अन्त में नश्वर यौन जीवन से उनकी विरक्ति पूर्णतया प्रकट हुई।

23 प्रत्येक जीव एक अलौकिक शक्ति द्वारा नियंत्रित होता है और इस तरह उसका इन्द्रिय भोग भी उसी अलौकिक शक्ति के नियंत्रण में रहता है। इसलिए कृष्ण के दिव्य इन्द्रिय-कार्यकलापों में वही अपनी श्रद्धा टिका सकता है, जो भक्ति-मय सेवा करके भगवान का भक्त बन चुका है।

24 एक बार यदुवंशी तथा भोजवंशी राजकुमारों की क्रीड़ाओं से महामुनिगण क्रुद्ध हो गये तो उन्होंने भगवान की इच्छानुसार उन राजकुमारों को शाप दे दिया।

25 कुछेक महीने बीत गये तब कृष्ण द्वारा विमोहित हुए समस्त वृष्णि, भोज तथा अन्धक वंशी, जो कि देवताओं के अवतार थे, प्रभास गये। किन्तु जो भगवान के नित्य भक्त थे वे द्वारका में ही रहते रहे।

26 वहाँ पहुँचकर उन सबों ने स्नान किया और उस तीर्थ स्थान के जल से पितरों, देवताओं तथा ऋषियों का तर्पण करके उन्हें तुष्ट किया। उन्होंने राजकीय दान में ब्राह्मणों को गौवें दीं।

27 ब्राह्मणों को दान में न केवल सुपोषित गौवें दी गई, अपितु उन्हें सोना, चाँदी, बिस्तर, वस्त्र, पशुचर्म के आसन, कम्बल, घोड़े, हाथी, कन्याएँ तथा आजीविका के लिए पर्याप्त भूमि भी दी गई।

28 तत्पश्चात उन्होंने सर्वप्रथम भगवान को अर्पित किया गया अत्यन्त स्वादिष्ट भोजन उन ब्राह्मणों को भेंट किया और तब अपने सिरों से भूमि का स्पर्श करते हुए उन्हें सादर नमस्कार किया। वे गौवों तथा ब्राह्मणों की रक्षा करते हुए भलीभाँति रहने लगे।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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श्रीकृष्ण तथा श्रीबलराम तालवन में गर्दभ-असुरों का वध करते हैं।   तात्पर्य - श्रीमदभागवतम 3.2.30  श्रील प्रभुपाद !

अध्याय दो – भगवान कृष्ण का स्मरण (3.2)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब विदुर ने महान भक्त उद्धव से प्रियतम (कृष्ण) का सन्देश बतलाने के लिए कहा तो भगवान की स्मृति के विषय में अत्यधिक विह्वलता के कारण उद्धव तुरन्त उत्तर नहीं दे पाये।

2 वे अपने बचपन में ही जब पाँच वर्ष के थे तो भगवान कृष्ण की सेवा में इतने लीन हो जाते थे कि जब उनकी माता प्रातःकालीन कलेवा करने के लिए बुलातीं तो वे कलेवा करना नहीं चाहते थे।

3 इस तरह उद्धव अपने बचपन से ही लगातार कृष्ण की सेवा करते रहे और उनकी वृद्धावस्था में सेवा की वह प्रवृत्ति कभी शिथिल नहीं हुई। जैसे ही उनसे भगवान के सन्देश के विषय में पूछा गया, उन्हें तुरन्त उनके विषय में सब कुछ स्मरण हो आया।

4 वे क्षणभर के लिए एकदम मौन हो गये और उनका शरीर हिला-डुला तक नहीं। वे भक्तिभाव में भगवान के चरणकमलों के स्मरण रूपी अमृत में पूरी तरह निमग्न हो गये और उसी भाव मे गहरे उतरते दिखने लगे।

5 विदुर ने देखा कि उद्धव में सम्पूर्ण भावों के कारण समस्त दिव्य शारीरिक परिवर्तन उत्पन्न हो आये हैं और वे अपनी आँखों से विछोह के आँसुओं को पोंछ डालने का प्रयास कर रहे हैं। इस तरह विदुर यह जान गये कि उद्धव ने भगवान के प्रति गहन प्रेम को पूर्णरूपेण आत्मसात कर लिया है।

6 महाभागवत उद्धव तुरन्त ही भगवान के धाम से मानव-स्तर पर उतर आये और अपनी आँखें पोंछते हुए उन्होंने अपनी पुरानी स्मृतियों को जगाया तथा वे विदुर से प्रसन्नचित्त होकर बोले।

7 श्री उद्धव ने कहा: हे विदुर, संसार का सूर्य कृष्ण अस्त हो चुका है और अब हमारे घर को काल रूपी भारी अजगर ने निगल लिया है। मैं आपसे अपनी कुशलता के विषय में क्या कह सकता हूँ?

8 समस्त लोकों समेत यह ब्रह्माण्ड अत्यन्त अभागा है। यदुकुल के सदस्य तो उनसे भी बढ़कर अभागे हैं, क्योंकि वे श्री हरि को भगवान के रूप में नहीं पहचान पाये जिस तरह मछलियाँ चन्द्रमा को नहीं पहचान पातीं।

9 यदुगण अनुभवी भक्त, विद्वान तथा मनोवैज्ञानिक अध्ययन में पटु थे। इससे भी बड़ी बात यह थी कि वे सभी लोग समस्त प्रकार की विश्रान्ति में भगवान के साथ रहते थे, फिर भी वे उन्हें केवल उस ब्रह्म के रूप में जान पाये जो सर्वत्र निवास करता है।

10 भगवान की माया द्वारा मोहित व्यक्तियों के वचन किसी भी स्थिति में उन लोगों की बुद्धि को विचलित नहीं कर सकते जो पूर्णतया शरणागत हैं।

11 भगवान श्रीकृष्ण, जिन्होंने पृथ्वी पर सबों की दृष्टि के समक्ष अपना नित्य स्वरूप प्रकट किया था, अपने स्वरूप को उन लोगों की दृष्टि से हटाकर अन्तर्धान हो गये जो वांछित तपस्या न कर सकने के कारण उन्हें यथार्थ रूप में देख पाने में असमर्थ थे।

12 भगवान अपनी अन्तरंगा शक्ति योगमाया के द्वारा मर्त्यलोक में प्रकट हुए। वे अपने नित्य रूप में आये जो उनकी लीलाओं के लिए उपयुक्त है। ये लीलाएँ सबों के लिए आश्चर्यजनक थीं, यहाँ तक कि उन लोगों के लिए भी जिन्हें अपने ऐश्वर्य का गर्व है, जिसमें वैकुण्ठपति के रूप में भगवान का स्वरूप भी सम्मिलित है। इस तरह उनका (श्रीकृष्ण का) दिव्य शरीर समस्त आभूषणों का आभूषण है।

13 महाराज युधिष्ठिर द्वारा सम्पन्न किये गये राजसूय यज्ञ में उच्चतर, मध्य तथा अधोलोकों से सारे देवता एकत्र हुए। उन सबों ने भगवान कृष्ण के सुन्दर शारीरिक स्वरूप को देखकर विचार किया कि वे मनुष्यों के स्रष्टा ब्रह्मा की चरम कौशलपूर्ण सृष्टि हैं।

14 हँसी, विनोद तथा देखादेखी की लीलाओं के पश्चात व्रज की बालाएँ कृष्ण के चले जाने पर व्यथित हो जातीं। वे अपनी आँखों से उनका पीछा करती थीं, अतः वे हतबुद्धि होकर बैठ जाती और अपने घरेलू कामकाज पूरा न कर पातीं।

15 आध्यात्मिक तथा भौतिक सृष्टियों के सर्वदयालु नियन्ता भगवान अजन्मा है, किन्तु जब उनके शान्त भक्तों तथा भौतिक गुणों वाले व्यक्तियों के बीच संघर्ष होता है, तो वे महत तत्त्व के साथ उसी तरह जन्म लेते हैं जिस तरह अग्नि उत्पन्न होती है ।

16 जब मैं भगवान कृष्ण के बारे में सोचता हूँ कि वे अजन्मा होते हुए किस तरह वसुदेव के बन्दीगृह में उत्पन्न हुए थे, किस तरह अपने पिता के संरक्षण से व्रज चले गये और वहाँ शत्रु-भय से प्रच्छन्न रहते रहे तथा किस तरह असीम बलशाली होते हुए भी वे भयवश मथुरा से भाग गये -- ये सारी भ्रमित करने वाली घटनाएँ मुझे पीड़ा पहुँचाती है।

17 भगवान कृष्ण ने अपने माता-पिता से उनके चरणों की सेवा न कर पाने की अपनी (कृष्ण तथा बलराम की) अक्षमता के लिए क्षमा माँगी, क्योंकि कंस के विकट भय के कारण वे घर से दूर रहते रहे। उन्होंने कहा, "हे माता, हे पिता, हमारी असमर्थता के लिए हमें क्षमा करें।" भगवान का यह सारा आचरण मेरे हृदय को पीड़ा पहुँचाता है।

18 भला ऐसा कौन होगा जो उनके चरणकमलों की धूल को एकबार भी सूँघ कर उसे भुला सके? कृष्ण ने अपनी भौहों की पत्तियों को विस्तीर्ण करके उन लोगों पर मृत्यु जैसा प्रहार किया है, जो पृथ्वी पर भार बने हुए थे।

19 आप स्वयं देख चुके हैं, कि चेदि के राजा (शिशुपाल) ने किस तरह योगाभ्यास में सफलता प्राप्त की यद्यपि वह भगवान कृष्ण से ईर्ष्या करता था। वास्तविक योगी भी अपने विविध अभ्यासों द्वारा ऐसी सफलता की सुरुचिपूर्वक कामना करते हैं। भला उनके बिछोह को कौन सह सकता है ?

20 निश्चय ही कुरुक्षेत्र युद्धस्थल के अन्य योद्धागण अर्जुन के बाणों के प्रहार से शुद्ध बन गये और आँखों को अति मनभावन लगने वाले कृष्ण के कमल-मुख को देखकर उन्होंने भगवद्धाम प्राप्त किया।

21 भगवान श्रीकृष्ण त्रयियों के स्वामी हैं और समस्त प्रकार के सौभाग्य की उपलब्धि के द्वारा स्वतंत्र रूप से सर्वोच्च हैं। वे सृष्टि के नित्य लोकपालों द्वारा पूजित हैं, जो अपने करोड़ों मुकुटों द्वारा उनके पाँवों का स्पर्श करके उन्हें पूजा की साज-सामग्री अर्पित करते हैं।

22 अतएव हे विदुर, क्या उनके सेवकगण (हम लोगों) को पीड़ा नहीं पहुँचती जब हम स्मरण करते हैं कि वे (भगवान कृष्ण) राजसिंहासन पर आसीन राजा उग्रसेन के समक्ष खड़े होकर, "हे प्रभु, आपको विदित हो कि" यह कहते हुए सारे स्पष्टीकरण प्रस्तुत करते थे।

23 ओह, भला मैं उनसे अधिक दयालु किसी और की शरण कैसे ग्रहण करूँगा जिन्होंने उस असुरिनी (पूतना) को माता का पद प्रदान किया, यद्यपि वह कृतघ्न थी और उसने अपने स्तन से पिलाए जाने के लिए घातक विष तैयार किया था?

24 मैं उन असुरों को जो भगवान के प्रति शत्रुभाव रखते हैं, भक्तों से बढ़कर मानता हूँ, क्योंकि शत्रुता के भावों से भरे वे सभी युद्ध करते हुए भगवान को ताक्षर्य (कश्यप) पुत्र गरुड़ के कन्धों पर बैठे तथा अपने हाथ में चक्रायुध लिए देख सकते हैं।

25 पृथ्वी पर कल्याण लाने के लिए ब्रह्मा द्वारा याचना किये जाने पर भगवान श्रीकृष्ण को भोज के राजा के बन्दीगृह में वसुदेव ने अपनी पत्नी देवकी के गर्भ से उत्पन्न किया।

26 तत्पश्चात कंस से भयभीत होकर उनके पिता उन्हें नन्द महाराज के चरागाहों में ले आये जहाँ वे अपने बड़े भाई बलदेव सहित ढकी हुई अग्नि की तरह ग्यारह वर्षों तक रहे।

27 अपने बाल्यकाल में सर्वशक्तिमान भगवान ग्वालबालों तथा बछड़ों से घिरे रहते थे। इस तरह वे यमुना नदी के तट पर सघन वृक्षों से आच्छादित तथा चहचहाते पक्षियों की ध्वनि से पूरित बगीचों में विहार करते थे।

28 जब भगवान ने बालोचित कार्यों का प्रदर्शन किया, तो वे एकमात्र वृन्दावनवासियों को ही दृष्टिगोचर थे। वे शिशु की तरह कभी रोते तो कभी हँसते और ऐसा करते हुए वे सिंह के बच्चे के समान प्रतीत होते थे।

29 अत्यन्त सुन्दर गाय-बैलों को चराते हुए समस्त ऐश्वर्य तथा सम्पत्ति के आगार भगवान अपनी वंशी बजाया करते थे। इस तरह वे अपने श्रद्धावान अनुयायी ग्वाल-बालों को प्रफुल्लित करते थे।

30 भोज के राजा कंस ने कृष्ण को मारने के लिए बड़े-बड़े जादूगरों को लगा रखा था, जो कैसा भी रूप धारण कर सकते थे। किन्तु अपनी लीलाओं के दौरान भगवान ने उन सबों को उतनी ही आसानी से मार डाला जिस तरह कोई बालक खिलौनों को तोड़ डालता है।

31 वृन्दावन के निवासी घोर विपत्ति के कारण परेशान थे, क्योंकि यमुना के कुछ अंश का जल सर्पों के प्रमुख (कालिय) द्वारा विषाक्त किया जा चुका था। भगवान ने सर्पराज को जल के भीतर प्रताड़ित किया और उसे दूर खदेड़ दिया। फिर नदी से बाहर आकर उन्होंने गौवों को जल पिलाया तथा यह सिद्ध किया कि वह जल पुनः अपनी स्वाभाविक स्थिति में है।

32 भगवान कृष्ण महाराज नन्द की ऐश्वर्यशाली आर्थिक शक्ति का उपयोग गौवों की पूजा के लिए कराना चाहते थे और वे स्वर्ग के राजा इन्द्र को भी पाठ पढ़ाना चाह रहे थे। अतः उन्होंने अपने पिता को सलाह दी थी कि वे विद्वान ब्राह्मणों की सहायता से गो अर्थात चरागाह तथा गौवों की पूजा कराएँ।

33 हे भद्र विदुर, अपमानित होने से राजा इन्द्र ने वृन्दावन पर मूसलाधार वर्षा की। इस तरह गौवों की भूमि व्रज के निवासी बहुत ही व्याकुल हो उठे। किन्तु दयालु भगवान कृष्ण ने अपने लीलाछत्र गोवर्धन पर्वत से उन्हें संकट से उबार लिया।

34 वर्ष की तृतीय ऋतु में भगवान ने स्त्रियों की सभा के मध्यवर्ती सौन्दर्य के रूप में चाँदनी से उजली हुई शरद की रात में अपने मनोहर गीतों से उन्हें आकृष्ट करके उनके साथ विहार किया।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

 

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अपने भतीजे दुर्योधन द्वारा अपमानित किये जाने पर श्री विदुर का गृह-त्याग - 3.1.11-16  श्रील प्रभुपाद

अध्याय एक विदुर द्वारा पूछे गये प्रश्न (3.1)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अपना समृद्ध घर त्याग कर जंगल में प्रवेश करके महान भक्त राजा विदुर ने अनुग्रहकारी मैत्रेय ऋषि से यह प्रश्न पूछा।

2 पाण्डवों के रिहायशी मकान के विषय में और क्या कहा जा सकता है? सबों के स्वामी श्रीकृष्ण तुम लोगों के मंत्री बने। वे उस घर में इस तरह प्रवेश करते थे मानो वह उन्हीं का अपना घर हो और वे दुर्योधन के घर की ओर कोई ध्यान ही नहीं देते थे।

3 राजा ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा: सन्त विदुर तथा अनुग्रहकारी मैत्रेय मुनि के बीच कहाँ और कब यह भेंट हुई तथा विचार-विमर्श हुआ? हे प्रभु, कृपा करके यह कहकर कृतकृत्य करें।

4 सन्त विदुर भगवान के महान एवं शुद्ध भक्त थे, अतएव कृपालु ऋषि मैत्रेय से पूछे गये उनके प्रश्न अत्यन्त सार्थक, उच्चस्तरीय तथा विद्वनमण्डली द्वारा अनुमोदित रहे होंगे।

5 श्री सूत गोस्वामी ने कहा: महर्षि श्रील शुकदेव गोस्वामी अत्यन्त अनुभवी थे और राजा से प्रसन्न थे। अतः राजा द्वारा प्रश्न किये जाने पर उन्होंने उनसे कहा; "कृपया इस विषय को ध्यानपूर्वक सुनें।"

6 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: राजा धृतराष्ट्र अपने बेईमान पुत्रों का पालन-पोषण करने की अपवित्र इच्छाओं के वश में होकर अन्तर्दृष्टि खो चुका था और उसने अपने पितृविहीन भतीजों -- पाण्डवों को जला डालने के लिए लाक्षागृह में आग लगवा दी।

7 धृतराष्ट् ने अपने पुत्र दुःशासन द्वारा देवतुल्य राजा युधिष्ठिर की पत्नी द्रौपदी के बाल खींचने के निन्दनीय कार्य के लिए मना नहीं किया, यद्यपि उसके अश्रुओं से उसके वक्षस्थल का कुमकुम तक धुल गया था।

8 युधिष्ठिर जो कि अजातशत्रु हैं, जुए में छलपूर्वक हरा दिये गये। किन्तु सत्य का व्रत लेने के कारण वे जंगल चले गये। समय पूरा होने पर जब वे वापस आये और जब उन्होंने साम्राज्य का अपना उचित भाग वापस करने की याचना की तो मोहग्रस्त धृतराष्ट्र ने देने से इनकार कर दिया।

9 अर्जुन ने जगद्गुरु श्रीकृष्ण को शान्तिदूत के रूप में (धृतराष्ट्र की) सभा में भेजा था और यद्यपि उनके शब्द कुछेक व्यक्तियों (यथा भीष्म) द्वारा शुद्ध अमृत के रूप में सुने गये थे, किन्तु जो लोग पूर्वजन्म के पुण्यकर्मों के लेशमात्र से भी वंचित थे उन्हें वे वैसे नहीं लगे। राजा (धृतराष्ट्र या दुर्योधन) ने कृष्ण के शब्दों को गम्भीरतापूर्वक नहीं लिया।

10 जब विदुर अपने ज्येष्ठ भ्राता (धृतराष्ट्र) द्वारा मंत्रणा के लिए बुलाये गये तो वे राजमहल में प्रविष्ट हुए और उन्होंने ऐसे उपदेश दिये जो उपयुक्त थे। उनका उपदेश सर्वविदित है और राज्य के दक्ष मंत्रियों द्वारा अनुमोदित है।

11 [विदुर ने कहा] तुम्हें चाहिए कि युधिष्ठिर को उसका न्यायोचित भाग लौटा दो, क्योंकि उसका कोई शत्रु नहीं है और वह तुम्हारे अपराधों के कारण अकथनीय कष्ट सहन करता रहा है। वह अपने छोटे भाइयों सहित प्रतीक्षारत है जिनमें से प्रतिशोध की भावना से पूर्ण भीम सर्प की तरह उच्छ्वास ले रहा है। तुम निश्चय ही उससे भयभीत हो।

12 भगवान कृष्ण ने पृथा के पुत्रों को अपना परिजन मान लिया है और संसार के सारे राजा श्रीकृष्ण के साथ हैं। वे अपने घर में अपने समस्त पारिवारिकजनों, यदुकुल के राजाओं तथा राजकुमारों के साथ, जिन्होंने असंख्य शासकों को जीत लिया है, उपस्थित हैं और वे उन सबों के स्वामी हैं।

13 तुम साक्षात अपराध रूप दुर्योधन का पालन-पोषण अपने अच्युत पुत्र के रूप में कर रहे हो, किन्तु वह भगवान कृष्ण से ईर्ष्या करता है। चूँकि तुम इस तरह से कृष्ण के अभक्त का पालन कर रहे हो, अतएव तुम समस्त शुभ गुणों से विहीन हो। तुम यथाशीघ्र इस दुर्भाग्य से छुटकारा पा लो और सारे परिवार का कल्याण करो।

14 विदुर जिनके चरित्र का सभी सम्मानित व्यक्ति आदर करते थे, जब इस तरह बोल रहे थे तो दुर्योधन द्वारा उनको अपमानित किया गया। दुर्योधन क्रोध के मारे फूला हुआ था और उसके होंठ फड़क रहे थे। दुर्योधन कर्ण, अपने छोटे भाईयों तथा अपने मामा शकुनि के साथ था।

15 "इस दासी के पुत्र को यहाँ आने के लिए किसने कहा है? यह इतना कुटिल है कि जिनके बल पर यह बड़ा हुआ है उन्हीं के विरुद्ध शत्रु-हित में गुप्तचरी करता है। इसे तुरन्त इस महल से निकाल बाहर करो और इसकी केवल साँस भर चलने दो।"

16 इस प्रकार के दुर्वचनों को सुनकर ह्रदय के भीतर मर्माहत विदुर ने अपना धनुष दरवाजे पर रख दिया और अपने भाई के महल को छोड़ दिया। उन्हें कोई खेद नहीं था, क्योंकि वे माया के कार्यों को सर्वोपरि मानते थे।

17 अपने पुण्य के द्वारा विदुर ने पुण्यात्मा कौरवों के सारे लाभ प्राप्त किये। उन्होंने हस्तिनापुर छोड़ने के बाद अनेक तीर्थ स्थानों की शरण ग्रहण की जो कि भगवान के चरणकमल हैं। उच्चकोटि का पवित्र जीवन पाने की इच्छा से उन्होंने उन पवित्र स्थानों की यात्रा की जहाँ भगवान के हजारों दिव्य रूप स्थित हैं।

18 वे एकमात्र कृष्ण का चिन्तन करते हुए अकेले ही विविध पवित्र स्थानों यथा अयोध्या, द्वारका तथा मथुरा से होते हुए यात्रा करने निकल पड़े। उन्होंने ऐसे स्थानों की यात्रा की जहाँ की वायु, पर्वत, बगीचे, नदियाँ तथा झीलें शुद्ध तथा निष्पाप थीं और जहाँ अनन्त के विग्रह मन्दिरों की शोभा बढ़ाते हैं। इस तरह उन्होंने तीर्थयात्रा की प्रगति सम्पन्न की।

19 इस तरह पृथ्वी का भ्रमण करते हुए उन्होंने भगवान हरि को प्रसन्न करने के लिए कृतकार्य किये। उनकी वृत्ति शुद्ध एवं स्वतंत्र थी। वे पवित्र स्थानों में स्नान करके निरन्तर शुद्ध होते रहे, यद्यपि वे अवधूत वेश में थे--न तो उनके बाल सँवरे हुए थे न ही लेटने के लिए उनके पास बिस्तर था। इस तरह वे अपने तमाम परिजनों से अलक्षित रहे।

20 इस तरह जब वे भारतवर्ष की भूमि में समस्त तीर्थस्थलों का भ्रमण कर रहे थे तो वे प्रभास क्षेत्र गये। उस समय महाराज युधिष्ठर सम्राट थे और वे सारे जगत को एक सैन्य शक्ति तथा एक ध्वजा के अन्तर्गत किये हुए थे।

21 प्रभास तीर्थ स्थान में उन्हें पता चला कि उनके सारे सम्बन्धी उग्र आवेश के कारण उसी तरह मारे जा चुके हैं जिस तरह बाँसों के घर्षण से उत्पन्न अग्नि सारे जंगल को जला देती है। इसके बाद वे पश्चिम की ओर बढ़ते गये जहाँ सरस्वती नदी बहती है।

22 सरस्वती नदी के तट पर ग्यारह तीर्थस्थल थे जिनके नाम हैं--त्रित, उशना, मनु, पृथु, अग्नि, असित, वायु, सुदास, गो, गुह तथा श्राद्धदेव। विदुर इन सबों में गये और ठीक से कर्मकाण्ड किये।

23 वहाँ महर्षियों तथा देवताओं द्वारा स्थापित किये गये पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान विष्णु के विविध रूपों से युक्त अनेक अन्य मन्दिर भी थे। ये मन्दिर भगवान के प्रमुख प्रतीकों से अंकित थे और आदि भगवान श्रीकृष्ण का सदैव स्मरण कराने वाले थे।

24 तत्पश्चात वे अत्यन्त धनवान प्रान्तों यथा सूरत, सौवीर और मत्स्य से होकर तथा कुरुजांगल नाम से विख्यात पश्चिमी भारत से होकर गुजरे। अन्त में वे यमुना के तट पर पहुँचे जहाँ उनकी भेंट कृष्ण के महान भक्त उद्धव से हुई।

25 तत्पश्चात अत्यधिक प्रेम तथा अनुभूति के कारण विदुर ने भगवान कृष्ण के नित्य संगी तथा बृहस्पति के पूर्व महान शिष्य उद्धव का आलिंगन किया। तत्पश्चात विदुर ने भगवान कृष्ण के परिवार का समाचार पूछा ।

26 [कृपया मुझे बतलाएँ] कि (भगवान की नाभि से निकले कमल से उतपन्न) ब्रह्मा के अनुरोध पर अवतरित होने वाले दोनों आदि भगवान, जिन्होंने हर व्यक्ति को ऊपर उठाकर सम्पन्नता में वृद्धि की है, शूरसेन के घर में ठीक से तो रह रहे हैं?

27 [कृपया मुझे बताएँ] कि कुरुओं के सबसे अच्छे मित्र हमारे बहनोई वसुदेव कुशलतापूर्वक तो हैं ? वे अत्यन्त दयालु हैं। वे अपनी बहनों के प्रति पिता के तुल्य हैं और अपनी पत्नियों के प्रति सदैव हँसमुख रहते हैं।

28 हे उद्धव, मुझे बताओ कि यदुओं का सेनानायक प्रद्युम्न, जो पूर्व जन्म में कामदेव था, कैसा है? रुक्मिणी ने ब्राह्मणों को प्रसन्न करके उनकी कृपा से भगवान कृष्ण से अपने पुत्र रुप में उसे उत्पन्न किया था।

29 हे मित्र (मुझे बताओ) क्या सात्वतों, वृष्णियों, भोजों तथा दाशार्हो के राजा उग्रसेन अब कुशल-मंगल तो हैं? वे अपने राजसिंहासन की सारी आशाएँ त्यागकर अपने साम्राज्य से दूर चले गये थे, किन्तु भगवान कृष्ण ने पुनः उन्हें प्रतिष्ठित किया।

30 हे भद्रपुरुष, साम्ब ठीक से तो है? वह भगवान के पुत्र सदृश ही है। पूर्वजन्म में वह शिव की पत्नी के गर्भ से कार्तिकेय के रूप जन्मा था और अब वही कृष्ण की अत्यन्त सौभाग्यशाली पत्नी जाम्बवती के गर्भ से उत्पन्न हुआ है।

31 हे उद्धव, क्या युयुधान कुशल से है? उसने अर्जुन से सैन्य कला की जटिलताएँ सीखीं और उस दिव्य गन्तव्य को प्राप्त किया जिस तक बड़े-बड़े संन्यासी भी बहुत कठिनाई से पहुँच पाते हैं।

32 कृपया मुझे बताएँ कि श्वफल्क पुत्र अक्रूर ठीक से तो हैं? वह भगवान का शरणागत एक दोषरहित आत्मा है। उसने एक बार दिव्य प्रेम-भाव में अपना मानसिक संतुलन खो दिया था और उस मार्ग की धूल में गिर पड़ा था जिसमें भगवान कृष्ण के पदचिन्ह अंकित थे।

33 जिस तरह सारे वेद याज्ञिक कार्यों के आगार हैं उसी तरह राजा देवक-भोज की पुत्री ने देवताओं की माता के ही सदृश भगवान को अपने गर्भ में धारण किया। क्या वह (देवकी) कुशल से है?

34 क्या मैं पूछ सकता हूँ कि अनिरुद्ध कुशलतापूर्वक है? वह शुद्ध भक्तों की समस्त इच्छाओं की पूर्ति करने वाला है और प्राचीन काल से ऋग्वेद का कारण, मन का स्रष्टा तथा विष्णु का चौथा स्वांश माना जाता रहा है।

35 हे भद्र पुरुष, अन्य लोग, यथा हृदीक, चारुदेष्ण, गद तथा सत्यभामा का पुत्र जो श्रीकृष्ण को अपनी आत्मा के रूप में मानते हैं और बिना किसी विचलन के उनके मार्ग का अनुसरण करते हैं -- ठीक से तो हैं ?

36 अब मैं पूछना चाहूँगा कि महाराज युधिष्ठिर धार्मिक सिद्धान्तों के अनुसार तथा धर्मपथ के प्रति सम्मान सहित राज्य का पालन-पोषण कर तो रहे हैं? पहले तो दुर्योधन ईर्ष्या से जलता रहता था, क्योंकि युधिष्ठिर कृष्ण तथा अर्जुन रूपी दो बाहुओं के द्वारा रक्षित रहते थे जैसे वे उनकी अपनी ही भुजाएँ हों।

37 [कृपया मुझे बताएँ] क्या विषैले सर्प तुल्य एवं अजेय भीम ने पापियों पर अपना दीर्घकालीन क्रोध बाहर निकाल दिया है? गदा-चालन के उसके कौशल को रण-भूमि भी सहन नहीं कर सकती थी, जब वह उस पथ पर चल पड़ता था।

38 [कृपया मुझे बताएँ] कि अर्जुन, जिसके धनुष का नाम गाण्डीव है और जो अपने शत्रुओं का विनाश करने में रथियों में सदैव विख्यात है, ठीक से तो है? एक बार उसने न पहचाने जानेवाले छद्म शिकारी के रूप में आये शिवजी को बाणों की बौछार करके उन्हें तुष्ट किया था।

39 क्या अपने भाइयों के संरक्षण में रह रहे जुड़वाँ भाई कुशलपूर्वक हैं? जिस तरह आँख पलक द्वारा सदैव सुरक्षित रहती है उसी तरह वे पृथा पुत्रों द्वारा संरक्षित हैं जिन्होंने अपने शत्रु दुर्योधन के हाथों से अपना न्यायसंगत साम्राज्य उसी तरह छीन लिया है, जिस तरह गरुड़ ने वज्रधारी इन्द्र के मुख से अमृत छीन लिया था।

40 हे स्वामी, क्या पृथा अब भी जीवित है? वह अपने पितृविहीन बालकों के निमित्त ही जीवित रही अन्यथा राजा पाण्डु के बिना उसका जीवित रह पाना असम्भव था, जो कि महानतम सेनानायक थे और जिन्होंने अकेले ही अपने दूसरे धनुष के बल पर चारों दिशाएँ जीत ली थीं।

41 हे भद्रपुरुष, मैं तो एकमात्र उस (धृतराष्ट्र) के लिए शोक कर रहा हूँ जिसने अपने भाई की मृत्यु के बाद उसके प्रति विद्रोह किया। उसका निष्ठावान हितैषी होते हुए भी उसके द्वारा मैं अपने घर से निकाल दिया गया, क्योंकि उसने भी अपने पुत्रों के द्वारा अपनाए गये मार्ग का ही अनुसरण किया था।

42 अन्यों द्वारा अलक्षित रहकर विश्वभर में भ्रमण करने के बाद मुझे इस पर कोई आश्चर्य नहीं हो रहा। भगवान के कार्यकलाप जो इस मर्त्यलोक के मनुष्य जैसे हैं, अन्यों को मोहित करने वाले हैं, किन्तु भगवान की कृपा से मैं उनकी महानता को जानता हूँ, अतएव मैं सभी प्रकार से सुखी हूँ।

43 (कृष्ण) भगवान होते हुए भी तथा पीड़ितों के दुख को सदैव दूर करने की इच्छा रखते हुए भी, वे कुरुओं का वध करने से अपने को बचाते रहे, यद्यपि वे देख रहे थे कि उन लोगों ने सभी प्रकार के पाप किये हैं और यह भी देख रहे थे कि, अन्य राजा तीन प्रकार के मिथ्या गर्व के वश में होकर अपनी प्रबल सैन्य गतिविधियों से पृथ्वी को निरन्तर क्षुब्ध कर रहे हैं।

44 भगवान का प्राकट्य दुष्टों का संहार करने के लिए होता है। उनके कार्य दिव्य होते हैं और समस्त व्यक्तियों के समझने के लिए ही किये जाते हैं। अन्यथा, समस्त भौतिक गुणों से परे रहने वाले भगवान का इस पृथ्वी में आने का क्या प्रयोजन हो सकता है?

45 अतएव हे मित्र, उन भगवान की महिमा का कीर्तन करो जो तीर्थस्थानों में महिमामण्डित किये जाने के निमित्त है। वे अजन्मा हैं फिर भी ब्रह्माण्ड के सभी भागों के शरणागत शासकों पर अपनी अहैतुकी कृपा द्वारा वे प्रकट होते हैं। उन्हीं के हितार्थ वे अपने शुद्ध भक्त यदुओं के परिवार में प्रकट हुए।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

 

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अध्याय दस – भागवत सभी प्रश्नों का उत्तर है (2.10)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस श्रीमदभागवत में दस विभाग हैं, जो ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, उप—सृष्टि, लोकान्तर, भगवान द्वारा पोषण, सृष्टि प्रेरणा, मनुओं के परिवर्तन, ईश्वर ज्ञान, अपने घर—भगवदधाम गमन, मुक्ति तथा आश्रय से सम्बन्धित है।

2 इनमें से जो दसवाँ 'आश्रय' तत्त्व है उसकी दिव्यता को अन्यों से पृथक करने के लिए, उन सबका वर्णन कभी वैदिक साक्ष्य से, कभी प्रत्यक्ष व्याख्या से और कभी महापुरुषों द्वारा दी गई संक्षिप्त व्याख्याओं से किया जाता है।

3 पदार्थ के सोलह प्रकार—अर्थात पाँच तत्त्व (क्षिति, जल, पावक, गगन तथा वायु), ध्वनि, रूप, स्वाद, गन्ध, स्पर्श तथा नेत्र, कान, नाक, जीभ, त्वचा एवं मन—की तात्विक सृष्टि सर्ग कहलाती है और प्रकृति के गुणों की बाद की अन्तःक्रिया विसर्ग कहलाती है।

4 जीवात्मा के लिए उचित तो यही है कि वह भगवान के नियमों का पालन करें और पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के संरक्षण में पूरी तरह से मानसिक शान्ति प्राप्त करें। सभी मनु तथा उनके नियम जीवन को सही दिशा प्रदान करने के लिए हैं। कार्य करने की प्रेरणा ही सकाम कर्म की आकांक्षा है।

5 ईश्वर-विज्ञान (ईश-कथा) श्रीभगवान के विविध अवतारों, उनकी लीलाओं तथा साथ ही उनके भक्तों के कार्यकलापों का वर्णन करता है।

6 अपनी बद्धावस्था के जीवन सम्बन्धी प्रवृत्ति के साथ जीवात्मा का शयन करते हुए महाविष्णु में लीन होना प्रकट ब्रह्माण्ड का परिसमापन कहलाता है। परिवर्तनशील स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों को त्यागकर जीवात्मा के रूप की स्थायी स्थिति मुक्ति है।

7 परम पुरुष अथवा परमात्मा कहलाने वाले परमेश ही दृश्य जगत के परमस्रोत, इसके आगार (आश्रय) तथा लय है। इस प्रकार वे परमस्रोत, परम सत्य हैं।

8 विभिन्न इन्द्रियों से युक्त व्यक्ति आध्यात्मिक पुरुष कहलाता है और इन इन्द्रियों को वश में रखने वाला देव (श्रीविग्रह) अधिदैविक कहलाता है। नेत्र गोलकों में दिखने वाला स्वरूप अधिभौतिक पुरुष कहलाता है।

9 विभिन्न जीवात्माओं की उपर्युक्त तीनों अवस्थाएँ अन्योन्याश्रित है। किसी एक के अभाव में दूसरे को नहीं समझा जा सकता। किन्तु परमेश्वर इन सबको एक दूसरे के आश्रय रूप में देखता हुआ इन सबसे स्वतंत्र है, अतः वह परम आश्रय है।

10 विभिन्न ब्रह्माण्डों को पृथक करके विराट स्वरूप भगवान (महाविष्णु), जो प्रथम पुरुष अवतार के प्रकट होने के स्थान कारणार्णव से बाहर आये थे, सृजित दिव्य जल (गर्भोदक) में शयन करने की इच्छा से उन विभिन्न ब्रह्माण्डों में प्रविष्ट हुए।

11 परमपुरुष निराकार नहीं है, अतः वे स्पष्टतः नर अथवा पुरुष है। इसीलिए इन परम नर द्वारा उत्पन्न दिव्य जल नार कहलाता है। चूँकि वे इसी जल में शयन करते हैं इसीलिए नारायण कहलाते हैं।

12 मनुष्य को यह भलीभाँति समझ लेना चाहिए कि समस्त भौतिक तत्त्व, कर्म, काल तथा गुण और इन सब को भोगने वाली जीवात्माएँ भगवत्कृपा से ही विद्यमान हैं। उनके द्वारा उपेक्षित होते ही ये सारी वस्तुएँ अस्तित्वहीन हो जाती हैं।

13 योगनिद्रा की शय्या में लेटे हुए भगवान ने एकाकी रूप में से नाना प्रकार के जीवों को प्रकट करने की इच्छा करते हुए अपनी बहिरंगा शक्ति से सुनहरे रंग का वीर्य-प्रतीक उत्पन्न किया।

14 मुझसे सुनो कि भगवान अपनी एक शक्ति को किस प्रकार अधिदैव, अध्यात्म तथा अधिभूत नामक तीन भागों में विभक्त करते हैं, जिसका उल्लेख ऊपर हो चुका है।

15 महाविष्णु के दिव्य शरीर के भीतर स्थित आकाश से इन्द्रिय बल, मानसिक बल तथा शारीरिक बल उत्पन्न होते हैं। इनके साथ ही सम्पूर्ण जीवनी शक्ति (प्राण) का समग्र उत्स (स्रोत) उत्पन्न होता है।

16 जिस प्रकार राजा के अनुयायी अपने स्वामी का अनुसरण करते हैं उसी तरह सम्पूर्ण शक्ति के गतिशील होने पर अन्य समस्त जीव हिलते-डुलते (गति करते) हैं और जब सम्पूर्ण शक्ति निश्चेष्ट हो जाती है, तो अन्य समस्त जीवों की इन्द्रिय—क्रियाशीलता रुक जाती है।

17 विराट पुरुष द्वारा विचलित किए जाने पर जीवनी शक्ति (प्राण) ने भूख तथा प्यास को उत्पन्न किया और जब विराट पुरुष ने पीने तथा खाने की इच्छा की तो मुँह खुल गया।

18 मुख से तालु प्रकट हुआ और फिर जीभ भी उत्पन्न हुई। इन सबके बाद विविध स्वादों की उत्पत्ति हुई जिससे जीभ उनका स्वाद ले सके।

19 जब परम पुरुष की बोलने की इच्छा हुई तो उनके मुख से वाणी गूँजी। फिर मुख से अधिष्ठाता देव अग्नि की उत्पत्ति हुई। किन्तु जब वे जल में शयन कर रहे थे तो ये सारे कार्य बन्द पड़े थे।

20 तत्पश्चात जब परम पुरुष को सुगन्धि सूँघने की इच्छा हुई तो नथुने तथा श्वास, घ्राणेंद्रिय तथा सुगन्धियों की उत्पत्ति हुई और सुगन्धि को वहन करने वाली वायु के अधिष्ठाता देव भी प्रकट हुए।

21 इस प्रकार जब सारी वस्तुएँ अंधकार में विद्यमान थीं तो भगवान की अपने आपको तथा जो कुछ उन्होंने रचा था, उन सबको देखने की इच्छा हुई। तब आँखें, प्रकाशमान सूर्यदेव देखने की शक्ति तथा दिखने वाली वस्तु—ये सभी प्रकट हुई।

22 महान ऋषियों द्वारा जानने की इच्छा विकसित होने से कान, सुनने की शक्ति, सुनने के अधिष्ठाता देव तथा सुनने की वस्तुएँ प्रकट हुईं। ऋषिगण आत्मा के विषय में सुनना चाह रहे थे।

23 जब पदार्थ के भौतिक गुणों—यथा कोमलता, कठोरता, उष्णता, शीतलता, हल्कापन तथा भारीपन—को देखने की इच्छा हुई तो अनुभूति की पृष्ठभूमि त्वचा, त्वचा के छिद्र, रोम तथा उनके अधिष्ठाता देवों (वृक्षों) की उत्पत्ति हुई। त्वचा के भीतर तथा बाहर वायु की खोल है, जिसके माध्यम से स्पर्श का अनुभव होने लगा।

24 तत्पश्चात जब परम पुरुष को नाना प्रकार के कार्य करने की इच्छा हुई तो दो हाथ तथा उनकी नियामक शक्ति एवं स्वर्ग के देवता इन्द्र के साथ ही दोनों हाथों तथा देवता पर आश्रित कार्य भी प्रकट हुए।

25 तत्पश्चात गति (इधर उधर चलना) को नियंत्रित करने की इच्छा से उनकी टाँगें प्रकट हुई और टाँगों से उनके अधिष्ठाता देव विष्णु की उत्पत्ति हुई। इस कार्य की स्वयं विष्णु द्वारा निगरानी करने से सभी प्रकार के मनुष्य अपने—अपने निर्धारित यज्ञों (कार्यों) में संलग्न हैं।

26 तत्पश्चात काम-सुख, सन्तानोत्पत्ति तथा स्वर्गिक अमृत सुख के आस्वादन के लिए भगवान ने जननेन्द्रियाँ उत्पन्न कीं। इस प्रकार जननेन्द्रिय तथा उसके अधिष्ठाता देव प्रजापति उत्पन्न हुए। काम--सुख की वस्तु तथा अधिष्ठाता देव भगवान की जननेन्द्रियों के अधीन रहते हैं।

27 तत्पश्चात जब उन्हें खाये हुए भोजन के मल त्याग की इच्छा हुई तो गुदा द्वार और फिर पायु – इन्द्रिय और उनके अधिष्ठाता देव मित्र विकसित हुए। पायु इन्द्रिय तथा उत्सर्जित पदार्थ ये दोनों अधिष्ठाता देव के आश्रय में रहते हैं।

28 तत्पश्चात जब उन्हें एक शरीर से दूसरे में जाने की इच्छा हुई तो नाभि तथा अपानवायु एवं मृत्यु की एकसाथ सृष्टि हुई। मृत्यु तथा अपानवायु दोनों का ही आश्रय नाभि है।

29 जब भोजन तथा जल लेने की इच्छा हुई तो उदर, आँतें तथा धमनियाँ प्रकट हुई। नदियाँ तथा समुद्र इनके पोषण तथा उपापचय के स्रोत हैं।

30 जब उन्हें अपनी शक्ति के कार्यकलापों के विषय में सोचने की इच्छा हुई तो हृदय (मन का स्थान), मन, चन्द्रमा, संकल्प तथा सारी इच्छा का उदय हुआ ।

31 त्वचा, चर्म, मांस, रक्त, मेदा, मज्जा तथा अस्थि-- शरीर के ये सात तत्त्व पृथ्वी, जल तथा अग्नि से बने हैं जबकि प्राण की उत्पत्ति आकाश, जल तथा वायु से हुई है।

32 इन्द्रियाँ प्रकृति के गुणों से जुड़ी होती हैं और भौतिक प्रकृति के ये गुण मिथ्या अहंकार से जनित हैं। मन पर समस्त प्रकार के भौतिक अनुभवों (सुख-दुख) का प्रभाव पड़ता है और बुद्धि मन के तर्क-वितर्क स्वरूप है।

33 इस तरह भगवान का बाह्य रूप अन्य लोकों की ही तरह स्थूल रूपों से घिरा हुआ है, जिनका वर्णन मैं तुमसे पहले ही कर चुका हूँ।

34 अतः इस (स्थूल शरीर) से परे दिव्य संसार है, जो सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर है। न तो इसका आदि है, न मध्य और न अन्त, अतः यह व्याख्या अथवा चिन्तन की सीमाओं के परे है और भौतिक बोध से भिन्न है।

35 मैंने तुमसे भौतिक दृष्टिकोण से भगवान के जिन दो रूपों का ऊपर वर्णन किया है, उनमें से कोई भी भगवान को जानने वाले शुद्ध भक्तों द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता।

36 अपने दिव्य नाम, गुण, लीलाओं, परिवेश तथा विभिन्नताओं के कारण भगवान अपने आपको दिव्य रूप में प्रकट करते हैं। यद्यपि इन समस्त कार्यकलापों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, किन्तु वे व्यस्त से प्रतीत होते हैं।

37-40 हे राजन, मुझसे यह जान लो कि सभी जीवात्माएँ अपने विगत कर्मों के अनुसार परमेश्वर द्वारा उत्पन्न किए जाते हैं। इसमें ब्रह्मा तथा उनके दक्ष जैसे पुत्र, वैवस्वत मनु जैसे सामयिक प्रधान, इन्द्र, चन्द्र तथा वरुण जैसे देवता, भृगु, व्यास, वसिष्ठ जैसे महर्षि, पितृलोक तथा सिद्धलोक के वासी, चारण, गन्धर्व, विद्याधर, असुर यक्ष किन्नर तथा देवदूत, नाग, बन्दर जैसे किम्पुरुष, मनुष्य, मातृलोक के वासी, असुर, पिशाच, भूत-प्रेत, उन्मादी, शुभ-अशुभ नक्षत्र, विनायक, जंगली पशु, पक्षी, घरेलू पशु, सरीसृप, पर्वत, जड़ तथा चेतन जीव, जरायुज, अण्डज, स्वेदज तथा उदिभज जीव तथा अन्य समस्त जल, स्थल या आकाश के सुखी, दुखी अथवा मिश्रित सुखी--दुखी जीव सम्मिलित हैं। ये सभी अपने पूर्व कर्मों के अनुसार परमेश्वर द्वारा सृजित होते हैं ।

41 प्रकृति के विभिन्न गुण—सतो, रजो तथा तमो गुणों—के अनुसार विभिन्न प्रकार के प्राणी होते हैं, जो देवता, मनुष्य तथा नारकीय जीव कहलाते हैं। हे राजन, यही नहीं, जब कोई एक गुण अन्य दो गुणों से मिलता है, तो वह तीन में विभक्त होता है और इस प्रकार प्रत्येक प्राणी अन्य गुणों से प्रभावित होता है और इसकी आदतों को अर्जित कर लेता है।

42 वे भगवान ब्रह्माण्ड में सबके पालक रूप में सृष्टि की स्थापना करके विभिन्न अवतारों में प्रकट होते हैं और मनुष्यों, अमानवों तथा देवताओं में से समस्त बद्धजीवों का उध्दार करते हैं।

43 तत्पश्चात युग के अन्त में भगवान स्वयं संहारकर्ता रुद्र--रूप में सम्पूर्ण सृष्टि का उसी तरह संहार करेंगे जिस प्रकार वायु बादलों को हटा देती है।

44 बड़े-बड़े तत्त्वज्ञानी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के कार्यकलापों का ऐसा ही वर्णन करते हैं, किन्तु शुद्ध भक्त भावातीत दशा में ऐसे रूपों से भी बढ़कर महिमामय वस्तुएँ देखने के अधिकारी होते हैं।

45 भौतिक जगत की सृष्टि तथा संहार के लिए भगवान के द्वारा किसी प्रकार का प्रत्यक्ष कौशल नहीं किया जाता। उनके प्रत्यक्ष हस्तक्षेप के विषय में वेदों में जो कुछ वर्णित है, वह केवल इस विचार का निराकरण करने के लिए है कि भौतिक प्रकृति ही स्रष्टा है।

46 यहाँ पर सारांश रुप में वर्णित सृष्टि तथा संहार का यह प्रक्रम ब्रह्मा के एक दिन (कल्प) के लिए विधि-विधान स्वरूप है। यही महत-सृष्टि का भी नियामक-विधान है, जिसमें प्रकृति विसर्जित हो जाती है।

47 हे राजन, आगे चलकर मैं काल के स्थूल तथा सूक्ष्म रूपों की माप का उनके विशिष्ट लक्षणों सहित वर्णन करूँगा, किन्तु इस समय मैं तुमसे पाद्म कल्प के विषय में कहना चाहता हूँ।

48 सृष्टि के विषय में यह सब सुनने के बाद शौनक ऋषि ने सूत गोस्वामी से विदुर के विषय में पूछा, क्योंकि सूत गोस्वामी ने पहले ही उन्हें बता रखा था कि विदुर ने किस प्रकार अपने उन परिजनों को छोड़कर गृहत्याग किया था जिनको छोड़ पाना बहुत दुष्कर होता है।

49-50 शौनक ऋषि ने कहा: आप हमें बताएँ कि विदुर तथा मैत्रेय के बीच अध्यात्म पर चर्चा हुई, विदुर ने क्या पूछा और मैत्रेय ने क्या उत्तर दिया था । कृपा करके हमें यह भी बताएँ कि विदुर ने अपने कुटुम्बियों को क्यों छोड़ा था और वे पुनः घर क्यों लौट आये ? तीर्थ स्थानों की यात्रा के समय उन्होंने जो कार्य किये उन्हें भी बतलाएँ।

51 श्री सूत गोस्वामी ने बताया—अब मैं तुम्हें वे सारे विषय बताऊँगा जिन्हें राजा परीक्षित के द्वारा पूछे जाने पर महामुनि ने उनसे कहा था । कृपया उन्हें ध्यानपूर्वक सुनो।

इस प्रकार श्रीमद भागवतम (द्वितीय स्कन्ध) के समस्त अध्यायों के भक्ति वेदान्त श्लोकार्थ पूर्ण हुए।

-::हरि ॐ तत् सत्::-

समर्पित एवं सेवारत-जगदीश चन्द्र माँगीलाल चौहान

 

 

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अध्याय नौ – श्रीभगवान के वचन का उद्धरण देते हुए प्रश्नों के उत्तर (2.9)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, जब तक मनुष्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की शक्ति से प्रभावित नहीं होता तब तक भौतिक शरीर के साथ शुद्ध चेतना में शुद्ध आत्मा का सम्बन्ध कोई अर्थ नहीं रखता। ऐसा सम्बन्ध स्वप्न देखने वाले द्वारा अपने ही शरीर को कार्य करते हुए देखने के समान है।

2 मोहग्रस्त जीवात्मा भगवान की बहिरंगा शक्ति के द्वारा प्रदत्त अनेक रूप धारण करता है। जब बद्ध जीवात्मा भौतिक प्रकृति के गुणों में रम जाता है, तो वह भूल से सोचने लगता है कि यह "मैं हूँ" और यह "मेरा" है।

3 जैसे ही जीवात्मा अपनी स्वाभाविक महिमा में स्थित हो जाता है और काल तथा माया से गुणातीत हो जाता है, वैसे ही वह जीवन की दोनों भ्रान्त धारणाओं (मैं तथा मेरा) को त्याग देता है और शुद्ध आत्मस्वरूप में प्रकट हो जाता है।

4 हे राजन, भगवान ने ब्रह्माजी की भक्तियोग की निष्कपट तपस्या से अत्यन्त प्रसन्न होकर उनके समक्ष अपना शाश्वत दिव्य रूप प्रकट किया और बद्धजीव की शुद्धि के लिए यही परम लक्ष्य भी है।

5 प्रथम गुरु एवं ब्रह्माण्ड के सर्वश्रेष्ठ जीव होते हुए भी ब्रह्माजी अपने कमल आसन के स्रोत का पता न लगा सके और जब उन्होंने भौतिक जगत की सृष्टि करनी चाही तो वे यह भी न जान पाये कि किस दिशा से यह कार्य प्रारम्भ किया जाय, न ही ऐसी सृष्टि करने के लिए कोई विधि ही ढूँढ पाये।

6 इस प्रकार जब जल में स्थित ब्रह्माजी सोच रहे थे तब पास ही उन्होंने परस्पर जुड़े हुए दो शब्द दो बार सुने। इनमें से एक सोलहवाँ और दूसरा इक्कीसवाँ स्पर्श अक्षर था। ये दोनों मिलकर विरक्त जीवन की निधि बन गए।

7 जब उन्होंने वह ध्वनि सुनी तो वे ध्वनिकर्ता को चारों ओर ढूँढने का प्रयत्न करने लगे। किन्तु जब वे अपने अतिरिक्त किसी को न पा सके, तो उन्होंने कमल-आसन पर दृढ़तापूर्वक बैठ जाना और आदेशानुसार तपस्या करने में ध्यान देना ही श्रेयस्कर समझा।

8 ब्रह्माजी ने देवताओं कि गणना के अनुसार एक हजार वर्षों तक तपस्या की। उन्होंने आकाश से यह दिव्य अनुगूँज सुनी और इसे ईश्वरीय मान लिया। इस प्रकार उन्होंने अपनी इन्द्रियों तथा मन को वश में किया। उन्होंने जो तपस्या की, वह जीवात्माओं के लिए महान शिक्षा बन गई। इस प्रकार ब्रह्माजी तपस्वियों में महानतम माने जाते हैं।

9 श्रीभगवान ने ब्रह्माजी की तपस्या से अत्यधिक प्रसन्न होकर उन्हें समस्त लोकों में श्रेष्ठ अपने निजी धाम, वैकुण्ठ लोक, को दिखलाया। यह दिव्य लोक उन समस्त स्वरूपसिद्ध व्यक्तियों द्वारा पूजित है, जो समस्त प्रकार के क्लेशों तथा सांसारिक भय से सर्वथा मुक्त हैं।

10 भगवान के उस स्वधाम में न तो रजोगुण और तमोगुण रहते हैं, न ही सतोगुण पर इनका कोई प्रभाव दिखता है। वहाँ पर काल को प्रधानता प्राप्त नहीं है। फिर बहिरंगा शक्ति (माया) का तो कहना ही क्या? इसका तो वहाँ प्रवेश भी नहीं हो सकता। देवता तथा असुर, बिना भेदभाव के, भक्तों के रूप में भगवान की पूजा करते हैं।

11 वैकुण्ठ लोक के वासियों को आभामय श्यामवर्ण का बताया गया है। उनकी आँखें कमल-पुष्प के समान, उनके वस्त्र पीलाभ रंग के और उनकी शारीरिक संरचना अत्यन्त आकर्षक है। वे उभरते हुए तरुणों की तरह हैं, उन सबके चार-चार हाथ हैं। वे मोती के हारों तथा अलंकृत पदकों से भली-भाँति विभूषित होकर अत्यन्त तेजवान प्रतीत होते हैं।

12 उनमें से कुछ की आकृतियाँ मूँगे तथा हीरे की भाँति तेजस्वी हैं और वे अपने सिरों पर मालाएँ धारण किए हैं, जो कमल-पुष्प के समान खिली हुई हैं। कुछ ने कानों में कुण्डल पहन रखे हैं।

13 सारे वैकुण्ठ लोक विभिन्न चमचमाते विमानों से भी घिरे हैं। ये विमान महात्माओं या भगवदभक्तों के हैं। स्त्रियाँ अपने स्वर्गिक मुखमण्डल के कारण बिजली के समान सुन्दर लगती हैं और ये सब मिलकर ऐसी प्रतीत होती हैं मानो बादलों तथा बिजली से आकाश सुशोभित हो।

14 दिव्य रूपधारी लक्ष्मीजी भगवान के चरणकमलों की प्रेमपूर्ण सेवा में लगी हुई हैं। वसन्त के अनुचर भौरों के द्वारा विचलित होकर, वे न केवल अपनी सहेलियों और विविध सामग्रियों सहित भगवान की सेवा में तत्पर हैं, अपितु भगवान की लीलाओं का गुणगान भी कर रही हैं।

15 ब्रह्माजी ने वैकुण्ठ लोक में उन श्रीभगवान को देखा जो सारे भक्त समुदाय के स्वामी, लक्ष्मीजी के पति, समस्त यज्ञों के स्वामी तथा ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं और जो नन्द, सुनन्द, प्रबल तथा अर्हण आदि अपने अग्रणी पार्षदों द्वारा सेवित हैं।

16 अपने प्रिय दासों की ओर कृपा दृष्टि डालते हुए, मादक तथा आकर्षक दृष्टि वाले भगवान अत्यधिक तुष्ट लगे। उनका मुस्काता मुख मोहक लाल रंग से सुशोभित था। वे पीले वस्त्र पहने थे और कानों में कुण्डल तथा सिर में मुकुट धारण किये हुए थे। उनके चार हाथ थे और उनका वक्षस्थल लक्ष्मीजी की रेखाकृतियों से चिन्हित था।

17 भगवान अपने सिंहासन पर विराजमान थे। विभिन्न शक्तियों यथा–चार, सोलह, पाँच, छह प्राकृतिक ऐश्वर्यों तथा अन्य क्षणिक शक्तियों से घिरे हुए थे और अपने धाम में आनन्द ले रहे थे।

18 इस तरह भगवान को उनके पूर्ण रूप में देखकर ब्रह्माजी का हृदय आनन्द से आप्लावित हो उठा और दिव्य प्रेम तथा आनन्द से उनके नेत्रों में प्रेमाश्रु आ गये। वे भगवान के समक्ष नतमस्तक हो गये। जीव (परमहंस) के लिए परम सिद्धि की यही विधि है।

19 भगवान ने ब्रह्माजी को अपने समक्ष देखकर उन्हें जीवों की सृष्टि करने तथा जीवों को अपनी इच्छानुसार नियंत्रित करने के लिए उपयुक्त (पात्र) समझा। इस प्रकार प्रसन्न होकर भगवान ने ब्रह्मा से मन्द-मन्द हँसते हुए हाथ मिलाया और उन्हें इस प्रकार से सम्बोधित किया।

20 परम सुन्दर भगवान ने ब्रह्मा को सम्बोधित किया: हे वेदों से सम्पृक्त (सम्यग् वेदगर्भ/ सम्बद्ध/ Impregnated with the Vedas) ब्रह्मा, सृष्टि की इच्छा से की गई तुम्हारी दीर्घकालीन तपस्या से मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ। मैं छद्मयोगियों से बहुत ही मुश्किल से प्रसन्न हो पाता हूँ।

21 तुम्हारा कल्याण हो। हे ब्रह्मा, तुम मुझसे जो चाहो माँग सकते हो, क्योंकि मैं समस्त वरों का वरदाता हूँ; तुम्हें ज्ञात हो कि सारी तपस्या के फलस्वरूप जो अन्तिम वर प्राप्त होता है, वह मेरा दर्शन है।

22 सर्वोच्च सिद्धिमयी पटुता है मेरे धाम का साक्षात दर्शन और यह दर्शन तुम्हें मेरे आदेश के अनुसार कठिन तपस्या के प्रति तुम्हारी विनम्र प्रवृत्ति के कारण सम्भव हो सका है।

23 हे निष्पाप ब्रह्मा, तुम्हें ज्ञात हो कि जब तुम अपने कर्तव्य के प्रति असमंजस में थे तो सबसे पहले मैंने ही तुम्हें तपस्या करने का आदेश दिया था। ऐसी तपस्या ही मेरा हृदय और मेरी आत्मा है, अतः तपस्या मुझसे अभिन्न है।

24 मैं ऐसे ही तप से इस विश्व की रचना करता हूँ, इसी शक्ति से इसका पालन करता हूँ और इसीसे इसको अपने में लीन करता हूँ। अतः तप ही वास्तविक शक्ति है।

25 ब्रह्माजी ने कहा: हे भगवान, आप प्रत्येक जीवात्मा के हृदय में परम नियन्ता के रूप में स्थित हैं, अतः आप किसी भी प्रकार की बाधा के बिना अपने अन्तःज्ञान (प्रज्ञा) द्वारा समस्त प्रयासों से अवगत हैं।

26 तथापि हे भगवान, मेरी आपसे प्रार्थना है कि मेरी इच्छा पूरी करें। कृपया मुझे बताएँ कि दिव्य रूप के होते हुए भी आप संसारी रूप किस प्रकार धारण करते हैं, यद्यपि आपका ऐसा कोई रूप नहीं होता।

27 कृपा करके मुझे यह भी बताएँ कि आप अपने से किस प्रकार से विभिन्न संयोगों के द्वारा संहार, उत्पत्ति, स्वीकृति तथा पालन की विविध शक्तियों को प्रकट करते हैं।

28 हे माधव, मुझे उन सबके विषय में दार्शनिक विधि से बताएँ। आप मकड़ी के समान खेल करने वाले हैं, जो अपनी ही शक्ति से अपने को ढक लेती है। आपका संकल्प अचूक है।

29 कृपा करके मुझे बतलाएँ जिससे आपकी आज्ञानुसार मैं इस विषय की शिक्षा प्राप्त कर सकूँ और इस तरह ऐसे कार्यों से आबद्ध हुए बिना जीवात्माओं को यंत्रवत उत्पन्न करने का कार्य करता रहूँ।

30 हे अजन्मा भगवान, आपने मुझसे उसी प्रकार हाथ मिलाया है, जिस प्रकार कोई मित्र अपने मित्र से मिलाता है (मानो पद में समान हो) अब मैं विभिन्न जीवात्माओं की सृष्टि करने में लगूँगा और आपकी सेवा करता रहूँगा। मैं किसी तरह विचलित नहीं होऊँगा। किन्तु मेरी प्रार्थना है कि कहीं इन सबसे मुझे गर्व न हो जाय कि मैं ही परमेश्वर हूँ।

31 श्रीभगवान ने कहा: शास्त्रों में वर्णित मुझसे सम्बन्धित ज्ञान अत्यन्त गोपनीय है उसे भक्ति के समन्वय द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। इस विधि के लिए आवश्यक सामग्री की व्याख्या मेरे द्वारा की जा चुकी है। तुम इसे ध्यानपूर्वक ग्रहण करो।

32 मेरी अहैतुकी कृपा से तुम्हारे अन्तःकरण में उदय होने वाले वास्तविक बोध से तुम्हें मेरे विषय में सब कुछ – मेरा वास्तविक शाश्वत रूप तथा मेरा दिव्य अस्तित्व, रंग, गुण तथा कार्य – ज्ञात हो सकेगा।

33 हे ब्रह्मा, वह मैं ही हूँ जो सृष्टि के पूर्व विद्यमान था, जब मेरे अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। तब इस सृष्टि की कारणस्वरूपा भौतिक प्रकृति भी नहीं थी। जिसे तुम अब देख रहे हो, वह भी मैं ही हूँ और प्रलय के बाद जो शेष रहेगा वह भी मैं ही हूँ।

34 हे ब्रह्मा, जो भी सारयुक्त प्रतीत होता है, यदि वह मुझसे सम्बन्धित नहीं है, तो उसमें कोई वास्तविकता नहीं है। इसे मेरी माया जानो, इसे ऐसा प्रतिबिम्ब मानो जो अंधकार में प्रकट होता है।

35 हे ब्रह्मा, तुम यह जान लो कि ब्रह्माण्ड के सारे तत्त्व विश्व में प्रवेश करते हुए भी प्रवेश नहीं करते हैं। उसी प्रकार मैं उत्पन्न की गई प्रत्येक वस्तु में स्थित रहते हुए भी साथ ही साथ प्रत्येक वस्तु से पृथक रहता हूँ।

36 जो व्यक्ति परम सत्य रूप श्रीभगवान की खोज में लगा हो उसे चाहिए कि वह समस्त परिस्थितियों में सर्वत्र और सर्वदा प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष दोनों ही प्रकार से इसकी खोज करे।

37 हे ब्रह्मा, तुम मन को एकाग्र करके इस निर्णय का पालन करो। तुम्हें, न तो आंशिक और न ही पूर्ण प्रलय के समय किसी प्रकार का गर्व विचलित कर सकेगा।

38 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित से कहा: जीवात्माओं के नायक ब्रह्मा को अपने दिव्य रूप में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हरि इस प्रकार उपदेश देते दिखे और फिर अन्तर्धान हो गये।

39 भक्तों की इन्द्रियों को दिव्य आनन्द प्रदान करने वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हरि के अन्तर्धान हो जाने पर ब्रह्माजी हाथ जोड़े हुए ब्रह्माण्ड की जीवात्माओं से पूर्ण वैसी ही सृष्टि पुनः करने लगे जिस प्रकार वह इसके पूर्व थी।

40 एक बार जीवों के पूर्वज तथा धर्म के पिता ब्रह्माजी ने समस्त जीवात्माओं के कल्याण में ही अपना हित समझते हुए विधिपूर्वक यम-नियमों को धारण किया।

41 ब्रह्मा के उत्तराधिकारी पुत्रों में सर्वाधिक प्रिय नारद अपने पिता की सेवा के लिए सदैव तत्पर रहते हैं और अपने पिता के उपदेशों का अत्यन्त संयम, विनय तथा सौम्यता से पालन करते हैं।

42 हे राजन, नारद ने अपने पिता को अत्यधिक प्रसन्न कर लिया और समस्त शक्तियों के स्वामी विष्णु की शक्तियों के विषय में जानने की इच्छा प्रकट की, क्योंकि नारद समस्त ऋषियों तथा समस्त भक्तों में सर्वोपरि हैं।

43 जब नारद ने देखा कि समस्त ब्रह्माण्ड के प्रपितामह ब्रह्माजी मुझ पर प्रसन्न हैं, तो महर्षि नारद ने अपने पिता से विस्तार में यही पूछा।

44 तब जाकर पिता (ब्रह्मा) ने अपने पुत्र नारद को श्रीमदभागवत नामक उपवेद पुराण कह सुनाया जिसका वर्णन श्रीभगवान ने उनसे किया था और जो दस लक्षणों से युक्त है।

45 हे राजन उसी परम्परा में नारद मुनि ने श्रीमदभागवत का उपदेश अनन्त शक्तिमान उन व्यासदेव को दिया जो सरस्वती नदी के तट पर भक्ति में स्थित होकर परम सत्य, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का ध्यान कर रहे थे।

46 हे राजन, तुम्हारे इस प्रश्न का कि यह ब्रह्माण्ड भगवान के विराट रूप से किस प्रकार प्रकट हुआ तथा अन्य प्रश्नों का उत्तर मैं पूर्वोक्त चारों श्लोकों की व्याख्या के रूप में विस्तारपूर्वक दूँगा।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

 

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अध्याय आठ – राजा परीक्षित द्वारा पूछे गये प्रश्न(2.8)

1 राजा परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा कि नारद मुनि ने, जिनके श्रोता ब्रह्माजी द्वारा उपदेशित श्रोता जितने ही भाग्यशाली हैं, किस प्रकार भौतिक गुणों से रहित भगवान के दिव्य गुणों का वर्णन किया और वे किन-किन के समक्ष बोले?

2 राजा ने कहा: मैं यह जानने का इच्छुक हूँ। अद्भुत शक्तियों से सम्पन्न भगवान से सम्बन्धित कथाएँ निश्चय ही समस्त लोकों के जीवों के लिए शुभ हैं।

3 हे परम भाग्यशाली श्रील शुकदेव गोस्वामी, आप मुझे कृपा करके श्रीमदभागवत सुनाते रहें जिससे मैं अपना मन परमात्मा, भगवान श्रीकृष्ण में स्थिर कर सकूँ और इस प्रकार भौतिक गुणों से सर्वथा मुक्त होकर अपना यह शरीर त्याग सकूँ ।

4 जो लोग नियमित रूप से श्रीमदभागवत सुनते हैं और इसे अत्यन्त गम्भीरतापूर्वक ग्रहण करते हैं, उनके हृदय में अल्प समय में ही भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हो जाते हैं।

5 परमात्मा रूप भगवान श्रीकृष्ण का शब्दावतार (अर्थात श्रीमदभागवत) स्वरूप-सिद्ध भक्त के हृदय में प्रवेश करता है, उसके भावात्मक सम्बन्ध रूप कमल-पुष्प पर आसीन हो जाता है और इस प्रकार काम, क्रोध तथा लोभ जैसी भौतिक संगति की धूल को धो डालता है। इस प्रकार यह गंदले जल के तालाबों में शरद ऋतु की वर्षा के समान कार्य करता है।

6 भगवान का शुद्ध भक्त, जिस का हृदय एक बार भक्तिमय सेवा के द्वारा स्वच्छ हो चुका होता है, वह भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों का कभी भी परित्याग नहीं करता, क्योंकि उसे भगवान वैसी ही परम तुष्टि देते हैं, जैसी कि कष्टकारी यात्रा के पश्चात पथिक को अपने घर में प्राप्त होती है।

7 हे विद्वान ब्राह्मण, दिव्य आत्मा भौतिक देह से पृथक है। तो फिर क्या उसे (आत्मा को)अकस्मात ही देह की प्राप्ति होती है या किसी कारणवश? आपको यह ज्ञात है, अतः कृपा करके मुझे समझाइये।

8 यदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, जिनके उदर से कमलनाल बाहर निकला है, अपने माप के अनुसार विराट शरीर धारण कर सकते हैं, तो फिर भगवान के शरीर तथा सामान्य जीवात्माओं के शरीर में कौन-सा विशेष अन्तर है?

9 ब्रह्माजी जो किसी भौतिक स्रोत से नहीं, अपितु भगवान की नाभि से प्रकट होने वाले कमल के फूल से उत्पन्न हुए है, वे उन सबके स्रष्टा हैं जो इस संसार में जन्म लेते हैं। निस्सन्देह भगवत्कृपा से ही ब्रह्माजी भगवान के स्वरूप को देख सके।

10 कृपया उन भगवान के विषय में भी बताएँ जो प्रत्येक हृदय में परमात्मा और समस्त शक्तियों के स्वामी के रूप में स्थित हैं, किन्तु जिनकी बहिरंगा शक्ति उनका स्पर्श तक नहीं कर पाती।

11 हे विद्वान ब्राह्मण, इसके पूर्व व्याख्या की गई थी कि ब्रह्माण्ड के समस्त लोक अपने-अपने लोकपालकों सहित विराट पुरुष के विराट शरीर के विभिन्न अंगों में ही स्थित हैं। मैंने यह भी सुना है कि विभिन्न लोकमण्डल विराट पुरुष के विराट शरीर में स्थित माने जाते हैं। किन्तु उनकी वास्तविक स्थिति क्या है? कृपा करके मुझे समझाइये।

12 कृपा करके सृष्टि तथा प्रलय के मध्य की अवधि (कल्प) तथा अन्य गौण सृष्टियों (विकल्प) एवं भूत, वर्तमान तथा भविष्य शब्द से सूचित होने वाले काल के विषय में भी मुझे बताएँ। साथ ही, ब्रह्माण्ड के विभिन्न लोकों के विभिन्न जीवों यथा देवों, मनुष्यों इत्यादि की आयु की अवधि के विषय में भी मुझे बताएँ।

13 हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, कृपा करके मुझे काल की लघु तथा दीर्घ अवधियों एवं कर्म की प्रक्रिया के क्रम में काल के शुभारम्भ के विषय में भी बतलाएँ।

14 इसके आगे आप कृपा करके बताएँ कि किस प्रकार भौतिक प्रकृति के विभिन्न गुणों से उत्पन्न फलों का आनुपातिक संचय, इच्छा करनेवाले जीव पर अपना प्रभाव दिखाते हुए उसे विभिन्न योनियों में देवताओं से लेकर अत्यन्त क्षुद्र प्राणियों तक को – ऊपर उठाता या नीचे गिराता है।

15 हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, कृपा करके यह भी बताएँ कि ब्रह्माण्ड भर के गोलकों, स्वर्ग की चारों दिशाओं, आकाश, ग्रहों, नक्षत्रों, पर्वतों, नदियों, समुद्रों तथा द्वीपों एवं इन सबके विविध प्रकार के निवासियों की उत्पत्ति किस प्रकार होती है ?

16 साथ ही कृपा करके ब्रह्माण्ड के बाहरी तथा भीतरी विशिष्ट विभागों, महापुरुषों के चरित्र तथा कार्यों और विभिन्न वर्णों एवं जीवन के चारों आश्रमों के वर्गीकरण का भी वर्णन करें।

17 कृपा करके सृष्टि के विभिन्न युगों तथा उन सबकी अवधियों का वर्णन कीजिये। मुझे विभिन्न युगों में भगवान के विभिन्न अवतारों के कार्य-कलापों के विषय में भी बतलाइये।

18 कृपा करके यह भी बताइये कि मानव समाज के सामान्य धार्मिक सम्पर्क सूत्र क्या हों, धर्म में उनके विशिष्ट कर्तव्य क्या हों, सामाजिक व्यवस्था तथा प्रशासकीय राजकीय व्यवस्था का वर्गीकरण तथा विपत्तिग्रस्त मनुष्य का धर्म क्या हो?

19 कृपा करके सृष्टि के तत्त्वमूलक सिद्धान्तों, इन सिद्धान्तों की संख्या, इनके कारणों तथा इनके विकास और इनके साथ-साथ भक्ति की विधि तथा योगशक्तियों की विधि के विषय में भी बताइये।

20 महान योगियों के ऐश्वर्य क्या हैं और उनकी परम गति क्या है ? पूर्ण योगी किस प्रकार सूक्ष्म शरीर से विरक्त होता है ? इतिहास की शाखाओं तथा पूरक पुराणों समेत वैदिक साहित्य का मूलभूत ज्ञान क्या है ?

21 कृपा करके मुझे बताइये कि जीवों की उत्पत्ति, पालन और उनका संहार किस प्रकार होता है? भगवान की भक्तिमय सेवा करने से जो लाभ तथा हानियाँ होती हैं, उन्हें भी समझाइये। वैदिक अनुष्ठान तथा उपवैदिक धार्मिक कृत्यों के आदेश क्या हैं? धर्म, अर्थ तथा काम के साधनों की विधियाँ क्या हैं?

22 कृपया यह भी समझाएँ कि भगवान के शरीर में समाहित जीव किस प्रकार उत्पन्न होते हैं और पाखण्डीजन किस तरह इस संसार में प्रकट होते हैं? यह भी बताएँ कि किस प्रकार अबद्ध जीवात्माएँ विद्यमान रहती हैं?

23 स्वतंत्र भगवान अपनी अन्तरंगा शक्ति से अपनी लीलाओं का आस्वादन करते हैं और प्रलय के समय वे इन्हें बहिरंगा शक्ति को प्रदान कर देते हैं और स्वयं साक्षी रूप में बने रहते हैं।

24 हे भगवान के प्रतिनिधिस्वरूप महर्षि, आप मेरी उन समस्त जिज्ञासाओं को, जिनके विषय में मैंने आपसे प्रश्न किये हैं तथा उनके विषय में भी जिन्हें मैं जिज्ञासा करने के प्रारम्भ से प्रस्तुत नहीं कर सका, उनके बारे में कृपा करके जिज्ञासा शान्त कीजिये। चूँकि मैं आपकी शरण में आया हूँ, अतः मुझे इस सम्बन्ध में पूर्ण ज्ञान प्रदान करें।

25 हे महर्षि, आप आदि प्राणी ब्रह्मा के तुल्य हैं। अन्य लोग केवल प्रथा का पालन करते हैं जिस प्रकार पूर्ववर्ती दार्शनिक चिन्तक किया करते हैं।

26 हे विद्वान ब्राह्मण, अच्युत भगवान की कथा के अमृत का, जो आपकी वाणी रूपी समुद्र से बह रहा है, मेरे द्वारा पान करने से मुझे उपवास रखने के कारण किसी प्रकार की कमजोरी नहीं लग रही।

27 सूत गोस्वामी ने कहा: महाराज परीक्षित द्वारा भक्तों से सम्बन्धित भगवान श्रीकृष्ण की कथाएँ कहने के लिए आमंत्रित किये जाने पर श्रील शुकदेव गोस्वामी अत्यधिक प्रसन्न हुए।

28-29 उन्होंने महाराज परीक्षित के प्रश्नों का उत्तर देना यह कहकर प्रारम्भ किया कि इस तत्त्व ज्ञान को सर्वप्रथम स्वयं भगवान ने ब्रह्मा से उनके जन्म के समय कहा। श्रीमदभागवत उपवेद है और वेदों का ही अनुकरण करता है।

29 उन्होंने अपने आपको राजा परीक्षित द्वारा जो कुछ पूछा गया था उसका उत्तर देने के लिए तैयार किया। महाराज परीक्षित पाण्डुवंश में सर्वश्रेष्ठ थे, अतः वे उचित व्यक्ति से उचित प्रश्न पूछने में समर्थ हुए।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय सात – विशिष्ट कार्यों के लिए निर्धारित अवतार (2.7)

1 ब्रह्माजी ने कहा: जब अनन्त शक्तिशाली भगवान ने लीला के रूप में ब्रह्माण्ड के गर्भोदक नामक महासागर में डूबी हुई पृथ्वी को ऊपर उठाने के लिए वराह का रूप धारण किया, तो सबसे पहला असुर (हिरण्याक्ष) वहाँ आया । भगवान ने उसे अपने अगले दाँत से विदीर्ण कर दिया।

2 सर्वप्रथम प्रजापति की पत्नी आकूती के गर्भ से सुयज्ञ उत्पन्न हुआ; फिर सुयज्ञ ने अपनी पत्नी दक्षिणा से सुयम इत्यादि देवताओं को उत्पन्न किया। सुयज्ञ ने इन्द्रदेव के रूप में तीनों ग्रह मण्डलों (ऊर्ध्व, निम्न तथा मध्य लोकों) के महान क्लेश कम कर दिए थे, फलतः ब्रह्माण्ड के दुख दूर करने से मानवजाति के महान पिता स्वायम्भुव मनु ने उसे हरि नाम से पुकारा ।

3 इसके पश्चात भगवान कपिल रूप में अवतरित हुए और प्रजापति ब्राह्मण कर्दम तथा उनकी पत्नी देवहूति के पुत्र रूप में अन्य नौ स्त्रियों (बहनों) के साथ जन्म लिया। उन्होंने अपनी माता को आत्म-साक्षात्कार के विषय में शिक्षा दी, जिससे वे उसी जीवन काल में भौतिक गुण रूपी कीचड़ से विमल हो गई और उन्होंने मुक्ति प्राप्त की, जो कपिल का मार्ग है।

4 अत्री महर्षि ने भगवान से सन्तान के लिए प्रार्थना की और उन्होंने प्रसन्न होकर स्वयं ही अत्री के पुत्र दत्तात्रेय (दत्त, अत्री का पुत्र) के रूप में अवतरित होने का वचन दिया और भगवान के चरणकमलों की कृपा से अनेक यदु, हैहय इत्यादि अत्यन्त पवित्र हुए और उन्होंने भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों ही वर प्राप्त किये।

5 विभिन्न लोकों की उत्पत्ति करने के लिए मुझे तपस्या करनी पड़ी और तब भगवान मुझसे प्रसन्न होकर चारों कुमारों ( सनक, सनत्कुमार, सनन्दन तथा सनातन) के रूप में अवतरित हुए। पिछली सृष्टि में आध्यात्मिक सत्य (आत्मज्ञान) का विनाश हो चुका था, किन्तु इन चारों कुमारों ने इतने स्पष्ट ढंग से उसकी व्याख्या की कि मुनियों को तुरन्त सत्य का साक्षात्कार हो गया।

6 उन्होंने अपनी तपस्या तथा आत्मसंयम की विधि प्रदर्शित करने के लिए धर्म की पत्नी तथा दक्ष की पुत्री मूर्ति के गर्भ से नर तथा नारायण जुड़वें रूपों में जन्म लिया। कामदेव की सखियाँ, स्वर्ग की सुन्दरियाँ, उनका व्रत भंग करने आई, किन्तु वे असफल रहीं, क्योंकि उन्हें भगवान के शरीर से अपने समान अनेक सुन्दरियाँ उत्पन्न होती दिखाई पड़ीं।

7 शिव जैसे महापुरुष अपनी रोषपूर्ण चितवन से वासना (काम) को जीतकर उसे दण्डित तो कर सकते हैं, किन्तु वे स्वयं अपने क्रोध के अत्यधिक प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकते। ऐसा क्रोध कभी भी उनके (भगवान के) हृदय में प्रवेश नहीं कर पाता, क्योंकि वे इन सब बातों से परे हैं। तो फिर भला उनके मन में काम को आश्रय कैसे प्राप्त हो सकता है?

8 राजा की उपस्थिति में सौतली माता के कटु वचनों से अपमानित होकर राजकुमार ध्रुव, बालक होते हुए भी, वन में कठिन तपस्या करने लगे और भगवान ने उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर उन्हें ध्रुवलोक प्रदान किया, जिसकी पूजा ऊपर तथा नीचे के लोकों में सभी मुनि करते हैं।

9 महाराज वेन कुमार्गगामी हो गया, अतः ब्राह्मणों ने वज्रशाप से उसे दण्डित किया। इस प्रकार राजा वेन अपने सत्कर्मों तथा ऐश्वर्य के सहित भस्म हो गया और नरक के पथ पर जाने लगा। किन्तु भगवान ने अपनी अहैतुकी कृपा से, उसके पुत्र पृथु के रूप में अवतरित होकर शापित राजा वेन को नरक से उबारा और पृथ्वी का दोहन करके उससे सभी प्रकार की उपजें प्राप्त कीं।

10 राजा नाभि की पत्नी सुदेवी के पुत्र के रूप में भगवान प्रकट हुए और ऋषभदेव कहलाये। अपने मन को समदर्शी बनाने के लिए उन्होंने जड़योग साधना की। इस अवस्था को मुक्ति का सर्वोच्च सिद्ध पद भी माना जाता है। जिसमें मनुष्य अपनी आत्मा में स्थित रहकर पूर्ण रूप से संतुष्ट रहता है।

11 मेरे (ब्रह्मा) द्वारा सम्पन्न किये गए यज्ञ में भगवान हयग्रीव अवतार के रूप में प्रकट हुए। वे साक्षात यज्ञ हैं और उनके शरीर का रंग सुनहला है। वे साक्षात वेद भी हैं और समस्त देवताओं के परमात्मा हैं। जब उन्होंने श्वास ली, तो उनके नथुनों से समस्त मधुर वैदिक स्तोत्रों की ध्वनियाँ प्रकट हुईं।

12 कल्प के अन्त में भावी वैवस्वत मनु, सत्यव्रत, देखेंगे कि मत्स्य अवतार के रूप में श्रीभगवान पृथ्वी पर्यन्त सभी प्रकार के जीवात्माओं के आश्रय हैं। तब कल्प के अन्त में, जल के मेरे भय से, सभी वेद मेरे (ब्रह्मा के) मुँह से निकलते हैं तथा भगवान उस विशाल जल राशि का आनन्द उठाते हुए वेदों की रक्षा करते हैं।

13 तब आदि भगवान मथानी की तरह उपयोग में लाये जा रहे मन्दराचल पर्वत के लिए धुरी (आश्रय स्थल) के रूप में कच्छप रूप में अवतरित हुए। देवता तथा असुर अमृत निकालने के उद्देश्य से मन्दराचल को मथानी बनाकर क्षीर सागर का मन्थन कर रहे थे। यह पर्वत आगे-पीछे घूम रहा था, जिससे भगवान कच्छप की पीठ पर रगड़ पड़ रही थी तब वे अधजगी निद्रा में थे और खुजलाहट का अनुभव कर रहे थे, उनकी पीठ रगड़ी जाने लगी।

14 श्रीभगवान ने देवताओं के अदम्य भय को मिटाने के लिए नृसिंह-देव का अवतार ग्रहण किया। उन्होंने असुरों के उस राजा (हिरण्यकशिपु) को अपनी जाँघों पर रखकर अपने नाखूनों से विदीर्ण कर डाला, जो हाथ में गदा लेकर भगवान को ललकार रहा था। उस समय उनकी भौहें क्रोध से फड़क रही थीं और उनके दाँत तथा उनका मुख भयावने लग रहे थे।

15 अत्यन्त बलशाली मगर के द्वारा नदी के भीतर पाँव पकड़ लिये जाने से हाथियों का नायक अत्यन्त पीड़ित था, उसने अपनी सूँड में कमल का फूल लेकर भगवान को इस प्रकार सम्बोधित किया, “हे आदि भोक्ता, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी! हे उद्धारक, हे तीर्थ के समान विख्यात! आपके पवित्र नाम जो जपे जाने के योग्य हैं, उनके श्रवण मात्र से ही सभी लोग पवित्र हो जाते हैं।

16 हाथी की पुकार सुनकर श्रीभगवान को लगा कि उसे उनकी अविलम्ब सहायता की आवश्यकता है, क्योंकि वह घोर संकट में था। तब भगवान पक्षीराज गरुड़ के पंखों पर आसीन होकर अपने आयुध चक्र से सज्जित होकर वहाँ पर तुरन्त प्रकट हुए। उन्होंने हाथी की रक्षा करने के लिए अपने चक्र से मगर के मुँह के खण्ड-खण्ड कर दिये और हाथी को सूँड से पकड़कर उसे बाहर निकाल लिया।

17 भगवान समस्त भौतिक गुणों से परे होते हुए भी अदिति के पुत्रों (आदित्यों) के गुणों से कहीं बढ़कर थे। वे अदिति के सबसे छोटे पुत्र के रूप में प्रकट हुए और क्योंकि उन्होंने ब्रह्माण्ड के समस्त ग्रहों को पार किया, अतः वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं। उन्होंने तीन पग भूमि माँगने के बहाने से बलि महाराज की सारी भूमि ले ली। उन्होंने याचना इसीलिए की क्योंकि बिना याचना के, सन्मार्ग पर चलने वाले से कोई उसकी अधिकृत सम्पत्ति नहीं ले सकता।

18 अपने सिर पर भगवान के कमल-पाद प्रक्षालित जल को धारण करने वाले बलि महाराज ने अपने गुरु द्वारा मना किये जाने पर भी अपने वचन के अतिरिक्त मन में अन्य कुछ धारण नहीं किया। राजा ने भगवान के तीसरे पग को पूरा करने के लिए अपना शरीर भी समर्पित कर दिया। ऐसे महापुरुष के लिए अपने बाहुबल से जीते गए स्वर्ग के साम्राज्य का भी कोई महत्त्व नहीं था।

19 हे नारद, तुम्हें श्रीभगवान ने अपने हंसावतार में ईश्वर के विज्ञान तथा दिव्य प्रेममयी सेवा के विषय में शिक्षा दी थी। वे तुम्हारी अगाध भक्ति से अत्यधिक प्रसन्न हुए थे। उन्होंने तुम्हें भक्ति का पूरा विज्ञान भी अत्यन्त सुबोध ढंग से समझाया था, जिसे केवल भगवान वासुदेव के प्रति पूर्ण समर्पित व्यक्ति ही समझ सकते हैं।

20 भगवान ने मनु-अवतार लिया और वे मनुवंश के वंशज बन गये। उन्होंने अपने शक्तिशाली सुदर्शन चक्र से दुष्ट राजाओं का दमन करके उन पर शासन किया। समस्त परिस्थितियों में अबाध रहते हुए, उनका शासन उनकी महिमामयी कीर्ति से मण्डित था। जो तीनों लोकों तथा ब्रह्माण्ड के सर्वोच्च सत्यलोक तक फैली हुई थी।

21 अपने धन्वन्तरी अवतार में भगवान अपने साक्षात यश के द्वारा निरन्तर रुग्ण रहने वाले जीवात्माओं के रोगों का तुरन्त उपचार कर देते हैं और उनके कारण ही सभी देवता दीर्घायु प्राप्त करते हैं। इस प्रकार भगवान सदा के लिए महिमामण्डित हो जाते हैं। उन्होंने यज्ञों में से भी एक अंश निकाल लिया और उन्होंने ही विश्व में औषधि विज्ञान (आयुर्वेद) का प्रवर्तन किया ।

22 जब शासक वर्ग जो क्षत्रिय नाम से जाने जाते थे, परम सत्य के पथ से भ्रष्ट हो गये और नरक भोगने के पात्र हो गये, तब भगवान ने परशुराम ऋषि का अवतार लेकर उन अवांछित राजाओं का उच्छेद किया, जो पृथ्वी के लिए कंटक बने हुए थे। इस तरह उन्होंने अपने तीक्ष्ण फरसे के द्वारा क्षत्रियों का इक्कीस बार उच्छेदन किया।

23 इस ब्रह्माण्ड के समस्त जीवों पर अहैतुकी कृपा के कारण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान अपने पूर्ण अंशों सहित महाराज इक्ष्वाकु के कुल में अपनी अन्तरंगा शक्ति, सीताजी, के स्वामी के रूप में प्रकट हुए। वे अपने पिता महाराज दशरथ की आज्ञा से वन गये और अपनी पत्नी तथा छोटे भाई के साथ कई वर्षों तक वहाँ रहे। भौतिक रूप से अत्यन्त शक्तिशाली दस सिरों वाले रावण ने उनके प्रति महान अपराध किया और जिससे अन्ततः वह विनष्ट हो गया।

24 दूरस्थ अपनी घनिष्ठ संगिनी (सीता) के वियोग से दुखी श्रीरामचन्द्र ने अपने शत्रु रावण की नगरी पर हर (शिव) के जैसे ज्वलित लाल-लाल नेत्रों से दृष्टि डाली। अपार समुद्र ने उन्हें भय से काँपते हुए मार्ग दे दिया, क्योंकि उसके परिवार के सभी जलचर सदस्य यथा मगरमच्छ, सर्प तथा घड़ियाल भगवान के रक्त नेत्रों की क्रोधाग्नि से जले जा रहे थे।

25 जब रावण युद्ध कर रहा था, तो उसकी छाती से टकराकर स्वर्ग के राजा इन्द्र के हाथी की सूँड खण्ड-खण्ड हो गई और ये खण्ड बिखरकर चारों दिशाओं को चकाचौंध करने लगे। अतः रावण को अपने शौर्य पर गर्व होने लगा और वह अपने को समस्त दिशाओं का विजेता समझ कर सैनिकों के बीच इतराने लगा। किन्तु भगवान श्रीरामचन्द्र द्वारा अपने धनुष पर टनकार करने पर उसकी वह प्रसन्नता की हँसी उसकी प्राणवायु के साथ ही सहसा बन्द हो गई।

26 जब पृथ्वी पर ईश्वर में श्रद्धा न रखने वाले परस्पर लड़ने वाले राजाओं का भार बढ़ जाता है, तब भगवान संसार का कष्ट कम करने के लिए अपने पूर्ण अंश समेत अवतरित होते हैं। वे सुन्दर काले-काले केशों से युक्त अपने आदि रूप में आते हैं और अपनी दिव्य महिमा के विस्तार के लिए ही अलौकिक कार्य करते हैं। कोई उनकी महानता का अनुमान नहीं लगा सकता ।

27 भगवान श्रीकृष्ण के परमेश्वर होने में कोई सन्देह नहीं है, अन्यथा जब वे अपनी माता की गोद में थे, तो पूतना जैसी राक्षसी का वध किस तरह कर सकते थे; तीन मास की आयु में ही अपने पाँव से छकड़े को कैसे पलट सकते थे और जब घुटने के बल चल रहे थे तभी गगनचुम्बी अर्जुन वृक्षों के जोड़े को समूल कैसे उखाड़ सकते थे? ये सभी कार्य स्वयं भगवान के अतिरिक्त अन्य किसी के लिए असम्भव है।

28 जब ग्वालों तथा उनके पशुओं ने यमुना नदी का विषैला जल पी लिया और जब भगवान ने (अपने बचपन में) अपनी कृपादृष्टि से ही उन्हें जीवित कर दिया, तब यमुना नदी के जल को शुद्ध करने के लिए ही वे उसमें मानो खेल-खेल में कूद पड़े। उन्होंने विषैले कालिय नाग को दण्ड दिया, जो अपनी लपलपाती जीभ से विष की लहरें निकाल रहा था। भला परमेश्वर के अतिरिक्त ऐसा महान कार्य करने में और कौन समर्थ है?

29 कालिय नाग को दण्डित करने के दिन ही रात्रि के समय, जब ब्रजभूमि के समस्त निवासी निश्चिन्त होकर सो रहे थे, तो सूखी पत्तियों के कारण जंगल में अग्नि धधक उठी और ऐसा लगा मानो उनकी मृत्यु अवश्यम्भावी है। किन्तु आँखें बन्द करके बलरामजी के साथ भगवान ने उन सबको बचा लिया। ऐसे हैं भगवान के अलौकिक कार्यकलाप !

30 जब गोपी (कृष्ण की पालक माता यशोदा) अपने पुत्र के दोनों हाथों को रस्सियों से बाँधने का प्रयास कर रही थी, तो उसने देखा कि रस्सी हमेशा छोटी पड़ जाती थी, अतः हार कर जब उसने प्रयास करना बन्द कर दिया, तब भगवान कृष्ण ने अपना मुँह खोल दिया तो माता यशोदा को मुख के भीतर सारे ब्रह्माण्ड स्थित दिखे। यह देखकर उसे सन्देह हुआ, किन्तु वह अपने पुत्र की योगशक्ति को अलग प्रकार से समझ रही थी।

31 भगवान श्रीकृष्ण ने अपने पालक पिता नन्द महाराज को वरुण के भय से बचाया और ग्वालबालों को पर्वत की गुफा में से मुक्त किया, जहाँ मय के पुत्र ने उन्हे बन्दी बना रखा था। यही नहीं, भगवान श्रीकृष्ण ने वृन्दावन के समस्त वासियों को, जो दिन भर काम में व्यस्त रहकर रात में थक कर निश्चिन्त सोते थे, परव्योम में सर्वोच्च लोक का भागी बना दिया। ये सारे कार्य दिव्य हैं और इनके ईश्वरत्व को सिद्ध करनेवाले हैं।

32 जब वृन्दावन के ग्वालों ने कृष्ण के आदेश से स्वर्ग के राजा इन्द्र को यज्ञ प्रदान करना बन्द कर दिया, तब सारी ब्रजभूमि लगातार सात दिनों तक होने वाली वर्षा से बह जाने के भय से संकटग्रस्त हो गई। तब केवल सात वर्ष की आयु के श्रीकृष्ण ने ब्रजवासियों पर अपनी अहैतुकी कृपावश केवल अपने एक हाथ से गोवर्धन पर्वत को उठा लिया। ऐसा उन्होंने वर्षा से पशुओं की रक्षा करने के लिए ही किया।

33 जब भगवान वृन्दावनवासियों की पत्नियों में अपने मधुर तथा सुरीले गीतों द्वारा माधुर्य-रस जागृत करते हुए वृन्दावन में रासलीला में मग्न थे, तब कुबेर के एक धनी अनुचर शंखचूड़ नामक राक्षस द्वारा गोपियों का हरण किये जाने पर भगवान ने उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।

34-35 प्रलम्ब, धेनुक, बक, केशी, अरिष्ट, चाणुर, मुष्टिक, कुवलयापीड हाथी, कंस, यवन, नरकासुर तथा पौण्डरक जैसे असुर; शाल्व, द्विविद वानर तथा बल्वल, दन्तवक्र, सातों साँड़, शम्बर, विदूरथ तथा रुक्मी जैसे सिपहसालार तथा काम्बोज, मत्स्य, कुरु, सृञ्जय तथा केकय जैसे वीर योद्धा, साक्षात हरि से अथवा बलदेव, अर्जुन, भीम आदि नामों की आड़ में स्वयं श्रीभगवान से भीषण युद्ध करेंगे और इस प्रकार से मारे गये सभी असुर या तो निर्विशेष ब्रह्मज्योति को प्राप्त होंगे या वैकुण्ठ ग्रहों में स्थित भगवान के धाम को प्राप्त होंगे।

36 सत्यवती के पुत्र (व्यासदेव) के रूप में अवतरित होकर स्वयं भगवान वैदिक साहित्य के संग्रह को अल्पजीवी अल्पज्ञों के लिए कठिन समझकर वैदिक ज्ञानरूपी वृक्ष को युग विशेष की परिस्थितियों के अनुसार शाखाओं में विभाजित कर देंगे।

37 जब नास्तिक लोग वैदिक विज्ञान में अत्यन्त दक्ष बनकर महान विज्ञानी मय के द्वारा निर्मित श्रेष्ठ प्रक्षेपास्त्रों में चढ़कर आकाश में अदृश्य उड़ते हुए विभिन्न ग्रहों के निवासियों का संहार करेंगे, तो भगवान बुद्ध रूप में अत्यन्त आकर्षक वेष धारण करके उनके मस्तिष्कों को मोह लेंगे और उन्हें उपधर्मों का उपदेश देंगे।

38 तत्पश्चात कलियुग के अन्त में, जब तथाकथित सन्तों तथा तीन उच्च वर्गों के सम्माननीय मनुष्यों के घरों में भी ईश्वर की कथा नहीं होगी और जब सरकार की शक्ति निम्न कुल में उत्पन्न शूद्रों अथवा उनसे भी निम्न लोगों में से चुने गये मंत्रियों के हाथों में चली जाएगी और जब यज्ञ विधि के विषय में कुछ भी, यहाँ तक कि शब्द के द्वारा भी, ज्ञात नहीं रहेंगे तो उस समय भगवान परम दण्डदाता के रूप में प्रकट होंगे।

39 सृष्टि के प्रारम्भ में तपस्या, मैं (ब्रह्मा) तथा जन्म देने वाले ऋषि प्रजापति रहते हैं; फिर सृष्टि के पालन के समय पर भगवान विष्णु, नियामक देवता तथा विभिन्न ग्रहों के राजा रहते हैं। किन्तु अन्त काल में अधर्म बचा रहता है और रहते हैं शिवजी तथा क्रोधी नास्तिक इत्यादि। वे सब के सब परम शक्ति रूप भगवान की शक्ति के विभिन्न प्रतिनिधियों के रूप हैं।

40 भला ऐसा कौन है, जो विष्णु के पराक्रम का पूरी तरह से वर्णन कर सके? यहाँ तक कि वह विज्ञानी भी, जिसने ब्रह्माण्ड के समस्त अणुओं के कणों की गणना की होगी, वह भी ऐसा नहीं कर सकता। वे ही एकमात्र ऐसे हैं, जिन्होंने त्रिविक्रम के रूप में जब अपने पाँव को बिना प्रयास के सर्वोच्च लोक, सत्यलोक से भी आगे प्रकृति के तीनों गुणों की साम्यावस्था तक बढ़ाया था, तो सारा ब्रह्माण्ड हिलने लगा था।

41 न तो मैं न तुमसे पहले उत्पन्न हुए मुनिगण ही सर्वशक्तिमान भगवान को भलीभाँति जानते हैं। अतः जो हमारे बाद उत्पन्न हुए हैं, वे उनके विषय में क्या जानेंगे? यहाँ तक कि भगवान के प्रथम अवतार शेष भी, जो अपने एक सहस्त्र मुखों से भगवान के गुणों का वर्णन करते रहते हैं, ऐसे ज्ञान का अन्त नहीं पा सके हैं।

42 किन्तु यदि भगवान की सेवा में निश्छल भाव से आत्मसमर्पण करने से परमेश्वर की किसी पर विशेष कृपा होती है, तो वह माया के दुर्लंघ्य सागर को पार कर सकता है और भगवान को जान पाता है। किन्तु जिसे अन्त में कुत्तों तथा सियारों का भोजन बनना है, ऐसे इस शरीर के प्रति जो आसक्त हैं, वे ऐसा नहीं कर पाते।

43-45 हे नारद, यद्यपि भगवान की शक्तियाँ अज्ञेय तथा अपरिमेय हैं, फिर भी शरणागत जीव होने के नाते हम समझ सकते हैं कि वे योगमाया की शक्तियों के द्वारा किस प्रकार कार्य करते हैं। इसी प्रकार भगवान की शक्तियाँ इन सभी को भी ज्ञात हैं – सर्वशक्तिमान शिव, नास्तिक कुल के महान राजा प्रह्लाद महाराज, स्वायम्भुव मनु, उनकी पत्नी शतरूपा, उनके पुत्र तथा पुत्रियाँ यथा प्रियव्रत, उत्तानपाद, आकूति, देवहूति तथा प्रसूति; प्राचीनबर्हि, ऋभू, वेन के पिता अंग, महाराज ध्रुव, इक्ष्वाकु, ऐल, मुचूकुन्द, महाराज जनक, गाधि, रघु, अम्बरीष, सगर, गय, नाहुष, मान्धाता, अलर्क, शतधनु, अनु, रन्तीदेव, भीष्म, बलि, अमूर्त्तरय, दिलीप, सौभरी, उतङ्क, शिबी, देवल, पिप्पलाद, सारस्वत, उद्धव, पराशर, भूरिषेण, विभीषण, हनुमान, श्रील शुकदेव गोस्वामी, अर्जुन, आर्ष्टिषेण, विदुर, श्रुतदेव इत्यादि ।

46 पापी जीवन बिताने वाले समुदायों में से भी शरणागत लोग, जैसे स्त्री, शूद्र, हूण (पर्वती लोग) तथा शबर (साइबेरिया वासी), यहाँ तक कि पशु-पक्षी भी, भगवदविज्ञान के विषय में जान सकते हैं। वे भगवान के शुद्ध भक्तों की शरण में जाकर तथा भक्तिपथ पर उनके पदचिन्हों का अनुसरण करके माया के चंगुल से छूट जाते हैं।

47 परब्रह्म के रूप में जिनकी अनुभूति की जाती है, वे शोकरहित असीम आनन्द से युक्त हैं। यह निश्चय ही परम भोक्ता भगवान की अनन्तिम अवस्था है। वे शाश्वत रूप में सारे विघ्नों से रहित तथा निर्भय हैं। वे पदार्थ नहीं, अपितु परिपूर्ण चेतना हैं। वे संदूषण मुक्त हैं, भेदरहित हैं और समस्त कारणों तथा कार्यों का आदि कारण हैं, जिनमें सकाम कर्मों के लिए न तो यज्ञ करना होता है और न जिनके सामने माया ठहरती है।

48 ऐसी दिव्य अवस्था में न तो कृत्रिम रीति से मन को वश में करने की, न ही मानसिक तर्क या ध्यान करने की आवश्यकता रहती है, जैसा कि ज्ञानियों तथा योगियों द्वारा किया जाता है। मनुष्य ऐसी विधियों को उसी प्रकार त्याग देता है, जिस प्रकार स्वर्ग का राजा इन्द्र कुँ आ खोदने का कष्ट नहीं उठाता।

49 जो कुछ भी कल्याणकर है उसके परम स्वामी भगवान हैं, क्योंकि जीवात्मा जो भी कर्म करता है, चाहे वे भौतिक अवस्था में अथवा आध्यात्मिक अवस्था में किये जाँय, सबका फल देनेवाले भगवान हैं। इस प्रकार वे ही अन्तिम लाभ प्रदान करने वाले हैं। प्रत्येक व्यक्तिगत जीवात्मा अजन्मा है, अतः इस भौतिक तत्त्वमय शरीर के विनष्ट होने के बाद भी, जीवात्मा उसी प्रकार बना रहता है, जिस प्रकार शरीर के भीतर वायु होती है।

50 हे प्रिय पुत्र, मैंने तुम्हें संक्षेप में प्रकट जगतों के स्रष्टा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के विषय में बतलाया है। गोचर तथा तात्त्विक अस्तित्व का कारण भगवान हरि के अतिरिक्त और कोई नहीं है।

51 हे नारद, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने ही मुझे श्रीमदभागवत नामक यह भगवान का विज्ञान संक्षिप्त रूप में बतलाया था और यह उनकी विभिन्न शक्तियों का संग्रह है। अब तुम स्वयं इस ज्ञान का विस्तार करो।

52 कृपया तुम इस भगवदविज्ञान का संकल्पपूर्वक इस विधि से वर्णन करो, जिससे कि सभी मनुष्य, प्रत्येक जीव के परमात्मा तथा समस्त शक्तियों के आधारस्वरूप भगवान हरि के प्रति दिव्य भक्ति उत्पन्न कर सकें।

53 विभिन्न शक्तियों से सम्बन्धित भगवान के कार्यकलापों का वर्णन, उनकी प्रशंसा तथा उनका श्रवण परमेश्वर की शिक्षाओं के अनुसार होना चाहिए। यदि नियमित रूप से श्रद्धा तथा सम्मानपूर्वक ऐसा किया जाता है, तो मनुष्य निश्चित रूप से भगवान की भ्रामक शक्ति माया से उबर जाता है।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय छह – पुरुष सूक्त की पुष्टि (2.6)

1 ब्रह्माजी ने कहा: विराट पुरुष का मुख वाणी का उद्गम-केंद्र है और उसका नियामक देव अग्नि है। उनकी त्वचा तथा अन्य छह स्तर (आवरण) वैदिक मंत्रों के उद्गम-केंद्र हैं और उनकी जीभ देवताओं, पितरों तथा सामान्यजनों को अर्पित करने वाले विभिन्न खाद्यों तथा व्यंजनों (रसों) का उद्गम है।

2 उनके दोनों नथुनें हमारे श्वास के तथा अन्य सभी प्रकार की वायु के जनन-केंद्र हैं; उनकी घ्राण शक्ति से अश्विनीकुमार तथा समस्त प्रकार की जड़ी-बूटियाँ उत्पन्न होती हैं और उनकी श्वास-शक्ति से विभिन्न प्रकार की सुगन्धियाँ उत्पन्न होती हैं।

3 उनके नेत्र सभी प्रकार के रूपों के उत्पत्ति-केंद्र हैं। वे चमकते हैं तथा प्रकाशित करते हैं। उनकी पुतलियाँ (नेत्र-गोलक) सूर्य तथा दैवी नक्षत्रों की भाँति हैं। उनके कान सभी दिशाओं में सुनते हैं और समस्त वेदों को ग्रहण करनेवाले हैं। उनकी श्रवणेन्द्रिय आकाश तथा समस्त प्रकार की ध्वनियों की उद्गम है।

4 उनके शरीर की ऊपरी सतह सभी वस्तुओं के सार एवं समस्त शुभ अवसरों की जन्म-स्थली है। उनकी त्वचा गतिशील वायु की भाँति सभी प्रकार के स्पर्श का उद्गम तथा समस्त प्रकार के यज्ञों को सम्पन्न करने का स्थान है।

5 उनके शरीर के रोम समस्त प्रकार की वनस्पति के कारण हैं, विशेष रूप से उन वृक्षों के, जो यज्ञ की सामग्री (अवयव) के रूप में काम आते हैं। उनके सिर तथा मुख के बाल बादलों के आगार हैं और उनके नाखून बिजली, पत्थरों तथा लौह अयस्कों के उद्गम-स्थल हैं।

6 भगवान की भुजाएँ बड़े-बड़े देवताओं तथा जनसमान्य की रक्षा करनेवाले अन्य नायकों के उद्गम-स्थल हैं।

7 भगवान के अगले डग ऊर्ध्व, अधो तथा स्वर्गलोकों के एवं हमें जो भी चाहिए, उसके आश्रय हैं। उनके चरणकमल सभी प्रकार के भय के लिए सुरक्षा का काम करते हैं।

8 भगवान के जननांगों से जल, वीर्य, सृजनकर्ता अवयव, वर्षा तथा प्रजापतियों का जन्म होता है। उनके जननांग उस आनन्द के कारण-स्वरूप हैं, जिससे जनन के कष्ट का प्रतिकार किया जा सकता है।

9 हे नारद, भगवान के विराट रूप का गुदाद्वार मृत्यु के नियामक देव, मित्र, का लोक है और भगवान की बड़ी आँत का छोर ईर्ष्या, दुर्भाग्य, मृत्यु, नरक आदि का स्थान माना जाता है।

10 भगवान की पीठ समस्त प्रकार की उद्विग्नता तथा अज्ञान एवं अनैतिकता का स्थान है। उनकी नसों से नदियाँ तथा नाले प्रवाहित होते हैं और उनकी हड्डियों पर बड़े-बड़े पहाड़ बने हैं।

11 भगवान का निराकार पहलू महासागरों का आश्रय स्थान है और उनका उदर भौतिक दृष्टि से विनष्ट जीवों का आश्रय है। उनका हृदय जीवों के सूक्ष्म भौतिक शरीरों का आश्रयस्थान है। बुद्धिमान लोग इसे इस प्रकार से जानते हैं।

12 तथापि उन महापुरुष की चेतना धार्मिक सिद्धान्तों का – मेरा, तुम्हारा तथा चारों कुमारों सनक, सनातन, सनत्कुमार तथा सनन्दन का निवास-स्थान है। यही चेतना सत्य तथा दिव्य ज्ञान का निवास स्थान है।

13-16 मुझसे (ब्रह्मा से) लेकर तुम तथा भव (शिव) तक जितने भी बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तुमसे पूर्व हुए हैं, वे, देवतागण, असुरगण, नाग, मनुष्य, पक्षी, पशु, सरीसृप इत्यादि तथा समस्त ब्रह्माण्डों की सारी दृश्य-अभिव्यक्तियाँ यथा ग्रह, नक्षत्र, पुच्छलतारे, सितारे, विद्युत, गर्जन तथा विभिन्न लोकों के निवासी यथा – गन्धर्व, अप्सरा, यक्ष, राक्षस, भूतगण, उरग, पशु, पितर, सिद्ध, विद्याधर, चारण एवं अन्य विविध प्रकार के जीव जिनमें पक्षी, पशु तथा वृक्ष एवं अन्य जो कुछ हो सकता है, सभी सम्मिलित हैं – वे सभी भूत, वर्तमान तथा भविष्य सभी कालों में भगवान के विराट रूप द्वारा आच्छादित हैं, यद्यपि वे इन सबों से परे रहते हैं और सदैव एक बालिश्त आकार रूप में रहते हैं।

17 सूर्य अपने विकिरणों का विस्तार करके भीतर तथा बाहर प्रकाश वितरित करता है। इसी प्रकार से भगवान अपने विराट रूप का विस्तार करके इस सृष्टि में प्रत्येक वस्तु का आन्तरिक तथा बाह्य रूप से पालन करते हैं।

18 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान अमरता तथा निर्भयता के नियंत्रक हैं और वे भौतिक जगत के मृत्यु तथा सकाम कर्मों से परे हैं। हे नारद, हे ब्राह्मण, इसलिए परम पुरुष के यश का अनुमान लगा पाना कठिन है।

19 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान अपनी एक चौथाई शक्ति के द्वारा समस्त भौतिक ऐश्वर्य के परम आगार के रूप में जाने जाते हैं, जिसमें सारे जीव रह रहे हैं। भगवान का धाम जो तीन उच्चतर लोकों तथा भौतिक आवरणों से परे स्थित है, उसमें अमरता, निर्भयता तथा जरा और व्याधि से चिन्तामुक्ति का अस्तित्व रहता है।

20 आध्यात्मिक जगत, जो भगवान की तीन चौथाई शक्ति से बना है, इस भौतिक जगत से परे स्थित है और यह उन लोगों के निमित्त है जिनका पुनर्जन्म नहीं होता। अन्य लोग, जो गृहस्थ जीवन के प्रति आसक्त हैं और ब्रह्मचर्य व्रत का कठोरता से पालन नहीं करते, उन्हें तीन लोकों के अन्तर्गत ही रहना होता है।

21 सर्वव्यापी भगवान अपनी शक्तियों के कारण व्यापक अर्थों में नियंत्रण-कार्यों तथा भक्तिमय सेवा के स्वामी हैं। वे समस्त परिस्थितियों की वास्तविक विद्या तथा अविद्या दोनों के परम स्वामी हैं।

22 भगवान से सारे ब्रह्माण्ड तथा समस्त भौतिक तत्त्वों, गुणों एवं इन्द्रियों से युक्त विराट रूप उत्पन्न होते हैं। फिर भी वे ऐसे भौतिक प्राकट्यों से उसी तरह पृथक रहते हैं, जिस तरह सूर्य अपनी किरणों तथा ताप से पृथक रहता है।

23 जब मैं महापुरुष भगवान (महाविष्णु) के नाभि-कमल पुष्प से उत्पन्न हुआ था, तो मेरे पास यज्ञ-अनुष्ठानों के लिए उन महापुरुष के शारीरिक अंगों के अतिरिक्त अन्य कोई सामग्री न थी।

24 यज्ञोत्सवों को सम्पन्न करने के लिए फूल, पत्ती, कुश जैसी यज्ञ-सामग्रियों के साथ-साथ यज्ञ-वेदी तथा उपयुक्त समय (वसन्त) की भी आवश्यकता होती है।

25 यज्ञ की अन्य आवश्यकताएँ हैं – पात्र, अन्न, घी, शहद, सोना, मिट्टी, जल, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा यज्ञ सम्पन्न करानेवाले चार पुरोहित।

26 यज्ञ की अन्य आवश्यकताओं में देवताओं का विभिन्न नामों से विशिष्ट मंत्रों तथा दक्षिणा के व्रतों द्वारा आवाहन सम्मिलित हैं। ये आवाहन विशिष्ट प्रयोजनों से तथा विशिष्ट विधियों द्वारा विशेष शास्त्र के अनुसार होने चाहिए।

27 इस प्रकार मुझे भगवान के शारीरिक अंगों से ही यज्ञ के लिए इन आवश्यक सामग्रियों की तथा साज-सामान की व्यवस्था करनी पड़ी। देवताओं के नामों के आवाहन से चरम लक्ष्य विष्णु की क्रमशः प्राप्ति हुई और इस प्रकार प्रायश्चित तथा पूर्णाहुति पूरी हुई।

28 इस प्रकार मैंने यज्ञ के भोक्ता परमेश्वर के शरीर के अंगों से यज्ञ के लिए सारी सामग्री तथा साज-सामान उत्पन्न किये और भगवान को प्रसन्न करने के लिए मैंने यज्ञ सम्पन्न किया।

29 हे पुत्र, तत्पश्चात तुम्हारे नौ भाइयों ने, जो प्रजापति हैं, व्यक्त तथा अव्यक्त दोनों प्रकार के पुरुषों को प्रसन्न करने के लिए समुचित अनुष्ठानों सहित यज्ञ सम्पन्न किया।

30 तत्पश्चात, मनुष्यों के पिताओं अर्थात मनुओं, महर्षियों, पितरों, विद्वान पण्डितों, दैत्यों तथा मनुष्यों ने परमेश्वर को प्रसन्न करने के निमित्त यज्ञ सम्पन्न किये।

31 अतएव सारे ब्रह्माण्डों की भौतिक अभिव्यक्तियाँ उनकी शक्तिशाली भौतिक शक्तियों में स्थित हैं, जिन्हें वे स्वतः स्वीकार करते हैं, यद्यपि वे भौतिक गुणों से सदैव निर्लिप्त रहते हैं।

32 उनकी इच्छा से मैं सृजन करता हूँ, शिवजी विनाश करते हैं और वे स्वयं अपने सनातन भगवान रूप से सबों का पालन करते हैं। वे इन तीनों शक्तियों के शक्तिमान नियामक हैं।

33 प्रिय पुत्र, तुमने मुझसे जो कुछ पूछा था, उसको मैंने इस तरह तुम्हें बतला दिया। तुम यह निश्चय जानो कि जो कुछ भी यहाँ है (चाहे वह कारण हो या कार्य, दोनों ही - आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों में) वह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान पर आश्रित है।

34 हे नारद, चूँकि मैंने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हरि के चरणकमलों को अत्यन्त उत्कण्ठा के साथ पकड़ रखा है, अतएव मैं जो कुछ कहता हूँ, वह कभी असत्य नहीं होता। न तो मेरे मन की प्रगति कभी अवरुद्ध होती है, न ही मेरी इन्द्रियाँ कभी भी पदार्थ की क्षणिक आसक्ति से पतित होती हैं।

35 यद्यपि मैं वैदिक ज्ञान की शिष्य-परम्परा में दक्ष महान ब्रह्मा के रूप में विख्यात हूँ, मैंने सारी तपस्याएँ की हैं, मैं योगशक्ति एवं आत्म-साक्षात्कार में पटु हूँ और मुझे सादर प्रणाम करनेवाले जीवों के महान प्रजापति मुझे इसी रूप में मानते हैं, तो भी मैं उन भगवान को नहीं समझ सकता, जो मेरे जन्म के मूल उद्गम हैं।

36 अतएव मेरे लिए श्रेयस्कर होगा कि मैं उनके चरणों में आत्म समर्पण कर दूँ, क्योंकि केवल वे ही मनुष्य को जन्म-मृत्यु के चक्र से उबार सकते हैं। ऐसा आत्म-समर्पण सर्वथा कल्याणप्रद है और इससे समस्त सुख की अनुभूति होती है। आकाश भी अपने विस्तार की सीमाओं का अनुमान नहीं लगा सकता। अतएव जब भगवान ही अपनी सीमाओं का अनुमान लगाने में अक्षम रहते हैं, तो भला दूसरे क्या कर सकते हैं?

37 जब न शिवजी, न तुम और न मैं ही आध्यात्मिक आनन्द की सीमा तय कर सके हैं, तो अन्य देवता इसे कैसे जान सकते हैं? चूँकि हम सभी परमेश्वर की माया से मोहित हैं, अतएव हम अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार ही इस व्यक्त विश्व को देख सकते हैं।

38 हम उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को सादर प्रणाम करते हैं, जिनके अवतारों तथा कार्य-कलापों का गायन हमारे द्वारा उनके महिमा-मण्डन के लिए किया जाता है, यद्यपि वे अपने यथार्थ रूप में बड़ी कठिनाई से ही जाने जा सकते हैं।

39 वे परम आदि भगवान श्रीकृष्ण, प्रथम अवतार महाविष्णु के रूप में अपना विस्तार करके इस व्यक्त जगत की सृष्टि करते हैं, किन्तु वे अजन्मा रहते हैं। फिर भी सृजन उन्हीं में होता है और भौतिक पदार्थ तथा अभिव्यक्ति भी वे ही हैं। वे कुछ काल तक उनका पालन करते हैं और फिर उन्हें अपने में समाहित कर लेते हैं।

40-41 भगवान पवित्र हैं और भौतिक प्रभाव के समस्त कल्मष से रहित हैं। वे परम सत्य हैं और पूर्ण ज्ञान के मूर्तिमंत रूप हैं। वे सर्वव्यापी, अनादि, अनन्त तथा अद्वय हैं। हे नारद, हे महर्षि, बड़े-बड़े मुनि उन्हें तभी जान सकते हैं, जब वे समस्त भौतिक लालसाओं से मुक्त हो जाते हैं और अविचलित इन्द्रियों की शरण ग्रहण कर लेते हैं। अन्यथा व्यर्थ के तर्कों से सब कुछ विकृत हो जाता है और भगवान हमारी दृष्टि से ओझल हो जाते हैं।

42 कारणार्णवशायी विष्णु ही परमेश्वर के प्रथम अवतार हैं। वे सनातन काल, आकाश, कार्य-कारण, मन तत्त्वों, भौतिक अहंकार, प्रकृति के गुणों, इन्द्रियों, भगवान के विराट रूप, गर्भोदकशायी विष्णु तथा समस्त चर एवं अचर जीवों के स्वामी हैं।

43-45 मैं स्वयं (ब्रह्मा), शिवजी, भगवान विष्णु, दक्ष आदि प्रजापति, तुम (नारद तथा कुमारगण), इन्द्र तथा चन्द्र जैसे देवता, भूर्लोक के नायक, अधोलोक के नायक, गन्धर्व लोक के नायक, विद्याधर लोक के नायक, चारणलोक के नायक, यक्षों, राक्षसों तथा उरगों के नेता, महर्षि, बड़े-बड़े दैत्य, बड़े-बड़े नास्तिक तथा अन्तरिक्ष पुरुष तथा भूत, प्रेत, शैतान, जिन्न, कूष्माण्ड, बड़े-बड़े जलचर, बड़े-बड़े पशु तथा पक्षी इत्यादि या दूसरे शब्दों में ऐसी कोई भी वस्तु जो बल, ऐश्वर्य, मानसिक तथा एन्द्रिय कौशल, शक्ति, क्षमा, सौन्दर्य, विनम्रता, ऐश्वर्य तथा प्रजनन से युक्त हो, चाहे रूपवान या रूप-विहीन, वे सब भले ही विशिष्ट सत्य तथा भगवान के रूप प्रतीत हों, लेकिन वास्तव में वे वैसे हैं नहीं। वे सभी भगवान की दिव्य शक्ति के अंशमात्र हैं।

46 हे नारद, अब मैं एक-एक करके भगवान के दिव्य अवतारों का वर्णन करूँगा, जो लीला अवतार कहलाते हैं। उनके कार्यकलापों के सुनने से कान में संचित सारा मेल हट जाता है। ये लीलाएँ सुनने में मधुर हैं और आस्वाद्य है, अतएव ये मेरे हृदय में सदैव बनी रहती हैं।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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नारद मुनि ने कहा – इस ब्रह्माण्ड के भीतर जितनी सारी वस्तुएँ हैं वे सब आपके नियंत्रण में हैं।   (2.5.4-12)~~श्रील प्रभुपाद ~~

अध्याय पाँच – समस्त कारणों के कारण (2.5)

1 श्री नारद मुनि ने ब्रह्माजी से पूछा: हे देवताओं में प्रमुख देवता, हे प्रथम जन्मा जीव, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। कृपया करके मुझे वह दिव्य ज्ञान बतायें, जो मनुष्य को आत्मा तथा परमात्मा के सत्य तक ले जाने वाला है।

2 हे पिताजी, कृपया इस व्यक्त जगत के वास्तविक लक्षणों का वर्णन कीजिये। इसका आधार क्या है? इसका सृजन किस प्रकार किया गया? यह किस तरह संस्थित है? और यह सब किसके नियंत्रण में किया जा रहा है?

3 हे पिताजी, आप यह सब वैज्ञानिक ढंग से जानते हैं, क्योंकि भूतकाल में जो कुछ रचा गया, भविष्य में जो भी रचा जायेगा या वर्तमान में जो कुछ रचा जा रहा है तथा इस ब्रह्माण्ड के भीतर जितनी सारी वस्तुएँ हैं, वे सब आपकी हथेली में आँवले के सदृश हैं।

4 हे पिताजी, आपके ज्ञान का स्रोत क्या है? आप किसके संरक्षण में रह रहे हैं? आप किसकी अधीनता में कार्य कर रहे हैं? आपकी वास्तविक स्थिति क्या है? क्या आप अकेले ही सारे जीवों को अपनी निजी शक्ति के द्वारा भौतिक तत्त्वों से उत्पन्न करते हैं?

5 जिस प्रकार मकड़ी अपने जाले को सरलता से उत्पन्न करती है और अन्यों के द्वारा पराजित हुए बिना अपनी सृजन-शक्ति प्रकट करती है, उसी प्रकार आप अपनी आत्म-निर्भर शक्ति को प्रयुक्त करके दूसरे से सहायता लिये बिना सृजन करते हैं।

6 हम किसी विशेष वस्तु – श्रेष्ठ, निकृष्ट या समतुल्य, नित्य या क्षणिक – इनके नामों, लक्षणों तथा गुणों से जो भी समझ पाते हैं, वह आपके अतिरिक्त अन्य किसी स्रोत से सृजित नहीं होती, क्योंकि आप इतने महान हैं।

7 फिर भी जब हम आपके द्वारा पूर्ण अनुशासन में रहते हुए सम्पन्न की गई कठिन तपस्याओं के विषय में सोचते हैं, तो हम आपसे भी अधिक शक्तिशाली किसी व्यक्ति के अस्तित्व के विषय में आश्चर्यचकित रह जाते हैं, यद्यपि आप सृष्टि के मामले में इतने शक्तिशाली हैं।

8 हे पिताजी, आप सब कुछ जाननेवाले हैं और आप सबों के नियन्ता हैं। अतएव मैंने आपसे जितने सारे प्रश्न किये हैं, उन्हें कृपा करके बताइये, जिससे मैं आपके शिष्य के रूप में उन्हें समझ सकूँ ।

9 ब्रह्माजी ने कहा: हे मेरे वत्स नारद, तुमने सबों पर (मुझ सहित) करुणा करके ही ये सारे प्रश्न पूछे हैं, क्योंकि इनसे मैं भगवान के पराक्रम को बारीकी से देखने के लिए प्रेरित हुआ हूँ।

10 तुमने मेरे विषय में जो कुछ कहा है, वह असत्य नहीं है, क्योंकि जब तक कोई उन भगवान के विषय में अवगत नहीं हो लेता, जो मुझसे परे परम सत्य रूप हैं, तब तक वह मेरे सशक्त कार्यकलापों से निश्चित रूप से मोहित होता रहेगा।

11 भगवान द्वारा अपने निजी तेज (ब्रह्मज्योति) से की गई सृष्टि के बाद मैं उसी तरह सृजन करता हूँ, जिस तरह कि सूर्य द्वारा अग्नि प्रकट होने के बाद चन्द्रमा, आकाश, प्रभावशाली ग्रह तथा टिमटिमाते तारे भी अपनी चमक प्रकट करते हैं।

12 मैं उन भगवान कृष्ण (वासुदेव) को नमस्कार करता हूँ तथा उनका ध्यान करता हूँ, जिनकी दुर्जय शक्ति उन्हें (अल्पज्ञ मनुष्यों को) इस तरह प्रभावित करती है कि वे मुझे ही परम नियन्ता कहते हैं।

13 भगवान की भ्रामिका शक्ति (माया) अपनी स्थिति से लज्जित होने के कारण सामने ठहर नहीं पाती, लेकिन जो लोग इसके द्वारा मोहित होते हैं, वे “यह मैं हूँ” और “यह मेरा है” के विचारों में लीन रहने के कारण व्यर्थ की बातें करते हैं।

14 सृष्टि के पाँच मूल अवयव शाश्वत काल द्वारा उनसे उत्पन्न अन्योन्य क्रिया तथा व्यक्तिगत जीव का स्वभाव – ये सब भगवान वासुदेव के भिन्नांश हैं और सच बात तो यह है कि उनका कोई अन्य महत्त्व नहीं हैं।

15 सारे वैदिक ग्रन्थ परमेश्वर के द्वारा बनाये गए हैं और उन्हीं के निमित्त हैं। देवता भी भगवान के शरीर के अंगों के रूप में उन्हीं की सेवा के लिए हैं। विभिन्न लोक भी भगवान के निमित्त हैं और विभिन्न यज्ञ उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए सम्पन्न किये जाते हैं।

16 सभी प्रकार के ध्यान या योग नारायण की अनुभूति प्राप्त करने के लिए हैं। सारी तपस्याओं का लक्ष्य नारायण को प्राप्त करने के निमित्त है। दिव्य ज्ञान का संवर्धन नारायण की झलक प्राप्त करने के लिए है और चरम मोक्ष तो नारायण के धाम में प्रवेश करने के लिए ही है।

17 उनके ही द्वारा प्रेरित होकर मैं भगवान नारायण द्वारा सर्वव्यापी परमात्मा के रूप में उनकी ही दृष्टि के सामने पहले जो सृजित हो चुका है, उसी की फिर खोज करता हूँ और मैं भी केवल उन्हीं के द्वारा सृजित हूँ।

18 परमेश्वर अपने शुद्ध आध्यात्मिक रूप में सारे भौतिक गुणों से परे होते हैं, फिर भी भौतिक जगत के सृजन, उसके पालन तथा संहार के लिए वे अपनी बहिरंगा शक्ति के माध्यम से प्रकृति के गुणों को – सतो, रजो तथा तमो गुणों को – स्वीकार करते हैं।

19 भौतिक प्रकृति के ये तीनों गुण आगे चलकर पदार्थ, ज्ञान तथा क्रियाओं के रूप में प्रकट होकर सनातन रूप से दिव्य जीव को कार्य--कारण के प्रतिबन्धों के अन्तर्गत डाल देते हैं और ऐसे कार्यों के लिए उसे उत्तरदायी बना देते हैं।

20 हे ब्राह्मण नारद, परम दृष्टा, दिव्य भगवान प्रकृति के उपर्युक्त तीनों गुणों के कारण जीवों की भौतिक इन्द्रियों की अनुभूति से परे हैं। लेकिन वे मुझ समेत सबों के नियन्ता हैं।

21 समस्त शक्तियों के नियन्ता भगवान अपनी ही शक्ति से सनातन काल, समस्त जीवों के भाग्य तथा उनके विशिष्ट स्वभाव का सृजन करते हैं और फिर स्वतंत्र रूप से उन्हें विलीन कर लेते हैं।

22 प्रथम पुरुष अवतार (कारणार्णवशायी विष्णु) के बाद महत-तत्त्व अथवा भौतिक सृष्टि के तत्त्व अर्थात भौतिक सृष्टि के सिद्धान्त घटित होते हैं, तब काल प्रकट होता है और काल-क्रम से तीनों गुण प्रकट होते हैं। प्रकृति का अर्थ है तीन गुणात्मक अभिव्यक्तियाँ, जो कार्यों में रूपान्तरित होती हैं।

23 महत्तत्त्व के विक्षुब्ध होने पर भौतिक क्रियाएँ उत्पन्न होती हैं। सर्वप्रथम सतो तथा रजोगुणों का रूपान्तरण होता है और बाद में तमोगुण के कारण पदार्थ, उसका ज्ञान तथा भौतिक ज्ञान के विभिन्न कार्यकलाप प्रकट होते हैं।

24 इस प्रकार आत्म-केन्द्रित भौतिकतावादी अहंकार तीनों स्वरूपों में रूपान्तरित होकर, सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण बन जाता है। ये तीन स्वरूप हैं: पदार्थ को विकसित करने वाली शक्तियाँ, भौतिक सृष्टियों का ज्ञान तथा ऐसी भौतिकतावादी क्रियाओं का मार्गदर्शन करनेवाली बुद्धि! हे नारद, तुम इसे समझने के लिए पूर्ण सक्षम हो।

25 मिथ्या अहंकार के अंधकार से पाँच तत्त्वों में से पहला तत्त्व आकाश उत्पन्न होता है। इसका सूक्ष्म रूप शब्द का गुण है, ठीक उसी प्रकार जिस तरह दृष्टा का दृश्य से सम्बन्ध होता है।

26-29 चूँकि आकाश रूपान्तरित होता है, अतएव स्पर्शगुण से युक्त वायु उत्पन्न होती है और पूर्व परम्परा के अनुसार वायु शब्द तथा आयु के मूलभूत तत्त्वों अर्थात इन्द्रियानुभूति, मानसिक-शक्ति तथा शारीरिक बल से भी पूर्ण होती है। काल तथा प्रकृति के साथ ही जब वायु रूपान्तरित होती है, तो अग्नि उत्पन्न होती है और यह स्पर्श तथा ध्वनि का रूप धारण करती है। चूँकि अग्नि भी रूपान्तरित होती है, अतएव जल प्रकट होता है, जो रस तथा स्वाद से पूरित होता है। परम्परानुसार यह भी रूप, स्पर्श तथा शब्द से परिपूर्ण होता है और जब यही जल अपनी नानारूपता समेत पृथ्वी में रूपान्तरित होता है, तब वह सुगन्धिमय प्रतीत होता है और परम्परानुसार यह रस, स्पर्श, शब्द तथा रूप के गुणों से पूरित हो उठता है।

30 सतोगुण से मन उत्पन्न होकर व्यक्त होता है, साथ ही शारीरिक गतियों के नियंत्रक दस देवता भी प्रकट होते हैं। ऐसे देवता दिशाओं के नियंत्रक, वायु के नियंत्रक, सूर्यदेव, दक्ष प्रजापति के पिता, अश्विनीकुमार, अग्निदेव, स्वर्ग का राजा (इन्द्र), स्वर्ग के पूजनीय अर्चाविग्रह, आदित्यों के प्रमुख तथा प्रजापति ब्रह्माजी कहलाते हैं। सभी इस तरह अस्तित्व में आते हैं।

31 रजोगुण में और अधिक विकार आने से बुद्धि तथा प्राण के साथ ही कान, त्वचा, नाक, आँख, जीभ, मुँह, हाथ, जननेन्द्रिय, पाँव तथा मल विसर्जन की इन्द्रियाँ सभी उत्पन्न होती हैं।

32 हे अध्यात्मवादियों में श्रेष्ठ नारद, जब तक ये सृजित अंग यथा तत्त्व, इन्द्रियाँ, मन तथा प्रकृति के गुण जुड़ नहीं जाते, तब तक शरीर रूप धारण नहीं कर सकता।

33 इस प्रकार, जब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की शक्ति के बल से ये सब एकत्र हो गये, तो सृष्टि से मूल तथा गौण कारणों को स्वीकार करते हुए यह ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आया।

34 इस प्रकार सारे ब्रह्माण्ड हजारों युगों तक जल के भीतर (कारण-जल में) पड़े रहे। समस्त जीवों के स्वामी ने उन में से प्रत्येक में प्रवेश करके उन्हें पूरी तरह सजीव बनाया।

35 यद्यपि भगवान ( महाविष्णु ), कारणार्णव (कारण-जल) में शयन करते रहते हैं, किन्तु वे उससे बाहर निकल कर और अपने को हिरण्यगर्भ के रूप में विभाजित करके प्रत्येक ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट हो गये और उन्होंने हजारों-हजारों पाँव, भुजा, मुँह, सिर वाला विराट रूप धारण कर लिया।

36 बड़े-बड़े दार्शनिक कल्पना करते हैं कि ब्रह्माण्ड में सारे लोक भगवान के विराट शरीर के विभिन्न ऊपरी तथा निचले अंगों के प्रदर्शन हैं।

37 ब्राह्मण वर्ग भगवान के मुख का, क्षत्रिय उनकी भुजाओं का और वैश्य उनकी जाँघों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि शूद्र वर्ग उनके पाँवों से उत्पन्न हुआ है।

38 पृथ्वी-तल तक सारे अधोलोक उनके पाँवों में स्थित हैं। भुवर्लोक इत्यादि मध्य लोक उनकी नाभि में स्थित हैं और इनसे भी उच्चतर लोक, जो देवताओं तथा सुसंस्कृत ऋषियों-मुनियों द्वारा निवसित हैं, वे भगवान के वक्षस्थल में स्थित हैं।

39 भगवान के विराट रूप के वक्षस्थल से गर्दन तक के प्रदेश में जनलोक तथा तपोलोक स्थित हैं, जबकि सर्वोच्च लोक, सत्यलोक, इस विराट रूप के सिर पर स्थित है। किन्तु आध्यात्मिक लोक शाश्वत हैं।

40-41 हे पुत्र नारद, तुम मुझसे जान लो कि कुल चौदह लोकों में से सात निम्न ग्रह-मण्डल अधोलोक हैं। इनमें पहला लोक अतल है, जो कटि में स्थित है, दूसरा लोक वितल जाँघों में स्थित है, तीसरा लोक सुतल घुटनों में, चौथा लोक तलातल पिंडलियों में, पाँचवाँ लोक महातल टखनों में, छठा लोक रसातल है, जो पाँवों के ऊपरी भाग में स्थित है तथा सातवाँ लोक पाताल लोक है, जो तलवों में स्थित है। इस प्रकार भगवान का विराट रूप समस्त लोकों से पूर्ण है।

42 अन्य लोक सम्पूर्ण लोकों को तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं :- इनके नाम हैं- परम पुरुष के पाँवों पर अधोलोक (पृथ्वी तक), नाभि पर मध्यलोक तथा वक्षस्थल से सिर तक ऊर्ध्व लोक (स्वर्लोक)

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय चार – सृष्टि प्रक्रम (2.4)

1 सूत गोस्वामी ने कहा: श्रील शुकदेव गोस्वामी से आत्मा के सत्य के विषय में बातें सुनकर, उत्तरा के पुत्र महाराज परीक्षित ने आस्थापूर्वक अपना ध्यान भगवान कृष्ण में लगा दिया।

2 भगवान कृष्ण के प्रति एकनिष्ठ आकर्षण के फलस्वरूप महाराज परीक्षित ने अपने निजी शरीर, अपनी पत्नी, अपनी सन्तान, अपने महल, अपने पशु, हाथी-घोड़े, अपने खजाने, मित्र तथा सम्बन्धी और अपने निष्कंटक राज्य के प्रति प्रगाढ़ ममता त्याग दी।

3-4 हे महर्षियों, महात्मा महाराज परीक्षित ने भगवान कृष्ण के विचार में निरन्तर लीन रहते हुए, अपनी आसन्न मृत्यु को भलीभाँति जानते हुए, सारे सकाम कर्म अर्थात धर्म के कार्य, आर्थिक विकास तथा इन्द्रियतृप्ति त्याग दिए और कृष्ण के लिए सहज प्रेम में अपने को दृढ़ता से स्थिर कर लिया। तब उन्होंने इन सारे प्रश्नों को उसी तरह पूछा, जिस तरह आप सब मुझसे पूछ रहे हैं।

5 महाराज परीक्षित ने कहा: हे विद्वान ब्राह्मण, आप भौतिक दूषण से रहित होने के कारण सब कुछ जानते हैं, अतएव आपने मुझसे जो भी कहा है, वह मुझे पूर्ण रूप से उचित प्रतीत होता है। आपकी बातें क्रमश: मेरे अज्ञानरूपी अंधकार को दूर कर रही हैं, क्योंकि आप भगवान की कथाएँ कह रहे हैं।

6 मैं आपसे यह जानना चाहता हूँ कि भगवान किस प्रकार अपनी निजी शक्तियों से इस रूप में इन दृश्य ब्रह्माण्डों की सृष्टि करते हैं, जो बड़े से बड़े देवताओं के लिए भी अचिन्त्य हैं।

7 कृपया बतायें कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर किस तरह अपनी विभिन्न शक्तियों तथा विभिन्न विस्तारों को इस घटनाओं से भरे जगत के पालन करने में लगाते हैं और एक खिलाड़ी के खेल की तरह फिर से इसे समेट लेते हैं?

8 हे विद्वान ब्राह्मण, भगवान के दिव्य कार्यकलाप अद्भुत हैं और वे अचिन्त्य प्रतीत होते हैं, क्योंकि अनेक विद्वान पण्डितों के अनेक प्रयास भी उन्हें समझने में अपर्याप्त सिद्ध होते रहे हैं।

9 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान एक हैं, चाहे वे प्रकृति के गुणों से अकेले कार्य करें या एकसाथ कई रूपों में विस्तार करें या कि प्रकृति के गुणों के निर्देशन हेतु बारी-बारी से विस्तार करें।

10 कृपया इन सारे संशयप्रद प्रश्नों का निवारण कर दें, क्योंकि आप न केवल वैदिक साहित्य के परम विद्वान एवं अध्यात्म में आत्मसिद्ध हैं, अपितु आप भगवान के महान भक्त भी हैं, अतएव आप भगवान के ही समान हैं।

11 सूत गोस्वामी ने कहा: जब राजा ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से इस प्रकार प्रार्थना की कि वे भगवान की सृजनात्मक शक्ति का वर्णन करें, तो उन्होंने इन्द्रियों के स्वामी (श्रीकृष्ण) का ठीक से स्मरण किया और उपयुक्त उत्तर देने के लिए इस प्रकार बोले।

12 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: मैं उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को सादर नमस्कार करता हूँ, जो भौतिक जगत की सृष्टि के लिए प्रकृति के तीन गुणों को स्वीकार करते हैं। वे प्रत्येक के शरीर के भीतर निवास करनेवाले परम पूर्ण हैं और उनकी गतियाँ अचिन्त्य हैं।

13 मैं पुनः सम्पूर्ण जगत-रूप अध्यात्म-रूप उन भगवान को सादर नमस्कार करता हूँ, जो पुण्यात्मा भक्तों को समस्त संकटों से मुक्ति दिलानेवाले तथा अभक्त असुरों की नास्तिक मनोवृत्ति की वृद्धि को विनष्ट करनेवाले हैं। जो अध्यात्मवादी सर्वोपरि आध्यात्मिक पूर्णता में स्थित हैं, उन्हें वे उनके विशिष्ट पद प्रदान करने वाले हैं।

14 मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ, जो यदुवंशियों के संगी हैं और अभक्तों के लिए सदैव समस्या बने रहते हैं। वे भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों जगतों के परम भोक्ता हैं, फिर भी वे वैकुण्ठ में स्थित अपने धाम का भोग करते हैं। कोई भी उनके समतुल्य नहीं है, क्योंकि उनका दिव्य ऐश्वर्य अमाप्य है।

15 मैं उन सर्वमंगलमय भगवान श्रीकृष्ण को सादर नमस्कार करता हूँ जिनके यशोगान, स्मरण, दर्शन, वन्दन, श्रवण तथा पूजन से पाप करनेवाले के सारे पाप-फल तुरन्त धूल जाते हैं।

16 मैं सर्व-मंगलमय भगवान श्रीकृष्ण को बारम्बार प्रणाम करता हूँ। उनके चरणकमलों की शरण ग्रहण करने मात्र से उच्च कोटि के बुद्धिमान-जन, वर्तमान तथा भावी अस्तित्व की सारी आसक्तियों से छुटकारा पा जाते हैं और बिना किसी कठिनाई के आध्यात्मिक जगत की ओर अग्रसर होते हैं।

17 मैं सर्व-मंगलमय भगवान श्रीकृष्ण को पुनः पुनः सादर नमस्कार करता हूँ, क्योंकि बड़े-बड़े विद्वान ऋषि, बड़े-बड़े दानी, यश--लब्ध कार्यकर्ता, बड़े-बड़े दार्शनिक तथा योगी, बड़े-बड़े वेदपाठी तथा वैदिक सिद्धान्तों के बड़े-बड़े अनुयायी तक भी ऐसे महान गुणों को भगवान की सेवा में समर्पित किये बिना कोई क्षेम (कुशलता) प्राप्त नहीं कर पाते।

18 किरात, हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कश, आभीर, शुम्भ, यवन, खस आदि जातियों के सदस्य तथा पाप कर्मों में लिप्त रहने वाले अन्य लोग परम शक्तिशाली भगवान के भक्तों की शरण ग्रहण करके शुद्ध हो सकते हैं। मैं उन भगवान को सादर नमस्कार करता हूँ।

19 वे परमात्मा हैं तथा समस्त स्वरूपसिद्ध पुरुषों के परमेश्वर हैं। वे साक्षात वेद, धर्मग्रन्थ (शास्त्र) तथा तपस्या हैं। वे ब्रह्माजी, शिवजी तथा कपट से रहित समस्त व्यक्तियों द्वारा पूजित हैं। आश्चर्य तथा सम्मान से ऐसे पूजित होनेवाले पूर्ण पुरुषोत्तम मुझ पर प्रसन्न हों।

20 भगवान श्रीकृष्ण, जो समस्त भक्तों के पूजनीय स्वामी हैं, यदुवंश के अंधक तथा वृष्णि जैसे समस्त राजाओं के रक्षक तथा उनके यश हैं, सभी लक्ष्मी देवीयों के पति, समस्त यज्ञों के निर्देशक अतएव समस्त जीवों के अग्रणी, समस्त बुद्धि के नियन्ता, समस्त दिव्य एवं भौतिक लोकों के अधिष्ठाता तथा पृथ्वी पर परम अवतार (सर्वेसर्वा) हैं, वे मुझ पर कृपालु हों।

21 भगवान श्रीकृष्ण ही मुक्तिदाता हैं। भक्त प्रतिपल उनके चरणकमलों का चिन्तन करते हुए तथा महापुरुषों के चरणचिन्हों पर चलते हुए समाधि में परम सत्य का दर्शन कर सकता है। तथापि विद्वान ज्ञानीजन उनके विषय में अपनी समझ के अनुसार चिन्तन करते हैं। ऐसे भगवान मुझ पर प्रसन्न हों।

22 जिन्होंने सृजन के प्रारम्भ में ब्रह्मा के हृदय में शक्तिशाली ज्ञान का विस्तार किया तथा अपने विषय में पूर्ण ज्ञान की प्रेरणा दी और जो ब्रह्मा के मुख से प्रकट हुए प्रतीत हुए, वे भगवान मुझ पर प्रसन्न हों।

23 ब्रह्माण्ड के भीतर लेटकर जो तत्त्वों से निर्मित शरीरों को प्राणमय बनाते हैं और जो अपने पुरुष-अवतार में जीव को भौतिक गुणों के सोलह विभागों के अधीन करते हैं, जो जीव के जनक रूप हैं, वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान मेरे प्रवचनों को अलंकृत करने के लिए प्रसन्न हों।

24 मैं वासुदेव के अवतार श्रील व्यासदेव को सादर नमस्कार करता हूँ जिन्होंने वैदिक शास्त्रों का संकलन किया। शुद्ध भक्तगण भगवान के कमल सदृश मुख से टपकते हुए अमृतोपम दिव्य ज्ञान का पान करते हैं।

25 हे राजन, नारद द्वारा पूछे जाने पर प्रथम-जन्मा ब्रह्माजी ने इस विषय में ठीक वही बात बतलाई, जो भगवान ने अपने पुत्र (ब्रह्मा) से प्रत्यक्ष कही थी, जिन्हें जन्म से ही वैदिक ज्ञान धारण कराया गया था।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय तीन – शुद्ध भक्तिमय सेवा – हृदय परिवर्तन (2.3)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे महाराज परीक्षित, आपने मुझसे मरणासन्न बुद्धिमान मनुष्य के कर्तव्य के विषय में जिस प्रकार जिज्ञासा की, उसी प्रकार मैंने आपको उत्तर दिया है।

2-7 जो व्यक्ति निर्विशेष ब्रह्मज्योति तेज में लीन होने की कामना करता है, उसे वेदों के स्वामी (ब्रह्माजी या विद्वान पुरोहित बृहस्पति) की पूजा करनी चाहिए; जो प्रबल कामशक्ति का इच्छुक हो, उसे स्वर्ग के राजा इन्द्र की और जो अच्छी सन्तान का इच्छुक हो, उसे प्रजापतियों की पूजा करनी चाहिए। जो अच्छे भाग्य का आकांक्षी हो, उसे भौतिक जगत की अधीक्षिका दुर्गादेवी की पूजा करनी चाहिए। जो अत्यन्त शक्तिशाली बनना चाहे, उसे अग्नि की और जो केवल धन की इच्छा करता हो, उसे वसुओं की पूजा करनी चाहिए। यदि कोई महान वीर बनना चाहता है, तो उसे शिवजी के रुद्रावतारों की पूजा करनी चाहिए। जो प्रचुर अन्न की राशि चाहता हो, उसे अदिति की पूजा करनी चाहिए। जो स्वर्ग-लोक की कामना करे, उसे अदिति के पुत्रों की पूजा करनी चाहिए। जो व्यक्ति सांसारिक राज्य चाहता हो उसे विश्वदेव की और जो जनता में लोकप्रियता का इच्छुक हो, उसे साध्यदेव की पूजा करनी चाहिए। जो दीर्घायु की कामना करता हो, उसे अश्विनीकुमारों की और जो पुष्ट शरीर चाहे उसे पृथ्वी की पूजा करनी चाहिए। जो अपनी नौकरी (पद) के स्थायित्व की कामना करता हो, उसे क्षितिज तथा पृथ्वी दोनों की सम्मिलित पूजा करनी चाहिए। जो सुन्दर बनना चाहता हो, उसे गन्धर्वलोक के सुन्दर निवासियों की और जो अच्छी पत्नी चाहता हो, उसे अप्सराओं तथा स्वर्ग की उर्वशी अप्सराओं की पूजा करनी चाहिए। जो अन्यों पर शासन करना चाहता हो, उसे ब्रह्माण्ड के प्रमुख ब्रह्माजी की पूजा करनी चाहिए। जो स्थायी कीर्ति का इच्छुक हो, उसे भगवान की तथा जो अच्छी बैंक-बचत चाहता हो, उसे वरुणदेव की पूजा करनी चाहिए। यदि कोई अत्यन्त विद्वान बनना चाहता हो, तो उसे शिवजी की और यदि कोई अच्छा वैवाहिक सम्बन्ध चाहता है, तो उसे शिवजी की सती पत्नी, देवी उमा की पूजा करनी चाहिए।

8 ज्ञान के आध्यात्मिक विकास के लिए मनुष्य को चाहिए कि वह भगवान विष्णु या उनके भक्त की पूजा करे और वंश की रक्षा के लिए तथा कुल की उन्नति के लिए उसे विभिन्न देवताओं की पूजा करनी चाहिए। जो व्यक्ति राज्य-सत्ता पाने का इच्छुक हो, उसे मनुओं की पूजा करनी चाहिए।

9 जो व्यक्ति शत्रुओं पर विजय पाने का इच्छुक हो, उसे असुरों की और जो इन्द्रियतृप्ति चाहता हो, उसे चन्द्रमा की पूजा करनी चाहिए। किन्तु जो किसी प्रकार के भौतिक भोग की इच्छा नहीं करता, उसे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की पूजा करनी चाहिए।

10 जिस व्यक्ति की बुद्धि व्यापक है, वह चाहे समस्त भौतिक इच्छाओं से युक्त हो या निष्काम हो अथवा मुक्ति का इच्छुक हो, उसे चाहिए कि वह सभी प्रकार से परम पूर्ण भगवान की पूजा करे।

11 अनेक देवताओं की पूजा करनेवाले विविध प्रकार के लोग, केवल भगवान के शुद्ध भक्त की संगति से ही सर्वोच्च सिद्धिदायक वर प्राप्त कर सकते हैं, जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान पर अविचल स्वयंस्फूर्त आकर्षण के रूप में होता है।

12 परम भगवान हरि विषयक दिव्य ज्ञान वह ज्ञान है, जिससे भौतिक गुणों की तरंगें तथा भँवरें पूरी तरह थम जाती हैं। ऐसा ज्ञान भौतिक आसक्ति से रहित होने के कारण आत्मतुष्टि प्रदान करनेवाला है और दिव्य होने के कारण महापुरुषों द्वारा मान्य है। तो भला ऐसा कौन होगा, जो इससे आकृष्ट नहीं होगा?

13 शौनक ने कहा: व्यास-पुत्र श्रील शुकदेव गोस्वामी अत्यन्त विद्वान ऋषि थे और बातों को काव्यमय ढंग से प्रस्तुत करने में सक्षम थे। अतएव उन्होंने जो कुछ कहा, उसे सुनने के बाद महाराज परीक्षित ने उनसे और क्या पूछा?

14 हे विद्वान सूत गोस्वामी! कृपया आप हम सबों को ऐसी कथाएँ समझाते रहें, क्योंकि हम सुनने को उत्सुक हैं। इसके अतिरिक्त, ऐसी कथाएँ, जिनसे भगवान हरि के विषय में विचार-विमर्श हो सके, भक्तों की सभा में अवश्य ही कही-सुनी जानी चाहिए।

15 पाण्डवों के पौत्र महाराज परीक्षित अपने बाल्यकाल से ही भगवान के महान भक्त थे। वे खिलौनों से खेलते समय भी अपने कुलदेव की पूजा का अनुकरण करते हुए भगवान कृष्ण की पूजा किया करते थे।

16 व्यासपुत्र श्रील शुकदेव गोस्वामी दिव्य ज्ञान से पूर्ण भी थे और वसुदेव-पुत्र भगवान श्रीकृष्ण के महान भक्त भी थे। अतएव भगवान कृष्ण-विषयक चर्चाएँ अवश्य चलती रही होंगी, क्योंकि बड़े-बड़े दार्शनिकों द्वारा तथा महान भक्तों की सभा में कृष्ण के गुणों का बखान होता रहता है।

17 उदय तथा अस्त होता हुआ सूर्य सबों की आयु को क्षीण करता है, किन्तु जो सर्वोत्तम भगवान की कथाओं की चर्चा चलाने में अपने समय का सदुपयोग करता है, उसकी आयु क्षीण नहीं होती।

18 क्या वृक्ष जीते नहीं है? क्या लुहार की धौंकनी साँस नहीं लेती? हमारे चारों ओर क्या पशुगण भोजन नहीं करते या वीर्यपात नहीं करते?

19 कुत्तों, सूकरों, ऊँटों तथा गधों जैसे पुरुष उन पुरुषों की प्रशंसा करते हैं, जो समस्त बुराइयों से उद्धार करनेवाले भगवान श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाओं का कभी भी श्रवण नहीं करते।

20 जिसने भगवान के शौर्य तथा अद्भुत कार्यों की कथाएँ नहीं सुनी हैं तथा जिसने भगवान के विषय में गीतों को गाया या उच्च स्वर से उच्चारण नहीं किया है, उसके श्रवण-रंध्र मानो साँप के बिल हैं और जीभ मानो मेंढक की जीभ है।

21 शरीर का ऊपरी भाग, भले ही रेशमी पगड़ी से सज्जित क्यों न हो, किन्तु यदि मुक्ति के दाता भगवान के समक्ष झुकाया नहीं जाता, तो वह केवल एक भारी बोझ के समान है। इसी प्रकार चाहे हाथ चमचमाते कंकणों से अलंकृत हों, यदि भगवान हरि की सेवा में लगे नहीं रहते, तो वे मृत पुरुष के हाथों के तुल्य हैं।

22 जो आँखें भगवान विष्णु की प्रतीकात्मक अभिव्यक्तियों (उनके रूप, नाम, गुण आदि) को नहीं देखतीं, वे मोर पंख में अंकित आँखों के तुल्य हैं और जो पाँव तीर्थ-स्थानों की यात्रा नहीं करते (जहाँ भगवान का स्मरण किया जाता है) वे वृक्ष के तनों जैसे माने जाते हैं।

23 जिस व्यक्ति ने कभी भी भगवान के शुद्ध भक्त की चरण-धूलि अपने मस्तक पर धारण नहीं की, वह निश्चित रूप से शव है तथा जिस व्यक्ति ने भगवान के चरणकमलों पर चढ़े तुलसीदलों की सुगन्धि का अनुभव नहीं किया, वह श्वास लेते हुए भी मृत देह के तुल्य है।

24 निश्चय ही वह हृदय फौलाद का बना है, जो एकाग्र होकर भगवान के पवित्र नाम का उच्चारण करने पर भी नहीं बदलता; जब हर्ष होता है, तो आँखों में आँसू नहीं भर आते और शरीर के रोम-रोम खड़े नहीं हो जाते।

25 हे सूत गोस्वामी, आपके वचन हमारे मनों को भानेवाले हैं। अतएव कृपा करके आप हमें यह उसी तरह बतायें, जिस तरह से दिव्य ज्ञान में अत्यन्त कुशल महान भक्त श्रील शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित के पूछे जाने पर उनसे कहा।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय दो – हृदय में भगवान (2.2)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस ब्रह्माण्ड के प्राकट्य के पूर्व, ब्रह्माजी ने विराट रूप के ध्यान द्वारा भगवान को प्रसन्न करके विलुप्त हो चुकी अपनी चेतना पुनः प्राप्त की। इस तरह वे सृष्टि का पूर्ववत पुनर्निर्माण कर सके।

2 वैदिक ध्वनियों (वेदवाणी) को प्रस्तुत करने की विधि इतनी मोहनेवाली है कि यह व्यक्तियों की बुद्धि को स्वर्ग जैसी व्यर्थ की वस्तुओं की ओर ले जाती है। बद्धजीव ऐसी स्वर्गिक मायामयी वासनाओं के स्वप्नों में मँडराते रहते हैं, लेकिन ऐसे स्थानों में वे सच्चे सुख की प्राप्ति नहीं कर पाते।

3 अतएव प्रबुद्ध व्यक्ति को उपाधियों वाले इस जगत में रहते हुए जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं के लिए प्रयत्न करना चाहिए। उसे बुद्धिमत्तापूर्वक स्थिर रहना चाहिए और अवांछित वस्तुओं के लिए कभी कोई प्रयत्न नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह व्यावहारिक रूप में यह अनुभव करने में सक्षम होता है कि ऐसे सारे प्रयास कठोर श्रम के अतिरिक्त और कुछ नहीं होते।

4 जब लेटने के लिए विपुल भूखण्ड पड़े हैं, तो चारपाइयों तथा गद्दों की क्या आवश्यकता है? जब मनुष्य अपनी बाँह का उपयोग कर सकता है, तो फिर तकिये की क्या आवश्यकता है? जब मनुष्य अपनी हथेलियों का उपयोग कर सकता है, तो तरह-तरह के बर्तनों की क्या आवश्यकता है? जब पर्याप्त ओढ़न अथवा वृक्ष की छाल उपलब्ध हो, तो फिर वस्त्र की क्या आवश्यकता है?

5 क्या सड़कों पर चिथड़े नहीं पड़े रहते हैं? क्या दूसरों का पालन करने के लिये जीवित रहने वाले वृक्ष अब दान में भिक्षा नहीं देते? क्या सूख जाने पर नदियाँ अब प्यासे को जल प्रदान नहीं करतीं? क्या अब पर्वतों की गुफाएँ बन्द हो चुकी हैं? या सबसे ऊपर क्या अब सर्वशक्तिमान भगवान पूर्ण शरणागत आत्माओं की रक्षा नहीं करते? तो फिर विद्वान मुनिजन उनकी चापलूसी क्यों करते हैं, जो अपनी गाढ़ी कमाई की सम्पत्ति के कारण प्रमत्त हो गए हैं ?

6 मनुष्य को इस प्रकार स्थिर होकर, उनकी (भगवान की) सर्वशक्तिमत्ता के कारण अपने हृदय में स्थित परमात्मा की सेवा करनी चाहिए। चूँकि वे सर्वशक्तिमान भगवान सनातन एवं असीम हैं, अतएव वे जीवन के चरम लक्ष्य हैं और उनकी पूजा करके मनुष्य बद्ध जीवन के कारण को दूर कर सकता है।

7 निपट भौतिकतावादी के अतिरिक्त ऐसा कौन होगा, जो जनसामान्य को अपने कर्मों से मिलने वाले फलों के कारण क्लेशों की नदी में गिरते हुए देखकर भी, ऐसे विचार की उपेक्षा करे और केवल क्षणभंगुर नामों को ग्रहण करें?

8 अन्य लोग शरीर के हृदय-प्रदेश में वास करनेवाली एवं केवल एक बित्ता (आठ इंच) परिमाण के चार हाथोंवाले तथा उनमें से प्रत्येक में क्रमश: कमल, रथ का चक्र, शंख तथा गदा धारण किये हुए भगवान का ध्यान करते हैं।

9 उनका मुख उनकी प्रसन्नता को व्यक्त करता है। उनकी आँखें कमल की पंखड़ियों के समान हैं और उनका वस्त्र कदम्ब पुष्प के केसर के समान पीले रंग का तथा बहुमूल्य रत्नों से जटित है। उनके सारे आभूषण स्वर्ण से निर्मित तथा रत्नों से जटित हैं। वे देदीप्यमान मुकुट तथा कुण्डल धारण किये हुए हैं।

10 उनके चरणकमल महान योगियों के कमल-सदृश हृदयों के गुच्छों के ऊपर रखे हैं। उनके वक्षस्थल पर कौस्तुभ मणि है, जिसमें सुन्दर बछड़ा अंकित है और उनके कंधों पर अन्य रत्न हैं। उनका पूर्ण स्कन्ध-प्रदेश ताजे फूलों की माला से सज्जित है।

11 उनकी कमर अलंकृत करधनी से भलीभाँति सुशोभित है और उनकी अंगुलियों में बहुमूल्य रत्नों से जटित अँगूठियाँ हैं। उनके नूपुर, उनके कंकण, उनके घुँघराले नीले रंग की आभा वाले चिकने बाल तथा उनका सुन्दर मुस्कान – युक्तमुख – ये सभी अत्यन्त सुहावने हैं।

12 भगवान की भव्य लीलाएँ तथा उनके हास्यमय मुख की उल्लासमयी चितवन उनके व्यापक वरदानों के संकेत हैं। अतएव मनुष्य को चाहिए कि जब तक ध्यान द्वारा उसका मन भगवान पर स्थिर रखा जा सके, तब तक मन को उनके इसी दिव्य रूप में एकाग्र करे।

13 ध्यान की प्रक्रिया भगवान के चरणकमलों से प्रारम्भ करते हुए उसे उनके हँसते मुखमण्डल तक ले आए। इस तरह पहले ध्यान को चरणकमल पर एकाग्र करे, फिर पिंडलियों पर, तब जाँघों पर और क्रमशः ऊपर की ओर उठता जाये। मन जितना ही एक-एक करके भगवान के विभिन्न अंगो पर स्थिर होगा, बुद्धि उतनी ही अधिक परिष्कृत होगी।

14 जब तक स्थूल भौतिकतावादी व्यक्ति दिव्य तथा भौतिक दोनों ही जगतों के द्रष्टा परमेश्वर की प्रेमाभक्ति विकसित न कर ले, तब तक उसे अपने कर्तव्यों को पूरा कर लेने के बाद भगवान के विराट रूप का स्मरण या ध्यान करना चाहिए।

15 हे राजन, जब भी योगी मनुष्यों के इस ग्रह को छोड़ने की इच्छा करे, तो वह उचित काल या स्थान की तनिक भी इच्छा न करते हुए, सुविधापूर्वक अविचल भाव से आसन लगा ले और प्राणवायु को नियमित करके मन द्वारा अपनी इन्द्रियों को वश में करे।

16 तत्पश्चात योगी को चाहिए कि वह अपनी विशुद्ध बुद्धि के द्वारा अपने मन को जीवात्मा में तदाकार करे और फिर जीवात्मा को परम आत्मा में विलीन कर दे। ऐसा करने के बाद, पूर्णतया तुष्ट जीव, तुष्टि की चरमावस्था को प्राप्त होता है, जिससे वह अन्य सारे कार्यकलाप बन्द कर देता है।

17 उस लब्धोपशान्ति की दिव्य अवस्था में विनाशकारी काल की सर्वोपरिता नहीं रह पाती, जो उन देवताओं का भी नियामक है, जिन्हें संसारी प्राणियों के ऊपर शासन करने की शक्ति प्रदान की गई है। (तो फिर स्वयं देवताओं के विषय में तो कहना ही क्या?) इस अवस्था में न तो भौतिक सतोगुण, रजोगुण या तमोगुण रहते हैं, न ही मिथ्या अहंकार न भौतिक कारणार्णव अथवा न भौतिक प्रकृति ही रह पाती है।

18 योगीजन ईश्वर-विहीन प्रत्येक वस्तु से बचना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें उस परम स्थिति का पता है, जिसमें प्रत्येक वस्तु भगवान विष्णु से सम्बन्धित है। अतएव वह शुद्ध भक्त, जो कि भगवान से पूर्ण ऐक्य रखता है, जटिलताएँ उत्पन्न नहीं करता, अपितु भगवान के चरणकमलों को हृदय में धारण करके उनकी प्रत्येक क्षण पूजा करता है।

19 वैज्ञानिक ज्ञान के बल पर मनुष्य को परम अनुभूति में पूर्ण रूप से स्थिर हो जाना चाहिए और इस तरह समस्त भौतिक इच्छाओं को शमन करने में समर्थ हो जाना चाहिए। इसके बाद मनुष्य को वायु-द्वार (गुदा) को पाँव की एड़ी से बन्द करके तथा प्राणवायु को एक-एक करके क्रमश: छह प्रमुख स्थानों (चक्रों) में एक-एक करके ऊपर ले जाना चाहिए और तब भौतिक शरीर का त्याग कर देना चाहिए।

20 ध्यानमग्न भक्त को चाहिए कि वह प्राणवायु को धीरे-धीरे नाभि से हृदय में, हृदय से छाती में और वहाँ से तालु के निचले भाग तक ले जाये। उसे बुद्धि से समुचित स्थानों को ढूँढ निकालना चाहिए।

21 तत्पश्चात भक्तियोगी को अपनी प्राणवायु दोनों भौहों के मध्य लाना चाहिए और तब प्राणवायु के सातों बाहिर्द्वारों को बन्द करके, उसे भगवदधाम वापस जाने को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए। यदि वह भौतिक भोग की सारी इच्छाओं से मुक्त है, तब उसे ब्रह्मरन्ध्र तक पहुँचना चाहिए तथा भगवान के पास चले जाने पर अपने सारे भौतिक बन्धनों को त्याग देना चाहिए।

22 तथापि हे राजन, यदि योगी में अत्यधिक भोगों की इच्छा बनी रहती है, जैसे कि सर्वोच्च लोक ब्रह्मलोक जाने की, या अष्ट सिद्धियाँ प्राप्त करने की, अथवा वैहासयों के साथ बाह्य अन्तरिक्ष में यात्रा करने की, या लाखों ग्रहों में से किसी एक में स्थान प्राप्त करने की इत्यादि, तो उसे भौतिकता में ढले मन तथा इन्द्रियों को अपने साथ-साथ ले जाना होता है।

23 अध्यात्मवादियों का सम्बन्ध आध्यात्मिक शरीर से होता है। फलस्वरूप अपनी भक्ति, तपस्या, योगशक्ति तथा दिव्य ज्ञान के बल पर वे भौतिक जगत के भीतर तथा बाहर अबाध रूप से विचरण कर सकते हैं। किन्तु सकाम-कर्मी या निपट भौतिकतावादी इस तरह मुक्त रूप से कभी विचरण नहीं कर सकते।

24 हे राजन, जब योगी सर्वोच्च लोक ब्रह्मलोक पहुँचने के लिए प्रकाशमान सुषुम्णा द्वारा आकाश-गंगा के ऊपर से गुजरता है, तो वह सर्वप्रथम अग्निदेव के ग्रह वैश्वानर पर जाता है, जहाँ वह सारे कल्मषों से परिशुद्ध हो जाता है। तब वह भगवान हरि से तादात्म के लिए उससे भी ऊपर शिशुमार चक्र को जाता है।

25 यह शिशुमार चक्र सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के घूमने की कीली है और यह विष्णु (गर्भोदकशायी विष्णु) की नाभि कहलाती है। केवल योगी ही इस शिशुमार चक्र को पार करता है और ऐसे लोक (महर्लोक) को प्राप्त करता है, जहाँ भृगु जैसे परिशुद्ध हो चुके महर्षि 4,30,00,00,000 (चार अरब तीस करोड़) सौर वर्षों की आयु भोगते हैं। यह लोक उन सन्तों द्वारा भी पूजित है, जो अध्यात्मपद को प्राप्त हैं।

26 सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के अन्तिम संहार के समय (ब्रह्मा के जीवन के अन्त में), अनन्त के मुख से (ब्रह्माण्ड के नीचे से) अग्नि की ज्वाला फूट निकलती है। योगी ब्रह्माण्ड के समस्त लोकों को भस्म होकर राख होते हुए देखता है और वह शुद्धात्माओं द्वारा प्रयुक्त होनेवाले वायुयानों के द्वारा सत्यलोक के लिए प्रस्थान करता है। सत्यलोक में जीवन की अवधि दो परार्ध अर्थात 1,54,80,00,00,00,000 (एक नील चौवन खरब अस्सी अरब) सौर वर्ष आँकी जाती है।

27 सत्यलोक में न तो शोक है, न बुढ़ापा, न मृत्यु। वहाँ किसी प्रकार की वेदना नहीं है, जिसके कारण किसी तरह की चिन्ता भी नहीं है। हाँ कभी-कभी चेतना के कारण उन लोगों पर दया उमड़ती है, जो भक्तियोग से अवगत न होने से भौतिक जगत के दुर्लंघ्य कष्टों को भोग रहे हैं।

28 सत्यलोक पहुँचकर भक्त विशेष रूप से अपने सूक्ष्म शरीर से, अपने स्थूल शरीर जैसी पहचान में निर्भय होकर समाविष्ट हो जाने में सक्षम होता है और क्रमश: वह भूमि से जल, अग्नि, तेज तथा वायु की अवस्थाएँ पार करता हुआ अन्त में आकाश की अवस्था में पहुँच पाता है।

29 इस प्रकार भक्त विभिन्न इन्द्रियों के सूक्ष्म विषयों को पार कर जाता है, यथा सूँघने से सुगन्धि को, चखने से स्वाद को, स्वरूप देखने से दृष्टि को, सम्पर्क द्वारा स्पर्श को, आकाशीय पहचान से कान के कम्पनों को तथा भौतिक कार्य-कलापों से इन्द्रियों को।

30 इस तरह से भक्त स्थूल तथा सूक्ष्म आवरणों को पार करके अहंकार के स्तर में प्रवेश करता है। उस अवस्था में वह भौतिक गुणों (रजो तथा तमो गुणों) को इस उदासीन बिन्दु में विलीन कर देता है और इस तरह वह सतोगुणी अहंकार को प्राप्त होता है। इसके पश्चात सारा अहंकार महत तत्त्व में विलीन हो जाता है और वह शुद्ध आत्म-साक्षात्कार के बिन्दु तक आता है।

31 केवल विशुद्धात्मा ही पूर्ण आनन्द तथा तुष्टि के साथ अपनी वैधानिक अवस्था में भगवान के साथ संगति करने की पूर्णता प्राप्त कर सकता है। जो कोई भी ऐसी भक्तिमयी पूर्णता को पुनः जागृत करने में समर्थ होता है, वह इस भौतिक जगत के प्रति फिर से आकृष्ट नहीं होता और इसमें लौटकर कभी नहीं आता।

32 हे महाराज परीक्षित, आप इतना जान लें कि मैंने आपकी समुचित जिज्ञासा के प्रति जो भी वर्णन किया है, वह वेदों के कथनानुसार है और वही सनातन सत्य है। इसे साक्षात भगवान कृष्ण ने ब्रह्मा से कहा था, क्योंकि वे ब्रह्मा द्वारा समुचित रूप से पूजे जाने पर उनसे प्रसन्न हुए थे।

33 जो लोग भौतिक विश्व में भटक रहे हैं, उनके लिए भगवान कृष्ण की प्रत्यक्ष भक्ति से बढ़कर मोक्ष का कोई अधिक कल्याणकर साधन नहीं है।

34 महापुरुष ब्रह्मा ने ध्यानपूर्वक तथा अत्यन्त मनोयोग से वेदों का तीन बार अध्ययन किया और उनकी भलीभाँति संवीक्षा कर लेने के बाद, वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के प्रति आकर्षण (रति) ही धर्म की सर्वोच्च सिद्धि है।

35 आत्मा के साथ भगवान श्रीकृष्ण प्रत्येक जीव में उपस्थित हैं और जब हम देखते हैं तथा बुद्धि की सहायता लेते हैं, तब हमें इस तथ्य का अनुभव होता है और इसकी परिकल्पना की पुष्टि होती है।

36 हे राजन, अतएव यह आवश्यक है कि प्रत्येक मनुष्य सर्वत्र तथा सदैव पुरुषोत्तम भगवान का श्रवण करे, गुणगान करे तथा स्मरण करे।

37 जो लोग भक्तों के अत्यन्त प्रिय भगवान कृष्ण की अमृत-तुल्य कथा को कर्णरूपी पात्रों से भर-भर कर पीते हैं, वे भौतिक भोग के नाम से विख्यात दूषित जीवन-उद्देश्य को पवित्र कर लेते हैं और इस प्रकार पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर के चरणकमलों में भगवदधाम को वापस जाते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय एक – ईश अनुभूति का प्रथम सोपान (2.1)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

हे सर्वव्यापी परमेश्वर, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, आपका प्रश्न महिमामय है, क्योंकि यह समस्त प्रकार के लोगों के लिए बहुत लाभप्रद है। इस प्रश्न का उत्तर श्रवण करने का प्रमुख विषय है और समस्त अध्यात्मवादियों ने इसको स्वीकार किया है।

2 हे सम्राट, भौतिकता में उलझे उन व्यक्तियों, जो परम सत्य विषयक ज्ञान के प्रति अन्धे हैं, उनके पास मानव समाज में सुनने के लिए अनेक विषय होते हैं।

3 ऐसे ईर्ष्यालु गृहस्थ (गृहमेधी) का जीवन रात्रि में या तो सोने या मैथुन में रत रहने तथा दिन में धन कमाने या परिवार के सदस्यों के भरण-पोषण में बीतता है।

4 आत्मतत्त्व से विहीन व्यक्ति जीवन की समस्याओं के विषय में जिज्ञासा नहीं करते, क्योंकि वे शरीर, बच्चे तथा पत्नी रूपी विनाशोन्मुख सैनिकों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं। पर्याप्त अनुभवी होने के बावजूद भी वे अपने अवश्यम्भावी विनाश (मृत्यु) को नहीं देख पाते।

5 हे भरतवंशी, जो समस्त कष्टों से मुक्त होने का इच्छुक है, उसे उन भगवान का श्रवण, महिमा-गायन तथा स्मरण करना चाहिए जो परमात्मा, नियन्ता तथा समस्त कष्टों से रक्षा करने वाले हैं।

6 पदार्थ तथा आत्मा के पूर्ण ज्ञान से, योगशक्ति के अभ्यास से या स्वधर्म का भलीभाँति पालन करने से मानव जीवन की जो सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त की जा सकती है, वह है जीवन के अन्त में भगवान का स्मरण करना।

7 हे राजा परीक्षित, मुख्यतया सर्वोच्च आध्यात्मवादी, जो विधि-विधानों एवं प्रतिबन्धों से ऊपर है, वे भगवान का गुणगान करने में आनन्द का अनुभव करते हैं।

8 द्वापर युग के अन्त में मैंने अपने पिता श्रील द्वैपायन व्यासदेव से श्रीमदभागवत नाम के इस महान वैदिक साहित्य के अनुपूरक ग्रन्थ का अध्ययन किया, जो समस्त वेदों के तुल्य है।

9 हे राजर्षि, मैं अध्यात्म में दृढ़तापूर्वक, पूर्ण रूप से स्थित था, तथापि मैं उन भगवान की लीलाओं के वर्णन के प्रति आकृष्ट हुआ, जिनका वर्णन प्रबुद्ध उत्तम श्लोकों द्वारा किया जाता है।

10 मैं उसी श्रीमदभागवत को आपको सुनाने जा रहा हूँ, क्योंकि आप भगवान कृष्ण के सर्वाधिक निष्ठावान भक्त हैं। जो व्यक्ति श्रीमदभागवत को पूरे ध्यान से तथा सम्मानपूर्वक सुनता है, उसे मोक्षदायक परमेश्वर की अविचल श्रद्धा प्राप्त होती है।

11 हे राजन, महान अधिकारियों का अनुगमन करके भगवान के पवित्र नाम का निरन्तर कीर्तन उन समस्त लोगों के लिए सफलता का निःसंशय तथा निर्भीक मार्ग है, जो समस्त भौतिक इच्छाओं से मुक्त हैं, अथवा जो समस्त भौतिक भोगों के इच्छुक हैं और उन लोगों के लिए भी, जो दिव्य ज्ञान के कारण आत्मतुष्ट हैं।

12 ऐसे दीर्घ जीवन से क्या लाभ, जिसे इस संसार में वर्षों तक अनुभवहीन बने रहकर गँवा दिया जाये? इससे तो अच्छा है पूर्ण चेतना का एक क्षण, क्योंकि इससे उसके परम कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है।

13 राजर्षि खटवांग को जब यह सूचना दी गई कि उनकी आयु का केवल एक क्षण (मुहूर्त) शेष है, तो उन्होंने तुरन्त अपने आपको समस्त भौतिक कार्यकलापों से मुक्त करके परम रक्षक भगवान की शरण ले ली।

14 हे महाराज परीक्षित, अब आपकी आयु के और सात दिन शेष है। अतएव इस अवधि में आप उन समस्त अनुष्ठानों को सम्पन्न कर सकते हैं, जो आपके अगले जीवन के परम कल्याण के लिए आवश्यक है।

15 मनुष्य को चाहिए कि जीवन के अन्तकाल में मृत्यु से तनिक भी भयभीत न हो, अपितु वह भौतिक शरीर से तथा उससे सम्बन्धित सारी वस्तुओं एवं उससे सम्बन्धित समस्त इच्छाओं से अपनी आसक्ति तोड़ ले।

16 मनुष्य को घर छोड़कर आत्मसंयम का अभ्यास करना चाहिए। उसे तीर्थस्थानों में नियमित रूप से स्नान करना चाहिए और ठीक से शुद्ध होकर एकान्त स्थान में आसन जमाना चाहिए।

17 मनुष्य उपर्युक्त विधि से आसन जमा कर, मन को तीन दिव्य अक्षरों (,,) का स्मरण कराये और श्वास-विधि को नियंत्रित करके मन को वश में करे, जिससे वह दिव्य बीज को नहीं भूले।

18 धीरे-धीरे जब मन उत्तरोत्तर आध्यात्मिक हो जाय, तो उसे इन्द्रिय-कार्यों से खींच लिया जाय (विलग कर लिया जाय)। इससे इन्द्रियाँ बुद्धि द्वारा वशीभूत हो जायेंगी। इससे भौतिक कार्य-कलापों में लीन मन भी भगवान की सेवा में प्रवृत्त किया जा सकता है और पूर्ण दिव्य भाव में स्थिर हो सकता है।

19 तत्पश्चात, श्रीविष्णु के पूर्ण शरीर की अवधारणा को हटाये बिना, एक-एक करके विष्णु के अंगों का ध्यान करना चाहिए। इस तरह मन समस्त इन्द्रिय-विषयों से मुक्त हो जाता है। तब चिन्तन के लिए कोई अन्य वस्तु नहीं रह जानी चाहिए। चूँकि भगवान विष्णु परम सत्य हैं, अतएव केवल उन्हीं में मन पूर्ण रूप से निमग्न हो जाता है।

20 मनुष्य का मन सदैव भौतिक प्रकृति के रजोगुण द्वारा विचलित और तमोगुण द्वारा मोहग्रस्त होता रहता है। किन्तु मनुष्य ऐसी धारणाओं को भगवान विष्णु के सम्बन्ध द्वारा ठीक कर सकता है और इस तरह उनसे उत्पन्न गन्दी वस्तुओं को स्वच्छ करके शान्त बन सकता है।

21 हे राजन, स्मरण की इस विधि से तथा परमेश्वर के सर्वथा कल्याणमय व्यक्तिगत रूप के ही सर्वत्र दर्शन करने के अभ्यास में स्थिर होकर मनुष्य शीघ्र ही भगवान की भक्तिमय सेवा उनके प्रत्यक्ष आश्रय में प्राप्त कर सकता है।

22 सौभाग्यशाली राजा परीक्षित ने आगे पूछा: हे ब्राह्मण, कृपा करके विस्तार से यह बतायें कि मन को कहाँ और कैसे लगाया जाये ? और धारणा को किस तरह स्थिर किया जाय कि मनुष्य के मन का सारा मैल हटाया जा सके ?

23 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया: मनुष्य को चाहिए कि आसन को नियंत्रित करे, यौगिक प्राणायाम द्वारा श्वास-क्रिया को नियमित करे और इस तरह मन तथा इन्द्रियों को वश में करे। फिर बुद्धिपूर्वक मन को भगवान की स्थूल शक्तियों (विराट रूप) में लगाये।

24 घटनाओं से भरे सम्पूर्ण भौतिक जगत की यह विराट अभिव्यक्ति परम सत्य का व्यक्तिगत शरीर है, जिसमें ब्रह्माण्ड के भौतिक काल के फलरूप भूत, वर्तमान तथा भविष्य का अनुभव किया जाता है।

25 सात प्रकार के भौतिक तत्त्वों के द्वारा प्रच्छन्न ब्रह्माण्डीय खोल (आवरण) के भीतर स्थित भगवान का विराटकाय ब्रह्माण्डीय स्वरूप विराट धारणा का विषय है।

26 जिन पुरुषों ने इसकी अनुभूति की है, उन्होंने यह अध्ययन किया है कि पाताल नाम से जाने जानेवाले ग्रहमण्डल विराट पुरुष के पाँव के तलवे हैं तथा उनकी एड़ियाँ और पंजे रसातल ग्रह-समूह हैं। टखने महातल लोक हैं तथा उनकी पिण्डलियाँ तलातल लोक हैं।

27 विश्व-रूप के घुटने सुतल नामक लोक हैं तथा दोनों जाँघें वितल तथा अतल लोक हैं। कटि-प्रदेश महीतल है और उसकी नाभि का गड्डा बाह्य अन्तरिक्ष है।

28 विराट रूप वाले आदि पुरुष की छाति ज्योतिष्क (स्वर्ग) लोक है, उनकी गर्दन महर्लोक है, उनका मुख जनःलोक है और उसका मस्तक तप:लोक है। सर्वोच्च लोक, जिसे सत्यलोक कहते हैं, एक हजार सिरों (मस्तिष्कों) वाले उन आदि पुरुष का सिर है।

29 इन्द्र इत्यादि देवता उन विराट पुरुष की बाँहें हैं, दसों दिशाएँ उनके कान हैं और भौतिक ध्वनि उनकी श्रवणेंद्रिय है। दोनों अश्विनीकुमार उनके नथुने हैं तथा भौतिक सुगन्ध उनकी घ्राणेंद्रिय है। उनका मुख प्रज्ज्वलित अग्नि है।

30 बाह्य अन्तरिक्ष उनकी आँखों के गड्डे हैं तथा देखने की शक्ति के लिए सूर्य उनके नेत्र-गोलक है। दिन तथा रात उनकी पलकें हैं और उनकी भृकुटी की गतियों में ब्रह्मा तथा अन्य महापुरुषों का निवास होता है। जल का अधीश्वर वरुण उनका तालु तथा सभी वस्तुओं का रस या सार उनकी जीभ है।

31 वे कहते हैं कि वैदिक स्तोत्र भगवान के मस्तक हैं और मृत्यु के देवता तथा पापियों को दण्ड देनेवाले यम उनकी दाढ़े हैं। स्नेह की कला ही उनके दाँतों की पंक्ति हैं और सर्वाधिक मोहिनी माया ही उनकी मुस्कान है। यह भौतिक सृष्टि रूपी महान सागर हमारे पर डाली गई उनकी चितवन स्वरूप हैं।

32 लज्जा भगवान का ऊपरी होंठ है, लालसा उनकी ठुड्डी है, धर्म उनका वक्ष:स्थल तथा अधर्म उनकी पीठ है। भौतिक जगत में समस्त जीवों के जनक ब्रह्माजी उनकी जननेन्द्रिय हैं और मित्रा-वरुण उनके दोनों अंडकोश हैं। सागर उनकी कमर है और पर्वत उनकी अस्थियों के समूह हैं।

33 हे राजन, नदियाँ उस विराट शरीर की नसें हैं, वृक्ष उनके रोम हैं और सर्वशक्तिमान वायु उनकी श्वास है। व्यतीत होते हुए युग उनकी गति तथा प्रकृति के तीनों गुणों की प्रतिक्रियाएँ ही उनके कार्यकलाप हैं।

34 हे कुरुश्रेष्ठ, जल ले जानेवाले बादल उनके सिर के बाल हैं, दिन या रात्रि की सन्धियाँ उनके वस्त्र हैं तथा भौतिक सृष्टि का परम कल्याण ही उनकी बुद्धि है। चन्द्रमा ही उनका मन है, जो समस्त परिवर्तनों का आगार है।

35 पदार्थ का सिद्धान्त (महत-तत्त्व) सर्वव्यापी भगवान की चेतना है, जैसा कि विद्वानों ने बल देकर कहा है तथा रुद्रदेव उनका अहंकार है। घोड़ा, खच्चर, ऊँट तथा हाथी उनके नाखून हैं तथा जंगली जानवर और सारे चौपाये भगवान के कटि-प्रदेश में स्थित हैं।

36 विभिन्न प्रकार के पक्षी उनकी दक्ष कलात्मक रुचि के सूचक हैं। मानवजाति के पिता मनु, उनकी आदर्श बुद्धि के प्रतीक हैं और मानवता उनका निवास है। गन्धर्व, विद्याधर, चारण तथा देवदूत जैसे दैवी मनुष्य उनके संगीत की लय को व्यक्त करते हैं और आसुरी सैनिक उनकी अद्भुत शक्ति के प्रतिरूप हैं।

37 विराट पुरुष का मुख ब्राह्मण है, उनकी भुजाएँ क्षत्रिय हैं, उनकी जाँघें वैश्य हैं तथा शूद्र उनके चरणों के संरक्षण में हैं । सारे पूज्य देवता उनमें सन्निहित हैं और यह प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि भगवान को प्रसन्न करने के लिए यथासम्भव वस्तुओं से यज्ञ सम्पन्न करे।

38 इस प्रकार मैंने आपको भगवान के स्थूल भौतिक विराट रूप की अवधारणा का वर्णन किया। जो व्यक्ति सचमुच मुक्ति की इच्छा करता है, वह भगवान के इस रूप पर अपने मन को एकाग्र करता है, क्योंकि भौतिक जगत में इससे अधिक कुछ भी नहीं है।

39 मनुष्य को अपना मन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान में एकाग्र करना चाहिए, क्योंकि वे ही अपने आप को इतने सारे रूपों में उसी तरह वितरित करते हैं, जिस तरह की सामान्य मनुष्य स्वप्न में हजारों रूपों की सृष्टि करता है। मनुष्य को अपना मन उन पर एकाग्र करना चाहिए, जो एकमात्र सर्वथा आनन्दमय परम सत्य हैं। अन्यथा मनुष्य पथभ्रष्ट हो जायेगा और खुद अपने पतन का कारण बनेगा।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय उन्नीस – श्रील शुकदेव गोस्वामी का प्रकट होना(1.19)

1 श्री सूत गोस्वामी ने कहा: घर लौटते हुए राजा (महाराज परीक्षित) ने अनुभव किया कि उन्होंने निर्दोष तथा शक्तिमान ब्राह्मण के प्रति अत्यन्त जघन्य तथा अशिष्ट व्यवहार किया है। फलस्वरूप वे अत्यन्त उद्विग्न थे।

2 [राजा परीक्षित ने सोचा:] भगवान के आदेशों की अवहेलना करने से मुझे आशंका है कि निश्चित रूप से निकट भविष्य में मेरे ऊपर कोई संकट आनेवाला है। अब मैं बिना हिचक के कामना करता हूँ कि वह संकट अभी आ जाय, क्योंकि इस तरह मैं पापपूर्ण कर्म से मुक्त हो जाऊँगा और फिर ऐसा अपराध नहीं करूँगा।

3 मैं ब्राह्मण सभ्यता, ईश्वर चेतना तथा गोरक्षा के प्रति उपेक्षा करने के फलस्वरूप अशिष्ट तथा पापी हूँ। अतएव मैं चाहता हूँ कि मेरा राज्य, मेरा पराक्रम तथा मेरा धन ब्राह्मण की क्रोधाग्नि से तुरन्त भस्म हो जाय, जिससे भविष्य में ऐसे अशुभ विचारों से मेरा मार्गदर्शन न होने पाए।

4 जब राजा इस तरह पश्चाताप कर रहे थे, तो उन्हें अपनी आसन्न मृत्यु का समाचार प्राप्त हुआ, जो मुनि पुत्र द्वारा दिये गए शाप के अनुसार सर्प-पक्षी के काटने से होनी थी। राजा ने इसे शुभ समाचार के रूप में ग्रहण किया, क्योंकि इससे उन्हें सांसारिकता के प्रति विराग उत्पन्न होगा।

5 महाराज परीक्षित आत्म-साक्षात्कार की अन्य समस्त विधियों को छोड़कर अपने मन को कृष्णभावनामृत में एकाग्र करने के लिए गंगा नदी के तट पर दृढ़तापूर्वक बैठ गये, क्योंकि कृष्ण की दिव्य प्रेममयी सेवा सर्वोच्च उपलब्धि है और अन्य समस्त विधियों को मात करनेवाली है।

6 यह नदी (गंगा, जिसके किनारे राजा उपवास करने बैठे थे) अत्यन्त शुभ जल धारण करती है, जिसमें भगवान के चरण-कमलों की धूल तथा तुलसीदल मिश्रित रहते हैं। अतएव यह जल तीनों लोकों को भीतर-बाहर से पवित्र बनाता है और शिवजी तथा अन्य देवताओं को भी पवित्र करता है। अतएव जिसकी मृत्यु निश्चित हो, उसे इस नदी की शरण ग्रहण करनी चाहिए।

7 इस प्रकार, पाण्डवों की सुयोग्य सन्तान, राजा ने दृढ़ संकल्प किया और आमरण उपवास करने तथा भगवान कृष्ण के चरणकमलों में अपने आप को समर्पित करने के लिए, वे गंगा नदी के तट पर बैठ गये, क्योंकि एकमात्र कृष्ण ही मुक्ति दिलाने में समर्थ हैं। इस प्रकार उन्होंने अपने आपको समस्त संगतियों तथा आसक्तियों से मुक्त करके मुनि का व्रत स्वीकार किया ।

8 उस अवसर पर बड़े-बड़े मेधावी विचारक, अपने शिष्यों के संग एवं अपनी उपस्थिति के द्वारा तीर्थ-स्थानों को निश्चय ही पवित्र करनेवाले मुनिगण तीर्थयात्रा के बहाने वहाँ आ पहुँचे।

9-10 ब्रह्माण्ड के विभिन्न भागों से बड़े-बड़े मुनि वहाँ आये यथा – अत्री, च्यवन, शरद्वान, अरिष्टनेमि, भृगु, वसिष्ठ, पराशर, विश्वामित्र, अङ्गिरा, परशुराम, उतथ्य, इन्द्रप्रमद, इध्मवाहु, मेधातिथि, देवल, आर्षटिसेण, भारद्वाज, गौतम, पिप्पलाद, मैत्रेय, और्व, कवष, कुम्भयोनि, द्वैपायन तथा महापुरुष नारद।

11 इनके अतिरिक्त वहाँ अनेक देवर्षि, राजा तथा विभिन्न मुनियों के वंशज विशिष्ट राजा आये थे, जिन्हें अरुणादय कहा जाता है। जब वे सब सम्राट (परीक्षित) से मिलने के लिए एकत्र हुए, तो राजा ने सबको शीश नमाकर प्रणाम करते हुए समुचित ढंग से उनका स्वागत किया।

12 जब सारे ऋषियों तथा अन्य लोगों ने सुखपूर्वक आसन ग्रहण कर लिया, तो उनके समक्ष हाथ जोड़कर खड़े हुए राजा ने आमरण व्रत करने का अपना संकल्प बतलाया।

13 भाग्यशाली राजा ने कहा: निस्सन्देह मैं समस्त राजाओं में अत्यन्त धन्य हूँ, जो आप जैसे महापुरुषों का अनुग्रह प्राप्त करने के अभ्यस्त है। सामान्यतया, आप (ऋषि) लोग राजाओं को किसी दूर स्थान में फेंका जाने योग्य कूड़ा समझते हैं।

14 आध्यात्मिक तथा प्राकृत जगतों के नियन्ता भगवान ने ब्राह्मण-शाप के रूप में मुझ पर अत्यन्त कृपा की है। गृहस्थ जीवन में अत्यधिक आसक्त रहने के कारण, मुझे बचाने के लिए भगवान मेरे समक्ष इस तरह प्रकट हुए हैं कि मैं भयवश अपने आपको संसार से विरक्त कर लूँ।

15 हे ब्राह्मणों, आप मुझे पूर्ण रूप से शरणागत के रूप में स्वीकार करें और भगवान की प्रतिनिधि-स्वरूपा माँ गंगा भी मुझे इसी रूप में स्वीकार करें, क्योंकि मैं पहले से अपने हृदय में भगवान के चरणकमलों को धारण किये हूँ। अब चाहे तक्षक नाग, या ब्राह्मण द्वारा उत्पन्न कोई भी चमत्कारी वस्तु, मुझे तुरन्त डस ले। मेरी एकमात्र इच्छा यह है कि आप सब भगवान विष्णु की लीलाओं का गायन करते रहें।

16 मैं आप समस्त ब्राह्मणों को पुनः नमस्कार करके यही प्रार्थना करता हूँ कि यदि मैं इस भौतिक जगत में फिर से जन्म लूँ, तो अनन्त भगवान कृष्ण के प्रति मेरी पूर्ण आसक्ति हो, उनके भक्तों की संगति प्राप्त हो और समस्त जीवों के साथ मैत्री-भाव रहे।

17 पूर्ण आत्म-संयम से, महाराज परीक्षित पूर्वाभिमुख जड़ोवाले कुशों के बने हुए, गंगा के दक्षिणी तट पर रखे, आसन पर बैठ गये और उन्होंने अपना मुख उत्तर की ओर कर लिया। इसके पूर्व उन्होंने अपने साम्राज्य का सारा भार अपने पुत्र को सौंप दिया था ।

18 इस प्रकार महाराज परीक्षित आमरण उपवास करने के लिए बैठ गये। स्वर्गलोक के सारे देवता राजा के इस कार्य की प्रशंसा करने लगे और हर्ष-विभोर होकर पृथ्वी पर निरन्तर पुष्प-वर्षा करने लगे तथा दैवी नगाड़े बजाने लगे।

19 वहाँ पर एकत्र हुए सारे ऋषियों ने भी महाराज परीक्षित के निर्णय को सराहा और "बहुत अच्छा (साधु-साधु)” कहकर उन्होंने अपना अनुमोदन व्यक्त किया। स्वभावतः मुनिगण सामान्य लोगों का कल्याण करने के लिए उन्मुख रहते हैं, क्योंकि उनमें परमेश्वर के सारे गुण पाये जाते हैं। अतएव वे भगवान के भक्त महाराज परीक्षित को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और इस प्रकार बोले।

20 (मुनियों ने कहा): हे भगवान श्रीकृष्ण की परम्परा का पालन करनेवाले पाण्डुवंशी राजर्षियों के प्रमुख! यह तनिक भी आश्चर्यप्रद नहीं कि आप अपना वह सिंहासन, जो अनेक राजाओं के मुकुटों से सुसज्जित है, भगवान का नित्य सान्निध्य प्राप्त करने के लिए त्याग रहे हैं।

21 हम सभी यहाँ पर तब तक प्रतीक्षा करेंगे, जब तक भगवान के प्रमुख भक्त महाराज परीक्षित परम लोक को लौट नहीं जाते, जो समस्त संसारी कल्मष तथा समस्त प्रकार के शोक से पूर्ण रूप से मुक्त है।

22 महान ऋषियों ने जो कुछ कहा, वह सुनने में अति सुमधुर, सार्थक तथा यथार्थ रूप से प्रस्तुत किया गया पूर्ण सत्य था। अतएव उन्हें सुनने के बाद महाराज परीक्षित ने भगवान श्रीकृष्ण के कार्यकलापों के विषय में सुनने की इच्छा से महर्षियों का अभिनन्दन किया।

23 राजा ने कहा: हे महर्षियों, आप ब्रह्माण्ड के कोने-कोने से आकर यहाँ पर कृपापूर्वक एकत्र हुए हैं। आप सभी परम ज्ञान के मूर्तिमंत स्वरूप हैं, जो तीनों लोकों के ऊपर के लोक (सत्यलोक) का वासी है। फलस्वरूप आपकी स्वाभाविक प्रवृत्ति अन्यों का कल्याण करने की है और इसके अतिरिक्त इस जीवन में या अगले जीवन में आपकी अन्य कोई रुचि नहीं है।

24 हे विश्वासपात्र ब्राह्मणों, अब मैं अपने वर्तमान कर्तव्य के विषय में पूछ रहा हूँ। कृपया पूर्ण विचार-विमर्श के पश्चात, मुझे सभी परिस्थितियों में हर एक के कर्तव्य के विषय में और विशेष रूप से जो तुरन्त मरनेवाला हो (मरणासन्न), उसके कर्तव्य के विषय में बतलाईये।

25 उसी समय व्यासदेव के शक्तिसम्पन्न पुत्र वहाँ प्रकट हुए, जो सम्पूर्ण पृथ्वी पर उदासीन तथा आत्म-तुष्ट होकर विचरण करते रहते थे। उनमें किसी सामाजिक व्यवस्था या जीवन-स्तर (वर्णाश्रम-धर्म) का कोई लक्षण प्रकट नहीं होता था। वे स्त्रियों तथा बच्चों से घिरे थे और इस प्रकार का वेश धारण किये थे, मानों सभी लोगों ने उन्हें उपेक्षित (अवधूत) समझ रखा हो।

26 श्री व्यासदेव के इस पुत्र की आयु केवल सोलह वर्ष थी। उनके पाँव, हाथ, जाँघें, भुजाएँ, कंधे, ललाट तथा शरीर के अन्य भाग अत्यन्त सुकोमल तथा सुगठित बने थे। उनकी आँखें सुन्दर, बड़ी-बड़ी तथा नाक और कान उठे हुए थे। उनका मुखमण्डल अत्यन्त आकर्षक था और उनकी गर्दन सुगठित एवं शंख जैसी सुन्दर थी।

27 उनकी हँसली मांसल थी, छाती चौड़ी तथा मोटी, नाभि गहरी तथा उदर सुन्दर धारियों से युक्त था। उनकी भुजाएँ लम्बी थीं, उनके घुँघराले बाल सुन्दर मुखमण्डल पर बिखरे हुए थे, दिशाएँ उनका वस्त्र थीं और उनके शरीर की कान्ति भगवान कृष्ण जैसी प्रतिबिम्बित हो रही थी।

28 वे श्यामल वर्ण के तथा अपनी युवावस्था के कारण अत्यन्त सुन्दर थे। अपने शरीर की कान्ति तथा आकर्षक मुसकान के कारण, वे स्त्रियों के लिए मोहक थे। यद्यपि वे अपनी प्राकृतिक महिमा को छिपाने का प्रयत्न कर रहे थे, तो भी वहाँ पर उपस्थित सारे महर्षि रूपाकृति शास्त्र में पटु थे, अतएव सबों ने अपने-अपने आसन से उठकर उनका सम्मान किया।

29 महाराज परीक्षित जिन्हें विष्णुरात (अर्थात सदैव विष्णु द्वारा रक्षित) के नाम से भी जाना जाता है, उन्होंने मुख्य अतिथि श्रील शुकदेव गोस्वामी का स्वागत करने के लिए अपना मस्तक झुकाया । उस समय सारी अल्पज्ञ स्त्रियाँ तथा बालकों ने श्री श्रील शुकदेव गोस्वामी का पीछा करना छोड़ दिया। सबों से सम्मान प्राप्त करके, श्रील शुकदेव गोस्वामी अपने श्रेष्ठ आसन पर विराजमान हुए।

30 तब श्रील शुकदेव गोस्वामी साधु, मुनियों तथा देवताओं से इस तरह घिरे हुए थे जिस तरह चन्द्रमा तारों, नक्षत्रों तथा अन्य आकाशीय पिण्डों से घिरा रहता है। उनकी उपस्थिति अत्यन्त भव्य थी और वे सबों द्वारा सम्मानित हुए।

31 तब प्रखर मुनि श्री श्रील शुकदेव गोस्वामी पूर्ण शान्त भाव से बैठ गये। वे किसी भी प्रश्न का निःसंकोच होकर, बुद्धिमत्ता से उत्तर देने के लिए तैयार थे। तब महान भक्त महाराज परीक्षित उनके पास पहुँचे और उन्होंने उनके समक्ष सिर झुकाकर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर मधुर वाणी से विनीत होकर पूछा।

32 भाग्यशाली राजा परीक्षित ने कहा: हे ब्राह्मण, आपने कृपा करके यहाँ पर मेरे अतिथि के रूप में उपस्थित होकर, हम सबों के लिए तीर्थस्थल बनाकर हमें पवित्र बना दिया है। आपकी कृपा से हम अयोग्य राजा भक्त की सेवा करने के सुपात्र बनते हैं।

33 आपके स्मरण मात्र से हमारे घर तुरन्त पवित्र हो जाते हैं। तो आपको देखने, स्पर्श करने, आपके पवित्र चरणों को धोने तथा अपने घर में आपको आसन प्रदान करने के विषय में तो कहना ही क्या?

34 जिस प्रकार भगवान की उपस्थिति में नास्तिक नहीं टिक सकता, उसी तरह हे सन्त, हे महान योगी, मनुष्य के अभेद्य पाप भी आपकी उपस्थिति में तुरन्त नष्ट हो जाते हैं।

35 भगवान कृष्ण जो राजा पाण्डु के पुत्रों को अत्यन्त प्रिय हैं, उन्होंने अपने महान भाँजों तथा भाइयों को प्रसन्न करने के लिए मुझे भी सम्बन्धी की तरह स्वीकार किया है।

36 अन्यथा (भगवान कृष्ण की प्रेरणा के बिना) यह कैसे सम्भव है कि आप स्वेच्छा से यहाँ प्रकट हुए, जबकि आप सामान्य लोगों से ओझल रहकर विचरण करते हैं और हम मरणासन्नों को दृष्टिगोचर नहीं होते।

37 आप महान सन्तों तथा भक्तों के गुरु हैं। अतएव मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप सारे व्यक्तियों के लिए और विशेष रूप से जो मरणासन्न हैं, उनके लिए पूर्णता का मार्ग दिखलाइये।

38 कृपया मुझे बतायें कि मनुष्य को क्या सुनना, जपना, स्मरण करना तथा पूजना चाहिए और यह भी बतायें कि उसे क्या-क्या नहीं करना चाहिए। कृपा करके मुझे यह सब बतलाइये।

39 हे शक्तिसम्पन्न ब्राह्मण, कहा जाता है कि आप लोगों के घर मुश्किल से उतनी देर भी नहीं रुकते हैं, जितनी देर में गाय दुही जाती है।

40 श्री सूत गोस्वामी ने कहा: इस तरह मीठी भाषा का प्रयोग करते हुए राजा ने बातें की तथा प्रश्न किये। तब व्यासदेव के पुत्र जो महान तथा शक्तिसम्पन्न पुरुष एवं धर्मवेत्ता थे, उन्होंने उत्तर देना प्रारम्भ किया।

इस प्रकार श्रीमद भागवतम (प्रथम स्कन्ध) के समस्त अध्यायों के भक्ति वेदान्त श्लोकार्थ पूर्ण हुए।

-::हरि ॐ तत् सत्::-

समर्पित एवं सेवारत-जगदीश चन्द्र माँगीलाल चौहान

 

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